शनिवार, 9 मई 2015

साहित्यिक संगोष्ठी के बहाने मारीशस की यात्रा : गोवर्धन यादव



                                                     
हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं उन्नयन के लिए अग्रणीय अभ्युदय बहुउदेशीय संस्था, वर्धा द्वारा लघुभारत कहे जाने वाले मारीशसकी  पांच दिवसीय सदभावना यात्रा (24 मई से 28 मई 2014)  मुबंई के छत्रपति शिवाजी अंतरराष्ट्रीय एअरपोर्ट से शुरु हुई. बावन सदस्यों का एक दल रवाना हुआ जिसमें देश के ख्यातिलब्ध लेखक, कवि, कथाकार, पत्रकार, कलाकार ,संपादक ,प्राध्यापक आदि शामिल थे.
 28  मई 2014 को कोस्टल रोड पर स्थित कोलोडाइन सूर मेर होटल के भव्य सभागार में मारीशस के कला-संस्कृति मंत्री मान.श्री मुखेश्वर चुनीजी, महात्मा गांधी इन्स्टिट्युट की निदेशक डा.श्रीमती व्ही.डी.कुंजलजी,  केन्द्रीय हिंदी सचिवालय के निदेशक मान. डा गंगाधरसिंह सुकलालगुलशन, हिन्दी स्पिकिंग यूनियन के अध्यक्ष श्री राजनारायण गति, महात्मा गांधी इन्स्टि.में हिन्दी भाषा प्रमुख डा.श्रीमती अलका धनपत को, संस्था के अध्यक्ष श्री वैद्यनाथ अय्यर ने सूत की माला पहनाकर भावभीना स्वागत किया.
द्वितीय चरण में साहित्यकार गोवर्धन यादव( संयोजक म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,जिला इकाई छिन्दवाडा-म.प्र.), समिति सचिव श्री नर्मदाप्रसाद कोरी (छिन्दवाडा-म.प्र), शरद जैन(खण्डवा म.प्र,) संतोष परिहार(बुरहानपुर-म.प्र.), अतुल पाठक(सुरत), डा,वंदना दीक्षित(नागपुर), डा अनंतकुमार नाथ,(तेजपुर), डा.मधुलता व्यास (नागपुर), डा ऊषा श्रीवास्तव(बंगलुरू), डा.मफ़तलाल पटेल(अहमदाबाद), डा.पी.सी.कोकिला(अमरावती), ,डा.वामन गंधारे(अमरावती), डा.शंकर बुंदेले(अमरावती), श्रीमती सुजाता सुर्लकर(मडगांव-गोवा), विकास काले(वर्धा), सुश्री हिना शाहा(अहमदाबाद) एवं पांडूरंग भालशंकर(वर्धा) ने हिंदी से संबंधित विभिन्न विषयों पर आलेख का वाचन किया.
तीसरे चरण में मारीशस के कला एवं संस्कृति मंत्री माननीय श्री मुखेश्वर मुखी द्वारा उपरोक्त सभी साहित्यकारों को सूत की माला पहनाकर स्वराजप्रसाद त्रिवेदी हिन्दी सेवी सरस्वती सम्मान से सम्मानित किया.
कार्यक्रम के चौथे चरण में मारीशस के ख्यातिलब्ध साहित्यकारों- श्री राज हीरामन, रामदेव धुरंधर, प्रल्हाद रामशरण, इंद्रदेव भोलानाथ, श्रीमती उमा बासगीत ,हनुमान दुबे गिरधारी, धनराज शंभु, डा. विनोदबाला अरूण, सूर्यदेव सिबोरत, एवं डा.रशमी रामधोनी को सूत की माला पहनाकर, श्रीफ़ल देकर सम्मानीत किया. इसी श्रृंखला में काव्य-गोष्ठी का भी आयोजन किया गया था, देर रात तक चले इस कार्यक्रम में मारीशस तथा भारत के कवियों ने अपनी उत्कृष्ठ रचनाओं का पाठ किया
काव्यपाठ कर रहे मारीशस के लब्ध प्रतिष्ठित कवियों की रचनाओं में तथाकथित सत्ताधारियों की क्रूरता, अन्याय, शोषण की व्यथा-कथा परिलक्षित होती थी और साथ ही उनके चेहरे पर दिपदिपाता दीखता है भारतीय होने का आत्मगौरव वाला चटकीला-चमकीला रंग.
1967 को देश में हुए आम चुनाव के बाद हुई उदघोषणा के ठीक पच्चीस बरस बाद यानि 12  मार्च 1992  को मारीशस पूर्णरूप से गणराज्य हो पाया था. इन तिथि से पूर्व, गिरमिटिया अथवा बंधुआ मजदूर कहलाए जाने वाले भारतीय, कभी पुर्तगाली, कभी डच कभी फ़्रेंच, तो कभी ब्रिटिश सत्ताओं के दमनचक्र मे पिसते रहे, तो कभी  क्रूरता, अन्याय और शोषण को सहन करते हुए उन्होंने न तो अपना सर झुकाया और न ही अपना निज.खोया और न ही अपना सम्मान. यहाँ तक कि अपने भारतीय होने के गौरव को, न तो कभी झुकने दिया और न ही उस पर आँच आने दी. यह सब इसलिए संभव हो सका क्योंकि वे अपने साथ भारतीय संस्कृति की अमरबेल, भग्वद्गीता, रामायण, रामचरित मानस और, सुखसागर सरीखे पवित्र और अमर ग्रंथों को साथ लेकर जो गए थे.
मानव संसाधन संग्रहालय के निदेशक डा.श्री देव काहुलेकरजी संग्रहालय में उपलब्ध सभी दस्तावेजों और अन्य सामग्रियों को, जिसे वे (मजदूर) अपने साथ लेकर गए थे, पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए, उन तमाम चीजों को बडॆ गौरव के साथ दिखलाते चलते हैं. अपने अतीत को संग्रहीत करना और उस पर  गौरवान्वित होना, आज की इस पीढी से सीखा और समझा जा सकता है. आज उन भारतीयों ने अपने दमखम पर मारीशस को स्वर्ग सदृष्य बनाया है, जिसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है.

यात्रा को यादगार और ऎतिहासिक बनाने में मारीशस के राष्ट्रपति महामहिम श्री कैलाश प्रयाग के साथ भेंट वार्ता और सामुहिक फ़ोटॊग्रुप महत्वपूर्ण रहे.
 इस ऎतिहासिक पल को सुगम और सुलभ बनाने में डा.अलका धनपत ,श्री राजनारायण गति एवं श्री राज हीरामन के सहयोग को कैसे विस्मृत किया जा सकता है?
इससे पूर्व डा.अलका धनपत ने विश्व हिन्दी सचिवालय की निदेशक श्रीमती कुंजलजी से सौजन्य भेंट करवायी थी. सचिवालय के वाचनालय के लिए मैंने अपना कहानी संग्रह तीस बरस घाटी, हिन्दी भवन भोपाल के मंत्री-संचालक श्री कैलाशचंद्र पंत की कृति संस्कार,संस्कृति और समाज, निदेशक डाकघर श्री कृष्णकुमार यादव एवं उनकी पत्नि श्रीमती आकांक्षा यादव की कृति अभिलाषा, सोलह आने सोलह लोग, जंगल में क्रीकेट, चांद पर पानी, डा.कौशलकिशोर श्रीवास्तव की कृति आए न बालम की प्रतियाँ भेंट की. उन्होंने बडी शालीनता के साथ इस भेंट को यह कहते हुए स्वीकारा कि उन्हें वे वाचनालय को सौंप देगी, ताकि यहाँ के लोग इन साहित्यिक कृतियों को पढ सकेंगे.
 उन पलों को भी कैसे विस्मृत किया जा सकता है जब डा.धनपत ने मारीशस रेडियो पर मेरा साक्षात्कार रिकार्ड करवाया और महात्मा गांधी संस्थान के प्राध्यापकों से हम सबकी भेंट करवाई थी. ज्ञात हो कि इस संस्थान की आधारशिला 3 जून 1970 को भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधीजी एवं मारीशस के प्रधानमंत्री श्री शिवसागर रामगुलामजी के कर-कमलों से रखी गई थी.
यह यात्रा अपनी सफ़ल संगोष्ठी के साथ-साथ रोचक-मनोरंजक पर्यटन के रूप में भी याद रहेगी. देश की राजधानी पोर्ट लुइस में स्थित अनेक मंत्रालयों के आलीशान भवन, समुद्र में तैरते विशाल पोत, गगनचुंबी इमारतें, कैसिनो, सिनेमाघरों, तथा रेस्टारेंटॊं  को देखा जा सकता है. पास ही में एक पार्क है जिसमें देश के प्रथम प्रधानमंत्री श्री शिवसागर रामगुलाम की भव्य प्रतिमा स्थापित है. यहीं से कुछ दूरी पर स्थित है अप्रवासी घाट जहाँ पर भारत से बलपूर्वक या ठेके पर अथवा बंधक बनाकर लाए गए लोगों को मजदूरी करने के लिए उतारा जाता था. इस स्थान को देखते ही मन में एक अजीब से कसमसाहट और सघन पीडा का अनुभव होने लगता है. साथ ही आँखों के सामने वह भयावह दृष्य उपस्थित होने लगता है कि किस तरह भारत से हजारॊ किलोमीटर दूर स्थित इस विरान टापू तक पहुँच पाने तक उन मजदूरों कॊ कितनी शारीरिक पीडायें और मानसीक यातनाएँ झेलनी पडी होगी?. एक नहीं, दो नहीं बल्कि सैकडॊं की तादात में यहाँ मजदूर लाए जाते रहे हैं. जान लेवा समुद्री हवा के थपेडॊं को सहते हुए, न जाने कितने ही लोग बीमार पडॆ होंगे, और न जाने कितनों ने, अपने प्राण त्याग दिए होंगे ? मरने के बाद इनकी लाशों को बेरहमी से उठाकर समुद्र में फ़ेंक दिया जाता था, ताकि वे समुद्री जीव-जन्तुओं का भोजन बन सकें. जेहन में ये सारे कारुणिक दृष्य़ चलायमान हो उठते हैं और आँखें भर आती हैं. हम सभी मित्रों ने दो मिनट का मौन धारण करते हुए उन अनाम भारतीयों को अपने श्रद्धासुमन अर्पित किए और भारी मन से लौट पडॆ.
इस यात्रा के दौरान टामारिन्ड वाटरफ़ाल,, ट्राइ आक्स सफ़र्स,(मृत ज्वालामुखी), चामरेल कलर्ड अर्थ ,फ़ोर्ट आफ़ एडलेट को देखने के बाद मारीशस का सबसे पवित्र स्थान जिसे गंगा तालाब के नाम से जाना जाता है, देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ. इस परिसर में प्रवेश करने से पहले, आपको एक सौ आठ फ़ीट ऊँची शिवजी की प्रतिमा के दर्शन होते हैं. मन श्रद्धा से भर उठता है. इससे कुछ दूरी पर अवस्थित है गंगा तालाब. कभी परी तालाब के विख्यात इस सरोवर में भारत से गंगाजल लाकर डाला गया था. इसके बाद इस नाम गंगा तालाब पडा. सरोवर के किनारे शेषनाग मन्दिर, विष्णु-लक्ष्मी, राधा-कृष्ण, साईं, हनुमानजी की प्रतिमा, सात घोडॊं से जुते हुए एक दिव्य रथ पर आरूढ भगवान सूर्यदेव की सुन्दर और आकर्षक प्रतिमा देखी जा सकती है. इसी प्रांगण में एक विशाल शिव मन्दिर अवस्थित है. इसमें विराजे शिवलिंग के बारे में मान्यता है कि यह तेरहवाँ ज्योतिर्लिंग है. यहाँ की स्वछता, निर्मलता, तालाब का पारदर्शी पानी, और चारों ओर आच्छादित हरितिमा एवं आर्य संस्कृति का विस्तारित रूप देखकर, मन गदगद हो उठता है.
अपनी यादगार और सफ़ल यात्रा के दौरान की गई समुद्र की सैर, विभिन्न प्रकार के वाटर स्पोर्ट्स, पैराग्लाइडिंग, ग्लास-बोट की सवारी,जिससे समुद्र के भीतर गहराई तक झांका जा सकता है और चित्र-विचित्र कोरल, मछलियाँ और जीव-जंतुओ को देखा जा सकता है.
अभ्युदय बहुउद्देशीय़ संस्था के साथ की गई यह अविस्मरणीय़ यात्रा यादों को संजोते हुए संपन्न हुई और हम 29 मई प्रातः छः बजे नवल अरूणोदय के साथ, नव उमंगों, नव तरंगों सहित, नव सृजन की उत्कण्ठा लिए लौट आए.

            सम्पर्क-
             गोवर्धन यादव  (संयोजकम.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति) 
                103, कावेरीनगर,छिन्दवाडा(म.प्र.)480001
                मो. 09424356400
                 

शुक्रवार, 1 मई 2015

माया एन्जेलो की कविताएँ





माया एन्जेलो
, मूल नाम - मार्गरेट एनी जॉन्सन- 1928.2014 अमेरिकी-अफ्रीकी कवयित्री को अश्वेत स्त्री-पुरूषों की आवाज के रूप में जाना गया। उनके काम को अमेरिकी लायब्रेरियों में प्रतिबंधित करने के भी प्रयास किए गए किंतु आज उनके लिखे को विश्व के कई विद्यालयों व कालेजों में पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। उनकी पुस्तकों के मुख्य विषय नस्लभेद, पहचान, परिवार व यात्राएं हैं।


मजदूर दिवस पर माया एन्जेलो की कविताएँ प्रकाशित करते हुए हमें जो खुशी हो रही है वह समर्पित है उन तमाम मजदूरों को जिन्होंने किसी काम को करते हुए किसी तरह का भेद भाव नहीें बरता बल्कि बड़े मनोयोग से सांस्कृतिक भूदृश्य को नये शिल्प में गढ़ा। यहां प्रस्तुत कविताओं के केंद्र में मजदूर नहीं हैं बल्कि ये कविताएं उनके लिए मील का पत्थर साबित होंगी जो  कबके चट्टानों में ढल गये हैं जिसका उन्हें भान तक नहीं। इन्हें पृथ्वी के धरातल पर कहीं भी देखा जा सकता है गुनगुनाते हुए दर्द को पी कर मुस्कराते हुए। तो आज प्रस्तुत है माया एन्जेलो की कविताएँ जिसका मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद किया है पद्मनाभ गौतम ने।
 

 


















लाखों  मनुष्यों की यात्रा
लम्बी रही है रातए गहरे रहे है घाव
कालिमामय था कूप और खड़ी दीवारें

सुदूर समुद्री किनारे पर
मृत नीले आकाश के नीचे
केश पकड़ कर खींचा गया था
मुझको तुमसे दूर
बंधे थे तुम्हारे हाथए और बंधा था मुँह
पुकारा तक नहीं जा सका तुमसे मेरा नाम
थे असहाय तुम और तुम सी ही मैं
दुर्भाग्य किंतु कि इतिहास में सदा
तुमने पहना शर्मिन्दगी का ताज
मैं कहती हूँ
लम्बी रही है रात घाव रहे है गहरे
कालिमामय था कूप और खड़ी दीवारें

किंतु आजए आवाजें पुरानी आत्माओं की
बोलतीं हैं मजबूत शब्दों में
वर्षों की सीमा को लांघ करए शताब्दियों के पार
पार कर महासागरों और समुद्रों को
कि आओ एक दूसरे के करीब
और बचाओ अपने लोगों को
कर दिया गया है भुगतान
तुम्हारे वास्ते इस परदेश में
अतीत कराता है याद
है अदा कीमत आजादी की
गुलामी की जंजीरों के वेश में              
लम्बी रही है रातए घाव रहे है गहरे
कालिमामय था कूप और खड़ी दीवारें

वह नर्क जो भोगा हमने
अब तक रहे जो भोग
उसने चढ़ा दी है सान हमारी संवेदनाएँ
और कर दी हैं इच्छाएँ मजबूत
लम्बी रही है रात
इस सुबह देखती हूँ तुम्हारे दर्द के पार
भीतर तुम्हारी आत्मा तक
जानती हूँ कि एक साथ
बन सकते हैं हम संपूर्ण
देखती हूँ पार तुम्हारे सलीके और स्वाँग के
देखती हूँ तुम्हारी बड़ी धूसर आँखों में
परिवार के लिए प्रेम

मैं कहती हूँए तालियाँ बजाओ और
इकट्ठा होओ इस सभा-मैदान में
मैं कहती हूँए तालियाँ बजाओ और
एक.दूसरे के साथ करो प्रेम का व्यवहार
मैं कहती हूँए तालियाँ  बजाओ और ले जाओ हमें
महत्वहीनता की नीच गलियों सेए
तालियाँ बजाओ आओ आकर पास

आओ हम साथ चलें और अपने हृदय उड़ेल दें
आओ हम साथ चलें और करें अपनी आत्माओं का पुनरावलोकन
आओ हम साथ चलें और धवल कर दें अपनी आत्माओं को
तालियाँ बजाओ और सँवारना छोड़ो अपने पंख
मत दो अपने इतिहास को धोखा
तालियाँ बजाओ और बुलाओं आत्माओं को कगारों से
तालियाँ बजाओं और बुलाओ आनंद को वार्तालाप में
शयनकक्ष में प्रेम को विनम्रता को अपनी रसोई में
और संरक्षण अपने नौनिहालों में

हमारे पुरखे बताते हैं हमें बावजूद दर्दीले इतिहास के
हम चलने वाले लोग हैं जो उठेंगे दोबारा

औरए अब भी उठ रहे हैं हम।

 मैं जानती हूं क्यों गाती है पिंजरे की चिड़िया

उन्मुक्त पक्षी उछलता है हवाओं की पीठ पर
हवा के प्रवाह में उतराता है
जब तक झुका नही देता उसके पंख
सूर्य की नारंगी किरणों में होता विलीन
हवा का झोंका
और दिखाता दम आसमान पर अपने आधिपत्य का
किंतु पक्षी पिंजरे का जो
छोटे से पिंजरे में चलता कदमों नपे-तुले
देख सकता बमुश्किल पार पिंजरे की सलाखों के
पंख उसके कसे हैं और बंधे जिसके पाँव
इस लिए खोलता है गाने को अपना कंठ।
पक्षी पिंजरे का गाता है
अज्ञात के भय से कंपित गान
साधा गया जिसे किंतु चुप रहने को
दूर पहाड़ों तक सुनी जाती है उसकी धुन
क्योंकि पिंजरे का पंछी गाता है मुक्ति की चाह में

याद करता है उन्मुक्त पंछी
उसाँस भरते पेड़ों से आती
शांत सुकोमल पूर्वी हवाओं को
और सूर्योदय से चमकते आंगन में
इंतजार करते मोटे कीटों को
पर पिंजरे का पंछी होता है खड़ा
सपनों की कब्र पर
छाया चीखती है उसकीए दुःस्वप्न की चीख
पंख उसके कसे हैं और बंधे जिसके पाँव
इस लिए खोलता है गाने को अपना कंठ

पक्षी पिंजरे का गाता है
अज्ञात के भय से कंपित गान
साधा गया जिसे किंतु चुप रहने को
दूर पहाड़ों तक सुनी जाती है उसकी धुन
क्योंकि पिंजरे का पंछी
गाता है मुक्ति की चाह में


गुजरता वक्त

तुम्हारी त्वचा का रंग
सूर्योदय की तरह
और मेरी जैसे कस्तूरी
एक उकेरता है कैनवस पर
नियत अंत का आरम्भ
उकेरता दूसरा
एक नियत आरंभ का अंत


 देवदूत के द्वारा स्पर्शित

हम आदी नहींजो साहस के 

और सुखों से निर्वासित
जीते हैं कुंडली मार कर
एकांत के खोल में
जब तक प्रेम
छोड़ कर मंदिर अपना
उच्च और पवित्र
दृष्टिगोचर हो न जाए हमको



आता है प्रेम
करने को हमें जीवन में स्वतंत्र
और इसके साथ
आते हैं श्रृंखलाबद्ध
सुख
पुराने आनंदों की स्मृतियां
पुराने दर्दों का इतिहास

फिर भी
यदि हम हों निर्भय
तोड़ देता है प्रेम
हमारी आत्माओं से
भय की जंजीरें
हमें मिलती है
अपनी दुर्बलता की चेतावनी
प्रेम की रोशनी की चमक में
साहस कर हो जाते हैं हम बहादुर
औचक देखते हैं हम
कि प्रेम के बदले में हमें
देना होता है सर्वस्व
फिर भी यह प्रेम ही है
जो करता है हमें मुक्त।


                         पद्मनाभ गौतम
 स्थाई पता  - 
           द्वारा श्री प्रभात मिश्रा
            हाईस्कूल के पास, बैकुण्ठपुर, जिला-कोरिया
            छत्तीसगढ़, पिन-497335
            मो
0 - 09436200201
                     07836-232099

रविवार, 26 अप्रैल 2015

उमा शंकर मिश्र की कहानी : नेताजी



       


        तुम लोगों की संख्या तेजी से घट रही हैं जबकि तुम लोगों पर सरकार करोड़ों रू0 खर्च कर रही है।पंक्षियों के झुंड को देखकर नेताजी ने कहा। हम पंक्षी वृक्षों पर अपना आवास बना लेते हैं आसमान ही हम लोगों का उडा़न क्षेत्र है हम लोग पृथ्वी के भार नहीं हैं लेकिन आप इंसानों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।आप लोग सच पूछिये तो पृथ्वी के भार हैं ।आप लोगों को कम करने के लिए अरबों रू0 फैमिली प्लानिग पर खर्च हो रहे हैं आगे उड़ते हुए पंक्षी ने कहा।


       अब झुंड के पक्षी उड़ान भर रहे थे और नेताजी अपना सिर सहला रहे थे।
चहचहाते हुए पक्षियों को देखकर नेताजी ने कहा।
बिना किसी मूल्य के तुम लोग शोर मचा रहे हो। हम लोग बिना पैसे के संसद में प्रश्न भी नहीं पूछते।

       चहचहाने से प्रकृति खूबसूरत होती है ।उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन आप लोगों की बातें टेप होती है।जांच होती है और करोड़ों की धनराशि उस पर खर्च होती है।आगे उड़ते हुए पक्षी ने कहा। अब पक्षी आसमान में उन्मुक्त उड़ान भर रहे थे और नेताजी आपनी कार में बैठने की तैयारी में थे।


       अपने ड्राइंग रूम में पक्षी को देखकर नेताजी  क्रोध में आ गये ।क्यों नहीं अपना आवास बना लेते हो। नेताजी ने कहा।
वृक्ष हम लोगों का आवास है और सारे जंगल आप जैसे लोगों के  संरक्षण में कट रहे हैं फिर आवास कहां बनेगा पक्षी ने कहा। अब पक्षी सामने के वृक्ष पर चहचहा रहे थे और नेताजी अपने मातहत पर गुस्सा उतार रहे थे।

सम्पर्क:  उमा शंकर मिश्र
          ऑडिटर श्रम मन्त्रालय
          भारत सरकार
          वाराणसी मोबा0-8005303398


मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

सिर्फ और सिर्फ किसान ही महसूसता है : अनवर सुहैल



  09 अक्टूबर 1964  को छत्तीसगढ़ के जांजगीर में जन्में अनवर सुहैल जी के अब तक दो उपन्यास ,एक कविता संग्रह और तीन कथा संग्रह   प्रकाशित हो चुके हैं। कोल इण्डिया लिमिटेड की एक भूमिगत खदान में पेशे से वरिष्ठ खान प्रबंधक हैं। संकेत नामक लघुपत्रिका का सम्पादन भी कर रहे हैं। हमारे समय के बुद्धिजीवियों से प्रकृति के कहर पर कई सवाल करती यह कविता


तो प्रस्तुत है उनकी यह कविता

शादी-लगन का समय है ये
खरीफ की फसल कटाई भी करनी है
लेकिन सरकार की तरह भगवान् को भी
ये का हो गया है रे...
कोई नही सुनने वाला
चैत में ओला-पाथर-पानी
कैसे कटेगी जिनगानी हो रामा...

विश्व-बाज़ार में घटा कच्चे तेल का दाम
इस्लामी आतंकवादियों ने किये कत्ले-आम
चलती कार में गैग-रेप
गाँव-गिरांव तक पहुंचाई जाती
शीर्ष-पुरुष के मन की बात
जबकि हम झेल रहे बेमौसम बरसात
और खण्ड-खण्ड टूट रहे स्वप्न
छितरा रही आकांक्षाएं
घबराता तन-मन
कोई तो करो जतन
कोई भी देवी-देवता-भगवन
या सब हो अपने ही में मगन....

चैत में बरसात की पीड़ा को
सिर्फ और सिर्फ किसान ही महसूसता है
सत्ता या विपक्ष नही
टीवी या अखबार नही
नेता या पत्रकार नही
और कवि...
बेशक...नही............


सम्पर्क:    टाईप 4/3, ऑफीसर्स कॉलोनी, बिजुरी
          जिला अनूपपुर .प्र.484440 
        फोन 09907978108

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

कहानी - गुल्लू उर्फ उल्लू : विक्रम सिंह



   विक्रम सिंह  1 जनवरी 1981

समकालीन रचनाकारों में तेजी से अपनी जगह बनाते जा रहे युवा लेखक विक्रम सिंह की कहानियां हर महिने किसी न किसी पत्रिका में आपको पढ़ने को मिल जाएंगी। इनकी कहानियां  राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं यथा समरलोक , सम्बोधन , किस्सा , अलाव , देशबन्धु , प्रभात खबर ,जनपथ ,सर्वनाम , वर्तमान साहित्य , परिकथा , आधरशिला , साहित्य परिक्रमा , सेतु , जाहन्वी , परिंदे इत्यादि में प्रकाशित। एक कहानी परिकथा 2015 के जनवरी नव लेखन अंक में प्रकाशित एवं बहु चर्चित तथा एक-एक कहानी कथाबिंब , निकट ,  प्रगतिशील वसुधा  माटी पत्रिका में स्वीकृत । अब विभिन्न ब्लागों में आवाजाही । परिंदे में प्रकाशित इस कहानी को पढ़िए आज इस ब्लाग पर । आपके विचारों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।
पुस्तक - वारिस ;कहानी संग्रह-2013
सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत 

कहानी गुल्लू उर्फ उल्लू
विक्रम सिंह
अब जहाँ ई.सी.एल कम्पनी का क्वार्टर हैं, पहले कभी यहाँ जंगल हुआ करता था। कहते हैं कि जब नया-नया क्वार्टर बनने की योजना बनी तब ई.सी.एल ने जंगल को अपने बड़े-बडे बुलडोजर चला कर जंगल को साफ कर दिया। वहाँ एक साफ सुथरा मैदान बना दिया गया था। फिर वहाँ दो रूम, एक हाल रसोई, लेट्रिन-बाथरूम अर्थात टू बैडरूम वाले क्वार्टर तैयार किये गये थे। और उस क्वार्टर में आने के लिए हर एक कर्मचारी कोशिश करने लगा था। उन्हीं दिनों एक परिवार मनराज चौधरी का रहने आया था। उसके साथ एक बेटी और एक बेटा साथ आया था। यूँ तो उसके तीन लड़के और दो लड़कियाँ थी। मगर मंनराज और उसकी पत्नी के साथ सिर्फ उसका सबसे छोटा लड़का और बेटी ही आई थी। बाकी का परिवार गाँव में रह रहा था।
 
करीब सप्ताह भर बाद एक दिन मैं सुबह-सुबह उठकर पढ़ने बैठ गया था। सिर्फ मैं ही नहीं करीब कालोनी में हर एक विद्यार्थी सुबह पढ़ने बैठ जाया करते थे। उन दिनों हम सब कालोनी के सब विद्यार्थी जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर पढ़ा करते थे। कोई एक आद ही होगा जो मौन पढ़ता होगा। कालोनी में सब की आवाज गूँजती रहती थी। उस दिन सुबह अचानक कानों में गानों की आवाज आने लगी थी। गाना किशोर कुमार का था। मेरे सामने वाली खिड़की में एक चाँद का टुकड़ा रहता है...........। मैं गाने सुनने में मस्त हो गया था। करीब पन्द्रह मिनट तक एक के बाद एक सदाबहार गाने बजते रहे। अचानक से किसी की चिल्लाने की आवाज आने लगी,'' कौन पागल सुबह-सुबह टेपरिकाँर्डर बजा रहा है। मैं घर से बाहर दरवाजे के पास आकर खड़ा होकर देखा,तो प़ड़ोस के ही शमसुद्दी्न मियाँ थे। और शायद नाइट शिफ्ट डयूटी कर के आये थे। इस तरह से ऊँची आवाज में गाने बजने की वजह से उसकी नींद टूट गई थी। गाने की आवाज मनराज चौधरी के घर से आ रही थी। मुझे लगा की मनराज को गाने सुनने का शौक होगा। मगर जब मियाँ शमसुद्दीन लगातार गरियाते जा रहा था। मनराज का लड़का रनजीत सिंह उर्फ गुल्लू निकला था। यूँ तो उसका नाम रनजीत सिंह था। पर उसको सब घर में गुल्लू कह कर बुलाते थे। गुल्लू नाम पड़ने के पीछे भी कुछ कारण था क्योंकि कहानी तो मुझे भी नहीं पता थी। बस इतना सुना था कि रनजीत का दिमाग कुछ ऐसा था कि उसके पिता मनराज उसे हर बात पर उल्लू कह कर पुकारने लगे थे। रनजीत जब रुठ जाता खाना नहीं खाता तो माँ उसे बडे प्यार से मनाती थी। हमार रनजीत उल्लू थोड़े हवे हमार गोलू, हवे हमार सलू, हवे हमार गुल्लू हवे। बस यही से रनजीत का नाम गुल्लू पड़ गया था। गुल्लू ने कच्छा पहन रखा था। कच्छे का नाड़ा जूते के फीते का था। बदन पूरा नंगा था। ऐसा लगा जैसे वह घर का काम कर रहा हो। हाँ यह सच भी था कि गुल्लू घर का काम किया करता था। वह अपने माँ के साथ घर के बर्तन, झाडू पोंछा, कपड़े धोने तक के काम करवाया करता था। जब वह माँ को काम करते देखता तो माँ से कहता,''माई तू कितना काम करे ली थक जात होई।. बहनी रीना भी तोहार संग काम ना करेली।''
''बेटा तोहार बहनी अभी छोट हई ना। बड़ हो जाई त अपने करे लगी।''
''तेा ठीक बा माई जब ले बहनी छोट बा हम तूहार संग काम कराईब।''
बस तब से गुल्लू माँ के हर काम में हाथ बंटाने लगा था। गुल्लू ने समसुद्दीन से कहा,''जी क्या बात हो गई।''
''इतनी आवाज कर के गाने क्यो सुन रहे हो।'' 
''जी ठीक है, आवाज कम कर देता हूँ।'' इतना कह जैसे ही गुल्लू घर के अंदर जाने लगा कि शमसुद्दीन ने कहा,'' उल्लू का पट्ठा कही का।'' बंदूक की गोली की तरह हवा को चीरती हुई। शब्द गुल्लू के कानों में ठांय से लगी। गुल्लू ने अपनी गर्दन घुमा कर शमसुद्दीन को देखा और कहा,''उल्लू होगा तू।'' फिर एक से एक गालियाँ गुल्लू ने उसको दे दी और घर के अंदर चला गया। यह सब देख हम सब हैरान रह गये। मगर खूब मजा आया था। क्योंकि शमसुद्दीन की आदत थी। सुबह हो या शाम वह अक्सर हम सब को खेलते देख हल्ला मत करो कह भगा दिया करता था। हाँ तो वह हम लोगों से गुल्लू की पहली मुलाकात थी।
 
उन दिनों गुल्लू की सदाबहार गानों से उसके पास की लड़की गुल्लू को दिल दे बैठी थी। गुल्लू भी उसे चाहने लगा था। शायद गुल्लू से वह दिन में मिलने से डरती थी कि कही किसी ने देख लिया तो माँ बाबू जी को पता चल जायेगा। उसने गुल्लू को पत्र में लिख के दिया था। मैं खिड़की के पास में सोती हूँ तुम मुझसे रात को खिड़की के पास आकर इशारा करना तो मैं जाग जाउँगी। खिड़की में आ जाउँगी। उन दिनों हमारे कालोनी में एक चोर की चर्चा थी कि वह लम्बी लकडी के आगे हुक लगाकर रखता था। जिसकी भी खिड़की खुली देखता था। हुक से उसके घर का सामान खींच कर भाग जाता था। कालोनी के लोग उससे काफी परेशान थे। एक रात गुल्लू जब उसके घर में सारे गहरी नींद सो गये तो गुल्लू धीरे से दरवाजा खोल कर बाहर आ गया और अपनी प्रेमिका के खिड़की के पास इशारा कर उसे खिड़की के पास बुला लिया। वह आपस में बात करने लगे। तभी अचानक एक आदमी जोर-जोर से चिल्लाने लगा,चोर....चोर। यह सुन प्रेमिका ने गुल्लू से कहा,तुम जल्दी यहाँ से चले जाओ। गुल्लू वहाँ से जैसे ही हट कर रास्ते में आया तो गुल्लू के सामने से चोर भाग रहा था कि गुल्लू ने उसे पकड़ कर अपनी बाहों में जकड़ लिया। गुल्लू के पापा की नींद हल्ले से खुल गई देखा तो दरवाजा खुला हुआ था गुल्लू घर पर नहीं है। बाहर निकल कर देखा तो गुल्लू कुछ लोगों के बीच खड़ा था। वह सब गुल्लू को पीठ थप थपा रहे थे। गुल्लू ने शातिर चोर को पकड़ लिया है। मनराज चौधरी की तो होश उड़ गये इसलिये नहीं कि उसने चोर को पक़ड़ लिया वह यह कि वह रात को बाहर क्या कर रहा था? उस दिन गुल्लू को इनाम में खूब पिटाई हुई थी।
 
गर्मियों की छुट्टी के बाद जब स्कूल खुले तो मैंने गुल्लू को स्कूल में अपने ही क्लास में देखा। वह पीछे की बेंच पर बैठा था। मैंने उसे आगे को बुला लिया था। वह आगे नहीं आना चाहता था मगर मेरे कहने पर आ गया था। बाद में पता जो चला वह यह की गुल्लू किसी दूसरे स्कूल में पाँचवीं में तीन साल फेल हो गया था। मनराज ने हमारे इस सरकारी स्कूल में पैसे देकर सीधा आठवीं में दाखिला करवा दिया था।
 
क्लास में जे.एन.यू सर आये थे। जिनकी एक अजीब आदत थी कि वह किताब से कुछ ना कुछ ऊटपटांग सवाल पूछ लेता था। उस दिन भी उसने पहला सवाल गुल्लू से ही किया था। ''बता कुत्ते कितने प्रकार के होते है?'' 
गुल्लू ने फट से जवाब दिया,''सर कुत्ते तीन प्रकार के होते है।'' इतना कहने की देर थी की पूरे क्लास में जोर का ठहाका लगा था। सर ने जोर से चिल्ला कर कहा,चुप।'' क्लास मैं एकाएक शान्ति पसर गयी थी। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि क्लास में अभी-अभी जोर का ठहाका लगा हो। मास्टर साहब ने गुल्लू से कहा',''कुत्ते की तीसरी प्रजाति तूने कहां से पैदा कर दी। जरा बताना कुत्ते तीन प्रकार के कैसे हुए।'' 
''सर एक हुआ जंगली दूसरा हुआ पालतू और तीसरा हुआ फालतू जो गली नुक्कड़ में घूमते हैं। जहाँ मन किया हग देते हैं।'' एक बार फिर जोर का ठहाका लगा था। मास्टर जी ने फिर से अपने तेवर से सब को चुप करा दिया था। दांत पीसते हुए गुल्लू पर डंडे बरसाने लगे थे। डंडे बरसाने के बाद उसने गुल्लू को उल्लू का पट्ठा कहा था। मैं डर गया कि कही गुल्लू मास्टर जी को गाली ना दे बैठे। मन ही मन गुल्लू ने मास्टर जी की खूब माँ बहन एक की थी। मगर मैं उस दिन सोच रहा था कि गुल्लू अपनी जगह सही है। आखिर उसने प्रेक्टिकल देख जवाब दिया था। सही मायने में गुल्लू की वहाँ नजर जाती थी जहाँ इंसान सोचता नहीं है।
 
क्योंकि हमारे उसी स्कूल में एक बी.एच.यू सर हुआ करते थे उनकी एक बहुत ही गंदी आदत थी। वह आकर क्लास में बैठ जाया करते थे। और वह खंखार कर अपने बलगम को मुँह में ले आया करते थे। फिर उसे चबाते रहते थे। उस वक्त पूरे क्लास के लड़के घृणा से भर जाते थे। अपना सर नीचे की तरफ रखते थे। कोई भी उसे देखना नहीं चाहता था। मगर गुल्लू उसे ध्यान से देखता रहता था। मैंने एक दिन गुल्लू से पूछा,''यार तुझे घृणा नहीं आती इस तरह उसे देखकर।'' 
''नहीं दोस्त! घृणा करने वाली बात नहीं है। सोचने वाली बात है साला यह मास्टर चालाक है। बाहर से बबलगम खरीदने की बजाये, अच्छा है अपने अंदर से ही बबलगम निकाल कर जुगाली की जाये।''
इसका मन रखने के लिये मैंने इतना कहा,''क्या बात की दोस्त।' लेकिन बाद मैं काफी देर तक इस बात को सोचता रहा कि इस तरह का किसी ने भी क्यों नहीं सोचा 'क्या सचमुच बी.एच.यू सर ऐसा ही सोचकर खंखार कर बबलगम चबाते रहते थे। शायद यह एक मनोवैज्ञानिक प्रश्न था। लेकिन कुछ दिनों बाद हमने देखा था कि बी.एच.यू सर ने खंखारना छोड़ दिया था। और उसके मुँह में असली का कुछ होता था जिसे वह चबाते रहते थे।
 
मैंने देखा कुछ दिनों बाद जे.एन.यू सर भी गुल्लू से खुश हो गये थे। और गुल्लू की तीन कुत्तों वाली बात को सही ठहराने की कोशिश करने लगे थे। ''देखो बाहर के गलियों में घूमने वाले कुत्ते जो होते है इन्हें विदेशों में स्टीट डाग बोलते हैं। गुल्लू की बात ठीक ही थी मगर कहने का तरीका गलत था।'' 
मुझे यह सब सुन कर अद्भुत लगा था। इस रहस्य को जानने की मुझमें प्रबल इच्छा जाग गई थी। चूकि ठण्ड का समय था और हम सब टिफिन के समय अर्थात लन्च के समय छत पर खाना खाने जाते थे। गुल्लू ने एक दिन मुझे कहा यार चल आज हाफ डे चलते है। उस दिन मुझे एक जंगल के बीच मैदान में ले गया और एक हरी घास के मैदान में जाकर लेट गया। अपने बैग से मीठे बेर का आचार निकाल कर रख दिया। उस दिन खूब अच्छा लग रहा था। हल्की-हल्की ठण्ड में सूर्य की रोशनी हमारे बदन को गर्म कर रही थी जैसे माँ शिशु की मालिश कर रही हो। उस पर जब मीठे बेर के आचार को मुँह में लेते थे। अजब सुखद का एहसास हो रहा था। मैंने गुल्लू से कहा,''यार गजब का मजा आ रहा है।'' 
गुल्लू ने कहा,''ठण्ड में दिन में मजा खुले आसमान के नीचे लेट कर आसमान को देखकर सभी किताब काँपी से दूर रह कर जो मजा है ना वह और कही नहीं मेरे दोस्त। और गर्मियों में रात में छत में लेट कर आसमान के तारे देखकर सोने में मजा है। इसलिए तो यहाँ आया हूँ। नहीं तो अभी चार दीवारी के अंदर इन पागल टीचरों के चेहरा देख कर पक रहे होते।'' 
सही तो यह था गुल्लू के चेहरे में भविष्य को लेकर कोई चिंता कभी नहीं रहती थी। एक दिन इसी तरह हम धूप में बैठकर बेर का अचार खा रहे थे। मैंने पूछा,क्या तुम्हें अपने भविष्य को लेकर कोई चिंता नहीं होती।''
वह हसा,हा......हा......हा...! यार तुम्हारे होते हुए मुझे क्या चिंता है।''
''वह कैसे?''
क्योंकि यार जब तुम पढ लिखकर बड़े ऑफिसर बनोगे। तो तुम मुझे अपना चपरासी रख लेना।''
फिर ना जाने उसने यह बात मुझसे कितनी बार कही थी। मगर गुल्लू की यह बात सुन कर मैं मन ही मन उसे उल्लू ही समझता था।'' मैं कहता चपरासी बनने के लिए भी कम से कम आठवीं पास होना पड़ता है।'' 
खैर मेरे अंदर जो एक रहस्य छिपा था। वह दसवीं के रिजल्ट आने के बाद खुला था। दरअसल गुल्लू दसवीं में बडे खराब नम्बरों से फैल हो गया था अर्थात वह प्रत्येक विषय में फेल हो गया था। मगर गुल्लू ने नवीं तक तो इस तरह के नम्बर नहीं आये थे। मैं गुल्लू से एक दिन पूछा,''यार रनजीत तो नवीं तक तो ठीक ठाक पास हो गया। मगर यह क्या दसवीं में तू सारे विषयों में फेल हो गया।'' 
गुल्लू दुखी होने की बजाये जोर-जोर से हंसा। वह तो मेरी खट्टी दही और बबलगम का कमाल था। दरअसल गुल्लू ने मुझे जो बताया था। वह यह था कि वह जे.एन.यू सर के पास टयूश्न पढ़ने लगा था। चूकि जे.एन.यू सर को डायबिटीज थी। इस वजह से गुल्लू उन्हें हर रोज दही दिया करता था। जिससे वह बहुत खुश हो गया था। गुल्लू हमेशा स्कूल से आने के बाद रात आठ से नौ साइकिल लेकर जे.एन.यू सर के घर टयूश्न पढ़ने जाया करता था। उस समय हम सब घर पर पढा करते थे। इस वजह से हमें यह बात पता नहीं चली थी। उसने ही मुझे बताया था कि बी.एच.चू सर को बचपन में बबलगम खाने की आदत थी मगर उसके बाबू जी कभी उसे पैसे नहीं देते थे। उसी समय गाँव में बी.यच.चू सर को किसी ने कह दिया था कि ''बबलगम तो तुहार बितरे बा रे बस जब मन करी तब खगार ला उके जीबा लिया कर।'' यह बात गुल्लू को जे.एन.यू सर ने बताई थी। बस फिर क्या था गुल्लू ने एक दिन जो की टीचर डे का दिन था बी.यच.यू सर को एक कलम के साथ बड़ा पैकिट बबलगम का खरीद कर दे दिया था। और यह क्रम चलता रहा लगातार कम से कम नवी पास होने तक। लेकिन सही मायने में दोनों सर यह अच्छी तरह जानते थे कि गुल्लू पढ़ने लिखने में एकदम गधा है। इसलिये उसे हमेशा अच्छी तरह पढ़ने के लिये कहते थे। बोर्ड के परीक्षा का पेपर उनके हाथों में नहीं था इसलिये वह फैल हो गया था। उस दिन मुझे समझ में आया था क्यों गुल्लू मुझे यह कहता था कि तुम मुझे अपना चपरासी रख लेना।
 
इसके बाद गुल्लू लगातार फेल होता गया। हम सब क्लास दर क्लास ऊपर उठते गये। अंत तक गुल्लू ने पढाई छोड़ दी थी। चूकि गुल्लू को गाने सुनने का शौक था इसी शौक ने उसे टेपरिकाँर्डर की मरम्मत करने का मिस्त्री भी बना दिया था। सो वह धीरे-धोरे बिजली मिस्त्री बन गया और कई लोग अपने टेपरिकाँर्डर उसे सही कराने लगे थे। और यह वह समय था जब लोगों के पास मोबाईल डीवीडी नहीं हुआ करता था। एक दिन गुल्लू शायद टेपरिकाँर्डर का समान लेकर बाजार से वापस आ रहा था। तो रास्ते में उसने देखा कि एक घर धू-धू कर के जल रहा था। अंदर से कुछ लोगो की जिसमें बच्चे और स्त्री की रोने की आवाज आ रही थी। आस-पास सभी खड़े तमाशा देख रहे थे। गुल्लू ने आव देखा ना ताव उसने अपनी साइकिल वही फेंक दी। किसी सुपर मैन की तरह वह आग को चीरता हुआ अंदर छलांग लगा दिया। पलक झपकाते ही वह वापस किसी को गोद में लिए छलांग लगा कर बाहर आ गया। उसे जमीन पर लेटा दोबारा अंदर घुस गया। लोग झट से बाहर लाये बच्चे जिसकी उम्र मात्र सात साल की थी उसे देखने लगी। और चिल्लाने लगे, भाई डाक्टर के पास इसे ले चलो। गुल्लू छलांग लगाकर दोबारा वापस आ गया। फिर किसी को गोद में उठा कर लाया और उसे जमीन पर लेटा कर एक बार फिर अंदर घुस गया। मगर इस बार गुल्लू नहीं निकला था। सब यही सोच रहे थे फिर दोबारा गुल्लू वापस आयेगा। करीब पंद्रह मिनट तक गुल्लू नहीं निकला था। फायर दमकल आ गई उसने आग को करीब दस मिनट में बुझा लिया था। आग बुझने के बाद गुल्लू और एक स्त्री मृत अवस्था में मिली थी। गुल्लू को उठा कर वही पास के एक रूम में लेटा दिया गया था। वहाँ अच्छी खासी भीड़ लग गई थी। लोग आपस में खुसुर पुसुर करने लगे थे। कोई कह रहा,''लड़का अब जिन्दा नहीं है। हाँ अपने जान पर खेल कर दो बच्चों की जान बचा ली है। आज कल ऐसे बच्चे मिलना बड़ा मुश्किल है। जो दूसरों के लिए अपनी जान गवा दे। कुछ ऐसे भी लोग थे जो गुल्लू को जानते थे। वह कह रहे थे यह तो मनराज चौधरी का लड़का है। एक सज्जन ने पास खड़े एक व्यक्ति के कान में धीरे से कहा,''भाई अपनी जान दाव पर लगा कर आग में इस तरह घुस जाना भी कोई समझदारी है क्या? एक नम्बर का उल्लू था यह लड़का।'' अचानक से गुल्लू उठ कर बैठ गया किस मादर जात ने मुझे उल्लू कहा। उल्लू होगा तू तेरा खानदान। अचानक से सारे लोग वहां से छिटक गये। कुछ पीछे को गिर गये। वह व्यक्ति जिसने यह बात कही थी वहाँ से भाग लिया। उसके होश उड़ गये। उसके समझ में नहीं आया गुल्लू ने यह बात कैसे सुन ली। उस वक्त गुल्लू का चेहरा कुछ जला हुआ सा था जिससे वह और भयानक लग रहा था। लेकिन तब तक गुल्लू के माता पिता आ गये गुल्लू को अस्पताल लेकर चले गये।
 
कुछ दिनों तक कालोनी में शान्ति रही क्योंकि गुल्लू का टेपरिकार्डर नहीं बज रहा था। कितनों के टेपरिकाँर्डर गुल्लू के पास खराब बनने के लिये पड़े थे।
 
करीब पन्र्दह दिनों बाद एक दिन सुबह-सुबह कुछ लोगों को अखबार लेकर भागते हुए देखा। मैं समझ नहीं पाया की आज लोग बाग इस तरह अखबार लेकर क्यों भाग रहे हैं? अखबार तो मेरे घर भी आता था। मगर अभी तक मैंने अखबार देखा नहीं था। लेकिन इस तरह लोगों को देख मैंने भी अखबार उठा लिया था। उस दिन गुल्लू के बारे में अखबार में छपा था। गुल्लू को राज्य सरकार वीरता का सम्मान देने की खबर छपी थी। इस खबर से गुल्लू की चारों तरफ चर्चा होनी शुरू हो गई थी। जिससे सबके होश उड़ गये थे। मैंने भी गुल्लू को इसकी बधाई दी थी। लेकिन गुल्लू के पापा तो गुल्लू के इस तरह के किये काम से खासे नाराज थे। उनको लग रहा था कि जो मैं गुल्लू के बारे में सोचता था वह सही सोचता था गुल्लू सही में एक नम्बर का उल्लू का पट्ठा है। अपनी जान को इस तरह जोखिम में डाल दिया था। अगर उस दिन कुछ हो जाता तो क्या होता? उन्होंने गुल्लू को गाँव में भेजने की योजना बना ली थी।
आखिरी समय में गुल्लू मुझे इतना कह कर गया था,''यार मुझे याद रखना अगर ऑफिसर बन गये तो मुझे अपना चपरासी जरूर रख लेना।'' 
मैंने हँस कर गुल्लू से बस इतना कहा था,'' अरे यार इतना नाम कमाया तुमने सरकार ने तुम्हें वीरता का सम्मान दिया है नौकरी भी तुम्हें देगी।''
गुल्लू गाँव चला गया। आगे जो मुझे गुल्लू के बारे पता चला था। वह यह की गुल्लू का गाँव में मन नहीं लगा था। इस वजह से वह अपने गाँव के लड़के के साथ करीब गाँव से सौ किलोमीटर दूर एक प्राइवेट कम्पनी में इलैक्ट्रीशियन लग गया था। करीब साल भर बाद कम्पनी कर्मचारियों की छंटाई कर नई बहाली करने लगी थी। वह इस वजह से की वह पुराने कर्मचारियों को परमानेन्ट नहीं करना चाहती थी। और आगे चल कर कर्मचारी परमानेन्ट करने की डिमान्ड ना कर दे। इस पर सभी कर्मचारी एक जुट हो गये थे। गुल्लू कर्मचारियों का लीडर बन गया। कर्मचारियों के निकाले जाने पर वह बीच सड़क के चौराहे पर आमरण अनशन पर बैठ गया। करीब गुल्लू सप्ताह भर अनशन पर बैठा रहा। हर दिन अखबार में गुल्लू की खबर छपने लगी। अब गुल्लू की हेल्थ चेकअप के लिए स्वास्थ्य विभाग वाले आते और गुल्लू का स्वास्थ्य का चेकअप कर के चले जाते थे। अगले दिन गुल्लू की स्वास्थ्य की खबर भी छप जाती थी। कहते है उन दिनों कड़ाके की ठण्ड थी। मगर गुल्लू को ठण्ड की भी कोई परवाह नहीं थी। कर्मचारियों ने पैसे इक्टठे कर वहाँ टेन्ट लगा दिया । कम्बल बिछा दिये गये। कुछ लोग यह भी कह रहे थे। गुल्लू अनशन कर के शहीद हो जायेगा। कम्पनी के मालिक तो पैसा देकर प्रशासन तक को खरीद लेगा। मगर गुल्लू का अनशन जारी रहा। अब कुछ नेता भी अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने के लिए गुल्लू से मिलने आ गये। उन्होंने साफ-साफ कहा हम इस तरह कर्मचारियों का शोषण नहीं होने देंगे। और देखते ही देखते एक युवा नेता भी अनशन में बैठ गया था। फिर मैनेजमेन्ट के ऑफिसरों के पुतले फूंके जाने लगे थे। मैनेजमेन्ट भी धमकी देने लगी थी कि अगर यह मामला शांत नहीं हुआ तो हम अपना प्लान्ट उठा लेंगे। गुल्लू ने भी साफ कहा,''हम ऐसी धमकियों से नहीं डरेंगे।
अंत तक श्रम अधिकारी ने कम्पनी से बात कर के मामले को शांत किया ओर धीरे-धीरे कर के सभी कर्मचारियों को वापस ले लिया गया।
 
कहते हैं यही से गुल्लू की दोस्ती नेताओं से हो गर्इ्र थी। उसने पार्टी ज्वाइन कर ली थी। पार्टी की रैलियों जुलूसों में भी जाने लगा था। कही तो भाषण भी देने लगा था। गुल्लू की भाषण सुन पब्लिक खूब हंसती थी।
 
बस मुझे गुल्लू के बारे में यही तक पता चला था। उसके बाद मुझे गुल्लू के बारे में कुछ नहीं पता चला था।
काफी लम्बा समय बीत गया था। मैं एक रेलवे विभाग में अधिकारी के पद पर नौकरी कर रहा था। करीब पैंतालीस की मेरी उम्र हो गई थी। शायद मैं गुल्लू को भूल भी गया था। क्योंकि नौकरी के प्रेशर ने मुझे सब कुछ भुला सा दिया था। काम से आने के बाद में इतना थक जाता था कि मुझे कुछ होश नहीं रहता। दूसरा मेरे परिवार की परेशानी अलग से जो थी।
 
एक दिन जब मैं काम से घर वापस आया तो पत्नी ने कहा,'' आप का कोई खत आया है। चाय पीते समय मैंने खत को देखा, आश्चर्य की बात है यह खत और किसी का नहीं गुल्लू का था।
पत्र में लिखा था। कैसे हो मेरे दोस्त। ऑफिसर बन गये मुझे याद नहीं किया तुमने। खैर मैंने भी तो कोई पत्र तुम्हें नहीं लिखा। लेकिन अब तुम्हारी याद मुझे बहुत आ रही है। तुम्हारे साथ कुछ पल बिताना चाहता हूँ। कही दूर गुनगुनी धूप में बैठ कर बेर का आचार खाना चाहता हूँ।
 
हाँ एक खास बात मैं लोकसभा में आ गया हूँ। मैं तुम्हारा दोस्त गुल्लू सांसद हो गया हूँ। मैं चाहता हूँ। जीवन के आखिरी समय तक साथ मिलकर काम करे। क्या तुम मेरे साथ सेक्रेटरी के तौर पर काम कर सकते हो।
आशा है तुम मुझे ना नहीं करोगे। तुम्हारे इंतजार में तुम्हारा दोस्त।
 
पढ़कर एकबारगी मैं खुशी से भर गया था। मगर अगले पल मैं सोचने लगा अब गुल्लू बड़ा आदमी हो गया है। जब लोग बडे हो जाते तो उनके चेहरे में पट्टी बंध जाती है। हो सकता है उसने मुझे पत्र अपने बारे में बस बताने भर के लिए ही भेजा हो। मगर गुल्लू ने मुझे पत्र भेजा है। तो मैं उसे निराश नहीं करना चाहता था। सो में गिरते पड़ते गुल्लू के पास चला गया। जब में गुल्लू के ऑफिस के पास पहुँचा तो मुझे उसके दरबान ने रोक लिया था। मैं ने एक कागज की पर्ची दरबान को पकड़ा दी थी। दरबान पर्ची लेकर अंदर चला गया। मेरी सोच के विपरीत गुल्लू बाहर आया और मुझे गले लगाते हुए बोला' कहाँ थे मेरे दोस्त इतने दिन। और फिर उसने मुझसे कहा 'आज सब काम काज बंद आज हम सारा दिन तुम्हारे साथ बिताएंगे।
 
एक जगह जब हम दोनों बैठे हुए थे तो मैंने गुल्लू से पूछा यह सब कैसे हो गया गुल्लू। उसने मुझे कहा,''राजनीति में नहीं आता तो तुम्हारा दोस्त मारा गया होता। क्योंकि मेरे जान के कई लोग दुश्मन बन गये थे। इसलिये मुझे अपनी रक्षा के लिये राजनीति में आना बहुत जरूरी था।
मैं मन ही मन सोच रहा था। कहा गुल्लू हमेशा मुझे चपरासी की नौकरी के लिए कहता था। और आज वह मुझे अपना सेक्रेटरी बनने के लिए बुलाया है। ऐसा लग रहा था कि गुल्लू हर साल इम्तहान में पास होता गया था। मैं हर साल फेल होता गया था।
                                 परिंदे से साभार
सम्पर्क-विक्रम सिंह
        बी ब्लॉक-11, टिहरी  विस्थापित कालोनी, 
        ज्वालापुर,न्यू शिवालिक नगर, हरिद्वार,उत्तराखण्ड,249407
        मो.9012275039
        ई-मेलः bikram007.2008@rediffmail.com