गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

कहानी - गुल्लू उर्फ उल्लू : विक्रम सिंह



   विक्रम सिंह  1 जनवरी 1981

समकालीन रचनाकारों में तेजी से अपनी जगह बनाते जा रहे युवा लेखक विक्रम सिंह की कहानियां हर महिने किसी न किसी पत्रिका में आपको पढ़ने को मिल जाएंगी। इनकी कहानियां  राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं यथा समरलोक , सम्बोधन , किस्सा , अलाव , देशबन्धु , प्रभात खबर ,जनपथ ,सर्वनाम , वर्तमान साहित्य , परिकथा , आधरशिला , साहित्य परिक्रमा , सेतु , जाहन्वी , परिंदे इत्यादि में प्रकाशित। एक कहानी परिकथा 2015 के जनवरी नव लेखन अंक में प्रकाशित एवं बहु चर्चित तथा एक-एक कहानी कथाबिंब , निकट ,  प्रगतिशील वसुधा  माटी पत्रिका में स्वीकृत । अब विभिन्न ब्लागों में आवाजाही । परिंदे में प्रकाशित इस कहानी को पढ़िए आज इस ब्लाग पर । आपके विचारों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।
पुस्तक - वारिस ;कहानी संग्रह-2013
सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत 

कहानी गुल्लू उर्फ उल्लू
विक्रम सिंह
अब जहाँ ई.सी.एल कम्पनी का क्वार्टर हैं, पहले कभी यहाँ जंगल हुआ करता था। कहते हैं कि जब नया-नया क्वार्टर बनने की योजना बनी तब ई.सी.एल ने जंगल को अपने बड़े-बडे बुलडोजर चला कर जंगल को साफ कर दिया। वहाँ एक साफ सुथरा मैदान बना दिया गया था। फिर वहाँ दो रूम, एक हाल रसोई, लेट्रिन-बाथरूम अर्थात टू बैडरूम वाले क्वार्टर तैयार किये गये थे। और उस क्वार्टर में आने के लिए हर एक कर्मचारी कोशिश करने लगा था। उन्हीं दिनों एक परिवार मनराज चौधरी का रहने आया था। उसके साथ एक बेटी और एक बेटा साथ आया था। यूँ तो उसके तीन लड़के और दो लड़कियाँ थी। मगर मंनराज और उसकी पत्नी के साथ सिर्फ उसका सबसे छोटा लड़का और बेटी ही आई थी। बाकी का परिवार गाँव में रह रहा था।
 
करीब सप्ताह भर बाद एक दिन मैं सुबह-सुबह उठकर पढ़ने बैठ गया था। सिर्फ मैं ही नहीं करीब कालोनी में हर एक विद्यार्थी सुबह पढ़ने बैठ जाया करते थे। उन दिनों हम सब कालोनी के सब विद्यार्थी जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर पढ़ा करते थे। कोई एक आद ही होगा जो मौन पढ़ता होगा। कालोनी में सब की आवाज गूँजती रहती थी। उस दिन सुबह अचानक कानों में गानों की आवाज आने लगी थी। गाना किशोर कुमार का था। मेरे सामने वाली खिड़की में एक चाँद का टुकड़ा रहता है...........। मैं गाने सुनने में मस्त हो गया था। करीब पन्द्रह मिनट तक एक के बाद एक सदाबहार गाने बजते रहे। अचानक से किसी की चिल्लाने की आवाज आने लगी,'' कौन पागल सुबह-सुबह टेपरिकाँर्डर बजा रहा है। मैं घर से बाहर दरवाजे के पास आकर खड़ा होकर देखा,तो प़ड़ोस के ही शमसुद्दी्न मियाँ थे। और शायद नाइट शिफ्ट डयूटी कर के आये थे। इस तरह से ऊँची आवाज में गाने बजने की वजह से उसकी नींद टूट गई थी। गाने की आवाज मनराज चौधरी के घर से आ रही थी। मुझे लगा की मनराज को गाने सुनने का शौक होगा। मगर जब मियाँ शमसुद्दीन लगातार गरियाते जा रहा था। मनराज का लड़का रनजीत सिंह उर्फ गुल्लू निकला था। यूँ तो उसका नाम रनजीत सिंह था। पर उसको सब घर में गुल्लू कह कर बुलाते थे। गुल्लू नाम पड़ने के पीछे भी कुछ कारण था क्योंकि कहानी तो मुझे भी नहीं पता थी। बस इतना सुना था कि रनजीत का दिमाग कुछ ऐसा था कि उसके पिता मनराज उसे हर बात पर उल्लू कह कर पुकारने लगे थे। रनजीत जब रुठ जाता खाना नहीं खाता तो माँ उसे बडे प्यार से मनाती थी। हमार रनजीत उल्लू थोड़े हवे हमार गोलू, हवे हमार सलू, हवे हमार गुल्लू हवे। बस यही से रनजीत का नाम गुल्लू पड़ गया था। गुल्लू ने कच्छा पहन रखा था। कच्छे का नाड़ा जूते के फीते का था। बदन पूरा नंगा था। ऐसा लगा जैसे वह घर का काम कर रहा हो। हाँ यह सच भी था कि गुल्लू घर का काम किया करता था। वह अपने माँ के साथ घर के बर्तन, झाडू पोंछा, कपड़े धोने तक के काम करवाया करता था। जब वह माँ को काम करते देखता तो माँ से कहता,''माई तू कितना काम करे ली थक जात होई।. बहनी रीना भी तोहार संग काम ना करेली।''
''बेटा तोहार बहनी अभी छोट हई ना। बड़ हो जाई त अपने करे लगी।''
''तेा ठीक बा माई जब ले बहनी छोट बा हम तूहार संग काम कराईब।''
बस तब से गुल्लू माँ के हर काम में हाथ बंटाने लगा था। गुल्लू ने समसुद्दीन से कहा,''जी क्या बात हो गई।''
''इतनी आवाज कर के गाने क्यो सुन रहे हो।'' 
''जी ठीक है, आवाज कम कर देता हूँ।'' इतना कह जैसे ही गुल्लू घर के अंदर जाने लगा कि शमसुद्दीन ने कहा,'' उल्लू का पट्ठा कही का।'' बंदूक की गोली की तरह हवा को चीरती हुई। शब्द गुल्लू के कानों में ठांय से लगी। गुल्लू ने अपनी गर्दन घुमा कर शमसुद्दीन को देखा और कहा,''उल्लू होगा तू।'' फिर एक से एक गालियाँ गुल्लू ने उसको दे दी और घर के अंदर चला गया। यह सब देख हम सब हैरान रह गये। मगर खूब मजा आया था। क्योंकि शमसुद्दीन की आदत थी। सुबह हो या शाम वह अक्सर हम सब को खेलते देख हल्ला मत करो कह भगा दिया करता था। हाँ तो वह हम लोगों से गुल्लू की पहली मुलाकात थी।
 
उन दिनों गुल्लू की सदाबहार गानों से उसके पास की लड़की गुल्लू को दिल दे बैठी थी। गुल्लू भी उसे चाहने लगा था। शायद गुल्लू से वह दिन में मिलने से डरती थी कि कही किसी ने देख लिया तो माँ बाबू जी को पता चल जायेगा। उसने गुल्लू को पत्र में लिख के दिया था। मैं खिड़की के पास में सोती हूँ तुम मुझसे रात को खिड़की के पास आकर इशारा करना तो मैं जाग जाउँगी। खिड़की में आ जाउँगी। उन दिनों हमारे कालोनी में एक चोर की चर्चा थी कि वह लम्बी लकडी के आगे हुक लगाकर रखता था। जिसकी भी खिड़की खुली देखता था। हुक से उसके घर का सामान खींच कर भाग जाता था। कालोनी के लोग उससे काफी परेशान थे। एक रात गुल्लू जब उसके घर में सारे गहरी नींद सो गये तो गुल्लू धीरे से दरवाजा खोल कर बाहर आ गया और अपनी प्रेमिका के खिड़की के पास इशारा कर उसे खिड़की के पास बुला लिया। वह आपस में बात करने लगे। तभी अचानक एक आदमी जोर-जोर से चिल्लाने लगा,चोर....चोर। यह सुन प्रेमिका ने गुल्लू से कहा,तुम जल्दी यहाँ से चले जाओ। गुल्लू वहाँ से जैसे ही हट कर रास्ते में आया तो गुल्लू के सामने से चोर भाग रहा था कि गुल्लू ने उसे पकड़ कर अपनी बाहों में जकड़ लिया। गुल्लू के पापा की नींद हल्ले से खुल गई देखा तो दरवाजा खुला हुआ था गुल्लू घर पर नहीं है। बाहर निकल कर देखा तो गुल्लू कुछ लोगों के बीच खड़ा था। वह सब गुल्लू को पीठ थप थपा रहे थे। गुल्लू ने शातिर चोर को पकड़ लिया है। मनराज चौधरी की तो होश उड़ गये इसलिये नहीं कि उसने चोर को पक़ड़ लिया वह यह कि वह रात को बाहर क्या कर रहा था? उस दिन गुल्लू को इनाम में खूब पिटाई हुई थी।
 
गर्मियों की छुट्टी के बाद जब स्कूल खुले तो मैंने गुल्लू को स्कूल में अपने ही क्लास में देखा। वह पीछे की बेंच पर बैठा था। मैंने उसे आगे को बुला लिया था। वह आगे नहीं आना चाहता था मगर मेरे कहने पर आ गया था। बाद में पता जो चला वह यह की गुल्लू किसी दूसरे स्कूल में पाँचवीं में तीन साल फेल हो गया था। मनराज ने हमारे इस सरकारी स्कूल में पैसे देकर सीधा आठवीं में दाखिला करवा दिया था।
 
क्लास में जे.एन.यू सर आये थे। जिनकी एक अजीब आदत थी कि वह किताब से कुछ ना कुछ ऊटपटांग सवाल पूछ लेता था। उस दिन भी उसने पहला सवाल गुल्लू से ही किया था। ''बता कुत्ते कितने प्रकार के होते है?'' 
गुल्लू ने फट से जवाब दिया,''सर कुत्ते तीन प्रकार के होते है।'' इतना कहने की देर थी की पूरे क्लास में जोर का ठहाका लगा था। सर ने जोर से चिल्ला कर कहा,चुप।'' क्लास मैं एकाएक शान्ति पसर गयी थी। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि क्लास में अभी-अभी जोर का ठहाका लगा हो। मास्टर साहब ने गुल्लू से कहा',''कुत्ते की तीसरी प्रजाति तूने कहां से पैदा कर दी। जरा बताना कुत्ते तीन प्रकार के कैसे हुए।'' 
''सर एक हुआ जंगली दूसरा हुआ पालतू और तीसरा हुआ फालतू जो गली नुक्कड़ में घूमते हैं। जहाँ मन किया हग देते हैं।'' एक बार फिर जोर का ठहाका लगा था। मास्टर जी ने फिर से अपने तेवर से सब को चुप करा दिया था। दांत पीसते हुए गुल्लू पर डंडे बरसाने लगे थे। डंडे बरसाने के बाद उसने गुल्लू को उल्लू का पट्ठा कहा था। मैं डर गया कि कही गुल्लू मास्टर जी को गाली ना दे बैठे। मन ही मन गुल्लू ने मास्टर जी की खूब माँ बहन एक की थी। मगर मैं उस दिन सोच रहा था कि गुल्लू अपनी जगह सही है। आखिर उसने प्रेक्टिकल देख जवाब दिया था। सही मायने में गुल्लू की वहाँ नजर जाती थी जहाँ इंसान सोचता नहीं है।
 
क्योंकि हमारे उसी स्कूल में एक बी.एच.यू सर हुआ करते थे उनकी एक बहुत ही गंदी आदत थी। वह आकर क्लास में बैठ जाया करते थे। और वह खंखार कर अपने बलगम को मुँह में ले आया करते थे। फिर उसे चबाते रहते थे। उस वक्त पूरे क्लास के लड़के घृणा से भर जाते थे। अपना सर नीचे की तरफ रखते थे। कोई भी उसे देखना नहीं चाहता था। मगर गुल्लू उसे ध्यान से देखता रहता था। मैंने एक दिन गुल्लू से पूछा,''यार तुझे घृणा नहीं आती इस तरह उसे देखकर।'' 
''नहीं दोस्त! घृणा करने वाली बात नहीं है। सोचने वाली बात है साला यह मास्टर चालाक है। बाहर से बबलगम खरीदने की बजाये, अच्छा है अपने अंदर से ही बबलगम निकाल कर जुगाली की जाये।''
इसका मन रखने के लिये मैंने इतना कहा,''क्या बात की दोस्त।' लेकिन बाद मैं काफी देर तक इस बात को सोचता रहा कि इस तरह का किसी ने भी क्यों नहीं सोचा 'क्या सचमुच बी.एच.यू सर ऐसा ही सोचकर खंखार कर बबलगम चबाते रहते थे। शायद यह एक मनोवैज्ञानिक प्रश्न था। लेकिन कुछ दिनों बाद हमने देखा था कि बी.एच.यू सर ने खंखारना छोड़ दिया था। और उसके मुँह में असली का कुछ होता था जिसे वह चबाते रहते थे।
 
मैंने देखा कुछ दिनों बाद जे.एन.यू सर भी गुल्लू से खुश हो गये थे। और गुल्लू की तीन कुत्तों वाली बात को सही ठहराने की कोशिश करने लगे थे। ''देखो बाहर के गलियों में घूमने वाले कुत्ते जो होते है इन्हें विदेशों में स्टीट डाग बोलते हैं। गुल्लू की बात ठीक ही थी मगर कहने का तरीका गलत था।'' 
मुझे यह सब सुन कर अद्भुत लगा था। इस रहस्य को जानने की मुझमें प्रबल इच्छा जाग गई थी। चूकि ठण्ड का समय था और हम सब टिफिन के समय अर्थात लन्च के समय छत पर खाना खाने जाते थे। गुल्लू ने एक दिन मुझे कहा यार चल आज हाफ डे चलते है। उस दिन मुझे एक जंगल के बीच मैदान में ले गया और एक हरी घास के मैदान में जाकर लेट गया। अपने बैग से मीठे बेर का आचार निकाल कर रख दिया। उस दिन खूब अच्छा लग रहा था। हल्की-हल्की ठण्ड में सूर्य की रोशनी हमारे बदन को गर्म कर रही थी जैसे माँ शिशु की मालिश कर रही हो। उस पर जब मीठे बेर के आचार को मुँह में लेते थे। अजब सुखद का एहसास हो रहा था। मैंने गुल्लू से कहा,''यार गजब का मजा आ रहा है।'' 
गुल्लू ने कहा,''ठण्ड में दिन में मजा खुले आसमान के नीचे लेट कर आसमान को देखकर सभी किताब काँपी से दूर रह कर जो मजा है ना वह और कही नहीं मेरे दोस्त। और गर्मियों में रात में छत में लेट कर आसमान के तारे देखकर सोने में मजा है। इसलिए तो यहाँ आया हूँ। नहीं तो अभी चार दीवारी के अंदर इन पागल टीचरों के चेहरा देख कर पक रहे होते।'' 
सही तो यह था गुल्लू के चेहरे में भविष्य को लेकर कोई चिंता कभी नहीं रहती थी। एक दिन इसी तरह हम धूप में बैठकर बेर का अचार खा रहे थे। मैंने पूछा,क्या तुम्हें अपने भविष्य को लेकर कोई चिंता नहीं होती।''
वह हसा,हा......हा......हा...! यार तुम्हारे होते हुए मुझे क्या चिंता है।''
''वह कैसे?''
क्योंकि यार जब तुम पढ लिखकर बड़े ऑफिसर बनोगे। तो तुम मुझे अपना चपरासी रख लेना।''
फिर ना जाने उसने यह बात मुझसे कितनी बार कही थी। मगर गुल्लू की यह बात सुन कर मैं मन ही मन उसे उल्लू ही समझता था।'' मैं कहता चपरासी बनने के लिए भी कम से कम आठवीं पास होना पड़ता है।'' 
खैर मेरे अंदर जो एक रहस्य छिपा था। वह दसवीं के रिजल्ट आने के बाद खुला था। दरअसल गुल्लू दसवीं में बडे खराब नम्बरों से फैल हो गया था अर्थात वह प्रत्येक विषय में फेल हो गया था। मगर गुल्लू ने नवीं तक तो इस तरह के नम्बर नहीं आये थे। मैं गुल्लू से एक दिन पूछा,''यार रनजीत तो नवीं तक तो ठीक ठाक पास हो गया। मगर यह क्या दसवीं में तू सारे विषयों में फेल हो गया।'' 
गुल्लू दुखी होने की बजाये जोर-जोर से हंसा। वह तो मेरी खट्टी दही और बबलगम का कमाल था। दरअसल गुल्लू ने मुझे जो बताया था। वह यह था कि वह जे.एन.यू सर के पास टयूश्न पढ़ने लगा था। चूकि जे.एन.यू सर को डायबिटीज थी। इस वजह से गुल्लू उन्हें हर रोज दही दिया करता था। जिससे वह बहुत खुश हो गया था। गुल्लू हमेशा स्कूल से आने के बाद रात आठ से नौ साइकिल लेकर जे.एन.यू सर के घर टयूश्न पढ़ने जाया करता था। उस समय हम सब घर पर पढा करते थे। इस वजह से हमें यह बात पता नहीं चली थी। उसने ही मुझे बताया था कि बी.एच.चू सर को बचपन में बबलगम खाने की आदत थी मगर उसके बाबू जी कभी उसे पैसे नहीं देते थे। उसी समय गाँव में बी.यच.चू सर को किसी ने कह दिया था कि ''बबलगम तो तुहार बितरे बा रे बस जब मन करी तब खगार ला उके जीबा लिया कर।'' यह बात गुल्लू को जे.एन.यू सर ने बताई थी। बस फिर क्या था गुल्लू ने एक दिन जो की टीचर डे का दिन था बी.यच.यू सर को एक कलम के साथ बड़ा पैकिट बबलगम का खरीद कर दे दिया था। और यह क्रम चलता रहा लगातार कम से कम नवी पास होने तक। लेकिन सही मायने में दोनों सर यह अच्छी तरह जानते थे कि गुल्लू पढ़ने लिखने में एकदम गधा है। इसलिये उसे हमेशा अच्छी तरह पढ़ने के लिये कहते थे। बोर्ड के परीक्षा का पेपर उनके हाथों में नहीं था इसलिये वह फैल हो गया था। उस दिन मुझे समझ में आया था क्यों गुल्लू मुझे यह कहता था कि तुम मुझे अपना चपरासी रख लेना।
 
इसके बाद गुल्लू लगातार फेल होता गया। हम सब क्लास दर क्लास ऊपर उठते गये। अंत तक गुल्लू ने पढाई छोड़ दी थी। चूकि गुल्लू को गाने सुनने का शौक था इसी शौक ने उसे टेपरिकाँर्डर की मरम्मत करने का मिस्त्री भी बना दिया था। सो वह धीरे-धोरे बिजली मिस्त्री बन गया और कई लोग अपने टेपरिकाँर्डर उसे सही कराने लगे थे। और यह वह समय था जब लोगों के पास मोबाईल डीवीडी नहीं हुआ करता था। एक दिन गुल्लू शायद टेपरिकाँर्डर का समान लेकर बाजार से वापस आ रहा था। तो रास्ते में उसने देखा कि एक घर धू-धू कर के जल रहा था। अंदर से कुछ लोगो की जिसमें बच्चे और स्त्री की रोने की आवाज आ रही थी। आस-पास सभी खड़े तमाशा देख रहे थे। गुल्लू ने आव देखा ना ताव उसने अपनी साइकिल वही फेंक दी। किसी सुपर मैन की तरह वह आग को चीरता हुआ अंदर छलांग लगा दिया। पलक झपकाते ही वह वापस किसी को गोद में लिए छलांग लगा कर बाहर आ गया। उसे जमीन पर लेटा दोबारा अंदर घुस गया। लोग झट से बाहर लाये बच्चे जिसकी उम्र मात्र सात साल की थी उसे देखने लगी। और चिल्लाने लगे, भाई डाक्टर के पास इसे ले चलो। गुल्लू छलांग लगाकर दोबारा वापस आ गया। फिर किसी को गोद में उठा कर लाया और उसे जमीन पर लेटा कर एक बार फिर अंदर घुस गया। मगर इस बार गुल्लू नहीं निकला था। सब यही सोच रहे थे फिर दोबारा गुल्लू वापस आयेगा। करीब पंद्रह मिनट तक गुल्लू नहीं निकला था। फायर दमकल आ गई उसने आग को करीब दस मिनट में बुझा लिया था। आग बुझने के बाद गुल्लू और एक स्त्री मृत अवस्था में मिली थी। गुल्लू को उठा कर वही पास के एक रूम में लेटा दिया गया था। वहाँ अच्छी खासी भीड़ लग गई थी। लोग आपस में खुसुर पुसुर करने लगे थे। कोई कह रहा,''लड़का अब जिन्दा नहीं है। हाँ अपने जान पर खेल कर दो बच्चों की जान बचा ली है। आज कल ऐसे बच्चे मिलना बड़ा मुश्किल है। जो दूसरों के लिए अपनी जान गवा दे। कुछ ऐसे भी लोग थे जो गुल्लू को जानते थे। वह कह रहे थे यह तो मनराज चौधरी का लड़का है। एक सज्जन ने पास खड़े एक व्यक्ति के कान में धीरे से कहा,''भाई अपनी जान दाव पर लगा कर आग में इस तरह घुस जाना भी कोई समझदारी है क्या? एक नम्बर का उल्लू था यह लड़का।'' अचानक से गुल्लू उठ कर बैठ गया किस मादर जात ने मुझे उल्लू कहा। उल्लू होगा तू तेरा खानदान। अचानक से सारे लोग वहां से छिटक गये। कुछ पीछे को गिर गये। वह व्यक्ति जिसने यह बात कही थी वहाँ से भाग लिया। उसके होश उड़ गये। उसके समझ में नहीं आया गुल्लू ने यह बात कैसे सुन ली। उस वक्त गुल्लू का चेहरा कुछ जला हुआ सा था जिससे वह और भयानक लग रहा था। लेकिन तब तक गुल्लू के माता पिता आ गये गुल्लू को अस्पताल लेकर चले गये।
 
कुछ दिनों तक कालोनी में शान्ति रही क्योंकि गुल्लू का टेपरिकार्डर नहीं बज रहा था। कितनों के टेपरिकाँर्डर गुल्लू के पास खराब बनने के लिये पड़े थे।
 
करीब पन्र्दह दिनों बाद एक दिन सुबह-सुबह कुछ लोगों को अखबार लेकर भागते हुए देखा। मैं समझ नहीं पाया की आज लोग बाग इस तरह अखबार लेकर क्यों भाग रहे हैं? अखबार तो मेरे घर भी आता था। मगर अभी तक मैंने अखबार देखा नहीं था। लेकिन इस तरह लोगों को देख मैंने भी अखबार उठा लिया था। उस दिन गुल्लू के बारे में अखबार में छपा था। गुल्लू को राज्य सरकार वीरता का सम्मान देने की खबर छपी थी। इस खबर से गुल्लू की चारों तरफ चर्चा होनी शुरू हो गई थी। जिससे सबके होश उड़ गये थे। मैंने भी गुल्लू को इसकी बधाई दी थी। लेकिन गुल्लू के पापा तो गुल्लू के इस तरह के किये काम से खासे नाराज थे। उनको लग रहा था कि जो मैं गुल्लू के बारे में सोचता था वह सही सोचता था गुल्लू सही में एक नम्बर का उल्लू का पट्ठा है। अपनी जान को इस तरह जोखिम में डाल दिया था। अगर उस दिन कुछ हो जाता तो क्या होता? उन्होंने गुल्लू को गाँव में भेजने की योजना बना ली थी।
आखिरी समय में गुल्लू मुझे इतना कह कर गया था,''यार मुझे याद रखना अगर ऑफिसर बन गये तो मुझे अपना चपरासी जरूर रख लेना।'' 
मैंने हँस कर गुल्लू से बस इतना कहा था,'' अरे यार इतना नाम कमाया तुमने सरकार ने तुम्हें वीरता का सम्मान दिया है नौकरी भी तुम्हें देगी।''
गुल्लू गाँव चला गया। आगे जो मुझे गुल्लू के बारे पता चला था। वह यह की गुल्लू का गाँव में मन नहीं लगा था। इस वजह से वह अपने गाँव के लड़के के साथ करीब गाँव से सौ किलोमीटर दूर एक प्राइवेट कम्पनी में इलैक्ट्रीशियन लग गया था। करीब साल भर बाद कम्पनी कर्मचारियों की छंटाई कर नई बहाली करने लगी थी। वह इस वजह से की वह पुराने कर्मचारियों को परमानेन्ट नहीं करना चाहती थी। और आगे चल कर कर्मचारी परमानेन्ट करने की डिमान्ड ना कर दे। इस पर सभी कर्मचारी एक जुट हो गये थे। गुल्लू कर्मचारियों का लीडर बन गया। कर्मचारियों के निकाले जाने पर वह बीच सड़क के चौराहे पर आमरण अनशन पर बैठ गया। करीब गुल्लू सप्ताह भर अनशन पर बैठा रहा। हर दिन अखबार में गुल्लू की खबर छपने लगी। अब गुल्लू की हेल्थ चेकअप के लिए स्वास्थ्य विभाग वाले आते और गुल्लू का स्वास्थ्य का चेकअप कर के चले जाते थे। अगले दिन गुल्लू की स्वास्थ्य की खबर भी छप जाती थी। कहते है उन दिनों कड़ाके की ठण्ड थी। मगर गुल्लू को ठण्ड की भी कोई परवाह नहीं थी। कर्मचारियों ने पैसे इक्टठे कर वहाँ टेन्ट लगा दिया । कम्बल बिछा दिये गये। कुछ लोग यह भी कह रहे थे। गुल्लू अनशन कर के शहीद हो जायेगा। कम्पनी के मालिक तो पैसा देकर प्रशासन तक को खरीद लेगा। मगर गुल्लू का अनशन जारी रहा। अब कुछ नेता भी अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने के लिए गुल्लू से मिलने आ गये। उन्होंने साफ-साफ कहा हम इस तरह कर्मचारियों का शोषण नहीं होने देंगे। और देखते ही देखते एक युवा नेता भी अनशन में बैठ गया था। फिर मैनेजमेन्ट के ऑफिसरों के पुतले फूंके जाने लगे थे। मैनेजमेन्ट भी धमकी देने लगी थी कि अगर यह मामला शांत नहीं हुआ तो हम अपना प्लान्ट उठा लेंगे। गुल्लू ने भी साफ कहा,''हम ऐसी धमकियों से नहीं डरेंगे।
अंत तक श्रम अधिकारी ने कम्पनी से बात कर के मामले को शांत किया ओर धीरे-धीरे कर के सभी कर्मचारियों को वापस ले लिया गया।
 
कहते हैं यही से गुल्लू की दोस्ती नेताओं से हो गर्इ्र थी। उसने पार्टी ज्वाइन कर ली थी। पार्टी की रैलियों जुलूसों में भी जाने लगा था। कही तो भाषण भी देने लगा था। गुल्लू की भाषण सुन पब्लिक खूब हंसती थी।
 
बस मुझे गुल्लू के बारे में यही तक पता चला था। उसके बाद मुझे गुल्लू के बारे में कुछ नहीं पता चला था।
काफी लम्बा समय बीत गया था। मैं एक रेलवे विभाग में अधिकारी के पद पर नौकरी कर रहा था। करीब पैंतालीस की मेरी उम्र हो गई थी। शायद मैं गुल्लू को भूल भी गया था। क्योंकि नौकरी के प्रेशर ने मुझे सब कुछ भुला सा दिया था। काम से आने के बाद में इतना थक जाता था कि मुझे कुछ होश नहीं रहता। दूसरा मेरे परिवार की परेशानी अलग से जो थी।
 
एक दिन जब मैं काम से घर वापस आया तो पत्नी ने कहा,'' आप का कोई खत आया है। चाय पीते समय मैंने खत को देखा, आश्चर्य की बात है यह खत और किसी का नहीं गुल्लू का था।
पत्र में लिखा था। कैसे हो मेरे दोस्त। ऑफिसर बन गये मुझे याद नहीं किया तुमने। खैर मैंने भी तो कोई पत्र तुम्हें नहीं लिखा। लेकिन अब तुम्हारी याद मुझे बहुत आ रही है। तुम्हारे साथ कुछ पल बिताना चाहता हूँ। कही दूर गुनगुनी धूप में बैठ कर बेर का आचार खाना चाहता हूँ।
 
हाँ एक खास बात मैं लोकसभा में आ गया हूँ। मैं तुम्हारा दोस्त गुल्लू सांसद हो गया हूँ। मैं चाहता हूँ। जीवन के आखिरी समय तक साथ मिलकर काम करे। क्या तुम मेरे साथ सेक्रेटरी के तौर पर काम कर सकते हो।
आशा है तुम मुझे ना नहीं करोगे। तुम्हारे इंतजार में तुम्हारा दोस्त।
 
पढ़कर एकबारगी मैं खुशी से भर गया था। मगर अगले पल मैं सोचने लगा अब गुल्लू बड़ा आदमी हो गया है। जब लोग बडे हो जाते तो उनके चेहरे में पट्टी बंध जाती है। हो सकता है उसने मुझे पत्र अपने बारे में बस बताने भर के लिए ही भेजा हो। मगर गुल्लू ने मुझे पत्र भेजा है। तो मैं उसे निराश नहीं करना चाहता था। सो में गिरते पड़ते गुल्लू के पास चला गया। जब में गुल्लू के ऑफिस के पास पहुँचा तो मुझे उसके दरबान ने रोक लिया था। मैं ने एक कागज की पर्ची दरबान को पकड़ा दी थी। दरबान पर्ची लेकर अंदर चला गया। मेरी सोच के विपरीत गुल्लू बाहर आया और मुझे गले लगाते हुए बोला' कहाँ थे मेरे दोस्त इतने दिन। और फिर उसने मुझसे कहा 'आज सब काम काज बंद आज हम सारा दिन तुम्हारे साथ बिताएंगे।
 
एक जगह जब हम दोनों बैठे हुए थे तो मैंने गुल्लू से पूछा यह सब कैसे हो गया गुल्लू। उसने मुझे कहा,''राजनीति में नहीं आता तो तुम्हारा दोस्त मारा गया होता। क्योंकि मेरे जान के कई लोग दुश्मन बन गये थे। इसलिये मुझे अपनी रक्षा के लिये राजनीति में आना बहुत जरूरी था।
मैं मन ही मन सोच रहा था। कहा गुल्लू हमेशा मुझे चपरासी की नौकरी के लिए कहता था। और आज वह मुझे अपना सेक्रेटरी बनने के लिए बुलाया है। ऐसा लग रहा था कि गुल्लू हर साल इम्तहान में पास होता गया था। मैं हर साल फेल होता गया था।
                                 परिंदे से साभार
सम्पर्क-विक्रम सिंह
        बी ब्लॉक-11, टिहरी  विस्थापित कालोनी, 
        ज्वालापुर,न्यू शिवालिक नगर, हरिद्वार,उत्तराखण्ड,249407
        मो.9012275039
        ई-मेलः bikram007.2008@rediffmail.com

 

मंगलवार, 24 मार्च 2015

ज्ञान प्रकाश चौबे की कविताएं-



   

     बहुत कम उम्र में ही कविता से शुरूआत करने वाले ज्ञान प्रकाश चौबे ने बहुत जल्द ही कविताओं की ठोस जमीन तैयार कर ली। अपनी बोली-बानी के शब्दों को धार देकर कविता में ऐसे पिरोते हैं कि विचलन की स्थिति नहीं आती । बल्कि इनकी काव्य भाषा चमक उठती है। इस सदी के पहले दशक में हिन्दी साहित्य में खूब धमक के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करायी लेकिन बाद में कई सालों तक अज्ञातवास की स्थिति में चले गये थे। अब पुनः दमखम के साथ उपस्थित हैं।

प्रस्तुत है इनकी कुछ कविताएं-

नींद अन्धेरे में 

नींद होती सुबह में
सुनता हूं
खिसकती हुई दुनिया की आहटें

नींद के आँगन में
झांक कर देखता हूं
पगुराते समय को

नींद के सिवान में
भटकाता हूं
रेहड़ से गुम हुई भेड़ों की तलाश में

नींद की परछाईयों में
चटख रंग भरते हुए
खींचता हूं
एक पूरे दिन का भरापूरा चेहरा
और समय को
बांधने की लापरवाह कोशिश करता हूं

नींद अंधेरे में
लगाता हूं
जागते रहे की टेर

जंगल कथा
सूरज लाल है
लाल है हमारी आंखों में
बधें हुए बाजुओं की कीमत
कि हमारी सांसे
हमारे ही जंगल की
ज़रखरीद गुलाम बन चुकी है
हमारे पहाड़ हमारे नहीं रहे
नहीं रही उनके चेहरे पर
हमारे मांसल सीने की कसी हुई चमक
तेंदु के पत्तों से टपकता
हमारी औरतों का खून
हमारे भालों ,बरछों, लाठियों पर चमकता हुआ
लाल सलाम

हमारी भूख
हमारी प्यास
रात के जंगली अन्धेरे में
बच्चों के गले से निकल कर
हमारी आत्मा की सन्तप्त गलियों में
आवारा बनी हुई
चीख रही है
उलगुलान उलगुलान

हमारे बाहों की मछलियों के गलफड़ो में
चमकती हुई हमारी लाल होती आँखें
महुए की तीखी गंध से सराबोर
उन्मत्त हवाओं की ताल पर
मादल की थिक-थिक-धा-धा......
धा-धा...धिक-धिक...धा के साथ
रेत-बजरी के विशाल सीने पर
कोयले की कालिख में पुती
चीखती हैं
आओ हमारे सीनो और बहन-बेटियों को रौंदने वालों
जंगल पहाड़ नदी के आँगन से
हमारे छप्परों का निशान मिटाने वालों
तुम्हारे दैत्याकार बुल्डोजरों मशीनों की विशालता
हमारे बच्चों की अन्तहीन चीखों से बड़ी नहीं

नहीं है तुम्हारे जेबों के कोटरों के बीच
हमारे छोटे सपनों का भरपूर नीला आसमान
और ना ही तुम्हारी आँखों में अपनेपन का कोई अंखुआ
पूर्वजों के हथेलियों से गढे
हमारे तपे हुए सीने की कथा
तुम्हारे विकास की गाथाओं से परे
रची गयी है
धरती के धूसर और पथरीली ज़मीन पर
जंगलो के हरे केसरिया रंगों से
जिनमें हमारे शरीर का नमक चमकता हुआ
तुम्हारे सूरज को मात देता है

सुनो सुनो सुनो
जंगलवासियों सुनो
खत्म हो रहा है
हमारे सोने का समय 
आ रही है पूरब से
जंगल के जले हुए सीने की चीख
आ रही है चिड़ियों के जले हुए शरीर से
मानुख की गंध
हो रहा है खत्म 
मदमस्त करने वाली थापों पर नाचने का समय

आ रहा है धुएं के बादलों के पीछे से
हमारे वक्त का अधूरा सूरज
जिसकी अधूरी रोशनी में
हमारा गुमेठा हुआ भविष्य
हुंकारता है
बढ़ो बढ़ो आगे बढ़ो
और कहो कि समय का पहाड़
हमारे बुलन्द हौंसलों से ज्यादा ऊंचा नहीं
ना ही हमारे निगाहों के ताब से ऊंचा है तुम्हारा कद

खत्म हो रही है पृथ्वी
खत्म हो रहे हैं बाघ
साहस खत्म हो रहा है
गौरैया खत्म हो रही है
खत्म हो रहा है
बच्चों का फुदकना
फूल खत्म हो रहे हैं
खत्म हो रही है रंगों की भाषा
नदी खत्म हो रही है
खत्म हो रहा है धमनियों में लहू
जंगल खत्म हो रहा है
खत्म हो रही हैं सांसें
इस तरह
हमारी नींद के अन्धेरे में
खत्म हो रही है पृथ्वी


परिचय
 जन्म 18 जुलाई 1981, चेरूइयाँ, जिला-बलिया, (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा  एम. ए. (हिन्दी साहित्य), बी. एड. (विशिष्ट शिक्षा), पीएच.       डी. (हिन्दी साहित्य)
प्रकाशन -प्रेम को बचाते हुए’ (कविता संग्रह), नाटककार भिखारी ठाकुर की सामाजिक दृष्टि (आलोचना)।
संपादन शोध पत्रिका संभाष्यका चार वर्षों तक संपादन।
सम्मान- वागार्थ, कादम्बिनी, कल के लिए, प्रगतिशील आकल्प आदि पत्रिकाओं द्वारा कविताएं सम्मानित।
संप्रति-स्वतंत्र लेखन एवं कर्मश्रीमासिक पत्रिका का संपादन
संपर्क-देवीपाटन, पोस्ट तुलसीपुर, जिला बलरामपुर.(उ0 प्र0)
            दूरभाषः 08303022033
    










गुरुवार, 12 मार्च 2015

समीक्षा : हिमतरू का यह अंक अपनी विशिष्टताओं के लिए जाना जाएगा





आरसी चौहान 

      आज हिन्दी साहित्य उस चौराहे पर खड़ा है जहां से सड़कें चकाचौंध कर देने वाली बहुराष्टीªय कम्पनियों  ,  सिनेमा ,  बाजार और सच्चे-झूठे दावा करने वाले विज्ञापनों की ओर जाता है और इन सड़कों पर आम आदमी आतंकवाद  , उग्रवाद  , भ्रष्टाचार और बलात्कार जैसे घिनौने पहियों के निचे कुचला जाता है। ऐसे में दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत रचनाकारों की आवाज की अवहेलना बहुत दिनों तक नहीं की जा सकती। इनकी आवाज को सार्थक दिशा देने के लिए राष्टीªय स्तर की तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने एक बड़ा मंच प्रदान किया है।

      वागर्थ ,  नया ज्ञानोदय ,  हंस  , कथादेश ,  युद्धरत आम आदमी  , समसामयिक सृजन  , परिकथा ,  युवा संवाद  , संवदिया ,  कृतिओर  , जनपथ और इसी कड़ी को एक कदम आगे बढा़ते हुए अंतर्राष्टीªय हिन्दी साहित्त्य विशेषांक  ’’ प्रकाशित करने वाली हिमालयी पत्रिका -हिमतरू का जुलाई-2014 अंक शीतल पवन के झोंके की तरह आया है। यह शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज तो है ही  , खासकर दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत युवा रचनाकारों को चिह्नित कर उन्हें उत्प्रेरित करने का एक महायज्ञ भी है। जिसकी खुशबू और आंच देर-सबेर हिन्दी साहित्य के गलियारों में बड़े धमक के साथ सुंघी व महसूस की जाएगी। ऐसा मुझे विश्वास  है।

        हिमतरू का यह अंक अपनी विशिष्टताओं के लिए जाना जाएगा । कुल्लू जैसी विषम परिस्थियां  , जहां का धरातल करैले की तरह उबड़-खाबड़ तो है ही अगर कुछ रचनाओं के स्वाद में कड़वापन लगे तो मुंह बिचकाने की जरूरत नहीं है। हिमतरू के इस अंतर्राष्टीªय हिन्दी साहित्य विशेषांक ’’ में  देश-विदेश के लगभग अड़सठ रचनाकारों की उनकी विभिन्न रचनाओं को प्रकाशित किया है। किशन श्रीमान के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका के इस अंक का अतिथि सम्पादन युवा कवि गणेश गनी ने किया है। इस अंक में रचनाकारों की वरिष्ठता क्रम को ध्यान में न रखकर उनकी रचनाओं को किसी भी पेज में स्थान दिया गया है।

        इस समीक्ष्य लेख को लिखते हुए मैंने भी किसी क्रम को प्राथमिकता नहीं दी है। मैं और मेरा गांव संस्मरण में हरिपाल त्यागी ने जिस सुल्ताना डाकू को आत्मियता से याद किया है  , उसका केवल किस्से-कहानियां ही सुना था । बिजनौर से गुजरती हुई टेªन की भागमदौड़ में सुने गये किस्सों को यहां साक्षात देखने जैसा अनुभव हो रहा है। विजय गौड़ की कहानी एंटिला धड़कनों को स्थिर कर पूरे वातावरण को सजीव कर देती है और पाठक कहानी की वेगवती धारा में बहने से अपने आप को रोक नहीं पाता है। विजय जी ने अनेक को अनेकों लिखकर भ्रमित कर दिया है। जबकि जितेन्द्र भारती की कहानी एंटिला  ठीक से खुल नहीं पाई है।सैनी अशेष और तथा कथित स्नोवा बार्नो की कहानियों में पहाड़ी नदियों की तरह हरहराती हुई रवानी है जिसमें डूबकी लगाए बिना इस अंक का साहित्यिक स्नान पूर्ण नहीं होता।

        इन्दू पटियाल का आलेख ऋषि श्रृग: लोक मान्यताएं रोचक शैली में मनभावन लगा लेकिन यह आलेख वैज्ञानिक तरीके से विवेचन करने की गहरी जांच पड़ताल की मांग करता है। जयश्री राय की कहानी औरत जो नदी है  में कहीं- कहीं शब्दों की दुरूहता कहानी प्रवाह में खलल डालते हैं। भीतर तक झकझोर तक रख देने वाली कहानी पत्थरों में आग  मुरारी शर्मा ने बहुत ही सधे हुए लहजे में चिंगारी को हवा दी है। जो कभी न कभी तो भ्रष्टाचार को जलाएगी ही। अगर लोकधर्मिता की बात हो तो महेश चन्द्र पुनेठा का आलेख सीमित जीवनानुभव के कवि आलोचकों द्वारा फैलाया गया भ्रम पठनीय ही नहीं अपितु विचारणीय भी है। यहां लोक की अवधारणा को बहुत ही सलिके से प्रस्तुत किया है। हो हल्ला करने वाले तो हल्ला करते ही रहेंगे। आप ऐसे ही पहाड़ से अलख जगाते रहिए।

       अग्नीशेखर की छोटी किन्तु गम्भीर कविताएं हैं वहीं शिरीष कुमार मौर्य की स्थाई होती है नदियों की याददास्त सजीवता का अच्छा बिम्ब रचती हैं।दूसरों पर दोषारोपड़ करने की मानवीय प्रवृति को बखूबी उजागर करती है यह कविता। स्वपनील श्रीवास्तव का संस्मरण पुरू की बगिया  और विस्तार की मांग करता है। बहुत कम में समेटना काफी खटकता है। आग्नेय की प्रायश्चित कविता में कवि की बेचैनी और उद्विग्नता को स्पष्ट महसूसा जा सकता है। यहां कवि यादों के पीछे अवसाद सी स्थिति में चला जाता है और उसे बर्रों के छत्ते का ध्यान ही नहीं रहता। विदग्ध कर देने वाली कविता। जितेन्द्र श्रीवास्तव  की कविताएं भूत को वर्तमान के पुल द्वारा भविष्य से जोड़ कर हिन्दी कविता का नया वितान तो रचती ही हैं वर्तमान व्यवस्था पर करारा तंज भी कसती हैं। इनकी कविता साहब लोग रेनकोट ढ़ूढ़ रहे हैं में बखूबी देखा जा सकता है।
       लोक की कविता रचने वाले केशव तिवारी की मेरी बुंदेली जन ,  खड़ा हूं निधाह  और शिवकली के लिए जैसी कविताओं की आग मई-जून की तपती दोपहरी में पठार पर बवंडर की तरह चिलचिलाते गर्म भभूका की तरह है जिसकी आंच से बचना नामुमकीन नहीं तो मुश्किल जरूर है। रोहित जी रूसिया की धरोहर  कविता अपनी जड़ से कट रहे लोगों के लिए एक सीख भी है और चेतावनी भी। प्रेम पगी कविताएं भी खुबसूरत हैं। युवा रचनाकार शिवेन्द्र की कहानी और डायरी अंश की सोंधी महक बहुत देर तक जेहन में बनी रहती है। स्थानीय बोली-भाषा के शब्दों का बड़ा वितान रचा है जो इनकी डायरी और कहानी को जीवंतता प्रदान करती है।

       वर्तमान समय में मानवता की हत्या  ,  पैसे की भूख ,  हृदयहिनता जैसी विकृतियां तेजी से पनप रही हैं। कुलराजीव पंत की लघु कथा जुगाड़  में बखूबी देखा जा सकता है।अतुल पोखरेल ने पहुंच  लघुकथा में अपने हूनर को न पहचानने वालों पर अच्छा तंज कसा है साहित्य का चरवाहा बनकर। संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविता चिकनाई हमारे शरीर ही नहीं हमारे समाज में भी मुखौटा लगाकर जाल फरेबी लोगों के रूप में चहल कदमी कर रही है।सावधानी हटी , दुर्घटना घटी  , वाली बात है भई। युवा कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की कविता जीवन की आपाधापी में अपना रास्ता भटक-सी गयी है। हूकम ठाकुर की कविताओं में जंगल-पहाड़ में संघर्षरत जीवन में भी आशा की नई किरणें अंगड़ाई ले रही हैं। फिर भी पहाड़ एवं पहाड़ी जीवन के दुख-दर्द को विस्मृत नहीं किया जा सकता । अविनाश मिश्र ने अपने लेख में भोजपुरी में आई नग्नता  , अभद्रता एवं फूहड़ता को बेबाक तरीके से उजागर किया है।

        आज भागमदौड़ की जिंदगी में खासकर आधी आबादी उस भीड़ में कुचल जाती है जो सुबह से शाम तक कामों का रेला जो उनके ऊपर से गुजरता रहता है । जब तक वो उठती हैं सम्हलती हैं उनके जीवन का बसंत जा चुका होता है। हृदय को गहरे तक वेध देने वाली पीड़ा के तीर मन को आहत कर दिये।  स्त्रियों का बसंत मिनाक्षी जिजीविषा की कविता पढ़ने लायक है। भरत प्रसाद की बिल्कुल सधी हुई कविता मैं कृतज्ञ हूं जिसकी भाषा सुगठित  ,  शिल्प गठा हुआ और धारा प्रवाह शब्दों की लहरें कविता का नया वितान रचती हैं । संजु पाल की कविता पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे किसी अवसाद की स्थिति में लिखी गई होगी यह कविता। निराशा के भाव इतने गहरे हैं कि कविता के कपाट ठीक से खुल नहीं पाये हैं। वहीं शाहनाज इमरानी की कविताएं एक दिन और सड़क पर रोटी पकाती औरत मानवता की कलई खोलने में कोई कोताही नहीं बरतती हैं। पहाड़ पर लिखी कई रचनाकारों की कविताएं पढ़ने को मिली लेकिन मैं पहाड़ों में रहता हूं अंतर्मन को छू लेने वाली कविता है। यहॉं चकाचौंध रोशनी में विकास के नाम पर केवल विनाश ही हो रहा है । हमारी फितरत बन चुकी है तत्काल लाभ की  ,  जबकि दीर्घ कालिक दुष्परिणामों से बेखबर प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने पर तूले हुए हैं हम। जब कोई कहता है पहाड़ी होते हैं भोले- भाले  ,  कवि दीनू कश्यप की नाराजगी नाजायद नहीं मानी जा सकती। युवा कवि विक्रम नेगी की कविता उदास है कमला में शराब की वजह से बरबाद होते परिवारों की मार्मिक वेदना को  अपनी भाषा , नये शिल्प  व बिंब-प्रतीकों के माध्यम से कई परतों को खोलने का प्रयास किया है । जंग छिड़ी हुई थी में कवि ने कई नये प्रयोग किए हैं लेकिन नास्टेल्जिया से बचने की जरूरत है।

       आरसी चौहान की कविता जूता  पैरों तले दबे होने के बावजूद भी समय आने पर सच्चाई के साथ खड़े होकर तानाशाहों के थोबड़ों पर प्रहार करने से चूकता नहीं। शामिल नहीं एक भी शहीद और बकरा जैसी कविताओं में नित्यानन्द गायेन ने समाज के दबे-कूचले लोगों की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है। सुशान्त सुप्रिय भी मानवीय क्षरण और आम जन की पीड़ा को अपनी कविताओं में उद्घाटित किया है। हंसराज भारती का चुप का साथ एवं बुद्धिलाल पाल की कविता हंसी  रेखांकन योग्य है जिसमें गहरे अर्थ देने की अद्भूत क्षमता छिपी है।

        मेरे प्रिय कवियों में से एक अनवर सुहैल की कविता अल्पसंख्यक या स्त्री कैसी माफी   या कैसे छुपाऊं अपना वजूद   भावनाओं में बहकर लिखी गई कविताएं हैं।इन्हें और कसने की जरूरत थी। अहिन्दी भाषी कवि संतोष अलेक्स की कविताएं भी वर्णनात्मक ज्यादा हो गई हैं। अरूण शीतांश की पेड़ और लड़की अंतर्मन को छू लेने वाली कविता है जिसमें गवाह के रूप में पेड़ मौन खड़ा है और बेटियां गायब हो रही हैं। कितनी बड़ी त्रासदी है हमारे समाज की। जिन्दगी की दिशा राजीव कुमार त्रिगर्ती की छोटी किन्तु उम्मीद जगाती कविता है। कविता विकास की याद आते हैं प्रतिभा गोटीवाले की प्रवासी पक्षी  में स्त्रियों के प्रति चिंता वाजीब है।

       आलोचना व समीक्षा के क्षेत्र में तेजी से अपनी पहचान बना रहे युवा लेखक  उमाशंकर सिंह परमार की एडवांस स्टडी-नव उदारवाद-प्रतिरोध और प्रयोग   पढ़ने के बाद राजकुमार राकेश की पुस्तक को पढ़ने की जिज्ञासा बलवती हो गई है। और अंत में जिन रचनाकारों की रचनाओं ने प्रभावित किया उनमें एस. आर. हरनोट  , कुंअर रवीन्द्र  , शम्भू यादव  , अरूण कुमार शर्मा ,  विक्रम मुसाफिर  , कृश्ण चन्द्र महादेविया ,  हनुमंत किशोर के अलावा सतीश  रत्न ,  नवनीत शर्मा  , मुसव्विर फिरोजपुरी ,  सुरेन्द्र कुमार  , प्रखर मालवीय  , नवीन नीर ,  शेर सिंह की गज़लें तथा डा0 ओम कुमार शर्मा की लोकधर्मिता की परतें  , डा0 उरसेम लता का यात्रा वृतांत , कविता गुप्ता की डायरी  , दीप्ति कुशवाह  , मंजुषा पांडे , अंकित बेरी ,  केशब भट्टराई  , सरोज परमार की कविताएं भी अलग-अलग भाव-भूमियों में रची आशा की नई किरणें दिखाती हैं। ऐसे विलक्षण अंक के अतिथि सम्पादक-गनेश ग़नी और इस अंक में सम्मलित समस्त रचनाकारों को कोटिश बधाई और शुभकामनाएं।

हिमतरू (मासिक) जुलाई-2014 ,  अंतर्राष्टीªय हिन्दी साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक-गनेश ग़नी
प्रधान सम्पादक-इन्दू पटियाल
इस अकं का मूल्य-101 रूपये
संपर्क सूत्र- 201 ,  कचोट भवन , नजदीक मुख्यडाक घर , ढालपुर , कुल्लू हि0प्र0
मोबा0-09736500069 ,  09418063231

लेखक संपर्क - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com

                                      जनवरी 2015 अंक हिमतरू से साभार


शुक्रवार, 6 मार्च 2015

जयकृष्ण राय तुषार की कविताएं






होली की हार्दिक शुभ कामनाओं के साथ प्रस्तुत है कवि मित्र जयकृष्ण राय तुषार की कविताएं-

आम  कुतरते हुए सुए से 


आम कुतरते हुए सुए से 
मैना कहे मुंडेर की |
अबकी होली में ले आना 
भुजिया बीकानेर की |

गोकुल ,वृन्दावन की हो 
या होली हो बरसाने की ,
परदेशी की वही पुरानी 
आदत है तरसाने की ,
उसकी आंखों को भाती है 
कठपुतली आमेर की |

इस होली में हरे पेड़ की 
शाख न कोई टूटे ,
मिलें गले से गले ,पकड़कर 
हाथ न कोई छूटे ,
हर घर -आंगन महके खुशबू 
गुड़हल और कनेर की |

चौपालों पर ढोल मजीरे 
सुर गूंजे करताल के ,
रूमालों से छूट न पायें 
रंग गुलाबी गाल के ,
फगुआ गाएं या फिर बांचेंगे 
कविता शमशेर की |

फूलों में रंग रहेंगे ....
जब तक
 तुम साथ रहोगी
फूलों में रंग रहेंगे ,
 जीवन का
 गीत लिए हम
 हर मौसम संग रहेंगे |

 जब तक
 तुम साथ रहोगी
मन्दिर में दीप जलेंगे ,
उड़ने को
नीलगगन में
सपनों को पंख मिलेंगे ,
 तू नदिया
हम मांझी नाव के
 धारा के संग बहेंगे |

 जब तक
तुम साथ रहोगी
एक हंसी साथ रहेगी ,
 मुश्किल
यात्राओं में भी
खुशबू ले हवा बहेगी ,
 जब तक
यह मौन रहेगा
अनकहे प्रसंग रहेंगे |

 तुमसे ही
शब्द चुराकर
लिखते हैं प्रेमगीत हम ,
 भावों में
डूब गया मन
उपमाएं हैं कितनी कम ,
 तोड़ेंगे वक्त की कसम
तुमसे कुछ आज कहेंगे |




 साभार-छान्दसिक अनुगायन