मंगलवार, 30 जून 2015

लोक का आलोक- पहाड़ से : चिन्तामणि जोशी


एक

साहित्य की परिवर्तनकारी भूमिका पर चिन्तन-मनन एवं समकालीन कविता, कहानी एवं आलोचना पर गम्भीर चर्चा-परिचर्चा के उद्देश्य से देश के विभिन्न हिस्सों से प्रतिष्ठित कवियों, कथाकारों, आलोचकों व चित्रकारों का एक सप्ताह के लिए निजी संसाधनों से पिथौरागढ़ में जुटना, ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर पहाड़ की लोक संस्कृति और जीवन संघर्ष से अवगत होना और लोक जीवन तथा संस्कृति में आ रहे परिवर्तनों का अध्ययन करना सीमान्त पिथौरागढ़ के लिए तो एक ऐतिहासिक अवसर था ही, साहित्यकारों की लोक प्रतिबद्धता का भी अनूठा उदाहरण था। स्थानीय साहित्यकारों के ‘उत्तराखण्ड लोकतांत्रिक साहित्य-संस्कृति मंच, पिथौरागढ़’ की इस आयोजन के साथ उक्त से इतर भी एक सोच थी कि स्थानीय प्रतिभाओं को राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकारों से संवाद का अवसर मिलेगा, विभिन्न हिस्सों से आए साहित्यकार यहां के अनुभवों को लेकर लौटेंगे तो उन्हें अपनी रचनाओं में दर्ज करेंगे जिससे हमारे अंचल की नैसर्गिक सुषमा एवं सांस्कृतिक सम्पन्नता को पर्यटन के मानचित्र में एक नई पहचान मिल पाएगी और स्थानीय साहित्यकार संगठित होकर भविष्य में जनपद में बेहतर साहित्यिक वातावरण सृजित कर सकेंगे। सुखद है कि आयोजन की सफलता के साथ ही इस सोच की सार्थकता भी दिखाई देने लगी है।

08 जून 2015 को ठीेक 11.00 बजे पहाड़ी स्थापत्य कला में निर्मित ‘बाखली’ के वृहद् कक्ष में सात दिनी लोक-विमर्श शिविर का आरंभ 17,000 से अधिक चित्रों को अपनी तूलिका से सजा चुके चर्चित चित्रकार कुंवर रवीन्द्र की एकल चित्र एवं कविता-पोस्टर प्रदर्शनी के साथ होना अपने आप में एक रोमांचित करने वाला अनुभव था। उद्घाटन अवसर पर जैसे ही स्थानीय किसान श्री मोहन चन्द्र उप्रेती के हाथ में रिबन काटने के लिए कैंची दी गई और स्थानीय चित्रकार श्री ललित कापड़ी ने किसान के हाथ को सहारा दिया तो लोक-विमर्श लिखे लिफाफे का मजमून सबके लिए खुलता चला गया।

      ‘बाखली’ में 60 चित्रों से सजी जगमगाती चित्र वीथिका साहित्यकारों के साथ ही नगरवासियों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र बनी रही। 08 से 13 जून तक इसे देखने के लिए भीड़ जुटी रही। कला-साहित्य प्रेमियों, प्रिंट तथा इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथियों के साथ ही माध्यमिक विद्यालयों के विद्यार्थी समूहों एवं महाविद्यालय के विद्यार्थियों ने भी प्रदर्शनी का अवलोकन किया। धूमिल, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय, शील, मान बहादुर सिंह, केशव तिवारी, नवनीत पांडे, महेश पुनेठा, रेखा चमोली सहित हिन्दी के तमाम कवियों के कैनवास पर जीवन के विविध रंग बिखेरते शब्दों की तपिश सभी के अंतस तक पहुँच रही थी। शील की कविता ‘फिरंगी चले गए’ का पोस्टर हो या मान बहादुर सिंह की पंक्तियां- उनकी जिद वेद है/बाइबिल और कुरान है/उनकी जिद गोला और बारूद है; महेश पुनेठा कह रहे हों- ‘जिस वक्त में/कुचले जा रहे हैं फूल/मसली जा रही हैं कलियां/उजाड़े जा रहे हैं वन कानन/वे विमर्श कर रहे हैं/फूलों के रंग- रूप पर’ या फिर धूमिल की ‘अंतर’ हो-‘कोई पहाड़/संगीन की नोक से बड़ा नहीं है/और कोई आंख छोटी नहीं है समुद्र से/यह केवल हमारी प्रतीक्षाओं का अंतर है/जो कभी हमें लोहे या कभी लहरों से जोड़ता है’-सहज ही दिल-दिमाग-दृष्टि पकड़ रहे थे। लोग बरबस ठहर रहे थे। सोच रहे थे। चित्रों में प्रदर्शित स्याह-धूसर रंग पर बातें कर रहे थे। इनमें उन्हें जीवन का संघर्ष दिख रहा था सो ये चित्र लोगों को उदास कतई नहीं कर रहे थे।

      बाद में डॉ0 जीवन सिंह ने कुछ चित्रों की काली पृष्ठभूमि को उद्धृत करते हुये अपने ब्याख्यान में कहा कि हमारे जीवन में अंदर तक पुत चुका काला रंग वास्तव में चिन्ता का विषय बन चुका है। फतेहपुर से आये साहित्यकार प्रेमनन्दन का कहना था कि कुंवर रवीन्द्र के कविता-पोस्टर, कविता की प्रभावशीलता को बहुगुणित कर देते हैं। शब्दों में निहित ताप जब कैनवास पर रंगों को तपाता है तो मानो कविता में बिम्ब खिल-खिल उठते हैं और उनकी तपिश महसूस की जा सकती है।

      चित्र प्रदर्शनी ने स्थानीय मीडिया का ध्यान भी बखूबी आकृष्ट किया। जहां एक ओर इलेक्ट्रानिक मीडिया के विजयवर्धन, मंकेश पंत आदि रवीन्द्र जी से संवाद करते देखे गये तो अमर उजाला ने लिखा- यह प्रदर्शनी कला और कविता को जोड़ने का प्रयास है जो लोगों को सच्चाई का बोध कराती है। दैनिक जागरण के अनुसार प्रदर्शनी कलात्मक एवं सृजनात्मक दोनों पक्षों को आवाज देने में सफल रही और दैनिक हिन्दुस्तान ने इस प्रदर्शनी को साहित्य के विद्यार्थियों के लिए बेहद उपयोगी बताया।
      

वरिष्ठ श्रमजीवी पत्रकार श्री बद्री दत्त कसनियाल की अध्यक्षता एवं स्थानीय कवि चिन्तामणि जोशी के संचालन में सम्पन्न द्वितीय सत्र में कवि-आलोचक महेश चन्द्र पुनेठा ने शिविर में प्रतिभाग कर रहे साहित्यकारों का साहित्यिक परिचय देते हुए शिविर की रूपरेखा प्रस्तुत की। हमीरपुर से आये युवा कवि-समीक्षक अनिल अविश्रान्त ने महानगर केन्द्रित छद्म साहित्यिक गतिविधियों एवं साहित्यकारों के नैतिक अवमूल्यन को साहित्य द्वारा परिवर्तनकारी भूमिका न निभा सकने का कारण बताया। इस अवसर पर मुख्य वक्ता अलवर से आये वरिष्ठ आलोचक डॉ0 जीवन सिंह का ‘‘साहित्य की परिवर्तनकारी भूमिका’’ पर लगभग सवा घंटे का व्याख्यान बहुत उपयोगी एवं जानकारीपरक रहा। उन्होंने कहा- सत्ता(राजा) के प्रभाव में रचे गए साहित्य ने सदैव साहित्यकार को ही नहीं समाज को भी पीछे धकेला है। इससे समाज स्वजीवी के वजाय परोपजीवी बना है। जो साहित्यकार जीवन के जितना पास रहेगा, जिन्दगी की जितनी अधिक चिन्ता करेगा, वह उतना ही बड़ा साहित्यकार बनेगा। मुक्तिबोध को याद करते हुए उन्होंने कहा कि हमारी कविता को फैलना जरूरी है। कबीर और तुलसी के सृजन से उन्होंने  साहित्य की परिवर्तनकारी भूमिका के विविध स्वरूपों को स्पष्ट किया। साहित्यकारों एवं मसिजीवियों से उन्होंने अपेक्षा की कि उन्हें अपने प्रति निरंतर असुविधाजनक प्रश्न उठाने चाहिए। पढ़ा-लिखा वर्ग परिवर्तनकारी भूमिका में हो न कि लुटेरी। संवाद प्रक्रिया में वरिष्ठ आलोचक ने युवा रचनाकारों दिनेश चन्द्र भट्ट, आशा सौन, विनोद उप्रेती आदि की शंकाओं का समाधान करते हुए कहा कि यदि सामाजिक समानता, स्वतंत्रता एवं मूल्यों को केन्द्र में रखकर साहित्य सृजन किया जाय तो वह परिवर्तनकारी भूमिका निभा सकता है।

      अध्यक्षीय संबोधन में श्री बद्री दत्त कसनियाल ने आदमी और आदमी के बीच भेद पैदा करने वाली सृजन धारा की कठोर निन्दा की। उन्होंने कहा कि जिन साहित्यकारों को हमारी भावी पीढ़ी अपने पाठ्यक्रम में पढ़ती-समझती है उन्हें अचानक अपने मूल्य परिवर्तित कर सत्ता से बड़े-बड़े पुरस्कार प्राप्त करते देखना बहुत दुखद होता है। रचनाकार का जीवन एवं रचनाकर्म ऐसा हो कि अध्येता उसे लीक से हटकर देखें।
लोक-विमर्श में कुंवर रवीन्द्र और उनके कविता-पोस्टरों ने जहां  शिविर को एक विशिष्ट ऊंचाई प्रदान की वहीं डॉ0जीवन सिंह और श्री कसनियाल के उद्बोधन ने एक संतुलित गहराई का अहसास कराया। कहा जा सकता है कि एक अच्छे आरंभ ने पहले ही दिन कार्यक्रम को एक बेहतरीन दिशा प्रदान की।

दो
9 जून को प्रातः विभिन्न प्रांतों से आए 19 साहित्यकारों के दल का राजकीय इण्टर कालेज देवलथल पहुँचने पर बाराबीसी उत्थान समिति, स्थानीय जनता तथा विद्यार्थियों द्वारा उत्साहपूर्वक स्वागत किया गया। परिचयादि संक्षिप्त औपचारिकताओं के पश्चात् साहित्यकारों ने रचना प्रक्रिया पर बच्चों के साथ विस्तार से चर्चा-परिचर्चा की एवं उनकी जिज्ञासाओं को शांत किया। भोजन के उपरांत साहित्यकारों ने आस-पास के गाँवों का भ्रमण कर ग्रामीणों से संवाद किया। इस दौरान उन्होंने ग्राम्य जीवन, रहन-सहन, खान-पान, संस्कृति-परंपरा आदि को नजदीक से जानने-समझने का प्रयास किया। एक विवाह समारोह में पारंपरिक छलिया लोक नृत्य का आनन्द लिया। हल-बैल, खेत-बटिया, हिसालू-किरमोड़ा, धारा-नौला-डिग्गी से साक्षात्कार किया।

तीन
10 जून को आचार्य उमाशंकर सिंह परमार ने लोक के आलोक में प्रथम सत्र की भूमिका प्रस्तुत की और ‘‘साहित्य की लोकधर्मी चेतना’’ पर डॉ0 जीवन सिंह का व्याख्यान हुआ। श्री सिंह ने स्पष्ट किया कि लोकधर्मी चेतना के साथ सृजित साहित्य जीवन के बहुत बड़े और विस्तृत फलक पर अंकित साहित्य है। रीति कविता एक सिमटी-सिकुड़ी दुनियां की कविता है जबकि उससे ठीक पहले की भक्ति कविता में केवल राजा का ही नहीं प्रजा का जीवन भी उतनी ही महिमा और महत्व के साथ चित्रित है। श्री सिंह ने संस्कृति को संवारने में पहाड़ों की भूमिका का उल्लेख करते हुए कहा कि पहाड़ ही नदियों के जनक हैं और नदियों के परितः ही साहित्य, संस्कृति व सभ्यता विकसित हुई है। 

द्वितीय सत्र में श्री रमेश भट्ट की अध्यक्षता एवं मृदुला शुक्ला के संचालन में केशव तिवारी, महेश पुनेठा, प्रेम नंदन, चिन्तामणि जोशी, मृदुला शुक्ला, रश्मि भारद्वाज, कुंवर रवीन्द्र, अनिल अविश्रांत, जनार्दन उप्रेती, नवनीत पांडे, आशा सौन, जयमाला देवलाल एवं प्रकाश जोशी ने अपनी पांच-पांच कविताओं का पाठ किया।

राजकुमार राकेश की अध्यक्षता में तृतीय सत्र में कविताओं की समीक्षा की गई। डॉ0 जीवन सिंह ने समीक्षा सत्र का प्रारंभ करते हुए कहा कि ज्यादातर कविताएं सामान्य जमीन पर लिखीं गईं हैं। कवि की अपनी विशिष्ट जमीन होनी चाहिए। आलोचक आपकी कविता में जिन्दगी को तौलता है। आज के कवि कविता के डिक्शन पर कम मेहनत करते हैं। निराला का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि जिसको कवित्त छंद का अभ्यास होगा वह ही मुक्त छंद में रचना कर सकता है।

अजीत प्रियदर्शी, उमाशंकर परमार एवं संदीप मील ने भी पढ़ी गई कविताओं की अलग-अलग समीक्षा प्रस्तुत की। अजीत प्रियदर्शी का मत था-आज कविता एक खास तरह के फॉर्मेट में जकड़ गई है। लगभग एक जैसी भाषा एक जैसा शिल्प उस पर विषय की एकरूपता सब कुछ एक कर देती है। यही कारण है कि हर कविता पहले की कविता का दोहराव नजर आती है। संभावनाशील कवियों के लिए यह सत्र महत्वपूर्ण साबित हुआ।

चार
11 जून का प्रथम सत्र वरिष्ठ कथाकार राजकुमार राकेश की अध्यक्षता में कथा साहित्य पर चर्चा-परिचर्चा का रहा। आउटलुक पत्रिका के श्री भूपेन सिंह इस सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे।  राजकुमार राकेश के उपन्यास कन्दील पर चर्चा की गई। अजीत प्रियदर्शी ने कहा- कन्दील आजाद हिन्दुस्तान की दर्दनाक गाथा है। शिवेन्द्र और संदीप मील ने बहुत प्रभावशाली ढंग से अपनी-अपनी कहानियों का पाठ किया। संवादों के माध्यम से कहानी के पात्रों का लोक जीवन एक बारगी शिविर में सजीव हो उठा। अजीत प्रियदर्शी, उमाशंकर परमार एवं राजकुमार राकेश ने पढ़ी गई कहानियों पर परिचर्चा की। अजीत प्रियदर्शी ने कहा-संदीप मील की कहानियां डायलैक्टिक नजरिए से व्यवस्था का मूल्यांकन हैं। ये फिरकापरस्ती के खिलाफ संदेश देती हैं। राजकुमार राकेश ने कहा- संदीप मील की कहानियों को आवारा पूंजी व सत्ता के गठजोड़ से तथा साम्प्रदायिक एजेण्डे से जोड़कर देखा जाना चाहिए।

द्वितीय सत्र में महेश पुनेठा के संचालन में दीवार पत्रिका अभियान पर चर्चा हुई। श्री पुनेठा ने बच्चों की रचनात्मकता को मंच देने एवं उनकी भाषायी दक्षता बढ़ाने के उद्देश्य से विद्यालयों में प्रारंभ किए गए नवाचारी दीवार पत्रिका अभियान की जानकारी साहित्यकारों को दी। असिस्टेंट प्रोफेसर विधांशु कुमार के साथ साहित्यकारों ने विद्यार्थियों द्वारा तैयार दीवार पत्रिकाओं का अवलोकन किया। दीवार पत्रिका पर साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएं अभियान को ऊर्जा प्रदान करने वाली हैं। बांदा से आए नारायण दास ने कहा- दीवार पत्रिका में अपने क्षेत्र की संस्कृति पर बच्चों का लेखन बहुत प्रभावित करता है। दिल्ली की रश्मि भारद्वाज ने इसे रचनात्मकता के विकास के लिए बेहतरीन प्रयास बताया तो फतेहपुर से पधारे प्रेमनंदन ने लिखा- दीवार पत्रिका बच्चों को सृजनशील, संवेदनशील, कर्मठ एवं जिम्मेदार बनाने का एक सार्थक प्रयास है। हमीरपुर डिग्री कालेज के असिस्टेंट प्रोफेसर अनिल अविश्रांत अपनी प्रतिक्रिया में लिखते हैं कि यह कार्य विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम से इतर भी बहुत कुछ पढ़ने-समझने का अवसर प्रदान करता है। बीकानेर के नवनीत पांडे ने दीवार पत्रिका अभियान को आज के कठिन समय में बहुत जरूरी और प्रासंगिक बताया। उल्लेखनीय है कि विद्यालयों में दीवार पत्रिका के नवाचार को वर्ष 2013 में  पिथौरागढ़ जनपद के नवाचारी शिक्षकों चिन्तामणि जोशी, राजीव जोशी, योगेश पांडेय ने शिक्षक एवं ‘शैक्षिक दखल’ के संपादक महेश चन्द्र पुनेठा के मार्ग निर्देशन में एक अभियान के रूप में प्रारंभ किया था। वर्तमान में यह अभियान सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में प्रसार पाते हुए देश के विविध हिस्सों से होते हुए मलेशिया तक जा पहुँचा है। प्रशिक्षण संस्थानों, महाविद्यालयों सहित लगभग 500 विद्यालयों से नियमित दीवार पत्रिकाएं निकल रहीं हैं। महेश चन्द्र पुनेठा द्वारा लिखित एवं लेखक मंच प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक ‘‘दीवार पत्रिका एवं रचनात्मकता’’ के आने के बाद इस अभियान में सहज ग्राह्यता एवं गतिशीलता आई है। इस शिविर के माध्यम से चूंकि साहित्यकार भी इस अभियान में शामिल हो रहे हैं। आशा की जा सकती है दीवारें साहित्यकारों की नई पीढी को तैयार करेंगी।

पांच
11 जून की रात भोजनोपरांत 11.00 बजे बाद साहित्यकार साथियों द्वारा रंगमंच से जुड़े कवि नवनीत की कविताओं पर परिचर्चा शायद उस सपने की तरह थी जिसे हम नींद में तो नहीं देखते, पर जो हमें सोने भी नहीं देता। बहरहाल 12 जून को प्रातः तड़के ही साहित्यकारों का दल शैक्षिक दखल के साथी श्री राजीव जोशी के मार्गदर्शन में मुनस्यारी की ओर रवाना हो गया। इस यात्रा में जहां एक ओर साहित्यकारों को हर मोड़ पर पहाड़ के समृद्ध प्राकृतिक सौन्दर्य से दो-चार होने का अवसर मिला वहीं मुनस्यारी पहुँचने पर उन्हें स्थानीय लोक कलाकारों से संवाद एवं लोक गीतों का आनन्द उठाने का अवसर भी प्राप्त हुआ। मुन्स्यारी में साहित्यकारों  ने श्री शेर सिंह पांगती के ट्रायबल हैरीटेज म्यूजियम पहुँचकर जोहार-मुनस्यार की लोक संस्कृति पर विस्तृत जानकारी एकत्र की एवं सायंकालीन सत्र में  जोहार लोक कला एवं भाषा पर परिचर्चा की।

छः
शिविर के समापन दिवस 13 जून को साहित्यकारों ने मुनस्यारी से पिथौरागढ़ पहुँचकर स्थानीय मिशन इण्टर कॉलेज में दोपहर 1.00 बजे से 3.00 बजे तक अपने श्वििर अनुभवों पर आधारित दीवार पत्रिकाएं लोक-विमर्श - 1 , 2 एवं 3 तैयार कीं जो कि लोक-विमर्श: 1 के महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में संरक्षित की जाएंगी।

लोक-विमर्श: 1 का समापन सत्र सायं 4.00 बजे से स्थानीय जिला पंचायत सभागार में सम्पन्न हुआ। जनकवि जनार्दन उप्रेती एवं उमाशंकर परमार के संचालन में रात्रि 9.00 बजे तक चली काव्य संध्या में 30 कवियों ने कविताओं के माध्यम से अपने-अपने लोक के रंग बिखेर कर श्रोताओं को आनन्दित किया। कवियों ने तमाम सामाजिक विसंगतियों एवं कुरीतियों पर भी तंज कसे। वरिष्ठ कवियों केशव तिवारी, नवनीत पांडे, महेश पुनेठा के साथ कुंवर रवीन्द्र, मृदुला शुक्ला, रश्मि भारद्वाज प्रेम नन्दन, प्रद्युम्न कुमार, चिन्तामणि जोशी, गिरीश पांडेय ‘प्रतीक’ आशा सौन, अनिल कार्की,प्रमोद श्रोत्रिय, प्रकाश जोशी ‘शूल’, विक्रम नेगी ने हिन्दी कविताएं पढ़ीं तो जनार्दन उप्रेती ‘जन्नू दा’ व प्रकाश चन्द्र पुनेठा ने कुमांऊनी कविताओं एवं नवीन गुमनाम, प्रो0 आशुतोष, बी0 एल0 रोशन ने गजल से समां बांधा। समापन सत्र के मुख्य अतिथि वरिष्ठ कहानीकार राजकुमार राकेश ने लोक-विमर्श शिविर को सफल बताते हुए उत्तराखण्ड लोकतांत्रिक साहित्य-संस्कृति मंच पिथौरागढ़ का आभार ज्ञापित करते हुए कहा कि यह लोक-विमर्श यात्रा रचनाकारों एवं समाज के लिए भविष्य में मील का पत्थर साबित होगी। मंच के संयोजक जनार्दन उप्रेती ने शिविर की सफलता में सहयोग के लिए नगर के साहित्य प्रेमी नागरिकों, मीडिया तथा सभी सहयोगियों के प्रति आभार ज्ञापित किया। अध्यक्षीय संबोधन में वरिष्ठ कवयित्री डॉ0 आनन्दी जोशी ने अतिथि साहित्यकारों के प्रति आभार ज्ञापित करते हुए कहा कि कवि महेश पुनेठा के समन्वयन में सभी के सहयोग से सृजन यात्रा चल पड़ी है जो अनवरत चलती रहेगी और वरिष्ठ साहित्यकारों के सान्निध्य में नवोदित रचनाकारों का शिल्प और उनकी कला भी विकसित होती रहेगी। संवाद बनाये रखने एवं पुनः मिलने के संकल्प के साथ यह एक शुरूआत थी - उस यात्रा की - जिसमें अनवरत तलाशा जाएगा- लोक का आलोक.....

                               : चिन्तामणि जोशी:
                                  संयोजक सचिव
               उत्तराखण्ड लोकतांत्रिक साहित्य-संस्कृति मंच, पिथौरागढ

                             संपर्कः ‘देवगंगा’ जगदम्बा कॉलोनी,
                                     पिथौरागढ़-262501
                              संपर्क सूत्र - 9410739499 

रविवार, 7 जून 2015

डॉ. राकेश जोशी की पाँच ग़ज़लें




                                                   9 सितम्बर, 1970

  अंग्रेजी साहित्य में एम. ए., एम. फ़िल., डी. फ़िल. डॉ. राकेश जोशी मूलतःराजकीय महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड में अंग्रेजी साहित्य के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इससे पूर्व वे कर्मचारी भविष्य निधि संगठन,श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के तौर पर मुंबई में पदस्थापित रहे. मुंबई में ही उन्होंने थोड़े समय के लिए आकाशवाणी विविध भारती में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया. उनकी कविताएँ अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई हैं. छात्र जीवन के दौरान ही उन्होंने साहित्यिक पत्रिका "लौ" का संपादन भी किया. उनकी एक काव्य-पुस्तिका "कुछ बातें कविताओं में" तथा एक ग़ज़ल संग्रह 'पत्थरों के शहर में' "यथार्थ प्रकाशन", नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. साथ ही, उनकी हिंदी से अंग्रेजी में अनूदित एक पुस्तकद क्राउड बेअर्स विटनेसभी देहरादून से प्रकाशित हुई है.






 डॉ. राकेश जोशी की पाँच ग़ज़लें
1
 
आज फिर से भूख की और रोटियों की बात हो
 खेत से रूठे हुए सब मोतियों की बात हो

जिनसे तय था ये अँधेरे दूर होंगे गाँव के
 अब अँधेरों से कहो उन सब दियों की बात हो

इक नए युग में हमें तो लेके जाना था तुम्हें
इस समुन्दर में कहीं तो कश्तियों की बात हो

जो तुम्हारी याद लेकर आ गई थीं एक दिन
 धूप में जलती हुई उन सर्दियों की बात हो

जिनको तुमने था उजाड़ा कल तरक्की के लिए  
आज फिर उजड़ी हुई उन बस्तियों की बात हो

ज़िक्र जब भी जंगलों का, आँसुओं का, आए तो
 पेड़ से टूटी हुई सब पत्तियों की बात हो

2
 
जैसे-जैसे बच्चे पढ़ना सीख रहे हैं
 हम सब मिलकर आगे बढ़ना सीख रहे हैं

पेड़ों पर चढ़ना तो पहले सीख लिया था  
आज हिमालय पर वो चढ़ना सीख रहे हैं

भूख मिटाने को खेतों में जो उगते थे
गोदामों में जाकर सड़ना सीख रहे हैं

कहाँ मुहब्बत में मिलना मुमकिन होता है
 इसीलिए हम रोज़ बिछड़ना सीख रहे हैं

नदी किनारे बसना सदियों तक सीखा था  
गाँवों में अब लोग उजड़ना सीख रहे हैं

धूप निकल कर फिर आएगी इस धरती पर  
दुनिया को हम लोग बदलना सीख रहे हैं

3

 जब हकीक़त सामने है क्यों फ़साने पर लिखूँ
ये है बेहतर, दर्द में डूबे ज़माने पर लिखूँ

खेत पर, खलिहान पर, मैं भूख-रोटी पर लिखूँ
 बंद होते जा रहे हर कारखाने पर लिखूँ

फूल, भँवरे और तितली की कहानी छोड़कर  
आदमी के हर उजड़ते आशियाने पर लिखूँ

ख़त्म होते जा रहे रिश्तों के आँसू पर लिखूँ  
आदमी को रौंदकर पैसे कमाने पर लिखूँ

याद तुमको क्यों करूँ मैं, और क्यों करता रहूँ
 इक कहानी अब मैं तुमको भूल जाने पर लिखूँ

जिसकी सूरत रात-दिन अब है बिगड़ती जा रही
मैं उसी धरती को अब फिर से सजाने पर लिखूँ

बस्तियों में आम लोगों की गरीबी देखकर  
कुछ घरों में क़ैद मैं सबके ख़ज़ाने पर पर लिखूँ

सोचता हूँ, तेरे जाने का कोई न ज़िक्र हो 
एक दिन एक गीत तेरे लौट आने पर लिखूँ

4
 
अब उजालों से कोई आता नहीं है
 भीड़ में भी कोई चिल्लाता नहीं है

मैं कभी डरता नहीं हूँ भीगने से
सर पे कोई छत नहीं, छाता नहीं है

जिन किताबों में गरीबी मिट गई है

उन किताबों से मेरा नाता नहीं है

बिल्लियों के संग वो पाला गया है
 शेर होकर भी वो गुर्राता नहीं है

डाँटते हैं सब नदी को ही हमेशा  
बादलों को कोई समझाता नहीं है

इस जगह तुम ज़िंदगी को ख़त्म समझो
इससे आगे रास्ता जाता नहीं है

5
 
जो ख़बर अच्छी बहुत है आसमानों के लिए  
वो ख़बर अच्छी नहीं है आशियानों के लिए  

इस नए बाज़ार में हर चीज़ महंगी हो गई  
बीज से सस्ता ज़हर है पर किसानों के लिए

भूख से चिल्लाए जो वो, खिड़कियाँ तू बंद कर
 शोर ये अच्छा नहीं है तेरे कानों के लिए

हक़ की बातें करने वालों के लिए पाबंदियाँ  
और सुविधाएं लिखी हैं बेज़ुबानों के लिए

अब नए युग की कहानी में नहीं होगी फसल
खेत सारे बिक गए हैं अब मकानों के लिए

पेट भरने के लिए मिलती नहीं हैं रोटियाँ  
खूब ताले मिल रहे हैं कारखानों के लिए


सम्पर्क: डॉ. राकेश जोशी असिस्टेंट प्रोफेसर )अंग्रेजी (

राजकीय महाविद्यालय, डोईवाला
देहरादून, उत्तराखंड
फ़ोन: 08938010850 ईमेल: joshirpg@gmail.com

सोमवार, 18 मई 2015

शिरोमणि महतो की दो कविताएं

 हम झारखण्ड के युवा कवि शिरोमणि महतो की कविताएं प्रकाशि कर रहे हैं। झारखण्ड में जीवन&यापन करते हुए वहाँ की जनपदीय सोच को अभिव्यक्त करना जोखिम भरा काम है। हमने शिरोमणि महतो की उन कविताओं को तरजीह दी है। जिसमें उनका जनपद] उनका परिवेश  मुखर होता है। बेशक अपने परिवेश के शिरोमणि महतो अच्छे प्रवक्ता हैं। इस उत्तर आधुनिक समय में झारखण्ड और वहां की चिन्ताएं विश्व&पटल पर रखने का कौशल शिरोमणि महतो में है। वह बड़ी बारीकी से आस&पास विचरण करते समय की चुनौतियों को महसूस करते हैं और अपनी जिम्मेदारियां समझते हैं कि ऐसे कठिन समय में एक लोकधर्मी कवि की क्या भूमिका होनी चाहिएA
 
शिरोमणि महतो की दो कविताएं--

कर्म और भाग्य

जिसका भाग्य साथ होता
उसके साथ लागू होता-
न्यूटन का तृतीय गति-सिद्धांत
कर्म के बराकर मिलता-फल

जिसका भाग्य मंद होता
उसके कर्म का भी फल मिलता
जैसे एक कड़ाही साग
सीझने के बाद बचता-एक कलछुल !

और जिसका भाग्य तेज होता
उसका कर्म-फल गई गुना अधिक होता
जैसे एक पैला चावल
खदककर हो जाता-एक डेगची भात !



 














औरतें

किसी दूसरे ग्रह से
नहीं आती आरतें
सबके घरों में होती हैं
द्वार की तरह....
भीतर जीवन का सार
और बाहर अनंत बिस्तार

औरतें हमारे लिए
दोनो हैं-उत्पाद और उत्पादक

सभी औरतें
एक जैसी नहीं होतीं
वे सभी क्षेत्रों में
दो धु्रवों में खड़ी दिखती
हैं....

कुछ औरतें
सींच रही हैं-
जीवन की जड़ो को
अपनी गोद में
खिला रही हैं-सृष्टि  को !

और कुछ औरतें
अपने उन्नत उरोजों से
उठा लेना चाहती है-
समूचा ब्रह्माण्ड !

औरतें-
चुनौती बनती जा रही हैं
औरतों के लिए....!



 



















शिरोमणि महतो
शिक्षा-  - एम हिन्दी

सम्प्रति-  - अध्यापन एवं महुआ पत्रिका का सम्पादन

प्रका- - - कथादेश, हंस, कादम्बिनी, पाखी, वागर्थ, कथन, समावर्तन, पब्लिक एजेन्डा, समकालीन भारतीय साहित्य, सर्वनाम, युद्धरत आम आदमी, शब्दयोग, लमही, पाठ, पांडुलिपि, हमदलित, कौशिकी, नव निकश, दैनिक जागरण पुनर्नवा विशेषांक ,दैनिक हिन्दुस्तान, जनसत्ता विशेषांक, छपते-छपते विशेषांक, राँची एक्सप्रेस, प्रभात खबर एवं अन्य दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

पता- - - नावाडीह बोकारो झारखण्ड -829144

                         मोबाईल-09931552982

शनिवार, 9 मई 2015

साहित्यिक संगोष्ठी के बहाने मारीशस की यात्रा : गोवर्धन यादव



                                                     
हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं उन्नयन के लिए अग्रणीय अभ्युदय बहुउदेशीय संस्था, वर्धा द्वारा लघुभारत कहे जाने वाले मारीशसकी  पांच दिवसीय सदभावना यात्रा (24 मई से 28 मई 2014)  मुबंई के छत्रपति शिवाजी अंतरराष्ट्रीय एअरपोर्ट से शुरु हुई. बावन सदस्यों का एक दल रवाना हुआ जिसमें देश के ख्यातिलब्ध लेखक, कवि, कथाकार, पत्रकार, कलाकार ,संपादक ,प्राध्यापक आदि शामिल थे.
 28  मई 2014 को कोस्टल रोड पर स्थित कोलोडाइन सूर मेर होटल के भव्य सभागार में मारीशस के कला-संस्कृति मंत्री मान.श्री मुखेश्वर चुनीजी, महात्मा गांधी इन्स्टिट्युट की निदेशक डा.श्रीमती व्ही.डी.कुंजलजी,  केन्द्रीय हिंदी सचिवालय के निदेशक मान. डा गंगाधरसिंह सुकलालगुलशन, हिन्दी स्पिकिंग यूनियन के अध्यक्ष श्री राजनारायण गति, महात्मा गांधी इन्स्टि.में हिन्दी भाषा प्रमुख डा.श्रीमती अलका धनपत को, संस्था के अध्यक्ष श्री वैद्यनाथ अय्यर ने सूत की माला पहनाकर भावभीना स्वागत किया.
द्वितीय चरण में साहित्यकार गोवर्धन यादव( संयोजक म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,जिला इकाई छिन्दवाडा-म.प्र.), समिति सचिव श्री नर्मदाप्रसाद कोरी (छिन्दवाडा-म.प्र), शरद जैन(खण्डवा म.प्र,) संतोष परिहार(बुरहानपुर-म.प्र.), अतुल पाठक(सुरत), डा,वंदना दीक्षित(नागपुर), डा अनंतकुमार नाथ,(तेजपुर), डा.मधुलता व्यास (नागपुर), डा ऊषा श्रीवास्तव(बंगलुरू), डा.मफ़तलाल पटेल(अहमदाबाद), डा.पी.सी.कोकिला(अमरावती), ,डा.वामन गंधारे(अमरावती), डा.शंकर बुंदेले(अमरावती), श्रीमती सुजाता सुर्लकर(मडगांव-गोवा), विकास काले(वर्धा), सुश्री हिना शाहा(अहमदाबाद) एवं पांडूरंग भालशंकर(वर्धा) ने हिंदी से संबंधित विभिन्न विषयों पर आलेख का वाचन किया.
तीसरे चरण में मारीशस के कला एवं संस्कृति मंत्री माननीय श्री मुखेश्वर मुखी द्वारा उपरोक्त सभी साहित्यकारों को सूत की माला पहनाकर स्वराजप्रसाद त्रिवेदी हिन्दी सेवी सरस्वती सम्मान से सम्मानित किया.
कार्यक्रम के चौथे चरण में मारीशस के ख्यातिलब्ध साहित्यकारों- श्री राज हीरामन, रामदेव धुरंधर, प्रल्हाद रामशरण, इंद्रदेव भोलानाथ, श्रीमती उमा बासगीत ,हनुमान दुबे गिरधारी, धनराज शंभु, डा. विनोदबाला अरूण, सूर्यदेव सिबोरत, एवं डा.रशमी रामधोनी को सूत की माला पहनाकर, श्रीफ़ल देकर सम्मानीत किया. इसी श्रृंखला में काव्य-गोष्ठी का भी आयोजन किया गया था, देर रात तक चले इस कार्यक्रम में मारीशस तथा भारत के कवियों ने अपनी उत्कृष्ठ रचनाओं का पाठ किया
काव्यपाठ कर रहे मारीशस के लब्ध प्रतिष्ठित कवियों की रचनाओं में तथाकथित सत्ताधारियों की क्रूरता, अन्याय, शोषण की व्यथा-कथा परिलक्षित होती थी और साथ ही उनके चेहरे पर दिपदिपाता दीखता है भारतीय होने का आत्मगौरव वाला चटकीला-चमकीला रंग.
1967 को देश में हुए आम चुनाव के बाद हुई उदघोषणा के ठीक पच्चीस बरस बाद यानि 12  मार्च 1992  को मारीशस पूर्णरूप से गणराज्य हो पाया था. इन तिथि से पूर्व, गिरमिटिया अथवा बंधुआ मजदूर कहलाए जाने वाले भारतीय, कभी पुर्तगाली, कभी डच कभी फ़्रेंच, तो कभी ब्रिटिश सत्ताओं के दमनचक्र मे पिसते रहे, तो कभी  क्रूरता, अन्याय और शोषण को सहन करते हुए उन्होंने न तो अपना सर झुकाया और न ही अपना निज.खोया और न ही अपना सम्मान. यहाँ तक कि अपने भारतीय होने के गौरव को, न तो कभी झुकने दिया और न ही उस पर आँच आने दी. यह सब इसलिए संभव हो सका क्योंकि वे अपने साथ भारतीय संस्कृति की अमरबेल, भग्वद्गीता, रामायण, रामचरित मानस और, सुखसागर सरीखे पवित्र और अमर ग्रंथों को साथ लेकर जो गए थे.
मानव संसाधन संग्रहालय के निदेशक डा.श्री देव काहुलेकरजी संग्रहालय में उपलब्ध सभी दस्तावेजों और अन्य सामग्रियों को, जिसे वे (मजदूर) अपने साथ लेकर गए थे, पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए, उन तमाम चीजों को बडॆ गौरव के साथ दिखलाते चलते हैं. अपने अतीत को संग्रहीत करना और उस पर  गौरवान्वित होना, आज की इस पीढी से सीखा और समझा जा सकता है. आज उन भारतीयों ने अपने दमखम पर मारीशस को स्वर्ग सदृष्य बनाया है, जिसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है.

यात्रा को यादगार और ऎतिहासिक बनाने में मारीशस के राष्ट्रपति महामहिम श्री कैलाश प्रयाग के साथ भेंट वार्ता और सामुहिक फ़ोटॊग्रुप महत्वपूर्ण रहे.
 इस ऎतिहासिक पल को सुगम और सुलभ बनाने में डा.अलका धनपत ,श्री राजनारायण गति एवं श्री राज हीरामन के सहयोग को कैसे विस्मृत किया जा सकता है?
इससे पूर्व डा.अलका धनपत ने विश्व हिन्दी सचिवालय की निदेशक श्रीमती कुंजलजी से सौजन्य भेंट करवायी थी. सचिवालय के वाचनालय के लिए मैंने अपना कहानी संग्रह तीस बरस घाटी, हिन्दी भवन भोपाल के मंत्री-संचालक श्री कैलाशचंद्र पंत की कृति संस्कार,संस्कृति और समाज, निदेशक डाकघर श्री कृष्णकुमार यादव एवं उनकी पत्नि श्रीमती आकांक्षा यादव की कृति अभिलाषा, सोलह आने सोलह लोग, जंगल में क्रीकेट, चांद पर पानी, डा.कौशलकिशोर श्रीवास्तव की कृति आए न बालम की प्रतियाँ भेंट की. उन्होंने बडी शालीनता के साथ इस भेंट को यह कहते हुए स्वीकारा कि उन्हें वे वाचनालय को सौंप देगी, ताकि यहाँ के लोग इन साहित्यिक कृतियों को पढ सकेंगे.
 उन पलों को भी कैसे विस्मृत किया जा सकता है जब डा.धनपत ने मारीशस रेडियो पर मेरा साक्षात्कार रिकार्ड करवाया और महात्मा गांधी संस्थान के प्राध्यापकों से हम सबकी भेंट करवाई थी. ज्ञात हो कि इस संस्थान की आधारशिला 3 जून 1970 को भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधीजी एवं मारीशस के प्रधानमंत्री श्री शिवसागर रामगुलामजी के कर-कमलों से रखी गई थी.
यह यात्रा अपनी सफ़ल संगोष्ठी के साथ-साथ रोचक-मनोरंजक पर्यटन के रूप में भी याद रहेगी. देश की राजधानी पोर्ट लुइस में स्थित अनेक मंत्रालयों के आलीशान भवन, समुद्र में तैरते विशाल पोत, गगनचुंबी इमारतें, कैसिनो, सिनेमाघरों, तथा रेस्टारेंटॊं  को देखा जा सकता है. पास ही में एक पार्क है जिसमें देश के प्रथम प्रधानमंत्री श्री शिवसागर रामगुलाम की भव्य प्रतिमा स्थापित है. यहीं से कुछ दूरी पर स्थित है अप्रवासी घाट जहाँ पर भारत से बलपूर्वक या ठेके पर अथवा बंधक बनाकर लाए गए लोगों को मजदूरी करने के लिए उतारा जाता था. इस स्थान को देखते ही मन में एक अजीब से कसमसाहट और सघन पीडा का अनुभव होने लगता है. साथ ही आँखों के सामने वह भयावह दृष्य उपस्थित होने लगता है कि किस तरह भारत से हजारॊ किलोमीटर दूर स्थित इस विरान टापू तक पहुँच पाने तक उन मजदूरों कॊ कितनी शारीरिक पीडायें और मानसीक यातनाएँ झेलनी पडी होगी?. एक नहीं, दो नहीं बल्कि सैकडॊं की तादात में यहाँ मजदूर लाए जाते रहे हैं. जान लेवा समुद्री हवा के थपेडॊं को सहते हुए, न जाने कितने ही लोग बीमार पडॆ होंगे, और न जाने कितनों ने, अपने प्राण त्याग दिए होंगे ? मरने के बाद इनकी लाशों को बेरहमी से उठाकर समुद्र में फ़ेंक दिया जाता था, ताकि वे समुद्री जीव-जन्तुओं का भोजन बन सकें. जेहन में ये सारे कारुणिक दृष्य़ चलायमान हो उठते हैं और आँखें भर आती हैं. हम सभी मित्रों ने दो मिनट का मौन धारण करते हुए उन अनाम भारतीयों को अपने श्रद्धासुमन अर्पित किए और भारी मन से लौट पडॆ.
इस यात्रा के दौरान टामारिन्ड वाटरफ़ाल,, ट्राइ आक्स सफ़र्स,(मृत ज्वालामुखी), चामरेल कलर्ड अर्थ ,फ़ोर्ट आफ़ एडलेट को देखने के बाद मारीशस का सबसे पवित्र स्थान जिसे गंगा तालाब के नाम से जाना जाता है, देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ. इस परिसर में प्रवेश करने से पहले, आपको एक सौ आठ फ़ीट ऊँची शिवजी की प्रतिमा के दर्शन होते हैं. मन श्रद्धा से भर उठता है. इससे कुछ दूरी पर अवस्थित है गंगा तालाब. कभी परी तालाब के विख्यात इस सरोवर में भारत से गंगाजल लाकर डाला गया था. इसके बाद इस नाम गंगा तालाब पडा. सरोवर के किनारे शेषनाग मन्दिर, विष्णु-लक्ष्मी, राधा-कृष्ण, साईं, हनुमानजी की प्रतिमा, सात घोडॊं से जुते हुए एक दिव्य रथ पर आरूढ भगवान सूर्यदेव की सुन्दर और आकर्षक प्रतिमा देखी जा सकती है. इसी प्रांगण में एक विशाल शिव मन्दिर अवस्थित है. इसमें विराजे शिवलिंग के बारे में मान्यता है कि यह तेरहवाँ ज्योतिर्लिंग है. यहाँ की स्वछता, निर्मलता, तालाब का पारदर्शी पानी, और चारों ओर आच्छादित हरितिमा एवं आर्य संस्कृति का विस्तारित रूप देखकर, मन गदगद हो उठता है.
अपनी यादगार और सफ़ल यात्रा के दौरान की गई समुद्र की सैर, विभिन्न प्रकार के वाटर स्पोर्ट्स, पैराग्लाइडिंग, ग्लास-बोट की सवारी,जिससे समुद्र के भीतर गहराई तक झांका जा सकता है और चित्र-विचित्र कोरल, मछलियाँ और जीव-जंतुओ को देखा जा सकता है.
अभ्युदय बहुउद्देशीय़ संस्था के साथ की गई यह अविस्मरणीय़ यात्रा यादों को संजोते हुए संपन्न हुई और हम 29 मई प्रातः छः बजे नवल अरूणोदय के साथ, नव उमंगों, नव तरंगों सहित, नव सृजन की उत्कण्ठा लिए लौट आए.

            सम्पर्क-
             गोवर्धन यादव  (संयोजकम.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति) 
                103, कावेरीनगर,छिन्दवाडा(म.प्र.)480001
                मो. 09424356400
                 

शुक्रवार, 1 मई 2015

माया एन्जेलो की कविताएँ





माया एन्जेलो
, मूल नाम - मार्गरेट एनी जॉन्सन- 1928.2014 अमेरिकी-अफ्रीकी कवयित्री को अश्वेत स्त्री-पुरूषों की आवाज के रूप में जाना गया। उनके काम को अमेरिकी लायब्रेरियों में प्रतिबंधित करने के भी प्रयास किए गए किंतु आज उनके लिखे को विश्व के कई विद्यालयों व कालेजों में पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। उनकी पुस्तकों के मुख्य विषय नस्लभेद, पहचान, परिवार व यात्राएं हैं।


मजदूर दिवस पर माया एन्जेलो की कविताएँ प्रकाशित करते हुए हमें जो खुशी हो रही है वह समर्पित है उन तमाम मजदूरों को जिन्होंने किसी काम को करते हुए किसी तरह का भेद भाव नहीें बरता बल्कि बड़े मनोयोग से सांस्कृतिक भूदृश्य को नये शिल्प में गढ़ा। यहां प्रस्तुत कविताओं के केंद्र में मजदूर नहीं हैं बल्कि ये कविताएं उनके लिए मील का पत्थर साबित होंगी जो  कबके चट्टानों में ढल गये हैं जिसका उन्हें भान तक नहीं। इन्हें पृथ्वी के धरातल पर कहीं भी देखा जा सकता है गुनगुनाते हुए दर्द को पी कर मुस्कराते हुए। तो आज प्रस्तुत है माया एन्जेलो की कविताएँ जिसका मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद किया है पद्मनाभ गौतम ने।
 

 


















लाखों  मनुष्यों की यात्रा
लम्बी रही है रातए गहरे रहे है घाव
कालिमामय था कूप और खड़ी दीवारें

सुदूर समुद्री किनारे पर
मृत नीले आकाश के नीचे
केश पकड़ कर खींचा गया था
मुझको तुमसे दूर
बंधे थे तुम्हारे हाथए और बंधा था मुँह
पुकारा तक नहीं जा सका तुमसे मेरा नाम
थे असहाय तुम और तुम सी ही मैं
दुर्भाग्य किंतु कि इतिहास में सदा
तुमने पहना शर्मिन्दगी का ताज
मैं कहती हूँ
लम्बी रही है रात घाव रहे है गहरे
कालिमामय था कूप और खड़ी दीवारें

किंतु आजए आवाजें पुरानी आत्माओं की
बोलतीं हैं मजबूत शब्दों में
वर्षों की सीमा को लांघ करए शताब्दियों के पार
पार कर महासागरों और समुद्रों को
कि आओ एक दूसरे के करीब
और बचाओ अपने लोगों को
कर दिया गया है भुगतान
तुम्हारे वास्ते इस परदेश में
अतीत कराता है याद
है अदा कीमत आजादी की
गुलामी की जंजीरों के वेश में              
लम्बी रही है रातए घाव रहे है गहरे
कालिमामय था कूप और खड़ी दीवारें

वह नर्क जो भोगा हमने
अब तक रहे जो भोग
उसने चढ़ा दी है सान हमारी संवेदनाएँ
और कर दी हैं इच्छाएँ मजबूत
लम्बी रही है रात
इस सुबह देखती हूँ तुम्हारे दर्द के पार
भीतर तुम्हारी आत्मा तक
जानती हूँ कि एक साथ
बन सकते हैं हम संपूर्ण
देखती हूँ पार तुम्हारे सलीके और स्वाँग के
देखती हूँ तुम्हारी बड़ी धूसर आँखों में
परिवार के लिए प्रेम

मैं कहती हूँए तालियाँ बजाओ और
इकट्ठा होओ इस सभा-मैदान में
मैं कहती हूँए तालियाँ बजाओ और
एक.दूसरे के साथ करो प्रेम का व्यवहार
मैं कहती हूँए तालियाँ  बजाओ और ले जाओ हमें
महत्वहीनता की नीच गलियों सेए
तालियाँ बजाओ आओ आकर पास

आओ हम साथ चलें और अपने हृदय उड़ेल दें
आओ हम साथ चलें और करें अपनी आत्माओं का पुनरावलोकन
आओ हम साथ चलें और धवल कर दें अपनी आत्माओं को
तालियाँ बजाओ और सँवारना छोड़ो अपने पंख
मत दो अपने इतिहास को धोखा
तालियाँ बजाओ और बुलाओं आत्माओं को कगारों से
तालियाँ बजाओं और बुलाओ आनंद को वार्तालाप में
शयनकक्ष में प्रेम को विनम्रता को अपनी रसोई में
और संरक्षण अपने नौनिहालों में

हमारे पुरखे बताते हैं हमें बावजूद दर्दीले इतिहास के
हम चलने वाले लोग हैं जो उठेंगे दोबारा

औरए अब भी उठ रहे हैं हम।

 मैं जानती हूं क्यों गाती है पिंजरे की चिड़िया

उन्मुक्त पक्षी उछलता है हवाओं की पीठ पर
हवा के प्रवाह में उतराता है
जब तक झुका नही देता उसके पंख
सूर्य की नारंगी किरणों में होता विलीन
हवा का झोंका
और दिखाता दम आसमान पर अपने आधिपत्य का
किंतु पक्षी पिंजरे का जो
छोटे से पिंजरे में चलता कदमों नपे-तुले
देख सकता बमुश्किल पार पिंजरे की सलाखों के
पंख उसके कसे हैं और बंधे जिसके पाँव
इस लिए खोलता है गाने को अपना कंठ।
पक्षी पिंजरे का गाता है
अज्ञात के भय से कंपित गान
साधा गया जिसे किंतु चुप रहने को
दूर पहाड़ों तक सुनी जाती है उसकी धुन
क्योंकि पिंजरे का पंछी गाता है मुक्ति की चाह में

याद करता है उन्मुक्त पंछी
उसाँस भरते पेड़ों से आती
शांत सुकोमल पूर्वी हवाओं को
और सूर्योदय से चमकते आंगन में
इंतजार करते मोटे कीटों को
पर पिंजरे का पंछी होता है खड़ा
सपनों की कब्र पर
छाया चीखती है उसकीए दुःस्वप्न की चीख
पंख उसके कसे हैं और बंधे जिसके पाँव
इस लिए खोलता है गाने को अपना कंठ

पक्षी पिंजरे का गाता है
अज्ञात के भय से कंपित गान
साधा गया जिसे किंतु चुप रहने को
दूर पहाड़ों तक सुनी जाती है उसकी धुन
क्योंकि पिंजरे का पंछी
गाता है मुक्ति की चाह में


गुजरता वक्त

तुम्हारी त्वचा का रंग
सूर्योदय की तरह
और मेरी जैसे कस्तूरी
एक उकेरता है कैनवस पर
नियत अंत का आरम्भ
उकेरता दूसरा
एक नियत आरंभ का अंत


 देवदूत के द्वारा स्पर्शित

हम आदी नहींजो साहस के 

और सुखों से निर्वासित
जीते हैं कुंडली मार कर
एकांत के खोल में
जब तक प्रेम
छोड़ कर मंदिर अपना
उच्च और पवित्र
दृष्टिगोचर हो न जाए हमको



आता है प्रेम
करने को हमें जीवन में स्वतंत्र
और इसके साथ
आते हैं श्रृंखलाबद्ध
सुख
पुराने आनंदों की स्मृतियां
पुराने दर्दों का इतिहास

फिर भी
यदि हम हों निर्भय
तोड़ देता है प्रेम
हमारी आत्माओं से
भय की जंजीरें
हमें मिलती है
अपनी दुर्बलता की चेतावनी
प्रेम की रोशनी की चमक में
साहस कर हो जाते हैं हम बहादुर
औचक देखते हैं हम
कि प्रेम के बदले में हमें
देना होता है सर्वस्व
फिर भी यह प्रेम ही है
जो करता है हमें मुक्त।


                         पद्मनाभ गौतम
 स्थाई पता  - 
           द्वारा श्री प्रभात मिश्रा
            हाईस्कूल के पास, बैकुण्ठपुर, जिला-कोरिया
            छत्तीसगढ़, पिन-497335
            मो
0 - 09436200201
                     07836-232099