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बुधवार, 20 मार्च 2013

सौरभ राय ‘भगीरथ ’ की दो कविताएं-



      




     सौरभ राय भगीरथ उभरते हुए युवा रचनाकारों में से एक हैं। जिनकी कविताएं जीवन के असंख्य थपेड़ों को झेलती हुई संवेदना से लबरेज अथाह बाढ़ के समान सारे धैर्य तोड़-फोड़कर बाहर निकलती हैं ।  इनकी कविताओं में जहां आक्रोश है वहीं तरस भी खाते हैं उन लोगों पर जो जाति-धर्म के नाम पर अपनी रोटियां सेकने में मशगुल हैं ।


     इनकी कविताओं में टटके बिंब एवं कथ्य शिल्प सहज ही ध्यानाकर्षित करते हैं। आप सुधीजनों के विचारों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।


       इनके बारे में इन्हीं की जुबानी- मेरा नाम सौरभ राय भगीरथ है और मैं हिंदी में कविताएं लिखता हूँ । मेरी उम्र 24 वर्ष वर्ष है एवं मेरी कविताओं के तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें से यायावर दिसम्बर 2012 को बैंगलोर में रिलीज़ हुआ । मेरी कविताएं हिंदी की कई संग्रहों में प्रकाशित हो चुकी हैं । इसके अलावा हंस ने मेरी कविताओं को अपने जनवरी 2013 के अंक में प्रकाशित किया था । वागर्थ एवं कृति ऒर समेत कुछ और पत्रिकाएँ अपने आगामी अंकों में मुझे प्रकाशित कर रहे हैं । कई अंग्रेजी के पत्र पत्रिकाओं में भी मेरे लेखन के बारे में छप चुका है।


 



सौरभ राय भगीरथ की दो कविताएं-  

विद्रोह
 विद्रोह था यह
कि मैं अधर्म को धर्म
नहीं कह सकता था
विद्रोह था
कि मेरी आँखों में रोशनी
और हृदय में ज्वार था शेष
विद्रोह ही तो था
कि मैंने इतिहास पढ़ा था
और गणित में मेरी रूचि थी
बच्चों के साथ
मैं अपना बचपन जीता था
और वृद्धों के साथ
करता था राजनीति की बातें
चूम सकता था
अपनी प्रेमिका को
छू सकता था उसकी देह
खेतों में तितलियों के बीच दौड़ना
मुझे अच्छा लगता था ।  
विद्रोह था
कि मैं शहर की चकाचौंध में नहीं खोया
नहीं लड़खड़ाए मेरे कदम
नहीं उड़ा मैं धुआँ बन कर
विद्रोह था
कि दीवार पर लिखे धार्मिक नारे
मुझे गालियाँ लगती थीं
विद्रोह था
कि मैं पड़ोसी से संपर्क रखता था
उसकी जाति धर्म जाने बिना
संभावना थी बस इतनी
कि मेरे इस विद्रोह में
मैं अकेला नहीं था
इस संभावना को अस्वीकार करना भी
मेरा विद्रोह था ।


मेरा गाँव


मेरे गाँव का सूरज
पश्चिम से नहीं उगता
पूरब से उगकर
अपनी गति से सरकता है
पश्चिम की ओर
और शाम को
चटाइयों टोकरियों की बिनाई के
फाँकों से गुज़रते हुए
अपनी खटिया पर लेट
यादों की कत्थई चीलम जलाता है
मेरे गाँव का सूरज
बड़ा ही साधारण सूरज है

मेरे गाँव की पाठशाला
अपने ही पहाड़ें दुहराती
स्लेट पर खड़िया से
अपने भविष्य की रेखाएं खींचती
ठुमक.ठुमक कर स्कूल जाती
बच्ची की चोटी पर
बंधी लाल सुनहरी रिब्बन है
मेरे गाँव की पाठशाला
बड़ी साधारण पाठशाला है

मेरे गाँव के लोग
अपने कुँए का पानी पीते
अपनी मिट्टी
अपनी ही कुदाली से खोदते
बेवजह जोतते
एक दूसरे के खेत
अपनी फसल बोते
बिना नारा लगाए
बिना मुद्दा उछाले
अपनी समस्या
ख़ुद सुलझाते हैं
मेरे गाँव के लोग
बड़े ही साधारण लोग हैं

मेरा गाँव
बड़ा ही साधारण
गाँव है ।


संपर्क-

SOURAV ROY
T3, SIGNET APARTMENT, BEHIND HSBC, 139/1, 3RD CROSS, 1ST MAIN,
SARVABHOUMA NAGAR, BANNERGHATTA ROAD,
BANGALORE - 560076
Mob+919742876892