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सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

मेरी पहली कविता : रैदास की कठौत - आरसी चौहान









    आज हम  जिस दौर से गुजर रहे हैं शायद आजाद भारत में ऐसा षडयंत्र कभी नहीं रचा गया होगा जिसमें जनता की चीखों को बड़े शातिराना तरीके से दबाया जा रहा हो और हमारे हुक्मरान  धृतराष्ट्र की मुद्रा में विराजमान हों। जहां रोहित बेमिला एवं कन्हैया जैसे उदाहरण एक बानगी भर है। एक कविता जो पन्द्रह वर्ष पहले लिखा था जो कहीं भी प्रकाशित होने वाली संभवत: मेरी पहली कविता है। अखबार था वाराणसी से प्रकाशित होने वाला  ‘ गांडीव ’ और साल था 2001 जिसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी तब भी थी । केवल चेहरे बदल रहे हैं सिंहासन पर, आम आदमी वहीं का वहीं है।

 अगली पोस्ट जल्द ही जो वागर्थ के फरवरी 2016 अंक में  प्रकाशित मेरी तीन कविताओं पर होगी। फिलहाल प्रस्तुत है रैदास जयंती पर  मेरी पहली कविता। 

रैदास की कठौत


रख चुके हो कदम

सहस्त्राब्दि के दहलीज पर

टेकुरी और धागा लेकर

उलझे रहे

मकड़जाल के धागे में

और बुनते रहे

अपनी सांसों की मलीन चादर

इस आशा के साथ

कि आएगी गंगा

इस कठौत में

नहीं बन सकते रैदास

पर बन सकते हो हिटलर

और तुम्हारे टेकुरी की चिनगारी

जला सकती है

उनकी जड़

जिसने रौंदा कितने बेबस और

मजलूमों को।


संपर्क   - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com
 

 

बुधवार, 26 अगस्त 2015

कविताओं के अंतर्गत पढ़ें कुमार विक्रम, आरसी चौहान, धीरज श्रीवास्तव, शरद आलोक और रवींद्र स्वप्निल प्रजापति की कविताएँ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

        

 

 

 

 

 

                                                                                                                                                                                                                                                                                           आरसी चौहान

 

       इस पखवारे_साठोत्तरी पीढ़ी के प्रमुख कथाकार महेंद्र भल्ला का पिछले दिनों निधन हो गया। एक तरल बहती हुई भाषा में बेहद अंडरटोन में लिखी गई उनकी कहानियाँ हों या कि एक पति के नोट्स जैसा चर्चित उपन्यास हो उन्हें पढ़ना हमेशा एक शानदार अनुभव रहा। ‘एक पति के नोट्स’ उनकी सबसे चर्चित कृति जरूर रही पर इसका एक बड़ा खामियाजा यह हुआ कि इस सब के नीचे प्रवासी स्थितियों पर उनकी उपन्यास त्रयी ‘उड़ने से पेश्तर’, ‘दूसरी तरफ’ तथा ‘दो देश और तीसरी उदासी’ जैसे बेहद महत्वपूर्ण रचनात्मक काम पर कभी कोई चर्चा ही नहीं हुई। इस बार हिंदी समय (http://www.hindisamay.com) पर प्रस्तुत हैं उनकी पाँच कहानियाँ - आगे, बदरंग, कुत्तेगीरी, तीन चार दिन और पुल की परछाईं।



मित्रवर
Hind Samay <mgahv@hindisamay.in>
साठोत्तरी पीढ़ी के प्रमुख कथाकार महेंद्र भल्ला का पिछले दिनों निधन हो गया। एक तरल बहती हुई भाषा में बेहद अंडरटोन में लिखी गई उनकी कहानियाँ हों या कि एक पति के नोट्स जैसा चर्चित उपन्यास हो उन्हें पढ़ना हमेशा एक शानदार अनुभव रहा। 'एक पति के नोट्स' उनकी सबसे चर्चित कृति जरूर रही पर इसका एक बड़ा खामियाजा यह हुआ कि इस सब के नीचे प्रवासी स्थितियों पर उनकी उपन्यास त्रयी 'उड़ने से पेश्तर''दूसरी तरफ' तथा 'दो देश और तीसरी उदासी' जैसे बेहद महत्वपूर्ण रचनात्मक काम पर कभी कोई चर्चा ही नहीं हुई। इस बार हिंदी समय (http://www.hindisamay.com) पर प्रस्तुत हैं उनकी पाँच कहानियाँ - आगेबदरंगकुत्तेगीरीतीन चार दिन और पुल की परछाईं। कभी देवीशंकर अवस्थी ने लिखा था कि उनके 'यहाँ वस्तुतः कहानी के माध्यम से यथार्थ की खोज है - खोज तो गहन प्रश्नाकुलता से संबंधित है। यह भी कहना चाहूँगा कि सचाई की खोज एक श्रेष्ठतर कलाशिल्प की खोज भी है। दोनों वस्तुतः एक ही हैं। जिस मानवीय समस्या को उठाया जाता है उसी के अनुरूप कलाशिल्प को भी होना चाहिए। महेंद्र भल्ला ने इस शिल्प की खोज की चेष्टा की है और दूर तक इसमें सफल भी हुए हैं।' 

गाब्रिएल गार्सिया मार्केज विश्व के महानतम लेखकों में शुमार किए जाते हैं। दूसरी तरफ क्यूबा के लोकप्रिय क्रांतिकारी नेता फिदल कास्त्रो भी कम चर्चा में नहीं रहे हैं। यहाँ पढ़ें मार्खेज का फिदल कास्त्रो पर लिखा गया रेखाचित्र फिदल कास्त्रो। अनुवाद किया है चर्चित कवि-पत्रकार शिवप्रसाद जोशी ने। संस्मरण के अंतर्गत पढ़ें चर्चित कथाकार अखिलेश का संस्मरणभूगोल की कला। चर्चित आलोचक मदन सोनी ने हिंदी उपन्यास का एक बहसतलब जायजा हिंदी उपन्यास की अल्पता पर कुछ ऊहापोह शीर्षक से किया है तो मीराँ साहित्य के गंभीर अध्येता माधव हाड़ा मीराँ के संदर्भ में एक नई दृष्टि लेकर आए हैं मीराँ का कैननाइजेशन में। विशेष के अंतर्गत पढ़ें पल्लवी प्रसाद का बहसतलब आलेख ग़ालिब के गलत अनुवाद। आलोचना के अंतर्गत पढ़ें समकालीन कहानी पर युवा आलोचक राकेश बिहारी के दो आलेख भविष्य के प्रति आश्वस्त करती कहानियाँ और बेचैनी और विद्रोह के बीच एक सामाजिक विमर्श। पुस्तक संस्कृति के अंतर्गत पढ़ें महेश्वर का लेख एक दिन किताबों के लिए भी। सिनेमा के अंतर्गत पढ़ें युवा कथाकार विमल चंद्र पांडेय का आलेख कोई भी सच अंतिम नहीं होता : कानून। और अंत में कविताओं के अंतर्गत पढ़ें कुमार विक्रमआरसी चौहानधीरज श्रीवास्तवशरद आलोक और रवींद्र स्वप्निल प्रजापति की कविताएँ। साथ में जनपदीय हिंदी के अंतर्गत पढ़ें  भोजपुरी के चर्चित कवि प्रकाश उदय की कविताएँ।

गुरुवार, 12 मार्च 2015

समीक्षा : हिमतरू का यह अंक अपनी विशिष्टताओं के लिए जाना जाएगा





आरसी चौहान 

      आज हिन्दी साहित्य उस चौराहे पर खड़ा है जहां से सड़कें चकाचौंध कर देने वाली बहुराष्टीªय कम्पनियों  ,  सिनेमा ,  बाजार और सच्चे-झूठे दावा करने वाले विज्ञापनों की ओर जाता है और इन सड़कों पर आम आदमी आतंकवाद  , उग्रवाद  , भ्रष्टाचार और बलात्कार जैसे घिनौने पहियों के निचे कुचला जाता है। ऐसे में दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत रचनाकारों की आवाज की अवहेलना बहुत दिनों तक नहीं की जा सकती। इनकी आवाज को सार्थक दिशा देने के लिए राष्टीªय स्तर की तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने एक बड़ा मंच प्रदान किया है।

      वागर्थ ,  नया ज्ञानोदय ,  हंस  , कथादेश ,  युद्धरत आम आदमी  , समसामयिक सृजन  , परिकथा ,  युवा संवाद  , संवदिया ,  कृतिओर  , जनपथ और इसी कड़ी को एक कदम आगे बढा़ते हुए अंतर्राष्टीªय हिन्दी साहित्त्य विशेषांक  ’’ प्रकाशित करने वाली हिमालयी पत्रिका -हिमतरू का जुलाई-2014 अंक शीतल पवन के झोंके की तरह आया है। यह शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज तो है ही  , खासकर दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत युवा रचनाकारों को चिह्नित कर उन्हें उत्प्रेरित करने का एक महायज्ञ भी है। जिसकी खुशबू और आंच देर-सबेर हिन्दी साहित्य के गलियारों में बड़े धमक के साथ सुंघी व महसूस की जाएगी। ऐसा मुझे विश्वास  है।

        हिमतरू का यह अंक अपनी विशिष्टताओं के लिए जाना जाएगा । कुल्लू जैसी विषम परिस्थियां  , जहां का धरातल करैले की तरह उबड़-खाबड़ तो है ही अगर कुछ रचनाओं के स्वाद में कड़वापन लगे तो मुंह बिचकाने की जरूरत नहीं है। हिमतरू के इस अंतर्राष्टीªय हिन्दी साहित्य विशेषांक ’’ में  देश-विदेश के लगभग अड़सठ रचनाकारों की उनकी विभिन्न रचनाओं को प्रकाशित किया है। किशन श्रीमान के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका के इस अंक का अतिथि सम्पादन युवा कवि गणेश गनी ने किया है। इस अंक में रचनाकारों की वरिष्ठता क्रम को ध्यान में न रखकर उनकी रचनाओं को किसी भी पेज में स्थान दिया गया है।

        इस समीक्ष्य लेख को लिखते हुए मैंने भी किसी क्रम को प्राथमिकता नहीं दी है। मैं और मेरा गांव संस्मरण में हरिपाल त्यागी ने जिस सुल्ताना डाकू को आत्मियता से याद किया है  , उसका केवल किस्से-कहानियां ही सुना था । बिजनौर से गुजरती हुई टेªन की भागमदौड़ में सुने गये किस्सों को यहां साक्षात देखने जैसा अनुभव हो रहा है। विजय गौड़ की कहानी एंटिला धड़कनों को स्थिर कर पूरे वातावरण को सजीव कर देती है और पाठक कहानी की वेगवती धारा में बहने से अपने आप को रोक नहीं पाता है। विजय जी ने अनेक को अनेकों लिखकर भ्रमित कर दिया है। जबकि जितेन्द्र भारती की कहानी एंटिला  ठीक से खुल नहीं पाई है।सैनी अशेष और तथा कथित स्नोवा बार्नो की कहानियों में पहाड़ी नदियों की तरह हरहराती हुई रवानी है जिसमें डूबकी लगाए बिना इस अंक का साहित्यिक स्नान पूर्ण नहीं होता।

        इन्दू पटियाल का आलेख ऋषि श्रृग: लोक मान्यताएं रोचक शैली में मनभावन लगा लेकिन यह आलेख वैज्ञानिक तरीके से विवेचन करने की गहरी जांच पड़ताल की मांग करता है। जयश्री राय की कहानी औरत जो नदी है  में कहीं- कहीं शब्दों की दुरूहता कहानी प्रवाह में खलल डालते हैं। भीतर तक झकझोर तक रख देने वाली कहानी पत्थरों में आग  मुरारी शर्मा ने बहुत ही सधे हुए लहजे में चिंगारी को हवा दी है। जो कभी न कभी तो भ्रष्टाचार को जलाएगी ही। अगर लोकधर्मिता की बात हो तो महेश चन्द्र पुनेठा का आलेख सीमित जीवनानुभव के कवि आलोचकों द्वारा फैलाया गया भ्रम पठनीय ही नहीं अपितु विचारणीय भी है। यहां लोक की अवधारणा को बहुत ही सलिके से प्रस्तुत किया है। हो हल्ला करने वाले तो हल्ला करते ही रहेंगे। आप ऐसे ही पहाड़ से अलख जगाते रहिए।

       अग्नीशेखर की छोटी किन्तु गम्भीर कविताएं हैं वहीं शिरीष कुमार मौर्य की स्थाई होती है नदियों की याददास्त सजीवता का अच्छा बिम्ब रचती हैं।दूसरों पर दोषारोपड़ करने की मानवीय प्रवृति को बखूबी उजागर करती है यह कविता। स्वपनील श्रीवास्तव का संस्मरण पुरू की बगिया  और विस्तार की मांग करता है। बहुत कम में समेटना काफी खटकता है। आग्नेय की प्रायश्चित कविता में कवि की बेचैनी और उद्विग्नता को स्पष्ट महसूसा जा सकता है। यहां कवि यादों के पीछे अवसाद सी स्थिति में चला जाता है और उसे बर्रों के छत्ते का ध्यान ही नहीं रहता। विदग्ध कर देने वाली कविता। जितेन्द्र श्रीवास्तव  की कविताएं भूत को वर्तमान के पुल द्वारा भविष्य से जोड़ कर हिन्दी कविता का नया वितान तो रचती ही हैं वर्तमान व्यवस्था पर करारा तंज भी कसती हैं। इनकी कविता साहब लोग रेनकोट ढ़ूढ़ रहे हैं में बखूबी देखा जा सकता है।
       लोक की कविता रचने वाले केशव तिवारी की मेरी बुंदेली जन ,  खड़ा हूं निधाह  और शिवकली के लिए जैसी कविताओं की आग मई-जून की तपती दोपहरी में पठार पर बवंडर की तरह चिलचिलाते गर्म भभूका की तरह है जिसकी आंच से बचना नामुमकीन नहीं तो मुश्किल जरूर है। रोहित जी रूसिया की धरोहर  कविता अपनी जड़ से कट रहे लोगों के लिए एक सीख भी है और चेतावनी भी। प्रेम पगी कविताएं भी खुबसूरत हैं। युवा रचनाकार शिवेन्द्र की कहानी और डायरी अंश की सोंधी महक बहुत देर तक जेहन में बनी रहती है। स्थानीय बोली-भाषा के शब्दों का बड़ा वितान रचा है जो इनकी डायरी और कहानी को जीवंतता प्रदान करती है।

       वर्तमान समय में मानवता की हत्या  ,  पैसे की भूख ,  हृदयहिनता जैसी विकृतियां तेजी से पनप रही हैं। कुलराजीव पंत की लघु कथा जुगाड़  में बखूबी देखा जा सकता है।अतुल पोखरेल ने पहुंच  लघुकथा में अपने हूनर को न पहचानने वालों पर अच्छा तंज कसा है साहित्य का चरवाहा बनकर। संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविता चिकनाई हमारे शरीर ही नहीं हमारे समाज में भी मुखौटा लगाकर जाल फरेबी लोगों के रूप में चहल कदमी कर रही है।सावधानी हटी , दुर्घटना घटी  , वाली बात है भई। युवा कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की कविता जीवन की आपाधापी में अपना रास्ता भटक-सी गयी है। हूकम ठाकुर की कविताओं में जंगल-पहाड़ में संघर्षरत जीवन में भी आशा की नई किरणें अंगड़ाई ले रही हैं। फिर भी पहाड़ एवं पहाड़ी जीवन के दुख-दर्द को विस्मृत नहीं किया जा सकता । अविनाश मिश्र ने अपने लेख में भोजपुरी में आई नग्नता  , अभद्रता एवं फूहड़ता को बेबाक तरीके से उजागर किया है।

        आज भागमदौड़ की जिंदगी में खासकर आधी आबादी उस भीड़ में कुचल जाती है जो सुबह से शाम तक कामों का रेला जो उनके ऊपर से गुजरता रहता है । जब तक वो उठती हैं सम्हलती हैं उनके जीवन का बसंत जा चुका होता है। हृदय को गहरे तक वेध देने वाली पीड़ा के तीर मन को आहत कर दिये।  स्त्रियों का बसंत मिनाक्षी जिजीविषा की कविता पढ़ने लायक है। भरत प्रसाद की बिल्कुल सधी हुई कविता मैं कृतज्ञ हूं जिसकी भाषा सुगठित  ,  शिल्प गठा हुआ और धारा प्रवाह शब्दों की लहरें कविता का नया वितान रचती हैं । संजु पाल की कविता पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे किसी अवसाद की स्थिति में लिखी गई होगी यह कविता। निराशा के भाव इतने गहरे हैं कि कविता के कपाट ठीक से खुल नहीं पाये हैं। वहीं शाहनाज इमरानी की कविताएं एक दिन और सड़क पर रोटी पकाती औरत मानवता की कलई खोलने में कोई कोताही नहीं बरतती हैं। पहाड़ पर लिखी कई रचनाकारों की कविताएं पढ़ने को मिली लेकिन मैं पहाड़ों में रहता हूं अंतर्मन को छू लेने वाली कविता है। यहॉं चकाचौंध रोशनी में विकास के नाम पर केवल विनाश ही हो रहा है । हमारी फितरत बन चुकी है तत्काल लाभ की  ,  जबकि दीर्घ कालिक दुष्परिणामों से बेखबर प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने पर तूले हुए हैं हम। जब कोई कहता है पहाड़ी होते हैं भोले- भाले  ,  कवि दीनू कश्यप की नाराजगी नाजायद नहीं मानी जा सकती। युवा कवि विक्रम नेगी की कविता उदास है कमला में शराब की वजह से बरबाद होते परिवारों की मार्मिक वेदना को  अपनी भाषा , नये शिल्प  व बिंब-प्रतीकों के माध्यम से कई परतों को खोलने का प्रयास किया है । जंग छिड़ी हुई थी में कवि ने कई नये प्रयोग किए हैं लेकिन नास्टेल्जिया से बचने की जरूरत है।

       आरसी चौहान की कविता जूता  पैरों तले दबे होने के बावजूद भी समय आने पर सच्चाई के साथ खड़े होकर तानाशाहों के थोबड़ों पर प्रहार करने से चूकता नहीं। शामिल नहीं एक भी शहीद और बकरा जैसी कविताओं में नित्यानन्द गायेन ने समाज के दबे-कूचले लोगों की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है। सुशान्त सुप्रिय भी मानवीय क्षरण और आम जन की पीड़ा को अपनी कविताओं में उद्घाटित किया है। हंसराज भारती का चुप का साथ एवं बुद्धिलाल पाल की कविता हंसी  रेखांकन योग्य है जिसमें गहरे अर्थ देने की अद्भूत क्षमता छिपी है।

        मेरे प्रिय कवियों में से एक अनवर सुहैल की कविता अल्पसंख्यक या स्त्री कैसी माफी   या कैसे छुपाऊं अपना वजूद   भावनाओं में बहकर लिखी गई कविताएं हैं।इन्हें और कसने की जरूरत थी। अहिन्दी भाषी कवि संतोष अलेक्स की कविताएं भी वर्णनात्मक ज्यादा हो गई हैं। अरूण शीतांश की पेड़ और लड़की अंतर्मन को छू लेने वाली कविता है जिसमें गवाह के रूप में पेड़ मौन खड़ा है और बेटियां गायब हो रही हैं। कितनी बड़ी त्रासदी है हमारे समाज की। जिन्दगी की दिशा राजीव कुमार त्रिगर्ती की छोटी किन्तु उम्मीद जगाती कविता है। कविता विकास की याद आते हैं प्रतिभा गोटीवाले की प्रवासी पक्षी  में स्त्रियों के प्रति चिंता वाजीब है।

       आलोचना व समीक्षा के क्षेत्र में तेजी से अपनी पहचान बना रहे युवा लेखक  उमाशंकर सिंह परमार की एडवांस स्टडी-नव उदारवाद-प्रतिरोध और प्रयोग   पढ़ने के बाद राजकुमार राकेश की पुस्तक को पढ़ने की जिज्ञासा बलवती हो गई है। और अंत में जिन रचनाकारों की रचनाओं ने प्रभावित किया उनमें एस. आर. हरनोट  , कुंअर रवीन्द्र  , शम्भू यादव  , अरूण कुमार शर्मा ,  विक्रम मुसाफिर  , कृश्ण चन्द्र महादेविया ,  हनुमंत किशोर के अलावा सतीश  रत्न ,  नवनीत शर्मा  , मुसव्विर फिरोजपुरी ,  सुरेन्द्र कुमार  , प्रखर मालवीय  , नवीन नीर ,  शेर सिंह की गज़लें तथा डा0 ओम कुमार शर्मा की लोकधर्मिता की परतें  , डा0 उरसेम लता का यात्रा वृतांत , कविता गुप्ता की डायरी  , दीप्ति कुशवाह  , मंजुषा पांडे , अंकित बेरी ,  केशब भट्टराई  , सरोज परमार की कविताएं भी अलग-अलग भाव-भूमियों में रची आशा की नई किरणें दिखाती हैं। ऐसे विलक्षण अंक के अतिथि सम्पादक-गनेश ग़नी और इस अंक में सम्मलित समस्त रचनाकारों को कोटिश बधाई और शुभकामनाएं।

हिमतरू (मासिक) जुलाई-2014 ,  अंतर्राष्टीªय हिन्दी साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक-गनेश ग़नी
प्रधान सम्पादक-इन्दू पटियाल
इस अकं का मूल्य-101 रूपये
संपर्क सूत्र- 201 ,  कचोट भवन , नजदीक मुख्यडाक घर , ढालपुर , कुल्लू हि0प्र0
मोबा0-09736500069 ,  09418063231

लेखक संपर्क - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com

                                      जनवरी 2015 अंक हिमतरू से साभार


शनिवार, 29 नवंबर 2014

पहाड़ में खुलती एक खिड़की: अकुलाए हुए निकलते शब्द



                                                    आरसी चौहान
                                  मोबा0-08858229760   

         आज हिन्दी साहित्य उस चौराहे पर खड़ा है जहां से सड़कें चकाचौंध कर देने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों , सिनेमा, बाजार और सच्चे-झूठे दावा करने वाले विज्ञापनों की ओर जाता है और इन सड़कों पर आम आदमी आतंकवाद ,उग्रवाद ,भ्रष्टाचार और बलात्कार जैसे धिनौने पहियों के निचे कुचला जाता है। ऐसे में दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत रचनाकारों की आवाज की अवहेलना बहुत दिनों तक नहीं की जा सकती। इनकी आवाज को सार्थक दिशा देने के लिए राष्ट्रीय स्तर की तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने एक बड़ा मंच प्रदान किया है।

      वागर्थ, नया ज्ञानोदय, हंस ,कथादेश, युद्धरत आम आदमी ,समसामयिक सृजन ,परिकथा, युवा संवाद ,संवदिया, कृतिओर ,जनपथ और इसी कड़ी को एक कदम आगे बढा़ते हुए “अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य विशेषांक
प्रकाशित करने वाली हिमालयी पत्रिका -हिमतरू का जुलाई-2014 अंक शीतल पवन के झोंके की तरह आया है। यह शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण दस्ताावेज तो है ही ,खासकर दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत युवा रचनाकारों को चिह्नित कर उन्हें उत्प्रेरित करने का एक महायज्ञ भी है। जिसकी खुशबू और आंच देर-सबेर हिन्दी साहित्य के गलियारों में बड़े धमक के साथ सुंघी व महसूस की जाएगी। ऐसा मुझे विश्वास  है।

         हिमतरू का यह अंक अपनी विशिष्टताओं के लिए जाना जाएगा । कुल्लू जैसी विषम परिस्थियां ,जहां का धरातल करैले की तरह उबड़-खाबड़ तो है ही अगर कुछ रचनाओं के स्वाद में कसैलापन लगे तो मुंह बिचकाने की जरूरत नहीं है। हिमतरू के इस“अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य विशेषांक”में  देश-विदेश के लगभग अड़सठ रचनाकारों की उनकी विभिन्न रचनाओं को प्रकाशित किया है। किशन श्रीमान के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका के इस अंक का अतिथि सम्पादन युवा कवि गणेश गनी ने किया है। इस अंक में रचनाकारों की वरिष्ठता क्रम को ध्यान में न रखकर उनकी रचनाओं को किसी भी पेज में स्थान दिया गया है। इसी अंक में मेरी एक कविता-

जूता

लिखा जाएगा जब भी
जूता का इतिहास
सम्भवतः,उसमें शामिल होगा कीचड़

और कीचड़ में सना पांव
बता पाना मुश्किल होगा
हो सकता किसी ने
रखा हो कीचड़ में पांव
और कीचड़ सूख कर
बन गया हो जूता सा
फिर देखा हो किसी ने कि
बनाया जा सकता है
पांव ढकने का एक पात्र
फिर बन पड़ा हो जूता
और तबसे उसकी मांग
सामाजिक हलकों से लेकर
राजनैतिक सूबे तक में
बनी हुई है लगातार
घर के चौखट से लेकर
युद्ध के मैदान तक
सुनी जा सकती है
उसकी चौकस आवाज
फिर तो उसके ऊपर गढे गये मुहावरे
लिखी गयी ढेर सारी कहानियां
और इब्नबतूता पहन के जूता
भी कम चर्चा में नहीं रही कविता
कितने देशों की यात्राओं में
शामिल रहा है ये
शुभ काम से लेकर
अशुभ कार्यो तक में
विगुल बजाता उठ खड़ा होता रहा है यह
और अब ये कि
वर्षों से पैरों तले दबी पीड़ा
दर्ज कराते ये
जनता के तने हुए हाथों में
तानाशाहों के थोबड़ों पर
अपनी भाषा,बोली और लिपि में
भन्नाते हुए......।

हिमतरू (मासिक) जुलाई-2014, अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक-गनेश ग़नी
प्रधान सम्पादक-इन्दू पटियाल
इस अकं का मूल्य-101 रूपये
संपर्क सूत्र- 201, कचोट भवन,नजदीक मुख्यडाक घर,ढालपुर,कुल्लू हि0प्र0
मोबा0-09736500069, 09418063231

रविवार, 14 सितंबर 2014

चुनौतियों से टकराने का समय






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चुनौतियों से टकराने का समय    

आरसी चौहान
          हमारे समकालीन रचनाकारों में अपनी लगातार उपस्थिति बनाने वाले युवा कवि,लेखक एवं आलोचक-भरत प्रसाद की सद्य प्रकाशित पुस्तक- ‘  नयी कलम इतिहास रचने की  चुनौती ’ एक दस्तावेज की तरह सम्भालने लायक है. सुदूर-दुर्गम पहाड़ियों व विषम परिस्थितियों में रहने वाले भरत प्रसाद की, भारत के बीहड़-उजड्ड व गांव-देहात में रहने वाले हिन्दी साहित्य की अलख जगाये,तमाम युवा रचनाकारों की रचनाओं पर तो नजरें पड़ती ही हैं, चकाचौंध नगरों के ऊपर छाये प्रदूषित गुम्बदों के बीच से भी टटकी रचनाओं को ढूढ़ निकालने में भी महारत हासिल की है.
         हिन्दी साहित्य के किसी गुटबाजी सांचे में  न फिट होने वाले भरत प्रसाद बडे़ करीने से एक-एक रचनाकारों की रचनाओं का बिना भेद-भाव किये चीड़-फाड़ करते हैं. यह पुस्तक- ‘परिकथा’ में मई 2008 से प्रकाशित स्तम्भ ’ताना -बाना ’ की कुल 17 कड़ियों का संकलन है, जो चार खण्डों में समाहित है. यह पुस्तक-बकौल लेखक- “अपनी दीदी रमावती देवी को जो कि मेरे जीवन में मां का विकल्प थी” को समर्पित है. मां   की याद लेखक  को नयी ऊर्जा देती है जिसकी परिणति हमारे सामने है. इस पुस्तक में भरत प्रसाद ने वर्तमान हिन्दी साहित्य में व्याप्त विकृति मानसिकता, आरोप-प्रत्यारोप, खींचतान एवं दूषित इरादे वालों से सावधान रहने की नसीहत भी दी है.
             बाजार किस तरह हमारे घरों में प्रवेश कर रहा है और हमारे शांत - सकून जीवन में उथल -पुथल मचा रहा है, जिसमें आदमी भावहीन और संज्ञाशून्य बनता जा रहा है. यहां तक कि आदमी एक मशीन में बदलता जा रहा है. भरत प्रसाद की दृष्टि इससे भी आगे तक जाती है कि बाजार अपने मायावी जाल में बौद्धिक लोगों को किस तरह कबूतरी जाल की जद में लेता जा रहा है. इससे हमें चेत जाना चाहिए. इसीलिए तो हमें आगाह भी कर रहे हैं कि- “स्त्री - विमर्श में यदि क्रांति लानी है तो शहरों से लेखकों को निकलना ही पड़ेगा . उन्हें भागना होगा उस तरफ जिधर उजाड़, धूसर-नंगी बस्तियां हैं.मायूस बूझे-बिखरे गांव हैं और धरती के अथाह विस्तार में खोए हुए विरान जंगल हैं.”(पेंज-16) जंगलों में रहने वाली बहुतायत की संख्या में आदिवासियों और फिर उनकी हत्या,मारपीट और अकाल मृत्यु ही आदिवासी समाज का कठोर सच है. जिसको विभिन्न कविताओं, कहानियों और लेखों  में इसकी चीत्कार सुनाई देती है. संवेदनशून्य होते मनुष्य की कलई खोलती हुई कविताएं हैं तो धारदार हथियार की तरह वार करते लेख, लेखों की जांच-पड़ताल करती लेखक की पैनी नजरें. इस भूमण्डलीकरण और बाजारीकरण की दौर में आदमी रक्त संबंधों का चिर हरण कर नीलामी के चौराहे पर खड़ा है.इतना विभत्स रूप रचा जा रहा है हमारे समाज में जिसकी कल्पना मात्र से मन सिहर उठता है.
           हमारे सामने नित नई चुनौतियों का अंबार लग रहा है और उसमें ढूढ़ा जा रहा है धारदार विचार. युवा पीढ़ी सधे हाथों से चुनौती स्वीकार कर सीना ताने खड़ी है समाज के सामने. युवा रचनाकारों की रचनाओं में मां -बहन जैसे रिश्तों को बचाने की कसमसाहट पूरी शिद्दत से महसूस की जा सकती है.इसके अलावा “अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए बेटी की इज्जत खैराती गुण्डों के हवाले कर देता है,तो वहीं कोई पहाड़ी औरतों की  महाबोझिल जीवन को शत-शत नमन कर लेता है.” जैसे लावा उगलती घटनाओं पर चुप्पी साध लेना युवा सर्जकों को कत्तई बर्दाश्त नहीं है.
           युवा लेखन विभिन्न संचार माध्यमों से लैस, आंकड़ों का पुलिंदा, रोज आपाधापी की  जिंदगी  से रूबरू होते हुए, अखबारी घटनाओं की रिपोर्टिंग जैसी रचनाएं तुरंत प्रभावित तो करती हैं लेकिन लम्बे समय तक पाठक के जेहन में नहीं रह पाती.इसके अलावा सच्चाई एक और कि लेखक वर्ग के अलावा गांव - देहात का आम आदमी तो यह जानता ही नहीं कि आज भी साहित्य कुछ रचा जा रहा है. ये तो केवल  सूर ,कबीर, तुलसी,पंत, प्रसाद और निराला तक ही सीमित है. आम पाठक तो अखबारों के साहित्यिक पेंज को पढ़ना क्या देखना तक नहीं चाहता.वो तो नजरों के सामने आ भर जाता है. यहां भरत प्रसाद की चिंता भी स्वाभाविक है. आम लोग तो कविता, कहानी और उपन्यास से गायब होते जा रहे हैं. फिर उनकी रूचि कहां रह जाती है , इसे पढ़ने में?
           बावजूद भरत प्रसाद की पैनी नजर इससे इतर भी जाती है. समाज में फैले धुंध को बखूबी रेखांकित भी करते चलते हैं. जहां गरीब-गुरबा एक छोटी सी गलती या बेवजह  साजिश का शिकार बनकर कैदी की तरह जीवन यापन करने को अभिशप्त हैं. इसके साथ ही उग्रवाद और नक्सलवाद जैसी समस्याएं भी कम चिंता का विषय नहीं है. कहीं - कहीं अविश्वसनीय मुद्दों पर हुए लेखन को भी रेखांकित किया है. जैसे-पत्नी द्वारा पति की चिता को आग लगा देने की दुर्लभ घटना. जबकि तमाम लेखक ऐसे भी हैं जो रहते तो हैं शहरों में और गांव की बदहाली,बाढ़ के खूंखार चेहरे पर आंकड़ों का जामा पहनाकर उसे भुनाने में लगे हुए हैं. यह केवल दिखावा भर है. ऐसा नहीं है कि साहित्य में गरीब-गुरबा,किसान, बैंक और निर्भय सेठों के चंगुल में निरीह प्राणी की तरह छटपटा रहे लोगों पर नहीं लिखा जा रहा है. इसे जाल में इतना फंसा दिया जा रहा है कि  आम पाठक को  चक्कर आ जाए.
           आज का लेखक किसी बात को बहुत घुमा -फिरा कर कहने में विश्वास  नहीं करता. वह सीधे व घातक प्रहार करना ही सीखा है रिपोर्ताज की तरह देखे,सुने व भोगे हुए यथार्थ को  हुबहू लक्ष्य पर संधान करना ही एक मात्र उद्देश्य है.  इनकी भाषा की टंकार वेदना दर वेदना लहरदार तरंगें पैदा कर देने का माद्दा रखती हैं.
            वर्तमान समय मुद्दों से विचलन का नहीं अपितु मुद्दों से प्रत्यक्ष टकराने का समय है. मनुवादी/ब्राह्मणवादी व्यवस्था के शिकार लोग दहाड़ते हुए राष्ट्र निर्माण एवं उसके संरक्षक की भूमिका में कदम ताल मिलाते हुए अग्रणी पंक्ति में खड़े हैं. भरत प्रसाद  वर्तमान समस्याओं से टकराते लेखों, कहानियों व कविताओं से संवाद करते हुए बड़े करीने से संजोते हैं एवं उसकी  चीड़-फाड़ भी करते हैं. जिसका सुखद  अहसास स्टेप वाई स्टेप होता है.
           आज साहित्य के पाठक कितने हैं? साहित्य पढ़ कौन रहा है ? साहित्येतर लोगों की भूमिका क्या है? ऐसे कई सवाल हैं जो हमारे मानस पटल पर अपना पंजा धंसाए हुए  हैं. किसी भी रचना की  पठनीयता उसकी ताकत होती है. लेकिन कुछ नामचीन जुगाड़वादी लेखक,कवि साल में दो चार कविताएं,कहानियां लिखकर साल भर विभिन्न चर्चाओं ,परिचर्चाओं,गोष्ठियों, सेमिनारों में ‘हिट’ करवाते रहते हैं . यह भी साहित्य में एक कला की तरह विकसित हो गयी है.
            कुछ सम्पादकों की अपनी लेखक मण्डली भी है. जहां वे बार-बार छपते -छपाते हैं. एक दूसरे के सम्मान और यशगान में लगे रहने वाले लेखक और  सम्पादक किस दिशा में जा रहे हैं,यह तो समय ही बताएगा. अधिकांश नये कवि लेखक  भाषा में पालिस लगाकर चमकाने में लगे हैं और अपने वाग्जाल में फांसे हुए हैं जैसे-उनके जैसा कोई दूसरा कवि-लेखक है ही नहीं . और ‘अष्टछाप ’ भक्त कवि बनने की दौड़ में अगली पंक्ति में खड़े हैं.
             भरत प्रसाद ऐसे रचनाकारों की बखूबी पहचान रखते हैं. सबसे अफसोस की बात यह है कि-‘साहित्य एकेडमी’ जैसी संस्था जुगाड़बाजों द्वारा तराशे गये दोयम दर्जे के सृजन पुरस्कार वितरित करने वाली संस्था बनकर रह गयी है तो अच्छी रचना सामने आएगी कैसे ?
ऐसे जुगाड़बाजों से अलग हटकर कुछ रचनाकार ऐसे भी  हैं, जो देशकाल की सीमाओं के पार की  सोच रखते हैं. ऐसी कहानी ,कविताओं की ओर भरत प्रसाद अपनी  पैनी नजर को हटने नहीं देते और उनकी पूरी खोज खबर भी लेते हैं. चाहे अफगानिस्तान में भय, हिंसा और आतंक के चक्रवाती साम्राज्य की बात हो चाहे अमेरिका की दोहरी  नीतियां, जिसको पूरी दुनिया समझ चुकी है. उसकी पुरानी आर्थिक उपनिवेशवादी नीति को .
          ‘हिन्दी साहित्य का बाजार काल' में साहित्य अब किसके लिए लिखा जा रहा है ?ऐसे ही और प्रश्नों से भरत प्रसाद दो - चार होते ही रहते हैं. आज हिन्दी साहित्य में जिस तरह बाजार ने अपनी पकड़ बनाई है पूंजीवादी बहुरूपिया का मुखौटा लगाकर जिसमें हर वर्ग ,हर जाति और हर धर्म के लोग कबूतरी जाल में दाने के लालच में फंसते चले जा रहे हैं. यही वजह है कि लेखकगण अब अपनी बात नहीं बोलते हैं. बल्कि बाजार के इशारे पर कठपुतली की तरह नाचते हैं. इन्हीं कठपुतलियों को दरकिनार करते हुए कुछ जीवट लेखक समाज में  फैले शोषण के विरूद्ध बगावत करने पर तूले हुए हैं.दुनिया के सारे सुखों से बंचित नौकरानियों,जिनपर पहाड़ों -सा दुख लदा हो. छेड़छाड़ की  आए दिन होने वाली घटनाएं हों या आवारा नौजवानों द्वारा हिंसा, हत्या और लूटपाट के अलावा दुनिया को शर्म के समन्दर में डुबा देने वाली घृणित जघन्य बलात्कार जैसी घटनाएं हों. भरत प्रसाद को झकझोर कर रख देती हैं. ऐसे लेखक और कवि बधाई के पात्र हैं जो ऐसे माहौल में रहकर उन पर उंगली उठाने से नहीं हिचकते.सामाजिक प्रतिष्ठानों में भेड़ियों के रूप में अहिंसा का संदेश सुनाने वाले कितने मिल जाएंगे दुराचारी,केवल इसकी कल्पना ही की जा सकती है.
           साहित्य दुनिया के किस हिस्से में नहीं लिखा जा रहा है. बस उसकी सही शिनाख्त नहीं हो पा रही है. भरत प्रसाद ‘स्वीडिस एकेडमी ’ की खामियों की ओर भी उंगली उठाने से नहीं हिचकते. जहां ‘ स्वीडिस एकेडमी ’ पर फ्रैच,जर्मन , स्पेनिश,अंग्रेजी , जापानी , चीनी इत्यादि भाषाओं का जबरदस्त दबदबा है  तो दुनिया की तमाम भाषाएं  उसके चौखठ पर नाक रगड़ रही हैं. फिर तो नोबेल पुरस्कार का आकाश फल चखने का मौका नहीं मिलता. भरत प्रसाद की नजर में नामधारी लेखक,आलोचकों का दरबार लगाने वाले युवा रचनाकारों को चेतावनी भी देते हैं. मंचों से चमकदार,लच्छेदार भाषणों से युवा रचनाकारों को आगाह भी करते हैं जो जोड़ -तोड़ से पुरस्कार बटोर लेते हैं और अपनी साहित्य की दुकान चमका लेते हैं. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि साहित्य का हाथ बहुत लम्बा होता है जो समय के साथ उनका जबाब-तलब जरूर करेगा और हकीकत तो यही है कि, मंचों से भाषणबाजी करने वाले यह भूल जाते हैं कि कहीं न कहीं इनकी दुकान चमकाने में इनका भी हाथ  है.खुदा बचाए ऐसे साहित्यकारों से. फिर भी भरत प्रसाद ऐसे रचनाकारों को खोज कर ही दम लेते हैं जो यथार्थ के धरातल पर लिखी गयी होती हैं. आज थोड़ा -सा पढ़ लिख कर फार्सिसी झाड़ने वाला बाबू ,अफसर अपने मां -बाप के साथ कैसा घिनौना सौतेला व्यवहार करता है कि सारे रिश्ते ताक पर चले जाते हैं. लेखक की दृष्टि न जाने ऐसे कितने प्रसंगों से मुठभेड़ करती है.                                         
           भरत प्रसाद ने बड़े बेबाक तरीके से नवसर्जकों को आगाह किया है कि जो लीक से हटकर सर्जना करेगा वही मुकाम तक जा पाएगा . जिसमें -भाषा, शिल्प,गठन ,संवेदना और कल्पनाशीलता का पुट हो. उत्तराखण्ड के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी विधवा विवाह एक अभिशाप की तरह है. इस पर भी कलम उठाना खतरे से खाली नहीं है. फिर तो ऐसे ज्वलंत मुद्दों को उठाने वाले रचनाकार भी लेखक की नजर में बने हुए हैं. इसके इतर विवाहेतर यौन संबंधों का मुद्दा उठाने वाली कहानियां भी कम नहीं हैं युवा रचनाकारों की नजर में . जिनसे हम दो-चार तो होते ही रहते हैं.
जहां एक ओर यौन उन्मुकता की ओर बढ़ता हुआ हमारा समाज है तो उसी में दाढ़ में खाज की तरह दुर्गापूजा,गणेशपूजा या ,लक्ष्मीपूजा के नाम पर प्रदर्शनबाजी बढ़ चढ़कर दिखाई देती है. भरत प्रसाद बार -बार साहित्य में आ रही गिरावट पर उंगली  उठा रहे हैं . साहित्य आज किस तरह  केन्द्र में आने के लिए बेचैन है कि युवा सर्जक जो ईमानदारी और सच्चाई की भट्ठी में पकी -पकाई कड़वी सच्चाई  को केन्द्र में लाना  चाहते हैं. जिनमें मुद्दों से सीधे टकराने ,जूझने ,संवाद करने का खुद्दार जज्बा है. लेकिन तथाकथित संपादक ऐसी रचनाओं के सपाट, भावुक,गैर व्यवहारिक  करार देकर रद्दी के टोकरी में डालने से गुरेज नहीं करते . यह बड़ा संकट है नवसर्जकों के सामने. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सम्पादकों ने अपनी- अपनी  मण्डलियां बना रखी हैं. फिर भी भेद-भाव की कठोर परतों को तोड़कर कुछ रचनाएं-जो जाति,धर्म, सम्प्रदाय की रोटियां सेकने वाले  राजनीति के शतरंजी खिलाड़ियों को बेनकाब करने में कामयाब भी रही हैं.  लेखक के चेहरे पर बार-बार चिंता की लकिरें खींच आ रही हैं कि निन्यानवे प्रतिशत सुनिश्चित रूप से नये लेखकों के बारे में सकारात्मक ,स्वस्थ और लोकत्रांत्रिक धारणा नहीं रखते हमारे वरिष्ठ लेखक.
            सच तो ये है कि अब आंखों से साहित्य का मधुर रस पीने की कला युवा सर्जक जान चुका है. इनकी सारी  ज्ञानेन्द्रियां चौकन्नी हैं,सभी दिशाओं में दोनों कान खुले हुए हैं. यही वजह है कि “आज कविता नये-नये प्रयोगों के अप्रत्याशित दौर से गुजर रही है. पैराग्राफ शैली,फुटनोट शैली,बतकही शैली ऐसे ही कुछ नये  प्रयोग हैं.”(पृष्ठ-104)
             समकालीन कविता से काव्य कला के अधिकांश गुण विस्थापित हो रहे हैं. इसलिए लेखक को कहना पड़ता है कि साहित्य में चल चुके स्थापित युवा शब्द सर्जक एक वाक्य पेंज की बायीं ओर,दूसरा वाक्य दायीं ओर और बन गयी कविता. फिर भी कविताओं के इन्हीं मलवापात में चुनिन्दा बेसकिमती काव्य पत्थर अपनी चमक के साथ मिल ही जाते हैं.भरत प्रसाद ऐसे चरित्रों को भी कविताओं में खोज निकालते हैं जो वर्तमान सर्वहारा तो है जिसके पैने दांत घिस चुके हैं. और शोषित प्रतिशोध की भावना को खुंटी पर टांग कर पूंजीवादी संस्कृति में आंख-मुंह बंद कर घुल-मिल गया है. साहित्य के मुर्धन्य मनीषियों द्वारा बार-बार कविता-कहानी से गांव के गायब होते जाने का विलाप सुनने को यदा -कदा मिलता ही रहता है. लेकिन दूर -दराज में रहने वाले शब्द सर्जकों की कविताओं में खेती -किसानी,चौपाल,गांव-जवार यानी जिनके लिए भूले बिसरे पुराने गाने हो चुके हैं. नये रचनाकारों की धड़कनों में बार-बार महसूसा जा सकता है.
           भरत प्रसाद की चिंता जहां अनोखे ग्रह पृथ्वी को बचाने को लेकर है वहीं तिलक - चंदन लगाकर प्रायोजित प्रचार का ज्वार उत्पन्न कर पाण्डित्यपूर्ण प्रदर्शन करने वाले रचनाकारों से सचेत रहने की भी चेतावनी देते हैं. ये नामचीन प्रकाशकों से उपन्यास, कहानी-संग्रह छपवाकर राष्ट्रीय स्तर के रचनाकारों की नामावली लिस्ट में जगह बनाकर मुर्धन्य हो जाना चाहते हैं. लेकिन भरत प्रसाद इससे सचेत व चौकन्ने हैं  कि बहुत देर तक किसी की आंखों में धूल नहीं झोंक सकते. तभी तो दबे ,सताए और अपमानित हुए जीवन की अविस्मरणीय पीड़ाओं से उपजी जिसमें हकीकत का स्वाद इतना तीखा है जैसी कविताओं की खोज पड़ताल कर ही लेते हैं. और कई -कई सौ पेंज रंगने वाले रचनाकार मुंह ताकते रह जाते हैं. कुल मिलाकर बात यहां तक पहुंच गयी है कि एक संपादिका को कहना पड़ता है कि-“कविताओं का इतना बुरा हाल कि गद्य और पद्य में कोई भी कुछ भी डाल देता है और उसे कविता का नाम दे देता है.”( पेंज -118 )
          लंबी कहानियां क्या भविष्य का विकास कर रही हैं ? जैसे सवालों से बार-बार रूखसत होते हैं भरत प्रसाद . लाज़मी भी है. जिस कदर कहानियों में कुछ भी परोस देना और उस पर चर्चा-परिचर्चा आयोजित करवाकर,कुछ नामचीन रचनाकार दोस्तों -मित्रों से समीक्षा लिखवाकर साहित्य की मुख्य धारा में बने रहने का फार्मूला ढूढ निकाला है,काबिलेगौर है. कहीं किसी के कसिदे में लघुकहानियों को केवल अखबारी कतरन या रिपोर्ट कहकर खारिज करना कुछ चर्चित रचनाकारों का शगल बन गया है. क्यों नहीं, चर्चा के केन्द्र में भी तो रहना है.
भरत प्रसाद ऐसी विषम परिस्थितियों व उहापोह के दौर में ऐसी कहानियों को ढूंढ़ लाते हैं जो नारी अस्मिता को खिलौने की तरह इस्तेमाल करता है. पुलिस महकमा-आतंकवाद,लूट -खसोट,गुण्डागर्दी करने वालों का बड़ा संरक्षक  भी बन जाता है. यह समाज के पतन की शुरूआत है. आगे स्थिति तो और  भयावह दिखती है कि ससुर ही अपनी पुत्री समान पतोहू के साथ अनैतिक संबंध बनाने का घिनौना प्रयास करता है,तो कहीं जेठ ही अपने छाटे भाई की मृत्यु पर उसकी पत्नी की अस्मत लूटने की ताक मे है.
            कुछ धुरंधर युवा शब्द सर्जक अपने दांव -पेंच के कारीगरी से वजनदार पुरस्कार और दूसरे कुछ नामचीन -प्रतिष्ठित प्रकाशक को अपने तांत्रिक साधना से वशीभूत कर लिया तो समझो साहित्य में उसकी सीट पक्की. इस तांत्रिक साधना को यहां व्याख्यायित करने की बहुत जरूरत नहीं है. बस एक- दो साल की मेहनत और वाहवाही की फसल तैयार. ऐसे साहित्य को भला भगवान क्या बचाएंगे ? जहां जुगाड़,मक्खन -पालिस,भेंट -उपहार और भी न जाने कितने लुभाऊ लटके -झटके जिससे कौन अचेत न हो जाए.
            इस समीक्षा आलोचना पुस्तक के अंत में भरत प्रसाद ने साहित्य की दुनिया में हावी होते अधिकारी लेखकों के जलवा की भी चर्चा की है. जिसका खमियाजा बहुत सारे युवा लेखकों को भुगतना पड़ रहा है. “आज उस अधिकारी के बैग में बड़े से बड़े प्रकाशक है.,खुद्दार सुप्रसिद्ध आलोचक ,रेडीमेड समर्थक और पुस्तक समीक्षक हैं,जो साहित्येतर सुविधाएं मुहैया करा सकता है.”( पेंज-134)
स्वाभविक है,उनकी चकाचौंध साहित्यिक रोशनी में अपनी अंतिम सांस तक लड़ने वाले युवा लेखक जब कुछ कर गुजरने की ठान लेते हैं तो साहित्याकाश में हलचल मच जाती है. फिर अंधेर गर्दी के खिलाफ हजारों हाथ खड़े हो जाते हैं. युद्ध कहां नहीं है? बाहर- भीतर कहीं भी हम सुरक्षित नहीं हैं.
भरत प्रसाद की दृष्टि साहित्य में हावी होते सामन्ती प्रवृत पर भी है जो युवा रचनाकारों की बहुत सारी खामियों पर भी चुप्पी साधे हुए हैं. यह चुप्पी कहीं भविष्य में भीषण तूफान की आने वाली सूचक तो नहीं? आज के युवा कवियों में कुछ ऐसी खामियां -जिसमें उन्हें न भारत का इतिहास ,वर्तमान ,गरिमा,गहराई,समाज ,संस्कृति  का ज्ञान है न समझ है. जिससे कविता का आम पाठक भी ऐसे युवा कवियों की कविताओं से दूरी बनाने में ही अपनी भलाई समझता है.
           भरत प्रसाद ने अपनी प्रतिभा,परिश्रम और क्षमता का भरपूर परिचय दिया है.नये रचनाकारों की,पहाड़ी झरनों से फूटती हुई नयी  धाराओं -सी रचनाएं जो भविष्य में बलखाती हुई वेगवती नदी का रूप लेने वाली हैं ,का गहन विवेचन व विश्लेषण किया है. पूर्ण संतोष व्यक्त करते हुए उनसे अपेक्षा है कि विभिन्न पीढियों के रचनात्मक अवदानों को साहित्य जगत से परिचय कराएंगे. इस पुस्तक में युवा रचनाकारों की साहित्यिक बारीकियों को बताकर भविष्य में सचेत रहने की चेतावनी भी दी है. लेकिन-राम जी तिवारी, नित्यानंद गायेन, संतोष कुमार तिवारी, आरसी चौहान,शिरोमणि महतो, मिथिलेश राय, रेखा चमोली, पूनम तूषामड़, विनिता जोशी इत्यादि की महत्वपूर्ण उपस्थिति भी आलोचक की नजरों से ओझल हो गई है. हैरान करने वाली है. वहीं भरत प्रसाद वरिष्ठ लेखकों के व्यामोह से बच नहीं पाएं हैं. उन्हें नींव के पत्थर की तरह इस्तेमाल कर ही लिए हैं. तब ‘ नयी कलम: इतिहास रचने की चुनौती ’ शीर्षक थोड़ा खटकता है.
            इस प्रकार यह पुस्तक उनके परिश्रम ,लगन और ईमानदार कोशिश का परिणाम है.इस रूप में यह कृति भरत प्रसाद को आलोचक दृष्टि की परिपक्वता की परिचायक और उनके आलोचना के अगले पड़ाव का पुष्ट प्रमाण भी है. जिसमें उनके परिश्रम, लगन,निष्ठा और ईमानदारी की स्पष्ट झलक परिलक्षित होती है और आगे भी होती रहेगी,ऐसा मुझे विश्वास है.




समीक्ष्य पुस्तक -’नयी कलम इतिहास रचने की चुनौती ‘

लेखक एवं आलोचक -भरत प्रसाद

प्रकाशक - अनामिका प्रकाशन,52तुलारामबाग,इलाहाबाद,211006

मूल्य-350

संपर्क- आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल
 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121   मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com



                                                               समालोचन से साभार