बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

आरसी चौहान की कविताएं -













   








आरसी चौहान



उसकी आंखों में

सूर्य

सुबह शाम का

चश्मा लगाए

जब देखता है पृथ्वी को

उतर आती है

उसकी आंखों में

प्यार की लाल चुनरी

पृथ्वी की छाती पर लहराते हुए।

ढाई अक्षर

तुम्हारी हंसी के ग्लोब पर  
लिपटी नशीली हवा से  
जान जाता हूं  
कि तुम हो  तो   
समझ जाता हूं  
कि मैं भी   
अभी जीवित हूं  
ढाई अक्षर के खोल में।

 धागा

लोग कहते हैं प्रेम

एक कच्चा धागा है

मैं धागों का रोज

कपड़ा बुनता हूं

हम गांव के लोग

हम गांव के लोग

बसाते हैं शहर

शहर घूरता है गांव को

कोई शहर

बसाया हो अगर कहीं गांव

तो हमें जरूर बताना

 आदमी

 

पहला  
जुलूस में मारा गया 
वह आदमी नहीं था 
दूसरा  
आमरण अनशन में मारा गया    
वह भी आदमी नहीं था 
तीसरा भाषण देते सफेदपोश 
मारा गया  
 
वह आदमी था।


सच्चाई




उसने कहा-  

 तुम भविष्य के हथियार हो 
 बात तब समझ में आयी  
 जब    
मिसाइल की तरह  
 जल उठा मैं


संपर्क-   आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
                 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल
                 उत्तराखण्ड 249121
                 मेाबा0-8858229760
                 ईमेल-chauhanarsi123@gmail.com

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

कपिलेश भोज की दो कविताएं-



          कपिलेश भोज का जन्म उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जनपद के लखनाड़ी गाँव में 15 फरवरी 1957 में हुआ था। कुमाऊं विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर कुछ समय तक वर्तमान साहित्य और कारवां का सम्पादन। हिंदी के अलावा मातृभाषा कुमाउँनी में भी कहानियाँ कविताएँ एवं आलोचनात्मक लेखन। प्रकाशित कृतियाँ -यह जो वक्त है;कविता.संग्रह- श्लोक का चितेरा;  ब्रजेन्द्र लाल शाह;जीवनी।
फिलहाल प्रवक्ता पद से स्वैच्छिक सेवानिवृति के बाद स्वतंत्र लेखन। इनकी  कई पुस्तकें प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं।



















प्रस्तुत है इनकी दो कविताएं-

1-सभ्य शहर के लोग

सभ्य शहर के
सभ्य लोग हैं हम श्रीमान्
देश की राजधानी में रहते हैं
यहां की बसों में
देख सकते हैं श्रीमान् आप हमारा शौर्य
और हमारी फुर्ती
दसियों लोगों के पैरों को रौंदते हुए
निकलते हैं हम आगे
और पैण्ट झाड़ते  कालर ठीक करते हुए
उतर जाते हैं सही ठिकाने पर
देश के दूर - दराज इलाकों के गंवार लोग
बसों में टकराते हैं जब हमसे
तो उन्हें हिकारत से देखते हुए हम
बिचका लेते हैं मुंह
हंसते हैं और बुदबुदाते हैं उनकी मूर्खताओं पर
जाते हैं जाने किन जंगलों से
हमें गर्व है श्रीमान्
कि हम
राजधानी के सभ्य बाशिन्दे हैं


2.सपने में

कल सपने में देखा मैंने
जाने ही वाला था
एक बच्चा
अपने बाप के साथ
जूते खरीदने के लिए
बाजार
कि तभी आचानक
हमला हुआ उसके बाप पर
आर -पार हो गया चाकू
और देखता रह गया बच्चा
उस घटना के विषय में
डूब गया सोच में
मिनटों में खत्म हो गयी
बच्चे की
एक पूरी की पूरी दनिया
कितनी आसानी से
और भय गुस्से से थरथराता हुआ
सपने से जाग गया मैं
सोचता रहा देर तक
सपने के बारे में
बच्चे के बारे में

संपर्क - सोमेश्वरए अल्मोड़ा.263637 ;उत्तराखण्ड


रविवार, 26 जनवरी 2014

प्रवीण कुमार श्रीवास्तव की कविताएं





                      

                                                                                           08/03/1983




        प्रवीण कुमार श्रीवास्तव उभरते हुए युवा कवि हैं जिनकी कविताएं, कहानी, लघुकथाएँ,  हाइकू ,गीत, ग़ज़ल आदि विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी  हैं।ये कविताएं मुझे अर्से पहले मिल गई थीं।लेकिन अपनी कुछ विषम परिस्थितियों के चलते पोस्ट नहीं कर पा रहा था जिसका हमें बहुत मलाल था।आज 65वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर पोस्ट करते हुए हमें हर्ष हो रहा है कि देर आए दुरूस्त आए।
              फ्रेंच दाढ़ी पर नामक कविता यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम वाकई आजाद हैं या आजादी की साफ- सुथरी हवा में सांस ले रहे हैं।सोचने पर विवश करती  है। डा0 महबूब ऊल हक और अमर्त्य सेन की मानव विकास की अवधारणा  कहां खाक छान रही है। प्रवीण कुमार श्रीवास्तव की कविताओं में बखूबी देखा जा सकता है। इस नये स्वर का पुरवाई ब्लाग पर स्वागत है।

प्रस्तुत है यहां उनकी दो कविताएं-

फ्रेंच दाढ़ी पर

उलझे बिखरे मटमैले बालों वाली
कलूटी सी बच्ची
बीन रही थी
मुहल्ले के कूड़ेदान से
कुछ पालीथीन
प्लास्टिक के टुकड़े
माई ने कह रखा है उसे
पूरे दिन में भर लाना है
एक पूरी बोरी
साथ में है छोटा भाई
जो पा गया है
कूड़े में पड़ी
पालीथीन में बंधी रोटियां
कुतरे जा रहा था
जल्दी -जल्दी खुश होता हुआ
कुछ देर बाद
रोज की तरह
काम की चीजें यानी कि
पालीथीन या कबाड़ में बिक सकने वाले
सामान छोड़कर
बीनेगा बेकार की चीजें
मतलब टूटे खिलौने
माचिस की डिब्बियां
धागे
जाने क्या- क्या
और सड़क पर बैठ
ईजाद करने की कोशिश करेगा
कुछ नया
और जब
देखेगी उसकी बहन
तब चिल्लाएगी गला फाड़कर
हरामी
और खींचेगी उसके बाल
फिर धर देगी उसकी  पीठ पर
दो- तीन मुक्के गचागच
और जब रोने लगेगा वो
तो गुदगुदायेगी उसके पेट में
फिर   दोनों सफेद मोटे- से दांत
दिखाकर हंसेंगे
लोट जाएंगें सड़क पर हंसते- हंसते
कबाड़धागाडिब्बी
भूलकर
आज भी हो रहा था
सब कुछ वही
कि  अचानक
घट गया कुछ नया
क्लिक
सामने मोटरसाइकिल पर बैठे
आदमी ने
खींच ली फोटो उनकी
और बढ़ गया अपने रस्ते
पल भर अवाक रहने के बाद
लोट -पोट हो गये दोनों
प्रेस फोटोग्राफर की
फ्रेंच दाढ़ी पर


चलन के सिक्के और नोट

चलन का एक छोटा सिक्का
दो फैली हुई आंखें
और उसी के इर्द -गिर्द सिमटी हुई
आशाएं और उम्मीदें
खर्च
रोटी से शुरू और रोटी पर खत्म
और फिर शुरू होता है
सपना उसी सिक्के का

चलन के कुछ मझोले नोट
दो सिकुड़ी हुई आंखें
बिजली -पानी का बिल
बिट्टू की फीस
रोजमर्रा का खर्च
और
बीवी का दिल
इन हकीकतों के बीच
सपनों की जगह कहां?

चलन के अनगिनत सबसे बड़े नोट
दो बंद आंखें
क्लब- डांसर, बीयर- बार
रेसकोर्स, कैसीनो, शेयर, सट्टा
सपनों से परे हकीकत।


मोबा0 .8896865866
      919026740229

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

अमरपाल सिंह आयुष्कर की कविता



                        अमरपाल सिंह आयुष्कर

 उत्तर प्रदेश के नवाबगंज गोंडा में 01 मार्च 1980 को जन्में अमरपाल सिंह आयुष्कर ने इलाहाबाद विश्व विद्यालय से हिन्दी में एम0 ए0 किया है । साथ ही नेट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद दिल्ली के एक केन्द्रीय विद्यालय में अध्यापन।
            आकाशवाणी इलाहाबाद में एक कार्यक्रम के दौरान हुई मुलाकात कब मित्रता में बदल गयी इसका पता ही न चला। लेकिन भागमदौड़ की जिंदगी और नौकरी की तलाश में एक दूसरे से बिछुड़ने के बाद 5-6 साल बाद फेसबुक ने मिलवाया तो पता  चला कि इनका लेखन कार्य कुछ ठहर सा गया है । विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं से गुजरने के बाद लम्बे अन्तराल पर इनकी 
कविता पढ़ने को मिल रही है और वह भी सा के साथ।
पुरस्कार एवं सम्मान- 

           वर्ष 2001 में बालकन जी बारी इंटरनेशनल नई दिल्ली द्वारा “ राष्ट्रीय युवा कवि पुरस्कार ” तथा वर्ष 2002 में “ राष्ट्रीय कविता एवं प्रतिभा सम्मान ”।
        शलभ साहित्य संस्था इलाहाबाद द्वारा 2001 में पुरस्कृत ।


भावांजलि
 
नव वर्ष का यह शुभ दिन

प्रेरित करता है

अतीत की सीपिओं से ,वर्तमान का मोती चुन लेने को 

जिसे स्वर्णिम भविष्य के तारों में पिरोया जा सके 

अवलोकन ,मूल्यांकन उन पलों की लहरों का

जिसमे कितने टूटे ,चट्टानों से टकराकर
 ,
और कितनो ने तोड़ी चट्टानों की ख़ामोशी 

नव वर्ष का यह शुभ दिन

उल्लसित  करता है

अभिनूतन सर्जना के लिए

असफलताओं से ध्वंस हुए महलों पर 

नई नीव रखने को

ह्रदय के ढीले पड़ चुके तारों को 

आत्मविश्वास की अंगुलिओं  से झंकृत  करने को 


नव वर्ष का यह शुभ दिन 

विकसित करता है

विमल भावों का कँवल पुष्प और नवीन  विचारों का उत्कर्ष

जिसकी रंगभूमि पर 

मंचित  हो सके –विश्व शांति का पाठ 

और विगलित हो सके 

दूर से , पास से ,अपने आप से

आती हुई  करूण ध्वनिओं का आर्तनाद  


संपर्क सूत्र-
अमरपाल  सिंह ‘आयुष्कर’
G-64  SITAPURI
PART-2
NEW DELHI
1100045
मोबा0-8826957462

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

अनवर सुहैल की कविता



       09 अक्टूबर 1964  को छत्तीसगढ़ के जांजगीर में जन्में अनवर सुहैल जी के अब तक दो उपन्यास , तीन कथा संग्रह और एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कोल इण्डिया लिमिटेड की एक भूमिगत खदान में पेशे से वरिष्ठ खान प्रबंधक हैं। संकेत नामक लघुपत्रिका का सम्पादन भी कर रहे हैं।

अनवर जितने सहज-सरस साहित्यिक हैं उतने ही सहज-सरस इंसान भी। उनसे मिलने या बात करने वाला कोई भी व्यक्ति उनके मृदुल व्यवहार का कायल हुए बिना नहीं रह कता है।


 प्रस्तुत है यहां उनकी  कविता


1-

उन्हें विरासत में मिली है सीख
कि देश एक नक्शा है कागज़ का
चार फोल्ड कर लो
तो रुमाल बन कर जेब में जाये

देश का सारा खजाना
उनके बटुवे में है
तभी तो कितनी फूली दीखती उनकी जेब
इसीलिए वे करते घोषणाएं
कि हमने तुम पर
उन लोगों के ज़रिये
खूब लुटाये पैसे
मुठ्ठियाँ भर-भर के
विडम्बना ये कि अविवेकी हम
पहचान नही पाए असली दाता को

उन्हें नाज़ है कि
त्याग और बलिदान का
सर्वाधिकार उनके पास सुरक्षित है
इसीलिए वे चाहते हैं
कि उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए
हम भी हँसते-हँसते बलिदान हो जाएँ
और उनके ऐशो-आराम के लिए
त्याग दें स्वप्न देखना...
त्याग दें प्रश्न करना...
त्याग दें उम्मीद रखना.....

क्योंकि उन्हें विरासत में मिली सीख
कि टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं से
कागज़ पर अंकित
देश एक नक्शा मात्र है....



सम्पर्क: टाईप 4/3, ऑफीसर्स कॉलोनी, बिजुरी
       जिला अनूपपुर .प्र.484440
              फोन 09907978108