सोमवार, 21 मई 2012

महेश चंद्र पुनेठा की कविताएं











पहाड़ का सौंदर्य

अल्मोड़े से कसारदेवी की ओर
बढ़ चली थी गाड़ी
चारों ओर फैली हरियाली
कोमल-कोमल चातुरमासी घास
बॉज-बुरूंश-चीड़-देवदार के
विस्तृत वन-कानन
कभी पड़ रही थी जिनमें
बरखा की बूदें झमझम
कभी ढक लेता जिनको
मॉ की ऑचल सा  कुहारा चमचम
कहीं मिल जाते थे   
जंगल जाती महिलाओं के दल
हिलमिल
कहीं घंटी बजाते बैलों के झुंड
टुनटुन
दूर कहीं अचानक बादलों के बीच
दिख जाते
लुकाछिपी करते से
हिमाच्छादित पर्वत शिखर
कच्ची-पक्की सड़कों में हिचकोले खाते 
देख यह दृष्यालेख
गदगद थे
कवि के
व तिवारी और आलोचक जीवन सिंह
बच्चों सी
चमक रही थी उनकी ऑखें
होठों में थिरकन
हवा चलते हुए झील के जल सी
जैसे कहना चाह रहे हों कुछ
और कह भी नहीं पा रहे हों।
कवि-आलोचक द्वय के भीतर
झर रहा था सौंदर्य का अद्भुद झरना
पास जिसके 
भीग रहे थे हम फुहारों में
एक बार फिर
हम भी ठहरकर देख रहे थे
पहाड़ के सौंदर्य को
कुछ ऐसा ही था यह अनुभव
जैसे किसी और को प्रेम में पड़े देख
याद हो आता है अपना प्रेम भी
गदगद थे वो
गदगद थे हम
गदगद लगता था पहाड़ भी ।  

 पत्नी जो ठहरी तुम्हारी


हाथ बॅटाना तो हुआ नहीं तुमसे कभी
पुरुष होने की इज्जत में बट्टा जो लग जाता ।
सारा काम निबटाकर
आराम को आती हॅू जब बिस्तर में
कुलबुलाने लगती हैं इच्छाएं तुम्हारी
हर रात ।
जुर्रत भी महसूस नहीं करते 
जानने की मेरी इच्छा
जैसे कोई
शिकारी ।
करो भी क्यों       
पत्नी जो ठहरी तुम्हारी
ढोल बजाकर जो लाए हो घर इसीलिए।
रौंद डालते हो मेरे शरीर को
जैसे बिगड़ा सॉड़ किसी खेत को
मेरी चित्कार भी
नहीं देती सुनाई तुम्हें
तुम चाहते हो तुम्हारे बहशीपन में भी
महसूस करू मैं आनंद ।
सब कुछ चाहिए तुम्हें
नहीं मिल पाए जो उसी में हंगामा ।
और
मेरा मन रखने को भी
नहीं कर सकते तुम कभी
मेरी झूठी तारीफ तक ।
पता नहीं क्यों तुम्हें अब
मुझमें दिखाई नहीं देते कोई गुण ।
कभी तो तुम्हें
मुझमें दिखाई देगा कुछ अच्छा
खटती रहती हॅू
इस चाह में दिन-रात ।
अपने को
बड़ा ही दिखाते रहते हो 
हर हमेशा
और
मुझे मतिमूढ़
चाहे तुमसे होता न हो
एक तिनका भी टेड़ा।

मैं बिछती रही जितनी
तुम पसरते गए उतने ।
कहते रहे समय-समय पर-
’’मैं कितना प्यार करता हॅू तुम्हें
नहीं जानती तुम‘‘
और 
मैं भूलाती रही सब कुछ
और
तुम चलाते रहे सब कुछ ।

संपर्क-  जोशी भवन ,निकट लीड बैंक चिमस्यानौला 
           पिथौरागढ़ 262501 मो0-9411707470

शनिवार, 12 मई 2012

कथा लेखन श्रमसाध्य विधा है और कवि प्रायः श्रमभीरू होते हैं : ~


फतेहपुर के समूचे साहित्यिक परिदृश्य को रेखांकित करने के लिए युवा रचनाकार एवं अपने रचना एकर्म को अपने हिन्दी ब्लॉग "आखरबाड़ी" के माध्यम से दुनिया तक फैलाने में संलग्न श्री प्रेम नंदन जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं पर फतेहपुर जनपद के इतिहास को समेटे ग्रंथों ‘अनुवाक और उसकी अगली कड़ी अनुकाल’ के प्रधान सम्पादक डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी जी से एक लम्बी बातचीत की है। डा. ओऽमप्रकाश अवस्थी ने साहित्य और विशेषकर समालोचना के क्षेत्र में अपनी मौजूदगी का बखूबी अहसास कराया है। निःसंदेह इन्हें फतेहपुर जिले की आलोचना परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाले शिखर पुरुष का दर्जा प्राप्त है। साहित्य के इस पुरोधा की कृतियों में रचना प्रक्रिया , नई कविता, आलोचना की फिसलन , अज्ञेय कवि व अज्ञेय गद्य प्रकाशित हुई है। साहित्य की अनेक विधाओं पर  एक लंबी  गंभीर बातचीत

प्रेम नंदन-  डॉ0 साहब, कहानी, नई कहानी और अकहानी में मूलभूत क्या अन्तर है?

 डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- कहानी, नई कहान और अकहानी साहित्य जगत के इन पारिभाषिक कुनबों में वैसा ही अन्तर है जैसा पारम्परिक समाज, परम्पराओं से विघटित होता हुआ समाज और आज का समाज। मूलतः कहानी कथा शबद की आधुनिकता का स्थानापन्न रूप है, जिसका विकास लगभग सन् 1900 के आस-पास माना जाता है। इस समय प्रेम सागर, नासिकेतोपाख्यान, इंशा अल्ला की रानी केतकी की कहानी आदि रचनाओं ने अपने को प्रारम्भिक कहानी के रूप में स्थापित किया। यह प्रक्रिया बहुत दिनों तक धार्मिक आख्यानों, उर्दू की किस्सा गोई और संस्कृत के नाटकों की कथा-वस्तु को सम्मिलित रूप से कहानी के रूप में प्रस्तुत की जाती रही। यह कहानी मूल रूप में इतिवृत्तात्मक रही।

 लेकिन सन् 1930 के आस-पास से कहानी इतिवृत्तात्मकता के साथ-साथ देश-काल के समस्या मूलक विषयों को भी जोड़ने लगी जो उस समय देश की आवश्यकता थी, यथा बाल-विवाह, देशद्रोह, अशिक्षा जैसी बुराईयों का खण्डन और नारी-शिक्षा, देश प्रेम, सम्बन्धों का निर्वाह, संयुक्त परिवार की अवधारणा का मण्डन करती रही। मोटे तौर पर विषय वस्तु और शैली को लेकर परिवर्तन होते रहे लेकिन संयुक्त परिवार की अवधारणा ने 1947 तक कहानी को कहानी ही बने रहने दिया। ज्यों-ज्यों संयुक्त परिवार की अवधारणा खण्डित होने लगी और गाँव तथा शहर एक दूसरे से सम्पर्क में आने शुरु हुए, इन नई परिस्थितियों को उद्घाटित करने के लिए नई कहानी का जन्म हुआ। इसके बाद शहरीकरण के जितने दूषित, कुरूप, असामाजिक मूल्य थे वे सब अकहानी के विषय वस्तु बन गये। जिसके कारण अकहानी पर अश्लीलता जैसे दाग भी देखे गये।

प्रेम नंदन- कहानियों से गाँव गायब होते जा रहे हैं और पंचसितारा संस्कृति के अनुरूप लिखी कहानियाँ आम आदमी से दूर होती जा रही हैं, ऐसे में किस्सार्गो और प्रेमचंद जैसे कहानीकारों की परम्परा की क्या प्रासंगिकता रह गई है?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- कहानी लेखन में पंचसितारा संस्कृति के हाबी होने में शहरों में उपलब्ध शिक्षा, व्यवसाय और प्रकाशन तीनों का बड़ा हाथ हैं। शहरी जीवन में ये तीनों लेखकों को आसानी से प्राप्त हो जाने के कारण ही साहित्य में शहरीकरण हावी होता गया और शहरीकरण बढ़ते-बढ़ते पंचसितारा संस्कृति तक पहुँच गया। ग्रामीण क्षेत्र से गये साहित्यकार भी अपने को ग्रामीण संस्कृति का जानकार मानने में आत्महीनता का अनुभव करने लगे। ग्राम्य संस्कृति को पहचानना बाबूपन के लिए बहुत भारी धब्बा हो गया। नगरों एवं महानगरों की सितारा संस्कृति में न केवल ग्रामीण जीवन बल्कि मनुष्य की ही पहचान खत्म हो गयीं इसीलिए कथा साहित्य में ग्राम्यांचल को लेकर पहचान बनाने वाले लेखक नहीं रहे और जो कुछ लिखा भी जा रहा है उसमें बनावटीपन की गंध है।

 

चूँकि हिन्दी का औसत पाठक और लेखक इस अति उच्च वर्ग का नहीं है जो अपने को उस पंचसितारा संस्कृति से जोड़ सके, इसलिए आज की पंचसितारा कहानियों एवं पाठक एक दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। रही बात प्रेमचंद के ग्रामीण जीवन की प्रासंगिकता की तो वह दो कारणों से बनी रहेगी। पहला तो यह कि कथा साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति का आंकलन करने के लिए ग्राम्यांचल की कहानियाँ ही दिग्दर्शक बनेंगी और दूसरा यह कि जिन आधारों और मूल्यों को उन्होंने अपने कथा साहित्य का आधार बनाया है वे आधार आगे किस प्रकार विकसित हुए, इसकी पहचान करायेंगे। जैसे झिंगुरी शाह से दस रुपये उधार लेकर उनकी अदायगी करने वाला होरी और आज के बैंकों में अपनी जमीन गिरवी रखकर ऋण लेने वाला किसान।

प्रेम नंदन- जनपद में कथा साहित्य के इतिहास पर संक्षेप में प्रकाश डालते हुए वर्तमान परिदृश्य को स्पष्ट करने की कृपा करें।

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- फतेहपुर जनपद में कथा साहित्य का सूत्रपात धार्मिक ग्रन्थों की टीकायें लिखने और ग्रामीण आंचलों में, परिवारों में, धार्मिक, उपदेशात्मक लोक कथायें कहने से हुआ। अधिकांशतः पौराणिक कथाओं को लोक भाषा में बदलने का काम यहाँ के साहित्यकारों ने किया। साहित्यिक मानदण्ड से जुड़े हुए कथाकार के रूप में सबसे पहला नाम लाला भगवानदीन ‘दीन’ का आता है। लाला जी ने लक्ष्मी पत्रिका के सम्पादन के माध्यम से छोटी-छोटी उपदेशात्मक एवं समाजोपयोगी तथा देश प्रेम से जुड़ी कहानियाँ लिखीं। उन्होंने एक छोटा सा उपन्यास भी लिखा। उनकी पत्नी बुन्देला बाला भी कहानियाँ लिखती थीं। कथा साहित्य का यह दौर आगे बढ़ा और राज बहादुर लमगोड़ा ने 1857 के समय के कथानकों को लेकर कुछ कहानियाँ लिखीं। उन्होंने रामकथा को छोटे-छोटे टुकड़ों में कहानीबद्ध करके लिखा।

इस युग में रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, इकबाल बहादुर वर्मा, महावीरप्रसाद राय, गणेश शंकर विद्यार्थी, रामप्रसाद विद्यार्थी (रावी), जीवन शुक्ल, जीवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव (जीवन दद्दा), प्रयाग शुक्ल आदि साहित्यकार कहानी लिखते रहे। वर्तमान में श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी, महेन्द्रनाथ बाजपेयी, जयप्रकाश त्रिवेदी, डॉ0 बालकृष्ण पाण्डेय, शैलेष गुप्त, बृजेन्द्र अग्निहोत्री, प्रवीण कुमार श्रीवास्तव जैसे अनेक साहित्यकार कथा-साहित्य में अपना योगदान कर रहे हैं।

प्रेम नंदन- क्या कारण है कि जनपद में कविता के बरक्स गद्य लेखन नगण्य प्राय है? इक्के-दुक्के कहानीकार व उपन्यासकार दिखते हैं ऐसी स्थिति में इस विद्या का आप क्या भविष्य देखते हैं?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- जनपद में स्थापित कवियों, कवि सम्मेलनीय कवियों और उत्साह से प्रेरित होकर स्फुट कवितायें लिखने वालों की लम्बी सूची है लेकिन उसके अनुपात में कहानीकार दाल में नमक की तरह हैं। चूँकि कथा लेखन श्रमसाध्य विधा है और कवि प्रायः श्रमभीरू होते हैं, शायद इसलिए भी जनपद में कथा लेखन नगण्य प्राय है। दूसरा, यहाँ न तो कथा साहित्य के मंच बने और नहीं कथा साहित्य की गोष्ठियाँ सम्पादित हो सकीं, जिससे इस विधा का कुछ विकास हो सकता। यहाँ का जितना भी कथा साहित्य है वह शुद्ध रूप से पाठ्ष साहित्य रहा। इसके लेखन में जितनी तन्यमता और कई सम्बन्धों का संयोजन करने की आवश्यकता होती है वह साहित्यकारों से रम साध्य न हो सका। कथा साहित्य में जो जीवन की अन्तरंगता, सम्बन्धों के निर्वाह के साथ चलती है उतना क्रम करने वाले साहित्यकार कम हैं। एक और बहुत बड़ा कारण यह है कि कथा साहित्य के सामूहिक सम्मेलनों या कहानी लेखकों और कहानी स्रोताओं के संगठन नहीं बन सके। मुख्य रूप से कहानी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन तक सीमित रह गई और उसका सामान्य जन जीवन से सम्बन्ध न बनने के कारण कथा साहित्य का जनपद में समुचित विकास नहीं हो सका है।

प्रेम नंदन- डॉ0 साहब, जनपद के कथाकारों एवं उपन्यासकारों के योगदान पर प्रकाश डालने की कृपा करें।

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- इधर कुछ वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं में छोटी कहानियाँ, लघुकथायें लगातार प्रकाशित हो रही हैं तो कुछ लम्बी कहानियाँ भी लिखी जा रही हैं। जनपद के कथाकार यदि इसी गति से लिखते और प्रकाशित होते रहे तो इस विधा के समृद्ध होने की काफी सम्भावनायें हैं। इसको आगे बढ़ाने के लिए कहानी का वाचन, श्रवण और उस पर कुछ श्रोताओं की प्रतिक्रियायें बहुत कारगर सिद्ध हो सकती हैं।

मंगलवार, 1 मई 2012

भरत प्रसाद की दो कविताएं-


परिचय-
 
             01 अगस्त 1971 को उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जनपद में हरपुर नामक गांव में जन्में  भरत  प्रसाद ने समस्त शैक्षिक डिग्रियां प्रथम श्रेणी में पास की है। पेशे से अध्यापन। सहायक  प्रोफेसर हिन्दी विभाग पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय शिलांग मेघालय में

भूरी-भूरी खाक धूल काव्य संग्रह में मुक्तिबोध की युग चेतना में एम0 फिल0 तथा  
समकालीन हिन्दी कविता में अभिव्यक्त समाज और संस्कृति में पी0 एच0 डी0।
 अब तक इनकी-  
और फिर एक दिन   कहानी संग्रह 
देसी पहाड़ परदेसी लोग   लेख संग्रह  
एक पेड़ की आत्म कथा काव्य संग्रह प्रकाशीत   एवं  
सृजन की इक्कीसवीं सदी लेख संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
 अनियतकालीन पत्रिका- साहित्य वार्ता का दो वर्षों तक संपादन एवं हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन के साथ ही परिकथा  पत्रिका के लिए ताना बाना  शीर्षक से नियमित स्तंभ लेखन। इनके लेख एवं कविताओं का पंजाबी एवं बांग्ला में अनुवाद।

पुरस्कार-1-सृजन सम्मान 2005 रायपुर  छत्तीसगढ़
                  2-अम्बिका  प्रसाद दिब्य रजत अलंकरण 2008  भोपाल म0 प्र0

                  वर्तमान युग की सबसे बड़ी विडम्बना है - विसंगति। विसंगतियों ने पूरे समाज की जीवन धारा को कुंद कर दिया है। विसंगतियां आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त हैं। क्षेत्र चाहे आर्थिक हो, सामाजिक हो या जीवन मूल्यों का हो। कुछ ऐसी भी विसंगतियां होती हैं जो समाज के ताने बाने को अधिक आकर्षक  और मजबूत करती हैं। किन्तु यही विसंगतियां जब विद्रूपताओं का रूप धारण कर लेती हैं,तब समाज और
राष्ट्र अनेकानेक अनैतिकता के अधीन हो जाते हैं। कवि विभिन्न विसंगतियों से रुबरू होते हुए इसके खिलाफ मोर्चा खोलकर कविता का नया वितान रचता है।


               बकौल नित्यानंद गायेन-
कवि अपनी कविताओं के माध्यम से एकटक सुनहरे अतीत में झांकता है फिर अचानक व्याकुल हो उठता है अतीत के सुनहरे दिनों को खोते देखकर । किन्तु कवि उम्मीद नहीं छोड़ता । वह वर्तमान समय के षड्यंत्रों को ललकारते हुए आगे बढता है । कवि कर्म केवल समाज को दर्पण दिखाना नहीं  दीया भी दिखाना है । और कवि भरत प्रसाद यही कर रहे हैं । वे आज के इस खतरनाक समय में जहां सच के पक्ष में खड़ा होना सबसे बड़ा खतरा है  इसके पक्ष में खड़े होकर दे रहे हैं बेबाक गवाही । सत्य के साथ खड़े ,सरल भाषा के इस कवि को पढ़ते हुए उनकी पक्षधरता को आसानी से महसूस किया जा सकता है । 01 मई को मजदूर दिवस के अवसर पर प्रस्तुत हैं भाई भरत  प्रसाद की दो कविताएं-
इनकी कविताओं  से हम आगे भी रुबरू कराते रहेंगे ।



 
 























पृथ्वी को खोने से पहले

लाचार,आवाक् सा, सांसें रोके
सुदूर अतीत को झांकता रहता हूं अपलक
एक से बढ़कर एक पृथ्वी के अनमोल दिन
अरे, खोते जा रहे हैं मुझसे
आंखें उठाकर  देखिए,
इतिहास करवट बदलता है- एक दिन
छाटे- छोटे दिन मिलकर ही
बड़ी- बड़ी सभ्यताओं को जन्म देते हैं
किसी दि नही घटित होती हैं अमर घटनाएं
भूलिए मत
बुद्ध में बुद्धत्व छः साल में नहीं
सिर्फ छः दिन के भीतर प्रकट हुआ था
वर्षों से बुझे हुए मस्तक में
किस दिन चमकता हुआ विस्फोट भर जाए
कुछ कह नहीं सकते
नाउम्मीदी के घुप्प अंधकार में भी
एक न एक दिन
उम्मीद की सुबह खिलती है
हजार बार पराजय में टूटे हुए कदम भी
एक दिन , जीत का स्वाद चखते हैं
घृणा की चौतरफा मार से
किसी का मरा हुआ सिर
अचानक किस दिन
बेइंतहा सम्मान पाकर जी उठे
कौन बता सकता है  ?
पिछला कोई भी दिन,नहीं है आज का दिन
वह कल भी नहीं अएगा,
आज का दिन, सिर्फ आज के दिन है-
अनगिनत शताब्दियों के लिए
15 अगस्त की जगह,रख दीजिए 14 अगस्त
अर्थ का अनर्थ हो जाएगा
नहीं हो सकता 5 दिसम्बर, 6 दिसम्बर की जगह
सिर्फ एक दिन का फासला
मनुष्य का चेहरा  बदल देता है
पलट देता है इतिहास को देखने का नजरिया
हमारे जीवन  में हजारों दिन आए
और हजारों दिन गये
मगर धिक्कार! कि हम जीने की तरह
एक दिन भी  नहीं जीए
पृथ्वी को खोने से पहले
जी भरकर जी लेना चाहता हूं
एक-एक दिन का महत्व
सुन लेना चाहता हूं
जड़- चेतन में अनंत काल से धड़कती
पृथ्वी का हृदय
पदलेना चाहता हूं
सृष्टि के सारे अलक्षित मर्म
पा लेना चाहता हूं
हर वृक्ष के प्रति माटी की ममता का रहस्य
इसके बगै़र जीना तो क्या
इसके बग़ैर मरना तो क्या ।

लमही

लमही , नहीं है लमही में
नहीं है बनारस में
नहीं है उत्तर प्रदेश में
लमही के लिए
भारत वर्ष छोटा पड़ गया है
वह पार कर चुका है प्रशांत महासागर
लांघ चुका है तिब्बत और पामीर का पठार
फिर हिमालय की बात ही क्या
जरा ग़ौर से देखो
वह नाम बदल बदल कर फैल गया है
अमेजन , नीलडेन्यूब नदियों के किनारे
बस चुका है रूस,चीन और अफ्रीका के अंचलों में
यहां तक,फ्रंास और इंगलैण्ड के गांवों में भी
लमही अर्थात् मानवता के लिए कलम की खेती
जमीनी मनुष्यता का उत्सव
जनसत्ता का अभय उद्घोष
लमही का मतलब-
शब्दों की कालजयी ताकत
माटी का पक्का रंग
जुबान का सीधा-सादा जादू
पूरब में निकला हुआ
मनुष्य की आजादी का सबेरा
भारत का हर गांव लमही है
और लमही में हिन्दुस्तान का एक-एक गांव
अनाथ बच्चों के आंसुओं में लमही है
बूढ़े काका की फटी बिवाइयों में लमही है
घूंघट की आंड में बरसते
घरवाली के नयनों में लमही है
जवानी में विधवा हो चुकी
बूढ़ी दादी की कसम में लमही है
लमही है तो कलम के सिपाहियों की
उम्मीद अभी बाकी है
बाकी है पशुओं को भी
हीरा मोती कहने का सपना
उम्मीद है कि
अंतिम मनुष्य की मुक्ति की लड़ाई
फिर कोई प्रेमचन्द लड़ेगा
वरना अब कौन कहेगा?
कि धरती की फसलें,पानी -वानी से नहीं
किसी के खून-पसीने  से  लहलहाती हैं।

सम्प्रति-        सहायक  प्रोफेसर हिन्दी विभाग 

                         पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय शिलांग 
                        मेघालय 793022
                        मोबा0-09863076138  09774125265
                        ई-मेल-deshdhar@gmail.com
                        ब्लाग-deshdhara.blogspot.com

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

अनवर सुहैल का जीवन संघर्ष

    
   जीवन संघर्ष

              
                         अब्बा रेल्वे स्कूल में शिक्षक हुआ करते थे, जो अब अवकाश प्राप्त कर चुके हैं। वह एक अनुशासन प्रिय, गम्भीर एवं धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं रहती। वह अपने जीवन से इतने संतुष्ट रहते हैं कि उन्हीं से प्रेरणा पाकर मेरे अंदर अनुशासनप्रियता और संतोष का भाव गहराया है। अब्बा जानते हैं कि ‘साहेब से सब होत है, बंदे से कुछ नाहिं’। अब्बा का एक और ध्येय-सूत्र है कि आराम करने के लिए क़ब्र ही बेहतर जगह है। यह जीवन लगातार कुछ नया रचने के लिए है। मैं भी भूमिगत कोयला खदान में काम करने के बावजूद नया रचने या नया पढ़ने की ललक का मारा रहता हूं। बाबा कबीर की उक्ति अक्सर बच्चों को सुनाया करता हूं-‘‘सुखिया सब संसार खावै अरू सोवै / दुखिया दास कबीर जागे अरू रोवै।’’ जो चेतनासम्पन्न होगा यानी कि बाबा कबीर के शब्दों में जो ‘जागा’ होगा वह सांसारिक दुःख देख कर चिंतित रहेगा। जो तबका स्वार्थ, लिप्सा और भोगविलास में डूबा रहता है उसे कबीर दास सुखिया कहते हैं। मेरे विचार से तमाम शायर, लेखक बिरादरी कबीर दास की दुखिया कैटगरी में आती है। 
                    मेरी अम्मी उर्दू, अंग्रेजी, फ़ारसी और अरबी की जानकार थीं। वह इतने ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ लिखती थीं कि ऐसा लगता जैसे कहीं कोई छपी हुई
स्क्रिप्ट हो। हम बच्चों को हिन्दी लिखते-पढ़ते देख उन्होंने भी हिन्दी लिखना-पढ़ना सीख लिया था। उनकी संदूक में चंद किताबें ज़रूर रहा करती थीं। जैसे, हफ़ीज़ जालन्धरी की ‘शाहनामा ए इस्लाम’ चार वाल्यूम, अल्लामा इक़बाल की किताब ‘बांगे दरा’, स्मिथ की ‘दि स्पिरिट ऑफ इस्लाम’, कृश्न चंदर की ‘एक गधे की आत्मकथा’। उर्दू माहनामा ‘बीसवीं सदी’ के सैकड़ों अंक उनके कलेक्शन में थे। वह इब्ने सफी बीए की जासूसी दुनिया भी ज़रूर पढ़ा करती थीं। मुझे उर्दू पढ़ने की ललक इब्ने सफी बीए की जासूसी दुनिया
पढ़ने से जागी। अम्मी एक चलता-फिरता शब्दकोश हुआ करती थीं। शेरो-शायरी, से उनकी गहरी वाबस्तगी थी। वह कठिन से कठिन अश्आर कहतीं और फिर उनकी तफ़सील बताया करती थीं। अक्सर वह एक शेर कहती थीं-‘‘सामां है सौ बरस का, पल की ख़बर नहीं।’’ मेरे विचार से मेरे अंदर कवि या लेखक बनने का ज़ज़्बा अम्मी के कारण पैदा हुआ क्योंकि अम्मी अक्सर अकेले में मौका पाकर कॉपी के पिछले पन्ने पर कुछ न कुछ लिखती रहती थी। मुझे अफ़सोस है कि उन पन्नों को मैं सम्भाल कर रख न पाया वरना तत्कालीन भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति स्वरूप वे तहरीरें आज मेरे कितने काम आतीं। 
                   मेरे मुहल्ले में गिरीश भइया रहते थे। वह पुराने उपन्यासों के उदात्त नायकों की तरह मुझे नज़र आया करते थे। वह व्यंग्य लिखा करते थे। उस समय उत्तर प्रदेश से एक हास्य व्यंग्य की पाक्षिक पत्रिका ‘ठलुआ’ निकला करती थी। गिरीश भइया उसके नियमित लेखक थे। मैं उनके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित था कि उनसे मिलने उनके घर गया। उन्होंने ठलुआ का पुराना अंक देकर मुझे कहा कि इसके लिए मैं भी कुछ लिखूं। तब मैं सातवीं या आठवीं कक्षा में था। मैंने सम्पादक के नाम पत्र लिखा। वह पत्र प्रकाशित हुआ और लेखकीय प्रति के रूप में ठलुआ  का अंक जब मेरे नाम से पोस्टमैन घर दे गया तो अचानक मुझे महसूस हुआ कि मैं एक बड़ा लेखक बन गया हूं। शाम के समय राम मंदिर के प्रांगण में गिरीश भइया, आर एस एस की शाखा में अवश्य उपस्थित हुआ करते। मैं तब बालक ही था। राजनीति की कोई समझ तो थी नहीं। शाखा में झण्डा-वन्दन, प्रार्थना के बाद सभी लोग खेल खेला करते थे। मुझे वहां अच्छा लगता। इसलिए भी अच्छा लगता कि मेरे समय का एक लेखक गिरीश भइया भी वहां खूब आनन्द लेते थे। ठलुआ में मैंने नगर की सड़कों की दुर्दशा पर, एकमात्र छविगृह पर, पगार की पहली तारीख पर व्यंग्य लिखे। मैं जो भी लिखता थोड़े-बहुत संशोधन के साथ वह ठलुआ में छप जाया करता था। गिरीश भइया अर्थात गिरीश पंकज बाद में एक बड़े लेखक बने। वर्तमान में वह साहित्य अकादमी के सदस्य हैं। गिरीश पंकज ने सद्भावना दर्पण के नाम से एक त्रैमासिक लघुपत्रिका का सम्पादन भी कर रहे हैं। 
                       विद्यालय में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिन होने वाले काय्रक्रमों में मैं भाग लिया करता था। देशभक्ति से प्रेरित कविताएं तुकबंदी के साथ लिखा करता था। कविता पाठ करने पर बच्चे तालियां बजाते और शिक्षकों उत्साह वर्धन करती निगाहें मुझे अन्य बच्चों से हटके बना दिया करती थीं। हिन्दी के अध्यापक श्री अमर लाल सोनी ‘अमर’ मेरी कविताई देखकर मुझे ‘बूढ़ा बालक’ कहा करते थे।वह हमारे घर के सामने रहा करते थे। अक्सर मुझे अपने पास बुलाते और अपनी ताज़ा कविताएं सुनाया करते। उनकी कविताएं अतुकांत होतीं साथ ही उनमें आदर्श होता। वह शिक्षक के नज़रिए से संसार को देखा करते थे और हर खराब को अच्छा बनाने की ज़िद पाले बैठे थे। उनकी कविताएं मुझे अच्छी लगतीं लेकिन मेरे मित्र उनका मज़ाक उड़ाया करते थे। वास्तव में उस समय का समाज भी लेखक या कवि को अनुत्पादक काम में लिप्त मानता था। लेकिन मेरे मन में तो जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद या रवीन्द्र नाथ टैगोर बनने की ललक थी। मैं खूब कविताएं लिखा करता था। अम्मी के सम्पर्क में रहने के कारण मेरी कविताओं में उर्दू के शब्दों की अधिकता होती थी। अम्मी मेरी कविताओं की सराहना किया करतीं। वह मुझे इस्लाह भी किया करती थीं।
                     नगर में किराए से किताब मिलने की  एक दुकान थी। मैं वहां से दस पैसे रोज पर एक किताब लाया करता था। वहां नंदन, पराग, चंदामामा और धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं किराए पर मिलती थीं। मुझे बच्चों की पत्रिका ‘पराग’ अत्यंत प्रिय थी। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना उसके सम्पादक हुआ करते थे। खूबसूरत सजी-धजी पत्रिका थी ‘पराग’। उस समय के तमाम मशहूर लेखकों की बाल रचनाएं ‘पराग’ में प्रकाशित हुआ करती थीं। आज हिन्दी में ऐसी बाल-पत्रिका का नितान्त अभाव है। जाने क्यों ‘पराग’ पढ़ते-पढ़ते एक दिन मैंने सोचा कि अपने मन से मैं भी तो कहानी बना कर लिख सकता हूं। छोटी बहिन शमॉं को रात के वक्त कहानी सुनने की आदत थी। मैं तब दसवीं का छात्र था। मैंने उस दिन सुनी-सुनाई कहानी न सुना कर उसे एक कहानी गढ़ कर सुनाई। वह कहानी बहन को बहुत पसंद आई। मैंने रजिस्टर के पन्ने फाड़े और उस पर कहानी को दर्ज किया। नाम दिया ‘नन्हा शेर’। कहानी भेज दी ‘पराग’ के पते पर। ‘पराग’ जिसके अंकों का मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता था। ‘पराग’ जिसके नए अंक मेरे सपने में आते तो ज़रूर थे लेकिन इतने अस्पष्ट होते कि मैं मुखपृष्ठ भी देख न पाता और नींद खुल जाती। ‘पराग’ जिसके दिल्ली स्थित सम्पादकीय कार्यालय में मैं न जाने कितनी बार सपने में गया था, जहां चारों तरफ ‘पराग’ के पुराने अंकों के बंडल पड़े दिखते थे लेकिन वह अंक न दिखता था जो अभी छपा न था। ‘पराग’ में कहानी भेजने के एक सप्ताह के बाद प्रतिदिन पोस्टआफिस जाने लगा कि कहानी स्वीकृत हुई या नहीं। एक दिन मेरे आनंद का ठिकाना न रहा, जब डाकिए ने एक प्रिंटेड पोस्टकार्ड मुझे पकड़ाया जिसमें छपा हुआ था कि आपकी कहानी‘नन्हा शेर’ स्वीकृत कर ली गई है जिसे यथासमय ‘पराग’ में प्रकाशित किया जाएगा। मैंने वह पत्र माननीय गिरीश भइया को दिखलाया। वह भी खुश हुए। अम्मी ने अल्लाह का शुक्रिया अदा करते हुए फातिहा पढ़ी। इस तरह से मैं एक लेखक बन गया।
                        नगर में एक साहित्यिक संस्था थी ‘संबोधन साहित्य एवम् कला परिषद’ जिसके अध्यक्ष थे श्री वीरेन्द्र श्रीवास्तव ‘विह्वल’। वह समय अपने नाम के साथ उपनाम लगाने का था। जैसे अमर लाल सोनी ‘अमर’, कासिम इलाहाबादी, जगदीश पाठक ने तो अपना नाम ही बदल लिया था - भतीजा मनेंद्रगढ़ी। जब मैंने संबोधन की सदस्यता ली तो उनकी तर्ज पर मैंने अपना मैंने अपना नाम रखा अनवर सुहैल ‘अनवर’। मैंने इस नाम की एक सील भी बनवाई। मैं अब संस्था की परम्परानुसार कविता और ग़ज़लें कहनी शुरू कर दी। कविताएं और ग़ज़लें ऐसी कि हर लाईन पर लोग ‘वाह-वाह’ कहें। मैं तब तुकों की खोज में रहा करता था। एक बार मैंने ‘हो गया है’ की तुक को पकड़ कर ग़ज़ल लिखी और उसके लिए मैंने ‘खो गया है’ ‘सो गया है’ ‘बो गया है’ ‘धो गया है’ आदि तुकों पर काम करते हुए ग़ज़ल बनाई थी जिसपर संस्था की गोष्ठी में बहुत दाद मिली थी। मेरे लिए तुक तलाशना और गीत-कविता गढना एक आसान काम बन गया। मैंने कई गीत लिखे जिनमें एक गीत मैं गोष्ठियों में सस्वर पढ़ा करता था-‘‘घूम आई अंखियां नगर घर देस आया न कहीं से प्यार का संदेस’। मंचीय कविता मंच में तो खूब दाद दिलवा देती थीं लेकिन जिन्हें सम्पादक खेद सहित वापस कर देते थे। सम्बोधन संस्था में एक नई बात ये थी कि वहां पहल, सम्बोधन जैसी लघुपत्रिकाएं आया करती थीं।
                        मैंने पहले पहल ‘पहल’ वीरेंद्र श्रीवास्तव के घर देखी थी। मुझे उसकी कविता और कहानियां बहुत पसंद आई थीं। अब मेरा मन भी ऐसी ही कविताएं लिखने को करने लगा। नगर में बैंक है, स्कूल है, कॉलेज है सो इनमें स्थानान्तरित होकर नए लोग भी आते। जो साहित्यिक मिजाज़ के होते उन्हें सम्बोधन संस्था से जोड़ लिया जाता था। इसी तारतम्य में कई ऐसे कवि भी देखने सुनने में आए जिनकी कविताएं सिर के उपर से निकल जाया करतीं लेकिन जिन्हें सुनकर लगता कि इनमें वह बात है जो कि गीत-ग़ज़लों में हो नहीं सकती। जीतेंद्र सिंह सोढ़ी, विजय गुप्त, अनिरूद्ध नीरव, माताचरण मिश्र, एम एल कुरील की कविताएं मन को बेचैन कर दिया करती थीं। संबोधन से एक लघुपत्रिका ‘शुरूआत’ निकला करती थी। वह एक साइक्लोस्टाईल पत्रिका थी। उसमें मेरी कविता और लघुकथा प्रकाशित हुई। धीरे-धीरे मैं अपने को स्थापित लेखक समझने लगा। बेरोजगारी के दिनों में मैंने सम्बोधन संस्था द्वारा संचालित वाचनालय और पुस्तकालय का कार्यभार सम्भाला। केयर-टेकर के अभाव में वह पुस्तकालय अक्सर बंद रहता और सम्बोधन की गोष्ठियों, सभाओं के काम आता था। वीरेंद्र श्रीवास्तव ने सहर्ष मेरी बात मानकर पुस्तकालय का जिम्मा मुझे सौंप दिया। मैं और मेरा मित्र राजीव सोनी उस पुस्तकालय को नियमित खोलने लगे। शाम को छः से नौ बजे तक हम पुस्तकालय खोलकर बैठा करते। वहां की सारी किताबें हमने चाट डालीं। तब धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान निकला करती थीं। हमने पुराने अंक पलट डाले। राजीव सोनी की
इस बीच शादी हो गई। वह अमृता प्रीतम की लेखनी का मुरीद था। इस चक्कर में हमने अमृता प्रीतम का समग्र साहित्य खोज-खोज कर पढ़ डाला। इमरोज़
और अमृता के सम्बंध हमें एक रूमानी दुनिया की सैर कराया करते। मैं तो इतना ज्यादा उनके जीवन से प्रभावित हुआ कि अपने एक भांजे का नाम ही रख दिया ‘इमरोज़’। मुझसे किसी मित्र ने अपनी बिटिया के लिए नाम पूछा तो तत्काल मेरे मुंह से निकलता ‘अमृता’। अमृता प्रीतम के अलावा मुझे निर्मल वर्मा, रमेश बक्षी, शैलेष मटियानी, मण्टो, इस्मत चुग़ताई, दास्तोयेव्स्की, गोर्की, फैज़, सामरसेट माम, चेखव, उग्र, मोहन राकेश, अज्ञेय, रेणु और मुक्तिबोध की लेखनी ने अत्यधिक प्रभावित किया। जाने क्यों टॉलस्टाय की अन्ना-केरेनिना के आठ भाग खरीद लेने के बावजूद मैं उसे पढ़ नहीं पाया। बेस्ट-सेलर होने के बावजूद मैंने धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों का देवता’ पसंद नहीं की। जबकि राजेंद्र यादव की ‘सारा आकाश’ ने ज़रूर उद्वेलित किया था। ठीक इसी तरह मुंशी प्रेमचंद की गबन और मानसरोवर की कहानियों के अलावा अन्य कोई उपन्यास पूरा पढ़ नहीं पाया। हां, अमृतलाल नागर की लेखकीय प्रतिभा का ज़रूर मैं मुरीद रहा। पात्रानुकूल भाषा का सृजन करने में उन्हें महारत थी। मुझे यथार्थ की ज़मीन से उपजे पात्र और उनके मनोविज्ञान पर आधारित कथानक प्रभावित करते हैं।