शनिवार, 24 मई 2014

किसने सोचा था-बिजेन्द्र सिंह






          2 अक्टूबर1995 को टिहरी गढ़वाल के खासपट्टी पौड़ीखाल के बाँसा की खुलेटी(गौमुख) नामक गांव में दलित परिवार में जन्में बिजेन्द्र सिंह ने राज्य स्तर पर खेल के अलावा विभिन्न क्षेत्रों में सराहनीय कार्य किया है।स्कूल में हमेशा पढ़ाई में प्रथम  आने पर सम्मानित भी हुए हैं। प्रवाह ,भाविसा और पुरवाई पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित वर्तमान में श्री गुरूराम राय पब्लिक स्कूल देहरादून में अध्ययनरत। आप सुधीजनों के विचारों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।







बिजेन्द्र सिंह की कविता



किसने सोचा था कि
जो हाथ कल तक
दूसरे को बधाइयां देते
मिल रहे थे
वो एक दूसरे को
काटने के लिए तैयार हैं


जो लोग कल तक
एक दूसरे को गले लगाकर
खुशी मना रहे थे
वे एक दूसर का
गला काटने के बाद भी
दुखी थे

आखिर ऐसा क्या हुआ कि
इंसानियत को पीछे छोड़
ये लोग धरम को भगवान मान बैठे हैं
और दुश्मन बन बैठे हैं
उन तमाम लोगों के
जिन्हें शायद ये
पहचानते भी होंगे

आखिर क्यों
हल्के मनमुटाव पर भी
जला बैठते हैं कहीं घर
और उजड़ जाता है
तमाम इंसानियत का बसेरा

आखिर कब समझेंगे ये लोग
कि सालों से चलती रही
इन हिंसाओं से कोई लाभ नहीं हुआ
हुआ है तो सिर्फ
इंसानियत का नाश

अब वक्त गया है
समझने का
एक दूसरे का दुख दर्द बांटने का
नहीं तो वह दिन दूर नहीं
जब इंसानियत लोगों को
छू तक नहीं पायेगी

संपर्क. खासपट्टी पौड़ीखाल के बाँसा की खुलेटी(गौमुख)
       टिहरी गढ़वाल
       Mo-8171244006 

शुक्रवार, 9 मई 2014

कर गुजरना है कुछ ग़र :उमेश चन्द्र पन्त "अज़ीब"



उमेश चन्द्र पन्त

कर गुजरना है कुछ ग़रतो जुनूं” पैदा कर
हक को लड़ना हैरगों में खूं” पैदा कर
वतन की चमक को जो बढ़ाये
तेरी आँखों में ऐसा नूर” पैदा कर  
वतन पे कुरबां होना शान हैमाना
तू बस अरमां” पैदा कर
शम्सीर” बख़ुदा मिलेगी तुझे तू
तू हाथों में जान” पैदा कर
अहले वतन को जरूरत है तेरी
तू हाँ कहने का ईमान” पैदा कर  
सीसा नहींहौसला-ए-पत्थर है उनका
तू साँसों में बस आंच” पैदा कर 
फ़तह मिलकर रहेगी तुझे  
हौसला पैदा कर
रौंद न पाएंगे तुझे चाह कर भी वे
कुछ ऐसा मंज़र” राहों में पैदा कर
होंगे "ख़ाक" वे, सामने जो आयेंगे
तू सीने में बस, "आग" पैदा कर..



मेरे हमसफ़र आ

तुझे ले के चलूँ

इन फिज़ाओं मै कहीं....


इन हवाओ क साथ 
तुझे कहीं उड़ा के ले के चलूँ

मेरे हमसफ़र आ


तुझे ले के चलूँ

हुस्न की वादियों मैं


चाहत के समंदर मैं


बहाता ले चलूँ


मेरे हमसफ़र आ


तुझे दूर ले क चलूँ

तुझे एहसास दिलाऊं....


तुझे ये बताऊँ.....के तू मेरा है....


तू आया जब से..


मेरे जिन्दगी मैं नया सवेरा है

मेरे हमसफ़र आ


तुझे ले के चलूँ

पर्वतों के पार..


एक घाटी मैं


जो है वादे-वफ़ा से सरोबार


मेरे हमसफ़र आ


तुझे ले के चलूँ....

गुरुवार, 1 मई 2014

‘सूरज के बीज’ में जीवन के कई रंग




आज मई दिवस पर प्रस्तुत है काव्य संग्रह ‘सूरज के बीज’ की समीक्षा




             हिन्दी कविता में पूनम शुक्ला ने अपनी पहचान बना ली है इधर वे लगातार लिख रही हैं और अच्छी बात यह है कि छप भी रही है पूनम शुक्ला की कविताएँ हमारे जीवन और समाज की अक्कासी करती हुई एक बड़ी और विशाल दुनिया से हमारा नाता जोड़ती हैं उनकी कविताओं में प्रेम भी है,जीवन के स्याह- सफ़ेद रिश्ते भी हैं और एक महिला के सुख दुख भी हैं हालांकि वे स्त्री विमर्श को नारों की तरह इस्तेमाल नहीं करतीं,फिर भी वे महिलाओं की उस पीड़ा को बहुत ही शिद्दत के साथ अपनी कविताओं में उतारती हैं जो कहीं कहीं उनके जीवन को प्रभावित करती हैं उनके उस रंग को उनके पहले संग्रह "सूरज के बीज" में भी देखा जा सकता है "सूरज के बीज " का प्रकाशन हाल ही में हुआ है और अपने इस पहले काव्य संग्रह में पूनम शुक्ला जीवन के उन स्याह सफेद रंगों को हमारे सामने रखती हैं ।फ्लैप पर कवि मित्र श्याम निर्मम नें सही ही लिखा है कि पूनम शुक्ला नें कविता लिखना किसी पाठशाला में नहीं सीखी है बल्कि जीवन की पाठशाला नें उन्हें जो सिखाया पढ़ाया पूनम शुक्ला ने उसे अपनी कविताओं में पिरोकर पाठकों के सामने पेश किया
 
                         पूनम शुक्ला भाषा के स्तर पर प्रयोग करती हैं,नए बिंब रचती हैं और नए मुहावरे भी गढ़ती हैं संग्रह की कविताओं में इसे देखा समझा जा सकता है उनकी कविताओं में महिला की पीड़ा तो है ही,प्रकृति के रंग भी शिद्दत से बिखरे दिखाई पड़ते हैं कुछ कविताओं में वो खुद से भी मुख़ातिब हैं लेकिन ये खुद से मुख़ातिब होना दरअसल उस स्त्री से मुखातिब होना है जो अक्सर भीड़ में खुद को अकेली और असहाय खड़ा पाती है

 
                 'पहचानों' शीर्षक कविता में वे बहुत ही सहजता के साथ सवाल करती हैं- ' क्या आंसुओं से लिपटी/ उस आवाज़ को/ सुन सके हो तुम,/ नारी के आंसुओं की आवाज़ / जिनमें ममता छिपी है/और आदर्श भी/जिनमें विनम्रता है असीम/ और सहज कोमलता भी ' बहुत ही सहजता से वे ऐसे सवाल बार-बार अपनी कविताओं में उठाती हैं औरत और मर्द के सवालों से वे बार- बार जूझती हैं एक दूसरी कविता में वे कहती हैं ' फिर कहीं/ औरत झुकी है/ फिर कहीं/ इज्जत लुटी है/ आज दो हैं / कल चार होंगे / रोज ही औरत/ पिटी है ' समाज में औरत की आज जो स्थिति है पूनम शुक्ला उसे साफ़गोई से कविताओं के ज़रिए हमारे सामने रखती हैं संग्रह में और भी ऐसी कविताएँ हैं जो जीवन के कड़वे और तल्ख़ हक़ीक़त को बहुत ही शिद्दत के साथ बयां करती हैं लेकिन संग्रह में इससे इतर मूड की भी कविताएँ भी हैं,जिनमें प्रकृति के कई- कई रंग दिखाई देते हैं ये कविताएँ उम्मीद की हैं,विश्वास की हैं और जीवन की हैं

फ़ज़ल इमाम मल्लिक
उप संपादक जनसत्ता दिल्ली
संपादक सनद पत्रिका

 


                          पूनम शुक्ला

 सूरज के बीज ( काव्य संग्रह ) : कवयित्री : पूनम शुक्ला,प्रकाशक : अनुभव प्रकाशन, - 28, लातपत नगर,साहिबाबाद, गाजियाबाद ( उत्तर प्रदेश ) मूल्य : एक सौ पचास रुपए
 

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

जिंदगी ख़ूबसूरत है :: उमेश चन्द्र पन्त


 















उमेश चन्द्र पन्त

परिचय-
       उत्तराखण्ड के सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ के चोढीयार गंगोलीहाट नामक गांव में 30 अक्टूबर 1985 को जन्में उमेश चन्द्र पन्त अज़ीब ने अपनी साहित्यिक यात्रा कविताओं से की। स्नातक करने के पश्चात फिलहाल देहरादून में नौकरी ।
इनकी रूचियां -फोटोग्राफी
, देशाटन, कवितां, सिक्का.संग्रह, पढना, तबला वादन एवं संगीत में।

 बकौल उमेश चन्द्र - यही कुछ साल भर पहले कविताओं की शुरुआत हुई अनजाने ही कुछ पंक्तियाँ लिखीं तो लगा के मैं भी लिख सकता हूँ बस यूँ ही एक अनजाने सफ़र की शुरुआत हो गई  उम्मीद है यह सफ़र यूँ ही अनवरत चलता रहेगा क्यों कि कुछ सफरों को मंजिलों की तलाश नहीं होती वे सिर्फ सफ़र हुआ करते हैं।

उमेश चन्द्र पन्त की दो कविताएं



जिंदगी ख़ूबसूरत है


 
जिंदगी ख़ूबसूरत है
बहुत खूबसूरत
तितली के पंखों -सी  
कभी फूलों -सी
पूनम की रात- सी
खूबसूरत है
तुम्हारी कही किसी बात -सी
जिंदगी खूबसूरत है
निश्छल
, निष्कपट
शिशु की मुस्कान  की तरह
खूबसूरत है जिंदगी
उस समीर की तरह
शाम को मंद-मंद  बहते हुए
जो माहौल में
गुलाबी ठंडक ला देती है
जिंदगी खूबसूरत  है
उससे भी ज्यादा
जितना की वो हो सकती है।  


तालीम

 
हम तालीम  लेते हैं
हर तरह से
हर तरीके की तालीम
ताउम्र लेते रहते हैं
कुछ न कुछ
किसी न किसी तरह की तालीम
हर लम्हाए हर वक़्त
दरजा दर दरजा
कदम दर कदम
लेते हैं  तालीम
अलग-अलग काफ़िया
पढ़ते हैं
सीखते हैं
कुछ नया
हर दफा
कोई नया काफ़िया
पढ़ते हैं
रखते हैं अपना नज़रिया
देते हैं अपनी राय
संजीदगी से उस पर
और कभी-कभी बेबाकी से भी
पाते हैं हम कई-कई सनद
अपने तालीमों  से
वजीफ़े भी दिलाती है तालीम हमको
इन सब बातों के बीच
शायद हम भूल  जाते हैं
तालीम लेना
मुहब्बत की
इंसानियत की
और उससे ज्यादा
हम भूल जाते हैं लेना
इंसान होके भी इंसान होने की तालीम। 



संपर्क.                 द्वारा श्री हेम चन्द्र पन्त
                              संगम विहार हर्रावाला
                              देहरादून उत्तराखंड
                              वार्ता सूत्र.09897931538
ईमेल. umeshpant.c@gmail.com,UmeshC.pant@yahoo.co.in

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

चिन्तामणि जोशी की कहानी : भाषेनाना




                                                      चिन्तामणि जोशी

             3 जुलाई 1967 को पिथौरागढ (उत्तराखण्ड)में बड़ालू ग्राम में  जन्में चिन्तामणि जोशी ने बी. एड. व एम. ए. (अंग्रेजी) में शिक्षा प्राप्त की है। अब तक इनकी हिन्दी की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में शताधिक कविताएँ व लेख प्रकाशित हो चुके हैं। विद्यार्थी जीवन से ही छात्र-राजनीति, जन चेतना कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी एवं पत्रकारिता।कुछ समय तक साप्ताहिक समाचार पत्र ‘कुमाँऊ सूर्योदय’ में सम्पादन सहयोग। शिक्षा संबंधी अनेक कार्यशालाओं में प्रतिभाग एवं शैक्षिक प्रशिक्षणों में सन्दर्भदाता की भूमिका।                                              
प्रकाशित पुस्तक  : क्षितिज की ओर (कविता-संग्रह)
सम्प्रति          : अध्यापन


                वर्तमान शिक्षा पद्धति की विशेषताओं को उजागर करती यह कहानी करारा तमाचा है सरकारी नीतियों पर। एक तबके को पुरी तरह हाशिये पर धकलने की गहरी साजिस है जिसका शिकार भाषेनाना जैसे न जाने कितने किशोर व युवक हैं जो इतिहास के अनाम पन्नों में गुमनाम हैं।यथार्थ के धरातल पर लिखी गयी यह कहानी मानवीय संवेदना को तार तार करती है और हमारी समाजिक चेतना को जैसे लकवा मार गया है और हम असहाय मूकदर्शक की भूमिका में काठ बने हुए हैं। प्रस्तुत है कहानीकार चिन्तामणि जोशी की यह कहानी। आप सुधीजनों के विचारों की प्रतीक्षा रहेगी।





चिन्तामणि जोशी की कहानी
:भाषेनाना
             “कमल दा प्रणाम ! रामनगर से चिट्ठी आयी है। भाषेनाना वहीं है। लिखा है, उसकी हालत बहुत खराब हैै। इजा कह रही है,मास्टर के साथ जाकर भाषेनाना को कैसे ही भी ढूंढ कर ला। जब से चिट्ठी आयी है, रोती ही रहती है। परसों ही हमने अपनी ब्यायी हुई गाय तीन हजार रुपए में बेच दी है। आने-जाने का खर्च हो जाएगा।“ शंकर एक ही साँस में यह सब कह गया और फिर उसने आँखों में आँसू भरते हुए एक अन्तर्देशीय पत्र कमलकान्त की ओर बढा दिया।


                कमलकांत दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र में अवस्थित उस छोटे से गाँव का एक ऐसा युवक था जिसने गरीबी के साथ अनवरत संघर्ष करते हुए अथक प्रयासों से अपनी शिक्षा पूर्ण की और उसी वर्ष उसे एक सरकारी विद्यालय में शिक्षक के पद पर नियुक्ति मिल गई। पाँच माह तक परिजनों से दूर रहकर लगभग दो सौ किलोमीटर की दूरी तय कर अभी-अभी पहुँचा ही था। पर्वतीय क्षेत्र की दुरूह यात्रा से थकित तन पर, मन में अपनों के बीच कुछ समय बिताने की उमंग एवम् उत्साह हावी थे। शंकर की पलकों से टपके मात्र दो बूँद अश्रुओं ने उसके उत्साह को बहाकर अवसाद की गहरी झील में डुबो दिया। उसने शंकर को ढाढस बंधाया और पत्र खोलकर पढने लगा।


                पत्र रामनगर से, मूलतः अल्मोड़ा जनपद के दनियाँ निवासी गावर्धन पाण्डे नामक व्यक्ति ने लिखा था, जिनका वहाँ पर अपना भोजनालय था। लिखा था- पूर्णानन्द जी ! यह इक्कीस-बाईस साल का लगभग साढे पाँच फिट लम्बा, गोरा-चिट्टा युवक जिसके दाँए गाल पर एक बड़ा सा काला तिल है, आपको अपना पिता बताता है। यह पिछले सात-आठ माह से यहाँ भटक रहा है। एक माह मेरे पास भी रहा। लेकिन इसकी हरकतें अजीबोगरीब हैं। शायद नशे का भी आदी है। अलग-अलग होटलों में भटकता रहा। शायद इसके साथ मार-पिटाई भी हुई। किसी ने गरम तेल फैंककर इसकी पीठ जला दी है। सिर पर भी घाव हैं। यह चीखता-चिल्लाता, इधर-उधर भागता रहता है। कभी शांत होता है तो मेरे पास आकर खाना माँगता है। इसकी हालत देखकर बहुत दर्द होता है। यदि इसने अपना पता सही बताया है तो आप तुरन्त आकर इसे ले जायें। शीघ्रता करें, जाड़े में बच नहीं पायेगा।
   

                    कमलकान्त की मनःस्थिति अजीब हो गई। पेशोपेश में पड़ गया। लिफाफे पर गाँव के डाकघर की आठ दिसम्बर की तारीख मोहर थी। पूरे सत्रह दिन बीत चुके थे। अन्ततः उसने माता-पिता से विचार विमर्श किया और सुबह पहली बस से रामनगर जाने की योजना बनाकर शंकर को घर भेज दिया। खाने के लिए बैठा तो रोटी का कौर कमलकान्त के गले से नीचे नहीं उतर पाया। माँ का मन रखने के लिए जबरन एक गिलास दूध पीकर निढाल हो गया बिस्तर पर। नींद न सहजता से आनी थी न आई। सोचने लगा आँखिर कौन जिम्मेदार है भाषेनाना की इस स्थिति के लिए ? उसका परिवार, परिवार की गरीबी, उसका समाज या उसके शिक्षक ? बुरी तरह उलझ गया कमलकान्त और पहुँच गया अपने व्यतीत अतीत के कालखण्ड में।कमलकांत व भाषेनाना के दादा विष्णुदत्त और महादेव दो सहोदर भाई हुए। पीढी आगे बढी। विष्णुदत्त के तीन बेटे एवम् महादेव के एक बेटा एक बेटी कुल मिलाकर चार परिवार हो गए। चारों परिवार एक लम्बी बाखली में रहते थे। पूर्णानन्द का परिवार बड़ा था। पति-पत्नी और तीन बेटियों के साथ उनकी बहिन भी उनके ही साथ रहती थी। सभी की हंसा बुआ। जन्म से ही आँखें कमजोर। गर्दन के ऊपर सिर दोनों तरफ लगातार घूमता रहता था। एक बार वामावर्त एक बार दक्षिणावर्त। इसी कारण हंसा बुआ अविवाहित रह गई। पूर्णानन्द को गाँव के लोग गोबर गणेश की संज्ञा देते थे तो उनकी पत्नी को पीठ पीछे चांडालिनी, चुड़ैल, कर्कशा जैसे विशेषणों से नवाजते थे। परिवार में तीन बेटियों के बाद बेटे का जन्म हुआ तो खूब खुशियाँ मनायी गयीं। हंसा बुआ तो अब सातवे आसमान पर ही रहती थी। गाती, गुनगुनाती, भाषे के नखरे उठाती। उसे कभी अपने से दूर नहीं रखती थी।

                 जून का महीना था। कमलकांत की उम्र तब छह साल की रही होगी। बाखली के आगे आम का एक बड़ा पेड़ था। दोपहर बाद जब सभी बच्चे आम के पेड़ की छाँव में खेल रहे होते तो हंसा बुआ भाषे को लाकर आती और कहती, “ मार भाषे हरिया को मार, लकड़ी से नरिया को मार “ और तीन साल का भाषे एक हाथ में छोटी सी लकड़ी लेकर दूसरे हाथ से पत्थर उठा-उठाकर बच्चों पर फैंकता। हंसा बुआ ही..ही..ही..हँसने लगती।फिर हंसा बुआ कटोरे में दही भरकर लाती और सभी बच्चों को चिढा-चिढाकर भाषे को खिलाती। पेटभर दही खाकर ऊँघने लगता था भाषे और हंसा बुआ उसे अपने घुटने पर सुलाकर चक्की पीसने लगती थी। उसकी गर्दन चक्की के साथ दाँए-बाँए घूमती रहती और वह गाती रहती- “ भाषेनाना... भाषेनाना..., भाषेनाना... भाषेनाना...”। इस तरह भाष्करानन्द तिवारी भाषे और फिर भाषेनाना बन गया।


                     पूर्णानन्द बीड़ी बहुत फूँकते थे। दो कश लगाते और फैंक देते। भाषेनाना अनुकरण अच्छा कर लेता था। सट से बुझती हुई बीड़ी उठाकर मुँह से लगा लेता और उसमें दुबारा जान फूँक देता। हंसा बुआ उसके हाथ से बीड़ी छुड़ाती और फिर से ही... ही... करके गाने लगती-“उठ जा भाषेनाना, बाबू जैसा बड़ा हो जल्दी, फिर तू बीड़ी खाना।”


                      जरूरत से अधिक लाड़-प्यार का आदी भाषेनाना जब स्कूल आने लगा तो स्कूल में उसका मन कम ही लगता था। कमलकांत तब कक्षा पाँच में पढता था। एक दिन उसने बड़ी बहिन जी से पूछ ही लिया,“ बहिन जी, यह भाषेनाना कक्षा तीन में पहुँच गया है और इसे तीन का पहाड़ा तक नहीं आता फिर भी पार्वती ताई रोज हाफ टाइम में ही इसे उठा ले जाती हैं। आप इसे छुट्टी क्यों देती हैं ?”
”नेता मत बन, अपने सवाल हल कर।” बहिन जी ने आँखें तरेरते हुए उसे डपट दिया था और स्वेटर बिनने में मसगूल हो गई थीं।
उस दिन थोड़ी देर बाद बहिन जी ने कमलकांत का कान उमेठते हुए उसके गाल पर दो थप्पड़ जड़ दिये थे। कमलकांत को कारण आधे घंटे बाद समझ में आया, जब बहिन जी स्वेटर उधेड़कर ऊन का गोला बना रही थीं। उसके प्रश्न पूछने पर बहिन जी का ध्यान भटकने से एक फंदा छूट गया था।
अगले पाँच वर्ष काफी उथल-पुथल भरे रहे। इस बीच भाषेनाना की दो बड़ी बहिनों का विवाह तो हो गया लेकिन शनि की क्रूर दृष्टि भी परिवार पर पड़ गयी।

                       हंसा बुआ की आँखों की बची-खुची रोशनी जाती रही। पूर्णानन्द पहाड़ी से फिसलकर टखने की हड्डी तुड़ा बैठे। मेहनत-मजदूरी बंद हो गई। छोटा भाई शंकर निमोनियाँ से मरते-मरते बचा। पहाड़ी से लुढक कर दूध देने वाली गाय चल बसी। दो भैंस बेचनी पड़ी। दो बकरियाँ बेच कर शेष दो का ईष्ट देवता के मन्दिर में बलिदान किया गया। लेकिन घर की माली हालत बद से बदतर होती गयी। भाषेनाना आठवी कक्षा में पहुँच गया था। इस वर्ष गाँव के हाईस्कूल में नये पी टी आइ सर की नियुक्ति हुई थी। युवा अध्यापक। आते ही उन्होंने अनुशासन का डंडा अपने हाथ में थाम लिया था। स्वतंत्रता दिवस की तैयारी जोरों पर थी। ब्लॉक प्रमुख सांस्कृतिक कार्यक्रमों के मुख्य अतिथि थे। पी टी आइ सर ने प्रभातफेरी से पहले ही भाषेनाना को चार डंडे जड़ दिये। फिर पूछा-
    “नई ड्रेस में क्यों नहीं आया ?”
    “सर, पिताजी बीमार हैं, अभी नहीं...” 
    “तड़ाक ” पी टी आइ सर का हाथ गाल पर पड़ा और...
    “थू...ऽ...ऽ...” भाषेनाना ने स्कूल परिसर से नीचे की ढलान पर दौड़ लगा दी।


                      इसके बाद भाषेनाना सुबह घर से स्कूल को तो आता लेकिन दिन बिताता रास्ते के बुरूँजानी के जंगल में या जंगल की तलहटी में गाड़ के किनारे मंदिर के पास बाबा की कुटिया में। यहाँ उसे कुछ उम्र में बड़े एवम् अनुभवी सहपाठियों का समूह भी मिला और समूह में उसने “बम भोले” का कौशल अर्जित किया। कमलकांत के मन में उस दिन वह दुःखद, घृणित अनुभूति हमेशा के लिए बैठ गई थी जब उसने छुट्टी के बाद बाबा की कुटिया के पास से गुजरते हुए भाषेनाना को गाँजे की चिलम मुँह से लगाये देखा था और आस-पास के गाँवों में पुरोहिताई करने वाले चन्दन काका कह रहे थे-
      “चल बेटा, जला दे चिलम पर आग की लपट, तब कहूँगा पूर्णानन्द दा का असली बेटा है।”
    और भाषेनाना ने सचमुच पूरी ताकत लगा दी चिलम के ऊपर आग की लपट उठाने को और खाँसते-खाँसते लोटपोट हो गया।


                 उस दिन कमलकांत की शिकायत पर भाषेनाना को घर में खूब मार पड़ी थी। पार्वती ताई ने दूसरे दिन विद्यालय आकर पी टी आइ सर से माफी माँगी और प्रधानाचार्य के सम्मुख अपनी हालात का रोना रोकर भाषेनाना का पुनः प्रवेश करवाया।


                    आठवीं में तो भाषेनाना जैसे-तैसे कक्षोन्नति पा गया लेकिन नवीं कक्षा में गणित, विज्ञान, अंग्रेजी का बोझ उसे फिर भारी लगने लगा। वह चाहकर भी इन विषयों का गृहकार्य नहीं कर पाता और रोज शिक्षकों का कोपभाजन बनता। ऊपर से दमची का मुलम्मा उस पर और चढ चुका था। वह शिक्षा के सूत्रों के कोप एवम् गुरुजनों के क्रोध से बचने के रास्ते फिर से ढूँढने लगा और घर से स्कूल के बीच रास्तों के किनारे बैठने लगा। काश! उसे पता होता कि रास्ते चलने के लिए होते हैं किनारे बैठने के लिए नहीं। भाषेनाना कभी बुरूँजानी के जंगल में सोया रहता तो कभी बाबा की कुटिया में। कभी गाँव की छोटी सी बाजार में ताश खेलते लोगों के पीछे खड़ा होकर सारा दिन बिता देता। अब तक तो उसे इस पथ के दो-चार सहयात्री भी मिल चुके थे।
   
                      एक दिन भाषेनाना और उसके साथी झाड़ियों की आड़ में बैठकर ताश खेल रहे थे। एकाएक उनकी नजर नरपांडे पर पड़ी। नरपांडे कच्ची शराब बनाकर कस्बाई बाजार में बेचता था। उसने शराब की केन हिसालू की झाड़ी के अन्दर छुपायी और ग्राहकों की तलाश में चला गया। फिर क्या था। भाषेनाना और उसके साथी कच्ची शराब का केन चुरा लाये और लगातार तीन दिन तक उसका तीखा स्वाद आत्मसात कर एक नया कौशल अर्जित किया। छोटी सी जगह हुई। देर-सवेर कलई खुलनी ही थी। भेद खुला और नरपांडे ने भाषेनाना की पिटाई कर, अपने नुकसान की भरपायी कर ली। 


                    भाषेनाना के जंगलवास को काफी दिन हो गए थे। कमलकांत अब गाँव से पाँच किलोमीटर दूर इण्टरमीडिएट कॉलेज में पढने जाता था। छोटे भाई शंकर और अन्य बच्चों को भाषेनाना और उसके साथियों ने ठोक-पीटकर धमका रखा था कि जिसने भी घर में शिकायत की , उसकी खैर नहीं। कक्षाध्यापक ने तो भाषेनाना का नाम पृथक करते ही संतोष की साँस ली-
“चलो एक मिट्टी का माधो कम हुआ।” 
गणित के सर भी प्रसन्न थे। उन्होंने भी अपना अति महत्वपूर्ण विचार व्यक्त कर दिया-
    “ऐसे दो-चार और हैं कक्षा में। उनका भी पत्ता साफ करना है और किसी भी हालत में पुनः प्रवेश नहीं करना है। ये तो ऐसे हैं कि बिना दो साल हमारा बोर्ड का रिजल्ट खराब किए घर नहीं बैठेंगे।”


                   खबर अंततः घर तक पहुँची। माँ ने डंडे से पीट-पीट कर भाषेनाना को  अधमरा कर दिया। बेचारे शंकर की भी अच्छी-खासी धुनाई हुई। पार्वती ताई ने पास-पड़ोस के विद्यार्थियों को भी जी भर कर कोसा। दूसरे दिन भाषेनाना को लेकर फिर स्कूल पहुँची। लेकिन इस बार उसके आँसू भी व्यर्थ गए और मिन्नतें भी बेअसर। पूरा स्कूल भाषेनाना की कमियाँ उजागर करने को लालायित दिखा। एक माँ, कुसंस्कारी बालक को जन्म देने की लानत-मलानत ओढकर उल्टे पाँव वापस लौटी। 


                  माँ ने अंततः परिस्थितियों से समझौता कर लिया। भाषेनाना की स्कूली दुनियाँ हमेशा के लिए खत्म हो गयी। सुबह जब गाँव के बच्चे पीठ में पुस्तकों का झोला लटकाए स्कूल को जाते तो भाषेनाना दो गाय, एक बछिया और एक बकरी को हाँकता हुआ जंगल की तरफ जा रहा होता। मक्के की फसल के साथ गाँव के लोग भांग भी बोते थे। दाने अलग करके पत्तियों का चूरा (गाँजा) सुखाकर पोटलियों में छत से लटका देते थे। कभी-कभी गाँजा पीने के आदी खरीददार भी मिल जाते थे अन्यथा जानवरों की कुछ बीमारियों में भी यह काम आता था। भाषेनाना की जेब में गाँजे की पुड़िया और मारचीस हमेशा रहती थी। बाँज की हरी पत्तियों से शुल्फा तैयार कर गाँजा पीना उसकी दिनचर्या में शुमार हो चुका था।


                   इसी बीच हंसा बुआ भी स्वर्ग सिधार गई। उसका अन्तिम संस्कार कैसे हो? एक गाय और बेचनी पड़ी। अब अकेली गाय को वन क्या भेजें। गाँव में सूबेदार चाचा का नया मकान बन रहा था। दो पैसे कमाएगा तो कुछ मदद हो जाएगी। पार्वती ताई ने भाषेनाना को मजदूरी करने भेज दिया। भाषेनाना चार-छः दिन काम करता और फिर लड़-झगड़कर मजदूरी का पैसा लेकर जुआरियों की मण्डली में पहुँच जाता। धीरे-धीरे भाषेनाना एक अलग ही दुनियाँ का प्राणी हो गया-गाँजे, चरस, शराब, ताश, चोरी-चकारी और लड़ाई-झगड़े की दुनियाँ।


                     समय की गति के साथ दुर्व्यसनों एवम् कुसंगति का प्रभाव भाषेनाना पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा था। समाज के साथ परिवार भी धीरे-धीरे उसे नकारने लगा था। दिन भर न जाने कहाँ-कहाँ भटकता। देर रात घर पहुँचता तो एक-आध रोटी मिलती भी नहीं भी। आहार नहीं मिला, व्यवहार बदलने लगा। लोग चर्चा करने लगे- भाषेनाना पागल हो गया है। कुछ लोग तो यहाँ तक खुसुर-फुसुर कर रहे थे कि गोबिन्दी चाची ने अपनी पोटली के गाँजे में लाल सिन्दूर मिला दिया था और उसी गाँजे को पी कर भाषेनाना पागल हो गया है। बच्चे उसे पागल बुलाते और वह भद्दी-भद्दी गालियाँ निकालता हुआ उन्हें मारने को दौड़ता।


                 जुबानें बजने लगी थीं। लोग अपनी बहू-बेटियों, बच्चों को असुरक्षित महसूस करने लगे थे। और उस दिन अति हो ही गई। खेत में धान की गुड़ाई करती सूबेदार चाचा की बहू पर भाषेनाना ने एकाएक झपट्टा मार दिया। हो हल्ला मचा। भाषेनाना ने एक नुकीला पत्थर उठाया और सुर्र सुबेदारनी चाची के कपाल पर दे मारा। पाँच टाँके लगे। गाँव के सयाने इकट्ठे हुए और पार्वती ताई को अल्टीमेटम दे डाला- अपने बिगड़ैल लड़के को संभाले वरना उचित न होगा। बात भी ठीक ही थी। बेचारी पार्वती ताई अपना माथा पीटकर रह गई।


                   उस शाम गाँव के दो-तीन युवकों ने पकड़कर बाँज के फड़ियाठ से भाषेनाना की धुनाई भी कर दी। पिता तो खटिया पकड़ चुके थे। माँ और शंकर ने पकड़कर भाषेनाना को एक छोटी कोठरी में बन्द कर दिया। बड़े जमाई को संदेश भेजकर बुलाया गया। उनके एक भाई गाँव से जाकर हल्द्वानी में बस गये थे। उनसे बातचीत कर तय किया गया कि भाषेनाना को हल्द्वानी के सुशीला तिवारी अस्पताल में दिखाया जाय।


                     जीजा लक्ष्मीदत्त भाषेनाना को ले जाकर हल्द्वानी पहुँचे। चिकित्सकीय परीक्षण व परामर्श के उपरान्त उपचार प्रारम्भ हुआ। भाषेनाना तुलनात्मक रूप से शान्त था। दस दिन के बाद फिर से मनोचिकित्सक को दिखाना था। लक्ष्मीदत्त पाँचवे दिन भाषेनाना को भाई के पास छोड़कर धन-पानी की व्यवस्था के नाम पर गाँव वापस आ गये। यहीं पर चूक हो गई थी। उनके पीछे-पीछे खबर आयी कि भाषेनाना को उसी रात अजीब दौरा पड़ा। वह हिंसक हो उठा और घर में तोड़-फोड़ कर कहीं भाग गया। अचानक पार्वती ताई की चीख पूरी बाखली में गूँज उठी-
    मेरा....ऽऽ... भाषे...ऽऽ... ना...ना...


                  और कमलकांत की तंद्रा टूट गई। उसने घड़ी की ओर देखा। सुबह के साढे तीन बज चुके थे। उसे अब ध्यान आया कि उसे नींद तो आयी ही नहीं थी। साढे चार बजे की बस से रामनगर रवाना होना था। शंकर आता ही होगा। पन्द्रह मिनट सड़क तक पहुँचने में लगेंगे। चूल्हे पर पानी चढाकर निवृत्ति का असफल प्रयास किया। स्नान करने तक शंकर भी पहुँच गया था। पार्वती ताई भी साथ में थी। फिर पूस की निस्तब्ध निशा का सीना चीरते हुए दो आकृतियाँ ज्यों-ज्यों धुंधली होती गईं पार्वती ताई की सिसकियाँ रुदन में बदलतीं
गईं। 

                 रामनगर पहुँचते-पहुँचते शाम धुंधला गयी थी। जाड़े का मौसम था। रात जल्दी गहराने लगी थी। गोबर्धन पाण्डे जी का भोजनालय आसानी से मिल गया तो क्षणिक खुशी हुई। लेकिन परिचय के साथ ही सारी आशाओं पर तुषारापात हो गया। 


             “तिवारी जी, आपने देर कर दी।” उन्होंने कहा, “मैंने तो एक दिसम्बर को ही चिट्ठी लिख दी थी। आज छब्बीस दिसम्बर हो गयी है। वह पन्द्रह दिसम्बर को सुबह अन्तिम बार यहाँ दिखा था। उसके सिर का घाव लगातार सड़ रहा था। दुर्गन्ध आने लगी थी। मैंने उसे खाने के लिए रोटी दी। कहा अस्पताल ले जाता हूँ, तेरे घर से भी लोग आने वाले हैं। रोकना चाहा, लेकिन वह रुका नहीं। लोगों को देखकर वह भागने लगता था। उस दिन ऐसा भागा कि लौटकर फिर दिखा नहीं। कौन जाने इस कड़कड़ाती ठंड में...”


               हम चार दिन रामनगर में रुके। पाण्डे जी ने खूब मदद की। संभावित जगहों के बारे में भी बताया। पुलिस में सूचना दी। वन विभाग से भी संपर्क साधा। लेकिन भाषेनाना नहीं मिला। न जिन्दा और न ही...
    आज पूरे चौदह बरस हो गए हैं। अब कोई भाषेनाना की चर्चा नहीं करता। हाँ, बाखली के सामने मन्दिर के पास की ढलान पर जब भी कोई धुंधली आकृति ऊपर को आती दिखती है तो दो आँखें हमेशा उस पर टिक जातीं हैं- पार्वती ताई की आँखें...। 


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