शिरोमणि महतो लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
शिरोमणि महतो लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 29 जुलाई 2013

जो मारे जाते- शिरोमणि महतो



जो मारे जाते



वे एक हाँक में

दौड़े आते सरपट गौओं की तरह

वे बलि-वेदी पर गर्दन डालकर

मुँह से उफ्फ भी नहीं करते

बिलकुल भेड़ों की तरह..



वे मंदिर और मस्जिद में

गुरूद्वारे और गिरिजाघर में

कोई फर्क नहीं समझते

उनके लिए वे देव-थान

आत्मा का स्नानघर होते !



वे उन देव थानों को

बारूदों से उड़ाना तो दूर

उस ओर पत्थर भी नहीं फेंक सकते

वे उन देव-थानों को

अपने हाथों से तोड़ना तो दूर

उस ओर ठेप्पा भी नहीं दिखा सकते



वे याद नहीं रखते

वेदों की ऋचाएँ/कुरान की आयतें

वे केवल याद रखते

अपने परिवार की कुछेक जरूरतें

वे दिन भर खटते-खपते हैं-

तन भर कपड़ा/सर पर छप्पर

और पेट भर भात के लिए....



वे कभी नहीं चाहते

सता की सेज पर सोना

क्योंकि वे नहीं जानते

राजनीति का व्याकरण

भाषा
का भेद

उच्चरणों का अनुतान



हाँ !

वे रोजी कमाते हैं

रोटी पकाते हैं

और चूल्हे में

रोटी सेंकते भी हैं

लेकिन वे नहीं जानते

आग से दूर रहकर

रोटी सेंकने की कला !






पता  : नावाडीह, बोकारो, झारखण्ड-829144

मोबाईल  : 9931552982

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

शिरोमणि महतो की कविताएं



हम झारखण्ड के युवा कवि शिरोमणि महतो की कविताएं प्रकाशित कर रहे हैं। झारखण्ड में जीवन-यापन करते हुए वहाँ की जनपदीय सोच को अभिव्यक्त करना जोखिम भरा काम है, हमने शिरोमणि महतो की उन कविताओं को तरजीह दी है। जिसमें उनका जनपद, उनका परिवेष मुखर होता है। बेशक अपने परिवेश के शिरोमणि महतो अच्छे प्रवक्ता हैं। इस उत्तर आधुनिक समय में झारखण्ड और वहां की चिन्ताएं विश्व-पटल पर रखने का कौशल शिरोमणि महतो में है। वह बड़ी बारीकी से आस-पास विचरण करते समय की चुनौतियों को महसूस करते हैं और अपनी जिम्मेदारियां समझते हैं कि ऐसे कठिन समय में एक लोकधर्मी कवि की क्या भूमिका होनी चाहिए?

अकाल


पिछले साल सूखाड़ था 
इस साल अकाल हो गया 
सूखाड़ की नींब पर
अकाल का खूँटा खड़ा होता है
घर में एक भी 
अनाज का बीटा नहीं
घड़े-हंड़े सब खाली-खाली
किसी में एक भी दाना नहीं
छप्पर से भूखे चूहे गिरते
और तडप कर दम तोड़ देते !
अकाल केवल अनाज का नहीं
पानी का भी अकाल है.... 
 कुँआ पोखर नदी नाले 
 सब के सब सूख गये 
 भूखे-प्यासे पशु पक्षी 
 भटक रहे इधर-उधर
और तड़प-तड़प दम तोड़ रहे.... 
 अकाल का मायने 
 ‘-काल’  
 फिर यह क्यों सिद्ध हो रहा
-महाकाल ! रूप रंग आकार 
 एक होने के बावजूद
कितना अलग होता है-
आदमी का मिजाज 
और उसका काम-काज !!

झगड़ा 

 सबके घरों में
अक्सर होता है-झगड़ा 
लोग भूल जाते  
लोहू का संबंध  
जन्मों का बंधन 
 झगड़े में अक्सर आदमी  
 अपना आपा खो बैठता है 
 तब कुछ भी नहीं होता
 उसके बस में  
 मुँह से बरबस 
  गालियाँ निकलने लगती हैं
  जैसे अंधड़ के आने पर 
  पेड़ के पत्ते झड़ने लगते हैं.
  झगड़ा से आदमी का 
  घर टूटता है  
 सर फूटता है 
 मन फटता है   
 और बंद होते हैं 
 आत्मा के द्वार

पता  : नावाडीह, बोकारो, झारखण्ड-829144  मोबाईल  : 9931552982

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

शिरोमणि महतो की कविताएं



शिरोमणि महतो की कविताएं

जन्म      ः    29 जुलाई 1973

शिक्षा      ः    एम.ए. (हिन्दी) प्रथम वर्ष

सम्प्रति   ः    अध्यापन एवं ‘‘महुआ’’ पत्रिका सम्पादन

प्रकाशन  ः    कथादेश, हंस, कादम्बिनी, पाखी, वागर्थ, कथन, समावर्तन,
द पब्लिक एजेन्डा, समकालीन भारतीय साहित्य, सर्वनाम, युद्धरत आम आदमी, शब्दयोग, लमही, पाठ, पांडुलिपि, हमदलित, कौशिकी, नव निकश, दैनिक जागरण ‘पुनर्नवा’ विशेषांक, दैनिक हिन्दुस्तान, जनसत्ता विशेषांक, छपते-छपते विशेषांक, राँची एक्सप्रेस, प्रभात खबर एवं अन्य दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाषित।

                 उपेक्षिता (उपन्यास) 2000
                 कभी अकेले नहीं (कविता संग्रह) 2007
                 संकेत-3 (कविताओं पर केन्द्रित पत्रिका)2009 प्रकाशित।
                 करमजला (उपन्यास) अप्रकाशित।

सम्मान    ः     कुछ संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
                 जनकवि रामबली परवाना स्मृति सम्मान (2010),खगड़िया
                            (बिहार)



               हम झारखण्ड के युवा कवि शिरोमणि महतो की कविताएं प्रकाशित कर रहे हैं। झारखण्ड में जीवन-यापन करते हुए वहाँ की जनपदीय सोच को अभिव्यक्त करना जोखिम भरा काम है, हमने शिरोमणि महतो की उन कविताओं को तरजीह दी है। जिसमें उनका जनपद, उनका परिवेश मुखर होता है। बेशक अपने परिवेश के शिरोमणि महतो अच्छे प्रवक्ता हैं। इस उत्तर आधुनिक समय में झारखण्ड और वहां की चिन्ताएं विश्व-पटल पर रखने का कौशल शिरोमणि महतो में है। वह बड़ी बारीकी से आस-पास विचरण करते समय की चुनौतियों को महसूस करते हैं और अपनी जिम्मेदारियां समझते हैं कि ऐसे कठिन समय में एक लोकधर्मी कवि की क्या भूमिका होनी चाहिए?

- अनवर सुहैल
, कवि-कथाकार, संपादक-संकेत


शिरोमणि महतो की कविताएं

 अकाल

पिछले साल सूखाड़ था
इस साल अकाल हो गया
सूखाड़ की नींब पर
अकाल का खूँटा खड़ा होता है

घर में एक भी
अनाज का बीटा नहीं
घड़े-हंड़े सब खाली-खाली
किसी में एक भी दाना नहीं
छप्पर से भूखे चूहे गिरते
और तडप कर दम तोड़ देते !

अकाल केवल अनाज का नहीं
पानी का भी अकाल है....
कुँआ पोखर नदी नाले
सब के सब सूख गये
भूखे-प्यासे पशु पक्षी
भटक रहे इधर-उधर
और तड़प-तड़प दम तोड़ रहे....

अकाल का मायने
‘अ-काल’
फिर यह क्यों सिद्ध हो रहा
-महाकाल !

रूप रंग आकार
एक होने के बावजूद
कितना अलग होता है-
आदमी का मिजाज
और उसका काम-काज !!

पिता की खांसी

पिता की खांसी
जैसे उठता-कोई ज्वार
मथता हुआ सागर को
इस छोर से उस छोर
दर्द से टूटते पोर-पोर

जब खांसी का दौरा पड़ता
थरथराने लगता-पिता का धड़
डोलने लगता-माँ का कलेजा
मानो खांसी चोट करती
घर की बुनियाद पर
हथौड़े की तरह....
और हिल उठता-समूचा घर !

अब सत्तर की उमर पर
दवाओं का असर
कम पड़ रहा
पिता की खांसी पर

डॉक्टर कहा करते-
यह खांसी का दौरा
दमा कहलाता है
जो आदमी का
दम तोड़कर ही दम लेता है !

लेकिन
अगर आदमी में दम हो
तो पछाड़ सकता है
-दमा को

दमा और दम की
लड़ाई अभी जारी है.....!


जूठे बर्त्तन

रात भर ऊँघते रहे
जूठे बर्त्तन
अपने लिजलिजेपन से

मुर्गे की बांग से
भोर होन की आस में
तारों को ताकते रहे
झरोखे की फांक से

सुबह होते ही
जूठे बर्त्तनों को
ममत्व भरे हाथों का
स्पर्थ मिलता....

घर की औरतें
जूठे बर्त्तनों को
ऐेसे समेटती/सहेजती
मानो उनका स्वत्व
रातभर रखा हो
इन जूठे बर्त्तनों में !

चाहे ये जूठे बर्त्तन
किन्हीं के हों

किसी भी जात/धर्म के
ऊँच-नीच/भेद-भाव
तनिक नहीं करतीं
घर की औरतें
इन जूठे बर्त्तनों से !



पता         ः    नावाडीह, बोकारो, झारखण्ड-829144

मोबाईल   ः    9931552982