बुधवार, 1 मई 2013

सुनील जाधव की कविताएं

        

                                                                            डॉ.सुनील जाधव


             आज के दौर में जो कुछ लिखा जा रहा है कोई जरुरी नहीं है कि वह रचना ही हो। कोई भी लिखित वस्तु कब रचना बन जाती है ] यह एक जटिल मनोविज्ञान है। फिर भी दूर दराज के क्षेत्रों में बहुत सारे ऐसे लेखक- कवि सक्रिय हैं जिनकी रचनाओं से गुजरना एक सुखद अनुभूति से भर जाना होता है।
               09 सितम्बर  1978 को महाराष्ट्र के नांदेड़ में जन्में सुनील जाधव ऐसे ही एक कवि हैं जिनकी रचनाओं में मानव में मानवता के लुप्त होते जाने की जो गहरी टिस है ] उसे बखूबी महसूस किया जा सकता है।अब तक इनकी &
कविता - मैं बंजारा हूँ ]रौशनी की ओर बढ़ते कदम ] सच बोलने की सजा
कहानी - मैं भी इन्सान हूँ ] एक कहानी ऐसी भी
शोध - नागार्जुन के काव्य में व्यंग ] हिंदी साहित्य विवध आयाम
अनुदित नाटक - सच का एक टुकड़ा
एकांकी - भ्रूण
पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
अलंकरण - सृजन श्री ताशकंद  ] सृजन श्री  दुबई  ] हिंदी रत्न नांदेड
 
विदेश यात्रा &उजबेक ] रशिया ] वियतनाम ] कम्बोडिया ]थईलैंड
 
प्रस्तुत है मजदूर दिवस पर सुनील जाधव की कविताएं&

बची है कितनी इंसानियत
 
1&
उसने सोचा
आज मैं देखूंगा
लोगों के दिलों में
बची है कितनी इंसानियत
या फिर है सिर्फ
इंसानियत शब्द
मस्तिष्क कोष में
विभिन्न अर्थों वाला शब्द मात्र
बन कर रह चुका है
 
2&
मैले कुचैले
फटे वस्त्रों में लिपटे
मटमैले
पसीना रहित शरीर को
उसने भरी दुपहरी में
प्यासे गले के साथ
लोगों से भरे चौक में
बिचों&बीच फटेपुराने
टावेल पर रख दिया
 
3&
मशीन बन चुके मशीन
मशीन मानव मशीनों में
सवार होकर
देखते हैं हर वस्तु को
मशीन की नजर से सोचते हैं
वह भी तो हैं मशीन मानव
और फिर इंसानियत निकलती है
मशीनों में से काट&छाट कर
आकर्षक सुन्दर औपचारिक रूप में
 
4&
किसी के मस्तिष्क कोष से
उछल कर निकलेगा
एक&एक शब्द
सहज
या सोच -समझकर
या फिर जान बुझकर
अरे
बाप रे
हे भगवान आदि
 
5&
कोई बुदबुदा कर
तो कोई मन ही मन
दया वाले शब्दों को
इंसानियत का मुलम्मा चढ़ा कर
अपने शब्दों को चमकाएगा
और अपने ही शब्दों के
चमक को देखकर
प्रफुल्लित होते हुए
आनंदोत्सव मनायेगा
 
6&
या यंत्र बना मानव
अपनी कृत्रिम व्यस्तताओं के कारण
कुछ सेकेंडो के लिए
ऑफिसियल फिल्मी
या साहित्यिक शब्दों
में कहेगा
काश मेरे पास समय होता
काश मैं उसकी मदद करता
हे भगवान ऐसा दृश्य क्यों दिखाया
 
7&
अपने बुद्धिमान बुद्धि से
बुद्धिमानों के बीच चर्चाओं का
विषय बन जाएगा
और फिर घड़ी में घर जाने
सोने आदि का समय देखेगा
सुबह होने पर नया विषय
चाय का कप और अख़बार होगा
निकलेगा फिर से वह
घर के बाहर
 
8&
वह फिर तंग आकर
उठ गया अपने मैले कुचैले
बदबूदार शरीर के साथ
सताया हुआ
रो&रो कर भावनाहीन
उसने एक भूखे को
कूड़े से उठाकर खाना दिया तो
उसने कहा उससे
मुझे इन्सान मिल गया
मेरे छूटे हुए अमूल्य पल
 
1&
 
कौन देगा मुझे
मेरे छूटे हुए
अमूल्य पलों को
जो
रेत घड़ी की
फिसलने वाली रेत  की तरह
हाथ से फिसल गये
 
2&
या फिर मैं
मूल्यहीन था
सदा से ही
शिष्ट सदाचार
संवेदनशील एबुद्धिमान
संस्कार से युक्त
सभ्य समाज के लिए 
3&
मैं खोजता हूँ
अपना ही अस्तित्व
अपनी नजरों में
और
उनकी नजरों में
जिनके नजरों के चौखट में
इन्सान बैठते हैं 
4&
कितना कुछ हो सकता था
मेरे छूटे हुए पलों में
सृजन निर्माण
पर नहीं हुआ
वे क्षण
काल की लहरों के साथ
कब के बहकर चले गये
 
5&
कभी कभी जब
पीछे मुड़कर देखता  हूँ
तब महसूस करता हूँ
की व्यर्थ में
मैंने अपना समय गवां दिया है
वे हो सकते थे अविस्मरणीय
पर अब वे नहीं हैं
पता :-   महाराणा प्रताप हाउसिंग सोसाइटी
           हनुमान गड कमान के सामने
           नांदेड महाराष्ट्र  05 भारत
चलभाष:- 09405384672
ईमेल:-      suniljadhavheronu10@gmail.com
ब्लॉग :-    navsahitykar.blogspot.com

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

मेरी माटी ! तुझे पाऊँ





                                                           भरत  प्रसाद 

             01 अगस्त 1971 को उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जनपद में हरपुर नामक गांव में जन्में  भरत  प्रसाद ने समस्त शैक्षिक डिग्रियां प्रथम श्रेणी में पास की है। पेशे से अध्यापन। सहायक  प्रोफेसर हिन्दी विभाग पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय शिलांग मेघालय में ।
भूरी-भूरी खाक धूल काव्य संग्रह में मुक्तिबोध की युग चेतना में एम0 फिल0 तथा
समकालीन हिन्दी कविता में अभिव्यक्त समाज और संस्कृति में पी0 एच0 डी0।
 अब तक इनकी- 
और फिर एक दिन   कहानी संग्रह
देसी पहाड़ परदेसी लोग   लेख संग्रह
एक पेड़ की आत्म कथा काव्य संग्रह प्रकाशीत   एवं
सृजन की इक्कीसवीं सदी लेख संग्रह प्रकाशीत ।
 अनियतकालीन पत्रिका- साहित्य वार्ता का दो वर्षों तक संपादन एवं हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन के साथ ही परिकथा  पत्रिका के लिए ताना बाना  शीर्षक से नियमित स्तंभ लेखन। इनके लेख एवं कविताओं का पंजाबी एवं बांग्ला में अनुवाद।

पुरस्कार.   1.सृजन सम्मान 2005 रायपुर  छत्तीसगढ़
                2.अम्बिका  प्रसाद दिब्य रजत अलंकरण 2008  भोपाल म0 प्र0

कैसे कह दूँ

क्या हमारी शरीर में ऊँची जगह पाकर
हमारा मस्तिष्क सार्थक हो उठा ?
क्या हमारी आँखें सम्पूर्ण हो गईंए
हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनकर ?

क्या हमने अन्धकार के पक्ष में बोलने से
बचा लिया ख़ुद को ?

क्या सीने पर हाथ रखकर कह सकता हूँ मैं
कि अपने हृदय के कार्य में कभी कोई बाधा नहीं डाली ?
आत्मा की गहराइयों से उठे हुए विचारों की
क्या मैं हत्या नहीं कर देता ?

दरअसल अपनी गहन भावनाओं का सम्मान करने वाला
मैं उचित पात्र ही नहीं हूँ ।
वे इस कायर ढॉचे में क्यों उमड़ती हैं ?

छटपटाकर मरती हुई अन्तर्दृष्टि से प्रार्थना है-
कि वे इस जेलखाने को तोड़कर कहीं और भाग जाएँ ।

अपनी अन्तर्ध्वनि का तयपूर्वक मैंने कितनी बार गला घोंटा है

कौन जाने ?

पूरी शरीर को ता.उम्र कछुआ बने रहने का रोग लग चुका है
हाथ.पैरए आँख.कान.मुँह आज तक अपना औचित्य सिद्ध ही नहीं कर पाए
करना था कुछ और तो कर डालते हैं कुछ और
दृश्य.अदृश्य न जाने कितने भय और आतंक से सहमकर
पेट में सिकुड़े रहते हैं हर पल ।

मेरा अतिरिक्त शातिर दिमाग़ शतरंज को भी मात देता है
भीतरी के अथाह खोखलेपन के बारे में क्या कहना ?

कैसे कह दूँ कि मैं अपने जहरीले दाँतों से
प्रतिदिन हत्याएँ नहीं किया करता ?


मेरी माटी ! तुझे पाऊँ

तुम्हारे इतने पास रहकर
और पास आने की अकथ बेचैनी के बावजूद
कितना दूर रह जाता हूँ तुमसे ?
बचपन से आज तक तुम्हारे सिवा
किससे इतना नाता रहा ?

परन्तु कैसे झूठ बोलूँ कि
मैं सिर्फ तुम्हारे लिए जीता हूँ ।
तुम्हें इतना ज़्यादा जानने.पहचानने के बावजूद
अभी कहाँ समझ पाया हूँ ?

तुम्हें चाहने को लेकर भी अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं होता
तुम हमारी माँ जैसी माँओं की माँ होए मिट्टी !
परन्तु तुम्हें उतनी ज़्यादा माँ कहाँ मान पाया हूँ ?

अन्न के गर्व से फ़सलों के झुक जाने का रहस्य तुम्हीं तो हो
गमकते हुए फूलों में प्रतिदिन हज़ारों रंग कौन भरता है ?
करोड़ों सालों से कौन दे रहा है
धरती को अनमोल हरियाली की सौगात ?

पेड़.पौधे तुम्हारे लाख.लाख कृतज्ञ हैं
अपने वजूद के लिए
हे प्राणदायिनी ! तुमने इतनी ममता कहाँ से पाई है ?

तुम्हारे भीतर छिपा है जड़.चेतना के उत्थान.पतन का इतिहास
तुम्हारे मौन में क़ैद है मानव.सृष्टि की महागाथा
तुम होए तो पृथ्वी लाख कठिनाइयों के बावजूद
लाखों वर्षों से अपने कोने.कोने में ज़िन्दा है ।

बदरंगए बेस्वादए बेजुबान
माटी ! देखने में तुम कितनी मामूली
पर जीवन के लिए कितनी अनिवार्य
तुम्हें देखकर बार.बार भ्रम होता है
कि छोटा होना क्या वाकई छोटा होना है ?
नीचे रहने का अर्थ क्या सचमुच नीचे रहना है ?

तुम्हारा न हो पाने की विकट पीड़ा में
बेहतर छटपटाता रहता है हृदय
तुम्हारे बग़ैर निरर्थक होते जाने की तड़प
मैं किससे कहूँ
?

जीवन बीतते जाने का मुझे उतना ग़म नहीं
जितना कि अपनी स्वार्थपरता वश
तुम्हें हर पल खोते जाने का है ।
कूड़ा.करकट से भरा हुआ शरीर
एक न एक दिन तुम्हीं में विलीन हो जाएगा-
पता है मुझे

किन्तु तुम्हारे आगे कभी
निःशेष कृतज्ञता के साथ नतमस्तक नहीं हो पाया
रात.दिन यही शिकायत रहती है ख़ुद से ।

सम्प्रति.     
 सहायक  प्रोफेसर हिन्दी विभाग
 पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय शिलांग
 मेघालय 793022
 मोबा0.09863076138  09774125265
 ई.मेल.deshdhar@gmail.com
 ब्लाग-deshdhara.blogspot.com