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शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

कहानी : चक्रव्यूह

   

   युवा लेखक विक्रम सिंह की कहानी पढ़ने के बाद इनकी समकालीन कहानियों के प्रति एक ललक पैदा हो जायेगी। इनकी कहानी को पढ़ने के बाद आप निराश नहीं होंगे । ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। 

चक्रव्यूह : विक्रम सिंह  
          
विशाल काय बरगद का हरा भरा पेड़ है लेकिन रात की वजह से पेड़ और पत्ते काले नजर आ रहे हैं। रात चांदनी रात नहीं है। काली रात है। पेड़ के नीचे अंधेरा फैला है। पे़ड के नीचे एक शख्स काली जंजीरों से बंधा हुआ है। वह चिल्ला-चिल्ला कर मदद के लिए आवाज लगा रहा है। आने जाने वाली गाड़ियों की रोशनी उस पर पड़ती है। तब वह नजर आता है। एक शख्स उसे बचाने की कोशिश  करता है। मगर जैसे ही वह जंजीरों को छूता है। उसे जोर का करेंट लगता है। वह चाह कर भी उसकी मदद  नहीं कर पाता है। ’’भाई साहब आप को यह किस चीज की जंजीर बंधी है। जो मैं चाह कर भी आप की मदद  नहीं कर पा रहा हूं।’’ अंत तक वह जाने लगता है। जंजीर से बंधा आदमी उसे रो -रो कर नहीं जाने के लिए कहता है।उसकी नीद टूट जाती है। अच्छा हुआ जो यह सच ना हो स्वप्न था। कैसी जंजीर थी जिसे छुड़ाना ही मुश्किल था।
मोबाइल की घंटी बजने लगती है। वह मोबाइल उठा कर पहले स्क्रीन में नम्बर देखता है। क्योंकि उसे फालतू लोगों का फोन उठाना पसंद नहीं है।  अगर उठा भी ले तो समय नहीं है। बाद में बात करेंगे। यह कह कर फोन काट दिया करता है। मगर यह फोन काम का अर्थात उसके बॉस का है।
 ’’गोपी’’
जी गुडमार्निग सर ’’
’’गुडमार्निग’’ बड़े प्यार से बॉस कहता है।
’’ हॉ, सर कोई बात थी।’’
’’हॉ,बहुत जरूरी बात है।’’
’’जी सर बताईये।’’
’’तुम्हारे मुहल्ले के पास की कालोनी में कोई दास बाबू रिटायर हुए हैं। इसके पहले की और कोई कम्पनी का एजेन्ट उसके पास पहुंच जाये या वह बैंक में पैसे जमा करे। तुम हम लोगों की कम्पनी सुनहेरा ग्रुप के बारे में बता कर हमारी कम्पनी में पॉच आठ लाख रूपये का कम से कम ई.एम.आई कराओ।’’
’’जी सर में आज ही उनके पास जाता हूं।’’
 गोपी मोबाइल काट देता है।
मोबाइल काटते ही दोबारा मोबाइल की घंटी बजने लगती है। स्क्रीन में नम्बर को देखता है। उसके जानने वाले का ही नम्बर है। वह यह समझ रहा है। क्योंकि नम्बर सेव नहीं है। क्योंकि उसके जानने वाले बहुत हैं। और वह किस-किस के नम्बर सेव करेगा। उसके जानने वाले तो उसके ग्राहक हैं जिन लोगों ने उसके चिट फन्ड कम्पनी में पैसे फिक्स किये हैं। वह फोन रिसिव कर लेता है। उधर से आवाज आती है ’’गोपी भाई जगन्नाथ बोल रहा हूं।’’ 
’’हॉ बोलिए जगन्नाथ चाचा जी’’
’’बेटा जो मैंने पैसा जमा फिक्स किया था वह दो महीने बाद मचुरिटी खत्म हो रहा है।’’
’’हॉ तो आप को डबल मिल जाएगा कोई चिंता की बात नहीं है। दो महीना पहले से बात करने की क्या जरूरत है?’’
’’नहीं हम सोचे की एक बार बात कर लेते है।’’
’’ठीक है दो महीने बाद बात करियेगा।’’
गोपी के इस तरह करीब तीन सौ के करीब ग्राहक हैं। महीने दर महीने ,साल दर साल उसके ग्राहक बढ़ते जा रहे थे। मुहले से शुरू होकर धीरे-धीरे अब शहर के कई इलाके में उसके ग्राहक है। इतने ग्राहक बनाने में उसने बहुत कड़ी मेहनत की है। शुरू-शुरू में वह साईकल से घूम-घूम कर पान की गुमटी वालो से लेकर,बर्गर बेचने,गोलगप्पा बेचने के ठेली वालों के पास जाकर अपनी स्कीम समझाता था। जरूरत पड़ने पर वह एक दफा नहीं दस दफा जाता था। आखिर तक वह उन्हें मना लेता था। सही मायने में हर एक ठेली वाला भी कम समय में पैसे दोगुना करना चाहता था। फिर धीरे धीरे उसने बाइक खरीद ली और ठेले चाय-पान की दुकान वालों से उपर वह सरकारी नौकरी करने वालो के पास जाने लगा था। दरअसल कोलियरी में काम करने वाले जो पान सिगरेट की दुकान में बैठ कर गप मारते थे। वही पान-चाय गुमटी वाले उसके ग्राहक थे। गुमटी वाले ही उन सब से मिलाने लगे थे।’’साहब जी एक स्कीम है थोड़ा समझ लीजिए। बहुत फायदे मन्द है।’’ लेकिन सही मायने में उन सब को जैसे सब कुछ पता होता।


 शुरू-शुरू में एक ही  चीटफंड की कम्पनी अक्षरा शहर में आई थी। उस कम्पनी ने अपना ऑफिस शहर के बीचों बीच खोला था। उस वक्त शहर में कई बेरोजगार लड़के नौकरी के लिए घूम रहे थे। चारो तरफ से निराश हो वह घर बैठे थे। उसी वक्त चीटफन्ड कम्पनी में कुछ बेरोजगार लड़के कमीशन एजेन्ड के तौर में लग गये। देखते देखते लगभग सभी बेरोजगार ल़ड़के इस कम्पनी के ऐजेन्ट बन गये थे। सर्वप्रथम तो ऐसे एजन्टों ने अपने घर और रिश्तेदारों को ही अपना ग्राहक बनाया था। कम्पनी की पालिसी  यह थी। ऐसे गरीब व्यक्ति जो मोटी रकम फिक्स नहीं करा सकते थे। ऐसे गरीब व्यक्ति डेलीबेसिस अर्थात प्रतिदिन दस,बीस,तीस जिसकी जो सहूलियत हो  चालू खाता खोल पैसे जमा कर सकता था। फिर एजेन्टों ने ज्यादातर ऐसे गरीब लोगों को ग्राहक बनाना शुरू कर दिया था। देखते ही देखते हर गली, नुक्कड़, मुहल्ले के मजदूर ठेले वाले कम्पनी के ग्राहक बन गये थे। एजेन्ट अपने साइकिलों पर सवार हो शाम को प्रतिदिन ठेले गुमटी वालों से पैसे कलेक्ट करने निकल जाते ठेलेवाले,गुमटी वाले और मजदूर अपने दिन भर की कमाई से दस बीस जिसकी जैसी सहूलियत होती पैसे एजेन्टों के हाथ में थमा देते थे। एजेन्ट अगले दिन कम्पनी के आफिस में जमा कर देते थे। देखते ही देखते कई बेरोजगार ल़ड़कों के लिए अच्छी नौकरी की तरह हो गया था। क्योंकि हर एक को महीने में दस पंद्रह हजार की कमाई होने लगी थी। यह कमाई सीमित नहीं थी जिस एजेन्ट के जितने ग्राहक हांेगे वह उतना ज्यादा पैसे कमा सकता था। इस लालच की वजह से हर एक एजेन्ट सुबह से लेकर शाम तक ग्राहक बनाने के लिए घूमते रहते थे। सभी एजेन्ट के बीच में ही कम्पटिसन रहता था अर्थात वह एक दूसरे के अपना कम्पटिटर मानने लगे थे। ऐसा ही हाल कम्पनी के साथ भी हो गया था। 


शुरूआत में तो पूरे देश  भर में एक ही चीटफन्ड की कम्पनी अक्षरा थी। उसने लोगों के दिल में अपना विश्वास बना लिया था। देखते ही देखते कई चीटफन्ड कम्पनियॉ मार्केट में आ गई थीं। हर एक ने दूसरे एजेन्टों को ज्यादा कमीशन का लालच देकर अपनी कम्पनी का एजेन्ट बनाने लगे थे। गोपी भी पहले अक्षरा चीटफन्ड कम्पनी का एजेंन्ट बना था। गोपी ने सही मायने में अपनी इच्छा से चीटफन्ड कम्पनी में नहीं गया था। उस समय वह चारो तरह से मजबूर हो गया था। गोपी के पिता ट्रक डाइवर थे। अचानक उनके पैरों में दर्द शुरू हो गया था। कई डाक्टरों को दिखाने के बाद भी उनका दर्द सही नहीं हो रहा था। गोपी की मॉ किसी बडे़ अस्पताल में गोपी के पिता को दिखाना चाहती थी। मगर पहले ही वह लोगों से पैसे उधार ले चुकी थी। अब आखिर किससे मदद मांगती। उसने अपने जेवर सब कुछ बेच दिये थे। बड़े अस्पताल में गोपी के पिता को लेकर गई थी। वहां डाक्टरों ने एम.आर.आई करने के बाद यह बताया कि रीड की हड्डी बढ़ने की बजह से एक नस दब गई है। जिसके वजह से पैरों में दर्द हो रहा है। जल्द से जल्द आपरेशन करना पड़ेगा नहीं तो पेरेलाइसिस हो जायेगी।’’

गोपी की मॉ ने डाक्टर से आपरेशन का खर्च पूछ,’’आपरेशन में कितना खर्च आ जाएगा।’’
डाक्टरों ने एक लाख रूपये बता दिया था।
गोपी की मॉ को काटो तो जैसे खून नहीं। गोपी की मॉ की रात की नींद उड़ गई। दिन का चैन छिन गया। अगर गोपी के पापा को कुछ हो गया तो कैसे रोजी रोटी चलेगी। और फिर जितने भी व्याह के उसके जेवर थे सब बेच दिया था। गोपी के पापा का आपरेशन करवाया था। लेकन आपरेशन के बाद गोपी के पापा की हालत ऐसी रही ही नहीं की वह टेक चला पाते। क्योंकि पैरों में वह ताकत आपरेशन के बाद आई ही नहीं थी।

घर के सारे जेवर गोपी की मॉ बेच चुकी थी। घर के राशन पानी के लिए भी अब उनके पास कुछ नहीं था।
उस समय गोपी बी.एस.सी फस्ट ईएर में था। गोपी की मॉ ने गोपी से कहा,’’बेटा अब तू कहीं काम पर लग जा। क्योंकि अपने पापा की तो तुम हालत देख ही रहे हो।’’

यूं तो गोपी पढने लिखने में बहुत होशियार था। वह डॉक्टर बनना चाहता था। बारहवीं के बाद वह एम.बी.बी.एस के लिए एन्टरान्स एग्जाम देना चाहता था। मगर गोपी की मॉ ने गोपी को कहा ,’’देख बेटा डाक्टर ,इंजीनियर बनना यह सब बड़े घर के लोगों के लिए रह गया है। हम ठहरे गरीब घर के तुम तो देखते ही हो। तुम्हारे पापा ट्रक लेकर जाते हैं तो दस-पन्द्रह दिन तक घर नहीं आ पाते हैं। जब तक घर नहीं आते तब तक चिंता बनी रहती। बस मैं चाहती हूं तो किसी तरह पढ़ाई पूरी कर के नौकरी में लग जा।’’
गोपी ने उस दिन भी अपने सपनों को स्वाहा कर मॉ की बात मान ली थी। वह जान गया था। गरीब लोगों का कोई स्वप्न नहीं होता है। घर का चूल्हा सबसे पहले होता है। जो कभी नहीं बुझना चाहिए। गोपी ने मॉ की बात फिर मान ली।

नौकरी मिलना इतना आसान नहीं था। गोपी तमाम अपने आस पास की जूट मिल,सरिया की कम्पनी में काम मागने जाता। पहले पहल तो फैक्टरी के मेनेजर यह पूछते,’’ किस पार्टी की ओर से आये हो।’’
’’ किसी पार्टी से नहीं हूं।’’

देखो भाई यह बंगाल है। यहां या तो टीमसी या सीपीएम करने वालों की नौकरी होगी। ऐसे भी यह दोनों आपस में ल़ड़ जाते हैं। एक कहता है मेरे आदमी को लो, दूसरा कहता है मेरे आदमी को लो। अगर तुमको ले लिया तो साला दोनो पार्टी हंगामा मचा देगी।
गोपी फिर ठेकेदारों के पास गया। ठेकेदार ने गोपी से पूछा,’’क्या जानते हो?’’
’’जी बारहवीं साइन्स साइड से पास हूं।’’
’’नहीं, जानते क्या हो?’’
’’जी बारहवीं की है।’’गोपी ने दोबारा कहा
’’आबे जानते क्या हो। पेन्टर,कारपेन्टर,मैकेनिक,डाइवर क्या काम जानते हो?’’
’’सर जानता तो नहीं हूं। मगर सीख जाउंगा।’’
’’अबे हमने कोई स्कूल थोड़े खोल रखा है। जो तुमको सिखायेंगे।’’
’’सर मौका दीजिए कभी शिकायत नहीं आने देंगे।’’
’’देख हेल्पर में तुम्हें नहीं रख सकते। एकदम दुबला पतला शरीर है। काम बहुत भारी है। अगर कहीं मर मुरा गया तो साला हमारी तो ठेकेदारी चली जाएगी।’’
अब कहीं नौकरी मिल नहीं रही थी। वह निराश  हो गया। उसी वक्त किसी स्कूल के टीचर जो गोपी को अच्छी तरह जानता था। एक दिन गोपी को मिल गया। गोपी ने उसे अपने घर के बारे में सब कुछ बता दिया। उसने गोपी को ट्यूशन पढ़ाने की कही।
गोपी ने मास्टर जी से कहा, ’’अगर सर आप कहीं मुझे ट्यूशन दिला देते तो।’’

मास्टर साहब ने ऐसे जगह उसे टयूशन दिला दिया जहॉ वह खुद नहीं जा सकता था। गोपी को अपने घर से करीब सात-आठ किलोमिटर दूरी पर ट्यूशन मिला था।
गोपी ने ट्यूशन पढाने के लिए अपने घर में पड़ी टूटी सी साइकिल निकाल कर उसकी मरम्मत कराई और चैन में अच्छी तरह तेल डलवा लिया था।

गोपी को तीन दिशा में तीन ट्यूशन मिले। तीनों ट्यूशन पढ़ाने के समय भी लगभग एक ही था। फिर उसी वक्त दो ट्यूशन छोड़कर एक को पढ़ाने लगा था। फिर वही एक ट्यूशन और मिल गई थी। अभी तीन दिन ही ट्यूशन पढ़ाया ही था कि चौथे दिन वह शाम को ट्यूशन पढ़ाने निकला ही था कि जोरों की बारिश  शुरू हो गई। गोपी के पास ना छाता था ना रैनकोट। वह एक पेड़ के निचे छीप गया। दो घंटे  तक लगातार बारिश  होती रही। पेड़ के नीचे भी वह लमसम भीग गया था। भीगा हुआ घर वापस आ गया।
अगले दिन उसे सर्दी जुकाम हो गया था। मगर वह शाम फिर भी ट्यूशन पढ़ाने निकल गया।

रास्ते में अचानक ही टायर पेन्चर हो गई। वह काफी दूर साईकल को पैदल लेकर गया फिर कहीं जाकर एक पेंचर की दुकान मिली। इन सब की वजह से समय ज्यादा हो गया। एक दिन ट्यूशन पढ़ाने गया तो ट्यूशन पढ़ाते समय गोपी को दो तीन बार छींक आ गई। बच्चे की मॉ ने गोपी से आकर कहा,’’भईया आप की तबियत ठीक नहीं है। आप आज आराम कर लीजिये कल पढ़ा दीजियेगा।’’
’’नहीं मैं ठीक हूं। हल्का सा सर्दी जुकाम है।’’
मैडम ने देखा गोपी मान नहीं रहा है। जी इससे बच्चे को वायरल इन्फैक्सन हो जायेगा। तबियत ठीक होने पर आईयेगा।
गोपी टयूश न पढ़ाने दूसरे घर चला गया। दूसरे घर गोपी जैसे ही बैठा था। कि मैडम आ गई ’’भईया आज आप इतने लेट आये हैं। रात के आठ बज रहे हैं।’’
’’नहीं आज आते वक्त मेरी साईकिल पेंचर हो गई थी। आमने सामने कोई पेन्चर वाला मिला नहीं। काफी दूर पैदल आने के बाद पेंचर वाला मिला था।’’
’’आप तो कल भी नहीं आये थे।’’
’’जी कल आते वक्त बारिश  शुरू हो गई थी। भींग गया था।’’
’’जी ऐसा है की आप रहने दें। हम कोई दूसरा ट्यूशन मास्टर देख लेंगे। क्योंकि आप के लिए इतनी दूर से  आकर ट्यूशन पढ़ाना सम्भव नहीं हो पायेगा।’’
गोपी घर वापस चला आया।

गोपी दोबारा उन दो ट्यूशन को पकड़ने गया। जिन्हें समय ना रहने के चलते ना बोल दिया था। किस्मत अच्छी थी कि ट्यूशन मिल गई।
गोपी के एक छात्र के पिता ,एक दिन ट्यूशन पढ़ाते समय गोपी के पास आकर बैठ गया। गोपी ने उसे नमस्कार किया। वह गोपी का हाल चाल पूछते हुए। उनके घर के बारे में पूछने लगे। गोपी ने घर मे मॉ पापा सबके बारे में बता दिया। फिर उसने पूछा,’’ ट्यूशन पढ़ाने के आलावा और क्या करते हो?’’
’’जी बस ट्यूशन ही पढाता हूं।’’

देखो सिर्फ ट्यूशन पढ़ाने से घर बार नहीं चलेगा। इससे तुम अपने जीवन में कुछ नहीं कर पाओगे। फिर तुम्हारे पिता भी बीमार है। इंसान के जब खर्च बढ़ जाते हैं। तो खर्च से नहीं घबराना चाहिए। आमदनी बढ़ाने की सोचनी चाहिए। बील गेटस ने कहा है गरीब पैदा होना इंसान की गलती नहीं है। मगर गरीबी में मर जाना इंसान की गलती है।’’

गोपी बस उसकी बात सुन कर जी सर, जी सर करता गया।
वह एक बुक लेकर आये। ओर गोपी के सामने खोल कर रख दी । बुक का कवर काफी सुन्दर था। और अंदर के पेज भी चमकदार थे। गोपी बुक को गौर से देखने लगा।’’ मैं नौकरी करने के साथ-साथ इस संस्था से जुडा हुआ हूं। यह दरअसल चैन बिजनेस है। इस कम्पनी को ज्वाइन करने के लिए मात्र 23 सौ रूपये लगते हैं। और उसके बदले में कम्पनी कई सारे प्रोडक्ट देती है। जो आप को मार्केट में बेचना है। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि आप अपने अंडर में जितने एजेन्ट बनायेंगे । तुम्हें उतना ज्यादा कमीशन मिलेगा। अब तुम्हारे अंदर के जितने एजेंट अपने एजेंट बनायेंगे। उनका भी पैसा तुम्हंे मिलेगा। इस तरह मार्केट में जितना काम तुम फैला लोगे उतना ज्यादा पैसे तुम कमाओगे।’’
गोपी ने पूरी बात गोर से सुनी। उसे कुछ-कुछ अच्छा भी लगा। मगर इस वक्त तो गोपी के पास जहर खाने के भी पैसे नहीं थे। कम्पनी ज्वाइन करना तो दूर की बात थी।
’’सर इस वक्त मेरी पोजीशन एकदम खराब है। अभी हम कम्पनी ज्वाइन नहीं कर पायेंगे।’’
’’ठीक है कोई बात नहीं तब तक तुम कम्पनी के प्रोडेक्ट को अपने मुहले में बेचना शुरू करो।’’
उसने गोपी को कम्पनी के टूथपेस्ट,ब्रेस,परफयूम,साबुन,तेल इत्यादि सामान झोले में भर कर पकड़ा दिया।
गोपी उस दिन सारे सामान झोले में ले कर घर आ गया। उस रात वह सारे सामान को झोले से निकाल कर देखने लगा। वह टूथपेस्ट के पैकट को देखने लगा। उसकी कीमत  दो सौ रूपये थी। गोपी सोचने लगा बड़े लोग तो सुबह-सुबह दो सौ रूपये दांतो में मल देते है। गोपी खुद गरीब था उसके सभी जानने वाले भी गरीब थे। किसी की भी औकात दो सौ रूपये की टूथपेस्ट से दॉत साफ करने की नहीं थी। वह सब तो सुबह-सुबह नीम के दंतवन खोज कर दांतो में रगड़ लेते हैं।

लेकिन गोपी फिर भी प्रोडेक्ट को बेचने की कोशिस करने लगा। वह अपने सभी जानने वाले ठेले चाय-पान दुकान वालों के पास गया। एक चाय दुकान वाले ने कहा,’’अभी यह तो बडे लोगों के लिए है। अब हम परफ्यूम ला कर क्या करेंगे। और अपना दांत तो दंतवने से ही ठीक रहता है। हम काहेला इतना मेहंगा टूटपेस्ट इस्तेमाल करेगा।’’ 

एक लड़का कमर में काला बैग लटकाये हुए आया और अपने बैग से रसीद कॉपी निकाल कहा,’’दे दीजियेगा।’’
ठेले वाले ने बीस रूपये देते हुए कहा,’’ थोड़ा यह प्रोडेक्ट देख लीजियेगा।’’ गोपी की तरफ मुंह कर कहा,’’गोपी इन्हें भी अपना प्रोडेक्ट दिखा दो।’’

गोपी ने जैसे ही एक साबुन का पैकेट निकाल कर दिखाने लगा। कि वह ल़ड़का मुंह विदका कर कहने लगा,’’ हई विदेशियॉ कुल हम सब भारतियन के उल्लू समझे ला। कहीं हमार साबुन से नहॉ ला फिर उकर पानी से गांड़ धो ला। उकर बाद उहे पानी के अपन पेड़ पौधा में डाल दा खाद के तरह काम करी।’’
ठेले वाला और आस-पास के लोग हंस पडे। गोपी का सिर शर्म से झुक गया। गोपी की तरफ मुंह कर के पूछा,’’आप इस कम्पनी में कितना पैसा इनबेस्ट किये हैं।’’
’’नहीं किसी ने बेचने के लिए कहा है।’’
’’तेा एक काम कर जाकर यह सारा सामान उसके कपार पर मार कर आ।तुम करते क्या हो?
’’जी काम की तलाश  में हूं।’’
’’तो तुम एक काम करो। अक्षरा कम्पनी ज्वाइन कर लो।’’
फिर गोपी को कम्पनी में काम करने के तौर तरीके बताता रहा। गोपी को यह काम अच्छा लगा। क्योंकि इसमें एक रूपये भी नहीं लगाना था। ना ही कोई प्रोडेक्ट बेचना था। बस लोगों से पैसे वसूलने थे और कम्पनी में जमा करने थे।

गोपी अक्षरा कम्पनी में एजेन्ट बन गया। देखते ही देखते उसने हर गुमटी वाले से लेकर ठेले वालों को अपना ग्राहक बना लिया था। अपने अन्डर तीस से भी ज्यादा एजेंन्ट बना लिये थे। गोपी ने अपनी कमाई से एक मोटर साईकिल खरीद ली। गोपी ने अपनी पुरानी साईकिल को पोछ पाछ कर रख ली। क्योंकि गोपी मानता था अच्छे दिन आने पर बुरे दिन को कभी नहीं भूलना चाहिए। क्योंकि उसने अक्षरा कम्पनी के मालिक की कहानी यह सुनी थी। वह भी कभी साईकल से कलैक्शन करने जाते थे। लेकिन अरबपति बनने के बाद भी आज भी उस साईकल को सभाल कर रखा है।
एक दिन वह इसी तरह वह कलैक्शन के लिए निकला था। एक दुकान में से सुनहरा कम्पनी के मैनेजर से मुलाकात हो गई। गोपी को अपनी कम्पनी के बारे में बता उसे अपना आई कार्ड दे ऑफिस में आने के लिए कहा।  गोपी को उसकी बात पर कुछ वजन लगा।
गोपी उसके ऑफिस में एक दिन चला गया।  गोपी को चाय नाश्ता सामने परोस वह समझाने लगा।’’ गोपी जी आप को हमारी कम्पनी का नाम तो पता ही है। हमारी कम्पनी सिर्फ  फिक्स डिपोजिट करती है। एक हजार रूपये से फिक्स डिपोजिट शुरू होती है। दूसरा ईम.आ.ई भी करती है। ई.एम.आई पचास हजार से शुरू हो जाता है। एक लाख का सुनहरा कम्पनी एक हजार रूपये देती है। मार्केट में कोई भी इतना पैसा नहीं देती है। आप को इ.एम.आई में  आप को एक लाख का पॉच हजार रूपये मिलेगा। फिक्स में एक लाख का बीस हजार रूपये मिलेगा।’’

उसने और भी कई सारी बातें विस्तार से गोपी को बता दी थी। गोपी उस दिन के बाद से अक्षरा और सुनहेरा दोनों कम्पनी का एजेन्ट बन गया था। ठेलेवालों और कमजोर लोगों के पैसे वह अक्षरा में डालता उन्हीं लोगों के पास आने वाले नौकरी करने वालों के पैसे सुनहेरा में फिक्स करवाता था। चूंकि गोपी ने अक्षरा में काम कर अपना विश्वास लोगों में बना ही रखा था। इसलिये उसे सुनहरा में ग्राहक मिलने में कोई दिक्कत नहीं आई। मोटी रकम फिक्स और एम.आई. करवाने के लिए कुछ कोयला के दो नम्बर से लेकर लोहा के दो नम्बर कारोबार करने वालो के पास भी गया। क्योंकि उसे लगा दो नम्बर का काम करने वालों को पैसे को एक नम्बर बनाने का यह अच्छा साधन है। और इन दो नम्बर काम करने वालों के पास पैसे की कमी नहीं होती। 
वह कईयों से मिला सबने यह कहा,’’पैसा तो हम ही डबल कर देंगे। कहीं फिक्स करने की क्या जरूरत है।’’
’’साहब बात डबल की नहीं है। अगर आप अभी किसी बैंक में पैसा जमा करने जायेंगे तो पचास रकम के सवाल जबाब होंगे। कहां से पैसा आया। साला आधा तो टैक्स में चला जायेगा। चलिये सब बात छोड़िये काम में कुछ उच्च नीच हो गई तो कम से कम कुछ इ.एम. आई रहेगा तो पैसे आते रहेंगे। चलिए वह भी छोड़िये कुछ हमारे लिए ही जमा कर दीजिए।’’

 मगर बात बनी नहीं। मगर गोपी यह जानता था कि एक मुलाकात में काम नहीं होता है। सौ मुलाकात में एक काम होता है। गोपी का जब मन करता इन लोगों के पास चला जाता। करीब पच्चीस दफा जाने के बाद गोपी को एक ने लाख रूपये की इ.एम.आई दे दी। महीने बाद ही जब उसे  इ.एम.आई आना शुरू हो गया। कुछ लोगों को अच्छा लगा और कईयों ने इ.एम.आई करवा ली किसी ने पॉच लाख का,किसी ने छःलाख और किसी ने दस का ई.एम.आई करवा ली। और उसने अच्छी खासी कमीशन कमाई। 
  
 मोटर साईकिल निकाल कर गोपी आज फिर बास के फोन आने पर दास बाबू के घर निकल गया।
दास बाबू को अपनी कम्पनी के बारे में सब कुछ समझा दिया। दास बाबू को पैसे तो ई.एम.आई करना ही था।  उन्होने कहा,’’देखिए कुछ पैसा तो हम बैंक में कर दिये हैं। एक लाख आप की सुनहरा में कर देते हैं।’’
गोपी ने कहा,’’बैंक से तो ज्यादा पैसा देती है सुनहरा कम्पनी।’’
’’मगर विश्वास तो गर्वमेंट बैंक देती है।’’
’’अंकल मगर सुनहरा कम्पनी में तो कई लोगों ने पैसे जमा किये हैं। लोगों का कम्पनी में विश्वास  है।’’

दास बाबू मुस्कुराये और कहा,’’कोई कम्पनी के विश्वास  पर पैसे नहीं देता है। सब आप का चेहरा देख कर देते है। तुम पर सब विश्वास  करते हैं कि तुम किसी का पैसा गलत जगह नहीं फंसाओगे। मैं भी तुम्हारे विश्वास  पर एक लाख जमा कर रहा हूं। समझ जाओ एक लाख का जुआ खेल रहा हूं। फिर हर एक को ज्यादा पैसा कमाने की लालच होती है। मुझमे भी है पर अधिक लालच करना भी ठीक नहीं होता है।
’’भगवान करे की आप इस जुऐ में ज्यादा जीत पाये।’’
दास बाबू ने एक लाख रूपये का ई.एम.आई सुनहरा में करवा लिया।
मगर दास बाबू की एक बात ने उसे सोचने में मजबूर कर दिया। अब तक उसने जितने भी पैसे जमा करवाये हैं। सबने मेरे उपर विश्वास  किया है। मैं क्या इतना बड़ा आदमी हूं। ऐसा होता तो मैं खुद की कम्पनी नहीं खोल लेता। वह मन ही मन मुस्कुराया साला दास बाबू ने तो एकदम से खोपड़ी घुमा दी।
एक रात ग्यारह बजे उसके एक एजेन्ट का फोन आया।’’गोपी भाई सुनने में कुछ आया है।’’
’’क्या?’
’’कलकत्ता का हेड आफिस एक सप्ताह से खुला नहीं है।’’
’’हमारे इलाका का आफिस खुला है ना’’
’’गोपी भाई हेड आफिस का बंद होना यह साफ बता रहा है। कम्पनी बंद हो गई है।’’
’’अरे नहीं यार।’’
’’क्या पता कहीं यह भी बंद ना कर दे।’’
’’कुछ नहीं होगा तुम सो जाओ।’’

कहते हैं कि एक दिन अचानक हर न्यूज चैनल में ब्रेकिंग न्यूज की खबर दिखाई जाने लगी। सुनहरा चीटफंड कम्पनी बीस हजार करोड़ का पैसा लेकर फरार। सुनहरा कम्पनी के बिल्डिंग के दरवाजे में ताला लटका हुआ दिखाया जा रहा था। बिल्डिंग के बाहर करीब हजारों की संख्या में लोगों को दिखा रहे थे। एक संवाददाता हाथों में माइक लिए कह रहा था,’’करीब करोडों रूपयो का घोटाला कर चीटफंड कम्पनी सुनहरा फरार हो चुकी है। आप देख सकते हैं हजारों की सख्या में लोग यहा खड़े हैं। जिन्होंने सुनहरा कम्पनी में अपने पैसे फिक्स किये थे। हर एक के ऑखो में आंसू हैं। दिल में दर्द है। चेहरे पर गुस्सा साफ झलक रहा है।’’मैं राकेश  तीवारी केमरा मेन राजू के साथ, आज तक।

गोपी किसी को कम्पनी की स्कीम समझा रहा था। कि उसका मोबाइल घनघनाने लगा। ’’बोल यार क्या हुआ?’’
’’गोपी भाई बहुत बुरी खबर है।’’
’’ क्यों क्या हुआ है?’’
’’न्यूज चेनल में  खबर आ रही है कि सुनहरा कम्पनी लोगों का पैसा लेकर फरार हो गई है।’’
’’क्या कह रहे हो?’’

मैंने तो घर से निकल कर मुम्बई की ट्रेन पकड़ ली है। अब वही मौसा जी के पास रह कर किसी कम्पनी मे काम करूंगा।’’
’’तू भी अपने घर से निकल जा वरना लोग तुझे भी खोजते हुए तेरे घर आ रहे होंगे। कई एजेन्टों को पब्लिक पीट रही है।’’
गोपी ने झट अपनी बाईक स्टार्ट की और वहां से अपने लोकल ऑफिस की तरफ भागा उसने दूर से देखा आफिस के बाहर कई लोगों की भीड़ लगी है। वह नहीं देख पाया की आफिस में ताला लगा हुआ है या नहीं। वहॉ से बाईक निकाल वह भाग खड़ा हुआ।
गोपी के घर के बाहर कई लोगों की भीड़ लगी हुई थी। गोपी की मॉ दरवाजे के पास बैठी लोगों से कह रही थी। ’’देखिये गोपी तो वहॉ काम करता था। अगर आप लोग अपना पैसा लेने आये हैं। तो घर का जो भी सामान है ले जाकर बेच कर पैसा ले लीजिए।
गोपी अपने घर की तरफ आया तो यंहॉ भी उसे दूर से ही भी़ड देखा। उसे समझ नहीं आया की वह कहां जाये। वह शहर से दूर भागाने लगा। 

बाइक पर सवार वह भागता जा रहा है। बाइक चलाता-चलाता उसकी कमर में दर्द आ गया। रास्ते में एक जंलग में अपनी बाईक को लेकर चला गया। एक पेड़ के नीचे बाईक खड़ी कर उस पेड के निचे बैठ गया। थकान के चलते उसे वहीं पर नीद आ गई।
जब उसकी ऑख खुली तो अंधेरा छा चुका था। वह आसमान के ऊपर सिर उठा कर देखता है। वह बरगद के विशालकाय पेड़ के निचे बैठा है। उसे ऐसा महसूस होने लगता है। वह चारो तरफ से जंजीरों से जकड चुका है। येसी जंजीरें हैं। जिसे कोई नहीं खोल सकता है। उसे अपना स्वप्न सच होता नजर आ रहा था।
अगले दिन की सुबह पेड़ पर गोपी की लाश  लटक रही थी। पेड़ के पास कई लोगों की भीड़ लगी हुई थी। अब जितने मुंह उतनी ही बातें । कुछ लोगों का कहना था,गोपी ने लोगों के डर से आत्म हत्या कर ली है। कुछ का कहना था, जिनके चीटफंड में पैसे फंसे थे उन लोगों ने गोपी को मौत के घाट उतार दिया है। कुछ लोगों का ऐसा भी कहना था कि गोपी को चोरों ने पैसो की खातिर मार दिया है।  
 
पुलीस तहकिकात में लगी थी कि गोपी की हत्या हुई थी या गोपी ने आत्म हत्या की थी।और आखिर इसकी मौत का जिम्मेदार कौन है?                                                                                                                                                                                                                                                      
परीकथा 2015 के नवलेखन अंक से साभार   

सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत

सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039
           
                           

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

कहानी - गुल्लू उर्फ उल्लू : विक्रम सिंह



   विक्रम सिंह  1 जनवरी 1981

समकालीन रचनाकारों में तेजी से अपनी जगह बनाते जा रहे युवा लेखक विक्रम सिंह की कहानियां हर महिने किसी न किसी पत्रिका में आपको पढ़ने को मिल जाएंगी। इनकी कहानियां  राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं यथा समरलोक , सम्बोधन , किस्सा , अलाव , देशबन्धु , प्रभात खबर ,जनपथ ,सर्वनाम , वर्तमान साहित्य , परिकथा , आधरशिला , साहित्य परिक्रमा , सेतु , जाहन्वी , परिंदे इत्यादि में प्रकाशित। एक कहानी परिकथा 2015 के जनवरी नव लेखन अंक में प्रकाशित एवं बहु चर्चित तथा एक-एक कहानी कथाबिंब , निकट ,  प्रगतिशील वसुधा  माटी पत्रिका में स्वीकृत । अब विभिन्न ब्लागों में आवाजाही । परिंदे में प्रकाशित इस कहानी को पढ़िए आज इस ब्लाग पर । आपके विचारों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।
पुस्तक - वारिस ;कहानी संग्रह-2013
सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत 

कहानी गुल्लू उर्फ उल्लू
विक्रम सिंह
अब जहाँ ई.सी.एल कम्पनी का क्वार्टर हैं, पहले कभी यहाँ जंगल हुआ करता था। कहते हैं कि जब नया-नया क्वार्टर बनने की योजना बनी तब ई.सी.एल ने जंगल को अपने बड़े-बडे बुलडोजर चला कर जंगल को साफ कर दिया। वहाँ एक साफ सुथरा मैदान बना दिया गया था। फिर वहाँ दो रूम, एक हाल रसोई, लेट्रिन-बाथरूम अर्थात टू बैडरूम वाले क्वार्टर तैयार किये गये थे। और उस क्वार्टर में आने के लिए हर एक कर्मचारी कोशिश करने लगा था। उन्हीं दिनों एक परिवार मनराज चौधरी का रहने आया था। उसके साथ एक बेटी और एक बेटा साथ आया था। यूँ तो उसके तीन लड़के और दो लड़कियाँ थी। मगर मंनराज और उसकी पत्नी के साथ सिर्फ उसका सबसे छोटा लड़का और बेटी ही आई थी। बाकी का परिवार गाँव में रह रहा था।
 
करीब सप्ताह भर बाद एक दिन मैं सुबह-सुबह उठकर पढ़ने बैठ गया था। सिर्फ मैं ही नहीं करीब कालोनी में हर एक विद्यार्थी सुबह पढ़ने बैठ जाया करते थे। उन दिनों हम सब कालोनी के सब विद्यार्थी जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर पढ़ा करते थे। कोई एक आद ही होगा जो मौन पढ़ता होगा। कालोनी में सब की आवाज गूँजती रहती थी। उस दिन सुबह अचानक कानों में गानों की आवाज आने लगी थी। गाना किशोर कुमार का था। मेरे सामने वाली खिड़की में एक चाँद का टुकड़ा रहता है...........। मैं गाने सुनने में मस्त हो गया था। करीब पन्द्रह मिनट तक एक के बाद एक सदाबहार गाने बजते रहे। अचानक से किसी की चिल्लाने की आवाज आने लगी,'' कौन पागल सुबह-सुबह टेपरिकाँर्डर बजा रहा है। मैं घर से बाहर दरवाजे के पास आकर खड़ा होकर देखा,तो प़ड़ोस के ही शमसुद्दी्न मियाँ थे। और शायद नाइट शिफ्ट डयूटी कर के आये थे। इस तरह से ऊँची आवाज में गाने बजने की वजह से उसकी नींद टूट गई थी। गाने की आवाज मनराज चौधरी के घर से आ रही थी। मुझे लगा की मनराज को गाने सुनने का शौक होगा। मगर जब मियाँ शमसुद्दीन लगातार गरियाते जा रहा था। मनराज का लड़का रनजीत सिंह उर्फ गुल्लू निकला था। यूँ तो उसका नाम रनजीत सिंह था। पर उसको सब घर में गुल्लू कह कर बुलाते थे। गुल्लू नाम पड़ने के पीछे भी कुछ कारण था क्योंकि कहानी तो मुझे भी नहीं पता थी। बस इतना सुना था कि रनजीत का दिमाग कुछ ऐसा था कि उसके पिता मनराज उसे हर बात पर उल्लू कह कर पुकारने लगे थे। रनजीत जब रुठ जाता खाना नहीं खाता तो माँ उसे बडे प्यार से मनाती थी। हमार रनजीत उल्लू थोड़े हवे हमार गोलू, हवे हमार सलू, हवे हमार गुल्लू हवे। बस यही से रनजीत का नाम गुल्लू पड़ गया था। गुल्लू ने कच्छा पहन रखा था। कच्छे का नाड़ा जूते के फीते का था। बदन पूरा नंगा था। ऐसा लगा जैसे वह घर का काम कर रहा हो। हाँ यह सच भी था कि गुल्लू घर का काम किया करता था। वह अपने माँ के साथ घर के बर्तन, झाडू पोंछा, कपड़े धोने तक के काम करवाया करता था। जब वह माँ को काम करते देखता तो माँ से कहता,''माई तू कितना काम करे ली थक जात होई।. बहनी रीना भी तोहार संग काम ना करेली।''
''बेटा तोहार बहनी अभी छोट हई ना। बड़ हो जाई त अपने करे लगी।''
''तेा ठीक बा माई जब ले बहनी छोट बा हम तूहार संग काम कराईब।''
बस तब से गुल्लू माँ के हर काम में हाथ बंटाने लगा था। गुल्लू ने समसुद्दीन से कहा,''जी क्या बात हो गई।''
''इतनी आवाज कर के गाने क्यो सुन रहे हो।'' 
''जी ठीक है, आवाज कम कर देता हूँ।'' इतना कह जैसे ही गुल्लू घर के अंदर जाने लगा कि शमसुद्दीन ने कहा,'' उल्लू का पट्ठा कही का।'' बंदूक की गोली की तरह हवा को चीरती हुई। शब्द गुल्लू के कानों में ठांय से लगी। गुल्लू ने अपनी गर्दन घुमा कर शमसुद्दीन को देखा और कहा,''उल्लू होगा तू।'' फिर एक से एक गालियाँ गुल्लू ने उसको दे दी और घर के अंदर चला गया। यह सब देख हम सब हैरान रह गये। मगर खूब मजा आया था। क्योंकि शमसुद्दीन की आदत थी। सुबह हो या शाम वह अक्सर हम सब को खेलते देख हल्ला मत करो कह भगा दिया करता था। हाँ तो वह हम लोगों से गुल्लू की पहली मुलाकात थी।
 
उन दिनों गुल्लू की सदाबहार गानों से उसके पास की लड़की गुल्लू को दिल दे बैठी थी। गुल्लू भी उसे चाहने लगा था। शायद गुल्लू से वह दिन में मिलने से डरती थी कि कही किसी ने देख लिया तो माँ बाबू जी को पता चल जायेगा। उसने गुल्लू को पत्र में लिख के दिया था। मैं खिड़की के पास में सोती हूँ तुम मुझसे रात को खिड़की के पास आकर इशारा करना तो मैं जाग जाउँगी। खिड़की में आ जाउँगी। उन दिनों हमारे कालोनी में एक चोर की चर्चा थी कि वह लम्बी लकडी के आगे हुक लगाकर रखता था। जिसकी भी खिड़की खुली देखता था। हुक से उसके घर का सामान खींच कर भाग जाता था। कालोनी के लोग उससे काफी परेशान थे। एक रात गुल्लू जब उसके घर में सारे गहरी नींद सो गये तो गुल्लू धीरे से दरवाजा खोल कर बाहर आ गया और अपनी प्रेमिका के खिड़की के पास इशारा कर उसे खिड़की के पास बुला लिया। वह आपस में बात करने लगे। तभी अचानक एक आदमी जोर-जोर से चिल्लाने लगा,चोर....चोर। यह सुन प्रेमिका ने गुल्लू से कहा,तुम जल्दी यहाँ से चले जाओ। गुल्लू वहाँ से जैसे ही हट कर रास्ते में आया तो गुल्लू के सामने से चोर भाग रहा था कि गुल्लू ने उसे पकड़ कर अपनी बाहों में जकड़ लिया। गुल्लू के पापा की नींद हल्ले से खुल गई देखा तो दरवाजा खुला हुआ था गुल्लू घर पर नहीं है। बाहर निकल कर देखा तो गुल्लू कुछ लोगों के बीच खड़ा था। वह सब गुल्लू को पीठ थप थपा रहे थे। गुल्लू ने शातिर चोर को पकड़ लिया है। मनराज चौधरी की तो होश उड़ गये इसलिये नहीं कि उसने चोर को पक़ड़ लिया वह यह कि वह रात को बाहर क्या कर रहा था? उस दिन गुल्लू को इनाम में खूब पिटाई हुई थी।
 
गर्मियों की छुट्टी के बाद जब स्कूल खुले तो मैंने गुल्लू को स्कूल में अपने ही क्लास में देखा। वह पीछे की बेंच पर बैठा था। मैंने उसे आगे को बुला लिया था। वह आगे नहीं आना चाहता था मगर मेरे कहने पर आ गया था। बाद में पता जो चला वह यह की गुल्लू किसी दूसरे स्कूल में पाँचवीं में तीन साल फेल हो गया था। मनराज ने हमारे इस सरकारी स्कूल में पैसे देकर सीधा आठवीं में दाखिला करवा दिया था।
 
क्लास में जे.एन.यू सर आये थे। जिनकी एक अजीब आदत थी कि वह किताब से कुछ ना कुछ ऊटपटांग सवाल पूछ लेता था। उस दिन भी उसने पहला सवाल गुल्लू से ही किया था। ''बता कुत्ते कितने प्रकार के होते है?'' 
गुल्लू ने फट से जवाब दिया,''सर कुत्ते तीन प्रकार के होते है।'' इतना कहने की देर थी की पूरे क्लास में जोर का ठहाका लगा था। सर ने जोर से चिल्ला कर कहा,चुप।'' क्लास मैं एकाएक शान्ति पसर गयी थी। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि क्लास में अभी-अभी जोर का ठहाका लगा हो। मास्टर साहब ने गुल्लू से कहा',''कुत्ते की तीसरी प्रजाति तूने कहां से पैदा कर दी। जरा बताना कुत्ते तीन प्रकार के कैसे हुए।'' 
''सर एक हुआ जंगली दूसरा हुआ पालतू और तीसरा हुआ फालतू जो गली नुक्कड़ में घूमते हैं। जहाँ मन किया हग देते हैं।'' एक बार फिर जोर का ठहाका लगा था। मास्टर जी ने फिर से अपने तेवर से सब को चुप करा दिया था। दांत पीसते हुए गुल्लू पर डंडे बरसाने लगे थे। डंडे बरसाने के बाद उसने गुल्लू को उल्लू का पट्ठा कहा था। मैं डर गया कि कही गुल्लू मास्टर जी को गाली ना दे बैठे। मन ही मन गुल्लू ने मास्टर जी की खूब माँ बहन एक की थी। मगर मैं उस दिन सोच रहा था कि गुल्लू अपनी जगह सही है। आखिर उसने प्रेक्टिकल देख जवाब दिया था। सही मायने में गुल्लू की वहाँ नजर जाती थी जहाँ इंसान सोचता नहीं है।
 
क्योंकि हमारे उसी स्कूल में एक बी.एच.यू सर हुआ करते थे उनकी एक बहुत ही गंदी आदत थी। वह आकर क्लास में बैठ जाया करते थे। और वह खंखार कर अपने बलगम को मुँह में ले आया करते थे। फिर उसे चबाते रहते थे। उस वक्त पूरे क्लास के लड़के घृणा से भर जाते थे। अपना सर नीचे की तरफ रखते थे। कोई भी उसे देखना नहीं चाहता था। मगर गुल्लू उसे ध्यान से देखता रहता था। मैंने एक दिन गुल्लू से पूछा,''यार तुझे घृणा नहीं आती इस तरह उसे देखकर।'' 
''नहीं दोस्त! घृणा करने वाली बात नहीं है। सोचने वाली बात है साला यह मास्टर चालाक है। बाहर से बबलगम खरीदने की बजाये, अच्छा है अपने अंदर से ही बबलगम निकाल कर जुगाली की जाये।''
इसका मन रखने के लिये मैंने इतना कहा,''क्या बात की दोस्त।' लेकिन बाद मैं काफी देर तक इस बात को सोचता रहा कि इस तरह का किसी ने भी क्यों नहीं सोचा 'क्या सचमुच बी.एच.यू सर ऐसा ही सोचकर खंखार कर बबलगम चबाते रहते थे। शायद यह एक मनोवैज्ञानिक प्रश्न था। लेकिन कुछ दिनों बाद हमने देखा था कि बी.एच.यू सर ने खंखारना छोड़ दिया था। और उसके मुँह में असली का कुछ होता था जिसे वह चबाते रहते थे।
 
मैंने देखा कुछ दिनों बाद जे.एन.यू सर भी गुल्लू से खुश हो गये थे। और गुल्लू की तीन कुत्तों वाली बात को सही ठहराने की कोशिश करने लगे थे। ''देखो बाहर के गलियों में घूमने वाले कुत्ते जो होते है इन्हें विदेशों में स्टीट डाग बोलते हैं। गुल्लू की बात ठीक ही थी मगर कहने का तरीका गलत था।'' 
मुझे यह सब सुन कर अद्भुत लगा था। इस रहस्य को जानने की मुझमें प्रबल इच्छा जाग गई थी। चूकि ठण्ड का समय था और हम सब टिफिन के समय अर्थात लन्च के समय छत पर खाना खाने जाते थे। गुल्लू ने एक दिन मुझे कहा यार चल आज हाफ डे चलते है। उस दिन मुझे एक जंगल के बीच मैदान में ले गया और एक हरी घास के मैदान में जाकर लेट गया। अपने बैग से मीठे बेर का आचार निकाल कर रख दिया। उस दिन खूब अच्छा लग रहा था। हल्की-हल्की ठण्ड में सूर्य की रोशनी हमारे बदन को गर्म कर रही थी जैसे माँ शिशु की मालिश कर रही हो। उस पर जब मीठे बेर के आचार को मुँह में लेते थे। अजब सुखद का एहसास हो रहा था। मैंने गुल्लू से कहा,''यार गजब का मजा आ रहा है।'' 
गुल्लू ने कहा,''ठण्ड में दिन में मजा खुले आसमान के नीचे लेट कर आसमान को देखकर सभी किताब काँपी से दूर रह कर जो मजा है ना वह और कही नहीं मेरे दोस्त। और गर्मियों में रात में छत में लेट कर आसमान के तारे देखकर सोने में मजा है। इसलिए तो यहाँ आया हूँ। नहीं तो अभी चार दीवारी के अंदर इन पागल टीचरों के चेहरा देख कर पक रहे होते।'' 
सही तो यह था गुल्लू के चेहरे में भविष्य को लेकर कोई चिंता कभी नहीं रहती थी। एक दिन इसी तरह हम धूप में बैठकर बेर का अचार खा रहे थे। मैंने पूछा,क्या तुम्हें अपने भविष्य को लेकर कोई चिंता नहीं होती।''
वह हसा,हा......हा......हा...! यार तुम्हारे होते हुए मुझे क्या चिंता है।''
''वह कैसे?''
क्योंकि यार जब तुम पढ लिखकर बड़े ऑफिसर बनोगे। तो तुम मुझे अपना चपरासी रख लेना।''
फिर ना जाने उसने यह बात मुझसे कितनी बार कही थी। मगर गुल्लू की यह बात सुन कर मैं मन ही मन उसे उल्लू ही समझता था।'' मैं कहता चपरासी बनने के लिए भी कम से कम आठवीं पास होना पड़ता है।'' 
खैर मेरे अंदर जो एक रहस्य छिपा था। वह दसवीं के रिजल्ट आने के बाद खुला था। दरअसल गुल्लू दसवीं में बडे खराब नम्बरों से फैल हो गया था अर्थात वह प्रत्येक विषय में फेल हो गया था। मगर गुल्लू ने नवीं तक तो इस तरह के नम्बर नहीं आये थे। मैं गुल्लू से एक दिन पूछा,''यार रनजीत तो नवीं तक तो ठीक ठाक पास हो गया। मगर यह क्या दसवीं में तू सारे विषयों में फेल हो गया।'' 
गुल्लू दुखी होने की बजाये जोर-जोर से हंसा। वह तो मेरी खट्टी दही और बबलगम का कमाल था। दरअसल गुल्लू ने मुझे जो बताया था। वह यह था कि वह जे.एन.यू सर के पास टयूश्न पढ़ने लगा था। चूकि जे.एन.यू सर को डायबिटीज थी। इस वजह से गुल्लू उन्हें हर रोज दही दिया करता था। जिससे वह बहुत खुश हो गया था। गुल्लू हमेशा स्कूल से आने के बाद रात आठ से नौ साइकिल लेकर जे.एन.यू सर के घर टयूश्न पढ़ने जाया करता था। उस समय हम सब घर पर पढा करते थे। इस वजह से हमें यह बात पता नहीं चली थी। उसने ही मुझे बताया था कि बी.एच.चू सर को बचपन में बबलगम खाने की आदत थी मगर उसके बाबू जी कभी उसे पैसे नहीं देते थे। उसी समय गाँव में बी.यच.चू सर को किसी ने कह दिया था कि ''बबलगम तो तुहार बितरे बा रे बस जब मन करी तब खगार ला उके जीबा लिया कर।'' यह बात गुल्लू को जे.एन.यू सर ने बताई थी। बस फिर क्या था गुल्लू ने एक दिन जो की टीचर डे का दिन था बी.यच.यू सर को एक कलम के साथ बड़ा पैकिट बबलगम का खरीद कर दे दिया था। और यह क्रम चलता रहा लगातार कम से कम नवी पास होने तक। लेकिन सही मायने में दोनों सर यह अच्छी तरह जानते थे कि गुल्लू पढ़ने लिखने में एकदम गधा है। इसलिये उसे हमेशा अच्छी तरह पढ़ने के लिये कहते थे। बोर्ड के परीक्षा का पेपर उनके हाथों में नहीं था इसलिये वह फैल हो गया था। उस दिन मुझे समझ में आया था क्यों गुल्लू मुझे यह कहता था कि तुम मुझे अपना चपरासी रख लेना।
 
इसके बाद गुल्लू लगातार फेल होता गया। हम सब क्लास दर क्लास ऊपर उठते गये। अंत तक गुल्लू ने पढाई छोड़ दी थी। चूकि गुल्लू को गाने सुनने का शौक था इसी शौक ने उसे टेपरिकाँर्डर की मरम्मत करने का मिस्त्री भी बना दिया था। सो वह धीरे-धोरे बिजली मिस्त्री बन गया और कई लोग अपने टेपरिकाँर्डर उसे सही कराने लगे थे। और यह वह समय था जब लोगों के पास मोबाईल डीवीडी नहीं हुआ करता था। एक दिन गुल्लू शायद टेपरिकाँर्डर का समान लेकर बाजार से वापस आ रहा था। तो रास्ते में उसने देखा कि एक घर धू-धू कर के जल रहा था। अंदर से कुछ लोगो की जिसमें बच्चे और स्त्री की रोने की आवाज आ रही थी। आस-पास सभी खड़े तमाशा देख रहे थे। गुल्लू ने आव देखा ना ताव उसने अपनी साइकिल वही फेंक दी। किसी सुपर मैन की तरह वह आग को चीरता हुआ अंदर छलांग लगा दिया। पलक झपकाते ही वह वापस किसी को गोद में लिए छलांग लगा कर बाहर आ गया। उसे जमीन पर लेटा दोबारा अंदर घुस गया। लोग झट से बाहर लाये बच्चे जिसकी उम्र मात्र सात साल की थी उसे देखने लगी। और चिल्लाने लगे, भाई डाक्टर के पास इसे ले चलो। गुल्लू छलांग लगाकर दोबारा वापस आ गया। फिर किसी को गोद में उठा कर लाया और उसे जमीन पर लेटा कर एक बार फिर अंदर घुस गया। मगर इस बार गुल्लू नहीं निकला था। सब यही सोच रहे थे फिर दोबारा गुल्लू वापस आयेगा। करीब पंद्रह मिनट तक गुल्लू नहीं निकला था। फायर दमकल आ गई उसने आग को करीब दस मिनट में बुझा लिया था। आग बुझने के बाद गुल्लू और एक स्त्री मृत अवस्था में मिली थी। गुल्लू को उठा कर वही पास के एक रूम में लेटा दिया गया था। वहाँ अच्छी खासी भीड़ लग गई थी। लोग आपस में खुसुर पुसुर करने लगे थे। कोई कह रहा,''लड़का अब जिन्दा नहीं है। हाँ अपने जान पर खेल कर दो बच्चों की जान बचा ली है। आज कल ऐसे बच्चे मिलना बड़ा मुश्किल है। जो दूसरों के लिए अपनी जान गवा दे। कुछ ऐसे भी लोग थे जो गुल्लू को जानते थे। वह कह रहे थे यह तो मनराज चौधरी का लड़का है। एक सज्जन ने पास खड़े एक व्यक्ति के कान में धीरे से कहा,''भाई अपनी जान दाव पर लगा कर आग में इस तरह घुस जाना भी कोई समझदारी है क्या? एक नम्बर का उल्लू था यह लड़का।'' अचानक से गुल्लू उठ कर बैठ गया किस मादर जात ने मुझे उल्लू कहा। उल्लू होगा तू तेरा खानदान। अचानक से सारे लोग वहां से छिटक गये। कुछ पीछे को गिर गये। वह व्यक्ति जिसने यह बात कही थी वहाँ से भाग लिया। उसके होश उड़ गये। उसके समझ में नहीं आया गुल्लू ने यह बात कैसे सुन ली। उस वक्त गुल्लू का चेहरा कुछ जला हुआ सा था जिससे वह और भयानक लग रहा था। लेकिन तब तक गुल्लू के माता पिता आ गये गुल्लू को अस्पताल लेकर चले गये।
 
कुछ दिनों तक कालोनी में शान्ति रही क्योंकि गुल्लू का टेपरिकार्डर नहीं बज रहा था। कितनों के टेपरिकाँर्डर गुल्लू के पास खराब बनने के लिये पड़े थे।
 
करीब पन्र्दह दिनों बाद एक दिन सुबह-सुबह कुछ लोगों को अखबार लेकर भागते हुए देखा। मैं समझ नहीं पाया की आज लोग बाग इस तरह अखबार लेकर क्यों भाग रहे हैं? अखबार तो मेरे घर भी आता था। मगर अभी तक मैंने अखबार देखा नहीं था। लेकिन इस तरह लोगों को देख मैंने भी अखबार उठा लिया था। उस दिन गुल्लू के बारे में अखबार में छपा था। गुल्लू को राज्य सरकार वीरता का सम्मान देने की खबर छपी थी। इस खबर से गुल्लू की चारों तरफ चर्चा होनी शुरू हो गई थी। जिससे सबके होश उड़ गये थे। मैंने भी गुल्लू को इसकी बधाई दी थी। लेकिन गुल्लू के पापा तो गुल्लू के इस तरह के किये काम से खासे नाराज थे। उनको लग रहा था कि जो मैं गुल्लू के बारे में सोचता था वह सही सोचता था गुल्लू सही में एक नम्बर का उल्लू का पट्ठा है। अपनी जान को इस तरह जोखिम में डाल दिया था। अगर उस दिन कुछ हो जाता तो क्या होता? उन्होंने गुल्लू को गाँव में भेजने की योजना बना ली थी।
आखिरी समय में गुल्लू मुझे इतना कह कर गया था,''यार मुझे याद रखना अगर ऑफिसर बन गये तो मुझे अपना चपरासी जरूर रख लेना।'' 
मैंने हँस कर गुल्लू से बस इतना कहा था,'' अरे यार इतना नाम कमाया तुमने सरकार ने तुम्हें वीरता का सम्मान दिया है नौकरी भी तुम्हें देगी।''
गुल्लू गाँव चला गया। आगे जो मुझे गुल्लू के बारे पता चला था। वह यह की गुल्लू का गाँव में मन नहीं लगा था। इस वजह से वह अपने गाँव के लड़के के साथ करीब गाँव से सौ किलोमीटर दूर एक प्राइवेट कम्पनी में इलैक्ट्रीशियन लग गया था। करीब साल भर बाद कम्पनी कर्मचारियों की छंटाई कर नई बहाली करने लगी थी। वह इस वजह से की वह पुराने कर्मचारियों को परमानेन्ट नहीं करना चाहती थी। और आगे चल कर कर्मचारी परमानेन्ट करने की डिमान्ड ना कर दे। इस पर सभी कर्मचारी एक जुट हो गये थे। गुल्लू कर्मचारियों का लीडर बन गया। कर्मचारियों के निकाले जाने पर वह बीच सड़क के चौराहे पर आमरण अनशन पर बैठ गया। करीब गुल्लू सप्ताह भर अनशन पर बैठा रहा। हर दिन अखबार में गुल्लू की खबर छपने लगी। अब गुल्लू की हेल्थ चेकअप के लिए स्वास्थ्य विभाग वाले आते और गुल्लू का स्वास्थ्य का चेकअप कर के चले जाते थे। अगले दिन गुल्लू की स्वास्थ्य की खबर भी छप जाती थी। कहते है उन दिनों कड़ाके की ठण्ड थी। मगर गुल्लू को ठण्ड की भी कोई परवाह नहीं थी। कर्मचारियों ने पैसे इक्टठे कर वहाँ टेन्ट लगा दिया । कम्बल बिछा दिये गये। कुछ लोग यह भी कह रहे थे। गुल्लू अनशन कर के शहीद हो जायेगा। कम्पनी के मालिक तो पैसा देकर प्रशासन तक को खरीद लेगा। मगर गुल्लू का अनशन जारी रहा। अब कुछ नेता भी अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने के लिए गुल्लू से मिलने आ गये। उन्होंने साफ-साफ कहा हम इस तरह कर्मचारियों का शोषण नहीं होने देंगे। और देखते ही देखते एक युवा नेता भी अनशन में बैठ गया था। फिर मैनेजमेन्ट के ऑफिसरों के पुतले फूंके जाने लगे थे। मैनेजमेन्ट भी धमकी देने लगी थी कि अगर यह मामला शांत नहीं हुआ तो हम अपना प्लान्ट उठा लेंगे। गुल्लू ने भी साफ कहा,''हम ऐसी धमकियों से नहीं डरेंगे।
अंत तक श्रम अधिकारी ने कम्पनी से बात कर के मामले को शांत किया ओर धीरे-धीरे कर के सभी कर्मचारियों को वापस ले लिया गया।
 
कहते हैं यही से गुल्लू की दोस्ती नेताओं से हो गर्इ्र थी। उसने पार्टी ज्वाइन कर ली थी। पार्टी की रैलियों जुलूसों में भी जाने लगा था। कही तो भाषण भी देने लगा था। गुल्लू की भाषण सुन पब्लिक खूब हंसती थी।
 
बस मुझे गुल्लू के बारे में यही तक पता चला था। उसके बाद मुझे गुल्लू के बारे में कुछ नहीं पता चला था।
काफी लम्बा समय बीत गया था। मैं एक रेलवे विभाग में अधिकारी के पद पर नौकरी कर रहा था। करीब पैंतालीस की मेरी उम्र हो गई थी। शायद मैं गुल्लू को भूल भी गया था। क्योंकि नौकरी के प्रेशर ने मुझे सब कुछ भुला सा दिया था। काम से आने के बाद में इतना थक जाता था कि मुझे कुछ होश नहीं रहता। दूसरा मेरे परिवार की परेशानी अलग से जो थी।
 
एक दिन जब मैं काम से घर वापस आया तो पत्नी ने कहा,'' आप का कोई खत आया है। चाय पीते समय मैंने खत को देखा, आश्चर्य की बात है यह खत और किसी का नहीं गुल्लू का था।
पत्र में लिखा था। कैसे हो मेरे दोस्त। ऑफिसर बन गये मुझे याद नहीं किया तुमने। खैर मैंने भी तो कोई पत्र तुम्हें नहीं लिखा। लेकिन अब तुम्हारी याद मुझे बहुत आ रही है। तुम्हारे साथ कुछ पल बिताना चाहता हूँ। कही दूर गुनगुनी धूप में बैठ कर बेर का आचार खाना चाहता हूँ।
 
हाँ एक खास बात मैं लोकसभा में आ गया हूँ। मैं तुम्हारा दोस्त गुल्लू सांसद हो गया हूँ। मैं चाहता हूँ। जीवन के आखिरी समय तक साथ मिलकर काम करे। क्या तुम मेरे साथ सेक्रेटरी के तौर पर काम कर सकते हो।
आशा है तुम मुझे ना नहीं करोगे। तुम्हारे इंतजार में तुम्हारा दोस्त।
 
पढ़कर एकबारगी मैं खुशी से भर गया था। मगर अगले पल मैं सोचने लगा अब गुल्लू बड़ा आदमी हो गया है। जब लोग बडे हो जाते तो उनके चेहरे में पट्टी बंध जाती है। हो सकता है उसने मुझे पत्र अपने बारे में बस बताने भर के लिए ही भेजा हो। मगर गुल्लू ने मुझे पत्र भेजा है। तो मैं उसे निराश नहीं करना चाहता था। सो में गिरते पड़ते गुल्लू के पास चला गया। जब में गुल्लू के ऑफिस के पास पहुँचा तो मुझे उसके दरबान ने रोक लिया था। मैं ने एक कागज की पर्ची दरबान को पकड़ा दी थी। दरबान पर्ची लेकर अंदर चला गया। मेरी सोच के विपरीत गुल्लू बाहर आया और मुझे गले लगाते हुए बोला' कहाँ थे मेरे दोस्त इतने दिन। और फिर उसने मुझसे कहा 'आज सब काम काज बंद आज हम सारा दिन तुम्हारे साथ बिताएंगे।
 
एक जगह जब हम दोनों बैठे हुए थे तो मैंने गुल्लू से पूछा यह सब कैसे हो गया गुल्लू। उसने मुझे कहा,''राजनीति में नहीं आता तो तुम्हारा दोस्त मारा गया होता। क्योंकि मेरे जान के कई लोग दुश्मन बन गये थे। इसलिये मुझे अपनी रक्षा के लिये राजनीति में आना बहुत जरूरी था।
मैं मन ही मन सोच रहा था। कहा गुल्लू हमेशा मुझे चपरासी की नौकरी के लिए कहता था। और आज वह मुझे अपना सेक्रेटरी बनने के लिए बुलाया है। ऐसा लग रहा था कि गुल्लू हर साल इम्तहान में पास होता गया था। मैं हर साल फेल होता गया था।
                                 परिंदे से साभार
सम्पर्क-विक्रम सिंह
        बी ब्लॉक-11, टिहरी  विस्थापित कालोनी, 
        ज्वालापुर,न्यू शिवालिक नगर, हरिद्वार,उत्तराखण्ड,249407
        मो.9012275039
        ई-मेलः bikram007.2008@rediffmail.com