सोमवार, 23 अप्रैल 2018

जयप्रकाश मानस की 3 कविताएँ

 
                                          2 अक्टूबर, 1065, रायगढ़, छत्तीसगढ़


1-याद न आये जिसे



पानी देखते ही नदी

नदी देखते ही नाव

नाव देखते ही नाविक

नाविक देखते ही पतवार

पतवार देखते ही पेड़

पेड़ देखते ही गाँव

गाँव देखते ही बढ़ई

बढई देखते ही बसूला

बसूला देखते ही लुहार

लुहार देखते ही धार

धार देखते ही पानी

सबको जोड़ती कोई एक कहानी

याद न आये बरबस जिसे

क्या-क्या याद दिलायें उसे ?



2-बचे या न बचे

 
रखनी ही होगी सँभालकर   

माँदल की थाप

दुखों को रौंदते हुए घुंघरुओं की थिरकन
सदियों पुरानी रागिनियों से सांत्वना बटोरती
रात की ढलान

दूर-दूर पहाड़ियों पर
मेमनों के लिए
घास का पताका फहराती हरियाली
दुनिया को जगमगाती ओस    
मौमाखियों के छत्ते
आँधियों से बचे डगाल पर लटकते
घोंसले में चूजों के चोंच पर
दाना रखती बया

खेत पर रतजगे के अलाव के लिए
हरखू की चकमक
ऐपन ढारती नई बहू
अपने हिस्से के काम जैसे
पुरखों की वाचिक परम्परा में कोई आत्मकथा

कुछ सँभले या न सँभले
कुछ बचे या न बचे
टूटता-बिखरता ढाई आखर ज़रूर सम्हले / धूप-छाँही रंग में
सँभाल रखना ही है /फिर-फिर उजड़ने के बाद भी
बसती हुई दुनिया के लिये



3-अंत में कुछ भी ज़रूरत कहाँ कभी किसे


मिले न मिले -
कंठ को दो बूँद पानी
कांधे बिठाने दो-चार आदमी
नख से शिख ढँकने पाँच-छह फ़ीट की मार्किन
लाई संग पैसे छिड़कने सात सगे मतलबी हरामी

अंत में
अंत में कुछ भी ज़रूरत कहाँ कभी किसे



मिले न मिले
देह को हल्दिया उबटन
बोतल में पपड़ायी सात-सात नदियाँ
विदाई के वक़्त बेमन विलाप करने वाली स्त्रियाँ
टूटी-फूटी पुरानी खटिया, खटिये पर घी के दीये
अंत में
अंत में कुछ भी ज़रूरत कहाँ कभी किसे



मिले न मिले
पितरों के साथ पिंडदान
लोभी-लालची पुरोहित के मुँह गरुड़ पुराण    
दसगात्र के दिन खीर पूरी मालपुआ, मौज करे समधियान
अंत में
अंत में कुछ भी ज़रूरत कहाँ कभी किसे

अंत से पहले है ज़रूरत
अंत के पहले हैं सपने
अंत से पहले है दुनिया
अंत से पहले है भविष्यत् अंत के पहले हैं अपने ।

अंत के बाद कहाँ माटी
अंत के बाद कहाँ सोना

अंत से पहले ही हँसना
अंत से पहले ही रोना ।
संपर्क सूत्र- 
जयप्रकाश मानस
संपादक, www.srijangatha.com
एफ-3, छगमाशिम, आवासीय परिसर, पेंशनवाड़ा
रायपुर, छत्तीसगढ़-492001
मो
0-94241-82664

ईमेल- srijangatha@gmail.com

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