मंगलवार, 28 नवंबर 2017

भोजपुरी सिनेमा रसातल की ओर : अंजनी श्रीवास्तव

                                                            अंजनी श्रीवास्तव


            भोजपुरी सिनेमा को रसातल में ले जाने वाले लोग व्यावसायिक लाभ के बड़े-बड़े आंकड़े-दिखाकर भले लोगों को भरमाने की कोशिशें करें पर सच यही है कि भोजपुरी सिनेमा आत्महनन के आखिरी दौर में है। इसे हर तरह से गिराने की सफल कोशिश की गयी है।  यह सचमुच बदहाली में है।  अच्छी विचार धाराओं पर चलने वाले लोग भोजपुरी सिनेमा से पूरी तरह कट चुके हैं।  दरअसल भोजपुरी फिल्मोद्योग अब शरीफों के हाथ में रहा ही नहीं। खूंखार आतंकवादी संगठन आईएस के हवसी लड़ाकों और आज के अश्लील फिल्मकारों में कोई खास अंतर नहीं। वो अगवा की गयी महिलाओं के साथ दुष्कर्म करते हैं और भोजपुरिया फिल्मकार भोजपुरी संस्कृति और परम्पराओं से बलात्कार करते हैं।

           अगर आपकी आंखें बदहाल नज़ारे देखने की आदी हैं तो आइए, भोजपुरी - चलचित्रनगरी में आपका उदासीन स्वागत है।  उधर देखिए - वो जो वस्त्र से महागरीब मगर यौवन से मालामाल हीरोइन दिख रही है न, वो गांव की रहने वाली है मगर जिस पार्क में उछल - कूद कर रही है, वो शहर में है। अब यह मत पूछिए कि गांव की पगडंडियों से वो शहर के पार्क तक कैसे पहुंची ? बस वो जो कुछ भी कर रही है, उसे देखते जाइए।  वो अपने लुभाऊ अंगों को एक-एक करके तब तक दिखाती रहेगी, जब तक कि उसकी भौगोलिक संरचना को आप अपने दिलोदिमाग के फोटोशॉप में 'सेव' नहीं कर लेते।  हीरोइन ऐसे-ऐसे उत्तेजक वाक्य बोलेगी कि आप लंबे समय तक सोच-सोचकर गरमाते रहेंगे। आज यह सब देखकर सोचने को विवश होना पड़ता है कि दादा साहेब फाल्के को किसी पुरुष-नायिका लेने पर क्यों विवश होना पड़ा? भले घरों की लड़कियां तब फिल्मों में काम करना अपमान समझती थीं, लेकिन आज की भोजपुरी हीरोइनें फिल्मों में जो काम करती हैं वो कोठों पर देह बेचती विवश नारियां भी न करें। 


         अब इस नारी भारवाहक हीरो को देखिए।  ये नाजुक हीरोइन को अपनी सख्त पीठ पर लादे पूर्व जमींदार से लेकर वर्तमान सरपंच तक के खेतों का चक्कर लगाएगा।  गाना गाएगा, हीरोइन से चिपकेगा, उसके पीछे भागेगा, अपने पीछे भगाएगा, मगर चारों तरफ शांति छाई रहेगी।  गांव के पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े भी इतने अनुशासित कि अपनी परछाई तक नहीं दिखाएंगे।  गांव के सारे लोग इन दोनों को मौका देने के लिए किसी सत्संग में जा बैठे हैं, या वो इस काबिल नहीं हैं कि उन्हें ऐसे धार्मिक दृश्य देखने का सौभाग्य प्राप्त हो, ऐसा प्रतीत होता है। 


अब एक नजर इस तरफ भी - यह एक ग्रामीण परिवार है।  ध्यान से देखिए तो लगेगा जैसे चेन्नई गुवाहाटी पैसेन्जर  ट्रैन में अलग-अलग स्टेशनों से सवार होकर मजबूरी में साथ-साथ बैठे विभिन्न राज्यों  के मुसाफिर हैं।  इनकी एक और खासियत है - एक परिवार के सदस्य होकर भी ये अलग-अलग किस्म की भोजपुरी बोलते हैं।  भोजपुरी क्या बोलते हैं - बस यही समझ लीजिए कि भोजपुरी के अलावा सब कुछ बोलते हैं।  फिल्म में भोजपुरी की इतनी नफीस हजामत बनायी जाती है कि आप को लगेगा, आप जो भोजपुरी जानते हैं, वो असली नहीं है। 


           अब अपनी गरदन जरा इधर घुमाइए।  ये सिकडू नौजवान महोदय फर्स्ट क्लास फर्स्ट एम ए हैं, मगर रिक्शाचालक हैं।  यह स्पष्ट नहीं है कि रिक्शा चालन इनका पुश्तैनी पेशा है या बेरोजगारी इनसे ऐसा करवा रही है ? ये शिक्षा - सखा भी हो सकते हैं और अक्षररिपु भी।  जो भी हो, हीरो तो हैं।  अतएव ऐंठना और अकड़ना उनका अधिकार है।  ये हजरत कुछ ही पलों में एक दबंग विधायक के विशाल बंगले में खास अदा से दाखिल होने वाले हैं।  फिर भाषा - व्याकरण की हड्डी तोड़ते और ललकारते हुए जितना याद आएगा आएगा, बाकी अपनी तरफ से जोड़कर डायलॉग बोलेंगे।  आंखों से हरदम अंगारे बरसाने वाला विधायक बुधन सिंह बस उनसे चुपचाप देखने का ही काम लेगा।  हमारा ये दो पसलियों वाला हीरो सोमारू विधायक की इकलौती लाडली बहन मंगला के गालों पर बिना गोंद के टिकट-ए-मोहब्बत चिपकाकर वनराज की तरह अंगड़ाइयां लेता हुआ निकल जाएगा।  गार्ड गुरुदास, दरवान शुकदेव और गनमैन सनीचर सबको एक साथ लकवा मार जाएगा। उसके निकलने के बाद लकवा भी सबको अपनी गिरफ्त से मुक्त कर देगा।  विधायक के गुर्गे गुर्राते हुए आगे बढ़ेंगे, मगर तभी खलनायकवा को सुबुद्धि का २२,००० वोल्ट वाला झटका लगेगा।  वो हाथ उठाकर उन्हें रोक देगा।  उधर विधायक की बहन हीरो के चुम्बन को तन्हाई में याद करती हुई मुस्कुराएगी, लजाएगी और एक दिन बंगले से निकल भागेगी।  हीरो को ढूंढते-ढूंढते उसके गांव पहुंचकर उसकी गोद में गिर जाएगी।  बुधन सिंह बटालियन भी अंततः हथियार डाल देगी।  लो जी ! कितना अच्छा दी एन्ड है।  सचमुच समानता का हाथ पकड़े समाजवाद आ ही गया। अमीर-गरीब, ऊंच-नीच का भेद ख़तम।  रिक्शा खींचने वाला सोमारू सुंदरी मंगला का हसबैंड बनने के साथ-साथ विधायक बुधन का बहनोई भी बन गया।  जी हां बहनोई।  जीजा नहीं।  छोटी बहन का पति बहनोई।  भोजपुरी संस्कृति है न ? मजा यह कि जिस दिन बुधन मन्त्री बनेगा, सोमारू उससे मनचाहे काम करवायेगा।  साले का सिर बहनोई के आगे झुका ही रहता है न ? वाह भाई वाह ! मजा आ गया।  डायरेक्टर और राइटर साहबान ! तुम दोनों की तो. . . । बिहार और उत्तर प्रदेश के बाहुबली विधायकों और सांसदों को कभी देखा या उनके बारे में सुना है कि नहीं ? यह सब देखकर तो पहली इच्छा यही होती है कि इनकी जम कर सुताई कराई जाए, ऐसे ही विधायकों और सांसदों के हाथों। 


          तमाम बदलावों और सुधारों के बावजूद आज क्या भोजपुरी समाज में एक ही गांव के लड़के और लड़कियों के बीच प्रेम-सम्बन्ध या शादी स्वीकार्य है ? नहीं न, मगर हमारी भोजपुरी फिल्मों में यह बड़ी ढीठता के साथ दिखाया जाता है।  भोजपुरिया समाज में तो कई-कई गांवों तक गोत्र का परहेज चलता है।  आज अगर फ़िल्मी मड़वे में कोई दुल्हन जीन्स टॉप में फेरे लेती हुई दिख जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि बहुत कुछ बदल रहा है।  बड़ी तेजी से बदल रहा है।  मगर बदलाव इतना ज्यादा भी न हो जाए कि अपना ही परिचय देते समय बार-बार कान खुजाने पड़ें । शहर की पढ़ी-लिखी लड़की को गांव का अनपढ़ लड़का भा जाता है।  शादी के बाद ससुराल (गांव) पहुंचकर वो बड़ी आसानी से एडजस्ट हो जाती है।  उसका ससुर सुदूर गांव में भी थ्री पीस पहन कर चलता है।  सास बुढ़ापे में भी लिपिस्टिक लगाती है। दिन में तीन बार खाती है और चार बार कपड़े बदलती है।  घर में खाने के लाले पड़े होते हैं, मगर सन्दूक में बेशकीमती साड़ियों, बिंदियों और चूड़ियों का जखीरा पड़ा रहता है।  सुबह बिस्तर से उठते समय भी पता नहीं उसका मेकअप कैसे तरोताजा रहता है।  हो सकता है - रात में मेकअपवुमन बनकर चुड़ैल और भूतनी उसका श्रृंगार कर जाती हों।  भोजपुरी फिल्मों में हीरोइनों और आयटम डांसरों को जबरदस्त सेक्स बम बने रहने के लिए लिया जाता है, फिर भी हीरो के पारिश्रमिक का दसवां हिस्सा उन्हें बतौर पारिश्रमिक मिलता है।  


           आज असली जिंदगी में भी गांव की एक लड़की शहर में ही शादी करना चाहती है।  मगर हमारी भोजपुरी फिल्मों में मोहब्बत की मारी शहर की कुवांरी शार्ट स्कर्ट पहने ऊपले थापने और रोटियां बेलने में सास की मदद करने गांव पहुंच जाती है। और तो और मजदूर भी यहां जीन्स टी-शर्ट पहनकर ही फावड़ा चलाते हैं।  परिवार भारी कर्ज में डूबा है पर बेटा मोटरसाइकिल में बिना पेट्रोल भराए, उस पर प्रेमिका को बैठाए दूर-दूर की सैर करवा रहा है।  खदेड़न रविदास का बेटा झमकुआ के. रविदास भी अपने जूते मरम्मत की दुकान पर अंग्रेजी बोलता दिखने लगा है।  फिल्मों में दिखाई जाने वाली महाराष्ट्र स्टेट ट्रांसपोर्ट और गुजरात रोडवेज की बसों के नंबर प्लेट तक नहीं बदले जाते।  सबको पता है कि शूटिंग राजपिपला और पनवेल में ही हो रही है, मगर फिल्म तो भोजपुरी में है।  थोड़ा तो विवेक का इस्तेमाल करो भाइयों ! लोग तुम्हारी बेवकूफी से तृप्त होने के लिए सिनेमाघरों में नहीं आते ?


           बददिमाग जमींदार का बदचलन बेटा एक गरीब स्कूल मास्टर की सौंदर्य धनवंती बेटी को गर्भवती करके छोड़ देता है।  मास्टर की बेटी उसकी हेंकड़ी सीधा करने के लिए धमकी देती है कि अगर उसने उसे नहीं अपनाया तो वो उसके बाप की अर्धांगिनी बन जाएगी।  बाप और बेटे दोनों से सेटिंग की कल्पना तो कोई क्रांतिकारी कथाकार ही सोच सकता है।  एक महाशय तो चाचा और भतीजी के प्रेम-सम्बन्ध पर फिल्म बनाकर पूरे भोजपुरी समाज को थरथरा देने का मंसूबा पालते हुए भोजपुरी फिल्मों की आइडियल सिटी (हिंदी अनुवाद कर लें ) में घूम रहे थे।  जब चारों तरफ से हुज्जत के पत्थर बरसने लगे तो रेड कार्नर नोटिस वाले क्रिमिनल की तरह रातोंरात अंडरग्राउंड हो गए।  समाज में निःसंदेह अनैतिक सम्बन्ध स्थापित होते रहते हैं, जिन पर थू-थू भी होती है, मगर ऐसे नाजायज सम्बन्धों को फिल्मों का विषय नहीं बनाया जा सकता।  यह संस्कारों पर कालिख पोतने जैसा तुष्ट कर्म होगा। दो नौजवान भाई औरतों की तरह साड़ियां-चूड़ियां पहने अपने ही घर में बाप के इर्द-गिर्द नाचते हुए गाना गाते हैं।  वास्तविक जीवन में क्या ऐसा होता है ? नहीं होता, पर फिल्मों में तो बहुत कुछ होता है न ? भोजपुरी भाषा में एल्बम और डीवीडी फ़िल्में बनाने वाले तो पोर्नोग्राफी वालों के भी कान काट लेते हैं।  घिसे पिटे और हिंदी फिल्मों के सुपरहिट संवादों का ऐसा भोजपुरिया अनुवाद किया जाता है कि बुद्धि-विवेक शून्य भोजपुरिया दर्शक तालियों से जबरदस्त प्रतिक्रिया देते हैं। मानो यह संवाद वो पहले कभी नहीं सुना । 


           कुछ संस्कृति-संहारक गीतकार हमारा सामान्य ज्ञान सुधरवाने की नीयत से यह बताते हैं कि चम्बल घाटी किसी मध्यप्रदेश में नहीं बल्कि गोरियों के लहंगों के नीचे स्थित है।  आइटम सांग के माध्यम से एक तन्वंगी बड़ी नम्रता के साथ अपने जीजा से निहोरा करती है कि चूंकि चूल्हे का मुंह छोटा है, अतएव उसमें मोटी लकड़ी न लगाई जाए।  एक बुजुर्ग गीतकार के लिखे गीत का दुर्लभ मुखड़ा है - "तोहरा बगइचा के हमरा फल चाहीं।" एक साला गाने में अपने जीजा को बहन के साथ अकेले में कैसे-कैसे क्या-क्या करना है बता रहा है।  फिल्मों में अश्लीलता के दर्शन करके सभ्य आदमी खुद को भोजपुरिया कहने में लज्जित होने लगा है। भोजपुरी संस्कारों की ऐसी दुर्गति हजार फकीरों की एक जैसी बददुआओं से ही संभव है। आधुनिकता की आंधी में भी हमारे संस्कारों, परम्पराओं और संस्कृति की जड़ें पूरी तरह नहीं उखड़ीं।  जमीन से अभी भी जुडी हैं।  लाज-लिहाज ने भले पूरी तरह पर्दा करना छोड़ दिया हो, उतनी ढीठ और बेशरम भी नहीं हुईं।  इसके पहले कि मनोरंजन के बहाने कोई शिष्टाचार का सरकलम करने की जुर्रत करे, उसकी मुश्कें कस देनी चाहिएं वर्ना भाषा और संस्कृति के हमेशा हमेशा के लिए गम हो जाने का पर्याप्त इतिहास है हमारे पास। 


           गैर तो गैर खांटी भोजपुरिया भी अपनी संस्कृति के क्षरण से चिंतित या विचलित नहीं दिखते।  भोजपुरी फिल्म-इंडस्ट्री के ९०% लोगों को सिर्फ पैसों और मौज-मस्ती से मतलब होता है।  क्रिएटिविटी अब चंद जुनूनियों और संस्कृति-प्रेमियों तक ही महदूद रह गयी है।  जो लोग फिल्मों में भोजपुरी की अस्मिता का हनन रोक सकते थे, वही लोग बदकारों की कोर कमिटी में बैठे है।  लोग इस बात से ज्यादा मतलब रखते हैं कि फिल्मों के नाम पर उनके आंगन में सिक्कों की कितनी बरसात हुई ? फिल्म बनी या नहीं ? कितने दरबदर और कितने तरबतर हुए ? इनसे इनका कोई लेना-देना नहीं होता।  जिसमें उनका फायदा है, वही उनका एजेंडा है।  आपके प्रतिकार के जवाब में उनके पास बेशरमी भरे यथेष्ठ तर्क हैं।  अश्लीलता की वो मौके पर ही नयी परिभाषा गढ़कर बता देंगे।  अगर वो बहुमत में हों, तो फिर आपकी बोलती बंद करके रख देंगे।  "गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो" के पुराने वटवृक्ष की जड़ों में भाइयों ने जिलेटिन लगा दिया है।  उड़ना तो तय है। 


          आज भोजपुरी फिल्म-इंडस्ट्री में मेधावी वर्ग हाशिये पर है।  उसकी सकारात्मक सोच, मेधा और रचनात्मकता का कोई पूछवैय्या नहीं।  जिनके दिमाग में कचरा भरा है, जिनका विवेक भौतिकता का बंधुआ गुलाम बनकर रह गया है, उनसे कुर्तक की ही उम्मीद की जाती रही है, वो अपनी गलती स्वीकारेंगे नहीं।  अश्लील गीत लिखकर और गाकर लोग सांसद-मन्त्री तक बन जाएंगे।  ऐसे में विरोध करने वाले तो ब्लॉक/अंचल स्तर तक भी अपनी चीख नहीं पहुंचा पाएंगे।  फिल्मों में गुणवत्ता का स्तर गिरने से दर्शक भी बिचके हैं।  सर्व शिकायत है कि आज की भोजपुरी फिल्मों में गांव की छवि नहीं दिखती। जब किसी भोजपुरी फिल्म में ढूंढने से भी भोजपुरी न मिले तो मुंह दूसरी तरफ करके बात ख़तम करने में ही भला मान लेना चाहिए।

               गुजरात के बैल और महाराष्ट्र की बैलगाड़ी भोजपुरी दर्शकों की मांग नहीं, भरी जवानी में सठियाए निर्माताओ-निर्देशकों की प्रदूषित सोच की देन है।  यकीनन भोजपुरी संस्कृति के साथ खिलवाड़ हो रहा है, मगर इस निकृष्टतम खेल पर प्रतिबन्ध लगाने कोई सामने नहीं आता। प्रोडूसर कहते हैं - "इस दुरावस्था के दोषी वितरक हैं " वितरकों का तर्क है कि ऑडियंस की इच्छा का सम्मान नहीं करेंगे तो जिन्दा कैसे रहेंगे ? अथवा "वो व्यवसायी हैं", जैसी फ़िल्में बनेंगी, वैसे ही फ़िल्में खरीदनी भी पड़ेंगी।  वितरकों का सिंडिकेट एक झटके में सार्थक फिल्मकारों को दरबदर कर देता है।  उनकी फ़िल्में एक तो बन नहीं पातीं दूसरे बनकर भी रिलीज नहीं हो पातीं।  उनका हश्र देखकर दूसरे भी मैदान छोड़ देते हैं।  इस तरह रावणराज अपने तरीके से अपना आरोहण करने लगा है। 

          प्रोड्यूसर की पुकार है - "वो छला गया।" वितरक की सफाई है - "उसे घाटा हुआ।" प्रबुद्ध दर्शक की व्यथा है - "फिल्म में जब हमारा कल्चर है ही नहीं तो क्या देखने जाएं ?" यह अलग बात है कि जितने लोग आज की भोजपुरी फ़िल्में देखने से कतरा रहे हैं, उनसे कई गुणा ज्यादा लोग उन्हीं फिल्मों को देख रहे हैं।  कौन हैं ये लोग ? जो भी हों, फिल्मों को वही चला रहे हैं।  फिर किस बात का शोरगुल ? यहां की हर बात, लोगों का हर अंदाज अलग है।  बस किराए के लिए दूसरों पर आश्रित याचक-पाचक भी यही दावा करते फिरते हैं कि वो मदर इंडिया, मुगलेआजम, शोले, लगान और बाहुबली बना रहे हैं।  बाद में दिखते भी नहीं कि उनसे पूछा जाए कि कब रिलीज हो रहीं हैं उनकी वो कालजयी फ़िल्में ?

           कोई चचेरा, ममेरा, फुफेरा, मौसेरा भाई हीरो बना नहीं कि रिश्ते के सारे भाई, जिन्हें नाटकों में परदा खींचने का काम भी नहीं मिलता, हीरो बनने मुंबई आ पहुंचते हैं।  शक्ल-सूरत ऐसी कि इनको खड़ा करने में चलते-फिरते लोग लंगड़े हो जाते हैं।  किसी स्थापित हीरो का नकटा अनुज भी हीरो बन जाता है। हर हीरो की नापसंद हीरोइन, राइटर और तकनीशियन। अजीब हाल है मगर उनके बेशरमी भरे फलसफे सुनिये।  पागलखाने में भर्ती होने को दिल करेगा।

           अगर पूरे देश का हिसाब लगाया जाए तो साल में ४०० से भी ज्यादा फ़िल्में बनती हैं यानी प्रतिदिन एक से भी अधिक।  पिछले १२ वर्षों में भोजपुरी फिल्मों के निर्माण में कोई रूकावट नहीं आई।  जाहिर है, भोजपुरी फिल्मों के निर्माण हेतु कहीं न कहीं से लगातार और पर्याप्त पैसे आ रहे हैं।  पैसे और लोग लगाते है।  पर प्रयोग दूसरे लोग करते हैं।  प्रयोगधर्मियों का क्या है ? एक को नोंचकर दूसरे को झिंझोड़ने निकल पड़े।  इनके मारे हुए उम्र भर मिमियाते हैं।  किसी से अपना दर्द बयां नहीं कर सकते। गौरतलब है कि  पुराने, नामचीन समर्थ फिल्मकारों ने संगीन हालातों को देखते हुए  भोजपुरी फ़िल्में बनाने से हाथ खींच लिया।  ये वो लोग थे, जिनकी फ़िल्में देखने के लिए परिवार के परिवार एक दिन पहले ही शहर आकर सिनेमाघरों के बाहर डेरा डाल देते थे।  एक बार बराये-मेहरबानी पिछला इतिहास देख लीजिए।  मोहनजी प्रसाद आज भी जीवित हैं, लेकिन भोजपुरी फिल्मोद्योग में मूंछों पर ताव देते हुए गलत लोग चांदी की बरफी खा रहे हैं। वो सक्षम लोगों के तलवे चाटने और उनके लिए शबाब का  रोज नया पैकेज पेश करने को अपना टैलेन्ट मानते हैं।

            क्यों पिछले ४१ सालों में (१९६१ से लेकर २००२ तक) उत्साही दर्शकों, उदार फायनेंसरों, सक्षम निर्माता निर्देशकों और उचित माहौल के रहते हुए भी गिनती की फ़िल्में बनीं।  जब तक अच्छे-अच्छे प्लाट मिलते रहे, फ़िल्में बनती रहीं।  बाद में भोजपुरी प्रेमी वो सारे सर्जक हिंदी फिल्मों की तरफ लौट पड़े।  उन्होंने जो भी किया, उत्कृष्ट किया।  अपनी तरफ से बेहतरीन दिया।  भोजपुरी समाज, संस्कृति और उसके लोक-संगीत को बड़ी खूबसूरत और नफासत से पेश किया। आज का हाल देखिये।  समाज कितना बेपरवाह है ? संस्कृति पूर्ण प्रदूषित है और संगीत का तो पूछिए ही मत।  एक ही ट्रैक पर सौ-सौ गाने लिखे जाते हैं।  गीतकार को जो शब्द सूझता है, लगा देता है।  संगीतकार को शब्दों से क्या, उनके अर्थों से क्या ? बस छाप करके दे देना है। जिससे हवसियों की कनपटी लाल हो जाए।  विडम्बना देखिए, छपरा के भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिसिर के गीत असम की कल्पना पटवारी जाती हैं।  गांधी, पटेल, नेहरू, इंदिरा पर हिंदी में फ़िल्में बन सकती हैं, लेकिन वीर कुंवर सिंह, जय प्रकाश नारायण, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, अब्दुल हमीद जैसी हस्तियों पर भोजपुरी में क्यों नहीं ? असम, त्रिपुरा, कर्नाटक से आए लोग आखिर कहां तक हमारी विरासत को घिस-घिस कर चमकाते रहेंगे।  वो तो "लोकराग" जैसी संस्थाओं का यशगान कीजिए, जिन्होंने भोजपुरी के लोकगीतों को चुन-चुनकर दृश्य-श्रव्य माध्यम के जरिए लोगों तक पहुंचाया।  महेंद्र मिसिर के पूरबी गीत, रघुवीर नारायण का बटोहिया तथा और भी कई रचनाएं और चन्दन तिवारी जैसी विविधता भरी आवाज को तराश कर सामने लाने का काम तो उन्होंने किया ही है।  ऐसे अच्छे काम तो और भी लोग कर सकते हैं, मगर क्यों नहीं करते ?

            अब रुख सिनेमा हॉल की तरफ।  अंदर की बात बाद में।  पहले बाहर खड़े होकर पोस्टर देखते हैं।  फिल्म का नाम ही ऐसा है कि समझ में नहीं आता, उसे हिंदी कहें या भोजपुरी? अब ध्यान से कलाकारों का  मुखमंडल देखिए।  बात समझ में आ जाएगी।  अब देखिए, ये जो झुंड के झुंड लोग हैं, सीधे हॉल की तरफ भागे आ रहे हैं, कौन हैं ये ? अरे, यही तो आज के निरर्थक सिनेमा के समर्पित दर्शक हैं। अब लगी हुई फिल्म पर बात कीजिए।  इसमें दावे के साथ कहा जा सकता है कि शुद्ध भोजपुरिया कलाकार दो से ज्यादा नहीं हैं।  हीरोइनें हमेशा बाहर से ही आती रही हैं।  अब रिकार्ड टूट रहा है।  आरा, बक्सर से भी एक-एक करके निकलने लगी हैं।  भोजपुरी सिनेमा की आज अपनी कोई सार्थक सोच नहीं है।  सब कुछ उधार लिया हुआ।  विषय वस्तु हिंदी फिल्मों का नकलांश।  नाम भी हिंदी फिल्मों वाला। 

           भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री हमेशा से अव्यवस्थित रही है।  कौन मार्गदर्शक है और कौन अनुगामी, पता ही नहीं चलता।  फिल्मों से जुड़े लोगों को न्याय दिलाने के लिए अपना कोई अलग यूनियन तक नहीं है।  पता नहीं, किस अशुभ घड़ी में किस अपण्डित ने इसका नाम भोजीवुड या पॉलीवुड रख दिया था। हालात उम्मीदों को चोटिल करते हैं।  फ़िल्में हिट होने और अच्छे काम करने के बावजूद कलाकारों और तकनीशियनों को काम मांगने के लिए ऑफिस दर ऑफिस चक्कर लगाने पड़ते हैं।  " योग्यता पर काम मिलता है", इस धारणा को भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री ने पूर्ण बहुमत से ख़ारिज कर दिया है।  जुगाड़ और कैम्पबाजी के बिना यहां काम नहीं मिल सकता।  लोगों की चाहत और महत्वाकांक्षा भी इतनी सस्ती कि जब खुद को भोजपुरी का अमरीश पुरी, राजपाल यादव, मनोज वाजपेयी, अमिताभ बच्चन, गुलशन ग्रोवर, निरुया रॉय और मीना कुमारी कहते हैं, उनकी सोच पर तरस के लगातार झटके आते हैं। इन्टरनेट ने तो इनको मानों हजारों पंख दे डाला है।  फेसबुक पर देखिये इनकी आत्मप्रशंसा।  काम के लोगों का गुणगान।  अपनी ही हीरोइन बेटियों के नाम से अभद्र गीत सुनते बेगैरत माता पिता।  फ़िल्मी मैगजीनों में बेटी के हीरो से रोमांस की प्रायोजित खबरों को दूसरों को पढ़वाते दलाल बाप और धंधेबाज मांएं। 

           सेंसर बोर्ड ने भी भोजपुरी फिल्मों को प्रमाण-पत्र देने के लिए उन लोगों को चुन रखा है, जो भोजपुरी के अलावा भोजपुरी का कोई दूसरा शब्द भी नहीं जानते।  उन्हें कुर्सियों पर सोने की बीमारी है।  उनके दिमाग में भोजपुरी फिल्म का अर्थ है - कांति शाह और पिछले दशकों में बनती गरमागरम फ़िल्में भोजपुरी की पहचान बनायी है - निम्न दर्जे की भाषा और अश्लील दृश्यों के इर्द-गिर्द बनी गयी कहानी।  भोजपुरी ऑडियो वीडियो को सुनने सुनाने की गलती वो भी परिवार के सामने अक्षम्य होगी। 

         स्तरीय पत्र-पत्रिकाएं भोजपुरी सिनेमा पर चार पंक्तियां लिखने में भी अपनी तौहीन समझती हैं।  जोशो-जूनून में कई पत्रिकाएं निकलीं और फिर अहसासे-नुकसान और तल्ख़-तजुर्बों के बाद बंद भी हो गईं।  हम मानें या न मानें, मगर अपने ही समाज और संस्कृति के हम अपराधी हैं।  ऐसे अपराधी, जिन पर मुकदमे नहीं चल सकते, मगर सजा पीढ़ियों को, परम्पराओं को और तहजीब को भुगतानी पड़ती है।  भोजपुरी सिनेमा के करीब ५६ सालों में कम से कम तीन ब्रेक लगे।  ये ब्रेक हमेशा बाहरी लोगों ने लगाया है।  भेड़चाल भोजपुरी सिनेमा का पुराना सिध्दान्त रहा है।

          हालात सुधारने के लिए क्या करना चाहिए ? एक दो अच्छी फ़िल्में बनाने से भी कुछ नहीं होगा।  जब कुएं में ही भंग पड़ी हो तो नशीले तत्वों को भगीरथ प्रयासों से ही निष्क्रिय किया जा सकता है।  निर्माताओं को सुनिश्चित करना होगा कि वो भोजपुरी फिल्मों में भोजपुरी क्षेत्रों के लोगों को ही लें।  ऐसे लोग जो भाषा की ऐसी-तैसी ना करें।  ऐसी साफ सुथरी फ़िल्में तो बनायें जिन्हें सपरिवार देखा जा सके।  हालात देखकर ऐसा लगता है, जैसे आनेवाले  दिनों में भोजपुरी फिल्म इन्डस्ट्री देश की सबसे बड़ी सी ग्रेड फिल्म इन्डस्ट्री न बनकर रह जाए।  दुश्चिंता इस बात की है कि यही फूहड़ फ़िल्में कहीं हमारी पहचान बनकर स्थापित न हो जाएं।

          जो  भोजपुरिए हजारों मील दूर निर्जन टापूओं पर जाकर समृध्द देश बसा सकते हैं, उनकी अपनी ही फिल्मों की दशा इतनी बदतर कैसे हो सकती है ? क्यों न सारे भोजपुरी भाषी आपस में जुड़कर कुछ सोचें और सही राह निकालें।  जब फसलों को नीलगाय या बंदर नोचते बर्बाद करते हैं, छूटे सांड चर जाते हैं, तब किसान माथा पीटते हुए आत्महत्या नहीं कर लेते।  मिल जुलकर उनसे निदान का रास्ता भी ढूंढते हैं।  भोजपुरिया समाज इतना कमजोर भी नहीं हो गया कि फिल्मरुपी सरसों में लगने वाली अश्लीलता की 'लाही' का समय पूर्व इलाज न कर पायें :- 

"इससे कव्ल कि जख्म नासूर बन के सेहत पर घात करें
क्यों न सब छोड़ के इसके फौरी इलाज की बात करें"

 संपर्क सूत्र- 
 ए - 223 , मोर्या हाउस
 वीरा इंडस्ट्रियल ईस्टेट
 ऑफ ओशिवरा लिंक रोड
  अंधेरी  (पश्चिम ), मुंबई - 400053
  मोबाइल  (M ) - 9819343822
  E-mail : anjanisrivastav.kajaree@gmail.com
                srivastavanjani37@yahoo.com

शनिवार, 18 नवंबर 2017

सुशांत सुप्रिय की कहानी : दाग़

        

          श्री सुशांत सुप्रिय हिन्दीपंजाबी और अंग्रेज़ी में लिखते हैं. हत्यारे हे राम दलदल इनके कुछ कथा संग्रह हैंअयोध्या से गुजरात तक और इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं इनके काव्य संकलन. इनकी कई कहानियाँ और कविताएँ विभिन्न भाषाओं में अनूदित होचुकी हैं. अनेक कहानियाँ  कई राज्यों के स्कूलों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैंकविताएँ पूणे विश्व-विद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हैं और विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोधार्थी इनकी कहानियों पर शोध कर रहे हैं. भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा इनकी रचनाएँ पुरस्कृत की गई हैं. कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई )में लगातार दो वर्ष प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किये गए.

सुशांत सुप्रिय की कहानी : दाग़ 


    


       रात से ठीक पहले ढलती हुई शाम में एक समय ऐसा आता है जब आकाश कुछ कहना चाहता है , धरती कुछ सुनना चाहती है । जब दिन की अंतिम रोशनी रात के पहले अँधेरे से मिलती है । यह कुछ-कुछ वैसा ही समय था । कनाॅट प्लेस में दुकानों की बत्तियाँ जगमगाने लगी थीं । दिन बड़ा गरम रहा था । शाम में ठंडी बीयर पीने के इरादे से मैं ' वोल्गा ' रेस्त्रां में पहुँचा । कोनेवाली टेबल पर एक अधेड़ उम्र के सरदारजी अकेले बीयर का मज़ा ले रहे थे । न जाने क्यों मेरे क़दम अपने-आप ही उनकी ओर मुड़ गए ।
      " क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ ? " मैंने ख़ुद को सरदारजी से कहते सुना ।
       " बैठो बादशाहो ! बीयर-शीयर लो । " सरदारजी दरियादिली से बोले ।
       " शुक्रिया जी ।" मैंने बैठते हुए कहा ।
       बातचीत के दौरान पता चला कि क़रोल बाग़ में सरदारजी का हौज़री का बिज़नेस था । जनकपुरी में कोठी थी । वे शादी-शुदा थे । उनके बच्चे थे । उनके पास वाहेगुरु का दिया सब कुछ था । पर इतना सब होते हुए भी मुझे उनके चेहरे पर एक खोएपन का भाव दिखा । जैसे उनके जीवन में कहीं किसी चीज़ की कमी हो । शायद उन्हें किसी बात की चिंता थी । या कोई और चीज़ थी जो उन्हें भीतर ही भीतर खाए जा रही थी ।
         बातचीत के दौरान ही सरदारजी ने  तीन-चार बार मुझ से पूछ लिया , " मेरे
कपड़ों पर कोई दाग़-वाग तो नहीं लगा जी ? "      
 मुझे यह बात कुछ अजीब लगी । उनके कपड़े बिल्कुल साफ़-सुथरे थे । मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि उनके कपड़ों पर कहीं कोई दाग़ नहीं था । हालाँकि उनके दाएँ हाथ की कलाई के ऊपर कटने का एक लम्बा निशान था । जैसे वहाँ कोई धारदार चाक़ू या छुरा लगा हो ।
       फिर मैं सरदारजी को अपने बारे में बताने लगा ।
        अचानक उन्होंने फिर पूछा -- " मेरे कपड़ों पर कोई दाग़-वाग तो नहीं लगा
 जी ? " उनके स्वर में उत्तेजना थी । जैसे उनके भीतर कहीं काँच-सा कुछ चटक गया हो जिसकी नुकीली किरचें उन्हें चुभ रही हों ।
       मैंने हैरान हो कर कहा -- " सरदारजी, आप निश्चिंत रहो । आपके कपड़े बिल्कुल साफ़-सुथरे हैं । कहीं कोई दाग़ नहीं लगा । हालाँकि मैं यह ज़रूर जानना चाहूँगा कि आपके दाएँ हाथ की कलाई के ऊपर यह लम्बा-सा दाग़ कैसा है ? "
        यह सुनकर सरदारजी का चेहरा अचानक पीले पत्ते-सा ज़र्द हो गया । जैसे मैंने उनकी किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो ।
       कुछ देर हम दोनों चुपचाप बैठे अपनी-अपनी बीयर पीते रहे । मुझे लगा जैसे मैंने उनसे उनके चोट के दाग़ के बारे में पूछ कर उनका कोई पुराना ज़ख़्म फिर से हरा कर दिया हो । उनकी चुप्पी की वजह से मुझे अपनी ग़लती का अहसास और भी शिद्दत से हो रहा था । कई बार आप अनजाने में ही किसी के व्यक्तिगत जीवन में झाँक कर देखने की भूल कर बैठते हैं हालाँकि इसके जड़ में केवल उत्सुकता ही होती है । पर भूल से आप किसी के जीवन के उस दरवाज़े पर दस्तक दे देते हैं जो बरसों से बंद पड़ा होता है । जिसके पीछे कई राज़ दफ़्न होते हैं । जिसका एक गोपनीय इतिहास होता है ।
     " मैंने आज तक इस ज़ख़्म के दाग़ की कहानी किसी को नहीं बताई । अपने बीवी-बच्चों को भी नहीं । पर न जाने क्यों आज आप को सब कुछ बताने का दिल कर रहा है । " सरदारजी फिर से संयत हो गए थे । उन्होंने आगे कहना शुरू किया --
 " मेरा नाम जसबीर है । बात तब की है जब पंजाब में ख़ालिस्तान का मूवमेंट ज़ोरों पर था । हालाँकि सरकार ने आॅपरेशन ब्लू-स्टार में बहुत से मिलिटैंटों को मार दिया था पर ख़ालिस्तान का आंदोलन जारी था । हमें लगता था , हमारे साथ भेदभाव हो रहा था । पंजाब के बाहर लोग हमें देख कर ताने मारते थे -- " सरदारजी , ख़ालिस्तान कब ले रहे हो ! "
     " मैं उन दिनों खालसा काॅलेज , अमृतसर में पढ़ता था । हम में से कुछ सिख युवकों के लिए ख़ालिस्तान का सपना दिल्ली दरबार की ज़्यादतियों के विरुद्ध हमारे विद्रोह का प्रतीक बन गया । हम महाराज़ा रणजीत सिंह के सिख राज्य को फिर से साकार करने के लिए काम करने लगे । मैं सिख स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन का सरगर्म कार्यकर्ता था । पुलिस के अत्याचार देख कर मेरा ख़ून खौल उठता । 1985 में मैं मिलिटैंट मूवमेंट में शामिल हो गया । हथियार हमें पड़ोसी देश से मिल जाते थे । उसका अपना एजेंडा था । अत्याचारियों से बदला लेना और ख़ालिस्तान की राह में आ रही रुकावटों को दूर करना ही हमारा मिशन था ।मैं अपने काम में माहिर निकला ।  दो-तीन सालों के भीतर ही मैं अपनी फ़ोर्स का कमांडर बन गया । पुलिस ने मुझे ' ए ' कैटेगरी का आतंकवादी घोषित कर दिया ।मेरे सिर पर बीस लाख का इनाम रख दिया गया ।
     " इन्हीं दिनों हमारी फ़ोर्स में एक नया लड़का सुरिंदर शामिल हुआ ।उसने मुझे बताया कि इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद नवंबर-दिसंबर , 1984 में दिल्ली में हुए सिख-विरोधी दंगों में उसका पूरा परिवार मारा गया था । उसके अनुसार दंगाइयों ने उसके बूढ़े माँ-बाप और भाई-बहनों के केश कतल करने के बाद उनके गले में टायर डाल कर उन्हें ज़िंदा जला दिया था । सुरिंदर ने कहा कि अब वह केवल बदला लेने के लिए जीवित था । उसने बताया कि वह सिखों के दुश्मनों को मिट्टी में मिला देना चाहता था । उसकी बातें सुन कर मुझे लगा कि हमारी फ़ोर्स को ऐसे ही नौजवान की ज़रूरत थी । मुझे सुरिंदर हमारे मिशन के लिए हर लिहाज़ से सही लगा । मैंने उसे अपनी फ़ोर्स में शामिल कर लिया ।
     " कुछ दिन बाद एक रात हमने मिशन के एक काम पर जाने का फ़ैसला किया । मैं , सुरिंदर और हमारे कुछ और लड़के मोटर साइकिलों पर सवार हो कर रात बारह बजे अमृतसर के सुल्तानविंड इलाक़े से गुज़र रहे थे । हमारे पास ए. के. 47 राइफ़लें थीं । हम सब ने शालें ओढ़ी हुई थीं । सुरिंदर मोटर साइकिल चला रहा था और मैं उसके पीछे बैठा था । वह रहस्य और रोमांच से काँपती हुई रात थी ।
    " अचानक बीस-पच्चीस मीटर आगे हमें पुलिस का नाका दिखाई दिया । पुलिस की दो-तीन जिप्सी गाड़ियाँ और दस-पंद्रह जवान वहाँ खड़े थे । हम सब ने अपनी-अपनी मोटर साइकिलें रोक लीं । पुलिस वालों ने देखते ही हमें ललकारा । मैं वहाँ एन्काउंटर नहीं चाहता था । हम आज रात एक ख़ास मिशन के लिए निकले थे । मेरे इशारे पर बाक़ी लड़के अपनी-अपनी मोटर साइकिलें मोड़ कर पास की गलियों में निकल भागे । पर सुरिंदर हथियारबंद पुलिसवालों को देखते ही डर के मारे आँधी में हिल रहे पत्ते-सा काँपने लगा । मेरे लाख आवाज़ देने के बावजूद वह मोटर साइकिल पकड़े अपनी जगह पर जड़-सा हो गया । पुलिस वाले पास आते जा रहे थे । मजबूरन मैंने अपनी शाल हटाई और पुलिस वालों को डराने के लिए अपनी ए.के. 47 से हवाई फ़ायरिंग की । पुलिस वाले रुक गए । इस मौक़े का फ़ायदा उठा कर मैं सुरिंदर को घसीटते हुए पास की गली की ओर ले भागा । हमें भागता हुआ देख कर पुलिस वालों ने हम पर फ़ायरिंग शुरू कर दी । एक गोली सुरिंदर की जाँघ में आ लगी । तब तक मेरे कुछ साथी हमें बचाने के लिए वापस लौट आए थे । गोली-बारी के बीच घायल सुरिंदर को सहारा दिए मैं और मेरे बाक़ी साथी मोटर-साइकिलों पर बैठ कर किसी तरह बचते-बचाते वहाँ से निकल भागे ।
   " अपने छिपने के ठिकाने पर पहुँच कर मैंने सुरिंदर से पूछा, " तू भागा क्यों नहीं
 था ? "  पर उसका चेहरा डर के मारे राख के रंग का हो गया था । उसके मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी । हमने उसकी जाँघ में लगी गोली निकाल कर उसकी मरहम-पट्टी की । अब वह अगले पंद्रह-बीस दिनों तक वैसे भी किसी मिशन पर जाने के लायक नहीं था । पर मेरा दिल उस घटना से खट्टा हो गया था । उस दिन सुरिंदर को पुलिसवालों के सामने डर से थर-थर काँपता देख कर मैं ख़ुद से शर्मिंदा हुआ कि यह मैंने किस कायर को अपनी फ़ोर्स में शामिल कर लिया था ।
   " पर मिशन के काम तो नहीं रुक सकते थे । ख़ालिस्तान बनाने का सपना लिए हम दिन-रात अपने काम पर जुटे रहते । कभी सिख युवकों पर अत्याचार करने वाले किसी व्यक्ति को रास्ते से हटाना होता , कभी अपने किसी साथी को पुलिस की हिरासत से छुड़ाना होता । मैं और मेरी फ़ोर्स के बाक़ी लड़के सुरिंदर को अपने ठिकाने पर छोड़कर हर दूसरी-तीसरी रात में किसी-न-किसी मिशन पर निकल जाते । सुबह चार-पाँच बजे तक हम अपना काम करके वापस लौट आते । कभी-कभी दिन में भी मिशन के काम से जाना पड़ता । हालाँकि सुरिंदर का हमारी फ़ोर्स में आना हमारे लिए बदक़िस्मती जैसा ही था । जब से वह आया था , हमारे बहुत-से साथी पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ों में मारे जाने लगे थे । ख़ैर । यही हमारा जीवन था । कभी मिशन के कामयाबी की ख़ुशी । कभी साथियों के बिछुड़ने का ग़म ।
   " हमारी देखभाल के कारण सुरिंदर की जाँघ में लगी गोली का ज़ख़्म धीरे-धीरे ठीक होने लगा था । मुझे लगा , मुझे उसे ख़ुद को साबित करने का एक और मौक़ा देना चाहिए । शायद वह इस बार हमारी उम्मीदों पर ख़रा उतर सके । मैं उसके पूरी तरह ठीक हो जाने का इंतज़ार करने लगा ।
    " एक रात अपना काम निबटा कर हम सभी वापस अपनी रिहाइश की ओर लौट रहे थे । वह सलेटी आकाश, भीगी हुई हवा और पैरों के नीचे मरे हुए पत्तों का मौसम था । सुबह के चार बज रहे थे । जुगनुओं की पीठ पर तारे चमक रहे थे । मैं सबसे आगे था । घर में चुपके से घुसने पर मैंने पाया कि कि सुरिंदर जगा हुआ था और दूसरे कमरे में किसी से फ़ोन पर बातें कर रहा था । मुझे हैरानी हुई । मैंने उसके पास जा कर छिप कर उसकी बातें सुनीं तो मेरे होश उड़ गए । सुरिंदर पुलिसवालों से बातें कर रहा था और उन्हें हमारे बारे में ख़ुफ़िया जानकारी दे रहा था । उसने हमें पकड़वाने के लिए शायद पहले से ही पुलिसवाले भी बुला रखे थे । मैं सन्न रह गया ।
  " हमारे साथ धोखा हुआ था । दुश्मन दोस्त का भेस बना कर आया था । वह पुलिस का मुख़बिर है , यह जानकर मेरा ख़ून खौल उठा । ' ओए गद्दारा ' -- मैं ग़ुस्से से चीख़ा और अपनी किरपान निकाल कर मैंने उस पर हमला कर दिया और उसे घायल कर दिया । हम दोनों गुत्थमगुत्था हो गए । पर तभी आसपास छिपे पुलिसवाले घर का दरवाज़ा तोड़कर अंदर आ गए और उन्होंने मुझे घेर लिया । उनकी स्टेन-गन और कार्बाइन मेरे सीने पर तनी हुई थीं । " इतना कह कर सरदारजी चुप हो गए ।  उन्होंने धीरे से अपना गिलास उठाया और गिलास में बची बाक़ी बीयर ख़त्म की ।
    " सुरिंदर का क्या हुआ ? " मैंने उत्सुकतावश पूछा ।
    " पुलिस ने उसे मेरे सिर पर रखे इनाम के बीस लाख की रक़म का आधा हिस्सा दे दिया । दस लाख रुपए ले कर वह वापस दिल्ली भाग गया । " सरदारजी बोले ।
    " आपको उसके बारे में इतना कैसे पता ? " मैं हैरान था ।
      यह सुनकर सरदारजी का चेहरा स्याह हो गया । उनके हाथ काँपने लगे । ए.सी. में भी उनके माथे पर पसीना छलक आया ।
      आख़िर किसी तरह कोशिश करके उन्होंने कहा ," क्योंकि मैं जसबीर नहीं हूँ । मैं ही वह बदनसीब सुरिंदर हूँ । वह ग़द्दार मैं ही हूँ । मैंने वह कहानी जान-बूझकर आपको दूसरे ढंग से सुनाई थी । " सरदारजी के हाथ अब भी थरथरा रहे थे ।
     उनकी बात सुनकर मैं हतप्रभ रह गया । प्याज़ की परतों की तरह इस कहानी में रहस्य की कई तहें थीं जो एक-एक करके खुल रही थीं ।
    " मेरे दाएँ हाथ की कलाई के ऊपर इस ज़ख़्म का दाग़ मुझे जसबीर ने दिया था जब मेरी असलियत जानकर उसने किरपान से मुझ पर हमला किया था ।" सरदारजी ने आगे कहा ।
    " जसबीर का क्या हुआ ? " मैं अब भी इस अजीब पहेली को समझने का प्रयास कर रहा था ।
     " उस दिन सुबह साढ़े चार बजे के आसपास उसके लिए दुनिया रुक गई । पुलिसवालों ने उसे मेरे सामने ही गोली मार दी । उस समय वह निहत्था था । उस दिन उसके फ़ोर्स के ज़्यादातर लड़कों को पुलिसवालों ने धोखे से मार दिया । उन सबकी मौत का ज़िम्मेदार मैं हूँ ।" सरदारजी ने भारी स्वर में कहा । कुएँ के तल में जो अँधेरा होता है, वैसा ही अँधेरा मुझे उनकी आँखों में नज़र आया ।
     " आप दुखी क्यों होते हैं ? आख़िर वे सब आतंकवादी थे । " मैंने उन्हें दिलासा दिया ।
     " हर आदमी के भीतर कई और आदमी रहते हैं । यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसके किस रूप के दरवाज़े पर दस्तक देते हैं । मुझे नहीं मालूम वे आतंकवादी थे या गुमराह नौजवान । मैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ कि पैसों के लालच में आ कर मैंने उस आदमी को धोखा दिया , उस आदमी से ग़द्दारी की जिसने अपनी जान पर खेल कर मुसीबत में मेरी जान बचाई थी । जिसने मेरी देख-भाल करके मेरे ज़ख़्म ठीक किए थे । उसे पुलिस के हाथों मरवा कर मुझे रुपए-पैसे तो बहुत मिले पर उस दिन से मेरे दिल का चैन खो गया । मेरी अंतरात्मा मुझे रह-रह कर धिक्कारती है कि तू दग़ाबाज़ है । मैं रात में बिना नींद की गोली खाए नहीं सो पाता । मेरे सपने मेरी वजह से मरे हुए लोगों से भरे होते हैं । मेरे सपनों में अक्सर दर्द से तड़पता और लहुलुहान जसबीर आता है । वह मुझ से पूछता है --" मैंने तो तेरी जान बचाई थी । फिर तूने मुझे धोखा क्यों दिया ? " और मैं उससे नज़रें नहीं मिला पाता । उसकी फटी हुई आँखें , उसके बिखरे हुए बाल , उसकी ख़ून से सनी पगड़ी और उसके सीने में धँसी कार्बाइन और स्टेन-गन की गोलियाँ मुझे इतनी साफ़ दिखाई देती हैं जैसे यह कल की बात हो , हालाँकि इस घटना को हुए पच्चीस साल गुज़र गए । मेरा अतीत एक ऐसा शीशा है जिसमें मुझे अपना अक्स बहुत बिगड़ा हुआ नज़र आता है । एक चीख़ दफ़्न है मेरे सीने में । मैंने जीवन में जो हथकड़ी बनाई है , मैं उसे पहने हूँ ।" इतना कह कर सरदारजी ने लम्बी साँस ली ।
     " होनी को कौन टाल सकता है, सुरिंदर भाई । पर अब तो आपके पास काफ़ी पैसा होगा । आप प्लास्टिक-सर्जरी  करवा कर अपने हाथ के उस ज़ख़्म का यह दाग़ क्यों नहीं हटा लेते ? आप रोज़-रोज़ जब अपनी दाईं कलाई के ऊपर यह दाग़ नहीं देखेंगे तो वक़्त बीतने के साथ-साथ शायद आप इस हादसे को भी भूल जाएँगे । " मैंने सरदारजी को सांत्वना देते हुए सलाह दी ।
    सरदारजी ने कातर निगाहों से मुझे देखा और बोले -- " समंदर के पास केवल खारा पानी होता है । अक्सर वह भी प्यासा ही मर जाता है । जब पुलिसवालों ने जसबीर को गोली मारी थी तो मैं उसके बगल में ही खड़ा था । मेरे कपड़े उसके ख़ून के दाग़ से भर गए थे । मेरे हाथ उसके ख़ून के छींटों से सन गए थे । अब रहते-रहते मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरे कपड़ों पर , मेरे हाथों पर ख़ून के दाग़ लगे हुए हैं । मैं बार-बार जा कर वाश-बेसिन में साबुन से हाथ धोता हूँ । पर मुझे इन दाग़ों से छुटकारा नहीं मिलता । मैंने बहुत दवाइयाँ खाईं जी । साइकैट्रिस्ट से भी अपना इलाज करवाया । पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ । आपने ठीक कहा । आज मेरे पास पैसे की कमी नहीं । वाहेगुरु का दिया सब कुछ है । प्लास्टिक-सर्जरी करवा कर मैं अपनी दाईं कलाई के ऊपर बन गए इस दाग़ से छुटकारा भी पा जाऊँगा । पर मेरे ज़हन पर , मेरे मन पर जो दाग़ पड़ गए हैं , उन्हें मैं कैसे मिटा पाऊँगा ? "
   मैं चुपचाप उन्हें देखता-सुनता रहा । मेरे पास उनके सवालों का कोई जवाब नहीं था । उनके भीतर एक जमा हुआ समुद्र था । उनका दुख जीवन जितना बड़ा था ।
   हमने वेटर को बुला कर बीयर और टिप के पैसे दिए और ' वोल्गा ' से बाहर निकल आए । नौ बज रहे थे । बाहर हवा में रात की गंध थी । जगमगाते शो-रूमों के पीछे से आकाश में आधा कटा हुआ पीला चाँद ऊपर निकल आया था ।
    अचानक वे खोए हुए अंदाज़ में फिर से बोल उठे -- " मेरे कपड़ों पर कोई दाग़-वाग तो नहीं लगा जी ? " उनके माथे पर परेशानी की शिकन पड़ गई थी । उनकी आँखों में क़ब्र का अँधेरा भरा हुआ था । वे अपने भीतर फँसे छटपटा रहे थे ।
   मैंने सहानुभूतिपूर्वक उनके कंधे पर हाथ रखा । वे जैसे दूर कहीं से वापस लौट आए । समय के विराट् समुद्र में कुछ ख़ामोश पल ओस की बूँदों-से टप्-टप् गिरते रहे ।
    उनसे विदा लेने का समय आ गया था । मैंने उनसे हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया । पर उनकी आँखों में पहचान का सूर्यास्त हो चुका था ।
   " कुछ ज़ख़्म कभी नहीं भरते, कुछ दाग़ कभी नहीं मिटते ," वे आकाश की ओर देख कर बुदबुदाए और मेरे बढ़े हुए हाथ को अनदेखा कर पार्किंग में खड़ी अपनी होंडा सिटी की ओर बढ़ गए । मैं उनकी गाड़ी को दूर तक जाते हुए देखता रहा ।

     सुशांत सुप्रिय
     A-5001, गौड़ ग्रीन सिटी ,वैभव खंड ,
     इंदिरापुरम ,ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ. प्र. )
    मो: 8512070086
    ई-मेल: sushant1968@gmail.com
      
      
    


रविवार, 29 अक्तूबर 2017

सतीश कुमार सिंह की कविताएं


  

                           05 जून सन 1971

    इनकी कविताओं का प्रकाशन वागर्थ, अतएव , अक्षरा , अक्षर पर्व , समकालीन सूत्र , साम्य , शब्द कारखाना , आजकल , वर्तमान साहित्य सहित प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में ।
आकाशवाणी भोपाल , बालाघाटरायपुर , बिलासपुर केंद्रों से रचनाओं का प्रसारण ।
संप्रति - शासकीय बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय जांजगीर क्रमांक -2 में अध्यापन

1-रामनमिहा


 
माघी पूर्णिमा के
 
शिवरीनायण मेले में
 
आते थे वे सजे धजे ।

 
सिर पर गोल मोरपंख साजे
 
गले में कंठी डाले
 
सर से पाँव तक राम नाम गुदाए
 
मस्त होकर नाचते रामनमिहा
 "
ओ दे राम राम भजन पिय लागे "
 
बोल पर थिरकते ।

 
तन मन में राम नाम बसाए
 
ये संस्कृति संवाहक समूह
 
विलुप्ति के कगार पर है
 
भूख और गरीबी ने
 
तोड़ डाला इन्हें ।

 
लोगों की अजीब निगाहों का सामना करते ये भक्त
 
रामभरोसे करते आज भी भजन ।

 
कभी तो सुध लेंगे राम
 
आऐंगे फिर शबरी के धाम ।

 ( *
रामनमिहा - एक संप्रदाय जो सर से पांव तक रामनाम गुदाए होते हैं और छत्तीसगढ़ के जांजगीर जनपद के शिवरीनारायण तीर्थस्थान के आसपास निवासरत हैं । )



  2-
स्पष्ट करो •••

 
स्पष्ट करो खुद को
 
न देना पड़े कोई
 
स्पष्टीकरण यहाँ तक
 
स्पष्ट करो ।

 
ये जो खेतों की क्यारियों के
 
पानी से बचने के लिए
 
पैंट को ऊपर चढ़ाकर
 
तुम्हारी यहाँ से वहाँ
 
कूदने की अदा है
 
धरती को पसंद नहीं
 
मिट्टी के लाल
 
सारी गड़बड़ी बस यहीं है ।

 
एक विचार से दूसरे विचार तक
 
कूदते - फांदते
 
तुमने अपनी क्या हालत बना ली
 
कि ठीक ठीक सूरज के सामने
 
खड़े होने के बावजूद
 
तुम्हारी छवि
 
धुंधली नजर आती है
 
झरने का ताजा पानी पीने
 
और उससे मुँह धोने पर भी
 
न ताजगी महसूस करते हो
 
न साफ होता है तुम्हारा चेहरा ।

 
बिना खुद को स्पष्ट किए
 
भीतर के सूरज की अरूणाई
 
पके हुए दूध की बालाई
 
कहाँ झलकेगी मुखाकृति पर ।

 
विचार हो या भावना
 
घृणा हो या प्रेम
 
बिना इसे स्पष्ट किए
 
कोई कहीं नहीं पहुंचता ।

 
ठीक ठीक जगह
 
पहुँचने के लिए जरूरी है
 
पारदर्शी और स्पष्ट होना
 
हांलाकि इसके खतरे बहुत हैं
 
लेकिन जीवन को पाने का
 
सूत्र भी एकमात्र यही है
 
इसलिए आज ही यह निश्चय करो
 
स्वयं को स्पष्ट किए बिना
 
न जियो न मरो ।


संपर्क-

सतीश कुमार सिंह
पुराना कालेज के पीछे  ( बाजारपारा ) जांजगीर 
जिला - जांजगीर -चांपा ( छत्तीसगढ़ ) 495668 मोबाइल नं . 094252 31110

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा की कविता





                            05/08/1993

       इस नवोदित कवि की कविता का कच्चापन एवं कसैलापन आगे मीठे संभावनाओं से भरा है ऐसा मुझे महसूस हो रहा है। तो पढ़ते हैं आज मुकेश कुमार ऋषि वर्मा की कविता - प्रकाशन - आजादी को खोना ना, संघर्ष पथ (काव्य संग्रह) रूचियाँ - लेखन, अभिनय, पत्रकारिता, पेंटिंग आदि सदस्य जिला अध्यक्ष - मीडिया फोरम ऑफ इंडिया, मीडिया पार्टनर - एकलव्य फिल्मस एण्ड टेलीविजन, मुंबई।

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा की कविता

मेघ की माया

 
यहाँ - वहाँ सर्वत्र
 
एक समान
 
बरसती है कृपा
 
बड़े महान
 
सारा संसार चलाया
 
मेघ की माया

 
धरती और गगन
 
सब जन
 
तृप्त हुए
 
मगन हुए
 
खुशिओं का मौसम आया
 
मेघ की माया


 
उन्नति की राह पर
 
साथ - साथ चलकर जाना
 
मेघ का संदेशा आया
 
मेघ की माया

 
करो जय - जय - जयकार
 
मिला है हमको
किसानों के देव
 
मेघ का प्यार
 
जग में क्या खोया, क्या पाया
 
मेघ की माया।

संपर्क -
 
मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
 
गॉव रिहावली, डाक तारौली गुर्जर,
 
फतेहाबाद-आगरा ,283111, . प्र.
 
मो. 9627912535, 9927809853
ईमेल - mukesh123idea@gmail.com


बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’ की कहानी- वह हँसने वाली लड़की ........!





         अब तक इनकी कविताएं दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान ,कादम्बनी, वागर्थ ,बया ,इरावती प्रतिलिपि डॉट कॉम , सिताबदियारा , पुरवाई , हमरंग आदि में  रचनाएँ प्रकाशित
2001  में  बालकन जी बारी संस्था  द्वारा राष्ट्रीय  युवा कवि पुरस्कार
2003   में बालकन जी बारी संस्था   द्वारा बाल -प्रतिभा सम्मान 
आकाशवाणी इलाहाबाद  से कविता , कहानी  प्रसारित
परिनिर्णय ’  कविता शलभ  संस्था इलाहाबाद  द्वारा चयनित



वह हँसने वाली लड़की ........!
                                अमरपाल सिंह आयुष्कर


वह मुझे वाराणसी रेलवे  स्टेशन पर मिली थी । खुली किताब के फड़फड़ाते पन्ने -सी । पढ़ रहा था मैं एक -एक हर्फ़ । जिसे मैं शब्दों और वाक्यों की बंदिशों में गुनगुना रहा था, वह एक रहस्य कथा थी  .....।उसे फैजाबाद अपनी बुआ के यहाँ जाना था और मुझे नवाबगंज ।मेरे बगल बैठी वह बड़े चिरपरिचित अंदाज में एक - एक कर कितनी बातें पूछे जा रही थी और मैं उसी लय में गुम  सब बताता जा रहा था । था ही क्या छुपाने को ...? मेरा संकोची स्वभाव खुद के दायरे कैसे तोड़ रहा था ,यह सोचकर  मुझे हँसी  भी आ रह थी  ।
 
        “ आप हँसते हुए बुरे नहीं लगते , फिर इतना कम क्यों हँसते हैं ?” “ मुझे दूसरों को हँसते हुए देखना ज्यादा अच्छा लगता है..... मेरा ऐसा उत्तर  सुनकर वो  जोर से हँसी ,बोली – “ अरे वाह ! कुछ ज्यादा ही नहीं हो गया  ?”
कहाँ से हो ? बनारस के तो नही होइतना तो पक्का है !
सच कहूं !, जवाब देने का मन तो नही था, पर फिर भी मेरे प्रति उसकी जिज्ञासा अच्छी लग रही थी । जिन्दगी में पहली बार कोई अनजान लड़की इतने अपनापे भरे सवाल कर रही थी कि जवाब  मेरे चिंतन से बगैर इज़ाजत लिए उछल-उछल कर बाहर आ रहे थे । हाँ ! , बात -बात में उसने ये जरूर बताया था कि  वह एनएसडी के लिए फॉर्म भरना चाहती थी ,एक्ट्रेस बनना चाहती  थी  । ‘’परिवार तो बहुत  रुढ़िवादी है ,फिर भी मैं थोड़ी अलग हूँ ।’’ उसने पूरे आत्मविश्वास के साथ मुझसे कहा , “ यहीं करौंदी  के पास  रहती हूँ ।कभी आइयेगा घर ! न्योता दे  डाला था ।मेरी सहजता ने मुस्कुराकर स्वीकृति भी दे दी थी ।अच्छा लगा ,आप जैसी आज़ाद ख़याल लड़कियों को देखकर ,मैं खुश हो जाता हूँ ।” “ क्यों आपको कैसे लगा कि मैं आज़ाद ख्याल की हूँ ?फिर हँसते हुए बोली ... अरे ! वो तो बस  ..ऐसा बोलकर सहज  महसूस  करती हूँ, बस इसीलिए बोल दिया । मैंने कहा -आपकी हँसी और लड़कियों से बिलकुल अलग है ! झट से बोल पड़ी पता नहीं ,पर इतना ज़रूर है कि  जब भी मेरा मन उदास होता है ,तो  जोर जोर से हँसने को जी करता है, तब  मैं  हँस लेती हूँ ,ठहाके लगाकर । बस.... उदासी की धुंध छूमंतर . वैसे भी ख़ुशी ,शांति ये सब तो मानव मन की मूल प्रवृति है ,एक अपना मन ही तो है, जिसे हम अपने अनुसार चला सकते हैं ।
लेकिन हर कोई कहाँ चला पाता है मन को  अपने अनुसार ....?” मैं बुदबुदाया ।

     घर में जब इस तरह खुलकर हँसती होंगी तो सच मेंसारा विषाद , सारी थकान दूर भाग जाती होगी पूरे परिवार की ,कितना गुलज़ार होता होगा आपका घर आपकी इस जीवंत हँसी से ?” मेरे प्रश्न को सुनकर बोल पड़ी – “ हाँ !घर पर भी चाहे बाद में कितनी भी डांट  पड़े , पर अपनी आत्मा को कष्ट नहीं पहुँचाती  ,पाप लगता है ना ?” मैंने प्रश्न किया - पाप और पुण्य ,यक़ीन करती हैं ?अच्छा आपकी नज़र में पाप और पुण्य है क्या ?” कहने लगी –“ सम्पूर्ण प्रकृति को जो सुकून दे पुण्य ।और हाँ सबसे बड़ा पाप है आत्महिंसा ।मैं झट से मुस्कुराते हुए बोल पड़ा –“ दार्शनिक हैं आप तो !

    उसने शरमा कर पर पूरे आत्मविश्वास के साथ  मेरी तरफ़ नज़रें उठाकर बोलती गयी  –“ व्यक्ति ताकतवर हो जाये तो परहिंसक हो जाता है और कमजोर हो तो आत्महिंसक और मैं जीवन में कभी कमजोर नही पड़ना चाहती ।बार बार जन्म लेकर मानव जीवन जीना चाहती हूँ ।इस प्रकृति- सा मजबूत जन्म ।क्योंकि कमजोर होना ,आत्महिंसक होना पाप है ।और मुझे कभी  मोक्ष नही चाहिए ।जीवन संघर्ष की द्यूतक्रीड़ा - सा आनंद और कहाँ  ? ” खूब जोर की हँसी......ठहाकेदार ।....कितना खुलकर हँसती हैं आप ....अच्छा लगता है ।पूरे  इलाके में गूँजती होगी आपकी हँसी ? मैं ही हँसती हूँ पूरे गाँव में ऐसी हँसी ।बाकी  सभी लड़कियां ,औरतें डरती हैं, मेरी तरह हँसने में ।” “ऐसा  क्यों ?” आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा से मैंने उससे पूछा ।

जानना है क्यों ?”अपने रेशमी बालों पर हाथ फेरते हुए उसने कहा ।
इतनी  अद्भुत बात  सुनने के लिए मैंने उत्सुकता में सिर हिलाया ।
उसने बोलना शुरू किया – “ मेरे गाँव की एक बुआ जी थीं ,बड़ी भली थीं ,पर इतना हँसती थीं कि पूरा गाँव उन्हें हँसने वाली डायन बुलाता था , उनके हँसने की शुरुआत भी आरोह अवरोह के साथ होती ,पहले मुस्कुरातीं ,फिर बच्चो जैसा खिलखिलातीं ,फिर मर्दों -सी धमाकेदार हँसी ,बिलकुल मेरे जैसी ।लोग कहते जिस घर जाएगी पति चार दिन में निकाल बाहर  करेगा ।सुरसा की तरह मुँह फाड़कर हँसती है  , ये लच्छन लड़कियों के लिए शोभा नही देतेबिलकुल आवारा हँसी ,ना जाने कितने नामों ने नवाज़ी गयी उनकी हँसी ।और जानते हो ! शादी के बाद एक दिन बुआ की  ससुराल में मनिहार चूड़ी पहनाने आया ,चूड़ी पहनते हुए मनिहार की किसी बात पर जोर-जोर से हँस रही थी , न जाने किस बात पर... वैसे भी  उनकी  ससुराल में हँसने जैसी स्थिति पैदा करने सरीखा , कुछ  भी तो नहीं था  ।हँसी का भरा कलश अवसर पाकर  छलक पड़ा , फिर क्या - सास ने ना आव देखा ना ताव ,बेटे को पुकारते हुए बोलीं- निकाल इस हँसोड़ की जुबान ,परेतिन- सा  हँसती रहती है । जान अनजान , आस -पड़ोस सांझ- सबेरे मुँह बिचकाता है । ना  जाने कहाँ से उठा लाये बेशरम बहुरिया ? माँ-बाप ने हँसने का भी तरीका ना सिखाया लड़की को , भक्क भक्क कर हँसती है ।बुआ बाँह भर भर चूड़ियाँ खनकाती उठी ही थी कि, तभी एक तेज धक्का उनकी पीठ पर  पड़ा .....बेटे ने जैसे मातृऋण उतार दिया ।बुआ के मुँह से पाँच  दांत बाहर निकल पड़े ......हँसी का सोता तो भीतर था , वह कैसे सूखता , वह तो आत्मा का गान था ।हँसना तो प्रकृति से एकाकार होना था ।बाकी उमर बुआ ने उन्ही टूटे दांतों को श्रद्धांजलि देने में बिताया  ।हँसीं खूब हँसीं । पहले जहाँ दांत  दिखते थे ,वहाँ अब कभी-कभी सौन्दर्य लोभ से आँचल का कोना मुँह पर होता था ।वैसे पूरी उमर जीकर शरीर नहीं त्यागा ,असमय चली गयीं वो .......कितने अधूरे ख्व़ाब लिए .....। पीछे पाँच बेटियाँ ,पाँच दांतों की निशानी । बेटा जनने की आस लिए काया कंकाल में तब्दील हो गयी ....या पति ने ही मुक्ति दे दी ...जितने मुँह, उतनी बातें ।सच किसे पता ....? बेटियाँ भी विरासत में माँ की हँसी पा गयी थीं ।
फिर...? मेरे अशांत मन ने शांतिपूर्वक पूछा  ।
 “ फिर क्या, तबसे जब भी गाँव में कोई लड़की तारा बुआ- सा हँसती , तो लोग यही ताने देते ,कि  कोई सिरफिरा मरद मिल गया तो, भरी जवानी में मुँह पोपला कर देगा ।
जोरदार हँसी ...झरनों की तरह ,वेग से उतरती हँसी ,ना जाने किस रेगिस्तानी शून्य  में समा जाती ।झुंडों में सिमटी हँसी बिखर कर लुप्त हो जाती ...फिर सन्नाटा ........आगत  भय का इतना भयानक बखान ,वो भी हँसी की पतंगे उड़ाकर ।
 
जानते हो ! ये सब मैंने तुम्हे क्यों बताया ...क्योंकि जब भी मेरे भीतर कोई दुःख होता है , मैं बाँट देती हूँ, किसी से भी कह देती हूँ, मुझे आत्मा में यकीन है , सभी आत्माएं हैं, कभी -कभी जब कोई नहीं सुनने को तैयार नही होता तो अपने कुत्ते, गैया,पेड़ ,नदी और तालाब से भी बातें कर लेती हूँ ।ये  बेजुबान सही ,पर उनकी आत्मा तक तो मेरी आवाज पहुँच ही जाती है ना ! और तो  और कभी कभी खुद से भी बतिया लेती हूँ ......तुम करते हो ऐसा ?” मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया – “ करूँगा ” , अब कोशिश करूँगा “....उसने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा – “ और हाँ ! ये पशु ,पक्षी, पेड़ -पौधे तुम्हारे मन की किसी से कहेंगे भी नहीं ..इन्सानों -से नहीं होते ये ! कुछ पल रुककर, गहरी साँसें लेते हुए बोल पड़ी, काश ! इंसानों के भी जुबान न होती ..कितना अच्छा होता ! तारा बुआ के दांत ना टूटते । मैं भी क्या पागलों - सा सोचती हूँ ! बोर हो रहे होंगे ना आप भी ?” मैंने कहा –“नही तो ! मैं तो सोचना शुरु करना चाहता हूँ ।’’ 

फिर चेहरे के भाव को संयत करते हुए कहने लगी –“तुम मिले तो मन ने कहा- कह डालो ...कह दिया ......। दो पल में सदियों का दर्द तो नही कहा जायेगा ना !एक जोरदार हँसी ....वह अच्छी लग रही थी ।

      फैज़ाबाद आ गया था ।हम स्टेशन से बाहर आ चुके थे । रिक्शा लेकर वो जाने लगी तो बोली - लीजिये ! मेरा पता है इसमें ।और फिर चली गयी ।जाते हुए उसको आवाज़ दी मैंने ..वह मुड़ी ,मैं जोर से चिल्लाया ....मेराSSमेंSSरा  नाम मानव भार्गव है ...तुम्हाराSSS… उसके हाथ आश्वस्त भाव से हवा में  हिल रहे थे । मुझे लगा शायद सुन लिया होगा उसने  ... ।

             उससे  मिलने के बाद दो वर्ष और जुड़ गए थे मेरी जिन्दगी में । नौकरी मिल गयी थी और  प्रशिक्षण भी पूरा कर लिया  था । आज बनारस छूट रहा था । इतने दिन बनारस  में बिताने के बाद उसकी यादें ,मन को भारी  कर रही थीं । रद्दी इकट्ठी की , पेपर वाले को बुलाया । वो तराजू -बाँट लेकर बैठ गया। मैं हँसा और उसका मुँह लड्डू से मीठा कराते हुए बोला ।नहीं भैया ! आज तोलकर नही, ऐसे ही ले जाओ ।उसने प्रसन्न मुद्रा में हाथ जोड़े और रद्दी को भरने लगा ,तभी एक कागज का टुकड़ा गिरा ,समय की ठहरी यादें ....वो हँसने वाली लड़की का पता था ।मैंने देखा ,मेरा उदास मन हँसने की वजह पा गया।

मैंने सोचा, मिलने चलता हूँ आज ,पर क्या वो दो  वर्षों बाद पहचान पायेगी ? इतना संक्षिप्त - सा परिचय था उस दिन,पता नहीं मेरा नाम भी सुन पायी थी  कि  नहीं ?उसका नाम भी तो नही पूछ  सका था उस दिन ...अरे हाँ ! वो हँसने वाली डायन बुआ वाली बात याद दिला दूँगा । पर ना जाने कितनों को बता चुकी हो अपनी बात? छोड़ो भी , जाने दो ...पता नही कैसी लड़की हो या फिर अब तक शादी हो गयी हो ....पर, एक बात तो पक्की है , कुछ बन जरूर गयी होगी । गजब का आत्मविश्वास और साहस था ।जीने का एक अपना ढंग ।बहुत कम लड़कियाँ जी पाती हैं ऐसा , कपास जैसा ।यहीं बनारस  का पता था करौंदी ,बी.एच.यू. के पास ।सोचा, दोबारा ना जाने कब आऊँगा ।मिल लेता हूँ एक बार , शायद अभी यहीं हो ? वो बिलकुल मेरे वैचारिक  खाके में समाने  वाली लड़की थी ।उसकी निश्छल हँसी ...सोचते -सोचते मैं उस पते के सामने था ।मैंने उस जर्जर होते मकान की कुण्डी खटकाई ऐसा लगा , कुण्डी निकलकर हाथ में आ जाएगी  । ईंटों से झाँकते मोरंग , बेबस धूलों ने, बेतरतीब उगी जिद्दी घासों ने ,यहाँ वहाँ  लटके जालों ने मुझे आगाह किया हो जैसे ।तभी एक जर्जर काया  ने दरवाज़ा खोला । अनुभवी रंग लिए बाल , विजन सरीखी आँखें ,पपड़ाये  होंठ और एक प्रश्नवाचक दृष्टि ।

मैंने उसके मुखाभाव को मूक प्रश्न मान, उत्तर दिया – “ मैं मानव भार्गव ....वो खूब हँसनेवाली लड़की यहीं रहती है ? मुझे भी अपने प्रश्न पर लज्जा ,संकोच और हँसी मिश्रित भाव आ रहे थे ।कहीं ये मुझे पागल ना समझ ले ।मैं उन शून्य में खोयी आँखों से, किसी उत्तर की उम्मीद ना पाकर लौटने लगा ।  मैं मुड़ा ही था कि एक भर्रायी आवाज़ ने मेरे क़दमों को रोक दिया ।हाँ ....हाँ ! यहीं रहती है ..आइये !उसने मुझे बैठाया पानी को ग्लास में उड़ेलते हुए उसने  दीवार पर लगी तस्वीर की तरफ इशारा करके पूछा ! इसी  लड़की की खोज में आये हैं ना आप ?मेरे हाथ से पानी का गिलास छूट गया । मेरे पूरे शरीर में एक सिहरन दौड़ गयी । बिलकुल वही चेहरा आँखों के सामने घूम गया , कानों में वही हँसी पिघलने लगी । तभी उसकी भर्रायी आवाज़ ने मुझे झकझोर दिया - करीब पंद्रह साल हुए वो हँसने वाली लड़की को गए ।मैं  लगभग उसे डाँटते हुए बोल पड़ा - पर ये  तो मुझे दो साल पहले मिली थी ! मैं मिला था ,उससे ट्रेन में, यकीं नहीं होता मुझे ,आप मज़ाक तो नही कर रहे ...” “ ऐसा भी हो सकता है ?” मैंने खुद से प्रश्न किया ।उसकी बातें सुनकर मुझे पसीना आ गया  ,मेरे पैर काँप रहे थे।
 
        तभी उसने बात आगे बढ़ाई  .... पत्नी थी वो मेरी । कब मिली थी आपको ?” मेरी  आँखों को , इस रूह सिहरा  देने वाले सच पर यकीं करना नामुमकिन था ।फिर भी मैं सुनना चाहता था ।
 
वह  मेरे जिज्ञासु, अशांत बालमन सरीखे प्रश्नों को पहचान, उत्तर देने के लिए ,अपनी पथरायी स्मृतियों घिसने लगा  - वो आज भी आती है । तारा , नाम था उसका” ....
ओह्ह्ह....... ! मैं सिहर  उठा ।मैंने  अपने हाथों को आपस में भींच, दोनों अंगूठों को दाँतों  तले दबा लिया ।तो वो तारा बुआ थीं ....।खुद की कहानी दोहरा रही थीं ....।बस इतना आत्मप्रलाप ।

   “ हाँ ! पाँच बेटियाँSSS थीं ना उनके ?”  मैंने उत्सुकतावश और सच को पैना करने के लिए पूछा ।
हाँ ..पाँच बेटियाँ थीं ....पाँचवीं बेटी यहीं है, मेरे साथ ”  एक बुत सरीखी काया की तरफ इशारा किया उसने , गहरी साँस ली , बोला – “ इसने  माँ की कहानी सुन , हँसना छोड़ ही दिया था । बाकी चार खूब हँसती थी । इसके  भीतर एक अनागत भय था । लगता था ,यूँ जोर - जोर हँसेगी  ,तितलियों - सा उड़ेगी  , झरनों -सा बहेगी ,सपने सजायेगीतो कहीं ऐसा ना हो कि इसके माँ  जैसी इसकी  भी जिन्दगी हो जाये । पर नही, इसका  सोचना गलत था ।लोगों को हँसना अच्छा लगता है ....ज़िन्दा लोग तो हँसते हुए ही अच्छे लगते हैं ! इसने  एक सहमे भविष्य की आशा में वर्तमान को नही जिया ।इसका कोई छोर भी है, नही पता ....थोड़ा रुककर ...... पर इसकी माँ  आज भी आती हैं इससे मिलने, मुझसे नही मिलती ,नाराज़ है अभी तक, मैंने कोई भी वचन नहीं निभाया ना,सब कुछ त्याग मेरे पास आई थी ,कहाँ  समझ सका एक नारी मन को, मेरे भीतर का दंभी, अज्ञानीपुरुष । हम एक दूसरे के पूरक बन सकते थे ,पर नही ! मेरे भीतर उपजे पुरुष अहं ने आत्मा की आवाज़ को अनसुना कर दिया था । मैंने प्रकृति की सहजता को उसकी कमजोरी ,उसकी विवशता माना । स्वप्नपंख ही काट दिए मैंने उसके ,यथार्थता पर पिघले मोम उड़ेल दिए , ओह्ह्ह .....भयानक भूल थी मेरी ,अक्षम्य अपराध है मेरा ... अक्षम्य अपराध ....यह कहते हुए उसकी आँखों से रक्तवर्णी अश्रु प्रवाहित हो रहे थे ।वह बोलता जा रहा था , “ जानता हूँ मैं ,तारा चाहती  है - एक बार अपनी बेटी को अपने जैसा हँसता हुआ देख ले  , उसे आत्मिक शान्ति  प्राप्त हो जाएगी  ।और मैं तारा की इस पीड़ा को परिशान्त करने में लगा हूँ ,क्योंकि मेरे लिए अब प्रायश्चित का एक यही जरिया है । रोज तरह तरह से इसकी खिलखिलाहट लौटाने का भागीरथ प्रयत्न करता रहता हूँ । ताकि इसके भीतर जमी हँसी की हिमानियां पिघल करकल कल करती हुई , जीवन-सरिता  से मिल सकें । 
तारा  हर लड़कियों की रूह में है, जो हँसना जानती हैं । पर तारा का लक्ष्य  ...कोख़ में असुरक्षित होती हुई ,आग में जलती हुई ,सड़कों पर गिद्ध भरी नज़रों से निहारी जाती हुई ,बेंची और खरीदी जातीं ,मर्दित की जाती हुई आस्थाओं ,पवित्रताओं का आत्मबल बनना चाहती है । इसीलिए मुक्त नही होना चाहती, इस नश्वर जगत से । ना जाने पीड़ा की कितनी कहानियों में वो चीखतीं हैं ,चिल्लाती हैं ......जीने के अंदाज़ बताती है, वह हर हारे मन की आवाज़ बनना चाहती है । ....जानते हो ! तारा उस दिन बहुत खुश दिखती हैं ,जब कोई बेटी जन्म लेती है ,जब कोई बेटी अपने तरह उकेरी गयी जिन्दगी जीती दिखाई देती है ,आसमान को छूती है , अपने सपने सच करती है और खुल कर हँसती है । खुलकर हँसने को वो आत्मा का संगीत ,एक अनहद नाद ....चिर शांति का महाद्वीप मानती है ।

ये क्या हैं ?मैंने तस्वीर के पास रखे लाल कपड़े बंधे लोटे की तरफ इशारा किया ...वह बिना एक पल रुके कातर स्वर में बोल पड़ा -अस्थियाँ हैं तारा की ....ले जाओगे आप ? गंगा में प्रवाहित कर देना ,मुक्त हो जायेगी तारा .........बेटियों पर अत्याचार नही देखा जाता उससे ना ..........नहीं तो ना जाने कब तक आती रहेगी बार बार, इस पीड़ायुक्त पथ पर पावों में छाले उगाने  , सदियों सदियों सहती रहेगी परपीड़ा ....नहीं ....नहीं मुक्त कर दीजिये उसे आप । मैंने जो  परहिंसा की है, उसी का प्रायश्चित कर रहा हूँ ,पापहस्त हूँ मैं,कोई नही आता यहाँ अब ! शायद तुम्हारे हाथों ये पुण्य कार्य लिखा था, तभी उसने तुम्हे यहाँ भेजा है !”  यह कहते हुए उसने अस्थिकलश मेरी ओर बढ़ाया , मैंने भारी  मन से , हलके अस्थिकलश को कांपते हाँथों  उठाया । तारा बुआ के पति का पश्चाताप कितना सार्थक था ? सोचता हुआ मेरा उद्दिग्न मन दहाड़े मार - मार कर रोना चाहता था ।
और अब मेरे भीतर एक अंतर्द्वंद था । तारा बुआ की मुक्ति ज़रूरी है या उनका रहना । तारा की भटकती आत्मा तो  बेटियों , औरतों , अजन्मी - जन्मी काया की शक्ति है ,संबल है। उसकी आत्मा को मुक्त करना , प्रकृति को पीड़ा देना , हतोत्साहित करना और अनाथ कर देने जैसा नही होगा ? और फिर तारा ने कहा भी तो था, उसे मोक्ष नही चाहिए ! प्रश्नों के अनंत ज्वालामुखी मेरे अन्तर्मन में फूट रहे थे ।  

आज मैं फूट- फूट कर रोना चाहता था । मैं प्रार्थना   रहा था कि तारा बुआ के पति का परहिंसक रूप किसी भी पुरुषमन को अपना ठौर ना बना पाये।  

        मैं अपरचित समय से, परिचय की माँग  कर रहा था, चारों ओर पसरे प्रश्नों के कंकाल  , मुझे हँसने वाली डायन बुआ के पाँच टूटे हुए दांत सरीखे  भयावह लग रहे  थे ।
तारा समय के बंधन से मुक्त  हो चुकी थी ....  मृत्यु तो  मात्र उस शरीर का अंत है जो प्रकृति के पञ्च तत्वों से निर्मित होता है । भगवान श्री कृष्ण ने कहा है -  आत्मा अमर है , उसका अंत नहीं होता, वह तो मात्र शरीर रूपी वसन परिवर्तित करती है ।  कटना, जलना, गलना व सूखना सभी  प्रकृति से बने शरीर या दूसरी वस्तुओं में ही संभव होता है, आत्मा में नहीं ।
तारा की मृत्यु पर शोक करके मैं उसकी पवित्र आत्मा को कष्ट नही देना चाहता था ।

            लेकिन ना  जाने क्यों मेरा  दृढ़  विश्वास  है कि वो हँसने वाली लड़की फिर मिलेगी मुझे ! और हाँ ! हर मनद्वार पर आज भी खड़ी है वो, मूकव्यथाओं का प्रचंड अंतर्नाद, और आत्मबल बनकर ! खटखटाती है, हर आत्मा की कुण्डियां  सुन सको तो खोल  देना द्वार , कर लेना  आत्मसात, उस हँसने वाली लड़की की पीड़ा ,जब  रोप लोगे मन की जमीनों पर उसका आना ,उसकी खिलखिलाहट ,उसकी पहचान ,उसकी उड़ान ,उसके स्वप्न ,उसकी साँझ, उसका विहान ।
क्योंकि आत्मा तो अजर, अमर है, बिलकुल उस हँसने वाली लड़की की, अन्तरिक्ष सरीखी हँसी जैसा ! 

संपर्क सूत्र- 

ग्राम- खेमीपुर, अशोकपुर , नवाबगंज जिला गोंडा , उत्तर - प्रदेश

मोबाईल न. 8826957462     mail-  singh.amarpal101@gmail.com