गुरुवार, 20 जुलाई 2017

गोवर्धन यादव की कविताएं




1-

एक अरसा बीत गया   
तुम दिखाई नहीं दीं गौरिया ?
और न ही वह झुंड जो 

हरदम आता था साथ तुम्हारे-
दाना-चुग्गा चुनने
कहाँ हो, कहाँ हो गौरैया तुम ?
न जाने कहाँ बिला गईं ?
तुम्हें एक नजर देखने को
कब से तरस रही हैं मेरी आँखें।


2-
अपनी संग-सहेलियों के संग
आँगन में फ़ुदक-फ़ुदक कर चलना
चाँवल की कनकी को चुनना
चोंच भर पानी पीना
फ़िर, फ़ुर्र से उड़ जाना
कितना सुहाना लगता था
न तो तुम आईं
और न ही तुम्हारी कोई सहेली
बिन तुम्हारे
सूना-सूना सा लगता है आँगन।

3-
कहाँ हो, कहाँ हो तुम गौरिया ?
तुम्हें धरती ने खा लिया, या       
आसमान ने लील लिया ?
एक अरसा बीत गया तुम्हें देखे
न जाने क्यों
उलटे-सीधे- सवाल       
उठने लगते हैं मन में।



4-
तुम तो तुम           
वह लंगड़ा कौवा भी अब दिखाई नहीं देता
जो तुम्हें डराता नहीं था, बल्कि
चुपचाप बैठा,
रोटी के टुकड़े बीन-बीन खाता था.
अब सुनाई नहीं देती-       
तुम्हारी आवाज और
न ही दिखाई देता है वह लंगड़ा कौवा ही
फ़र्श पर बिखरा चुग्गा
मिट्टी के मर्तबान में भरा पानी
जैसा का वैसा पड़ा रहता है महिनों
शायद, तुम लोगों के इन्तजार में
कब लौटोगे तुम सब लोग ?


5-
तुम्हारे बारे में
सोचते हुए कुछ.....
कांपता है दिल
बोलते हुए लड़खड़ाती है जीभ
कि कहीं तुम्हारा वजूद
सूरज की लपलपाती प्रचण्ड किरणॊं ने-
तो नहीं लील लिया?
शायद ऎसा ही कुछ हुआ होगा
तभी तो तुम दिखाई नहीं देतीं
दूर-दूर तक
और न ही सुनाई देती है
तुम्हारी चूं-चां की आवाज।


6-
कितनी निष्ठुरता से आदमी
काटता है पेड़
पल भर को भी नहीं सोचता, कि
नहीं होंगे जब पेड़, तो
हरियाली भी नहीं बचेगी
हरियाली नहीं होगी तो
बंजर हो जाएगी धरती
बेघर हो जाएंगे पंछी
सूख जाएंगी नदियां
अगर सूख गईं नदियां
तो तुम कहीं के भी नहीं रहोगे
और न ही तुम्हारी पीढ़ियाँ ?

7-
एक चोंच दाना-
एक चोंच पानी और
घर का एक छोटा सा कोना-
यही तो मांगती है गौरैया तुमसे,
इसके अलावा वह और कुछ नहीं मांगती
न ही उसकी और कोई लालसा है
क्या तुम उसे दे पाओगे?
चुटकी भर दाना,
दो बूंद पानी और
घर का एक उपेक्षित कोना ?

 8-
मुझे अब भी याद है बचपन के सुहाने दिन
वो खपरैल वाला, मिट्टी का बना मकान
जिसमें हम चार भाई,
रहते थे मां-बाप के सहित
और इसी कच्चे मकान के छप्पर के एक कोने में
तुमने तिनका-तिनका जोड़कर बनाया था घोंसला
और दिया था चार बच्चों को जनम
इस तरह, इस कच्चे मकान में रहते थे हम एक दर्जन प्राणी,
हंसते-खेलते-कूदते-खिलखिलाते-आपस में बतियाते
तुम न जाने कहां से बीन लाती थीं खाने की सामग्री
और खिलाती थीं अपनों बच्चों को भरपेट.
समय बदलते ही सब कुछ बदल गया
अब कच्चे मकान की जगह
सीमेन्ट-कांक्रिट का तीन मंजिला मकान हो गया है खड़ा
रहते हैं उसमें अब भी चार भाई पहले की तरह
अलग-अलग, अनजान, अजनबी लोगों की तरह-
किसी अजनबी पड़ौसियों की तरह
नहीं होती अब उनके बीच किसी तरह की कोई बात
सुरक्षित नहीं रहा अब तुम्हारा घोंसला भी तो
सोचता हूँ, सच भी है कि
मकान भले ही कच्चा था लेकिन मजबूत थी रिश्तों की डोर
शायद, सीमेन्ट-कांक्रीट के जंगल के ऊगते ही
सभी के दिल भी पत्थर के हो गए हैं ।


9-
बुरा लगता है मुझे-
अखबार में पढ़कर और
समाचार सुनकर
कि कुछ तथाकथित समाज-सेवी
दे रहे होते हैं सीख,
चिड़ियों के लिए पानी की व्यवस्था की जाए
और फ़िर निकल पड़ते हैं बांटने मिट्टी के पात्र
खूब फ़ोटॊ छपती है इनकी
और अखबार भी उनकी प्रसंशा में गीत गाता है
लोग पढ़ते हैं समाचार और भूल जाते हैं.
काश ! हम कर पाते इनके लिए कोई स्थायी व्यवस्था
तो कोई पशु-पक्षी-
नहीं गंवा पाता अपनी जान।



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रविवार, 9 जुलाई 2017

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दो गीत






 
























1- मम्मी से
मम्मी देखो बात मान लो,
 बचपन में ले जाओ मुझको।

पकड़-धकड़ के, रगड़-रगड़ के  
नल नीचे नहलाओ मुझको।  
तेल लगाओ मालिश कर दो,
 मुझे हँसाओ जी भर खुद को।
मम्मी देखो बात मान लो...।।

भाग-भाग कर पकड़ न आऊँ,  
छड़ी लिए दौड़ाओ मुझको।
छुटपन के फिर रंग दिखाऊँ,  
रूठूँ मैं बहलाओ मुझको।
 मम्मी देखो बात मान लो...।।

तरह-तरह की करूँ शरारत,
 दे दो घोड़ागाड़ी मुझको।  
बाल अदाएँ नटखट-नटखट,
फिर से मैं दिखलाऊँ तुमको।
मम्मी देखो बात मान लो...।।

2- नभ गंगा

एक छुअन तेरी मिल जाती,
यह धरती सारी हिल जाती।

गगनलोक में विचरण करता,  
मंगल पे निलय बना लेता।
भर देता माँग सितारों से,  
हर पत्रक कमल बना देता।
नभगंगा भी खिल-खिल जाती,  
सरिता सागर से मिल जाती।

कर नीलांबर को निजवश में,  
चाँदनी संग मैं इठलाता।
धर राहु-केतु को मुट्ठी में,
कटु-रोदन को मैं तड़पाता।
याद न तेरी पल-पल आती,  
तृष्णा उत्कट भी गल जाती।

सावन आता इस जीवन में,
होता नवप्रभात का फेरा।
सूरज भी डाल रहा होता,
 मेरे घर में अपना डेरा।
मोम इश्क़ की गल-गल जाती,  
केसर फुलवारी खिल जाती।

मिल न सकी वो छुअन सुनहरी,
इंतज़ार में मैं बैठा हूँ।
इन हाथों में ब्रह्मांड धरे,  
जीवन निर्जन कर बैठा हूँ।
तू आती मुझमें मिल जाती
संसृति मुस्काती खिल जाती।




                                                       
                                                       
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रविवार, 18 जून 2017

मदन मोहन 'समर' की कविताएं





1- मतभेद हुआ है

मेरे घर की दीवारों में छेद हुआ है।
चूल्हे-चौके में शायद मतभेद हुआ है।

धूप सुनहरी बाहर बैठी भीतर धुआं धुआं है।
हवा ताकती खिड़की-रोशनदानों में कुछ आं है।
द्वारे छपी रंगोली रंगों से ही कन्नी काट रही।
ठाकुर जी की पूजा कितने दिन से सुन्न-सपाट रही।
शिकनों से तर माथे सबके शुष्क स्वेद हुआ है।

रोटी की गोलाई बताती चूड़ी हुई उदास है।
तरकारी की मिरच नमक को खटपट का अहसास है।
जलते दूध मलाई में, चिकनी हुई कढ़ाई में।
भाँप रहा है कच्चा भात, रिश्ते पड़े खटाई में।
खुसुर-पुसुर बतियाते बर्तन कुछ तो भेद हुआ है।

बड़ी बहू की पाबंदी पल्लू से छूट रही।
छोटी की मनमर्जी से छन देहरी टूट रही।
मंझली,संझली की पायल के घुंघरू ठसे-ठसे हैं।
करवाचौथ के धूप नारियल फीकी हँसी हँसे हैं।
मुन्नी को पीहर में आकर अबकी खेद हुआ है।

खीझ, घुड़कियां, डांट, उलाहनों से बच्चे हैरान हैं।
तीखी तीखी सी चुप्पी है बातें तीर कमान हैं।
आधी से थोड़ा सी ऊपर सांझी गुल्लक अटक गई।
एक अठन्नी डाली गुड्डो ने मम्मी क्यों चटक गई।
इसके उसके कमरे में प्रवेश निषेध हुआ है।

दरी-चटाई का आँगन में बिछना बंद हुआ।
साँझ सुहानी का छत पर हँसना मंद हुआ।
तुलसी जी के पत्तों में बेचैनी दीख रही।
बरसों पहले भूल गई जो माँ वो सीख रही।
आपस में कुछ काला पीला और सफेद हुआ है।

  
2- खींचा-तानी है

टोका-टाकी, तीख-तल्खियां, नीम-जुबानी है।
लगता है हल-बख्खर में कुछ खींचा-तानी है।

प्यासी गाय रंभाती भैंसे खूंटा तोड़ रहीं हैं।
टुकड़े-टुकड़े रस्सी को बस गाठें जोड़ रहीं हैं।
रही लाड़ली बछिया भूखी चाटे रोज खनौटे।
कोस-कोस कर भारमुक्त हैं चिन्ता जड़े मुखौटे।
बूढ़े बैलों की आँखों मे टप-टप पानी है।

बिना बखरनी गया पलेवा मिट्टी सूख कराही।
टूट परेहना और नुकीली करने लगे तबाही।
मूंछ मरोड़े चारा चमका फसलें हुई रुआंसी।
मेढ़-मेढ़ पर कदम छपे हैं जैसे चाल सियासी।                                     
भारी बांट तराजू उतरे हल्की हुई किसानी है।

पगड़ी को परवाह नहीं है बढ़ने लगे तकादे।
झक्क सफेदी कुर्ते पर है मैले हुए इरादे।
हंसिया और कुदाली खुरपी टंगिया हुए अछूत।
बिना बोहनी आधे खेतों उड़ने लगी भभूत।
बागड़ की रखवाली के प्रति आनाकानी है।

चौखट बहरी हुई हमारी खी खी मची मुहल्लों में।
गीले आटे की आहट पर शर्तें लगी निठल्लों में।
सभी पुछल्ले बात बनाते टल्ली बैठ कलाली में।
खा-खा लिए डकारें फोड़े छेद समूची थाली में।
दरवाजा है नमक-हरामी देहरीया बेगानी है।

घर-घर कानाफूसी करती धूल उड़ी दालान की।
परकोटे पर पीक पड़ी है पनवाड़ी के पान की।
पंसारी की पुड़िया तक में चर्चा बंधी तनाव की।
महरी राख बांटती फिरती जलते हुए अलाव की।
खुले किवाड़ो आती-जाती मगरुरी मनमानी है।
           
संपर्क-
मदन मोहन 'समर'
भोपाल, मध्य प्रदेश, India
MO-.09425382012
e-mail-samarkavi@rediffmail.com 

शनिवार, 10 जून 2017

लकी निमेष की गजल




 










और ज्यादा मुझपे  तेरा  प्यार होना चाहिये,,,
 ग़म  मिले  लाखो  मगर ग़मख़्वार होना चाहिये!!


है यही हसरत  हमारी,रात दिन पीते रहे,,
 शर्त ये है साथ में मयख़्वार  होना चाहिये!!


पत्थरों  को तोड़ कर मैं भी तराशू  इक हसीँ,,  
ख़ुदा वो हाथ में औज़ार  होना चाहिये!!!


हर ग़मो को बेच  दूँ  मैं इक ख़ुशी के दाम  पर,,  
इश्क़ के बाज़ार  में व्यापार  होना  चाहिए!!


वक़्त का पाबंद  होता रोज़ आता वक़्त पे,,  
! '  लकी' महबूब  को अख़बार होना चाहिए!!!

संपर्क-
Lucky nimesh
greater noida
gautam buddh nagar

nimeshlucky716@gmail.com