रविवार, 18 जून 2017

मदन मोहन 'समर' की कविताएं





1- मतभेद हुआ है

मेरे घर की दीवारों में छेद हुआ है।
चूल्हे-चौके में शायद मतभेद हुआ है।

धूप सुनहरी बाहर बैठी भीतर धुआं धुआं है।
हवा ताकती खिड़की-रोशनदानों में कुछ आं है।
द्वारे छपी रंगोली रंगों से ही कन्नी काट रही।
ठाकुर जी की पूजा कितने दिन से सुन्न-सपाट रही।
शिकनों से तर माथे सबके शुष्क स्वेद हुआ है।

रोटी की गोलाई बताती चूड़ी हुई उदास है।
तरकारी की मिरच नमक को खटपट का अहसास है।
जलते दूध मलाई में, चिकनी हुई कढ़ाई में।
भाँप रहा है कच्चा भात, रिश्ते पड़े खटाई में।
खुसुर-पुसुर बतियाते बर्तन कुछ तो भेद हुआ है।

बड़ी बहू की पाबंदी पल्लू से छूट रही।
छोटी की मनमर्जी से छन देहरी टूट रही।
मंझली,संझली की पायल के घुंघरू ठसे-ठसे हैं।
करवाचौथ के धूप नारियल फीकी हँसी हँसे हैं।
मुन्नी को पीहर में आकर अबकी खेद हुआ है।

खीझ, घुड़कियां, डांट, उलाहनों से बच्चे हैरान हैं।
तीखी तीखी सी चुप्पी है बातें तीर कमान हैं।
आधी से थोड़ा सी ऊपर सांझी गुल्लक अटक गई।
एक अठन्नी डाली गुड्डो ने मम्मी क्यों चटक गई।
इसके उसके कमरे में प्रवेश निषेध हुआ है।

दरी-चटाई का आँगन में बिछना बंद हुआ।
साँझ सुहानी का छत पर हँसना मंद हुआ।
तुलसी जी के पत्तों में बेचैनी दीख रही।
बरसों पहले भूल गई जो माँ वो सीख रही।
आपस में कुछ काला पीला और सफेद हुआ है।

  
2- खींचा-तानी है

टोका-टाकी, तीख-तल्खियां, नीम-जुबानी है।
लगता है हल-बख्खर में कुछ खींचा-तानी है।

प्यासी गाय रंभाती भैंसे खूंटा तोड़ रहीं हैं।
टुकड़े-टुकड़े रस्सी को बस गाठें जोड़ रहीं हैं।
रही लाड़ली बछिया भूखी चाटे रोज खनौटे।
कोस-कोस कर भारमुक्त हैं चिन्ता जड़े मुखौटे।
बूढ़े बैलों की आँखों मे टप-टप पानी है।

बिना बखरनी गया पलेवा मिट्टी सूख कराही।
टूट परेहना और नुकीली करने लगे तबाही।
मूंछ मरोड़े चारा चमका फसलें हुई रुआंसी।
मेढ़-मेढ़ पर कदम छपे हैं जैसे चाल सियासी।                                     
भारी बांट तराजू उतरे हल्की हुई किसानी है।

पगड़ी को परवाह नहीं है बढ़ने लगे तकादे।
झक्क सफेदी कुर्ते पर है मैले हुए इरादे।
हंसिया और कुदाली खुरपी टंगिया हुए अछूत।
बिना बोहनी आधे खेतों उड़ने लगी भभूत।
बागड़ की रखवाली के प्रति आनाकानी है।

चौखट बहरी हुई हमारी खी खी मची मुहल्लों में।
गीले आटे की आहट पर शर्तें लगी निठल्लों में।
सभी पुछल्ले बात बनाते टल्ली बैठ कलाली में।
खा-खा लिए डकारें फोड़े छेद समूची थाली में।
दरवाजा है नमक-हरामी देहरीया बेगानी है।

घर-घर कानाफूसी करती धूल उड़ी दालान की।
परकोटे पर पीक पड़ी है पनवाड़ी के पान की।
पंसारी की पुड़िया तक में चर्चा बंधी तनाव की।
महरी राख बांटती फिरती जलते हुए अलाव की।
खुले किवाड़ो आती-जाती मगरुरी मनमानी है।
           
संपर्क-
मदन मोहन 'समर'
भोपाल, मध्य प्रदेश, India
MO-.09425382012
e-mail-samarkavi@rediffmail.com 

शनिवार, 10 जून 2017

लकी निमेष की गजल




 










और ज्यादा मुझपे  तेरा  प्यार होना चाहिये,,,
 ग़म  मिले  लाखो  मगर ग़मख़्वार होना चाहिये!!


है यही हसरत  हमारी,रात दिन पीते रहे,,
 शर्त ये है साथ में मयख़्वार  होना चाहिये!!


पत्थरों  को तोड़ कर मैं भी तराशू  इक हसीँ,,  
ख़ुदा वो हाथ में औज़ार  होना चाहिये!!!


हर ग़मो को बेच  दूँ  मैं इक ख़ुशी के दाम  पर,,  
इश्क़ के बाज़ार  में व्यापार  होना  चाहिए!!


वक़्त का पाबंद  होता रोज़ आता वक़्त पे,,  
! '  लकी' महबूब  को अख़बार होना चाहिए!!!

संपर्क-
Lucky nimesh
greater noida
gautam buddh nagar

nimeshlucky716@gmail.com

बुधवार, 31 मई 2017

शहादत खान की कहानी : नए इमाम साहब



         शहादत खान ने यह कहानी जिस तेवर में लिखी है उससे कई सारी परतें टूटती सी नजर आ रही हैं  । इस उम्दा कहानी के कथाकार से उम्मीदें और बढ़ गयी हैं। फिलहाल इनकी कहानियां कथादेश, नया ज्ञानोदय, समालोचना और स्वर्ग विभा पत्रिकाओं में प्रकाशित।

शहादत खान की कहानी : नए इमाम साहब


    “वे लोग बहुत नासमझ होते है जो मोलानाओं को फरिश्ता समझते है... जबकि मोलाना भी इंसान होते  हैं ... उसके अंदर भी ख़ाहिशात (इच्छाएं) होती हैं। ओर जब ख़ाहिशात जागती है ना... तब इंसान पाक-नापाक, सही-गलत सब भूल जाता है... एक बार को तो ख़ौफ-ए-ख़ुदा भी उसके अंदर से निकल जाता है।” यह बात उस मोलना ने कही थी जिससे मैं दारुल-ऊलूम, देवबंद में मिला था। वह मेरे खाला के बेटे का दोस्त था। हम उसके कमरे में बैठे औरत और सैक्स पर बात कर रहे थे। बात के दौरान ही मुझे मोलाना की गर्लफ्रेंड के बारे में पता चला... वह भी एक नहीं, तीन-तीन के। मेरी खाला के बेटे ने जब मुझे उनके नाम बताएं... तो मैंने यकीन न करने वाली हैरानी के साथ मोलाना को देखते हुए पूछा, “मोलाना आप भी...? आप भी गर्लफ्रेंड रखते   हैं...?” तब उन्होंने मुझसे ये सब कहा था। 


    उस वक्त की अपनी हैरानी और चेहरे के एक्प्रेशन को याद करके आज भी मुझे हँसी आती है। लेकिन एक पल ठहरने के बाद जब मैं बीते हुए कल मैं झांकता हूं तो लगता है कि वह मोलाना बिल्कुल सही थे...!


    पुराने इमाम साहब को गए हुए एक अरसा बीत चुका था। और नए इमाम की आमद की अभी तक किसी को कोई ख़बर नहीं थी। इमाम साहब के जाने के बाद नमाज़ियों की हालत उन भेड़ों की तरह हो गई थी जिनका कोई रहबर नहीं होता। उनमें जिसकी मर्जी जिधर होती वह उधर ही चल देती है... साथ ही दो-चार भेड़े उसका अनुसरण करते हुए उसके पीछे हो लेती है...! यही हाल उन दिनों मस्जिद के नमाज़ियों का था। अज़ान का कोई पता नहीं था। वह कभी वक्त के पहले हो जाती तो कभी वक्त के बाद। ओर इत्तेफाका से अगर कोई अल्लाह का बंदा वक्त पर अज़ान दे देता तो नमाज़ी गायब। जिसका जब दिल चाहता, आता और नमाज़ पढ़कर चला जाता। अगर एक वक्त पर दो-चार लोग जमा हो जाते तो उनमें से कोई एक इमाम बन जाता और बाकी उसके पीछे नमाज़ पढ़ लेते। फिर इसके बाद कुछ ओर लोग आते और उनमें से भी कोई एक इमाम बन जाता और बाकी लोग उसके पीछे नमाज़ पढ़कर निकल जाते। आलम यह था कि इमाम साहब के जाने के बाद शायद ही कभी अपने वक्त पर मुक्कमल जमात हुई हो।  


मोहतमीम साहब (मस्जिद का जिम्मेदार) जब यह सब होता देखते तो वह ज़हर का घूंट पीकर रह जाते। उनसे दीन (इस्लाम) के अहम अरकान की इस तरह बेअदबी बर्दाश्त न होती थी। वह लोगों को समझाते और उन्हें एक साथ नमाज़ पढ़ने के लिए कहते। लेकिन कोई भी नमाज़ी एक दूसरे के पीछे नमाज़ पढ़ने के लिए राज़ी नहीं होता था। उनके बीच इतनी जबरदस्त गुटबाज़ी थी कि वह एक-दूसरे के पीछे नमाज़ पढ़ना तो दूर उनके नमाज़-ए-ज़नाज़ा में भी शरीक न होते... अगर उन्हें दुनिया का डर न हो!
इसीलिए इमाम साहब के पीछे एक वक्त में जहां अस्सी से सौ के बीच लोग नमाज़ पढ़ते थी। ओर मगरिब (शाम) की नमाज़ में तो यह तादाद डेढ़ सौ तक पहुंच जाती थी। वहीं अब एक वक्त में मुश्किल से पंद्रह-बीस लोग ही नमाज़ पढ़ने आते थे। वह भी लड़खड़ाते बूढ़े लोग...! नमाज़ पढ़ना अब जिनकी ज़रूरत से ज्यादा आदत बन चुकी थी। सारा नौजवान तबका न जाने कहां गुम हो गया था...! 


शायद जब कोई सर्वमान्य रहबर नहीं होता है तो लोग अपने रास्ते से भटक जाते है...! चाहे वह सही ही क्यों न हो। उन्हें फिर से रास्ते पर लाने के लिए एक रहबर चाहिए होता है। ऐसा रहबर जो उनमें से ना हो। उनसे बेहतर और जानने वाला हो। जो बोलता हो और लोग उसे सुनते हो। मोहतमीम साहब भी उन दिनों इसी उधेड़बुन में थे कि ऐसा रहबर कहां से लाए...? अपनी इस परेशानी को लेकर वह कई बार मरकज़ (शहर की सबसे बड़ी मस्जिद) के इमाम से भी मिल चुके थे। शहर-ए-इमाम ने उन्हें आश्वासन दिया था कि वह जल्दी ही उनकी मस्जिद में कोई अच्छा इमाम भेज देंगे। लेकिन जब इस बार भी उन्हें पहले वाला ही जवाब मिला तो उन्होंने लगभग गुस्से भरी अपनी चीख को दबाते हुए कहा था, “कब भेज देंगे...? जब हमारी मस्जिद खुदा के घर की जगह जंग का मैदान बन जाएगी... तब...?”


शहर-ए-इमाम के ऊपर मोहतमीम साहब की इस चेतावनी ने असर कर दिखाया। उन्होंने अपनी ऐनक को नाक पर ऊपर खींचकर साफ आंखों से मोहतमीन साहब के लाल कांपते चेहरे को देखते हुए कहा, “कल शाम तक तुम्हारी मस्जिद में नया इमाम पहुंच जाएगा।”
मोहतमीम साहब जब मरकज़ से लौटे तब असर की नमाज़ (दिन का तीसरा पहर) का वक्त हो चला था। वह घर जाने की बजाय सीधे मस्जिद गए और वुजू करके नमाज़ अदा की। नमाज़ पढ़ने के बाद जितने लोग वहां मौजूद थे उन सब को मुखातिब करके उन्होंने कहा, “कल हमारी मस्जिद में नए इमाम साहब आने वाले है।” 


इसके बाद उन्होंने यही बात मगरिब, इशा और अगले दिन की फज़र (सुबह) और जोहर (दोपहर) की नमाज़ में भी दोहराई। मोहतमीन साहब ने सोचा था कि इमाम साहब मगरिब या फिर उसके बाद आएंगे। लेकिन वह तो असर की नमाज़ से पहले ही आ गए थे। उनके आने के बाद वक्त पर अज़ान हुई थी। इससे नमाज़ी भी जमात से पहले ही आ गए थे। ओर जब जमात खड़ी हुई तो पूरी दो सफ़ भरी थी। यानी तकरीबन साठ नमाज़ी। मोहतमीन साहब को इससे कितना सुकून मिला था... यह तो बस वही जानते थे। 


नए इमाम साहब आए थे और जम भी गए थे। अज़ान भी वक्त पर होने लगी थी और जमात भी। नमाज़ी भी बढ़ने लगे थे। लेकिन इमाम साहब भी क्या थे... चुस्त गठीला बदन। लाल रंगत लिए एकदम साफ चमकता चेहरा। उस पर सियाह-सीधी दाढ़ी। सीधे दांत और सुर्ख़ लाल-तर होंठ। मानो फरिश्ता। मोहतमीन साहब ने जब उन्हें पहली बार देखा था तो यही कहा था। ओर आवाज़... आवाज़ भी क्या थी उनकी... कि चलने वाले सुनकर रुक जाए... रुके हुए बैठ जाए और बैठे हुए खोए जाएं। ऐसे आवाज़ थी उनकी। जब उन्होंने मस्जिद में अपने पहले जुमे में बयान किया था और खुत्बा पढ़ा था तो न जाने कितने लोग सुबक-सुबक कर रोने लगे थे। जुमे के बाद कई लोगों ने मोहतमीन साहब को पकड़-पकड़कर कहा था, “क्या वाकई इमाम साहब इंसान है...! मुझे तो कोई फरिश्ता लगते हैं... मैंने आज तक किसी ऐसे इंसान को नहीं देखा... और न ही ऐसी आवाज़ सुनी है!”  


नए इमाम साहब की पढ़ाई, उनका तरीका और लोगों से उनकी तारीफ सुनकर मोहतमीम अंदर-अंदर खुश हुए थे। साथ ही उन्हें इमाम साहब से एक उम्मीद भी बंधी थी... अपनी बीमार बेटी के ठीक होने की उम्मीद।
मोहतमीम साहब की बेटी पर जिन्नातों का असर था। इसीलिए रात को सोते-सोते उसके हाथ-पैर ऐंठ जाते थे और आँखें उलट जाती थी... उनसे आँसूओं की तरह पानी बहने लगता था। वह भी इस कद्र कि उसके दोनों कानों के गड्ढे भर जाते और फिर वहां से चू-चू कर तकिया भीगोने लगते। मोहमीम साहब ने उसका बहुत इलाज कराया। आस-पास के किसी नीम-हकीम, आलिम-हाफिज़ और पीर-फकीर को नहीं छोड़ा जिससे उन्होंने अपनी बेटी को न दिखाया हो। लेकिन किसी के भी तागे, तावीज़ों और दुआओं में इतनी ताकत नहीं मिली जो उसे उन जिन्नात से निजात दिला सके। हमने बहुत से झाड़-फूंक करने वालों को उनके यहां जाते देखा है... लेकिन उनके पढ़े हुए पानी और लिखे हुए तावीज़ों का हफ्ते भर से ज्यादा असर नहीं रहता है।    
इमाम साहब को ये सारी बातें मोहल्ले वालों से पता चली थी। इसलिए जब उस दिन मोहतमीम साहब घबराए हुए उनके पास आए और अपने घर चलने के लिए कहा तो इमाम साहब को जरा भी हैरानी नहीं हुई थी।


मोहतमीम के घर प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठे हुए उन्होंने उनकी बेटी को देखा था। जिसकी बड़ी खुली आंखें छत को घूर रही थी और उनसे आँसूओं की शक्ल में लगातार पानी बह रहा था। उसके हाथ ऐंठे हुए थे और उनकी उंगलियों ने अपनी पूरी ताकत के साथ चादर को अपनी गिरफ्त में ले रखा था। इमाम साहब ने अपने दाएं हाथ से उसकी खुली आंखों को बंद किया... उसके भीगी चेहरे को साफ किया और कसकर पकड़ी चादर को उसकी पतली-लंबी उंगलियों की गिरफ्त से छुड़ाकर उन्हें अपने बाएं हाथ में थाम लिया। उन्होंने अपने दाएं हाथ को उसके लाल तवे की तरह तपते माथे पर रखा। फिर होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदाया और उसके ऊपर तीन बार फूंका। इसके बाद उन्होंने उसका हाथ छोड़ दिया और खड़े होकर मोहतमीम साहब से कहा, जो वहीं खड़े हुए थे, “आप फिक्र न करे... इंशाअल्लाह ये जल्दी ही ठीक हो जाएगी... मुझे लगता है कि इन्हें बुखार है... आप किसी डॉक्टर को बुला ले”, इतना कहकर वह वहां से चले आए। 


इसके बाद वह बहुत बार मोहतमीम साहब के घर गए थे... उनकी बेटी को देखने! ओर हर बार उन्होंने उसकी लंबी-पतली उंगलियों को अपने हाथों में पकड़ा था... उसकी उन बड़ी आंखों में झांका था जिन्हें उन्होंने पहले दिन अपने हाथ से बंद किया था... और उसके माथे को भी छुआ था जो पहले दिन लाल तवे की तरह तप रहा था लेकिन फिर वह उन्हें बर्फाफ की तरह ठंड़ा और सुकूनदायक महसूस होता था...। वह हर बार उसे तीन बार फूंकते और हर बार ही एक तावीज़ भी दिया करते थे... पीने के लिए। 


फिर वह आखिर बार उसे देखने गए थे। पर उस दिन उन्होंने न तो उसकी लंबी उंगलियों को पकड़ा था और न ही उसके माथे को छूकर उसके ऊपर तीन बार फूंका था। उन्होंने बस उसकी बड़ी आंखों में झांका और एक आख़िरी तावीज़ देकर वह वहां से चले आए थे।
वह दिन भी आम दिनों की तरह ही था। लेकिन उसकी शाम बहुत भयानक और डरा देने वाली थी। दिन ढलने से पहले ही काले बादलों ने सूरज को ढक लिया था और मंद-मंद चली रही हवा ने प्रचंड रूप धारण कर लिया था। पेड़ अपने तीव्र गति से लहलहाते पत्तों की दिशा में झुकने और झूमने लगे थे। काले बादलों में आड़ी-तिरछी बिजली चमकने लगी थी और फिर उन्होंने बरसना शुरु कर दिया। अपनी पूरी ताकत के साथ। बीच-बीच में वह दहाड़ने लगते... वह भी इस तरह कि दिल कांप जाता। ऐसा लगता जैसे वह अभी फट पड़ेंगे और पूरी दुनिया को अपने अंदर समा लेंगे। 


आधी रात बीत चुकी थी... ओर अभी भी बारिश लगातार हो रही थी। बीच-बीच में वह कुछ कम होती। लेकिन फिर दोगुनी गति से बरसने लगती। ऐसा लगता जैसे वह अपनी पिछली कुछ पलों में हुई कमी को पूरा कर रही हो। बारिश की यह दोगुनी गति इमाम साहब की मुसीबत को बढ़ा रही थी और उनके मन में नए-नए शंकाओं को जन्म दे रही थी। वह सड़क की ओर खुलती अपने हुजरे (मस्जिद में इमाम साहब के रहने के लिए बना कमरा) की इकलौती खिड़की को खोले अभी तक जाग रहे थे। उन्हें नींद नहीं आ रही थी। आती भी कैसे? जब वह खुद ही सोना नहीं चाह रहे थे। 


वह कभी किताब खोलकर पढ़ने लगते। कभी हुजरे में टहलने लगते... तो कभी खिड़की के पास आकर खड़े हो जाते... और वहां से बारिश में भीगते अंधेरे में गुम मोहल्ले को देखने लगते। वह वहां कुछ ही पल खड़े होते और तभी हवा के बहाव के साथ बारिश का झोंका आता और उनके पूरे चेहरे को तर कर जाता। वह वहां से हटते और फिर से बिस्तर में आकर बैठ जाते। वह किताब के पन्ने पलटने लगते और जब बारिश के शोर से दूर एक खामोशी उनके आस-पास पसर जाती तो उन्हें घंटे की सेकेंड वाली सुई की टक-टक सुनाई देती। वह घंटे को देखते और हर लम्हें के साथ खिसकती उसकी तीनों सुई उनके दिल की धड़कनों को बढ़ा देती। वह मन ही मन बारिश के रुकने की दुआ करने लगते। लेकिन फिर बैचेन होकर उठ खड़े होते और टहलने लगते... वह फिर बारिश की गति देखने खिड़की के पास जाते और वहां फिर एक ताजा झोंका उनके चेहरे को तर कर देता।


देर से ही सही, लेकिन सच्चे दिल से मांगी गई इमाम साहब की दुआ रंग दिखाने लगी। दो बजे के बाद बारिश धीरे-धीरे कम होने लगी और फिर रुक गई। काले बादल छितरा गए और साफ नीले आसमान पर आधे से ज्यादा चमकदार चांद निकल आया। उसकी रोशनी में मस्जिद के सामने खड़े पीपल के पेड़ के धुले चौड़े पत्ते चमचमाने लगे। और उनकी चमचमाहट के बीच ही दूर... मस्जिद के सामने वाली गली के आखिरी सिरे के किसी घर की मुंडेर पर एक दिया रोशन हुआ।


इमाम साहब ने दिए की रोशनी को देखकर एक सुकून की सांस ली। वह खिड़की के पास से हटे और एक कोने में खड़े होकर पूरे हुजरे का मुआयना करने लगे... कोई जरुरी सामान लिए बिना छुट तो नहीं गया। फिर वह अपने बैग को चेक करने लगे और इसी दरमियान मस्जिद के दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। कुंडी खट-की... इमाम साहब के हाथ जहां के तहां रुक गए... वह नीचे उतरे... मस्जिद से बाहर झांका और फिर दो परछाई चांद की रोशनी में गीली सड़कों पर गुम हो गई।


घर के काम बिगाड़ा और मस्जिद में गुजारा... करने वाले हाजी अशरफ ने गर्म बिस्तर में लेटे-लेटे ही तकिये के नीचे से निकालकर जब अपनी मिचमिची आंखों से हाथ घड़ी को देखा तो वह छः बजा रही थी, “कमाल हो गया... छः बज गए और अभी तक किसी ने अज़ान ही नहीं पढ़ी”, वह खुद से ही बुदबुदाएं और बिस्तर से निकल पड़े।
मस्जिद का दरवाज़ा खुला हुआ था। वह सीधे ही अंदर चले गए और इमाम साहब को पुकारा, “मोलाना!” लेकिन कोई आवाज़ नहीं आई। उन्होंने फिर पुकारा और फिर लाजवाब। हाजी अशरफ ने अपनी जूतियां उतारी और हुजरे में चले गए। लेकिन वहां कोई नहीं था। सब चीज़े करीने से रखी हुई थी। बिस्तर भी लगा हुआ था। उन्होंने हुजरे से निकलकर पेशाब घर और बैतुलखला (पखाना) में देखा तो वह भी खाली पड़े हुए थे।


सुबह में जितनी तेजी से कंपकंपी पैदा करने वाली बारिश में भीगी रात की ठंड़ी हवा चल रही थी उतनी ही तेजी से दिमाग को सवालों से भर देने वाली गरमा-गरम बहसें हो रही थी। सूरज की पहली किरनों के साथ लोग मस्जिद के आगे जमा होने लगे और उसकी बढ़ती गर्मी के साथ ही उनकी संख्या भी बढ़ती गई। बड़ा गहमा-गहमी भरा माहौल था। हर कोई बोल रहा था। लेकिन सभी के सवाल लगभग एक जैसे थे, “मोलाना कहां गए? क्या वह बिन बताए चले गए? पर हमने तो उनसे ऐसा कुछ कहा ही नहीं? ओर अगर जाना ही था तो बताकर जाते?”


इमाम साहब के चक्कर में लोग उस दिन की सुबह की नमाज़ पढ़ना भी भूल गए। तभी किसी ने कहा कि मोहतमीम साहब की जिन्नातों वाली बेटे भी घर पर नहीं है। इतना सुनते ही मस्जिद के सामने का सारा मजमा मोहतमीम साहब के घर के बाहर जाकर जमा हो गया। मोहतमीम साहब सिर झुकाए उस आखिरी तावीज़ को अपने हाथ में लिए बैठे थे जो इमाम साहब ने उनकी बेटी को पीने के लिए दिया था। उस पर उर्दू में लिखा था, “आज रात चलना है।”


“अरे मैंने तो पहले ही कहा था कि ये मोलाना लोग बहुत बदमाश होते है। जैसा दिखते हैं वैसे ये होते नहीं”, किसी ने सबको सुनाते हुए कहा था।
“बिल्कुल सही कहा”, दूसरे ने उसकी बात की पुष्टि करते हुए कहा, “ये दाढ़ी के पीछे शिकार खेलते है। इसलिए इन पर कोई शक भी नहीं करता।”
“वो तो उसके जिन्नातों को भगाना आया था... ओर खुद ही उसे लेकर भाग गया। क्या बात है? क्या मोलानाओं के अंदर से भी खौफ-ए-खुदा खत्म हो गया!” पीछे से कोई आवाज़ आई।


“अरे खुदा से तो हम तुम डरते   हैं ... मोलाना लोग नहीं। खुदा का खौफ दिखाकर ही तो ये हमे बेवकूफ बनाते   हैं । हम मेहनत मजदूर भी करे तो गुनाहगार... ओर ये डाका भी डाल ले तो इनसे कोई सवाल जवाब नहीं!” किसी ने गुस्से भरी आवाज़ में कहा था।


ओर फिर हाजी अशरफ ने एक शांत और गंभीर आवाज़ में कहा, “भाई मैंने तो पहले ही कहा था कि जवान और कुआंरे मोलानाओं को मस्जिद में नहीं रखना चाहिए...। पर हमारी कौन सुनता है ? सब सोचते  हैं बुढ़ा है, बड़बड़ाकर चुप हो जाएगा। अब कर गया ना कांड। भुगतते रहो।”   



संप्रति- रेख़्ता (ए उर्दू पोएट्री साइट) में कार्यरत।
मोबाईल- 07065710789
786shahadatkhan@gmail.com
दिल्ली में निवास।