शनिवार, 1 सितंबर 2012

शौचालय का अर्थशास्त्र

शौचालय का अर्थशास्त्र




 
दिनेश चन्द्र भट्ट ‘गिरीश‘
‘शौचालय‘ शब्द दो शब्दो के योग से बना है- ‘शौच‘ और ‘आलय‘ शौच शब्द ‘शुचि‘ से बना है जिसका अर्थ है-पवित्र। ऐसा ‘आलय‘ (भवन) जहां से व्यक्ति पवित्र होकर निकलता है। जिसका शौचालय जितना बडा वह उतना ही अधिक पवित्र-वर्तमान परिपेक्ष्य में यही अभिप्राय ज्यादा समीचीन है। ऐसे शौचालय का प्रयोग न कर पाने वालो को क्या कहा जाय-म्लेच्छ यही न।
              शुचिता या पवित्रता के पायदान पर हमारे देश में आज अगर कोई विराजमान हैं तो वे हैं- योजना आयोग के उपाध्यक्ष माननीय माण्टेक सिंह अहलू वालिया। 35 लाख रू0 खर्च करके दो भव्य शौचालय निर्मित करवाने वाले की शुचिता पर कैसे सन्देह किया जा सकता है। आर0टी0आई0 के तहत इस बात का उद्घाटन हुआ है। समग्र राष्ट्र के हितार्थ आर्थिक नियोजन करने का कार्य कितना मष्तिष्क को थकाने वाला होगा जिस कारण उन्हे कब्ज की शिकायत रहती होगी। उनके शुभचिन्तको ने उन्हे भव्य शौचालय निर्मित कराने की सलाह दी होगी। यह ऐसा शौचालय होगा जो संगमरमर से निर्मित उसकी दीवारें स्वर्णरचित और उसकी सामग्री रत्नखचित ही होगी ऐसा अनुमान मैं लगा रहा हूँ। शुचिता हेतु जब वे बैठते होगे मंद-मंद संगीत की सुरलहरियाँ बज उठती होंगी। वहाँ त्रिविध बयारि (शीतल, मंद, सुगन्धि से परिपूर्ण वायु) बहती होगी ताकि वे शुचिता परिपूर्ण होकर उस आलय से बाहर आये।
              मल-मूत्र विसर्जन के लिये एक और शब्द प्रयुक्त होता है- लघुशंका और दीर्घशंका। जब कोई व्यक्ति फ्रेश होने के लिये जाता है तो वह कहता है- दीर्घशंका हेतु जा रहा हूँ। निश्चय ही वह निम्नमध्य या मध्यम आर्थिक स्थिति वाला ही व्यक्ति है जिसे शंका है (लघु या दीर्घ) कि शारीरिक श्रम न करने अव्यवस्थित दिनचर्या, तनावग्रस्तता के कारण उसकी आँतो में पल रहे या सड रहे मलमूत्र का परित्याग वह यथोचित ढंग से कर पाता है या नही! उसकी शंका समाधान को प्राप्त ही होगी निश्चयपूर्वक कहा नहीं जा सकता अपच, अम्लीयता, गैस, बवासीर जैसी बीमारियाँ इसीलिये अस्तित्वमान है।
              निम्न आर्थिक स्थिति वर्ग का तो कहना ही क्या ‘मलत्याग‘ शब्द की अश्लील मानते हुए वह कहता है-दिशा मैदान जाना। आज के सन्दर्भ में उसमें ऐसा करने के लिए न तो कोई दिशा बची है और न मैदान ही। हाँ रेल लाईन या सड़क के किनारे समूह बनाकर मजबूरी में शर्म का परित्याग किए हुए बैठने को मजबूर है। रेल के ए0सी0 क्लास में सफर करने वाले भद्रपुरूष के लिए ऐसे दृश्य कितनी जुगुप्सा पैदा करते होंगे। देश की अधिसंख्य आबादी ऐसा करती है। इसे सहन भी तो करना ही पड़ता है कि एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक वोट बैंक के रूप में इनका जीवित रहना कितना जरूरी है। अन्य समय अभावग्रस्तता में ये जियें या मरें किसे परवाह है।
              शौचालय के लिए यदाकदा ‘बाथरूम‘ का प्रयोग किया जाता है। कहीं-कहीं विद्यालयों में बच्चे मलमूत्र त्याग के लिए ‘बाथरूम‘ शब्द का प्रयोग करते हैं। जरूरतमंद व्यक्ति अगर किसी मंत्री या बड़े नेता के यहाँ पहुँच जाय तो वह नेताजी को घण्टों बाथरूम के आश्रय में पाता है। आज समझ में आ रहा है कि आलीशान शौचालय का उपयोग करने वाला बाथरूम की भव्यता से मोहित होकर ही घण्टों सुखभोग करता हुआ परितृप्त होकर वहाँ से निकलता होगा।
              तो बात निकली थी माण्टेक सिंह का शौचालय भव्य और आकर्षक शौचालय/आर0टी0आई0 के तहत हमारे देश की सभी उच्च-आर्थिक स्थिति वालों के शौचालयों की स्थिति का ब्यौरा मंगाया जाना चाहिए साथ ही विदेशों की ऊँची हस्तियों के शौचालयों से सम्बन्धित अभिलेख माँगे जाने चाहिए। सबसे महंगे शौचालय वाले का नाम गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज होना चाहिए। हो सकता है माण्टेक सिंह का नाम इस रिकार्ड में दर्ज हो जाय। अमेरिका के राष्ट्रपति इस हेतु उन्हें गले लगा लें जैसा कि पिछले माह एक अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर उन्होंने हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को गले लगा लिया था। इससे बड़ा सम्मान हमारे देश के लिए और क्या हो सकता है।
              शौचालय दीर्घशंका और दिशा मैदान का सम्बन्ध जीवन स्तर से ही है। जो व्यक्ति 35 लाख रू0 के शौचालयों का इस्तेमाल कर रहा है वह निश्चय ही छप्पन भोग का आनन्द तो लेता ही होगा। वह करोड़ालय (करूणालय नहीं) में तो अवश्य निवास करता होगा। उसके मातहत पलने वाले लोगों का जीवन स्तर भी उन्नत होता होगा। पत्रकारों को चाहिए कि वे उन सभी का साक्षात्कार ले (माण्टेक सिंह और उनके मातहतों से) और पूछें आपको कैसा लगता है इतने भव्य शौचालयों का उपयोग करते हुए? क्या-क्या विशिष्टताएँ है इन शौचालयों का उपयोग करते हुए? क्या-क्या विशिष्टताएँ हैं इन शौचालयों में? कितना आनन्द आता है शुचिता की प्रक्रिया में? आदि-आदि। हमारी नई पीढ़ी को यह जानकारी अवश्य ही होनी चाहिए ताकि उनका लक्ष्य बने-माण्टेक सिंह जैसा बनना और भव्य शौचालयों का सदुपयोग कर एक काबिल भारतवासी बनना। माता-पिता अपने बच्चों को एक सीख दें कि बनो तो माण्टेक सिंह जैसा अन्यथा मानुष देह धारण करने का क्या औचित्य ‘बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर नर मुनि सदग्रंथन गावा‘। हमारा बचपन क्यों ऐसा आदर्श ग्रहण कर पा रहा है बड़ा चिन्तनीय विषय है।
बच्चे का मंहगा स्कूल हमारा आवास हमारी कार गहने आदि स्टेटस सिम्बल  हुआ करते है। स्टेटस मैण्टेन करने के लिए आज व्यक्ति क्या नही करता! गुणवत्ता से  अधिक प्रचलन का ध्यान रखा जाता है। हमारे  लिए सौभाग्य का विषय है। कि आज शौचालय स्टेटस सिम्बल बनने जा रहा है। सम्पन्नता की अभिव्यक्ति या व्यक्ति की पहचान इसलिए नही होगी कि वह किस कार में सवारी करता है। या उसके बच्चे  कितने मंहगे स्कूल में  पढ़ते है। या वह कितना मंहगा भोजन करता है। बस महत्वपूर्ण यह होगा कि उसका शौचालय कितना मंहगा है। और उसके भीतर किन-किन सुख सुविधाओं की ध्यान में रखा जाता है। अभी तक टायलेट से सम्बन्धित अब शौचालय से सम्बन्धित टायलेट सीट उसमे वाले मार्बल आादि का विज्ञापन अधिकाधिक देखने को मिलेगा। अगर कोई फिल्मी हस्ती तत्सम्बन्धी आइटम का विज्ञापन करे तो कहना ही क्या क्रिकेट स्टार घड़ी बेच रहा है। फिल्म अभिनेत्री कुरकरे खाकर और खिलाकर अपने  परिवार को सम्पन्न और खुशहाल बता रही है। इसी प्रकार का बहुत कुछ। लेकिन अब फिल्मतारिका और फिल्म स्टार टायलेट में बैठा यह बताने का प्रयास कर रहा होगा। कि फलॉँ कम्पनी की टायलेट सीट या शौचालय
में प्रयुक्त होने वाला मार्बल या इसी  तरह  के  अन्य आयटम आपको कैसे सुख प्रदान करते  है। अगर  आप  बताए  गए आयटम का प्रयोग  करते  है  तो आपका  जीवन  धन्य  हो जाएगा  और यह भी कि  आपका  शैाचालय आपके लिए गर्व और  पड़ोसी की ईर्ष्या का कारण भी होगा उस विज्ञापन  का मूलमंत्र होगा-उसका शौचालय आपके शौचालय से आकर्षक कैसे! उपभोक्ता के लिए अंग्रेजी का शब्द है-कष्टमर। अगर उपभोक्ता को आर्थिक तंगी से जीवन यापन करते हुए विज्ञापित वस्तुओं का प्रयोग स्टेटस के  दबाब में करना पड़े तो वह कष्टमर  ही है यानि आर्थिक तंगी  के कारण  कष्ट से  मरने  वाला। शौचालय  आज बाजार के मायावी संसार का प्रिय विषय बनने जा रहा है। यही प्रेरणा काम करने वाली है। कि आप अपने जीवन में भवन बनाएॅँ या न बनाये एक अदद आलीशान  शौचालय  अवश्य बनवा ले। ‘एक बंगला  बने  न्यारा‘ नही ‘एक शौचालय  बने उजियारा‘।
मुझे लगता है। कि माण्टेक सिंह का सम्बन्ध मण्टो की एक कहानी कि एक चरित्र टोबाटेक सिंह से है। कहें तो माण्टेक सिंह और टोबाटेक सिंह भाई भाई। टोबाटेक सिंह ने अपनी ऑँखिरी श्वास तक भारत विभाजन को स्वीकार नही किया। भारत  और पाकिस्तान के पूरे क्षेत्र को वह हिन्दुस्तान ही मानता आया दुर्भाग्य से पाकिस्तान में रहना पड़ा  हर समस्या की शिकायत वह पण्डित नेहरू से करने की बात कहा करता था इसी प्रकार माण्टेक सिंह आर्थिक विभाजन को स्वीकार नही करना चाहते। सभी भारतवासियों को वह खाते-पीते सम्बन्ध उभरती आर्थिक महाशक्ति वाले देश नागरिक समझते है अगर किसी व्यक्ति को भुखमरी, किसानों की आत्महत्या, भ्रष्टाचार, संशाधनो का असमान वितरण आदि समस्याएँ या विसंगतिया दिखाई देती है तो उसकी दृष्टि का दोष है उसकी भावना का दोष है- ‘जाकी रही भावना जैसी।‘ हमें बलिहारी होना चाहिये उस शौचालय का जिसके उपयोग के उपरान्त ऐसी कोई भी अनुभूति नही होती जो देश के लिये चिन्तनीय हो। वहाँ ऐसा अनुभव अवश्य होता होगा कि भारत 2020 तक विश्व की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरने वाला है। ऐसा अनुभव प्रदान कराने वाला शौचालय अगर महिमामण्डित करने के योग्य नही तो और क्या है?
              काले धन पर इस वर्ष और विगत वर्ष अत्यधिक चर्चाएं हुई कि कालाधन विदेशों मे जमा है। कई लोगो ने विस्तर के अंदर दीवार की चिनाई में छत के भीतर आदि कई जगहों पर धन संचित किया हुआ था। हमारे देश के मनीषी इसे कालाधन बता रहे थे। अगर मेरे पास इतना धन होता तो मैं इसे काला नहीं रहने देता इसे पीला बना लेता। शौचालय की दीवारों को स्वर्णनिर्मित बनाकर भव्य शौचालय की निर्मिति के बाद भी अगर देश की तीन चौथाई आबादी बेधडक यत्र-तत्र दिशा मैदान वाला कार्य भी करती या 28 रू0 रोजाना कमाकर अमीर भी बन जाती तो मुझ पर क्या असर होता शायद कुछ भी नहीं क्योकि मैं तो उस भव्य शौचालय का उपभोग करने वाला होता जहां से गरीबी, बेकारी, भुखमरी, कुपोषणा, बदहाल व्यवस्थाऐं आदि तो कुछ भी महसूस नही होता । बचपन मे याद की हुई एक कविता का स्मरण मुझे इस संदर्भ में हो रहा है-
                            यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता।
                            सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।।
                                                                                    -आमीन
पता-
द्वारा श्री चन्द्रवल्लभ पाण्डे
टनकपुर रोड चन्द्रभागा
पत्रालय-ऐंचोली
जनपद-पिथौरागढ़

सोमवार, 27 अगस्त 2012

विजय सिंह की कविताएं




          आपसे  वादा किया था मैंने कि आगे हम आपको जल्द ही केशव तिवारी ,विजय सिंह, भरत प्रसाद ,महेश चन्द्र पुनेठा, हरीश चन्द्र पाण्डे ,शंकरानंद, संतोष कुमार चतुर्वेदी, रेखा चमोली, शैलेष गुप्त वीर,विनीता जोशी, यश मालवीय , कपिलेश भोज,नित्यानंद गायेन, कृष्णकांत, प्रेम नन्दन एवं अन्य समकालीन रचनाकारों की रचनाओं से रुबरु कराते रहेंगे।इसी कड़ी में आज प्रस्तुत है अग्रज विजय सिंह की कविताएं  जो अपनी माटी की सोंधी महक के साथ उपस्थित हैं।

जंगल की हँसी         

जंगल के सन्नाटे में
पत्तियां गुपचुप-गुपचुप
बतियाती हैं

पत्तियों को सुनना है
तो
आप को वृक्ष होना होगा

जंगल की हँसी में
चमक है
इस चमक को छूने के लिए
जंगल में गाती-फुदकती
चिड़ियों को देखना होगा

जंगल के स्वभाव से
मैं परिचित हूँ

इसकी चुप्पी से
नहीं डरता

मैं जंगल में साँस लेता हूँ
इसके सन्नाटे में
बुनता हूँ अपना समय

मेरा समय
जंगल की तरह
उर्वर है।

रोज छूता हूँ जंगल

हरा-भरा जंगल रोज छूता हूँ
और पहुंचता हूं
अपने गांव

महुए के पेड़ में कब आते हैं फूल
लाख किस पेड़ से रिसता है
ओर किस पेड़ की पत्तियों में
छुप कर
लाल चींटियां बनाती हैं अपना घर

बोड़ा पकने के लिए
मिट्टी नम
कब होती है

सरई और सागौन के पेड़
को कब छूती है जंगली हवा

पण्डकी किस पेड़ की डाली से
गाती है मुण्ड बेरा का गीत

आम और टार कब पकते हैं जंगल में
सरई पत्तों के लिए
गांव की औरतें कब निकलती है
रान की और

धामना सांप कब फुंफकारता है
जंगल में
सल्फी के सुरूर में कब डूबता है
गांव का गांव

सोनमती की हंसी
और लखमू की टंगिया में
कब आता है धार
मैं जानता हूं।

0 बोड़ा जमीन के नीचे उगने वाला छोटा कंद जिसे बस्तर वासी चाव से सब्जी के रूप में प्रयोग करते हैं
0 मुण्ड बेरा दोपहर का समय

 जंगल  जी उठता है

मुहंआ पेड़ के नीचे
आदिवासिन लड़कियों
की हंसी में है
जंगल

जंगल अब भी
जंगल है यहां
आदिवासिन लड़कियां
जानती हैं

टुकनी मुंड में उठाये
जब   भी आदिवासिन लड़कियां
गांव-खेड़ा से बाहर
निकलती है

तब

जंगल का जंगल
जी उठता है
उनके स्वागत में।
 
तिरिया जंगल

तिरिया का जंगल
अभिषप्त नहीं है
सन्नाटे के लिए
काली मकड़ी जानती है
और बुनती है
तिरिया जंगल में
अपना घर

तिरिया के जंगल में
लाल चीटियां
पत्तियों की मुस्कान में
रचती है अपना संसार
ओर टुकुर-टुकुर
देखती है
बाहर की दुनिया को

कभी-कभी
बांस की झुरमुट से
गुर्राता है
तिरिया जंगल का बाघ
और
तिरिया का जंगल
हंस पड़ता है

अक्सर चैत-बैषाख की दुपहरी में
आसमान का लाल सूरज
तिरिया के जंगल में आग उगलता है

और पंडकी चिड़िया
सागौन की डाल से गाती है गाना
जिसे गांव की स्त्रियां सुनती हैं
यह वह समय है
जब गांव की स्त्रियां
मुंड में टुकनी उठाये
वनोपज के लिए
तिरिया जंगल की ओर निकलती है

गांव की स्त्रियों की पदचाप सुन
तिरिया जंगल के तेंदु फल पक कर गिरते है
टप-टप धरती में

आम और चार
पककर करते है
स्त्रियों के पास आने का इंतजार
गांव की स्त्रियां
धूप-धूप , छांव-छांव
पेड़-पेड
भरी  दोपहरी में बेखौफ होकर घूमती है
तिरिया के जंगल में

गांव की स्त्रियां तिरिया के जंगल को जानती है
तिरिया का जंगल
गांव की स्त्रियों को पहचानता है और जानता है

यह वह समय है
जब तिरिया का जंगल
गांव की स्त्रियों की हंसी में
खिलखिलाता-झूमता है
सरई पत्तों, आम,चार और तेंदू से भरी टुकनी मुण्ड में उठाए
जब लौटती है गांव की स्त्रियां अपने घर
तब तिरिया जंगल
एकदम चुप हो जाता है
तिरिया जंगल की यह चुप्पी
आप को डरा सकती है।

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

गढ़वाली हास्य - व्यंग कविता - कुछ नी कन्नी सरकार

जमुना दास पाठक की गढ़वाली हास्य - व्यंग कविता
    



कुछ नी कन्नी सरकार 

जैं कड़ैपर पैली छंछेड़ु बंणदू थौ -2
वीं कड़ै पर अब हलवा अर
फिर चौमिन कू छैगी रोजगार
तब बोल्दन लोग कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली गौं-गौं मा श्रमदान होंदा था
ढोल -नगाड़ौं बजै तैं अर अपड़ा - अपड़ा
कुल्ला दाथड़ौं ली तैं लोग
गौं का चारी तरफै
की सफाई करी तैईं पर्यावरण प्रदूषण तैं भगै देंदा था
अब लोग बैठ्यांछन खुट्यों पसारोक
अर सरकार देणी रोजगार
तब बोल्दन लोग कि कुछ नी कन्नी सरकार।

सच माणा पैली का लोग प्रदूषण का बारा जाणदै निथा
 तबैत गुठुयारों मा कुलणौ  पिछनैईं
रस्तो मां अर इथा तककि पाणी का धारौं तक
भि थुपड़ा रंदा था लग्या लैट्रिन का
अब घर- घर मा लैट्रिन ह्वैगेन तैयार
तब बोल्दन लोग कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली मजबूरी मा पैदल जाण पड़दु थौ
स्कूल मा, दुकानी मा, रिश्तेदारी अर
नौकरी कन्नक तैं भी पैदलै जाण पड़दु थौ
मुंड मा होया कांधी मा हो दुद्दे अर
चार- चार मण कू बोझ पैदलै लिजाण पड़दु थौ
आज गौ- गौ मा सड़क जाण सी
घर- घर ह्वैगन मोटर कार
तब बोल्दन लोग कि कुछ नी कन्नी सरकारं

पैली का जनाना ग्यों अर कोदू पिसण कतै
सुबेर जांदरू रिगौंदा था
अर श्यामकु उखल्यारौं मा साट्टी झंगोरा की घाणी
रंदी थै दिख्याणी
जख मा कि कुल्ल सासू- ब्वार्यों का झगड़ा होंदा था
अब जगा- जगौ ह्वैगी चक्यों की भरमार
तब छन्न बोन्या  कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली का छोरा स्कूल मा भि
बिनै सुलार पैर्यां चलि जांदा था
अर पाटी पर लेखीतै बिना
कौफी किताब्यों याद भि कर्याल्दा था
अर अब जलमदै नर्स बोन्नी
कि कख येकू कुर्ता सुलार
तब बोल्दन कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली लोग जब बीमार होंदा  था
देवतौं का दरवाजा खटखटांदा था
अस्पताल नि होण सीक हैजा
अर माता जनीं भयंकर बीमारिन
गौं का गौं बांजा पड़ी जांदा था
आज सड़क अर अस्पताल होण सीक 
झट्ट होणू उपचार
तब छन लोग बोन्या कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली का लोग अनपढ़ होंदा था
किलै कि स्कूल दूर होक सीक
वख तक पौंछी निसकदा था
अर अनपढ़ होण सीक ऊंका दिल मा जात पात
ऊंच नीच अर अपणू
विराणू जना भेद भाव जन्म लेंदा था
जातैं रूढिवादिता बोल्दन
आज गौं -गौ मा स्कूल  कालेज खुन्न सीक
अर शिक्षा कु प्रचार -प्रसार
होण सीक ह्वैगी समाज कू बेड़ा पार
तब छन बोन्या कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली हमारा समाज मा बलि प्रथा कू जादै बोल बाला थौ
क्वी बीमार होंदू थौ
झट्ट वैमा कुखड़ी- बाखरी ऊंचे तेवई वीं सणी
पट्ट मारी देंदा था
कति जगौं आज भि होणू
पर अब सतसंग कू प्रचार -प्रसार होण सीक
बंद ह्वैग्यन कुखड़ी -बाखरी खया देवतौं का द्वार
तब छन बोन्या कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली लोग गरैयों सणीदेवता माणी तैं पुजदा था
कैकू काम ख्राब होण पर
पंडा जी बोल्दा था कि ये का गरै खराब छन चन्या
ऊं सणी पूजि द्यान
टाज मनखी चंद्रमा तै दूर
मंगल गरै पर बसण ह्वैगी तैयार
तब छन लोग बोन्या कि कुछ नी कन्नी सरकार।

पैली लोग जाणदै नि था कि
मुख्यमंत्री क्या हवै अर  विधायक क्या  हवै
जौं का द्वारा सरकार  चल्दी
आज सरकार जगा जगौं लगैल्यन जनता दरबार
अर फिर भी छन लोग बोन्या कि कुछ नी कन्नी सरकार।

मै आप लोगू सणी फिर याद दिलौंदू छौं
कि पैली  जैंकड़ै पर छंछेड़ु बंणदू थौऊ
बीं पर आज हलवा
अर फिर चौमिन कू ह्वैंगी रोजगार
समाज का भला भला वैखू
अब नि बोलने कि कुछ नि कन्नी सरकार
आज का नवयुवक भायौं अर बैण्यों
सुदि निरा बैठ्या बेकार
मेरी दृष्टि मा सब्बी धाणी कन्नी सरकार।



 संपर्क सूत्र- 
           जमुना दास पाठक , प्रवक्ता- राजनीति विज्ञान
                      रा0 0 का0 गौमुख
           टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
           मोबा0-09719055179