रविवार, 26 जनवरी 2014

प्रवीण कुमार श्रीवास्तव की कविताएं





                      

                                                                                           08/03/1983




        प्रवीण कुमार श्रीवास्तव उभरते हुए युवा कवि हैं जिनकी कविताएं, कहानी, लघुकथाएँ,  हाइकू ,गीत, ग़ज़ल आदि विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी  हैं।ये कविताएं मुझे अर्से पहले मिल गई थीं।लेकिन अपनी कुछ विषम परिस्थितियों के चलते पोस्ट नहीं कर पा रहा था जिसका हमें बहुत मलाल था।आज 65वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर पोस्ट करते हुए हमें हर्ष हो रहा है कि देर आए दुरूस्त आए।
              फ्रेंच दाढ़ी पर नामक कविता यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम वाकई आजाद हैं या आजादी की साफ- सुथरी हवा में सांस ले रहे हैं।सोचने पर विवश करती  है। डा0 महबूब ऊल हक और अमर्त्य सेन की मानव विकास की अवधारणा  कहां खाक छान रही है। प्रवीण कुमार श्रीवास्तव की कविताओं में बखूबी देखा जा सकता है। इस नये स्वर का पुरवाई ब्लाग पर स्वागत है।

प्रस्तुत है यहां उनकी दो कविताएं-

फ्रेंच दाढ़ी पर

उलझे बिखरे मटमैले बालों वाली
कलूटी सी बच्ची
बीन रही थी
मुहल्ले के कूड़ेदान से
कुछ पालीथीन
प्लास्टिक के टुकड़े
माई ने कह रखा है उसे
पूरे दिन में भर लाना है
एक पूरी बोरी
साथ में है छोटा भाई
जो पा गया है
कूड़े में पड़ी
पालीथीन में बंधी रोटियां
कुतरे जा रहा था
जल्दी -जल्दी खुश होता हुआ
कुछ देर बाद
रोज की तरह
काम की चीजें यानी कि
पालीथीन या कबाड़ में बिक सकने वाले
सामान छोड़कर
बीनेगा बेकार की चीजें
मतलब टूटे खिलौने
माचिस की डिब्बियां
धागे
जाने क्या- क्या
और सड़क पर बैठ
ईजाद करने की कोशिश करेगा
कुछ नया
और जब
देखेगी उसकी बहन
तब चिल्लाएगी गला फाड़कर
हरामी
और खींचेगी उसके बाल
फिर धर देगी उसकी  पीठ पर
दो- तीन मुक्के गचागच
और जब रोने लगेगा वो
तो गुदगुदायेगी उसके पेट में
फिर   दोनों सफेद मोटे- से दांत
दिखाकर हंसेंगे
लोट जाएंगें सड़क पर हंसते- हंसते
कबाड़धागाडिब्बी
भूलकर
आज भी हो रहा था
सब कुछ वही
कि  अचानक
घट गया कुछ नया
क्लिक
सामने मोटरसाइकिल पर बैठे
आदमी ने
खींच ली फोटो उनकी
और बढ़ गया अपने रस्ते
पल भर अवाक रहने के बाद
लोट -पोट हो गये दोनों
प्रेस फोटोग्राफर की
फ्रेंच दाढ़ी पर


चलन के सिक्के और नोट

चलन का एक छोटा सिक्का
दो फैली हुई आंखें
और उसी के इर्द -गिर्द सिमटी हुई
आशाएं और उम्मीदें
खर्च
रोटी से शुरू और रोटी पर खत्म
और फिर शुरू होता है
सपना उसी सिक्के का

चलन के कुछ मझोले नोट
दो सिकुड़ी हुई आंखें
बिजली -पानी का बिल
बिट्टू की फीस
रोजमर्रा का खर्च
और
बीवी का दिल
इन हकीकतों के बीच
सपनों की जगह कहां?

चलन के अनगिनत सबसे बड़े नोट
दो बंद आंखें
क्लब- डांसर, बीयर- बार
रेसकोर्स, कैसीनो, शेयर, सट्टा
सपनों से परे हकीकत।


मोबा0 .8896865866
      919026740229

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

अमरपाल सिंह आयुष्कर की कविता



                        अमरपाल सिंह आयुष्कर

 उत्तर प्रदेश के नवाबगंज गोंडा में 01 मार्च 1980 को जन्में अमरपाल सिंह आयुष्कर ने इलाहाबाद विश्व विद्यालय से हिन्दी में एम0 ए0 किया है । साथ ही नेट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद दिल्ली के एक केन्द्रीय विद्यालय में अध्यापन।
            आकाशवाणी इलाहाबाद में एक कार्यक्रम के दौरान हुई मुलाकात कब मित्रता में बदल गयी इसका पता ही न चला। लेकिन भागमदौड़ की जिंदगी और नौकरी की तलाश में एक दूसरे से बिछुड़ने के बाद 5-6 साल बाद फेसबुक ने मिलवाया तो पता  चला कि इनका लेखन कार्य कुछ ठहर सा गया है । विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं से गुजरने के बाद लम्बे अन्तराल पर इनकी 
कविता पढ़ने को मिल रही है और वह भी सा के साथ।
पुरस्कार एवं सम्मान- 

           वर्ष 2001 में बालकन जी बारी इंटरनेशनल नई दिल्ली द्वारा “ राष्ट्रीय युवा कवि पुरस्कार ” तथा वर्ष 2002 में “ राष्ट्रीय कविता एवं प्रतिभा सम्मान ”।
        शलभ साहित्य संस्था इलाहाबाद द्वारा 2001 में पुरस्कृत ।


भावांजलि
 
नव वर्ष का यह शुभ दिन

प्रेरित करता है

अतीत की सीपिओं से ,वर्तमान का मोती चुन लेने को 

जिसे स्वर्णिम भविष्य के तारों में पिरोया जा सके 

अवलोकन ,मूल्यांकन उन पलों की लहरों का

जिसमे कितने टूटे ,चट्टानों से टकराकर
 ,
और कितनो ने तोड़ी चट्टानों की ख़ामोशी 

नव वर्ष का यह शुभ दिन

उल्लसित  करता है

अभिनूतन सर्जना के लिए

असफलताओं से ध्वंस हुए महलों पर 

नई नीव रखने को

ह्रदय के ढीले पड़ चुके तारों को 

आत्मविश्वास की अंगुलिओं  से झंकृत  करने को 


नव वर्ष का यह शुभ दिन 

विकसित करता है

विमल भावों का कँवल पुष्प और नवीन  विचारों का उत्कर्ष

जिसकी रंगभूमि पर 

मंचित  हो सके –विश्व शांति का पाठ 

और विगलित हो सके 

दूर से , पास से ,अपने आप से

आती हुई  करूण ध्वनिओं का आर्तनाद  


संपर्क सूत्र-
अमरपाल  सिंह ‘आयुष्कर’
G-64  SITAPURI
PART-2
NEW DELHI
1100045
मोबा0-8826957462

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

अनवर सुहैल की कविता



       09 अक्टूबर 1964  को छत्तीसगढ़ के जांजगीर में जन्में अनवर सुहैल जी के अब तक दो उपन्यास , तीन कथा संग्रह और एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कोल इण्डिया लिमिटेड की एक भूमिगत खदान में पेशे से वरिष्ठ खान प्रबंधक हैं। संकेत नामक लघुपत्रिका का सम्पादन भी कर रहे हैं।

अनवर जितने सहज-सरस साहित्यिक हैं उतने ही सहज-सरस इंसान भी। उनसे मिलने या बात करने वाला कोई भी व्यक्ति उनके मृदुल व्यवहार का कायल हुए बिना नहीं रह कता है।


 प्रस्तुत है यहां उनकी  कविता


1-

उन्हें विरासत में मिली है सीख
कि देश एक नक्शा है कागज़ का
चार फोल्ड कर लो
तो रुमाल बन कर जेब में जाये

देश का सारा खजाना
उनके बटुवे में है
तभी तो कितनी फूली दीखती उनकी जेब
इसीलिए वे करते घोषणाएं
कि हमने तुम पर
उन लोगों के ज़रिये
खूब लुटाये पैसे
मुठ्ठियाँ भर-भर के
विडम्बना ये कि अविवेकी हम
पहचान नही पाए असली दाता को

उन्हें नाज़ है कि
त्याग और बलिदान का
सर्वाधिकार उनके पास सुरक्षित है
इसीलिए वे चाहते हैं
कि उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए
हम भी हँसते-हँसते बलिदान हो जाएँ
और उनके ऐशो-आराम के लिए
त्याग दें स्वप्न देखना...
त्याग दें प्रश्न करना...
त्याग दें उम्मीद रखना.....

क्योंकि उन्हें विरासत में मिली सीख
कि टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं से
कागज़ पर अंकित
देश एक नक्शा मात्र है....



सम्पर्क: टाईप 4/3, ऑफीसर्स कॉलोनी, बिजुरी
       जिला अनूपपुर .प्र.484440
              फोन 09907978108

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

शिरोमणि महतो की दो कविताएं





 29973


शिक्षा  - एम हिन्दी

सम्प्रति  - अध्यापन एवं महुआ पत्रिका का सम्पादन

प्रका - - कथादेश, हंस, कादम्बिनी, पाखी, वागर्थ, कथन, समावर्तन, पब्लिक एजेन्डा, समकालीन भारतीय साहित्य, सर्वनाम, युद्धरत आम आदमी, शब्दयोग, लमही, पाठ, पांडुलिपि, हमदलित, कौशिकी, नव निकश, दैनिक जागरण पुनर्नवा विशेषांक ,दैनिक हिन्दुस्तान, जनसत्ता विशेषांक, छपते-छपते विशेषांक, राँची एक्सप्रेस, प्रभात खबर एवं अन्य दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

 शिरोमणि महतो की दो कविताएं

भात का भूगोल

पहले चावल को
बड़े यत्न से निरखा जाता
फिर धोया जाता स्वच्छ पानी में
तन-मन को धोने की तरह

फिर सनसनाते हुए अधन में
पितरों को नमन करते हुए
डाला जाता है-चावल को
अधन का ताप बढ़ने लगता है
और चावल का रूप-गंध बदलने लगता है

लोहे को पिघलना पड़ता है
औजारों में ढलने के लिए
सोना को गलना पड़ता है
जेवर बनने के लिए
और चावल को उबलना पड़ता है
भात बनने के लिए
मानो
सृजन का प्रस्थान बिन्दु होता है-दुख !

लगभग पौन घंटा डबकने के बाद
एक भात को दबाकर परखा जाता है
और एक भात से पता चल जाता
पूरे भात का एक साथ होना
बड़े यत्न से पसाया जाता है मांड
फिर थोड़ी देर के लिए
आग में चढ़ाया जाता है भात को
ताकि लजबज रहे

आग के कटिबंध से होकर
गुजरता है-भात का भूगोल
तब जाके भरता है-
मानव का पेट-गोल-गोल !



छोटे शहर में प्यार

छोटे शहर में प्यार
पनपता है धीरे-धीरे
पलता है लुक-छुपकर
आँखों की ओट में
हृदय के तल में

छोटे शहर में
फैल जाती है-प्यार की गंध
इस छोर से उस छोर तक
धमधमा उठता है-
पूरा का पूरा-छोटा शहर

छोटे शहर का आकाश
बहुत नीचा होता
और धरती बहुत छोटी
जहाँ परींदे पंख फैलाकर
उड़ भी नहीं सकते

छोटे शहर में
प्रेमियों के मिलने के लिए
कोई गुप्त सुरक्षित जगह नहीं होती
कोई सिनेमा घर होता
बाग-बगीचे
और ही किलाओं का खण्डहर
जहाँ दो-चार पल
जिया जा सके एक साथ
और सांसो की आँच से
सेंका जा सके प्यार को !

छोटे शहर में
प्रेमियों का मिलना कठिन होता है
वहाँ हर घर के कबूतर
हरेक घर की मुर्गियों को पहचानते हैं
दो प्रेमियों को मिलते देखकर
कोई मुर्गा भी शोर मचा सकता है !

छोटे शहर में दो प्रेमी
एक-दूसरे को देखकर
मुस्कुरा भी नहीं सकते
आँखों की मुस्कुराहट से
करना होता है-संवाद
और संवेदना का आदान-प्रदान !

छोटे शहर में प्यार
बहुत मुश्किल से पलता है
पूरा का पूरा छोटा शहर
बिंद्या होता है-
घरेलू रिश्तों की डोर से
जिसमें प्रेम के मनके गूँथे नहीं जाते !

छोटे शहर में
चोरी-छिन्नतई जायज है
गुंडई-लंगटई जायज है
यहाँ तक कि-मौज मस्ती के लिए
अवैध संबंध भी जायज है
किन्तु प्यार करना पाप होता
एक जघन्य अपराध होता
प्रेम करनेवालों को चरित्रहीन समझा जाता है

छोटे शहर में प्यार को
हवा में सूखना पड़ता है
धूप में जलना पड़ता है
आग निगलना पड़ता है
और खौलते हुए तेल में
उबलना पड़ता है
इसके बावजूद साबुत बचे तो
लांघनी पड़ती हैं-
और कई अलंघ्य दीवारें !

वैसे तो
छोटे शहर में
प्रेम से ज्यादा
पेट के सवाल लटके हुए होते
हवाओं में काँटों की तरह
जो आत्मा को कौंचते रहते हैं
और कई बार
प्रेम-भूणावस्था में ही नष्ट हो जाता है !
    
छोटे शहर में प्यार
अक्सर अपने पड़ाव तक
नहीं पहुँच पाता
उसे झेलना पड़ता है-
विरह
या फिर-निर्वासन 
!

पता - - नावाडीह बोकारो झारखण्ड -829144

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