गुरुवार, 4 जनवरी 2018

अदनान कफ़ील ‘दरवेश’ की कविताएं

 
जन्म : गड़वार, बलिया, उत्तर प्रदेश
शिक्षा: कंप्यूटर साइंस आनर्स (स्नातक), दिल्ली विश्वविद्यालय
सम्प्रति: जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अध्ययनरत

प्रकाशन: हिंदी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब ब्लॉग्स पर कविताएँ प्रकाशित
अदनान कफ़ील दरवेश से वैचारिक मुलाकाम वागार्थ पढ़ते हुए हुई थी।और फिर चल पड़ा हमारे उनके बिच बातों का सिलसिला। आप तो बस उनकी कविताओं को पढ़ते ही जाइये । कविताएं अपने आप ही आपसे संवाद करेंगी। इनकी कविताओं को पढ़ने के बाद संभावनाएं और बढ़ गई हैं इस युवा रचनाकार से भविष्य में। इस नये साल में स्वागत है  अदनान कफ़ील दरवेश का इनकी कविताओं के साथ।

1- सन् 1992
जब मैं पैदा हुआ
अयोध्या में ढहाई जा चुकी थी एक क़दीम मुग़लिया मस्जिद
जिसका नाम बाबरी मस्जिद था
ये एक महान सदी के अंत की सबसे भयानक घटना थी
कहते हैं पहले मस्जिद का एक गुम्बद
धम्म् की आवाज़ के साथ ज़मीन पर गिरा था
और फिर दूसरा और फिर तीसरा
और फिर गिरने का जैसे अनवरत् क्रम ही शुरू हो गया
पहले कीचड़ में सूरज गिरा
और मस्जिद की नींव से उठता ग़ुबार
और काले धुएँ में लिपटा अंधकार
पूरे मुल्क पर छाता चला गया
फिर नाली में हाजी हश्मतुल्लाह की टोपी गिरी
सकीना के गर्भ से अजन्मा बच्चा गिरा
हाथ से धागे गिरे, रामनामी गमछे गिरे, खड़ाऊँ गिरे
बच्चों की पतंगे और खिलौने गिरे
बच्चों के मुलायम स्वप्नों से परियाँ चींख़तीं हुईं निकलकर भागीं
और दंतकथाओं और लोककथाओं के नायक चुपचाप निर्वासित हुए
एक के बाद एक   
फिर गाँव के मचान गिरे
शहरों के आसमान गिरे
बम और बारूद गिरे
भाले और तलवारें गिरीं
गाँव का बूढ़ा बरगद गिरा
एक चिड़िया का कच्चा घोंसला गिरा
गाढ़ा गरम ख़ून गिरा
गंगा-जमुनी तहज़ीब गिरी
नेता-परेता गिरे, सियासत गिरी
और इस तरह एक के बाद एक नामालूम कितना कुछ
भरभरा कर गिरता ही चला गया
"जो गिरा था वो शायद एक इमारत से काफ़ी बड़ा था.."
कहते-कहते अब्बा की आवाज़ भर्राती है
और गला रुँधने लगता है
इस बार पासबाँ नहीं मिले काबे को सनमख़ाने से
और एक सदियों से मुसलसल खड़ी मस्जिद
देखते-देखते मलबे का ढेर बनती चली गयी
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर
हाँ, उसी हिन्द पर
जिसकी सरज़मीं से मीर-ए-अरब को ठंडी हवाएँ आती थीं
वे कहाँ हैं ?
मैं उनसे पूछना चाहता हूँ
कि और कितने सालों तक गिरती रहेगी
ये नामुराद मस्जिद
जिसका नाम बाबरी मस्जिद है
और जो मेरे गाँव में नहीं
बल्कि दूर अयोध्या में है
मेरे मुल्क़ के रहबरों और ज़िंदा बाशिंदों बतलाओ मुझे
कि वो क्या चीज़ है जो इस मुल्क़ के हर मुसलमान के भीतर
एक ख़फ़ीफ़ आवाज़ में न जाने कितने बरसों से
मुसलसल गिर रही है
जिसके ध्वंस की आवाज़ अब सिर्फ़ स्वप्न में ही सुनाई देती है !

(रचनाकाल: 2017)
2- घर

 
ये मेरा घर है
जहाँ रात के ढाई बजे मैं
खिड़की के क़रीब
लैंप की नीम रौशनी में बैठा
कविता लिख रहा हूँ
जहाँ पड़ोस में लछन बो
अपने बच्चों को पीट कर सो रही है
और रामचनर अब बँसखट पर ओठंग चुका है
अपनी मेहरारू-पतोहू को
दिन भर दुवार पर उकड़ूँ बैठकर
भद्दी गालियाँ देने के बाद...

जहाँ बाँस के सूखे पत्तों की खड़-खड़ आवाज़ें आ रही हैं
जहाँ एक कुतिया के फेंकरने की आवाज़
दूर से आती सुनाई पड़ रही है
जहाँ पड़ोस के
खँडहर मकान से
भकसावन-सी गंध उठ रही है
जहाँ अनार के झाड़ में फँसी पन्नी के फड़फड़ाने की आवाज़
रह-रह कर सुनाई दे रही है
जहाँ पुवाल के बोझों में कुछ-कुछ हिलने का आभास हो रहा है
जहाँ बैलों के गले में बँधी घंटियाँ
धीमे-धीमे स्वर में बज रही हैं
जहाँ बकरियों के पेशाब की खराइन गंध आ रही है
जहाँ अब्बा के तेज़ खर्राटे
रात की निविड़ता में ख़लल पैदा कर रहे हैं
जहाँ माँ
उबले आलू की तरह
खटिया पर सुस्ता रही है
जहाँ बहनें
सुन्दर शहज़ादों के स्वप्न देख रही हैं।
अचानक यह क्या ?
चुटकियों में पूरा दृश्य बदल गया !
मेरे पेट में तेज़ मरोड़ उठ रहा है
और मेरी आँखें तेज़ रौशनी से चुँधिया रही है
तोपों की गरजती आवाज़ों से मेरे घर की दीवारें थर्रा रही हैं
और मेरे कान से ख़ून बह रहा है
अब मेरा घर
किसी फिलिस्तीन और सीरिया और ईराक़
और अफ़ग़ानिस्तान का कोई चौराहा बन चुका है
जहाँ हर मिनट एक बम फूट रहा है
और सट्टेबाजों का गिरोह नफ़ीस शराब की चुस्कियाँ ले रहा है।
अब आसमान से राख झड़ रही है
दृश्य बदल चुका है
लोहबान की तेज़ गंध आ रही है
अब मेरा घर
उन उदास-उदास बहनों की डहकती आवाज़ों और सिसकियों से भर चुका है
जिनके बेरोज़गार भाई पिछले दंगों में मार दिए गए।
मैं अपनी कुर्सी में धँसा देख रहा हूँ दृश्य को फिर बदलते हुए
क्या आप यक़ीन करेंगे ?
जंगलों से घिरा गाँव
जहाँ स्वप्न और मीठी नींद को मज़बूत बूटों ने
हमेशा के लिए कुचल दिया है
जहाँ बलात्कृत स्त्रियों की चीख़ें भरी पड़ी हैं
जिन्हें भयानक जंगलों या बीहड़ वीरानों में नहीं
बल्कि पुलिस स्टेशनों में नंगा किया गया।
मेरा यक़ीन कीजिये
दृश्य फिर बदल चुका है
आइये मेरे बगल में खड़े होकर देखिये
उस पेड़ से एक किसान की लाश लटक रही है
जो क़र्ज़ में गले तक डूब चुका था
उसके पाँव में पिछली सदी की धूल अब तक चिपकी है
जिसे साफ़ देखा जा सकता है
बिना मोटे चश्मों के।
मेरा यक़ीन कीजिये
हर क्षण एक नया दृश्य उपस्थित हो रहा है
और मेरे आस-पास का भूगोल तेज़ी से बदल रहा है
जिसके बीच
मैं बस अपना घर ढूँढ रहा हूँ...

(रचनाकाल: 2017)

संपर्क-
 ग्राम/पोस्ट- गड़वार
 ज़िला- बलिया, उत्तर प्रदेश
 पिन: 277121  
मोबा 0-09990225150
ईमेल: thisadnan@gmail.com


शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

कहानी : इंडियन काफ़्का - सुशांत सुप्रिय




 

      श्री सुशांत सुप्रिय हिन्दीपंजाबी और अंग्रेज़ी में लिखते हैं. हत्यारे हे राम दलदल इनके कुछ कथा संग्रह हैंअयोध्या से गुजरात तक और इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं इनके काव्य संकलन. इनकी कई कहानियाँ और कविताएँ विभिन्न भाषाओं में अनूदित होचुकी हैं. अनेक कहानियाँ  कई राज्यों के स्कूलों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैंकविताएँ पूणे विश्व-विद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हैं और विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोधार्थी इनकी कहानियों पर शोध कर रहे हैं. भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा इनकी रचनाएँ पुरस्कृत की गई हैं. कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई )में लगातार दो वर्ष प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किये गए.             कहानी : इंडियन काफ़्का - सुशांत सुप्रिय   
          मैं हूँ , कमरा है , दीवारें हैं , छत है , सीलन है , घुटन है , सन्नाटा है और मेरा अंतहीन अकेलापन है । हाँ , अकेलापन , जो अकसर मुझे कटहे कुत्ते-सा काटने को दौड़ता है । पर जो मेरे अस्तित्व को स्वीकार तो करता है । जो अब मेरा एकमात्र शत्रु-मित्र है ।
          खुद में बंद मैं खुली खिड़की के पास जा खड़ा होता हूँ । अपनी अस्थिरता का अकेला साक्षी । बाहर एड्स के रोगी-सी मुरझाई शाम मरने-मरने को हो आई है । हवा चुप है । सामने पार्क में खड़े ऐंठे पेड़ चुप हैं । वहीं बेंच पर बैठे रोज़ बहस करने वाले दो सठियाए ख़बीस बूढे चुप हैं । बेंच के नीचे पड़ा प्रतिदिन अपनी ही दुम से झगड़ने वाला आवारा कुत्ता चुप है । एक मरघटी उदासी आसमान से चू-चू कर चुपचाप सड़क की छाती पर बिछती जा रही है । और सड़क चुप्पी की केंचुली उतार फेंकने के लिए कसमसा रही है ।
         साथ वाले आँगन से उड़ कर मिस लिली की छटपटाती हँसी स्तब्ध फ़िज़ा में फ़्रीज़ हो जाती है । तभी नशे में धुत्त एक अजनबी स्वर भेड़िए-सा गुर्राता है । मिस लिली की हँसी अब पिघलने लगती है ।
          मुझे अचानक लगता है जैसे मैं ऊब कर ढेर-सी उल्टी कर दूँगा । पर वैसा कुछ नहीं होता । खिड़की से नाता तोड़ कर मैं चारपाई से रिश्ता गाँठ लेता हूँ । चाहता हूँ , कुछ गुनगुनाऊँ । पर कोई ' नर्सरी-राइम ' भी याद नहीं आती । अनायास ही मेरी उँगलियाँ मेरी पुरानी कलाई-घड़ी में चाबी देना चाहती हैं , पर वह पहले से ही फ़ुल है । हाथ दो हफ़्ते लम्बी दाढ़ी खुजलाने लगते हैं । दाढ़ी कड़ी है । चुभती है । जेब से सिगरेट-पैकेट निकालता हूँ । लाइटर भी । सुलगाता हूँ । सुलगता हूँ । सिगरेट मुझे कश-कश पीने लगती है । मैं सिगरेट को पल-पल जीने लगता हूँ । भीतर कहीं कुछ जलने लगता है । राहत मिलती है । क्षणिक ही सही । कल गुप्ता को नई स्टोरी देनी है । नया फ़ीचर लिखना है अखबार के लिए , पर कुछ नहीं सूझता है । विचारों के उलझे धागे में अनगिनत गाँठें पड़ी हैं । झुटपुटे में पल सुलगते हैं और दम तोड़ते जाते हैं । और सिगरेट के राख-सी तुम्हारी याद झरने लगती है ...
ओ नेहा , तुम कहाँ हो ?
            " यार , क्या ऑर्ट-मूवी के पिटे हीरो-सी शक्ल बना रखी है ! शेव क्यों नहीं करते ? "
            मैं और नेहा ऐन. ऐम. पैलेस में लगी फ़िल्म ' क़यामत से क़यामत तक ' देख कर निकले थे । सर्द शाम थी । यूनिवर्सिटी गेट पर थ्री-वहीलर से उतर कर हम गर्ल्स-हॉस्टल की ओर बढ़ रहे थे । मूवी के बारे में बातें हो रही थीं । तभी नेहा ने कहा था , " कल मिस्टर मजनू यानी तुम अपनी दाढ़ी शेव करके आओगे , समझे ? "
            " जानती हो , दाढ़ी में आदमी इंटेलेक्चुअल लगता है । "
            " दाढ़ी में आदमी बंदर लगता है । डार्विन का बंदर ... "

            सिगरेट का बचा हुआ हिस्सा उँगलियों को जलाने लगता है । मेज पर पड़ी कई दिन पुरानी जूठी तश्तरी को को ऐश-ट्रे बना उसे बुझा देता हूँ । एक और सींझी  हुई रात मुझे आ दबोचेगी । इस अहसास से बचने की एक अधमरी कोशिश करता हूँ । ट्रांजिस्टर का स्विच ऑन कर देता हूँ ।
            " यह आकाशवाणी है । अब आप क्लेयर नाथ से समाचार सुनिए ... "
            खीझ कर बंद कर देता हूँ ट्रांजिस्टर । हुँह् ! समाचार ! रक्तचाप और बढ़ जाएगा समाचार सुनने से । वही वाहियात ख़बरें । सोचता हूँ -- हर सुबह अनाप-शनाप ख़बरों से भरे अख़बार कैसे धड़ाधड़ बिक जाते हैं । नेहा को भी अख़बार से चिढ़ थी ।
             " ... फिर ? क्या सोचा है ? आगे क्या करोगे ? " हम दोनों ' बॉटैनिकल गार्डन ' में टहल रहे थे । मैंने उसके बालों में एक सफ़ेद गुलाब लगा दिया था । और उस पर झुकते हुए उसे चूम लिया था । पर वह आशंकित लगी थी ।
            " क्या बात है , नेहा ? "
            और तब उसने पूछा था -- " फिर ? क्या सोचा है ? आगे क्या करोगे ? " मैं कुछ देर चुप रहा था । समय धड़धड़ा कर आगे बढ़ रहा था । फिर मैंने कहा था , " सोचता हूँ , कोई अख़बार ज्वाएन कर लूँ । "
             " अख़बार ? " उसका चेहरा अजनबी हो आया था । उसके चेहरे पर कई भाव आए-गए थे । हवा में उसके अनकहे शब्दों की गूँज थी । उसने ज़ोर देकर कहा था , " क्या आर्ट मूवी के पिटे हीरो जैसी बातें कर रहे हो । किसी प्रतियोगिता-परीक्षा में क्यों नहीं बैठते ? "
             हवा शांत-विरोध से बजने लगी थी ...

             विचारों का मकड़-जाल मुझे अॉक्टोपस-सा जकड़ने लगता है । झटक देता हूँ उन्हें । पर नहीं झटक पाता हूँ अपनी बेबसी और लाचारी को । और अपने अंतहीन अकेलेपन को ।
             ऊब कर एक और सिगरेट सुलगा लेता हूँ । बौराए समय से बचने के लिए कमरे में निगाह दौड़ाता हूँ । शाम के झुटपुटे में एक पूँछ-कटी छिपकली दीवार को नापने की तमन्ना लिए इधर से उधर भाग रही है । नादान । खुद ही थक-हार कर दुबक जाएगी किसी कोने में ।
             एक लम्बा कश लेता हूँ । और धुएँ को भीतर तक बंद रहने देता हूँ । मज़ा आता है , कहीं भीतर तक खुद को झुलसा लेने में । खाँसी का एक दौरा पड़ता है । तकलीफ़देह । पर सिगरेट मुझे पीती रहती है । और मैं उसे जीता रहता हूँ । अच्छा भाईचारा है मेरा और सिगरेट का कमबख़्त । सीने में सुइयाँ-सी चुभती हैं और दर्द यह अहसास दिला जाता है कि मैं अभी ज़िंदा हूँ । अभिशप्त हूँ जीने के लिए इसकी-उसकी शर्तों पर । अचानक मुझे याद आता है कि मैं पिछले कुछ वर्षों से खुल कर हँसा नहीं हूँ । पर खुद से क्षमा-याचना भी नहीं कर पाता हूँ मैं ।
             एक मुरझाई मुस्कान चेहरे पर आ कर सट जाती है । चेहरे की स्लेट से उसे पोंछ कर मैं खिड़की से बाहर झाँकता हूँ । एक और सिमसिमी शाम ढल चुकी है । रोशनी एक अंतिम कराह के साथ बुझ चुकी है । एक और पसीजी रात मटमैले आसमान की छत से उतर कर मेरे सलेटी कमरे में घुसपैठ कर चुकी है । उसी कमरे में जहाँ मैं हूँ , दीवारें हैं , छत है , सीलन है , घुटन है , सन्नाटा है और मेरा अंतहीन अकेलापन है । हाँ , अकेलापन । मेरा एकमात्र शत्रु-मित्र ।
              झुके हुए झंडे-से उदास पल मुझे घेर लेते हैं । दूसरी सिगरेट भी साथ छोड़ जाना चाहती है । कल गुप्ता को अखबार के लिए कौन-सा फ़ीचर दूँगा , पता नहीं । कुछ सूझ ही नहीं रहा । भीतर केवल एक मुर्दा हलचल भरी है । लगता है , यह नौकरी भी छूट जाएगी ।
              बाहर एक अभागी टिटहरी ज़ोर-ज़ोर-ज़ोर से चीख़ कर सन्नाटे का ट्यूमर फोड़ देती है । शोर का मवाद रिसने लगता है । दूर किसी मुँहझौंसे कारख़ाने का भोंपू उदास सिम्फ़नी-सा बज उठता है । पड़ोस में मिस लिली का दरवाज़ा फ़टाक से बंद होने की आवाज़ कुछ देर स्तब्ध फ़िज़ा में जमी रहती है । फिर एक शराबी स्वर रुखाई से सीढ़ियों को कुचल कर अँधेरे में गुम जाता है । पार्क में पड़ा आवारा कुत्ता ऊँचे स्वर में रो उठता है । मिस लिली के यहाँ से पियानो की मातमी धुन रह-रह कर गूँज जाती है ।
               भीतर-बाहर के माहौल की मनहूसियत के विरोध में मैं हवा को एक अशक्त ठोकर मारता हूँ । और खिड़की से बाहर सिगरेट का ठूँठ फेंक कर वापस चारपाई पर आ बैठता हूँ । किसी पर-कटी गोरैया-सा लुटा महसूस करता हूँ । पता नहीं क्यों , नेहा , आज तुम बहुत याद आ रही हो ...

               " आई. ए. एस. का फ़ॉर्म क्यों नहीं भरते ? " कैंटीन में काफ़ी सिप करते हुए तुमने तीसरी बार पूछा था ।
               " नेहा , आई.ए.एस. मेरे लिए नहीं है । " आख़िर मुझे कहना पड़ा था । और तब तुमने कहा था , " पिताजी मेरे लिए आई. ए. एस. लड़का ढूँढ़ रहे हैं ... "

               बाहर पाशविक अँधेरा तेज़ी से झरने लगता है । फ़्यूज़ बल्ब-सा मैं चारपाई पर बुझा पड़ा रहता हूँ । । आज ढाबे में जा कर खाने का मन नहीं है ।
                 अनमने भाव से एक और सिगरेट सुलगा लेता हूँ । सोचता हूँ , चारपाई से उठ कर बिजली का लट्टू जला लूँ । फिर मन में आता है , कमरे में उजाला हो जाने से भी क्या फ़र्क पड़ेगा । मेरे भीतर उगे नासूरों के जंगल में फैला काले फ़ौलाद-सा घुप्प अँधेरा तो फिर भी वैसे ही जमा रहेगा । न जाने कब तक ।
                 सिगरेट पीते-पीते गला सूखने लगता है । फिर भी लेता जाता हूँ । कश पर कश ... कश पर कश । गोया खुद से बदला लेने की क़सम खा रखी हो ।
                 ओ नेहा , मेरी आत्मा के चेहरे पर अपनी स्मृतियों की खरोंच के अमिट निशान छोड़ कर तुम कहाँ चली गई ?
                  ... बहुत पहले कभी एक आर्ट मूवी देखी थी । फ़िल्म की नायिका बचपन में लगे किसी सदमे की वजह से पागल हो जाती है । अमीर माँ-बाप बच्ची को गाँव में दादी के पास छोड़ जाते हैं । फिर बच्ची जवान हो जाती है । और ख़ूबसूरत भी । और नायक पहली मुलाक़ात में ही उससे प्यार करने लगता है । और एक दिन नायक अपने सच्चे प्रेम के बूते पर नायिका को ठीक कर देता है । और मानसिक रूप से स्वस्थ हो चुकी नायिका अपने पागलपन के दिनों को भूल जाती
है । और नायक अब उसके लिए एक अजनबी बन जाता है । फिर नायिका अपने माता-पिता के पास लौट जाती है । पर नायक इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता है । और इस सदमे से वह पागल हो जाता है ...
                गला कुछ ज़्यादा ही सूखने लगता है । सिगरेट बुझा देता हूँ । रोना चाहता हूँ । शायद सदियों से रोया नहीं हूँ । पर आँखों में आँसू का समुद्र बहुत पहले सूख चुका है । भीतर के खंडहर में रिक्तता की आँधी साँय-साँय करने लगती है । तनहा मैं तड़प उठता हूँ ।
                मन कड़ा करके उठ बैठता हूँ । फिर लाइट जलाता हूँ । आँखें कुछ चौंधिया-सी जाती हैं । एक भटका हुआ चमगादड़ कमरे में घुस आया है । और बाहर निकलने के विफल प्रयत्न में बार-बार दीवारों से टकरा कर सिर धुन रहा है । किसी तरह उसे खुली खिड़की के रास्ते बाहर निकाल कर खिड़की बंद कर देता हूँ ।
                 मेज पर एक लम्बे अंतराल के बाद घर से आया पत्र पड़ा है । उठा कर एक बार फिर पढ़ डालता हूँ । पिता की तबीयत ठीक नहीं है । माँ का गठिया वैसा ही है । सुमी के हाथ पीले करने की चिंता पिता को घुन-सी खाए जा रही है । पिछले तीन महीनों से पिता को पेंशन नहीं मिली है । लिखा है -- ऐसा लड़का किस काम का जो घर वालों को सहारा न दे सके ...
                 आँखें मूँद कर एक लम्बी साँस लेता हूँ और बंद कर देता हूँ घर से आई चिट्ठी । सारी दिशाएँ ग़लत लगने लगती हैं । बाहर कोई बौराया मुर्ग़ा असमय बाँग दे रहा है । कल गुप्ता को अख़बार के लिए क्या फ़ीचर दूँगा , कुछ नहीं सूझता । अब तो यह नौकरी भी छूट जाएगी । दिल में आता है , अँधेरे से खूब बातें करूँ । उसे अपना दुखड़ा सुनाऊँ । या फिर किसी ऊँचे पहाड़ की चोटी से खुद को धक्का दे दूँ । लगता है जैसे भरी दुपहरी में मेरे सूर्य को ग्रहण लग गया है । जैसे मेरे जीवन की पतीली में रखा दूध फट गया है । जैसे मेरी पूरी ज़िंदगी बेहद अधूरी-सी है । जैसे मैं एक मिसफ़िट बन कर रह गया हूँ । ठहरे हुए पानी पर जमी काई बन कर रह गया
हूँ । इंसान नहीं , कोई अदना-सा कीड़ा बन कर रह गया हूँ ...
                          ------------०------------

     सुशांत सुप्रिय
     A-5001, गौड़ ग्रीन सिटी ,वैभव खंड ,
     इंदिरापुरम ,ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ. प्र. )
    मो: 8512070086
    ई-मेल: sushant1968@gmail.com

शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

आग, पानी और प्यास : प्रेम नंदन

  

जन्म - 25 दिसम्बर 1980, फरीदपुर, हुसेनगंज, फतेहपुर (उ0प्र0) |
शिक्षा - एम0ए0(हिन्दी), बी0एड0। पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
परिचय - लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से। तीन-चार   वर्षों तक पत्रकारिता करने तथा लगभग इतने ही वर्षों तक इधर-उधर ‘भटकने’ के पश्चात सम्प्रति अध्यापन|
प्रकाशन- कवितायें, कहानियां एवं  लघुकथायें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं ब्लॉगों में प्रकाशित।

1-आग, पानी और प्यास

जब लगती है उन्हें प्यास
वे लिखते हैं
खुरदुरे कागज के चिकने चेहरे पर
कुछ बूंद पानी
और धधकने लगती है आग !

इसी आग की आंच से
बुझा लेते हैं वे
अपनी हर तरह की प्यास!

आग और पानी को
कागज में बांधकर
जेब में रखना
सीखे कोई उनसे !

2-वे ही आएं मेरे पास


जिन्हें चाहिए
मीठे चुम्बन
मांसल देह  के आलिंगन
तीखें और तेज परफ्यूम
मादक दृश्य
पाॅप संगीत....
वे न आएं मेरे पास ।

जिन्हें देखना हो संघर्ष
सुनना हो श्रमजीवी गीत
चखना हो स्वाद पसीने का
माटी की गंध  सूंघनी हो
महसूसना हो दर्द
फटी बिवाइयों के

वे ही आएं मेरे पास ।

संपर्क-
उत्तरी शकुननगर,
सिविल लाइन्स ,फतेहपुर,0प्र0
मो0 & 9336453835
bZesy&premnandan@yahoo.in

मंगलवार, 28 नवंबर 2017

भोजपुरी सिनेमा रसातल की ओर : अंजनी श्रीवास्तव

                                                            अंजनी श्रीवास्तव


            भोजपुरी सिनेमा को रसातल में ले जाने वाले लोग व्यावसायिक लाभ के बड़े-बड़े आंकड़े-दिखाकर भले लोगों को भरमाने की कोशिशें करें पर सच यही है कि भोजपुरी सिनेमा आत्महनन के आखिरी दौर में है। इसे हर तरह से गिराने की सफल कोशिश की गयी है।  यह सचमुच बदहाली में है।  अच्छी विचार धाराओं पर चलने वाले लोग भोजपुरी सिनेमा से पूरी तरह कट चुके हैं।  दरअसल भोजपुरी फिल्मोद्योग अब शरीफों के हाथ में रहा ही नहीं। खूंखार आतंकवादी संगठन आईएस के हवसी लड़ाकों और आज के अश्लील फिल्मकारों में कोई खास अंतर नहीं। वो अगवा की गयी महिलाओं के साथ दुष्कर्म करते हैं और भोजपुरिया फिल्मकार भोजपुरी संस्कृति और परम्पराओं से बलात्कार करते हैं।

           अगर आपकी आंखें बदहाल नज़ारे देखने की आदी हैं तो आइए, भोजपुरी - चलचित्रनगरी में आपका उदासीन स्वागत है।  उधर देखिए - वो जो वस्त्र से महागरीब मगर यौवन से मालामाल हीरोइन दिख रही है न, वो गांव की रहने वाली है मगर जिस पार्क में उछल - कूद कर रही है, वो शहर में है। अब यह मत पूछिए कि गांव की पगडंडियों से वो शहर के पार्क तक कैसे पहुंची ? बस वो जो कुछ भी कर रही है, उसे देखते जाइए।  वो अपने लुभाऊ अंगों को एक-एक करके तब तक दिखाती रहेगी, जब तक कि उसकी भौगोलिक संरचना को आप अपने दिलोदिमाग के फोटोशॉप में 'सेव' नहीं कर लेते।  हीरोइन ऐसे-ऐसे उत्तेजक वाक्य बोलेगी कि आप लंबे समय तक सोच-सोचकर गरमाते रहेंगे। आज यह सब देखकर सोचने को विवश होना पड़ता है कि दादा साहेब फाल्के को किसी पुरुष-नायिका लेने पर क्यों विवश होना पड़ा? भले घरों की लड़कियां तब फिल्मों में काम करना अपमान समझती थीं, लेकिन आज की भोजपुरी हीरोइनें फिल्मों में जो काम करती हैं वो कोठों पर देह बेचती विवश नारियां भी न करें। 


         अब इस नारी भारवाहक हीरो को देखिए।  ये नाजुक हीरोइन को अपनी सख्त पीठ पर लादे पूर्व जमींदार से लेकर वर्तमान सरपंच तक के खेतों का चक्कर लगाएगा।  गाना गाएगा, हीरोइन से चिपकेगा, उसके पीछे भागेगा, अपने पीछे भगाएगा, मगर चारों तरफ शांति छाई रहेगी।  गांव के पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े भी इतने अनुशासित कि अपनी परछाई तक नहीं दिखाएंगे।  गांव के सारे लोग इन दोनों को मौका देने के लिए किसी सत्संग में जा बैठे हैं, या वो इस काबिल नहीं हैं कि उन्हें ऐसे धार्मिक दृश्य देखने का सौभाग्य प्राप्त हो, ऐसा प्रतीत होता है। 


अब एक नजर इस तरफ भी - यह एक ग्रामीण परिवार है।  ध्यान से देखिए तो लगेगा जैसे चेन्नई गुवाहाटी पैसेन्जर  ट्रैन में अलग-अलग स्टेशनों से सवार होकर मजबूरी में साथ-साथ बैठे विभिन्न राज्यों  के मुसाफिर हैं।  इनकी एक और खासियत है - एक परिवार के सदस्य होकर भी ये अलग-अलग किस्म की भोजपुरी बोलते हैं।  भोजपुरी क्या बोलते हैं - बस यही समझ लीजिए कि भोजपुरी के अलावा सब कुछ बोलते हैं।  फिल्म में भोजपुरी की इतनी नफीस हजामत बनायी जाती है कि आप को लगेगा, आप जो भोजपुरी जानते हैं, वो असली नहीं है। 


           अब अपनी गरदन जरा इधर घुमाइए।  ये सिकडू नौजवान महोदय फर्स्ट क्लास फर्स्ट एम ए हैं, मगर रिक्शाचालक हैं।  यह स्पष्ट नहीं है कि रिक्शा चालन इनका पुश्तैनी पेशा है या बेरोजगारी इनसे ऐसा करवा रही है ? ये शिक्षा - सखा भी हो सकते हैं और अक्षररिपु भी।  जो भी हो, हीरो तो हैं।  अतएव ऐंठना और अकड़ना उनका अधिकार है।  ये हजरत कुछ ही पलों में एक दबंग विधायक के विशाल बंगले में खास अदा से दाखिल होने वाले हैं।  फिर भाषा - व्याकरण की हड्डी तोड़ते और ललकारते हुए जितना याद आएगा आएगा, बाकी अपनी तरफ से जोड़कर डायलॉग बोलेंगे।  आंखों से हरदम अंगारे बरसाने वाला विधायक बुधन सिंह बस उनसे चुपचाप देखने का ही काम लेगा।  हमारा ये दो पसलियों वाला हीरो सोमारू विधायक की इकलौती लाडली बहन मंगला के गालों पर बिना गोंद के टिकट-ए-मोहब्बत चिपकाकर वनराज की तरह अंगड़ाइयां लेता हुआ निकल जाएगा।  गार्ड गुरुदास, दरवान शुकदेव और गनमैन सनीचर सबको एक साथ लकवा मार जाएगा। उसके निकलने के बाद लकवा भी सबको अपनी गिरफ्त से मुक्त कर देगा।  विधायक के गुर्गे गुर्राते हुए आगे बढ़ेंगे, मगर तभी खलनायकवा को सुबुद्धि का २२,००० वोल्ट वाला झटका लगेगा।  वो हाथ उठाकर उन्हें रोक देगा।  उधर विधायक की बहन हीरो के चुम्बन को तन्हाई में याद करती हुई मुस्कुराएगी, लजाएगी और एक दिन बंगले से निकल भागेगी।  हीरो को ढूंढते-ढूंढते उसके गांव पहुंचकर उसकी गोद में गिर जाएगी।  बुधन सिंह बटालियन भी अंततः हथियार डाल देगी।  लो जी ! कितना अच्छा दी एन्ड है।  सचमुच समानता का हाथ पकड़े समाजवाद आ ही गया। अमीर-गरीब, ऊंच-नीच का भेद ख़तम।  रिक्शा खींचने वाला सोमारू सुंदरी मंगला का हसबैंड बनने के साथ-साथ विधायक बुधन का बहनोई भी बन गया।  जी हां बहनोई।  जीजा नहीं।  छोटी बहन का पति बहनोई।  भोजपुरी संस्कृति है न ? मजा यह कि जिस दिन बुधन मन्त्री बनेगा, सोमारू उससे मनचाहे काम करवायेगा।  साले का सिर बहनोई के आगे झुका ही रहता है न ? वाह भाई वाह ! मजा आ गया।  डायरेक्टर और राइटर साहबान ! तुम दोनों की तो. . . । बिहार और उत्तर प्रदेश के बाहुबली विधायकों और सांसदों को कभी देखा या उनके बारे में सुना है कि नहीं ? यह सब देखकर तो पहली इच्छा यही होती है कि इनकी जम कर सुताई कराई जाए, ऐसे ही विधायकों और सांसदों के हाथों। 


          तमाम बदलावों और सुधारों के बावजूद आज क्या भोजपुरी समाज में एक ही गांव के लड़के और लड़कियों के बीच प्रेम-सम्बन्ध या शादी स्वीकार्य है ? नहीं न, मगर हमारी भोजपुरी फिल्मों में यह बड़ी ढीठता के साथ दिखाया जाता है।  भोजपुरिया समाज में तो कई-कई गांवों तक गोत्र का परहेज चलता है।  आज अगर फ़िल्मी मड़वे में कोई दुल्हन जीन्स टॉप में फेरे लेती हुई दिख जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि बहुत कुछ बदल रहा है।  बड़ी तेजी से बदल रहा है।  मगर बदलाव इतना ज्यादा भी न हो जाए कि अपना ही परिचय देते समय बार-बार कान खुजाने पड़ें । शहर की पढ़ी-लिखी लड़की को गांव का अनपढ़ लड़का भा जाता है।  शादी के बाद ससुराल (गांव) पहुंचकर वो बड़ी आसानी से एडजस्ट हो जाती है।  उसका ससुर सुदूर गांव में भी थ्री पीस पहन कर चलता है।  सास बुढ़ापे में भी लिपिस्टिक लगाती है। दिन में तीन बार खाती है और चार बार कपड़े बदलती है।  घर में खाने के लाले पड़े होते हैं, मगर सन्दूक में बेशकीमती साड़ियों, बिंदियों और चूड़ियों का जखीरा पड़ा रहता है।  सुबह बिस्तर से उठते समय भी पता नहीं उसका मेकअप कैसे तरोताजा रहता है।  हो सकता है - रात में मेकअपवुमन बनकर चुड़ैल और भूतनी उसका श्रृंगार कर जाती हों।  भोजपुरी फिल्मों में हीरोइनों और आयटम डांसरों को जबरदस्त सेक्स बम बने रहने के लिए लिया जाता है, फिर भी हीरो के पारिश्रमिक का दसवां हिस्सा उन्हें बतौर पारिश्रमिक मिलता है।  


           आज असली जिंदगी में भी गांव की एक लड़की शहर में ही शादी करना चाहती है।  मगर हमारी भोजपुरी फिल्मों में मोहब्बत की मारी शहर की कुवांरी शार्ट स्कर्ट पहने ऊपले थापने और रोटियां बेलने में सास की मदद करने गांव पहुंच जाती है। और तो और मजदूर भी यहां जीन्स टी-शर्ट पहनकर ही फावड़ा चलाते हैं।  परिवार भारी कर्ज में डूबा है पर बेटा मोटरसाइकिल में बिना पेट्रोल भराए, उस पर प्रेमिका को बैठाए दूर-दूर की सैर करवा रहा है।  खदेड़न रविदास का बेटा झमकुआ के. रविदास भी अपने जूते मरम्मत की दुकान पर अंग्रेजी बोलता दिखने लगा है।  फिल्मों में दिखाई जाने वाली महाराष्ट्र स्टेट ट्रांसपोर्ट और गुजरात रोडवेज की बसों के नंबर प्लेट तक नहीं बदले जाते।  सबको पता है कि शूटिंग राजपिपला और पनवेल में ही हो रही है, मगर फिल्म तो भोजपुरी में है।  थोड़ा तो विवेक का इस्तेमाल करो भाइयों ! लोग तुम्हारी बेवकूफी से तृप्त होने के लिए सिनेमाघरों में नहीं आते ?


           बददिमाग जमींदार का बदचलन बेटा एक गरीब स्कूल मास्टर की सौंदर्य धनवंती बेटी को गर्भवती करके छोड़ देता है।  मास्टर की बेटी उसकी हेंकड़ी सीधा करने के लिए धमकी देती है कि अगर उसने उसे नहीं अपनाया तो वो उसके बाप की अर्धांगिनी बन जाएगी।  बाप और बेटे दोनों से सेटिंग की कल्पना तो कोई क्रांतिकारी कथाकार ही सोच सकता है।  एक महाशय तो चाचा और भतीजी के प्रेम-सम्बन्ध पर फिल्म बनाकर पूरे भोजपुरी समाज को थरथरा देने का मंसूबा पालते हुए भोजपुरी फिल्मों की आइडियल सिटी (हिंदी अनुवाद कर लें ) में घूम रहे थे।  जब चारों तरफ से हुज्जत के पत्थर बरसने लगे तो रेड कार्नर नोटिस वाले क्रिमिनल की तरह रातोंरात अंडरग्राउंड हो गए।  समाज में निःसंदेह अनैतिक सम्बन्ध स्थापित होते रहते हैं, जिन पर थू-थू भी होती है, मगर ऐसे नाजायज सम्बन्धों को फिल्मों का विषय नहीं बनाया जा सकता।  यह संस्कारों पर कालिख पोतने जैसा तुष्ट कर्म होगा। दो नौजवान भाई औरतों की तरह साड़ियां-चूड़ियां पहने अपने ही घर में बाप के इर्द-गिर्द नाचते हुए गाना गाते हैं।  वास्तविक जीवन में क्या ऐसा होता है ? नहीं होता, पर फिल्मों में तो बहुत कुछ होता है न ? भोजपुरी भाषा में एल्बम और डीवीडी फ़िल्में बनाने वाले तो पोर्नोग्राफी वालों के भी कान काट लेते हैं।  घिसे पिटे और हिंदी फिल्मों के सुपरहिट संवादों का ऐसा भोजपुरिया अनुवाद किया जाता है कि बुद्धि-विवेक शून्य भोजपुरिया दर्शक तालियों से जबरदस्त प्रतिक्रिया देते हैं। मानो यह संवाद वो पहले कभी नहीं सुना । 


           कुछ संस्कृति-संहारक गीतकार हमारा सामान्य ज्ञान सुधरवाने की नीयत से यह बताते हैं कि चम्बल घाटी किसी मध्यप्रदेश में नहीं बल्कि गोरियों के लहंगों के नीचे स्थित है।  आइटम सांग के माध्यम से एक तन्वंगी बड़ी नम्रता के साथ अपने जीजा से निहोरा करती है कि चूंकि चूल्हे का मुंह छोटा है, अतएव उसमें मोटी लकड़ी न लगाई जाए।  एक बुजुर्ग गीतकार के लिखे गीत का दुर्लभ मुखड़ा है - "तोहरा बगइचा के हमरा फल चाहीं।" एक साला गाने में अपने जीजा को बहन के साथ अकेले में कैसे-कैसे क्या-क्या करना है बता रहा है।  फिल्मों में अश्लीलता के दर्शन करके सभ्य आदमी खुद को भोजपुरिया कहने में लज्जित होने लगा है। भोजपुरी संस्कारों की ऐसी दुर्गति हजार फकीरों की एक जैसी बददुआओं से ही संभव है। आधुनिकता की आंधी में भी हमारे संस्कारों, परम्पराओं और संस्कृति की जड़ें पूरी तरह नहीं उखड़ीं।  जमीन से अभी भी जुडी हैं।  लाज-लिहाज ने भले पूरी तरह पर्दा करना छोड़ दिया हो, उतनी ढीठ और बेशरम भी नहीं हुईं।  इसके पहले कि मनोरंजन के बहाने कोई शिष्टाचार का सरकलम करने की जुर्रत करे, उसकी मुश्कें कस देनी चाहिएं वर्ना भाषा और संस्कृति के हमेशा हमेशा के लिए गम हो जाने का पर्याप्त इतिहास है हमारे पास। 


           गैर तो गैर खांटी भोजपुरिया भी अपनी संस्कृति के क्षरण से चिंतित या विचलित नहीं दिखते।  भोजपुरी फिल्म-इंडस्ट्री के ९०% लोगों को सिर्फ पैसों और मौज-मस्ती से मतलब होता है।  क्रिएटिविटी अब चंद जुनूनियों और संस्कृति-प्रेमियों तक ही महदूद रह गयी है।  जो लोग फिल्मों में भोजपुरी की अस्मिता का हनन रोक सकते थे, वही लोग बदकारों की कोर कमिटी में बैठे है।  लोग इस बात से ज्यादा मतलब रखते हैं कि फिल्मों के नाम पर उनके आंगन में सिक्कों की कितनी बरसात हुई ? फिल्म बनी या नहीं ? कितने दरबदर और कितने तरबतर हुए ? इनसे इनका कोई लेना-देना नहीं होता।  जिसमें उनका फायदा है, वही उनका एजेंडा है।  आपके प्रतिकार के जवाब में उनके पास बेशरमी भरे यथेष्ठ तर्क हैं।  अश्लीलता की वो मौके पर ही नयी परिभाषा गढ़कर बता देंगे।  अगर वो बहुमत में हों, तो फिर आपकी बोलती बंद करके रख देंगे।  "गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो" के पुराने वटवृक्ष की जड़ों में भाइयों ने जिलेटिन लगा दिया है।  उड़ना तो तय है। 


          आज भोजपुरी फिल्म-इंडस्ट्री में मेधावी वर्ग हाशिये पर है।  उसकी सकारात्मक सोच, मेधा और रचनात्मकता का कोई पूछवैय्या नहीं।  जिनके दिमाग में कचरा भरा है, जिनका विवेक भौतिकता का बंधुआ गुलाम बनकर रह गया है, उनसे कुर्तक की ही उम्मीद की जाती रही है, वो अपनी गलती स्वीकारेंगे नहीं।  अश्लील गीत लिखकर और गाकर लोग सांसद-मन्त्री तक बन जाएंगे।  ऐसे में विरोध करने वाले तो ब्लॉक/अंचल स्तर तक भी अपनी चीख नहीं पहुंचा पाएंगे।  फिल्मों में गुणवत्ता का स्तर गिरने से दर्शक भी बिचके हैं।  सर्व शिकायत है कि आज की भोजपुरी फिल्मों में गांव की छवि नहीं दिखती। जब किसी भोजपुरी फिल्म में ढूंढने से भी भोजपुरी न मिले तो मुंह दूसरी तरफ करके बात ख़तम करने में ही भला मान लेना चाहिए।

               गुजरात के बैल और महाराष्ट्र की बैलगाड़ी भोजपुरी दर्शकों की मांग नहीं, भरी जवानी में सठियाए निर्माताओ-निर्देशकों की प्रदूषित सोच की देन है।  यकीनन भोजपुरी संस्कृति के साथ खिलवाड़ हो रहा है, मगर इस निकृष्टतम खेल पर प्रतिबन्ध लगाने कोई सामने नहीं आता। प्रोडूसर कहते हैं - "इस दुरावस्था के दोषी वितरक हैं " वितरकों का तर्क है कि ऑडियंस की इच्छा का सम्मान नहीं करेंगे तो जिन्दा कैसे रहेंगे ? अथवा "वो व्यवसायी हैं", जैसी फ़िल्में बनेंगी, वैसे ही फ़िल्में खरीदनी भी पड़ेंगी।  वितरकों का सिंडिकेट एक झटके में सार्थक फिल्मकारों को दरबदर कर देता है।  उनकी फ़िल्में एक तो बन नहीं पातीं दूसरे बनकर भी रिलीज नहीं हो पातीं।  उनका हश्र देखकर दूसरे भी मैदान छोड़ देते हैं।  इस तरह रावणराज अपने तरीके से अपना आरोहण करने लगा है। 

          प्रोड्यूसर की पुकार है - "वो छला गया।" वितरक की सफाई है - "उसे घाटा हुआ।" प्रबुद्ध दर्शक की व्यथा है - "फिल्म में जब हमारा कल्चर है ही नहीं तो क्या देखने जाएं ?" यह अलग बात है कि जितने लोग आज की भोजपुरी फ़िल्में देखने से कतरा रहे हैं, उनसे कई गुणा ज्यादा लोग उन्हीं फिल्मों को देख रहे हैं।  कौन हैं ये लोग ? जो भी हों, फिल्मों को वही चला रहे हैं।  फिर किस बात का शोरगुल ? यहां की हर बात, लोगों का हर अंदाज अलग है।  बस किराए के लिए दूसरों पर आश्रित याचक-पाचक भी यही दावा करते फिरते हैं कि वो मदर इंडिया, मुगलेआजम, शोले, लगान और बाहुबली बना रहे हैं।  बाद में दिखते भी नहीं कि उनसे पूछा जाए कि कब रिलीज हो रहीं हैं उनकी वो कालजयी फ़िल्में ?

           कोई चचेरा, ममेरा, फुफेरा, मौसेरा भाई हीरो बना नहीं कि रिश्ते के सारे भाई, जिन्हें नाटकों में परदा खींचने का काम भी नहीं मिलता, हीरो बनने मुंबई आ पहुंचते हैं।  शक्ल-सूरत ऐसी कि इनको खड़ा करने में चलते-फिरते लोग लंगड़े हो जाते हैं।  किसी स्थापित हीरो का नकटा अनुज भी हीरो बन जाता है। हर हीरो की नापसंद हीरोइन, राइटर और तकनीशियन। अजीब हाल है मगर उनके बेशरमी भरे फलसफे सुनिये।  पागलखाने में भर्ती होने को दिल करेगा।

           अगर पूरे देश का हिसाब लगाया जाए तो साल में ४०० से भी ज्यादा फ़िल्में बनती हैं यानी प्रतिदिन एक से भी अधिक।  पिछले १२ वर्षों में भोजपुरी फिल्मों के निर्माण में कोई रूकावट नहीं आई।  जाहिर है, भोजपुरी फिल्मों के निर्माण हेतु कहीं न कहीं से लगातार और पर्याप्त पैसे आ रहे हैं।  पैसे और लोग लगाते है।  पर प्रयोग दूसरे लोग करते हैं।  प्रयोगधर्मियों का क्या है ? एक को नोंचकर दूसरे को झिंझोड़ने निकल पड़े।  इनके मारे हुए उम्र भर मिमियाते हैं।  किसी से अपना दर्द बयां नहीं कर सकते। गौरतलब है कि  पुराने, नामचीन समर्थ फिल्मकारों ने संगीन हालातों को देखते हुए  भोजपुरी फ़िल्में बनाने से हाथ खींच लिया।  ये वो लोग थे, जिनकी फ़िल्में देखने के लिए परिवार के परिवार एक दिन पहले ही शहर आकर सिनेमाघरों के बाहर डेरा डाल देते थे।  एक बार बराये-मेहरबानी पिछला इतिहास देख लीजिए।  मोहनजी प्रसाद आज भी जीवित हैं, लेकिन भोजपुरी फिल्मोद्योग में मूंछों पर ताव देते हुए गलत लोग चांदी की बरफी खा रहे हैं। वो सक्षम लोगों के तलवे चाटने और उनके लिए शबाब का  रोज नया पैकेज पेश करने को अपना टैलेन्ट मानते हैं।

            क्यों पिछले ४१ सालों में (१९६१ से लेकर २००२ तक) उत्साही दर्शकों, उदार फायनेंसरों, सक्षम निर्माता निर्देशकों और उचित माहौल के रहते हुए भी गिनती की फ़िल्में बनीं।  जब तक अच्छे-अच्छे प्लाट मिलते रहे, फ़िल्में बनती रहीं।  बाद में भोजपुरी प्रेमी वो सारे सर्जक हिंदी फिल्मों की तरफ लौट पड़े।  उन्होंने जो भी किया, उत्कृष्ट किया।  अपनी तरफ से बेहतरीन दिया।  भोजपुरी समाज, संस्कृति और उसके लोक-संगीत को बड़ी खूबसूरत और नफासत से पेश किया। आज का हाल देखिये।  समाज कितना बेपरवाह है ? संस्कृति पूर्ण प्रदूषित है और संगीत का तो पूछिए ही मत।  एक ही ट्रैक पर सौ-सौ गाने लिखे जाते हैं।  गीतकार को जो शब्द सूझता है, लगा देता है।  संगीतकार को शब्दों से क्या, उनके अर्थों से क्या ? बस छाप करके दे देना है। जिससे हवसियों की कनपटी लाल हो जाए।  विडम्बना देखिए, छपरा के भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिसिर के गीत असम की कल्पना पटवारी जाती हैं।  गांधी, पटेल, नेहरू, इंदिरा पर हिंदी में फ़िल्में बन सकती हैं, लेकिन वीर कुंवर सिंह, जय प्रकाश नारायण, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, अब्दुल हमीद जैसी हस्तियों पर भोजपुरी में क्यों नहीं ? असम, त्रिपुरा, कर्नाटक से आए लोग आखिर कहां तक हमारी विरासत को घिस-घिस कर चमकाते रहेंगे।  वो तो "लोकराग" जैसी संस्थाओं का यशगान कीजिए, जिन्होंने भोजपुरी के लोकगीतों को चुन-चुनकर दृश्य-श्रव्य माध्यम के जरिए लोगों तक पहुंचाया।  महेंद्र मिसिर के पूरबी गीत, रघुवीर नारायण का बटोहिया तथा और भी कई रचनाएं और चन्दन तिवारी जैसी विविधता भरी आवाज को तराश कर सामने लाने का काम तो उन्होंने किया ही है।  ऐसे अच्छे काम तो और भी लोग कर सकते हैं, मगर क्यों नहीं करते ?

            अब रुख सिनेमा हॉल की तरफ।  अंदर की बात बाद में।  पहले बाहर खड़े होकर पोस्टर देखते हैं।  फिल्म का नाम ही ऐसा है कि समझ में नहीं आता, उसे हिंदी कहें या भोजपुरी? अब ध्यान से कलाकारों का  मुखमंडल देखिए।  बात समझ में आ जाएगी।  अब देखिए, ये जो झुंड के झुंड लोग हैं, सीधे हॉल की तरफ भागे आ रहे हैं, कौन हैं ये ? अरे, यही तो आज के निरर्थक सिनेमा के समर्पित दर्शक हैं। अब लगी हुई फिल्म पर बात कीजिए।  इसमें दावे के साथ कहा जा सकता है कि शुद्ध भोजपुरिया कलाकार दो से ज्यादा नहीं हैं।  हीरोइनें हमेशा बाहर से ही आती रही हैं।  अब रिकार्ड टूट रहा है।  आरा, बक्सर से भी एक-एक करके निकलने लगी हैं।  भोजपुरी सिनेमा की आज अपनी कोई सार्थक सोच नहीं है।  सब कुछ उधार लिया हुआ।  विषय वस्तु हिंदी फिल्मों का नकलांश।  नाम भी हिंदी फिल्मों वाला। 

           भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री हमेशा से अव्यवस्थित रही है।  कौन मार्गदर्शक है और कौन अनुगामी, पता ही नहीं चलता।  फिल्मों से जुड़े लोगों को न्याय दिलाने के लिए अपना कोई अलग यूनियन तक नहीं है।  पता नहीं, किस अशुभ घड़ी में किस अपण्डित ने इसका नाम भोजीवुड या पॉलीवुड रख दिया था। हालात उम्मीदों को चोटिल करते हैं।  फ़िल्में हिट होने और अच्छे काम करने के बावजूद कलाकारों और तकनीशियनों को काम मांगने के लिए ऑफिस दर ऑफिस चक्कर लगाने पड़ते हैं।  " योग्यता पर काम मिलता है", इस धारणा को भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री ने पूर्ण बहुमत से ख़ारिज कर दिया है।  जुगाड़ और कैम्पबाजी के बिना यहां काम नहीं मिल सकता।  लोगों की चाहत और महत्वाकांक्षा भी इतनी सस्ती कि जब खुद को भोजपुरी का अमरीश पुरी, राजपाल यादव, मनोज वाजपेयी, अमिताभ बच्चन, गुलशन ग्रोवर, निरुया रॉय और मीना कुमारी कहते हैं, उनकी सोच पर तरस के लगातार झटके आते हैं। इन्टरनेट ने तो इनको मानों हजारों पंख दे डाला है।  फेसबुक पर देखिये इनकी आत्मप्रशंसा।  काम के लोगों का गुणगान।  अपनी ही हीरोइन बेटियों के नाम से अभद्र गीत सुनते बेगैरत माता पिता।  फ़िल्मी मैगजीनों में बेटी के हीरो से रोमांस की प्रायोजित खबरों को दूसरों को पढ़वाते दलाल बाप और धंधेबाज मांएं। 

           सेंसर बोर्ड ने भी भोजपुरी फिल्मों को प्रमाण-पत्र देने के लिए उन लोगों को चुन रखा है, जो भोजपुरी के अलावा भोजपुरी का कोई दूसरा शब्द भी नहीं जानते।  उन्हें कुर्सियों पर सोने की बीमारी है।  उनके दिमाग में भोजपुरी फिल्म का अर्थ है - कांति शाह और पिछले दशकों में बनती गरमागरम फ़िल्में भोजपुरी की पहचान बनायी है - निम्न दर्जे की भाषा और अश्लील दृश्यों के इर्द-गिर्द बनी गयी कहानी।  भोजपुरी ऑडियो वीडियो को सुनने सुनाने की गलती वो भी परिवार के सामने अक्षम्य होगी। 

         स्तरीय पत्र-पत्रिकाएं भोजपुरी सिनेमा पर चार पंक्तियां लिखने में भी अपनी तौहीन समझती हैं।  जोशो-जूनून में कई पत्रिकाएं निकलीं और फिर अहसासे-नुकसान और तल्ख़-तजुर्बों के बाद बंद भी हो गईं।  हम मानें या न मानें, मगर अपने ही समाज और संस्कृति के हम अपराधी हैं।  ऐसे अपराधी, जिन पर मुकदमे नहीं चल सकते, मगर सजा पीढ़ियों को, परम्पराओं को और तहजीब को भुगतानी पड़ती है।  भोजपुरी सिनेमा के करीब ५६ सालों में कम से कम तीन ब्रेक लगे।  ये ब्रेक हमेशा बाहरी लोगों ने लगाया है।  भेड़चाल भोजपुरी सिनेमा का पुराना सिध्दान्त रहा है।

          हालात सुधारने के लिए क्या करना चाहिए ? एक दो अच्छी फ़िल्में बनाने से भी कुछ नहीं होगा।  जब कुएं में ही भंग पड़ी हो तो नशीले तत्वों को भगीरथ प्रयासों से ही निष्क्रिय किया जा सकता है।  निर्माताओं को सुनिश्चित करना होगा कि वो भोजपुरी फिल्मों में भोजपुरी क्षेत्रों के लोगों को ही लें।  ऐसे लोग जो भाषा की ऐसी-तैसी ना करें।  ऐसी साफ सुथरी फ़िल्में तो बनायें जिन्हें सपरिवार देखा जा सके।  हालात देखकर ऐसा लगता है, जैसे आनेवाले  दिनों में भोजपुरी फिल्म इन्डस्ट्री देश की सबसे बड़ी सी ग्रेड फिल्म इन्डस्ट्री न बनकर रह जाए।  दुश्चिंता इस बात की है कि यही फूहड़ फ़िल्में कहीं हमारी पहचान बनकर स्थापित न हो जाएं।

          जो  भोजपुरिए हजारों मील दूर निर्जन टापूओं पर जाकर समृध्द देश बसा सकते हैं, उनकी अपनी ही फिल्मों की दशा इतनी बदतर कैसे हो सकती है ? क्यों न सारे भोजपुरी भाषी आपस में जुड़कर कुछ सोचें और सही राह निकालें।  जब फसलों को नीलगाय या बंदर नोचते बर्बाद करते हैं, छूटे सांड चर जाते हैं, तब किसान माथा पीटते हुए आत्महत्या नहीं कर लेते।  मिल जुलकर उनसे निदान का रास्ता भी ढूंढते हैं।  भोजपुरिया समाज इतना कमजोर भी नहीं हो गया कि फिल्मरुपी सरसों में लगने वाली अश्लीलता की 'लाही' का समय पूर्व इलाज न कर पायें :- 

"इससे कव्ल कि जख्म नासूर बन के सेहत पर घात करें
क्यों न सब छोड़ के इसके फौरी इलाज की बात करें"

 संपर्क सूत्र- 
 ए - 223 , मोर्या हाउस
 वीरा इंडस्ट्रियल ईस्टेट
 ऑफ ओशिवरा लिंक रोड
  अंधेरी  (पश्चिम ), मुंबई - 400053
  मोबाइल  (M ) - 9819343822
  E-mail : anjanisrivastav.kajaree@gmail.com
                srivastavanjani37@yahoo.com

शनिवार, 18 नवंबर 2017

सुशांत सुप्रिय की कहानी : दाग़

        

          श्री सुशांत सुप्रिय हिन्दीपंजाबी और अंग्रेज़ी में लिखते हैं. हत्यारे हे राम दलदल इनके कुछ कथा संग्रह हैंअयोध्या से गुजरात तक और इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं इनके काव्य संकलन. इनकी कई कहानियाँ और कविताएँ विभिन्न भाषाओं में अनूदित होचुकी हैं. अनेक कहानियाँ  कई राज्यों के स्कूलों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैंकविताएँ पूणे विश्व-विद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हैं और विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोधार्थी इनकी कहानियों पर शोध कर रहे हैं. भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा इनकी रचनाएँ पुरस्कृत की गई हैं. कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई )में लगातार दो वर्ष प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किये गए.

सुशांत सुप्रिय की कहानी : दाग़ 


    


       रात से ठीक पहले ढलती हुई शाम में एक समय ऐसा आता है जब आकाश कुछ कहना चाहता है , धरती कुछ सुनना चाहती है । जब दिन की अंतिम रोशनी रात के पहले अँधेरे से मिलती है । यह कुछ-कुछ वैसा ही समय था । कनाॅट प्लेस में दुकानों की बत्तियाँ जगमगाने लगी थीं । दिन बड़ा गरम रहा था । शाम में ठंडी बीयर पीने के इरादे से मैं ' वोल्गा ' रेस्त्रां में पहुँचा । कोनेवाली टेबल पर एक अधेड़ उम्र के सरदारजी अकेले बीयर का मज़ा ले रहे थे । न जाने क्यों मेरे क़दम अपने-आप ही उनकी ओर मुड़ गए ।
      " क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ ? " मैंने ख़ुद को सरदारजी से कहते सुना ।
       " बैठो बादशाहो ! बीयर-शीयर लो । " सरदारजी दरियादिली से बोले ।
       " शुक्रिया जी ।" मैंने बैठते हुए कहा ।
       बातचीत के दौरान पता चला कि क़रोल बाग़ में सरदारजी का हौज़री का बिज़नेस था । जनकपुरी में कोठी थी । वे शादी-शुदा थे । उनके बच्चे थे । उनके पास वाहेगुरु का दिया सब कुछ था । पर इतना सब होते हुए भी मुझे उनके चेहरे पर एक खोएपन का भाव दिखा । जैसे उनके जीवन में कहीं किसी चीज़ की कमी हो । शायद उन्हें किसी बात की चिंता थी । या कोई और चीज़ थी जो उन्हें भीतर ही भीतर खाए जा रही थी ।
         बातचीत के दौरान ही सरदारजी ने  तीन-चार बार मुझ से पूछ लिया , " मेरे
कपड़ों पर कोई दाग़-वाग तो नहीं लगा जी ? "      
 मुझे यह बात कुछ अजीब लगी । उनके कपड़े बिल्कुल साफ़-सुथरे थे । मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि उनके कपड़ों पर कहीं कोई दाग़ नहीं था । हालाँकि उनके दाएँ हाथ की कलाई के ऊपर कटने का एक लम्बा निशान था । जैसे वहाँ कोई धारदार चाक़ू या छुरा लगा हो ।
       फिर मैं सरदारजी को अपने बारे में बताने लगा ।
        अचानक उन्होंने फिर पूछा -- " मेरे कपड़ों पर कोई दाग़-वाग तो नहीं लगा
 जी ? " उनके स्वर में उत्तेजना थी । जैसे उनके भीतर कहीं काँच-सा कुछ चटक गया हो जिसकी नुकीली किरचें उन्हें चुभ रही हों ।
       मैंने हैरान हो कर कहा -- " सरदारजी, आप निश्चिंत रहो । आपके कपड़े बिल्कुल साफ़-सुथरे हैं । कहीं कोई दाग़ नहीं लगा । हालाँकि मैं यह ज़रूर जानना चाहूँगा कि आपके दाएँ हाथ की कलाई के ऊपर यह लम्बा-सा दाग़ कैसा है ? "
        यह सुनकर सरदारजी का चेहरा अचानक पीले पत्ते-सा ज़र्द हो गया । जैसे मैंने उनकी किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो ।
       कुछ देर हम दोनों चुपचाप बैठे अपनी-अपनी बीयर पीते रहे । मुझे लगा जैसे मैंने उनसे उनके चोट के दाग़ के बारे में पूछ कर उनका कोई पुराना ज़ख़्म फिर से हरा कर दिया हो । उनकी चुप्पी की वजह से मुझे अपनी ग़लती का अहसास और भी शिद्दत से हो रहा था । कई बार आप अनजाने में ही किसी के व्यक्तिगत जीवन में झाँक कर देखने की भूल कर बैठते हैं हालाँकि इसके जड़ में केवल उत्सुकता ही होती है । पर भूल से आप किसी के जीवन के उस दरवाज़े पर दस्तक दे देते हैं जो बरसों से बंद पड़ा होता है । जिसके पीछे कई राज़ दफ़्न होते हैं । जिसका एक गोपनीय इतिहास होता है ।
     " मैंने आज तक इस ज़ख़्म के दाग़ की कहानी किसी को नहीं बताई । अपने बीवी-बच्चों को भी नहीं । पर न जाने क्यों आज आप को सब कुछ बताने का दिल कर रहा है । " सरदारजी फिर से संयत हो गए थे । उन्होंने आगे कहना शुरू किया --
 " मेरा नाम जसबीर है । बात तब की है जब पंजाब में ख़ालिस्तान का मूवमेंट ज़ोरों पर था । हालाँकि सरकार ने आॅपरेशन ब्लू-स्टार में बहुत से मिलिटैंटों को मार दिया था पर ख़ालिस्तान का आंदोलन जारी था । हमें लगता था , हमारे साथ भेदभाव हो रहा था । पंजाब के बाहर लोग हमें देख कर ताने मारते थे -- " सरदारजी , ख़ालिस्तान कब ले रहे हो ! "
     " मैं उन दिनों खालसा काॅलेज , अमृतसर में पढ़ता था । हम में से कुछ सिख युवकों के लिए ख़ालिस्तान का सपना दिल्ली दरबार की ज़्यादतियों के विरुद्ध हमारे विद्रोह का प्रतीक बन गया । हम महाराज़ा रणजीत सिंह के सिख राज्य को फिर से साकार करने के लिए काम करने लगे । मैं सिख स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन का सरगर्म कार्यकर्ता था । पुलिस के अत्याचार देख कर मेरा ख़ून खौल उठता । 1985 में मैं मिलिटैंट मूवमेंट में शामिल हो गया । हथियार हमें पड़ोसी देश से मिल जाते थे । उसका अपना एजेंडा था । अत्याचारियों से बदला लेना और ख़ालिस्तान की राह में आ रही रुकावटों को दूर करना ही हमारा मिशन था ।मैं अपने काम में माहिर निकला ।  दो-तीन सालों के भीतर ही मैं अपनी फ़ोर्स का कमांडर बन गया । पुलिस ने मुझे ' ए ' कैटेगरी का आतंकवादी घोषित कर दिया ।मेरे सिर पर बीस लाख का इनाम रख दिया गया ।
     " इन्हीं दिनों हमारी फ़ोर्स में एक नया लड़का सुरिंदर शामिल हुआ ।उसने मुझे बताया कि इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद नवंबर-दिसंबर , 1984 में दिल्ली में हुए सिख-विरोधी दंगों में उसका पूरा परिवार मारा गया था । उसके अनुसार दंगाइयों ने उसके बूढ़े माँ-बाप और भाई-बहनों के केश कतल करने के बाद उनके गले में टायर डाल कर उन्हें ज़िंदा जला दिया था । सुरिंदर ने कहा कि अब वह केवल बदला लेने के लिए जीवित था । उसने बताया कि वह सिखों के दुश्मनों को मिट्टी में मिला देना चाहता था । उसकी बातें सुन कर मुझे लगा कि हमारी फ़ोर्स को ऐसे ही नौजवान की ज़रूरत थी । मुझे सुरिंदर हमारे मिशन के लिए हर लिहाज़ से सही लगा । मैंने उसे अपनी फ़ोर्स में शामिल कर लिया ।
     " कुछ दिन बाद एक रात हमने मिशन के एक काम पर जाने का फ़ैसला किया । मैं , सुरिंदर और हमारे कुछ और लड़के मोटर साइकिलों पर सवार हो कर रात बारह बजे अमृतसर के सुल्तानविंड इलाक़े से गुज़र रहे थे । हमारे पास ए. के. 47 राइफ़लें थीं । हम सब ने शालें ओढ़ी हुई थीं । सुरिंदर मोटर साइकिल चला रहा था और मैं उसके पीछे बैठा था । वह रहस्य और रोमांच से काँपती हुई रात थी ।
    " अचानक बीस-पच्चीस मीटर आगे हमें पुलिस का नाका दिखाई दिया । पुलिस की दो-तीन जिप्सी गाड़ियाँ और दस-पंद्रह जवान वहाँ खड़े थे । हम सब ने अपनी-अपनी मोटर साइकिलें रोक लीं । पुलिस वालों ने देखते ही हमें ललकारा । मैं वहाँ एन्काउंटर नहीं चाहता था । हम आज रात एक ख़ास मिशन के लिए निकले थे । मेरे इशारे पर बाक़ी लड़के अपनी-अपनी मोटर साइकिलें मोड़ कर पास की गलियों में निकल भागे । पर सुरिंदर हथियारबंद पुलिसवालों को देखते ही डर के मारे आँधी में हिल रहे पत्ते-सा काँपने लगा । मेरे लाख आवाज़ देने के बावजूद वह मोटर साइकिल पकड़े अपनी जगह पर जड़-सा हो गया । पुलिस वाले पास आते जा रहे थे । मजबूरन मैंने अपनी शाल हटाई और पुलिस वालों को डराने के लिए अपनी ए.के. 47 से हवाई फ़ायरिंग की । पुलिस वाले रुक गए । इस मौक़े का फ़ायदा उठा कर मैं सुरिंदर को घसीटते हुए पास की गली की ओर ले भागा । हमें भागता हुआ देख कर पुलिस वालों ने हम पर फ़ायरिंग शुरू कर दी । एक गोली सुरिंदर की जाँघ में आ लगी । तब तक मेरे कुछ साथी हमें बचाने के लिए वापस लौट आए थे । गोली-बारी के बीच घायल सुरिंदर को सहारा दिए मैं और मेरे बाक़ी साथी मोटर-साइकिलों पर बैठ कर किसी तरह बचते-बचाते वहाँ से निकल भागे ।
   " अपने छिपने के ठिकाने पर पहुँच कर मैंने सुरिंदर से पूछा, " तू भागा क्यों नहीं
 था ? "  पर उसका चेहरा डर के मारे राख के रंग का हो गया था । उसके मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी । हमने उसकी जाँघ में लगी गोली निकाल कर उसकी मरहम-पट्टी की । अब वह अगले पंद्रह-बीस दिनों तक वैसे भी किसी मिशन पर जाने के लायक नहीं था । पर मेरा दिल उस घटना से खट्टा हो गया था । उस दिन सुरिंदर को पुलिसवालों के सामने डर से थर-थर काँपता देख कर मैं ख़ुद से शर्मिंदा हुआ कि यह मैंने किस कायर को अपनी फ़ोर्स में शामिल कर लिया था ।
   " पर मिशन के काम तो नहीं रुक सकते थे । ख़ालिस्तान बनाने का सपना लिए हम दिन-रात अपने काम पर जुटे रहते । कभी सिख युवकों पर अत्याचार करने वाले किसी व्यक्ति को रास्ते से हटाना होता , कभी अपने किसी साथी को पुलिस की हिरासत से छुड़ाना होता । मैं और मेरी फ़ोर्स के बाक़ी लड़के सुरिंदर को अपने ठिकाने पर छोड़कर हर दूसरी-तीसरी रात में किसी-न-किसी मिशन पर निकल जाते । सुबह चार-पाँच बजे तक हम अपना काम करके वापस लौट आते । कभी-कभी दिन में भी मिशन के काम से जाना पड़ता । हालाँकि सुरिंदर का हमारी फ़ोर्स में आना हमारे लिए बदक़िस्मती जैसा ही था । जब से वह आया था , हमारे बहुत-से साथी पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ों में मारे जाने लगे थे । ख़ैर । यही हमारा जीवन था । कभी मिशन के कामयाबी की ख़ुशी । कभी साथियों के बिछुड़ने का ग़म ।
   " हमारी देखभाल के कारण सुरिंदर की जाँघ में लगी गोली का ज़ख़्म धीरे-धीरे ठीक होने लगा था । मुझे लगा , मुझे उसे ख़ुद को साबित करने का एक और मौक़ा देना चाहिए । शायद वह इस बार हमारी उम्मीदों पर ख़रा उतर सके । मैं उसके पूरी तरह ठीक हो जाने का इंतज़ार करने लगा ।
    " एक रात अपना काम निबटा कर हम सभी वापस अपनी रिहाइश की ओर लौट रहे थे । वह सलेटी आकाश, भीगी हुई हवा और पैरों के नीचे मरे हुए पत्तों का मौसम था । सुबह के चार बज रहे थे । जुगनुओं की पीठ पर तारे चमक रहे थे । मैं सबसे आगे था । घर में चुपके से घुसने पर मैंने पाया कि कि सुरिंदर जगा हुआ था और दूसरे कमरे में किसी से फ़ोन पर बातें कर रहा था । मुझे हैरानी हुई । मैंने उसके पास जा कर छिप कर उसकी बातें सुनीं तो मेरे होश उड़ गए । सुरिंदर पुलिसवालों से बातें कर रहा था और उन्हें हमारे बारे में ख़ुफ़िया जानकारी दे रहा था । उसने हमें पकड़वाने के लिए शायद पहले से ही पुलिसवाले भी बुला रखे थे । मैं सन्न रह गया ।
  " हमारे साथ धोखा हुआ था । दुश्मन दोस्त का भेस बना कर आया था । वह पुलिस का मुख़बिर है , यह जानकर मेरा ख़ून खौल उठा । ' ओए गद्दारा ' -- मैं ग़ुस्से से चीख़ा और अपनी किरपान निकाल कर मैंने उस पर हमला कर दिया और उसे घायल कर दिया । हम दोनों गुत्थमगुत्था हो गए । पर तभी आसपास छिपे पुलिसवाले घर का दरवाज़ा तोड़कर अंदर आ गए और उन्होंने मुझे घेर लिया । उनकी स्टेन-गन और कार्बाइन मेरे सीने पर तनी हुई थीं । " इतना कह कर सरदारजी चुप हो गए ।  उन्होंने धीरे से अपना गिलास उठाया और गिलास में बची बाक़ी बीयर ख़त्म की ।
    " सुरिंदर का क्या हुआ ? " मैंने उत्सुकतावश पूछा ।
    " पुलिस ने उसे मेरे सिर पर रखे इनाम के बीस लाख की रक़म का आधा हिस्सा दे दिया । दस लाख रुपए ले कर वह वापस दिल्ली भाग गया । " सरदारजी बोले ।
    " आपको उसके बारे में इतना कैसे पता ? " मैं हैरान था ।
      यह सुनकर सरदारजी का चेहरा स्याह हो गया । उनके हाथ काँपने लगे । ए.सी. में भी उनके माथे पर पसीना छलक आया ।
      आख़िर किसी तरह कोशिश करके उन्होंने कहा ," क्योंकि मैं जसबीर नहीं हूँ । मैं ही वह बदनसीब सुरिंदर हूँ । वह ग़द्दार मैं ही हूँ । मैंने वह कहानी जान-बूझकर आपको दूसरे ढंग से सुनाई थी । " सरदारजी के हाथ अब भी थरथरा रहे थे ।
     उनकी बात सुनकर मैं हतप्रभ रह गया । प्याज़ की परतों की तरह इस कहानी में रहस्य की कई तहें थीं जो एक-एक करके खुल रही थीं ।
    " मेरे दाएँ हाथ की कलाई के ऊपर इस ज़ख़्म का दाग़ मुझे जसबीर ने दिया था जब मेरी असलियत जानकर उसने किरपान से मुझ पर हमला किया था ।" सरदारजी ने आगे कहा ।
    " जसबीर का क्या हुआ ? " मैं अब भी इस अजीब पहेली को समझने का प्रयास कर रहा था ।
     " उस दिन सुबह साढ़े चार बजे के आसपास उसके लिए दुनिया रुक गई । पुलिसवालों ने उसे मेरे सामने ही गोली मार दी । उस समय वह निहत्था था । उस दिन उसके फ़ोर्स के ज़्यादातर लड़कों को पुलिसवालों ने धोखे से मार दिया । उन सबकी मौत का ज़िम्मेदार मैं हूँ ।" सरदारजी ने भारी स्वर में कहा । कुएँ के तल में जो अँधेरा होता है, वैसा ही अँधेरा मुझे उनकी आँखों में नज़र आया ।
     " आप दुखी क्यों होते हैं ? आख़िर वे सब आतंकवादी थे । " मैंने उन्हें दिलासा दिया ।
     " हर आदमी के भीतर कई और आदमी रहते हैं । यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसके किस रूप के दरवाज़े पर दस्तक देते हैं । मुझे नहीं मालूम वे आतंकवादी थे या गुमराह नौजवान । मैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ कि पैसों के लालच में आ कर मैंने उस आदमी को धोखा दिया , उस आदमी से ग़द्दारी की जिसने अपनी जान पर खेल कर मुसीबत में मेरी जान बचाई थी । जिसने मेरी देख-भाल करके मेरे ज़ख़्म ठीक किए थे । उसे पुलिस के हाथों मरवा कर मुझे रुपए-पैसे तो बहुत मिले पर उस दिन से मेरे दिल का चैन खो गया । मेरी अंतरात्मा मुझे रह-रह कर धिक्कारती है कि तू दग़ाबाज़ है । मैं रात में बिना नींद की गोली खाए नहीं सो पाता । मेरे सपने मेरी वजह से मरे हुए लोगों से भरे होते हैं । मेरे सपनों में अक्सर दर्द से तड़पता और लहुलुहान जसबीर आता है । वह मुझ से पूछता है --" मैंने तो तेरी जान बचाई थी । फिर तूने मुझे धोखा क्यों दिया ? " और मैं उससे नज़रें नहीं मिला पाता । उसकी फटी हुई आँखें , उसके बिखरे हुए बाल , उसकी ख़ून से सनी पगड़ी और उसके सीने में धँसी कार्बाइन और स्टेन-गन की गोलियाँ मुझे इतनी साफ़ दिखाई देती हैं जैसे यह कल की बात हो , हालाँकि इस घटना को हुए पच्चीस साल गुज़र गए । मेरा अतीत एक ऐसा शीशा है जिसमें मुझे अपना अक्स बहुत बिगड़ा हुआ नज़र आता है । एक चीख़ दफ़्न है मेरे सीने में । मैंने जीवन में जो हथकड़ी बनाई है , मैं उसे पहने हूँ ।" इतना कह कर सरदारजी ने लम्बी साँस ली ।
     " होनी को कौन टाल सकता है, सुरिंदर भाई । पर अब तो आपके पास काफ़ी पैसा होगा । आप प्लास्टिक-सर्जरी  करवा कर अपने हाथ के उस ज़ख़्म का यह दाग़ क्यों नहीं हटा लेते ? आप रोज़-रोज़ जब अपनी दाईं कलाई के ऊपर यह दाग़ नहीं देखेंगे तो वक़्त बीतने के साथ-साथ शायद आप इस हादसे को भी भूल जाएँगे । " मैंने सरदारजी को सांत्वना देते हुए सलाह दी ।
    सरदारजी ने कातर निगाहों से मुझे देखा और बोले -- " समंदर के पास केवल खारा पानी होता है । अक्सर वह भी प्यासा ही मर जाता है । जब पुलिसवालों ने जसबीर को गोली मारी थी तो मैं उसके बगल में ही खड़ा था । मेरे कपड़े उसके ख़ून के दाग़ से भर गए थे । मेरे हाथ उसके ख़ून के छींटों से सन गए थे । अब रहते-रहते मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरे कपड़ों पर , मेरे हाथों पर ख़ून के दाग़ लगे हुए हैं । मैं बार-बार जा कर वाश-बेसिन में साबुन से हाथ धोता हूँ । पर मुझे इन दाग़ों से छुटकारा नहीं मिलता । मैंने बहुत दवाइयाँ खाईं जी । साइकैट्रिस्ट से भी अपना इलाज करवाया । पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ । आपने ठीक कहा । आज मेरे पास पैसे की कमी नहीं । वाहेगुरु का दिया सब कुछ है । प्लास्टिक-सर्जरी करवा कर मैं अपनी दाईं कलाई के ऊपर बन गए इस दाग़ से छुटकारा भी पा जाऊँगा । पर मेरे ज़हन पर , मेरे मन पर जो दाग़ पड़ गए हैं , उन्हें मैं कैसे मिटा पाऊँगा ? "
   मैं चुपचाप उन्हें देखता-सुनता रहा । मेरे पास उनके सवालों का कोई जवाब नहीं था । उनके भीतर एक जमा हुआ समुद्र था । उनका दुख जीवन जितना बड़ा था ।
   हमने वेटर को बुला कर बीयर और टिप के पैसे दिए और ' वोल्गा ' से बाहर निकल आए । नौ बज रहे थे । बाहर हवा में रात की गंध थी । जगमगाते शो-रूमों के पीछे से आकाश में आधा कटा हुआ पीला चाँद ऊपर निकल आया था ।
    अचानक वे खोए हुए अंदाज़ में फिर से बोल उठे -- " मेरे कपड़ों पर कोई दाग़-वाग तो नहीं लगा जी ? " उनके माथे पर परेशानी की शिकन पड़ गई थी । उनकी आँखों में क़ब्र का अँधेरा भरा हुआ था । वे अपने भीतर फँसे छटपटा रहे थे ।
   मैंने सहानुभूतिपूर्वक उनके कंधे पर हाथ रखा । वे जैसे दूर कहीं से वापस लौट आए । समय के विराट् समुद्र में कुछ ख़ामोश पल ओस की बूँदों-से टप्-टप् गिरते रहे ।
    उनसे विदा लेने का समय आ गया था । मैंने उनसे हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया । पर उनकी आँखों में पहचान का सूर्यास्त हो चुका था ।
   " कुछ ज़ख़्म कभी नहीं भरते, कुछ दाग़ कभी नहीं मिटते ," वे आकाश की ओर देख कर बुदबुदाए और मेरे बढ़े हुए हाथ को अनदेखा कर पार्किंग में खड़ी अपनी होंडा सिटी की ओर बढ़ गए । मैं उनकी गाड़ी को दूर तक जाते हुए देखता रहा ।

     सुशांत सुप्रिय
     A-5001, गौड़ ग्रीन सिटी ,वैभव खंड ,
     इंदिरापुरम ,ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ. प्र. )
    मो: 8512070086
    ई-मेल: sushant1968@gmail.com