रविवार, 31 जुलाई 2016

साथ जिनके थी सरलता : ठाकुर दास 'सिद्ध'







                                              14 सितम्बर 1958


शिक्षा- जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक । लेखन विधाएँ- गीत,ग़ज़ल,दोहे,सवैया,कविता,कहानी,व्यंग्य । प्रकाशित कृति- वर्ष 1995 में श्री प्रकाशन दुर्ग से ग़ज़ल संकलन 'पूछिए तो आईने से' संप्रति- छत्तीसगढ़ जल संसाधन विभाग में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत।

ग़ज़ल

साथ जिनके थी सरलता
                          

साथ जिनके थी सरलता,लुट गए बेजान से फिरते।  
वो बजाते गाल हर दम,और ये नादान से फिरते।।

भाल पर चंदन मले हैं,पाप में आकंठ डूबे जो।
लोग ऐसे सैकड़ों हैं,तान सीना शान से फिरते।।

बात थी ईमान सी नाचीज़ को ही,बेच देने की।
घर भरा होता तुम्हारा,और तुम धनवान से फिरते।।

भीड़ होती साथ जो,जयकार करती नाम का तेरे।  
गर उसूलों को जलाते,तुम अगर ईमान से फिरते।।

गर हुनर तुम सीख लेते दूसरों को लूट लेने का।
 ना घिसटती ज़िन्दगी यूँ ,तुम स्वयं के यान से फिरते।।

यार कोई गर मदद की,चाह लेकर पास में आता।  
ना उसे पहचानते तुम,बेझिझक पहचान से फिरते।।

और इक इन्सान का,हैवान होना देख कर यारो।
फ़र्क़ ना पड़ता किसी को, 'सिद्ध' ही हैरान से फिरते।।

 संपर्क –
  ठाकुर दास 'सिद्ध'
  सिद्धालय, 672/41,सुभाष नगर,
  दुर्ग-491001,(छत्तीसगढ़)
  मो-919406375695


शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

सुरेश सिंह की गढ़वाली कविता : गों की याद






सोचणूं छो मांजी बैठी मैं अपड़ा डेरा मा
ओंड़ लगीं छ याद मांजी अपड़ा गों गुठ्यार की
तुम्हारु मिथैं खांणू खलैक स्कूल भेजणुं
फिर बाठ मा लेंण क एै जांणू
आज ओंणीं छ याद मांजी गों विड्वाल सेरा की

तुम्हारु मिथैं अपड़ा हाथ न खलाणूं
दिन भर दोर-ढकी भीतर मा सिलाणूं
धांड -धंधा करीक मांजी ओंदा थैं तुम घोर
सरासर चुल्हू जगैक तुम्हारु खांणु बनाणुं
झोली झंगोरा मा थै रसांण, अर भ्वीम बैठिक खांणू
आज ओंणीं छ याद मांजी अपणीं स्यूं सार्यों की

कन  खंलोंदी थैं मांजी लोंण मा काखड़ी
आग मा भड़ेक कोदा की बालड़ी
सोंण -भादों मा पकीं मंगुरी बाठा की सग्वाड़ी
अफू विघेक ल्योंदी थैं मां सरासर तोड़ी
आज ओंणीं छ याद मांजी गाथ भरीं रोठ्यो की

भाई -बैणों की हंसी मजाक चोक विड़वाल उखर्याली मा
साट्यों की कुटै ह्वेंदी थै चाची-बढ़ी की गिंजाल्योन
कन रसाण थै मांजी तिल ,चीनी और भंगजीर मा
आज ओंणीं छ याद मांजी चुल्हा खांदी अर मंगशीर की

कन रसांण थै मांजी बढ़ी जी की कोदा रोठ्यों मां
तिल-म्वर्या की चटणी अर लैंदी गोड़ी का दूध मा
गाथ की गथ्वाणीं अर छोल्यों का पांणी मा
आज ओंणीं छ याद मांजी लैंदी भैंसी -गोड़ी की

रोट-अरसा बंणदा थैं मां,गों की ब्यो -बरात्यों मा
खांणू खांणा की रीति रिवाज,मालू का पत्तों मा
काली दास की पकोड़ी अर घर्या चोंलू का भात मा
आज ओंणीं छ याद मांजी , बार -त्योहार अर शरादू की


ढोल-दमाऊ अर मुसख्याबाजू, ब्यो -बरात्यों की शान छा
देवतों कू नाचणूं अर पूजा-पिइे कू मान छा
ब्योली-बर की डोली -पांलकी ,स्वरा-भारों की भेट छा
आज ओंणीं छ याद मांजी , ढोल-दमाऊ अर ओज्यों की

चैत का महीना की फुल-फुलेर ,देहली देहल्यो कू खयाल छा
फ्योंली अर घुघती का फूल , महीना भर कू त्योहार छा
द्यो-ध्याण्यों कू मैत आंणू थोला-मेलों कू बुलावा छा
आज ओंणीं छ याद मांजी , थोला-मेलों का नोंऊ की

कातिक महीना की भैला-बग्वाली,दीया-बत्ती कू त्योहार छा
दंशू-विदेशू मा गंया नोंना,घर ओंणा की तैयारी मा
बुढ्या बै-बाबू की आंखी लगीं , दूर-दराज बाठ्यों मा
आज ओंणीं छ याद मांजी ,अपणीं चोक-डिडाल्यों की

घर ओंणू छो मांजी मैं भी, छोड़ी यूं शैहरु
भीड़-भिड़ाका अर गाड़ी का हल्ला न पटगै ह्वेग्यों बैरु
यूं शहरु सी बडिया हमारी ,मथल्या छान बडिया छ
आज ओंणीं छ याद मांजी , अपड़ी डांडी काठ्यों की।

सुरेश सिंह
एम एस सी द्वितीय वर्ष 
मोबा0-9568995137

रविवार, 10 जुलाई 2016

अंजनी श्रीवास्तव की कविता : बेटियां








शिक्षा : बीएससी , पीजीडीएमएम , डीटीएम
कार्य : स्वतन्त्र पत्रकारिता एवं लेखन के सभी आयामों में देश भर में समय - समय पर प्रकाशित।
"ऑडियोग्राफी की उड़ान " , " ध्वनि के बाजीगर " एवं " दोहा संग्रह" , दोहों के दंश " , पुस्तकें प्रकाशित। 
" भोजपुरी सिनेमा : तब अब सब " प्रकाशनाधीन
कई हिंदी एवं भोजपुरी फिल्मों का संवाद एवं गीत  लेखन
संप्रति " दी साउन्ड एसोसिएशन आफ इंडिया " का  कार्यपालक सचिव

बेटियां

कल तक खन -खन  चूड़ियां बजाती  हुई ऊपले  थापने
घर के लिये भूख -प्यास पर भारी  पड़ने
नापी -जोखी  हुई जमीन  पर परिक्रमा करने
और आंसुओं  के ताल में मुस्कुराहटों  के कमल खिलाने वाली
साड़ी ,सिंदूर और चूड़ियों  तक  महदूद बेटियां  आज
  सिर्फ चला  रही  हैं ट्रैनें
बल्कि  चला रही  हैं देश  भी
सिर्फ भर नहीं  रहीं ,बैठे -बैठे सपनों  की उड़ान
बल्कि  हकीकत में उड़ाने  लगी हैं लड़ाकू विमान
विकास की परछाईयों  से बहुत  दूर
सुहागन बनकर आंगन  में  गंगा नहाती
पति के पांवों  में तीरथ धाम  तलाशती
जातकों  की निश्छल  हंसी  में मंजिलें छूती
धूप के फैलाव  में समय की सूई  टटोलती
एक जिस्म पर ओढ़कर ,रिश्तों के कई -कई  चादर
गर्दिश और गुमनामी के गर्द में नहाकर भी
जिस तरह करती है मन की सुंदरता को अभिव्यक्त
क्या कर पायेगी किसी प्रेमचंद की कलम
मकबूल की कूंची
और किसी सम्वेदनशील फिल्मकार  की सिने-कृति ?
घर की दहलीज पर
दुनिया का ग्लोब  देखती ,
चूल्हे के धुओं  में अपना अक्स निहारती
परम्पराओं  की लीक  पर
बंद आंखों  से डग भरती
इस खूंटे  से उस खूंटे तक बंधती
विपत्तियों  की बाढ़ में साहस के पतवार से
जिंदगी की नाव खेती बेटियां
तो बस बेटियां ही होती हैं -
जैसी साहूकार की वैसी चर्मकार की..



स्थाई पता : गीधा , भोजपुर (बिहार )


वर्तमान पता :
अंजनी श्रीवास्तव
ए - 223 , मौर्या हाऊस
वीरा इंडस्ट्रियल इस्टेट ऑफ ओशिवरा लिंक रोड
अंधेरी (पश्चिम ), मुम्बई - 400053
दूरभाष – 9819343822
email :- anjanisrivastav.kajaree@gmail.com


रविवार, 3 जुलाई 2016

कहानी : मजबूरी -सुशांत सुप्रिय

    श्री सुशांत सुप्रिय हिन्दी, पंजाबी और अंग्रेज़ी में लिखते हैं. हत्यारे , हे राम , दलदल  इनके कुछ कथा संग्रह हैं, अयोध्या से गुजरात तक और इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं  इनके काव्य संकलन. इनकी कई कहानियाँ और कविताएँ विभिन्न भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं. अनेक कहानियाँ  कई राज्यों के स्कूलों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं, कविताएँ पूणे विश्व-विद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हैं और विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोधार्थी इनकी कहानियों पर शोध कर रहे हैं. भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा इनकी रचनाएँ पुरस्कृत की गई हैं. कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो वर्ष प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किये गए.



 कहानी  : मजबूरी  - सुशांत सुप्रिय


         
जब सुबह झुनिया वहाँ पहुँची तो बंगला रात की उमस में लिपटा हुआ गर्मी में उबल रहा था । सुबह सात बजे की धूप में तल्ख़ी थी । वह तल्ख़ी उसे मेम साहब की तल्ख़ ज़बान की याद दिला रही थी ।
         
बाहरी गेट खोल कर वह जैसे ही अहाते में आई , भीतर से कुत्ते के भौंकने की भारी-भरकम आवाज़ ने उसके कानों में जैसे पिघला सीसा डाल दिया ।  उँगलियों से कानों को मलते हुए वह बंगले के दरवाज़े पर पहुँची । घंटी बजाने से पहले ही दरवाज़ा खुल चुका था ।
          "
तुम रोज़ देर से आ रही हो । ऐसे नहीं चलेगा । " सुबह बिना मेक-अप के मेम-साहब का चेहरा उनकी चेतावनी जैसा ही भयावह लगता था ।
          "
बच्ची बीमार थी ... । " उसने अपनी विवश आवाज़ को छिपकली की कटी-पूँछ-सी तड़पते हुए देखा ।
          "
रोज़ एक नया बहाना ! " मेम साहब ने उसकी विवश आवाज़ को ठोकर मार कर परे फेंक दिया । वह वहीं किनारे पड़ी काँपती रही ।
          "
सारे बर्तन गंदे पड़े हैं । कमरों की सफ़ाई होनी है । कपड़े धुलने हैं । हम लोग क्या तुम्हारे इंतज़ार में बैठे रहें कि कब महारानी जी प्रकट होंगी और कब काम शुरू होगा ! हुँह् ! " मेम साहब की नुकीली आवाज़ ने उसके कान छलनी कर दिए ।
वह चुपचाप रसोई की ओर बढ़ी । पर वह मेम साहब की कँटीली निगाहों का अपनी पीठ में चुभना महसूस कर रही थी । जैसे वे मारक निगाहें उसकी खाल चीरकर उसके भीतर जा चुभेंगी ।
          जल्दी ही वह जूठे बर्तनों के अंबार से जूझने लगी ।
          "
सुन झुनिया ! " मेम साहब की आवाज़ ड्राइंग रूम को पार करके रसोई तक पहुँची और वहाँ उसने एक कोने में दम तोड़ दिया । जूठे बर्तनों के अंबार के बीच उसने उस आवाज़ की ओर कोई ध्यान नहीं दिया ।
          "
अरे , बहरी हो गई है क्या ? "
          "
जी , मेम साहब । "
          "
ध्यान से बर्तन धोया कर । क्राकरी बहुत महँगी है । कुछ भी टूटना नहीं चाहिए । कुछ भी टूटा तो तेरी पगार से पैसे काट लूँगी , समझी ? " उसे मेम साहब की आवाज़ किसी कटहे कुत्ते के भौंकने जैसी लगी ।
          "
जी , मेम साहब । "
           
ये बड़े लोग थे । साहब लोग थे । कुछ भी कह सकते थे । उसने कुछ कहा तो उसे नौकरी से निकाल सकते थे । उसकी पगार काट सकते थे -- उसने सोचा ।
क्या बड़े लोगों को दया नहीं आती ? क्या बड़े लोगों के पास दिल नाम की चीज़ नहीं होती ? क्या बड़े लोगों से कभी ग़लती नहीं होती ?
           
बर्तन साफ़ कर लेने के बाद उसने फूल झाड़ू उठा लिया ताकि कमरों में झाड़ू लगा सके । बच्चे के कमरे में उसने ज़मीन पर पड़ा खिलौना उठा कर मेज़ पर रख दिया । तभी एक नुकीली , नकचढ़ी आवाज़ उसकी छाती में आ धँसी -- " तूने मेरा खिलौना क्यों छुआ , डर्टी डम्बो ? मोरोन ! " यह मेम साहब का बिगड़ा हुआ आठ साल का बेटा जोजो था । वह हमेशा या तो मोबाइल पर गेम्स खेलता रहता या टी.वी. पर कार्टून देखता रहता । मेम साहब या साहब के पास उसके लिए समय नहीं था , इसलिए वे उसे सारी सुविधाएँ दे देते थे । वह ए.सी. बस में बैठ कर किसी महँगे स्कूल में पढ़ने जाता था । कभी-कभी देर हो जाने पर मेम साहब का ड्राइवर उसे मर्सिडीज़ गाड़ी में स्कूल छोड़ने जाता था ।
           
झुनिया का बेटा मुन्ना जोजो के स्कूल में नहीं पढ़ता था । वह सरकारी स्कूल में पढ़ता था । हालाँकि मुन्ना अपना भारी बस्ता उठाए पैदल ही स्कूल जाता था , उसका चेहरा किसी खिले हुए फूल-सा था । जब वह हँसता तो झुनिया की दुनिया आबाद हो जाती -- पेड़ों की डालियों पर चिड़ियाँ चहचहाने लगतीं , आकाश में इंद्रधनुष उग आता , फूलों की क्यारियों में तितलियाँ उड़ने लगती , कंक्रीट-जंगल में हरियाली छा जाती । मुन्ना एक समझदार लड़का था । वह हमेशा माँ की मदद करने के लिए तैयार रहता ...
           
हाथ में झाड़ू लिए हुए झुनिया ने दरवाज़े पर दस्तक दी और साहब के कमरे में प्रवेश किया । साहब रात में देर से घर आते थे और सुबह देर तक सोते रहते थे । 
महीने में ज़्यादातर वे काम के सिलसिले में शहर से बाहर ही रहते थे । झुनिया की छठी इन्द्रिय जान गई थी कि साहब ठीक आदमी नहीं थे । एक बार मेम साहब घर से बाहर गई थीं तो साहब ने आँख मार कर उससे कहा था -- " ज़रा देह दबा दे । पैसे दूँगा । " झुनिया को वह किसी आदमी की नहीं , किसी नरभक्षी की आवाज़ लगी थी । साहब के शब्दों से शराब की बू आ रही थी । उनकी आँखों में वासना के डोरे उभर आए थे । उसने मना कर दिया था और कमरे से बाहर चली गई थी । पर उसकी हिम्मत नहीं हुई थी कि वह मेम साहब को यह बता पाती । कहीं मेम साहब उसी को नौकरी से निकाल देतीं तो ? यह बात उसने अपने रिक्शा-चालक पति को भी नहीं बताई थी । वह उसे बहुत प्यार करता था । यह सब सुन कर उसका दिल दुखता ...
           
झाड़ू मारना ख़त्म करके अब वह पोंछा मार रही थी ।
             "
, इतना गीला पोंछा क्यों मार रही है ? कोई गिर गया तो ? " मेम साहब की आवाज़ किसी आदमखोर जानवर-सी घात लगाए बैठी होती । उससे ज़रा-सी ग़लती होते ही वह उस पर टूट पड़ती और उसे नोच डालती ।
           
अब गंदे कपड़ों का एक बहुत बड़ा गट्ठर उसके सामने था ।
             "
कपड़े बहुत गंदे धुल रहे हैं आजकल । " यह साहब थे । दबे पाँव उठ कर दृश्य के अंदर आ गए थे । उसने सोचा , अगर उस दिन उसने साहब की देह दबा दी होती तो भी क्या साहब आज यही कहते ? यह सोचते ही उसके मुँह में एक कसैला स्वाद भर गया ।
             "
ये लोग होते ही कामचोर हैं । " मेम-साहब का उससे जैसे पिछले जन्म का बैर था । " बर्तन भी गंदे धोती है ! ठीक से काम कर वर्ना पैसे काट लूँगी ! " यह आवाज़ नहीं थी , धमकी का जंगली पंजा था जो उसका मुँह नोच लेना चाहता था ।
             
झुनिया के भीतर विद्रोह की एक लहर-सी उठी । वह चीख़ना-चिल्लाना चाहती थी । वह इन साहब लोगों को बताना चाहती थी कि वह पूरी ईमानदारी से , ठीक से काम करती है । कि वह कामचोर नहीं है । वह झूठे इल्ज़ाम लगाने के लिए मेम साहब का मुँह नोच लेना चाहती थी । लेकिन वह चुप रह गई ...
             
एक चूहा मेम साहब की निगाहों से बच कर कमरे के एक कोने से दूसरे कोने की ओर तेज़ी से भागा । लेकिन झुनिया ने उसे देख लिया । अगर रात में सोते समय यह चूहा मेम साहब की उँगली में काट ले तो कितना मज़ा आएगा -- उसने सोचा । मेम साहब चूहे को नहीं डाँट सकती , उसकी पगार नहीं काट सकती , उसे नौकरी से नहीं निकाल सकती ! इस ख़्याल ने उसे खुश कर दिया । ज़िंदगी की छोटी-छोटी चीज़ों में अपनी ख़ुशी खुद ही ढूँढ़नी होती है -- उसने सोचा ।
             "
सुन , मैं ज़रा बाज़ार जा रही हूँ । काम ठीक से ख़त्म करके जाना , समझी ? " 
 
मेम साहब ने अपनी ग़ुस्सैल आवाज़ का हथगोला उसकी ओर फेंकते हुए कहा । " सुनो जी , देख लेना ज़रा । " यह सलाह साहब के लिए थी ।
             
काम ख़त्म करके वह चलने लगी तो उसने देखा कि ड्राइंग रूम में खड़े साहब न जाने कब से उसकी देह को गंदी निगाहों से घूर रहे थे । सकुचा कर उसने अपनी साड़ी का पल्लू और कस कर अपनी छाती पर लपेट लिया और बाहर अहाते में निकल आई । पर उसे लगा जैसे साहब की वासना भरी आँखें उसकी पीठ से चिपक गई हैं । उसे घिन महसूस हुई । यहाँ तो हर घर में एक आसाराम था ।
             "
सुनो , शाम को जल्दी आ जाना , और मुझ से अपनी पगार ले जाना । "
साहब की वासना भरी आवाज़ जैसे उसकी देह से लिपट जाना चाहती थी । उसे लगा जैसे यह घर नहीं , किसी अँधेरे कुएँ का तल था । उसका मन किया कि वह यहाँ से कहीं बहुत दूर भाग जाए और फिर कभी यहाँ नहीं आए । लेकिन तभी उसे अपनी बीमार बच्ची याद आ गई , उसकी महँगी दवाइयाँ याद आ गईं , और रसोई में पड़े ख़ाली डिब्बे याद आ गए ...

सुशांत सुप्रिय 
A-5001 ,गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ. प्र . )
   
मो: 08512070086  ई-मेल: sushant1968@gmail.com