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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

कहानी - बद्दू : विक्रम सिंह



  हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कहानीकार विक्रम सिंह की कई कहानियों को इस ब्लाग में पढ़ चुके हैं। इनकी चर्चित लम्बी कहानी बद्दू की आज दूसरी किस्त। यह कहानी मंतव्य में प्रकाशित हो चुकी है।

तारकेश्वर  का गणित

  दरअसल सिर्फ पलटन की ही नहीं गाँव में और भी कई लोगो से तारकेश्वर  ने खेत खरीदा था। ऊपर वाले का गणित नहीं था यह तो तारकेश्वर  का गणित था कि जमीन अचल सम्पत्ति होती है। जब भी जायेगी ज्यादा पैसे देकर जायेगी। यह जितनी पुरानी होगी इसका दाम बढ़ता जायेगा। जब जीवन में नौकरी चाकरी नहीं रहेगी खेती कर खाया जायेगा। सही मायने में  अपने बेटे मृत्युंजय की उन्हे बहुत चिंता थी। क्योंकि बेटा पढ़ने लिखने में कमजोर तो था ही साथ में एक नम्बर का खुरापाती भी था। वह किसी की जल्दी बात सुनता नहीं था। जलते तवे की तरह वह हमेशा गुस्से में रहता था। ग्रेजुऐसन पूरी करने के बाद कहीं नौकरी मिल नहीं रही थी। तारकेश्वर  हमेशा यही सोचते जब अनुकम्पा पर नौकरी हो रही थी तब बेटे की उम्र ही  छोटी थी अब जब बेटे की नौकरी करने का वक्त आया तो सरकार ने अनुकम्पा पर नौकरी देना बंद कर दिया था। जिस दिन भी दोबारा अनुकम्पा पर नौकरी मिलना शुरू होगी उस दिन ही बेटे को नौकरी दे देंगे। मगर वह यह जानते थे कि यह बस एक स्वप्न है जो कभी पूरा नहीं होगा। क्योंकि वह जानते थे आखिर उसके जोडीदार सब भी तो इस दिन का ही इंतजार कर रहे हैं। फिर सरकार किस किस को नौकरी देगी। कुल मिला जुलाकर नौकरी अब भेड़ और गधो को नहीं मिलती थी। नौकरी अब होनहार अर्थात लोमड़ी की तरह चालाक लोगों को ही मिलती है। हाँ अगर कोलियरी में किसी की नौकरी हो रही थी। वह भी उन किसान भाई की जिसकी जमीन के नीचे सरवर से  कोयला मिल जा रहा था। 
    कुल बात की एक बात थी अब तो हर कोई यही सोच रहा था। खेत ऊपर से चाहे उपजाऊ हो या ना हो ,सोना उगले या ना उगले मगर अंदर में काला हीरा होना चाहिये। पैसे भी मिलेगे और नौकरी भी। कुछ तो ऐसी खण्डहर जमीन थी जहाँ कभी अंग्रेजो ने कोयला निकाला था। उस जमीन सें भी गरीब ,माजी ,डोम ने अपने कोदाल ,फावड़ा और सबलो से उस जमीन को खुद कर कोयला निकालना शुरू कर दिया था। देखते ही देखते यही काम गाँव के कई किसान भाईयो ने भी अपनी जमीन को खोदना शुरू कर दिया। क्योंकि उन्हें भी पता चला कि जमीन के अंदर ही अंदर सुरंग तैयार होने लगे है। हर तरफ बस साबल ,कोदाल ,कोयले की झुडी टोकरी दिखने लगा था। लोग बाग बैलो की जगह ट्रैक्टर ट्राली खरीदने लगे थे। जिनके पास बैल रहे उन लोगो ने इसे कोयले की बैल गाड़ी बना डाला था। इंट भट्टो से लेकर फैक्ट्ररियों तक फिर कई तरफ साइकिल के डंडो के बीच कोयले के बोरो को भर कर ले जाते हुए देखा जाने लगा। हर बेरोजगार गरीब के लिये यह एक रोजगार की तरह हो गया। सरकार इस तरह अपनी सम्पत्ति का गबन होता देख पुलिस प्रसाशन के व्दारा रोकने की कोशिश करने लगी। जब पुलिस आई तो देखते ही देखते कोल माफियायों की फौज तैयार हो गई। आधे से ज्यादा किसान मजदूर कोल माफिया बन गये। अंत में सरकार भी बोट बैंक की खातिर चुप हो गई। पुलिस को बैग भर-भर नोटो की गड्डी मिलने लगी। यहाँ के लोग कोयले से सने काले जैसे खुद कोयला हो गये हो। अलग ही प्रजाति के दिखने लगे। तारकेश्वर  का लड़का कुछ काम ना कर इधर-उधर भटक रहा था तो उसने एक दिन यह सोचा की क्यों ना गाँव भेज दिया जाये। अब आखिर इतनी जमीन का करेगे क्या कम से कम खेती तो करवायेगा। कहते हैं जब तारकेश्वर  गाँव से रानीगंज कोयला अंचल आया था उस वक्त उसके पास बँटवारे के बाद सिर्फ पाँच बीघा जमीन आई थी। अब खेत लिखवाते लिखवाते जमीन करीब पच्चीस बीघा हो गई थी। वैसे भी अब तारकेश्वर  की नौकरी भी थोड़ी ही रह गई थी। इस वजह से वह चाहते थे कि बेटा खेती में मन लगा ले। मगर जब यह बात पत्नी से साझा किया तो पत्नी ने साफ कहा , दुनिया गाँव छोड़ शहर को भाग रही हैं। कुछ तो बाहर देश को जा रहे हैं। आप हम सबको गाँव भेजना चाहते हैं। वैसे भी बेटे को खेती के बारे में पता ही क्या है
    तारकेश्वर  अपनी पत्नी की बात से पूरा चिढ़ जाते। चिढ़ने का मुख्य कारण यह भी था कि वह सोचते , जितनी जमीन गाँव में है उतनी अगर इस कोयला अंचल में होती तो जिंदगी कुछ और होती। अब तो पूरे गाँव के लोग भी बस यही सोचते कि उनकी जमीन कब कोयले खद्यान के अंदर आ जाये। उन दिनों जब कोयला अंचल में जमीन कौडी के भाव में मिल रही थी। तब तारकेश्वर  को यही लगता था इस धूल धक्कड़ वाली जगह में जमीन ले कर क्या करेंगे। तब उन्हे बस अपने गाँव की जमीन सबसे उपजाऊ और उपयोगी लगी थी। क्या गाँव में लोग नहीं रहते हैं। अगर अब खेती नहीं करेगा तो फिर क्या करेगा। मैंने उसे कौन सा रोका है कुछ करने के लिये कुछ करे तो सही सारा दिन बस दोस्तो के साथ आवारा गर्दी करता फिरता है। वैसे भी नौकरी कितने दिन बची है।
जब तक उसे खेत खलिहान के बारे में पता नहीं होगा वह खेती कैसे कर लेगा।
   अरे भाग्यवान खेत में हल चलाने को उसे कौन कह रहा है। यह पुँजीवादी युग है कुछ करने के लिए सीखना जरूरी नहीं होता बस पैसे की जरूरत होती है। अब अम्बानी को देखो किस चीज का व्यवसाय नहीं करता , सबके बारे उसे आता है क्या। बेटे को बस सुपरवाइजरी करने कह रहा हूँ। बटाई का जो भी मिलता है वह भी इसके चाचा ताऊ बेच लेते हैं। कम से कम बटाई का जो मिलता है वह तो मिल जाया करेगा।
   एक तरह से तारकेश्वर  ने गाँव भेजने की पूरी तैयारी कर ली थी। वैसे भी अपने जीवन में कोलियरी की धूल धुवां से वह आजीज आ गये थे। अपने रिटायरमेंट के बाद आखिरी समय गाँव में ही काट कर चैन की मौत मरना चाहते थे। मगर अब तो मौत भी कम्बखत चैन से कहा आती है।
जारी.......
 सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,
न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039 

रविवार, 6 दिसंबर 2015

कहानी - बद्दू : विक्रम सिंह

        
             हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कहानीकार विक्रम सिंह की कई कहानियों को इस ब्लाग में पढ़ चुके हैं। इनकी चर्चित लम्बी कहानी बद्दू को आज से किस्तों में पढ़ेंगे। इस कहानी की पहली किस्त यह कहानी मंतव्य में प्रकाशित हो चुकी है।


जो डल्हौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे ,
कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे। अदम गोंडवी

 कोसना जब उसके दिन चर्या में तबदील हुआ।

    कोसना उसकी नित्य क्रियाक्रम में था। जो अब दिन चर्या में तबदील हो गया था। जलन ,दर्द , और अवसाद से भरी हुई दिनचर्या थी। उसने अपने भविष्य की खुशी अपनी पत्नी और अपने बच्चो की खुशी छीनी थी। वह उस दिन के फैसले को कोसता रहता था। जब नौकरी किलो के भाव से मिलती थी। जो अब हीरे के भाव हो गई थी। वह दिन थे जब कोलियरी में लोडर की बहाली भेड़ बकरियों की तरह हुई थी। उसी भीड़ का एक भेड़ पलटन भी था। मगर जब उसे सिर पर कोयले से भरी झूड़ी लेकर ढोना पड़ा तो उसने अपने आप को किसी गधे से कम नहीं आका था। उसे लगा था कि इसे तो कही अच्छा अपने खेत में हल चला बैल बनना ठीक है। गधे से तो बैल ही बनना अच्छा है। आखिर इंसान को जीने के लिए दो वक्त की रोटी तो खेती से भी मिल सकती है। मगर जमाना इस कदर बदला था कि अब तो खेती से दो वक्त की रोटी भी मुनासिव नहीं था। वह अक्सर बचपन से ही एक जुमला सुनता आ रहा था काम ना करबा तो खइबा का। और वह अब यह सोचता अन्न उगाने वाले को ही भोजन क्यों नहीं मिल रहा। आखिर काम तो यह भी कर रहा है।

     दरअसल लगातार दो तीन दिन बारिश होने के बाद पूरी गेहूँ की फसल उजड़ गई थी। किसी एक गांव , शहर  ,जिला होते हुए। यह मूसलाधार बारिश जैसे पूरी पृथ्वी का भ्रमण लगा रही थी। जैसे कोई दैत्य सारे खेत खलिहान को निगलने आया हो। कोई ऐसा ब्रह्मस्त्र नहीं था कि इस प्रकृति की मार से लड़ा जा सके। हर तरफ यही सुनने को मिल रहा था। इस बार बारिश की वजह से फसल खराब हो गई है। हर एक कोई अपने फेसबुक अकाउन्ट में बारिश से गिर गये बालियों के बीच किसान को सिर पर हाथ रख रोते हुए की फोटो लगा रहे थे। दो सौ से भी ज्यादा लाईक और करीब सौ से भी ज्यादा कमेन्ट आ रहे थे। जैसे हर एक कोई लाईक और कमेन्ट कर अपना फर्ज अदा कर रहा था। न्यूज चैनलवाले गाँव का दृष्य दिखा अलग अलग पार्टी के नेताओ को बहस के लिये बुला लिया गया था। क्योंकि अभी हुई भूमि अधिग्रहण बिल से किसान दुखी थे। वह अभी इसके लिये दिल्ली चलो का नारा लगा रहे थे। पूरे भारत से किसानो की बड़ी संख्या दिल्ली में सरकार का घेराव करने आने वाली थी। बहस में विपक्षी पार्टीयाँ पूरी तरह किसानो के साथ थी। हर एक पार्टी इस मामले को अधिक से अधिक उछालना चाहती थी। किसानो के मामलो को ही उछाल कर ममता बैनर्जी ने सी.पी.एम पार्टी के पच्चीस साल के सम्राज्य को धवस्थ कर दिया था। हर एक कोई अपनी-अपनी राजनीति रोटी सेकने में लगा था। देश के प्रधानमंत्री अपने भाषण में यह कह रहे थे यह कोई पहली बार ऐसा नहीं हुआ है इससे भी बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ आई है।

    आज पलटन सोच रहा था क्यों वह गाँव वापस आ गया था। उस समय जब पलटन गाँव वापस आने की सोच रहा था अपने परम मित्र तारकेश्वर  से कहा था ,हमार हई नौकरी में मन ना लगत बा हम गाँव में अपन खेती करब। हइजा तो कोयला ढोह ढोह और खाये खाये अपन जिन्दगी खत्म हो जाई। हम तो कहत हई तू हूँ वापस चल चला हमार संग।यह शब्द उसे आज भी कचोट रहा था। कोयले खाने वाले ही आज मुर्ग मसलम खा रहे हैं। और जो दो वक्त की ही रोटी खा कर गुजारा करने वाला था उसके पास जैसे आज जहर खाने के भी पैसे नहीं है।

   मगर तारकेश्वर  ने जाने से इंकार कर दिया था। क्योंकि वह यह अच्छी तरह जानता था कि जैसे शादी व्याह ,मकान ,शिक्षा के लिये पैसे की जरूरत पड़ती है वैसे खेती के लिये भी पैसों की जरूरत पड़ती है। ना की खेती से पैसे आते हैं। काश कि पलटन यह सोच पाता की खाई खातिर अन्न नहीं पैसे होने चाहिये। काश की पलटन ने उस दिन इस लोडर वाली नौकरी का महत्व समझा होता। कहते हैं कि जब पलटन को यह नौकरी मिली थी तब उनकी मात्र प्रतिदिन दो रूपये हाजरी मिलती थी। कुल महीने के साठ रूपये। मगर आज उसी नौकरी को करने वाले बाबू बन गये हैं। बेतन बोर्ड से तनख्वाह बढ़ बढ़ कर लाखों तक पहुंच गई है। फिर जो रिटायर भी हुए उन्हें भी लाखों की रकम मिली बुढापे में पेंशन भी अलग से मिलना शुरू हो गया। पलटन को खेती कर क्या मिला कभी चैन की रोटी नसीब नहीं हुई। ऊपर से साल दर साल खेती की और माली हालत हो गई। बेटे को पढ़ाने और बेटी के व्याह के लिये एक बीघा खेत उल्टा बेचना पड़ गया था। तिस पर अब भी बेटा बेरोजगार ही है।

    सही मायने में पलटन जब गाँव वापस आ गया थां। फिर उसे अपनी नौकरी बहुत याद आने लगी थी। कम से कम नौकरी में महीने भर काम करने के बाद तनख्वाह मिलने की पूरी गारन्टी थी। यहाँ खेत में सारा दिन काम करने के बाद भी कोई गारंटी नहीं थी कि फसल सही होगी या नहीं।अगर हो भी गई  तो अंत समय में ऊपर वाले के भरोसे था। जिस दिन पलटन ने अपनी जमीन बेची थी उसी दिन तारकेशवर ने खेत लिखवाया था। अर्थात पलटन ने अपनी जमीन तारकेशवर को बेची थी। उस दिन पलटन ऊपर वाले का गणित नहीं समझ पाया था कि जो एक वक्त खेती के लिये अपनी नौकरी छोड़ आया था उसके पास खेत नहीं रह पा रहे हैं। जिसने नौकरी करने की सोची वह खेत उसके होते जा रहे हैं।क्रमश:   
                                                                                                                                                        
 सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,

न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039 

रविवार, 4 अक्तूबर 2015

विक्रम सिंह की कहानी : पसंद - नापसंद





     वह सिगरेट का कश लेकर धुएं को छोड़ता जा रहा था। मोबाइल को कई बार उठाता है। फिर रख देता है।'' क्या इतने सालों बाद उसे फोन करना अच्छा होगा।'' आखिर कार उसने नम्बर डायल कर मोबाइल को अपने कानों से लगा लिया था। माथे में पसीने की बूंदे आ गई थीं। मोबाइल की घंटी लगातार बजते जा रही थी। मगर कोई रिसीव नहीं कर रहा था। घंटी पूरी होने के बाद आवाज आई, आप जिससे बात करना चाह रहे हैं अभी फोन नहीं उठा रहा है। फोन काट मोबाइल को दोबारा मेज पर रख देता है। फिर से सिगरेट जला लेता है 'उसे तो अब मेरा नाम भी याद नहीं होगा। लेकिन उसी ने तो मेरा नाम रखा था मिट्ठू। वह हंसा,मिट्ठू। उसे याद आता है वह दिन जब पार्क में बैठी उसकी प्रेमिका उसके चेहरे को गौर से देखते हुए यह कहती है तुम्हारी शक्ल मिथुन चक्रवर्ती से एकदम मिलती है। मैं तुम्हें मिट्ठू कह कर बुलाया करूंगी। आज से तुम्हारा नाम मिट्ठू है। उस दिन वह अभिलाश से मिट्ठू हो गया था। उसने सोच लिया है आज उसे फोन पर भी यही नाम कहूँगा । उसके मोबाइल की घंटी बजने लगी। वह नम्बर देख खुश हो जाता है। झट से रिसीव कर वह अपने कानों में लगा लेता है। उधर आवाज आई,'' जी आपका मिसकॉल आया था।'' 

मैं मिट्ठू बोल रहा हूँ।''
यह सुनते ही उसकी सांसें जोर जोर से चलने लगी थी। जैसे किसी ने उसे डरा दिया हो। ''हाँ बोलो''
''क्या तुमने मुझे पहचान लिया?'
''नाम तो दूर तुम्हारी आवाज से ही पहचान लिया था'''
''कैसी हो तुम''
''मैं ठीक हूँ 'तुम कैसे हो?''
''बस चल रहा है।''
'' क्या चल रहा है?''
''मेरा एक उपन्यास प्रकाशित हुआ है। वह मैं तुम्हें भेजना चाहता हूँ। तुम्हारा घर का पता चाहिये था। ठीक है मैं तुम्हें मैसेज कर दूंगी।''
''ठीक है कर देना''
''अच्छा ठीक है'' कह दोनों ने मोबाइल काट दिया था।
 
फिर कोई मैसेज नहीं आया था। वह इतंजार करता रहा मैसेज का मगर उसका मैसेज नहीं आया। कई मैसेज इस बीच आये भी मगर वह जब भी मैसेज टोन बजने के बाद मोबाइल को देखता मैसेज किसी और का होता था। वह सोचता कही वह भूल तो नहीं गई। या उसका मेरे उपन्यास पर कोई दिलचस्पी नहीं है। रात दस बजे तक वह ना जाने क्या- क्या सोचता जा रहा था। बिस्तर पर लेटा उसका ध्यान बार- बार मोबाइल पर भी चला जा रहा था। उसे कई बार ऐसा लगा जैसे मैसेज टोन बजा है। अभी उसने फोन हाथ पर रखा ही था कि मोबाइल की घंटी बज उठी थी। वह खुश हो जल्द से रिसीव करता है। कहता है,तुम्हारा मैसेज नहीं मिला अभी तक''
''सुनो तुम मुझे अपनी किताब मत भेजना। क्योंकि मैंने तुम्हारे बारे मैं अपने पति को सब कुछ बता दिया था। अगर उसने तुम्हारी किताब देख लिया तो वह बहुत गुस्से में आ जायेंगे। वह सोचेंगे मैं अभी भी तुमसे बात करती हूँ।'' 

''तुमने मेरे बारे में उसे बताया क्यों था?''
''लड़की जात हूँ ना बात पेट में पची नहीं।''
मिट्ठू मुस्कुराता है।'' सुनो मैं अपनी किताब पोस्ट तुम्हारे घर तुम्हारे भईया के नाम से भेज दूंगा। फिर तुम उसे छुपा कर रख लेना जब मौका लगे पढ़ना।''
''अच्छा ठीक है जब मैं कहूँगी तब भेजना ठीक है। क्योंकि वह तो बनारस में रहते हैं। बीच बीच में आते रहते हैं।''
''तुम बनारस में अपने पति के साथ क्यों नहीं रहतीं हो?''
वह कहते हैं तुम पापा मम्मी के साथ रहो।''
''तुम्हारा मन लगता है।''
''मन लगाना पड़ता है।''
''तुमने कभी नहीं कहा कि मैं आप के साथ रहूँगी।''
''क्या बताउॅ? घर में मुझे बारह लोगों का खाना बनाना पड़ता है।''
''कौन-कौन है घर में।''
''दरअसल क्या है मेरी ननद और उसके तीन बच्चे हैं। और दो ननद भी हैं। देवर है। पापा मम्मी हैं।''
''यह तो कुल मिलाकर दस लोग हुए।''
''मगर खाते तो बारह लोगों के बराबर हैं।''
मिट्ठू को हँसी आई मगर उसने हंसी को रोक लिया। ''बना लेती हो इतने लोगों का खाना।''
''जब मैं नई- नई आई थी तो मेरी सासू माँ मेरा बना हुआ खाना फेंक दिया करती थीं। फिर दोबारा बनाती थीं।''
''वह क्यों?''
''क्या है यह लोग बहुत मसाले दार खाना पसंद करते हैं। तुम्हें तो पता ही है। हम लोग मसाला कितना कम खाते थे। इसलिए मेरी आदत थी मसाला कम डालने की, तो इस वजह से इन लोगों को मेरा खाना पसंद नहीं आता था।''
''तुमने अपने पति को यह सब बाते नहीं बताई थीं।'' 

''बताई थी और खूब झगड़ी भी थी कि शादी कर के मुझे यहां लाकर पटक दिये हैं। मुझे अपने साथ क्यों नहीं रखते हो। वह मुझसे कहते हैं कि मैं तो काम पर निकल जाता हूँ। तुम घर पर अकेली कैसे रहोगी। फिर आज का जमाना भी तो ठीक नहीं हैं। तुम तो देखती हो कि क्राइम पेटोªल में सब कुछ। मैं फिर भी नहीं मानी तो बाप रे उसने मुझे इतनी जोर का चाटा लगा दिया। इतने गुस्से में आ गया कि क्या कहूँ। उस दिन के बाद से मैंने फिर कभी नहीं कहा। क्या है ना मेरी सासू माँने इन सब को यह सिखाया है कि पत्नी को कभी अकेले लेकर नहीं रहना चाहिए नहीं तो किसी से भी चक्कर चला लेंगी। अब तुम ही बताओ यह कोई मेरी उम्र रह गई्र है यह सब करने की''


''कभी बनारस घुमाने भी नहीं लेकर गये।''
''नहीं, कभी नहीं लेकर गये।''
''शादी को तो चार साल हो गये और चार साल में एक बार भी नहीं लेकर गये तुम्हें बनारस।''
वह चुप रही। फिर बोली,''बाद मैं कई बार फिर बोलने लगे ठीक है अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो चलो मैं तुम्हें वही लेकर चलता हूँ। मगर मैंने मना कर दिया था। क्योंकि जब मैं मायके गई थी माँ  पापा को यहॉं की सारी बात बताई थी तो उन सब ने मुझसे यही कहां बेटा अब जैसा भी है समय काटो,अपने आप सब ठीक हो जाएगा। 

''खैर छोड़ो तुम्हारी बीबी कहाँ है।''
''वह लुधियाना अपनी बहन के घर गई है।''
''तुम नहीं गये साथ में।''
''नहीं मैं नहीं गया कम्पनी में कुछ काम था।''
''तुम्हें मेरा नम्बर कहाँ से मिला''
''मैं कुछ दिन पहले ही रानीगंज गया था। वहां मैंने यह नम्बर तुम्हारी सहेली बीना से लिया था।''
''मेरी तो खुद तुमसे बात करने की बहुत इच्छा थी। मैं खुद तुम्हारा नम्बर खोज रही थी।'
तुम एक बार बीना से कह रही थीं, देख सब लड़के एक जैसे होते हैं। शादी के बाद मुझे मिटठू भूल गया।''
''और नहीं तो क्या?''
''मगर देखो मैंने तुम्हें फोन किया ना।''
''अच्छा सुनो तुम मुझे फोन मत करना जब मैं तुम्हें मिसकाल या फोन करूं तब तुम मुझे फोन करना। और दोपहर के दो बजे मेरा सारा काम खत्म हो जाता है। रात दस बजे के बाद मैं फ्री हो जाती हूँ। और कभी मेरा सप्ताह- पन्द्रह दिन अगर फोन नहीं आया तो यह नहीं की तुम फोन कर देना। बस तुम इंतजार करना मैं जरूर करूंगी। '' 


और सुनो अगर कभी तुम्हारा फोन आये और मैं ना उठाउं तो समझ जाना मेरी पत्नी मेरे साथ है। अभी हम रात में ही बात करेंगे। क्योंकि मेरी डयूटी अभी जरनल शिफ्ट चल रही है। तो हम अभी रात में ही बात करेंगे।
''अच्छा ठीक है अब मैं रखती हूँ।''
अगले दिन रात दस बजे बिस्तर पर लेटा हुआ मिट्ठू फिर से फोन का इंतजार करने लगा था। आज फिर उसे नींद नहीं आ रही थी। खैर मोबाइल में शेयरिंग होने लगी। मिट्ठू ने झट-पट मोबाइल रिसीवर कानों में लगा लिया था। हाँ हेलो,
''कैसे हो?'
मैं ठीक हूँ काम हो गया क्या?
''हाँ, अभी बाबू को सुला कर' हटी हूँ''
''खाना खा लिया तुमने''
''हाँ खा लिया। और तुमने क्या बनाया था आज?'
''टमाटर की चटनी,गोभी की सब्जी,रायता,रोटी''
''अच्छा,बहुत कुछ बनाया था। सब मसालेदार था।''
वह हॅंस पड़ी
''नहीं मैं जानता हूँ तुम अच्छा खाना बनाती हो। मैंने तुम्हारे हाथ का बना मछली चावल खाया है। बहुत अच्छा बनाती हो।''
मैंने सुना है तुम्हारी बीबी भी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती है। मुझे बीना ने बताया था।''
'हाँ अच्छा बनाती है।''
''तुम अपनी शादी से खुश हो।''
''क्या तुम अपनी शादी से खुश हो।''
''अब खुश होने के सिवा चारा भी क्या है।''
''क्योंकि तुम्हारा पति सरकारी नौकरी करता है?'' 

''मेरे मन मैं कभी ऐसा नहीं था। कि मैं नौकरी वाले लड़के से शादी करना चाहती थी। तुम एक जगह स्थिर नहीं थे।''
''क्या करता कही अच्छी नौकरी नहीं मिल रही थी। जब मैकेनिकल डिप्लोमा कर के निकला तो पता चला साला भारत देश में पढ़े लिखे बेरोजगार लड़कों की कमी नहीं है। उसमें एक में भी शामिल हो गया हूँ। फिर ना जाने मैं दिल्ली,मुम्बई,राजस्थान,गुड़गॉव ना जाने कितने इंडस्टियल शहर में घूमता रहा इस बीच कितनी नौकरी पकड़ी फिर छोड़ दी। क्योंकि मैं अपना शोषण नहीं करवाना चाहता था। और होने भी क्यों देता। जानती हूँ कम्पनी के बड़े बड़े उद्योगपति खुद तो करोडों रूपये की गाड़ी में घूमते हैं। आलीशान बंगलों में रहते है। हमें महीने में चार हजार रूपये की तनख्वाह पर काम करवाते है। और फिर मैं यह चाहता था मुझे ऐसी नौकरी मिले जहाँ तनख्वाह अच्छी हो। ताकि मैं तुमसे शादी कर संकू।'' 

वह रो कर कहने लगी,मुझे पता था जल्द से जल्द कामयाब हो मुझसे शादी करना चाहते थे। क्योंकि तुम हमेशा डरते थे कही मेरी शादी ना हो जाये।''
''सब कुछ जानते हुए भी तुमने मुझसे शादी से इनकार कर दिया था।''
''क्योंकि मैं डरती थी कही शादी के बाद तुम्हारा कैरियर ना खराब हो जाये। क्योंकि उस वक्त तुम अपना कैरियर बनाने के लिये संघर्ष कर रहे थे ''
''जानती हो संगीता जब तुम मेरे साथ पार्क में बैठी होती थीं। तो मुझे लगता था मेरे पास सब कुछ है। मुझे किसी चीज की कमी नहीं महसूस होती थी जैसे पूरा ब्रम्हांड जीत लिया हो। पर मुझे क्या पता था उसे ही पाने के लिये एक छोटी सी नौकरी पाने की जरूरत है। इसलिए फिर मैंने एक कम्पनी में नौकरी करनी शुरू कर दी थी। आज जब मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी कर रहा हूँ फ्लैट में रह रहा हूँ' गाड़ी से घूम रहा हूँ। मगर ना जाने मुझे ऐसा लगता है मेरे पास कुछ नहीं है।

'जानते हो मिट्ठू जब तुमने मुझे भाग कर शादी करने के लिए कहा था। मैंने तुम्हें हाँ भी कर दिया था। मगर मैं जब अपनी मां का चेहरा देखती कि मेरे जाने के बाद उसके साथ क्या होगा। कहीं पापा उसे जान से न मार दें। फिर मैं पापा का चेहरा देखती तो मुझे लगता था कहीं पापा इस बदनामी से आत्म हत्या ना कर ले। जब मैं भाइयों को देखती तो सोचती कही मेरे ऐसा करने से यह शर्म से कालेज जाना ना छोड़ दे। बस यह सब सोच मैं डरती थी। एक तरफ तुम थे मेरा प्यार जो मुझे दिलो जान से चाहता है और दूसरी तरफ मेरे माँ  पापा जिन्होंने मुझे पाल पोस कर इतना बड़ा किया था। कुछ समझ नहीं आता था ऐसा लगता था आत्म हत्या कर लो पर उसमें भी मैं रूक जाती थी। क्योंकि मेरी आत्म हत्या करने से भी लोगों के बीच कई तरह के सवाल होते लोग कहते जरूर प्रेगनेन्ट होगी किसी से चक्कर होगा तभी आत्म हत्या कर ली। फिर पुलिस वाले भी सवाल जवाब करते क्या हुआ था लड़की ने क्यों आत्म हत्या की। इसलिए आत्म हत्या भी नहीं कर पाई। घुटन भरी जिन्दगी जीने लगी। सोचती थी माँ से तुम्हारे बारे में बताओ मगर मैं जानती थी माँ  पिताजी के पास इस रिश्ते का खुलासे का मतलब था यह रिश्ता हमेशा के लिए खत्म'' 

''पर तुमने तो मिलना तो दूर मुझसे बात करना भी छोड़ दिया था। फिर बाद में तुम्हारी शादी का निमंत्रण कार्ड अपने घर में देखा ।''
''हाँ क्योंकि मैं तुम्हें भुलाने कि कोशिश करने लगी थी। मैं सोचती थी अपने आप तुम भी मुझे भूल जाओगे। क्या तुम मुझे माफ कर दोगे?'' 

''अच्छा तुमने अपना पता मैसेज नहीं किया'' बात पलटते हुए कहा।
''हाँ कर देती हूँ। कब पोस्ट करोगे?''
''जब तुम कहो''
'' अभी ही भेज दो वह घर पर नहीं है।''
''कल ही पोस्ट कर देता हूँ।''
''अब समय भी बहुत हो गया है तुम सो जाओ। कल बात करेंगे।''
अगले दिन सुबह मिट्ठू ने अपने उपन्यास को संगीता को पोस्ट कर दिया था।
रात के दस बजते ही मिट्ठू का मोबाइल बजने लगा। उसने मोबाइल को झट रिसीव कर लिया था। मोबाइल रिसीव करते ही मिट्ठू ने कहा,'' हाँ मैंने अपनी किताब आज पोस्ट कर दी है।''
''ठीक है।' उसने बड़े धीमे से कहा था।
''क्या हुआ उदास लग रही हो?''
''एक बात बोलूं बुरा तो नहीं मानोगे।''
''नहीं बताओ''
''आज मैं तुमसे आखिरी बार बात करूंगी।''
''वह क्यों?' 

क्योंकि कल जब तुम्हारी पत्नी को यह सब पता चलेगा तो मैं उसकी नजरों में गिर जाउॅगी। और अगर मैं तुमसे इसी तरह बात करती रहूँगी तो मेरा काम मैं यहाँ मन नहीं लगेगा। फिर तुम्हारा भी वही हाल होगा। इसलिये हमें एक दूसरे को भुला देना चाहिए।''
''हम दोनो अच्छे दोस्त की तरह भी तो बात कर सकते हैं।''
''वह हम और तुम मान सकते हैं। मगर समाज इसे नजायज रिश्ता ही कहेगा।'' 

''क्यों हर बार तुम दूसरों के लिए मुझे त्याग देती हो कभी मेरे बारे में क्यों नहीं सोचती। क्यों नहीं मेरे लिए दूसरों को त्याग देती हो।''
''अपने लिए जीना कोई जीना नहीं होता जो दूसरों के लिए जीता है वही जीना हुआ। फिर जब प्यार के लिए त्याग करते हैं वही सच्चा प्यार है।'' इतना कह उसने फोन काट दिया था।
पॉच दिन बाद संगीता को मिट्ठू का पोस्ट मिला था। उसने किताब को देखा उसे अपने अटैची में छुपाकर रख दिया था।
मिट्ठू सोचता है संगीता को जब भी मेरी याद आती होगी तो वह मेरी किताब जरूर पढ़ती होगी। कभी ना कभी वह मुझे फोन पर मेरी किताब के विषय में कहेगी।
 
संगीता ने किताब को कभी अटैची से नहीं निकाला था। वह हमेशा डरती रही थी कही मेरे पति इस किताब को देख ना ले। वह पेपर बेचने वाले का इंतजार कर रही थी जब कभी भी वह आयेगा तो पेपर के साथ इस किताब को भी दे दूंगी। मगर सप्ताह भर बीत गया था। पेपर वाला नहीं आया था। उसने सोच लिया किताब को जला दूंगी
 
इसी बीच संगीता का पति राकेश आ गया था। तीन दिन रहने के बाद वापस चला गया था।
अगले दिन पेपर वाला आ गया था। संगीता पेपर को वजन करने को देकर अंदर कमरे में अटैची से किताब लेने चली गई थी। वह अटैची में देखती है वह किताब नहीं है। वह पूरी अटैची के कपड़े उलट देती है। मगर किताब नहीं मिलती है। संगीता को काटो तो खून नहीं। कुछ ऐसी स्थिति हो गई थी। वह घर का पूरा कोना- कोना छान मारती है पर किताब नहीं मिलती है। वह सोच में पड़ जाती है आखिर किताब गई कहा। हालत ऐसी की वह किसी से पूछ भी नहीं सकती थी। सो चुप हो गई थी।
पेपर वाला वजन के हिसाब से पैसे देकर चला जाता है।
 
वह उस दिन बार -बार याद करती है कि किताब तो मैंने अटैची में ही रखी थी। ऐसा तो नहीं किसी ने किताब को अटैची से निकाल लिया है। पर मेरी अटैची को मेरे सिवा कोई हाथ नहीं लगाता है।
करीब पन्द्रह दिनों बाद संगीता के पति दोबारा वापस आते है। रात के भोजन के वक्त कहते है,मैंने वह किताब पढी बहुत अच्छा उपन्यास था।'' इतना सुनते ही संगीता दंग रह गई। उसकी इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि वह पूछती आप किताब को कब लेकर चले गये। वह चुप रही। वह किताब की तारीफ करते जा रहे थे। वह संगीता को कहने लगे इस किताब को तुम भी पढना,एक लड़की जो एक लड़के से बेहद प्यार करती है मगर अपने मां-पिता से कुछ नहीं कह पाती है। और मां-बाप की एक ऐसे पसंद के लड़के से शादी करती है जिसे वह जानती नहीं और कभी देखा नहीं। उसे अपनी पूरी जिंदगी सौंप देती है। जैसे लड़के लड़की की अपनी कोई पसंद ना पसंद होती ही नहीं है। मां-बाप जिसके साथ हाथ बांध दे उसके साथ जिंदगी बितानी पड़ती है। आज भी हमारा समाज कितनी पुरानी सोच रखता है।

सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039
           
                            

 

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

कहानी : चक्रव्यूह

   

   युवा लेखक विक्रम सिंह की कहानी पढ़ने के बाद इनकी समकालीन कहानियों के प्रति एक ललक पैदा हो जायेगी। इनकी कहानी को पढ़ने के बाद आप निराश नहीं होंगे । ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। 

चक्रव्यूह : विक्रम सिंह  
          
विशाल काय बरगद का हरा भरा पेड़ है लेकिन रात की वजह से पेड़ और पत्ते काले नजर आ रहे हैं। रात चांदनी रात नहीं है। काली रात है। पेड़ के नीचे अंधेरा फैला है। पे़ड के नीचे एक शख्स काली जंजीरों से बंधा हुआ है। वह चिल्ला-चिल्ला कर मदद के लिए आवाज लगा रहा है। आने जाने वाली गाड़ियों की रोशनी उस पर पड़ती है। तब वह नजर आता है। एक शख्स उसे बचाने की कोशिश  करता है। मगर जैसे ही वह जंजीरों को छूता है। उसे जोर का करेंट लगता है। वह चाह कर भी उसकी मदद  नहीं कर पाता है। ’’भाई साहब आप को यह किस चीज की जंजीर बंधी है। जो मैं चाह कर भी आप की मदद  नहीं कर पा रहा हूं।’’ अंत तक वह जाने लगता है। जंजीर से बंधा आदमी उसे रो -रो कर नहीं जाने के लिए कहता है।उसकी नीद टूट जाती है। अच्छा हुआ जो यह सच ना हो स्वप्न था। कैसी जंजीर थी जिसे छुड़ाना ही मुश्किल था।
मोबाइल की घंटी बजने लगती है। वह मोबाइल उठा कर पहले स्क्रीन में नम्बर देखता है। क्योंकि उसे फालतू लोगों का फोन उठाना पसंद नहीं है।  अगर उठा भी ले तो समय नहीं है। बाद में बात करेंगे। यह कह कर फोन काट दिया करता है। मगर यह फोन काम का अर्थात उसके बॉस का है।
 ’’गोपी’’
जी गुडमार्निग सर ’’
’’गुडमार्निग’’ बड़े प्यार से बॉस कहता है।
’’ हॉ, सर कोई बात थी।’’
’’हॉ,बहुत जरूरी बात है।’’
’’जी सर बताईये।’’
’’तुम्हारे मुहल्ले के पास की कालोनी में कोई दास बाबू रिटायर हुए हैं। इसके पहले की और कोई कम्पनी का एजेन्ट उसके पास पहुंच जाये या वह बैंक में पैसे जमा करे। तुम हम लोगों की कम्पनी सुनहेरा ग्रुप के बारे में बता कर हमारी कम्पनी में पॉच आठ लाख रूपये का कम से कम ई.एम.आई कराओ।’’
’’जी सर में आज ही उनके पास जाता हूं।’’
 गोपी मोबाइल काट देता है।
मोबाइल काटते ही दोबारा मोबाइल की घंटी बजने लगती है। स्क्रीन में नम्बर को देखता है। उसके जानने वाले का ही नम्बर है। वह यह समझ रहा है। क्योंकि नम्बर सेव नहीं है। क्योंकि उसके जानने वाले बहुत हैं। और वह किस-किस के नम्बर सेव करेगा। उसके जानने वाले तो उसके ग्राहक हैं जिन लोगों ने उसके चिट फन्ड कम्पनी में पैसे फिक्स किये हैं। वह फोन रिसिव कर लेता है। उधर से आवाज आती है ’’गोपी भाई जगन्नाथ बोल रहा हूं।’’ 
’’हॉ बोलिए जगन्नाथ चाचा जी’’
’’बेटा जो मैंने पैसा जमा फिक्स किया था वह दो महीने बाद मचुरिटी खत्म हो रहा है।’’
’’हॉ तो आप को डबल मिल जाएगा कोई चिंता की बात नहीं है। दो महीना पहले से बात करने की क्या जरूरत है?’’
’’नहीं हम सोचे की एक बार बात कर लेते है।’’
’’ठीक है दो महीने बाद बात करियेगा।’’
गोपी के इस तरह करीब तीन सौ के करीब ग्राहक हैं। महीने दर महीने ,साल दर साल उसके ग्राहक बढ़ते जा रहे थे। मुहले से शुरू होकर धीरे-धीरे अब शहर के कई इलाके में उसके ग्राहक है। इतने ग्राहक बनाने में उसने बहुत कड़ी मेहनत की है। शुरू-शुरू में वह साईकल से घूम-घूम कर पान की गुमटी वालो से लेकर,बर्गर बेचने,गोलगप्पा बेचने के ठेली वालों के पास जाकर अपनी स्कीम समझाता था। जरूरत पड़ने पर वह एक दफा नहीं दस दफा जाता था। आखिर तक वह उन्हें मना लेता था। सही मायने में हर एक ठेली वाला भी कम समय में पैसे दोगुना करना चाहता था। फिर धीरे धीरे उसने बाइक खरीद ली और ठेले चाय-पान की दुकान वालों से उपर वह सरकारी नौकरी करने वालो के पास जाने लगा था। दरअसल कोलियरी में काम करने वाले जो पान सिगरेट की दुकान में बैठ कर गप मारते थे। वही पान-चाय गुमटी वाले उसके ग्राहक थे। गुमटी वाले ही उन सब से मिलाने लगे थे।’’साहब जी एक स्कीम है थोड़ा समझ लीजिए। बहुत फायदे मन्द है।’’ लेकिन सही मायने में उन सब को जैसे सब कुछ पता होता।


 शुरू-शुरू में एक ही  चीटफंड की कम्पनी अक्षरा शहर में आई थी। उस कम्पनी ने अपना ऑफिस शहर के बीचों बीच खोला था। उस वक्त शहर में कई बेरोजगार लड़के नौकरी के लिए घूम रहे थे। चारो तरफ से निराश हो वह घर बैठे थे। उसी वक्त चीटफन्ड कम्पनी में कुछ बेरोजगार लड़के कमीशन एजेन्ड के तौर में लग गये। देखते देखते लगभग सभी बेरोजगार ल़ड़के इस कम्पनी के ऐजेन्ट बन गये थे। सर्वप्रथम तो ऐसे एजन्टों ने अपने घर और रिश्तेदारों को ही अपना ग्राहक बनाया था। कम्पनी की पालिसी  यह थी। ऐसे गरीब व्यक्ति जो मोटी रकम फिक्स नहीं करा सकते थे। ऐसे गरीब व्यक्ति डेलीबेसिस अर्थात प्रतिदिन दस,बीस,तीस जिसकी जो सहूलियत हो  चालू खाता खोल पैसे जमा कर सकता था। फिर एजेन्टों ने ज्यादातर ऐसे गरीब लोगों को ग्राहक बनाना शुरू कर दिया था। देखते ही देखते हर गली, नुक्कड़, मुहल्ले के मजदूर ठेले वाले कम्पनी के ग्राहक बन गये थे। एजेन्ट अपने साइकिलों पर सवार हो शाम को प्रतिदिन ठेले गुमटी वालों से पैसे कलेक्ट करने निकल जाते ठेलेवाले,गुमटी वाले और मजदूर अपने दिन भर की कमाई से दस बीस जिसकी जैसी सहूलियत होती पैसे एजेन्टों के हाथ में थमा देते थे। एजेन्ट अगले दिन कम्पनी के आफिस में जमा कर देते थे। देखते ही देखते कई बेरोजगार ल़ड़कों के लिए अच्छी नौकरी की तरह हो गया था। क्योंकि हर एक को महीने में दस पंद्रह हजार की कमाई होने लगी थी। यह कमाई सीमित नहीं थी जिस एजेन्ट के जितने ग्राहक हांेगे वह उतना ज्यादा पैसे कमा सकता था। इस लालच की वजह से हर एक एजेन्ट सुबह से लेकर शाम तक ग्राहक बनाने के लिए घूमते रहते थे। सभी एजेन्ट के बीच में ही कम्पटिसन रहता था अर्थात वह एक दूसरे के अपना कम्पटिटर मानने लगे थे। ऐसा ही हाल कम्पनी के साथ भी हो गया था। 


शुरूआत में तो पूरे देश  भर में एक ही चीटफन्ड की कम्पनी अक्षरा थी। उसने लोगों के दिल में अपना विश्वास बना लिया था। देखते ही देखते कई चीटफन्ड कम्पनियॉ मार्केट में आ गई थीं। हर एक ने दूसरे एजेन्टों को ज्यादा कमीशन का लालच देकर अपनी कम्पनी का एजेन्ट बनाने लगे थे। गोपी भी पहले अक्षरा चीटफन्ड कम्पनी का एजेंन्ट बना था। गोपी ने सही मायने में अपनी इच्छा से चीटफन्ड कम्पनी में नहीं गया था। उस समय वह चारो तरह से मजबूर हो गया था। गोपी के पिता ट्रक डाइवर थे। अचानक उनके पैरों में दर्द शुरू हो गया था। कई डाक्टरों को दिखाने के बाद भी उनका दर्द सही नहीं हो रहा था। गोपी की मॉ किसी बडे़ अस्पताल में गोपी के पिता को दिखाना चाहती थी। मगर पहले ही वह लोगों से पैसे उधार ले चुकी थी। अब आखिर किससे मदद मांगती। उसने अपने जेवर सब कुछ बेच दिये थे। बड़े अस्पताल में गोपी के पिता को लेकर गई थी। वहां डाक्टरों ने एम.आर.आई करने के बाद यह बताया कि रीड की हड्डी बढ़ने की बजह से एक नस दब गई है। जिसके वजह से पैरों में दर्द हो रहा है। जल्द से जल्द आपरेशन करना पड़ेगा नहीं तो पेरेलाइसिस हो जायेगी।’’

गोपी की मॉ ने डाक्टर से आपरेशन का खर्च पूछ,’’आपरेशन में कितना खर्च आ जाएगा।’’
डाक्टरों ने एक लाख रूपये बता दिया था।
गोपी की मॉ को काटो तो जैसे खून नहीं। गोपी की मॉ की रात की नींद उड़ गई। दिन का चैन छिन गया। अगर गोपी के पापा को कुछ हो गया तो कैसे रोजी रोटी चलेगी। और फिर जितने भी व्याह के उसके जेवर थे सब बेच दिया था। गोपी के पापा का आपरेशन करवाया था। लेकन आपरेशन के बाद गोपी के पापा की हालत ऐसी रही ही नहीं की वह टेक चला पाते। क्योंकि पैरों में वह ताकत आपरेशन के बाद आई ही नहीं थी।

घर के सारे जेवर गोपी की मॉ बेच चुकी थी। घर के राशन पानी के लिए भी अब उनके पास कुछ नहीं था।
उस समय गोपी बी.एस.सी फस्ट ईएर में था। गोपी की मॉ ने गोपी से कहा,’’बेटा अब तू कहीं काम पर लग जा। क्योंकि अपने पापा की तो तुम हालत देख ही रहे हो।’’

यूं तो गोपी पढने लिखने में बहुत होशियार था। वह डॉक्टर बनना चाहता था। बारहवीं के बाद वह एम.बी.बी.एस के लिए एन्टरान्स एग्जाम देना चाहता था। मगर गोपी की मॉ ने गोपी को कहा ,’’देख बेटा डाक्टर ,इंजीनियर बनना यह सब बड़े घर के लोगों के लिए रह गया है। हम ठहरे गरीब घर के तुम तो देखते ही हो। तुम्हारे पापा ट्रक लेकर जाते हैं तो दस-पन्द्रह दिन तक घर नहीं आ पाते हैं। जब तक घर नहीं आते तब तक चिंता बनी रहती। बस मैं चाहती हूं तो किसी तरह पढ़ाई पूरी कर के नौकरी में लग जा।’’
गोपी ने उस दिन भी अपने सपनों को स्वाहा कर मॉ की बात मान ली थी। वह जान गया था। गरीब लोगों का कोई स्वप्न नहीं होता है। घर का चूल्हा सबसे पहले होता है। जो कभी नहीं बुझना चाहिए। गोपी ने मॉ की बात फिर मान ली।

नौकरी मिलना इतना आसान नहीं था। गोपी तमाम अपने आस पास की जूट मिल,सरिया की कम्पनी में काम मागने जाता। पहले पहल तो फैक्टरी के मेनेजर यह पूछते,’’ किस पार्टी की ओर से आये हो।’’
’’ किसी पार्टी से नहीं हूं।’’

देखो भाई यह बंगाल है। यहां या तो टीमसी या सीपीएम करने वालों की नौकरी होगी। ऐसे भी यह दोनों आपस में ल़ड़ जाते हैं। एक कहता है मेरे आदमी को लो, दूसरा कहता है मेरे आदमी को लो। अगर तुमको ले लिया तो साला दोनो पार्टी हंगामा मचा देगी।
गोपी फिर ठेकेदारों के पास गया। ठेकेदार ने गोपी से पूछा,’’क्या जानते हो?’’
’’जी बारहवीं साइन्स साइड से पास हूं।’’
’’नहीं, जानते क्या हो?’’
’’जी बारहवीं की है।’’गोपी ने दोबारा कहा
’’आबे जानते क्या हो। पेन्टर,कारपेन्टर,मैकेनिक,डाइवर क्या काम जानते हो?’’
’’सर जानता तो नहीं हूं। मगर सीख जाउंगा।’’
’’अबे हमने कोई स्कूल थोड़े खोल रखा है। जो तुमको सिखायेंगे।’’
’’सर मौका दीजिए कभी शिकायत नहीं आने देंगे।’’
’’देख हेल्पर में तुम्हें नहीं रख सकते। एकदम दुबला पतला शरीर है। काम बहुत भारी है। अगर कहीं मर मुरा गया तो साला हमारी तो ठेकेदारी चली जाएगी।’’
अब कहीं नौकरी मिल नहीं रही थी। वह निराश  हो गया। उसी वक्त किसी स्कूल के टीचर जो गोपी को अच्छी तरह जानता था। एक दिन गोपी को मिल गया। गोपी ने उसे अपने घर के बारे में सब कुछ बता दिया। उसने गोपी को ट्यूशन पढ़ाने की कही।
गोपी ने मास्टर जी से कहा, ’’अगर सर आप कहीं मुझे ट्यूशन दिला देते तो।’’

मास्टर साहब ने ऐसे जगह उसे टयूशन दिला दिया जहॉ वह खुद नहीं जा सकता था। गोपी को अपने घर से करीब सात-आठ किलोमिटर दूरी पर ट्यूशन मिला था।
गोपी ने ट्यूशन पढाने के लिए अपने घर में पड़ी टूटी सी साइकिल निकाल कर उसकी मरम्मत कराई और चैन में अच्छी तरह तेल डलवा लिया था।

गोपी को तीन दिशा में तीन ट्यूशन मिले। तीनों ट्यूशन पढ़ाने के समय भी लगभग एक ही था। फिर उसी वक्त दो ट्यूशन छोड़कर एक को पढ़ाने लगा था। फिर वही एक ट्यूशन और मिल गई थी। अभी तीन दिन ही ट्यूशन पढ़ाया ही था कि चौथे दिन वह शाम को ट्यूशन पढ़ाने निकला ही था कि जोरों की बारिश  शुरू हो गई। गोपी के पास ना छाता था ना रैनकोट। वह एक पेड़ के निचे छीप गया। दो घंटे  तक लगातार बारिश  होती रही। पेड़ के नीचे भी वह लमसम भीग गया था। भीगा हुआ घर वापस आ गया।
अगले दिन उसे सर्दी जुकाम हो गया था। मगर वह शाम फिर भी ट्यूशन पढ़ाने निकल गया।

रास्ते में अचानक ही टायर पेन्चर हो गई। वह काफी दूर साईकल को पैदल लेकर गया फिर कहीं जाकर एक पेंचर की दुकान मिली। इन सब की वजह से समय ज्यादा हो गया। एक दिन ट्यूशन पढ़ाने गया तो ट्यूशन पढ़ाते समय गोपी को दो तीन बार छींक आ गई। बच्चे की मॉ ने गोपी से आकर कहा,’’भईया आप की तबियत ठीक नहीं है। आप आज आराम कर लीजिये कल पढ़ा दीजियेगा।’’
’’नहीं मैं ठीक हूं। हल्का सा सर्दी जुकाम है।’’
मैडम ने देखा गोपी मान नहीं रहा है। जी इससे बच्चे को वायरल इन्फैक्सन हो जायेगा। तबियत ठीक होने पर आईयेगा।
गोपी टयूश न पढ़ाने दूसरे घर चला गया। दूसरे घर गोपी जैसे ही बैठा था। कि मैडम आ गई ’’भईया आज आप इतने लेट आये हैं। रात के आठ बज रहे हैं।’’
’’नहीं आज आते वक्त मेरी साईकिल पेंचर हो गई थी। आमने सामने कोई पेन्चर वाला मिला नहीं। काफी दूर पैदल आने के बाद पेंचर वाला मिला था।’’
’’आप तो कल भी नहीं आये थे।’’
’’जी कल आते वक्त बारिश  शुरू हो गई थी। भींग गया था।’’
’’जी ऐसा है की आप रहने दें। हम कोई दूसरा ट्यूशन मास्टर देख लेंगे। क्योंकि आप के लिए इतनी दूर से  आकर ट्यूशन पढ़ाना सम्भव नहीं हो पायेगा।’’
गोपी घर वापस चला आया।

गोपी दोबारा उन दो ट्यूशन को पकड़ने गया। जिन्हें समय ना रहने के चलते ना बोल दिया था। किस्मत अच्छी थी कि ट्यूशन मिल गई।
गोपी के एक छात्र के पिता ,एक दिन ट्यूशन पढ़ाते समय गोपी के पास आकर बैठ गया। गोपी ने उसे नमस्कार किया। वह गोपी का हाल चाल पूछते हुए। उनके घर के बारे में पूछने लगे। गोपी ने घर मे मॉ पापा सबके बारे में बता दिया। फिर उसने पूछा,’’ ट्यूशन पढ़ाने के आलावा और क्या करते हो?’’
’’जी बस ट्यूशन ही पढाता हूं।’’

देखो सिर्फ ट्यूशन पढ़ाने से घर बार नहीं चलेगा। इससे तुम अपने जीवन में कुछ नहीं कर पाओगे। फिर तुम्हारे पिता भी बीमार है। इंसान के जब खर्च बढ़ जाते हैं। तो खर्च से नहीं घबराना चाहिए। आमदनी बढ़ाने की सोचनी चाहिए। बील गेटस ने कहा है गरीब पैदा होना इंसान की गलती नहीं है। मगर गरीबी में मर जाना इंसान की गलती है।’’

गोपी बस उसकी बात सुन कर जी सर, जी सर करता गया।
वह एक बुक लेकर आये। ओर गोपी के सामने खोल कर रख दी । बुक का कवर काफी सुन्दर था। और अंदर के पेज भी चमकदार थे। गोपी बुक को गौर से देखने लगा।’’ मैं नौकरी करने के साथ-साथ इस संस्था से जुडा हुआ हूं। यह दरअसल चैन बिजनेस है। इस कम्पनी को ज्वाइन करने के लिए मात्र 23 सौ रूपये लगते हैं। और उसके बदले में कम्पनी कई सारे प्रोडक्ट देती है। जो आप को मार्केट में बेचना है। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि आप अपने अंडर में जितने एजेन्ट बनायेंगे । तुम्हें उतना ज्यादा कमीशन मिलेगा। अब तुम्हारे अंदर के जितने एजेंट अपने एजेंट बनायेंगे। उनका भी पैसा तुम्हंे मिलेगा। इस तरह मार्केट में जितना काम तुम फैला लोगे उतना ज्यादा पैसे तुम कमाओगे।’’
गोपी ने पूरी बात गोर से सुनी। उसे कुछ-कुछ अच्छा भी लगा। मगर इस वक्त तो गोपी के पास जहर खाने के भी पैसे नहीं थे। कम्पनी ज्वाइन करना तो दूर की बात थी।
’’सर इस वक्त मेरी पोजीशन एकदम खराब है। अभी हम कम्पनी ज्वाइन नहीं कर पायेंगे।’’
’’ठीक है कोई बात नहीं तब तक तुम कम्पनी के प्रोडेक्ट को अपने मुहले में बेचना शुरू करो।’’
उसने गोपी को कम्पनी के टूथपेस्ट,ब्रेस,परफयूम,साबुन,तेल इत्यादि सामान झोले में भर कर पकड़ा दिया।
गोपी उस दिन सारे सामान झोले में ले कर घर आ गया। उस रात वह सारे सामान को झोले से निकाल कर देखने लगा। वह टूथपेस्ट के पैकट को देखने लगा। उसकी कीमत  दो सौ रूपये थी। गोपी सोचने लगा बड़े लोग तो सुबह-सुबह दो सौ रूपये दांतो में मल देते है। गोपी खुद गरीब था उसके सभी जानने वाले भी गरीब थे। किसी की भी औकात दो सौ रूपये की टूथपेस्ट से दॉत साफ करने की नहीं थी। वह सब तो सुबह-सुबह नीम के दंतवन खोज कर दांतो में रगड़ लेते हैं।

लेकिन गोपी फिर भी प्रोडेक्ट को बेचने की कोशिस करने लगा। वह अपने सभी जानने वाले ठेले चाय-पान दुकान वालों के पास गया। एक चाय दुकान वाले ने कहा,’’अभी यह तो बडे लोगों के लिए है। अब हम परफ्यूम ला कर क्या करेंगे। और अपना दांत तो दंतवने से ही ठीक रहता है। हम काहेला इतना मेहंगा टूटपेस्ट इस्तेमाल करेगा।’’ 

एक लड़का कमर में काला बैग लटकाये हुए आया और अपने बैग से रसीद कॉपी निकाल कहा,’’दे दीजियेगा।’’
ठेले वाले ने बीस रूपये देते हुए कहा,’’ थोड़ा यह प्रोडेक्ट देख लीजियेगा।’’ गोपी की तरफ मुंह कर कहा,’’गोपी इन्हें भी अपना प्रोडेक्ट दिखा दो।’’

गोपी ने जैसे ही एक साबुन का पैकेट निकाल कर दिखाने लगा। कि वह ल़ड़का मुंह विदका कर कहने लगा,’’ हई विदेशियॉ कुल हम सब भारतियन के उल्लू समझे ला। कहीं हमार साबुन से नहॉ ला फिर उकर पानी से गांड़ धो ला। उकर बाद उहे पानी के अपन पेड़ पौधा में डाल दा खाद के तरह काम करी।’’
ठेले वाला और आस-पास के लोग हंस पडे। गोपी का सिर शर्म से झुक गया। गोपी की तरफ मुंह कर के पूछा,’’आप इस कम्पनी में कितना पैसा इनबेस्ट किये हैं।’’
’’नहीं किसी ने बेचने के लिए कहा है।’’
’’तेा एक काम कर जाकर यह सारा सामान उसके कपार पर मार कर आ।तुम करते क्या हो?
’’जी काम की तलाश  में हूं।’’
’’तो तुम एक काम करो। अक्षरा कम्पनी ज्वाइन कर लो।’’
फिर गोपी को कम्पनी में काम करने के तौर तरीके बताता रहा। गोपी को यह काम अच्छा लगा। क्योंकि इसमें एक रूपये भी नहीं लगाना था। ना ही कोई प्रोडेक्ट बेचना था। बस लोगों से पैसे वसूलने थे और कम्पनी में जमा करने थे।

गोपी अक्षरा कम्पनी में एजेन्ट बन गया। देखते ही देखते उसने हर गुमटी वाले से लेकर ठेले वालों को अपना ग्राहक बना लिया था। अपने अन्डर तीस से भी ज्यादा एजेंन्ट बना लिये थे। गोपी ने अपनी कमाई से एक मोटर साईकिल खरीद ली। गोपी ने अपनी पुरानी साईकिल को पोछ पाछ कर रख ली। क्योंकि गोपी मानता था अच्छे दिन आने पर बुरे दिन को कभी नहीं भूलना चाहिए। क्योंकि उसने अक्षरा कम्पनी के मालिक की कहानी यह सुनी थी। वह भी कभी साईकल से कलैक्शन करने जाते थे। लेकिन अरबपति बनने के बाद भी आज भी उस साईकल को सभाल कर रखा है।
एक दिन वह इसी तरह वह कलैक्शन के लिए निकला था। एक दुकान में से सुनहरा कम्पनी के मैनेजर से मुलाकात हो गई। गोपी को अपनी कम्पनी के बारे में बता उसे अपना आई कार्ड दे ऑफिस में आने के लिए कहा।  गोपी को उसकी बात पर कुछ वजन लगा।
गोपी उसके ऑफिस में एक दिन चला गया।  गोपी को चाय नाश्ता सामने परोस वह समझाने लगा।’’ गोपी जी आप को हमारी कम्पनी का नाम तो पता ही है। हमारी कम्पनी सिर्फ  फिक्स डिपोजिट करती है। एक हजार रूपये से फिक्स डिपोजिट शुरू होती है। दूसरा ईम.आ.ई भी करती है। ई.एम.आई पचास हजार से शुरू हो जाता है। एक लाख का सुनहरा कम्पनी एक हजार रूपये देती है। मार्केट में कोई भी इतना पैसा नहीं देती है। आप को इ.एम.आई में  आप को एक लाख का पॉच हजार रूपये मिलेगा। फिक्स में एक लाख का बीस हजार रूपये मिलेगा।’’

उसने और भी कई सारी बातें विस्तार से गोपी को बता दी थी। गोपी उस दिन के बाद से अक्षरा और सुनहेरा दोनों कम्पनी का एजेन्ट बन गया था। ठेलेवालों और कमजोर लोगों के पैसे वह अक्षरा में डालता उन्हीं लोगों के पास आने वाले नौकरी करने वालों के पैसे सुनहेरा में फिक्स करवाता था। चूंकि गोपी ने अक्षरा में काम कर अपना विश्वास लोगों में बना ही रखा था। इसलिये उसे सुनहरा में ग्राहक मिलने में कोई दिक्कत नहीं आई। मोटी रकम फिक्स और एम.आई. करवाने के लिए कुछ कोयला के दो नम्बर से लेकर लोहा के दो नम्बर कारोबार करने वालो के पास भी गया। क्योंकि उसे लगा दो नम्बर का काम करने वालों को पैसे को एक नम्बर बनाने का यह अच्छा साधन है। और इन दो नम्बर काम करने वालों के पास पैसे की कमी नहीं होती। 
वह कईयों से मिला सबने यह कहा,’’पैसा तो हम ही डबल कर देंगे। कहीं फिक्स करने की क्या जरूरत है।’’
’’साहब बात डबल की नहीं है। अगर आप अभी किसी बैंक में पैसा जमा करने जायेंगे तो पचास रकम के सवाल जबाब होंगे। कहां से पैसा आया। साला आधा तो टैक्स में चला जायेगा। चलिये सब बात छोड़िये काम में कुछ उच्च नीच हो गई तो कम से कम कुछ इ.एम. आई रहेगा तो पैसे आते रहेंगे। चलिए वह भी छोड़िये कुछ हमारे लिए ही जमा कर दीजिए।’’

 मगर बात बनी नहीं। मगर गोपी यह जानता था कि एक मुलाकात में काम नहीं होता है। सौ मुलाकात में एक काम होता है। गोपी का जब मन करता इन लोगों के पास चला जाता। करीब पच्चीस दफा जाने के बाद गोपी को एक ने लाख रूपये की इ.एम.आई दे दी। महीने बाद ही जब उसे  इ.एम.आई आना शुरू हो गया। कुछ लोगों को अच्छा लगा और कईयों ने इ.एम.आई करवा ली किसी ने पॉच लाख का,किसी ने छःलाख और किसी ने दस का ई.एम.आई करवा ली। और उसने अच्छी खासी कमीशन कमाई। 
  
 मोटर साईकिल निकाल कर गोपी आज फिर बास के फोन आने पर दास बाबू के घर निकल गया।
दास बाबू को अपनी कम्पनी के बारे में सब कुछ समझा दिया। दास बाबू को पैसे तो ई.एम.आई करना ही था।  उन्होने कहा,’’देखिए कुछ पैसा तो हम बैंक में कर दिये हैं। एक लाख आप की सुनहरा में कर देते हैं।’’
गोपी ने कहा,’’बैंक से तो ज्यादा पैसा देती है सुनहरा कम्पनी।’’
’’मगर विश्वास तो गर्वमेंट बैंक देती है।’’
’’अंकल मगर सुनहरा कम्पनी में तो कई लोगों ने पैसे जमा किये हैं। लोगों का कम्पनी में विश्वास  है।’’

दास बाबू मुस्कुराये और कहा,’’कोई कम्पनी के विश्वास  पर पैसे नहीं देता है। सब आप का चेहरा देख कर देते है। तुम पर सब विश्वास  करते हैं कि तुम किसी का पैसा गलत जगह नहीं फंसाओगे। मैं भी तुम्हारे विश्वास  पर एक लाख जमा कर रहा हूं। समझ जाओ एक लाख का जुआ खेल रहा हूं। फिर हर एक को ज्यादा पैसा कमाने की लालच होती है। मुझमे भी है पर अधिक लालच करना भी ठीक नहीं होता है।
’’भगवान करे की आप इस जुऐ में ज्यादा जीत पाये।’’
दास बाबू ने एक लाख रूपये का ई.एम.आई सुनहरा में करवा लिया।
मगर दास बाबू की एक बात ने उसे सोचने में मजबूर कर दिया। अब तक उसने जितने भी पैसे जमा करवाये हैं। सबने मेरे उपर विश्वास  किया है। मैं क्या इतना बड़ा आदमी हूं। ऐसा होता तो मैं खुद की कम्पनी नहीं खोल लेता। वह मन ही मन मुस्कुराया साला दास बाबू ने तो एकदम से खोपड़ी घुमा दी।
एक रात ग्यारह बजे उसके एक एजेन्ट का फोन आया।’’गोपी भाई सुनने में कुछ आया है।’’
’’क्या?’
’’कलकत्ता का हेड आफिस एक सप्ताह से खुला नहीं है।’’
’’हमारे इलाका का आफिस खुला है ना’’
’’गोपी भाई हेड आफिस का बंद होना यह साफ बता रहा है। कम्पनी बंद हो गई है।’’
’’अरे नहीं यार।’’
’’क्या पता कहीं यह भी बंद ना कर दे।’’
’’कुछ नहीं होगा तुम सो जाओ।’’

कहते हैं कि एक दिन अचानक हर न्यूज चैनल में ब्रेकिंग न्यूज की खबर दिखाई जाने लगी। सुनहरा चीटफंड कम्पनी बीस हजार करोड़ का पैसा लेकर फरार। सुनहरा कम्पनी के बिल्डिंग के दरवाजे में ताला लटका हुआ दिखाया जा रहा था। बिल्डिंग के बाहर करीब हजारों की संख्या में लोगों को दिखा रहे थे। एक संवाददाता हाथों में माइक लिए कह रहा था,’’करीब करोडों रूपयो का घोटाला कर चीटफंड कम्पनी सुनहरा फरार हो चुकी है। आप देख सकते हैं हजारों की सख्या में लोग यहा खड़े हैं। जिन्होंने सुनहरा कम्पनी में अपने पैसे फिक्स किये थे। हर एक के ऑखो में आंसू हैं। दिल में दर्द है। चेहरे पर गुस्सा साफ झलक रहा है।’’मैं राकेश  तीवारी केमरा मेन राजू के साथ, आज तक।

गोपी किसी को कम्पनी की स्कीम समझा रहा था। कि उसका मोबाइल घनघनाने लगा। ’’बोल यार क्या हुआ?’’
’’गोपी भाई बहुत बुरी खबर है।’’
’’ क्यों क्या हुआ है?’’
’’न्यूज चेनल में  खबर आ रही है कि सुनहरा कम्पनी लोगों का पैसा लेकर फरार हो गई है।’’
’’क्या कह रहे हो?’’

मैंने तो घर से निकल कर मुम्बई की ट्रेन पकड़ ली है। अब वही मौसा जी के पास रह कर किसी कम्पनी मे काम करूंगा।’’
’’तू भी अपने घर से निकल जा वरना लोग तुझे भी खोजते हुए तेरे घर आ रहे होंगे। कई एजेन्टों को पब्लिक पीट रही है।’’
गोपी ने झट अपनी बाईक स्टार्ट की और वहां से अपने लोकल ऑफिस की तरफ भागा उसने दूर से देखा आफिस के बाहर कई लोगों की भीड़ लगी है। वह नहीं देख पाया की आफिस में ताला लगा हुआ है या नहीं। वहॉ से बाईक निकाल वह भाग खड़ा हुआ।
गोपी के घर के बाहर कई लोगों की भीड़ लगी हुई थी। गोपी की मॉ दरवाजे के पास बैठी लोगों से कह रही थी। ’’देखिये गोपी तो वहॉ काम करता था। अगर आप लोग अपना पैसा लेने आये हैं। तो घर का जो भी सामान है ले जाकर बेच कर पैसा ले लीजिए।
गोपी अपने घर की तरफ आया तो यंहॉ भी उसे दूर से ही भी़ड देखा। उसे समझ नहीं आया की वह कहां जाये। वह शहर से दूर भागाने लगा। 

बाइक पर सवार वह भागता जा रहा है। बाइक चलाता-चलाता उसकी कमर में दर्द आ गया। रास्ते में एक जंलग में अपनी बाईक को लेकर चला गया। एक पेड़ के नीचे बाईक खड़ी कर उस पेड के निचे बैठ गया। थकान के चलते उसे वहीं पर नीद आ गई।
जब उसकी ऑख खुली तो अंधेरा छा चुका था। वह आसमान के ऊपर सिर उठा कर देखता है। वह बरगद के विशालकाय पेड़ के निचे बैठा है। उसे ऐसा महसूस होने लगता है। वह चारो तरफ से जंजीरों से जकड चुका है। येसी जंजीरें हैं। जिसे कोई नहीं खोल सकता है। उसे अपना स्वप्न सच होता नजर आ रहा था।
अगले दिन की सुबह पेड़ पर गोपी की लाश  लटक रही थी। पेड़ के पास कई लोगों की भीड़ लगी हुई थी। अब जितने मुंह उतनी ही बातें । कुछ लोगों का कहना था,गोपी ने लोगों के डर से आत्म हत्या कर ली है। कुछ का कहना था, जिनके चीटफंड में पैसे फंसे थे उन लोगों ने गोपी को मौत के घाट उतार दिया है। कुछ लोगों का ऐसा भी कहना था कि गोपी को चोरों ने पैसो की खातिर मार दिया है।  
 
पुलीस तहकिकात में लगी थी कि गोपी की हत्या हुई थी या गोपी ने आत्म हत्या की थी।और आखिर इसकी मौत का जिम्मेदार कौन है?                                                                                                                                                                                                                                                      
परीकथा 2015 के नवलेखन अंक से साभार   

सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत

सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039