रविवार, 29 नवंबर 2015

नया आकाश : मनीष कुमार सिंह






   भारत सरकार,सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय में प्रथम श्रेणी अधिकारी। पहली कहानी 1987 में नैतिकता का पुजारी लिखी।  विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं यथा-हंस,कथादेश,समकालीन भारतीय साहित्‍य,साक्षात्‍कार,पाखी,दैनिक भास्कर, नयी दुनिया, नवनीत, शुभ तारिका, अक्षरपर्व,लमही, कथाक्रम, परिकथा, शब्‍दयोग, ‍इत्‍यादि में कहानियॉ प्रकाशित। पॉच  कहानी-संग्रह  आखिरकार (2009), धर्मसंकट(2009), अतीतजीवी (2011), वामन अवतार (2013), और ’आत्‍मविश्‍वास (2014) प्रकाशित। ऑगन वाला घर शीर्षक से एक उपन्‍यास प्रकाशनाधीन।

    समाज में फैल रही सामाजिक बुराइयों जिनमें लड़कियों के प्रति पैशाचिक सोच वालों से सचेत रहने की जिस मार्मिक पीड़ा से एक मां गुजर रही है उसकी महीन बुनावट इस कहानी में बखूबी देखा जा सकता है। कहानी के बारे में बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं है । तो आइये पढ़ते हैं मनीष कुमार सिंह की कहानी  नया आकाश
              
नया आकाश
 
     मॉ ने आवाज देकर रिमझिम को पार्क से बुलाया,'' कितनी देर से तेरा इंतजार कर रही थी ...... दिन भर खेलती रहेगी या पढ़ाई में भी कुछ ध्‍यान देगी ?''


     ''कहॉ मम्‍मी, आधा घंटा पहले ही तो निकली थी। देखो ना सारे बच्‍चे खेल रहे हैं। अभी टाइम ही कितना हुआ है!‍'' उसने घड़ी में अंकित समय की बात न करके चारों ओर फैली सूरज की रोशनी की तरफ इशारा किया। दिन ढ़लने में वाकई काफी समय शेष था। मॉ ने इस पर ध्‍यान न देकर कहा, ''पहले घर चलो फिर बात करेंगे।''

      रास्ते में मॉ ने समझाने का काम आर‍म्भ किया। ''देखो बेटी, पार्क में खेलने वाले सारे लोगों से हमें क्‍या मतलब। तुम अब बड़ी क्‍लास में आ गयी हो। जमाना ठीक नहीं है। अपनी पढ़ाई की तरफ देखो। पार्क में कई तरह के लोग आते हैं। परसों मैंने देखा कि एक कोने में तुम दो लड़कों के साथ पौधा रोप रही थी। रिमझिम, जमाना ठीक नहीं है।'' वाक्‍‍यांश का अर्थ व आशय वह समझ नहीं पायी, न ही कई तरह के लोगों की बात उसके पल्‍ले पड़ी। पर पौधा लगाने की बात पर उसने कहा, ''मम्मी, हमारे स्‍कूल में इन्‍वायरनमेंट अवेयरनेस पर मैडम सिखाती हैं कि स्‍टूडेंटस् को खाली जमीन पर पेड़ लगाने चाहिए। हरियाली से हमें ऑक्‍सीजन मिलती है। मैं वही कर रही थी। वे लड़के हमारे स्‍कूल के ही हैं। पास में उनका घर है।''

       अब तक घर आ गया था। मॉ ने बड़े प्‍यार से कहा, ''देखो बेटी, वह सब ठीक है, लेकिन तुम लड़की जात हो। तुम्‍हें अपनी हिफाजत करना सीखनी चाहिए। तुम अभी तक बच्‍ची बनी हुई हो। ऐसे कैसे चलेगा?'' रिमझिम पुन: अपनी मॉ की बात का संदर्भ नहीं समझ पायी। वह कमरे में मौजूद पेंटिंग और हस्‍तकला के नमूने देखने लगी। इनमें से कुछ उसने बनाये थे। उसने सोचा कि मॉ पढ़ाई पर ध्‍यान देने की बात कह रही है। बोली, ''मम्‍मी, मेरे मार्क्‍स पिछले यूनिट टेस्‍ट में कितने अच्‍छे आये थे! पूर्णिमा और रुचि को भी पीछे छोड़ दिया था। मैं पढ़ती तो हॅू। अब क्‍या दिन भर घर में बैठकर बोर होऊॅ? मम्‍मी, आपने टी.वी. भी तो बंद करवा दिया है।''

     ''बेटा, तुम्‍हारे भले के लिए ही ना,'' मॉ वास्‍तम में बेहद गम्‍भीर थी, ''तुम अखबार नहीं पढ़ती हो? टी.वी. में खबरें नहीं देखती?'' मॉ ने अप्रत्‍यक्ष रुप से किसी दिशा में संकेत किया। रिमझिम अपनी धुन में खोयी हुई थी। मॉ ने समझ लिया कि उसकी तेरह साल की लड़की को न तो बात समझ में आ रही है और न ही वह ध्‍यान दे रही है। गुस्‍से को दबाकर उसने शांति से कहा, ''बेटा, यह दुनिया इतनी सीधी नहीं है, तुम अभी बच्‍ची हो।'' यह कहकर उसने अपनी पुत्री को और असमंजस में डाल दिया। अभी तो मॉ उसे बड़ी मान रही थीं। देर तक चले इस एकतरफा सम्‍बोधन में मॉ ने देखा कि रिमझिम अपनी पेंसिल से कागज पर लकीरें खींचती तो कभी हफ्ते भर पहले खरीदी गयी अपनी ब्रेसलेट को निकालती और पहनती। बात की समाप्ति मॉ ने यह कहकर किया कि अगर कुछ ऊॅच-नीच हुआ तो वह पंखे से लटक कर अपनी जान दे देगी, क्‍योंकि उसके लिए इज्‍जत जान से ज्‍यादा प्‍यारी है।  

      अखबारों व टी.वी. में ऐसी-वैसी खबरें आती रहती थी, पर पिछले दिनों जब मॉ को लगातार यह पढ़ने को मिला कि तीन महीने से लेकर तेरह साल की बच्चियों को अस्‍पताल के डॉक्‍टरों, कर्मचारियों, निकट सम्‍बन्धियों, नितांत परिचित लोगों, बड़ी उम्र के पड़ोसियों व अनजान व्‍यक्तियों ने अपनी हवस का शिकार बनाया तो वह कॉप उठी। किस पर यकीन करे? चौबीसों घंटे कैसे बच्‍ची की सुरक्षा करे? इसी रिहायशी इलाके में जब ऐसी दो घटनाऍ एक के बाद एक अल्‍प अंतराल पर हुई तो वह अपनी सहेलियों व पड़ोसिनों से इस पर चर्चा करने को विवश हुई। घरेलू औरतों की चर्चा कैसी होगी! सबने इस भय को किसी और घटना से जोड़कर और वृहद् किया तथा भगवान का नाम लेकर रह गयीं। कुछेक ने टी.वी.ए फिल्‍मों को कोसा तो कोई पुलिस की नाकामयाबी को मुख्‍य दोषी मानती थी। एकाध ने तो घर के संस्‍कारों को भी दोष दिया। यह बताया कि कैसे यहीं पर उनके जान-पहचान के घरों में लड़कियों को उनके घरवालों ने कितनी उलटी-सीधी छूट दे रखी है। सारा दोष औरों का नहीं है। कुछ घर का नियंत्रण भी होना चाहिए। इस बात पर मॉ पूर्णतया सहमत दिखी। उस महिला ने खास तौर पर एक घर का इस विषय में जिक्र किया। मॉ उस चीज को पकड़कर रखना चाहती थी जो उसके नियंत्रण में था। दुनिया-जहान को सुधारा नहीं जा सकता है, लेकिन खुद अपनी औलाद को तो समझा सकते हैं।

     एक किशोर लड़की ने अपने हाल में बने मित्र के साथ घरवालों को बिना इत्तिला किये घूमना-फिरना शुरु किया। एक दिन कुछ असामाजिक तत्‍वों ने लड़के को मार-पीटकर अधमरा कर दिया और लड़की के सम्‍मान को नष्‍ट किया। इस बात पर दुख प्रकट करने के अलावा महिलाओं ने प्राय: एक स्‍वर में लड़की की अतिरिक्‍त स्‍वतंत्रता को गलत ठहराया। क्‍या जरुरत थी एक अनजान से लड़के के साथ घूमने की? क्‍या जानती थी वह उसके बारे में?

      मॉ ने निश्‍चय किया कि वह अपने पति से इसी दम बात करेगी। लड़की के बारे में मॉ को हर बात पिता को नहीं बतानी चाहिए। पर यह सवाल ऐसा था जो माता-पिता दोनों को मिलकर हल करना था। उसकी बेटी भोली है। दुनिया से अनजान है लेकिन प्राकृतिक द्दष्टि से बड़ी हो गयी है। बड़ी होती जा रही है। शरीर के हिसाब से समझ विकसित नहीं हुई है। यह सदैव आनुपातिक हो कोई जरुरी नहीं। जमाना हाड़-मांस को देखता है। मन का भोलापन नहीं। अब देखो ना, इसी की क्‍लास की दूसरी लड़कियॉ कितनी तेज हैं। राह चलते वह उसी के उम्र की लड़कियों को कई लड़कों के साथ घूमते देखती हैं।

      वैसे तो‍ घरवालों ने रिमझिम को अलग से कोई मोबाइल नहीं दिया था। वह अपनी मॉ की मोबाइल पर गेम खेलती थी। इधर कुछ दिनों से उसकी एक सहेली का एस.एम.एस. आता था। एक दिन मॉ ने इनबॉक्‍स में देखा कि वैलेन्‍टाइन डे की पूर्वसंध्‍या पर कुछेक ऐसे एस.एम.एस. थे जो इस उम्र की लड़कियों के लिए बेहद बेहूदे कहे जाएगें। ''तुम्‍हारी ऐसी लड़कियों से दोस्‍ती है? इस तरह की बातें करते हैं।'' वह फट पड़ी। ''मैं तुम्‍हारे क्‍लास टीचर से मिलॅूगी। अपनी संगत ठीक रखो।''

      ''मैंने क्‍या किया है?'' वह बेचारी परेशान होकर पूछ बैठी। समझ नहीं पा रही थी कि आजकल उसकी मॉ इतना सब क्‍यों उसे सुनाती-समझाती रहती है। ''तुमने कुछ किया नहीं है...,'' मॉ ने अपने प्रारम्भिक आवेश को पीछे रखकर धैर्यपूर्वक अभिभावकीय दायित्‍व से आगे कहने लगी, ''पर मैं समझा रही हॅू कि आज जमाना कैसा है, लड़की को क्‍या-क्‍या सावधानी रखनी चाहिए।''

       मॉ को अपनी मॉ की कही बात याद आयी। लड़की की मॉ की पीछे भी ऑखें होनी चाहिए। घर में रिमझिम के पापा से दीर्घ वार्ता के पश्‍चात् वे इसी निष्‍कर्ष पर पहॅुची कि मॉ-बाप के आर्त्‍त कोलाहल से द्रवित होकर भेडि़ए अपने कारनामे बंद नहीं कर देगें। अपना ध्‍यान खुद रखना होगा। कहीं और से नवीन आलोक विकीर्ण होने की सम्‍भावना क्षीण है। रिमझिम मासूम है। इस विषय में उन्‍हें कोई संशय नहीं था। अपनी औलाद है। उसके बारे में सब जानती है। पर घर के बाहर स्‍कूल है, सड़कें-पार्क हैं, सहेलियों का प्रभाव है। लम्‍पट लोग शिक्षक, पड़ोसी आदि के वेष में हो सकते हैं, कैसे निपटे उनसे....? एक बार रिक्‍शे से आते हुए एक बड़े स्‍कूल परिसर के बाहर मॉ ने देखा कि विद्यार्थियों का हुजूम इकठ्ठा था। छुट्टी का समय होगा। बारहवीं तक का स्‍कूल था। एक लड़की दो-तीन लड़कों के साथ कुछ अलग बैठकर मोबाइल पर कुछ कह रही थी। वह असहमतिपरक मुद्रा में सिर हिलाने लगी। क्‍या जमाना आ गया है! अभी से...।

       बाहर वाले कमरे में पतिदेव अपने किसी मित्र से बात कर रहे थे। मित्र की आवाज आ रही थी-''इंसान खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने तक में आज कंजूसी कर सकता है लेकिन सिक्‍यूरिटी के सवाल पर कम्‍प्रोमाइज नहीं कर सकता। आजकल पढ़े-लिखे तबके इसी बेसिस पर आर्गेनाइज्‍ड हुए हैं। नहीं तो साहब आज कौन किससे बिना किसी रिजन के बात करता है?'' मित्र के विचार पर पति सहमति दर्शा रहे थे। यहॉ बैठी मॉ ने यही अनुमान लगाया। मित्र ने आगे कहा, ''भई आजकल नौकरों, सिक्‍यूरिटी गार्ड्स इन सभी का पुलिस वेरिफिकेशन होता है। फिर भी क्राइम का आलम यह है कि किसी को किसी पर भरोसा नहीं रहा। जनाब ज्‍वाइंट फैमिली अब रही नहीं। पुराने संस्‍कार कौन सिखाएगा? नये जमाने के बच्‍चे स्‍कूल-कॉलेज, इंटरनेट, टी.वी., फिल्‍मों वगैरह से ज्‍यादा इंफ्लुएंस होते हैं। कई मॉ-बाप के पास टाइम नहीं है अपनी औलाद के साथ समय गुजारने का।'' थोड़े में उन्‍होंने समकालीन समाज का विहंगम चित्र प्रस्‍तुत किया।

     बैठे-बैठे मॉ की कब ऑख लग गयी पता नहीं चला। उसे सहसा  यह प्रतीत हुआ कि रिमझिम उसे हिलाकर उठाने का प्रयास कर रही है- मम्‍मी देखो मुझे नवरात्रि में किसी ने नहीं बुलाया। पहले मैं सभी आंटी के यहॉ जाती थी। मॉ की ऑख खुल नहीं रही थी। तभी उसे रिमझिम की द्रवित करने वाली पुकार दुबारा सुनाई दी। उसे ऑख बंद किये हुए ही दिखाई दिया कि चार का‍ले भुजंग मुस्‍तंडे उसकी बेटी को ले जाने के लिए उद्यत हैं। वह डर के मारे टेबल के नीचे छिप गयी है। घबराहट में मॉ की नींद तुरंत टूट जाती है। वह दौड़कर उसके कमरे की तरफ भागी। वह पलंग पर आराम से सोयी हुई थी। मॉ ने नाम लेकर उसे हिलाया। लेकिन वह गहरी नींद में थी। उसने गौर किया कि रिमझिम च्‍युइंगम मॅुह मे लिए ही सो गयी थी। वैसे तो उसके विकास को देखकर अपनी उम्र से बड़ी दिखती थी, परंतु सोती हुई वह बेहद छोटी दिख रही थी। मॉ के मन में आया कि वह शिव की भॉति विरुपक्ष होकर बिना किसी को दिखाई दिए हमेशा उसके साथ रहे। यदि अपनी सुविधानुसार ऐसा निराकार रुप धारण करना सम्‍भव होता तो वह यही करती।

 पता- एफ-2, 4/273, वैशाली
 गाजियाबाद, उत्‍तर प्रदेश
पिन-201010
मोबाइल: 09868140022
ईमेल: manishkumarsingh513@gmail.com

सोमवार, 23 नवंबर 2015

वह और मैं : डॉ. अंगद कुमार सिंह

    

     
     डॉ. अंगदकुमार सिंह का जन्म 15 अक्टूबर, 1981 को गोरखपुर जिलान्तर्गत माल्हनपार गाँव में हुआ था | इन्होंने 2003 में हिन्दी साहित्य में एम. ए. किया तथा 2009 में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की | इनकी ‘समकालीन हिन्दी पत्राकारिता और परमानन्द श्रीवास्तव’, ‘प्रतिमानों के पार’(संयुक्त लेखन), ‘शब्दपुरुष’(संयुक्त लेखन), ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’(संयुक्त लेखन) पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है | इनके लेख परिकथा, नवसृष्टि, मगहर महोत्सव, आज, मुक्त विचारधारा, चौमासा, कथाक्रम, लाइट ऑफ नेशन जैसी अनेक पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं | सम्प्रति ये वीरबहादुर सिंह पी. जी. कॉलेज, हरनही, गोरखपुर में हिन्दी विभाग के प्रभारी तथा असिस्टेण्ट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं तथा पूर्वांचल हिन्दी मंच, गोरखपुर के मन्त्री के दायित्त्व का निर्वहन कर रहे हैं |

 डॉ. अंगद कुमार सिंह की कविता-

 वह और मैं                                                       

याद जब तेरी आती 
नींद-चैन नहीं आता है
फिरता हूँ मारा-मारा
भटकता हूँ दर्रा- दर्रा
रास्ता नहीं सूझता
दीखता  न किनारा
मिलता न ठाँव कहीं
ठौर न ठिकाना
आगे जो कदम बढ़ाता
पैर जाते पीछे
गिरता हूँ तेरी याद को लपेटे ।
नींद में मेरे करीब वह होती
जागने पर वह पास न होती
बूझ न पाता हुआ क्या मुझे है
कोई बताये, उपाय सुझाये
अक्ल न आये तुम्हें कैसे पाएं
कोई जगाए रास्ता दिखाये
वह जो मिल जाये
जीवन सफल हो जाये
आवागमन से उपराम हो जाये |


 -डॉ. अंगद कुमार सिंह

सोमवार, 16 नवंबर 2015

संस्मरण -लौट के बुद्धू घर को आए (भाग-एक)-पद्मनाभ गौतम

 

    कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’  की  तीसरी किस्त-- । आपके विचारों की प्रतीक्षा में-
                                                                                     सम्पादक -पुरवाई 

     अगले दिन मार्ग खुल गया था। मैं कम्पनी की गाड़ी में कार्यालय पहुँचा। आज मेरे शरीर का पोर-पोर दुख रहा था। वह अफसर, जिसने मुझे सीढ़ीनुमा खेतों से होकर कार्यालय तक पहुंचाया था, अब मुझसे कुछ अजीब सा व्यवहार कर रहा था, जैसे उसका मेरे प्रति कोई पूर्वाग्रह हो। बहुत समय पश्चात् मुझे साफ हुआ कि वह मुझे डराकर रखना चाहता था। कारण था कार्य की जिम्मेदारियों में उस सहित कम्पनी के कुछ अफसरों की बेईमानियों का मार्ग मेरी कलम के नीचे से होकर गुजरना। इस कारण वह आरंभ से ही मुझे अपने काबू में रखना चाहता था।  

       अगले तीन-चार दिन मौसम साफ ही रहा। मैं आरंभिक व्यवस्थाओं में लगा था। इस बीच मैंने कम्पनी से मिले एक मकान में पलंग-आलमारी इत्यादि की व्यवस्था की, जिससे कि रामपुर में प्रतीक्षा कर रहे परिवार को भरमौर ला सकूँ। वैसे भी, अभी मेरी पत्नी मानसिक रूप से अकेले रहने के दृष्टिकोण से परिपक्व व अनुभवी नहीं थी। दूसरे, बिटिया केवल दो माह की थी। अतः अब शीघ्रातिशीघ्र रामपुर जाकर परिवार को साथ लेकर आना था।

      पर अभी यह मेरी चुनौतियों का आरम्भ ही था। कुछ दिनों तक आसमान साफ रहने के पश्चात् एक दिन बरसात हुई और उसके पीछे बर्फबारी होने लगी। पहले तो रुई के फाहों के समान हल्की-हल्की बर्फ गिरती रही। लोगों ने अनुमान लगाया कि एक-दो दिन में बर्फबारी रुक जाएगी। इसके विपरीत, आरंभिक एक-दो दिनों के पश्चात् बर्फबारी का जोर बढ़ गया। बर्फबारी से एक बार फिर मार्ग अवरुद्ध हो गया। मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि बर्फबारी रुके तो मार्ग खुलने पर मैं रामपुर-बुशैहर वापस जाऊँ। परंतु बर्फ का गिरना कम ही नहीं हो रहा था। फरवरी महीने की छठवीं तारीख तक भरमौर में चार-चार फुट बर्फ गिर चुकी थी। स्थानीय लोगों ने बताया कि पिछले एक दशक के पश्चात् ऐसी बर्फबारी देखी गई है। आगे कई दिनों तक मार्ग खुलता नहीं दिखाई पड़ रहा था।

           अब तक हमारे पास सब्जियाँ समाप्त हो गई थीं। मार्ग अवरुद्ध होने के कारण चम्बा से सब्जियों की खेप नहीं आ पाई। कम्पनी के मेस में केवल चावल तथा दाल ही बचा था राशन के नाम पर। सात फरवरी को प्रातः काल बिजली भी चली गई। अब मोबाईल में बैटरी का संकट था अर्थात् घर से संवाद का साधन भी हाथ से जाने वाला था। उधर रामपुर में परिवार पड़ोसियों के सहारे था। सात फरवरी की शाम को घर से फोन आया। पत्नी ने बताया कि घर में चोर घुसा था। यह सुनकर मेरे तो होश ही उड़ गए। कोढ़ में खाज इसे ही कहते हैं। अब परिवार की सुरक्षा का भी प्रश्न था। गनीमत थी कि पत्नी की पुकार सुन कर मुहल्ले वाले दौड़े तथा रात में ही चोर को पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया। किंतु अब मेरे मन में शांति नहीं थी। मेस में जाने पर देखा तो राशन का हाल खराब था। रसोइये ने सूचना दी कि गैस-सिलिंडर का स्टॉक भी समाप्त हो रहा है। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था। आगे जाने का मार्ग अवरुद्ध था। मेस में राशन नहीं था। बच्चे पराए शहर में पड़ोसियों के भरोसे। घर में चोरी की घटना। मेरा मन पूर्णतया विचलित था।

        पर यही तो पहाड़ों का असली जीवन है। हरे-भरे पहाड़, जो दूर से इतने सुंदर और दर्शनीय लगते हैं, उन पर जीवन उतना सहज नहीं। अत्यंत मनोरम व सुदर्शन दिखने वाले पर्वत कभी-कभी अत्यंत कठोर हो जाते है। जब आप पहाड़ पर घूमने आते हैं तो पहले-पहल सम्मोहित रह जाते हैं। अंग्रेजी वाले वाऽव का उच्चारण करते नहीं थकते, हिन्दी वाले अद्भुत का और उर्दू वाले   सुभानअल्लाह का। कुछ समय पश्चात् फिर मुँह से यह विस्मयादि बोधक व हर्ष सूचक शब्द निकलने बन्द हो जाते हैं। सानिध्य में कुछ और दिन बीतने पर पहाड़ वैसे ही लगने लगते हैं जैसे किसी मैदानी नगर का कोई सामान्य भौगोलिक दृश्य।  फिर आप पहाड़ों से लौट चलने का मन बना लेते हैं। यह अप्रतिम सौन्दर्य तब तक सौन्दर्य है, जब तक आप एक पर्यटक हैं। पर्यटक, जो सुखद वातावरण में पर्यटन कर प्राकृतिक सौंदर्य को मन में बसाए लौट जाता हैं। किंतु प्रतिकूल मौसम में पहाड़ों के असली जीवन के दर्शन मिलते हैं। जब बर्फबारी व भूस्खलन इत्यादि से मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, ऐसे में कोई यदि गम्भीर रूप से बीमार पड़ जाए तो उसे शीघ्रता से चिकित्सा सुविधा मिल पाना अत्यंत कठिन होता है। हृदयाघात या स्ट्रोक इत्यादि की स्थिति में तो मृत्यु अवश्यंभावी होती है। 

           सन् दो हजार आठ के फरवरी माह के उस दूसरे सप्ताह में पहाड़ मेरे सामने अपने असल भयावह रूप मे ंसामने खड़ा था। निराशा ने मुझे पूरी तरह से घेर लिया था। तभी आशा की एक किरण दिखी। कुछ स्थानीय कर्मचारी अगले दिन पैदल भरमौर से निकलने का विचार कर रहे थे। अब तक की सूचना के अनुसार भरमौर से केवल तेरह किलोमीटर आगे खड़ामुख तक मार्ग अवरुद्ध था। उसके आगे मार्ग खुला था। अतः प्रातः खड़ामुख तक पैदल चलने के पश्चात् चम्बा हेतु कोई न कोई टैक्सी मिल जाएगी, यह उनका विचार था। यह वे पहाड़ी लड़के थे, जो अपना एक अलग गुट बना कर चलते थे तथा मैदानी इलाकों से आए लोगों के साथ कम घुलते मिलते थें। उनका लीडर वह अधिकारी ही था, जिसने पहले दिन मुझे परियोजना कार्यालय पहुँचाया था। जाहिर है कि उन्होंने मुझे अपने साथ ले जाने में कोई रुचि नहीं दिखाई। परंतु मेरे लिए इतना ही पर्याप्त था। 

     रात के खाने के समय बातचीत करते हुए मेरे साथ एक दक्षिण भारतीय अधिकारी तथा ललितपुर का एक नौजवान इंजीनियर साथ चलने को तैयार हो गया। तय हुआ कि अगली सुबह हम तीनों पैदल चल पड़ेंगे। दिनांक आठ फरवरी को नाश्ता करके हम चलने को तैयार हुए। परियोजना निदेशक भटनागर साहब ने हमें बुजुर्गाना सलाह दी कि हम चुपचाप वहीं रहें और जो कुछ भी रूखा-सूखा है, वह खाकर अवरुद्ध मार्ग के खुलने की प्रतीक्षा करें। परंतु मैं घर पहुँचने को व्यग्र था तथा अब मुझमें इतना संयम नहीं बचा था कि रुक कर बर्फबारी के थमने की प्रतीक्षा करूँ। मेरी परिस्थिति अन्य थी। उधर मोबाईल की बैटरी भी अंतिम साँसे गिन रही थी। बिजली नदारद थी तथा उसके जल्द आने का कोई कारण नहीं दिख रहा था। अतः अब तो मुझे सारे खतरे उठाकर भी रामपुर पहुँचना था। कैसे भी, किसी भी कीमत पर।

                                              क्रमशः

पद्मनाभ गौतम

सहायक महाप्रबंधक

भूविज्ञान व यांत्रिकी

तीस्ता चरण-टप् जल विद्युत परियोजना

पूर्वी सिक्किम, सिक्किम

737134
संपर्क-
 द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा

स्कूल पारा बैकुण्ठपुर

जिला-कोरिया छ.ग.

497335


शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

किसे मानूँ : अशोक बाबू माहौर





     मध्य प्रदेश के मुरैना जिला में 10 जनवरी 1985 को जन्में अशोक बाबू माहौर का इधर रचनाकर्म लगातार जारी है। अब तक इनकी रचनाएं रचनाकार, स्वर्गविभा, हिन्दीकुंज, अनहद कृति आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं।

     ई.पत्रिका अनहद कृति की तरफ से विशेष मान्यता सम्मान 2014.2015 से अलंकृति । प्रस्तुत है इनकी एक कविता किसे मानूँ


अशोक बाबू माहौर की कविता

किसे मानूँ

खड़े होकर 
चलना 
कब सीखा 
कब गिरना,फिसलना 
किसने उंगली थामी थीं
मेरी नन्ही 
किसने रुलाया 
मुझे 
किसने हँसाया,

पूछता हूँ 
खुद से 
रात में 
घनेरी रात में

आसमान नीला 
सूरज चमकता 
किसने कहा था 
मुझसे 
ये हैं चंदा मामा
लोरियाँ सुनाकर
सुलाया किसने 
किसने बालों को सँवारा,

पूछता हूँ 
खुद से 
रात में 
घनेरी रात में

टूटकर विखरने से पहले 
संभाला था मुझे 
पाठ पढ़ाया था 
जीवन का 
किसे मानूँ 
सहारा अपना 
ईश या माता 
या पिता को 
या सहयोग सबका,

पूछता हूँ 
खुद से 
रात में 
घनेरी रात में 
                   
संपर्क-
     कदमन का पुरा,तहसील-अम्बाह,
     जिला-मुरैना (मध्य प्रदेश) 476111 
      मो-09584414669 
      ईमेल-ashokbabu.mahour@gmail.com


शनिवार, 7 नवंबर 2015

संस्मरण -लौट के बुद्धू घर को आए (भाग-एक)-पद्मनाभ गौतम



         


           कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’  की दूसरी किस्त-- । आपके विचारों की प्रतीक्षा में-
                                                                              सम्पादक -पुरवाई





        इस नई नौकरी में मेरे पद भार ग्रहण करने का अनुभव ही अत्यंत नाटकीय रहा। अट्ठाईस जनवरी दो हजार आठ को मैंने रामपुर से भरमौर हेतु प्रस्थान किया तथा शिमला-कालका-अम्बाला कैंट के रास्ते उन्तीस जनवरी को प्रातः दस बजे पठानकोट पहुँचा। पठानकोट से भरमौर का मार्ग तकरीबन आठ घण्टे का है। लगभग पाँच घण्टे चम्बा और फिर वहाँ से तीन घंटे के आस-पास भरमौर। यह मार्ग बनीखेत होते हुए चम्बा जाने का अपेक्षाकृत कम घुमावदार पर्वतीय मार्ग है। डलहौजी-खज्जियार होकर चम्बा जाने के मार्ग में मोड़ अधिक हैं, अतः सामान्यतः पहला मार्ग ही अधिक उपयोग होता है। मैंने एक टैक्सी वाले से बात की जो मुझे भरमौर छोड़ने को तैयार हो गया। हम प्रातः काल लगभग साढ़े ग्यारह के आस-पास बनीखेत के मार्ग से भरमौर के लिए निकल पड़े।


          हमें रावी नदी के किनारे मनोरम पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य यात्रा कर चम्बा पहुँचते शाम के चार बज गए थे । देर हो रही थी अतः हम चम्बा में रुके बिना आगे बढ़ गए। हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी। मैंने कम्पनी के मानव संसाधन विभाग के प्रबंधक पाण्डेयजी से संपर्क किया, तो उन्होंने जानकारी दी कि भरमौर में बर्फबारी हो रही है। उनकी सलाह थी कि मैं चम्बा ही रुक जाऊँं। बर्फ गिरने पर सामान्यतः भरमौर का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, क्योंकि बर्फ गिरने से पूर्व भारी वर्षा होती है, जिससे कुछ चुनिंदा पहाड़ी नालों में निश्चितरूप से भूस्खलन हो जाता है। किंतु जब तक यह सूचना मिली, हम चम्बा से आगे निकल चुके थे। उन्होंने मुझे सुझाव दिया कि मैं चम्बा से बीस किलोमीटर दूर राख गाँव के लोक-निर्माण विभाग के विश्राम-गृह में रुक जाऊँ। शाम के छह बज रहे थे। राख पहुँच कर हमने विश्राम-गृह के चौकीदार से बात की। वह हमें कुछ रुपयों के बदले रुकने का स्थान देने को सहमत हो गया। अब तक बरसात भी तेज हो गई थी। टैक्सी ड्रªाईवर भी मेरे साथ रुक गया। राख गाँव में भोजन ढूँढ़ने पर कुछ खास नहीं मिला, तो राजमा और चावल खाकर हम विश्राम-गृह में सो रहे।


      प्रातःकाल प्रबंधक महोदय ने मुझे फोन पर बताया कि कम्पनी के एक अधिकारी चम्बा से कम्पनी की गाड़ी में भरमौर जा रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि भरमौर में बर्फबारी अधिक हुई है तथा भरमौर से कुछ किलोमीटर पहले चलैड़ धारनाम के भूस्खलन-बहुल स्थान पर मार्ग अवरुद्ध हो गया है। चूँकि कम्पनी की गाड़ी उपलब्ध थी, अतः मैंने टैक्सी ड्राईवर को वहीं से पूरा किराया देकर वापस भेज दिया तथा अधिकारी के साथ भरमौर चल पड़ा। चलैड़ धार तक हम जीप से सकुशल पहुँच गए। इस स्थान पर मार्ग अत्यंत संकीर्ण है। सावधानीपूर्वक धार का पचास मीटर लम्बा खतरनाक संकीर्ण मार्ग पार करने के पश्चात् अब हमें परियोजना कार्यालय तक पदयात्रा करनी थी। चलैड़ धार से परियोजना कार्यालय की दूरी कोई नौ किलोमीटर थी।


           मेरे साथी अधिकारी हमीरपुर जिले के रहने वाले थे, जो कि हिमाचल प्रदेश तथा पंजाब की सीमा पर स्थित है। पहाड़ी होने के कारण वे पहाड़ी मार्गों पर पैदल चलने के अभ्यस्त थे, परंतु मेरे लिए वह अनुभव कठिनाई भरा था। भरमौर समुद्रतल से कोई 2400 मीटर की ऊँचाई पर है। वहीं परियोजना का बाँध 1500 मी. की ऊँचाई पर है। बाँध के पास ही परियोजना का कार्यालय था। अतः हमें लगभग 800 मीटर की उतराई पैदल उतरना था। हिमपात इतना था कि पैदल चलना कठिन हो रहा था। हम चम्बा-भरमौर मार्ग पर भरमौर से कोई तीन किलोमीटर पहले सुकूँ की टपरीनाम के तिराहे पर पहुँचे। यहाँ से हमें ढलवाँ मार्ग से नीचे उतरना था। यह मार्ग कोई चार-पाँच किलोमीटर लम्बा था। चूँकि उन अधिकारी को किसी कार्यवश शीघ्र कार्यालय पहुँचना था, अतः उन्होंने मुरुम की सड़क के स्थान पर सीढ़ीनुमा खेतों से होते हुए कार्यालय जाने का मार्ग चुना। यदि वे चाहते तो कम खड़ी उतराई वाले मार्ग से मुझे ले जाते। परंतु उन्हें काम पर पहुँचने की हड़बड़ी थी तथा मेरी कठिनाई का आभास भी नहीं था।

       सीढ़ीनुमा खेतों से वह श्रीमान शीघ्रता के साथ नीचे उतर रहे थे। चूँकि रात के आराम के पश्चात् मैं भी स्वस्थ्य महसूस कर रहा था, अतः कुछ देर तो जोश में मैं भी उनके साथ बराबरी से चलता रहा। परंतु सीढ़ीनुमा खेतों की उतराई पर कुछ सौ मीटर चलने के पश्चत् मेरे घुटनों पर जोर पड़ने लगा। पैर जवाब दे रहे थे, जांघें भर आई थीं, किंतु उन महोदय ने बिना रुके उतरना जारी रखा। लगभग 800 मीटर की खड़ी चढ़ाई उतरने के पश्चात् मैं अधमरा हो चुका था तथा किसी तरह प्रकार से नीचे उतर रहा था। लगभग घिसटते हुए जब मैं मानव संसाधन विभाग के दफ््तर पहुँचा तो प्रबंधक ने मुझसे कहा बैठिए। पीछे से व्यंग्यात्मक आवाज़ आई- बिठाओ नहीं, लिटाओ। मुड़कर देखा तो यह कम्पनी का वह अफ़सर था जिसने मुझे कैम्प तक पहुँचाया था। उसके होंठों पर एक कुटिलतापूर्ण मुस्कान थी। बहुत समय के बाद मुझे उसकी उस कुटिल मुस्कान का अर्थ समझ में आया। संक्षेप में इतना कि वह मुझे परियोजना में टिकनेे नहीं देना चाहता था (जो कि निजी क्षेत्र की नौकरियों का एक सामान्य अनुभव है, तथा जिसका मैं अब तक पूरी तरह से अभ्यस्त हो चुका था)। खैर, चाय इत्यादि पीकर, पदभार ग्रहण करने की औपचारिकता पूर्ण करने के पश्चात् मैं अपने सहकर्मियों से मुलाकात करता रहा। इस दौरान मुझे पीठ पीछे हँसने की आवाजें सुनाई देती रहीं। मुड़ कर देखने पर सब ऐसा व्यवहार कर रहे थे जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।

            कम्पनी ने मेरे रुकने का प्रबंध भरमौर के अतिथि-गृह में किया था। मुझे फिर से आठ किलोमीटर पद यात्रा कर भरमौर पहुँचना था। अब तक मेरी जो दुर्दशा हो चुकी थी, उसके पश्चात् यह आसान नहीं था। घुटनों तथा जाँघों में तेज दर्द हो रहा था। उधर अब तक हिमपात तो पूरी तरह से रुक गया था, परंतु मार्ग अब तक खुला नहीं था। मेरे अनुरोध करने पर कुछ लड़के मेरे साथ कम चढ़ाई वाले मार्ग से चलने को तैयार हो गए। धीरे-धीरे चलते हुए हम लम्बे रास्ते से पैदल चलकर हम भरमौर पहुँचे। जब मैं शाम को बिस्तर पर पहुँचा तो अधमरा था। मोटे और मुलायम कम्बल में घुसते ही मुझे नींद आ गई और नींद के कारण खानसामे का लाया भोजन टेबल पर ही रखा रह गया।
क्रमशः

पद्मनाभ गौतम
सहायक महाप्रबंधक
भूविज्ञान व यांत्रिकी
तीस्ता चरण-टप् जल विद्युत परियोजना
पूर्वी सिक्किम, सिक्किम
737134

संपर्क-
            द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा
स्कूल पारा बैकुण्ठपुर
जिला-कोरिया छ.ग.
497335

बुधवार, 4 नवंबर 2015

संस्मरण - लौट के बुद्धू घर को आए (भाग-एक)-पद्मनाभ गौतम


           कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - लौट के बुद्धू घर को आए को आज से पढ़ेंगे किस्तों में । आपके विचारों की प्रतीक्षा में-
                                                                              सम्पादक -पुरवाई


       हिमाचल प्रदेश का भरमौर कस्बा उन कुछ स्थानों में से एक है, जिसे हिमाचल प्रदेश के दुर्गम स्थानों में से एक कहा जाता है। पांगी-भरमौर, लाहौल-स्पीति घाटी, किन्नौर का ’कोल्ड डेजर्ट’ काजा, रिकांगपियो और पूह, इन सभी स्थानों में जीवन अत्यंत कठिन माना जाता है। एक समय था, जब किसी सरकारी कर्मचारी को एक नियत समय तक तक पांगी-भरमौर तथा अन्य ऐसे ही चिन्हित दूरस्थ क्षेत्रों में अनिवार्य सेवा देनी होती थी। यह अनिवार्य सेवाकाल काला-पानी का दण्ड माना जाता था, जिसे कर्मचारी चिकित्सा तथा अन्य अर्जित अवकाश तथा फरलो के सहारे काटते। किसी ईमानदार कर्मचारी को अघोषित दण्ड देने के लिए भी उनकी पदस्थापना इन दुर्गम क्षेत्रों में कर दी जाती थी। वैसे तो सड़क निर्माण का कार्य करने वाले सरकारी संस्थानों ग्रेफ व सीमा सड़क संगठन ने इन दूरस्थ क्षेत्रों में काम चलाऊ इकहरे मार्ग बना दिए हैं, जो कि अब कहीं कहीं दोहरे मार्गों में भी परिवर्तित किए जा रहे हैं, फिर भी आज भी इन क्षेत्रों तक पहुँचना एक कठिनाई भरा अनुभव ही होता है। अपनी नौकरी के सिलसिले में मैंने भी भरमौर में लगभग दो वर्ष का समय बिताया। यद्यपि भरमौर का वह समय हमारे लिए सुखद ही रहा, परंतु नौकरी का पदभार ग्रहण करने का एक पखवाड़ा मेरे जीवन में एक ऐसा अनुभव दे गया जिसकी स्मृति आज भी तन में कंपकंपी उत्पन्न कर देती है। 

          यह किस्सा पिछले दशक का है। वर्ष दो हजार आठ के जनवरी माह के अंतिम सप्ताह में मैंने हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले की भरमौर तहसील में नई नौकरी का पदभार ग्रहण किया था। हिमाचल के ही किन्नौर जिले के रामपुर-बुशैहर नगर के पास निर्माणाधीन रामपुर जल विद्युत परियोजना में कार्य करते हुए यद्यपि मुझे अधिक समय व्यतीत नहीं हुआ था, किंतुु वह कार्य मेरे मनोनुकूल नहीं था। अतः जैसे ही पहला अवसर हाथ में आया, मैंने रामपुर जल विद्युत परियोजना से त्यागपत्र दे दिया तथा बुधिल जल विद्युत परियोजना में नौकरी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। नवीन कार्य मेरी रूचि के अनुकूल था। यहाँ मुझे यांत्रिक-भूगर्भशास्त्री के रूप में परियोजना के प्रमुख भूविज्ञानी का दायित्व निभाना था। पुरानी नौकरी में जहाँ मुझे सरकारी नुमाइंदों के इशारों पर नाचना पड़ रहा था, ़वहीं अब मैं गुणवत्तापरक इंजीनियरिंग निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र था। यहाँ पर मैं अपने पद के दायित्व का निर्वहन पूर्ण ईमानदारी के साथ कर सकता था।

       जब मैंने पद भार ग्रहण करने हेतु भरमौर के लिए प्रस्थान किया, तो कुछ समय के लिए परिवार को रामपुर-बुशैहर में ही छोड़ना पड़ा। कारण कि पदभार ग्रहण करने के पश्चात् सर्वप्रथम मुझे भरमौर में परिवार के रहने हेतु आवास की व्यवस्था करनी थी। कम्पनी के अतिथि-गृह में इतनी जगह नहीं होती कि मैं अपनी गृहस्थी का सामान उसमें रख पाता। चूँकि भरमौर में मकान की व्यवस्था के पश्चात् ही परिवार मेरे साथ जा सकता था, अतः पत्नी को बच्चों के साथ एक पखवाड़े के लिए रामपुर ही छोड़ गया था। तब मेरे बच्चे भी बहुत छोटे थे - बेटा मानस साढ़े चार साल का तथा बेटी सिद्धी केवल सवा दो माह की। उन्हें अपनी सहृदय मकान-मालकिन श्रीमती गौतम तथा पड़ोसियों के आसरे छोड़ कर एक दिन मैं भरमौर को निकल पड़ा। 


                                                                                                  क्रमशः

                                                                                             

पद्मनाभ गौतम
सहायक महाप्रबंधक
भूविज्ञान व यांत्रिकी
तीस्ता चरण-टप् जल विद्युत परियोजना
पूर्वी सिक्किम, सिक्किम
737134

संपर्क 
द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा
स्कूल पारा बैकुण्ठपुर
जिला-कोरिया छ.ग.
497335