रविवार, 14 सितंबर 2014

चुनौतियों से टकराने का समय






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चुनौतियों से टकराने का समय    

आरसी चौहान
          हमारे समकालीन रचनाकारों में अपनी लगातार उपस्थिति बनाने वाले युवा कवि,लेखक एवं आलोचक-भरत प्रसाद की सद्य प्रकाशित पुस्तक- ‘  नयी कलम इतिहास रचने की  चुनौती ’ एक दस्तावेज की तरह सम्भालने लायक है. सुदूर-दुर्गम पहाड़ियों व विषम परिस्थितियों में रहने वाले भरत प्रसाद की, भारत के बीहड़-उजड्ड व गांव-देहात में रहने वाले हिन्दी साहित्य की अलख जगाये,तमाम युवा रचनाकारों की रचनाओं पर तो नजरें पड़ती ही हैं, चकाचौंध नगरों के ऊपर छाये प्रदूषित गुम्बदों के बीच से भी टटकी रचनाओं को ढूढ़ निकालने में भी महारत हासिल की है.
         हिन्दी साहित्य के किसी गुटबाजी सांचे में  न फिट होने वाले भरत प्रसाद बडे़ करीने से एक-एक रचनाकारों की रचनाओं का बिना भेद-भाव किये चीड़-फाड़ करते हैं. यह पुस्तक- ‘परिकथा’ में मई 2008 से प्रकाशित स्तम्भ ’ताना -बाना ’ की कुल 17 कड़ियों का संकलन है, जो चार खण्डों में समाहित है. यह पुस्तक-बकौल लेखक- “अपनी दीदी रमावती देवी को जो कि मेरे जीवन में मां का विकल्प थी” को समर्पित है. मां   की याद लेखक  को नयी ऊर्जा देती है जिसकी परिणति हमारे सामने है. इस पुस्तक में भरत प्रसाद ने वर्तमान हिन्दी साहित्य में व्याप्त विकृति मानसिकता, आरोप-प्रत्यारोप, खींचतान एवं दूषित इरादे वालों से सावधान रहने की नसीहत भी दी है.
             बाजार किस तरह हमारे घरों में प्रवेश कर रहा है और हमारे शांत - सकून जीवन में उथल -पुथल मचा रहा है, जिसमें आदमी भावहीन और संज्ञाशून्य बनता जा रहा है. यहां तक कि आदमी एक मशीन में बदलता जा रहा है. भरत प्रसाद की दृष्टि इससे भी आगे तक जाती है कि बाजार अपने मायावी जाल में बौद्धिक लोगों को किस तरह कबूतरी जाल की जद में लेता जा रहा है. इससे हमें चेत जाना चाहिए. इसीलिए तो हमें आगाह भी कर रहे हैं कि- “स्त्री - विमर्श में यदि क्रांति लानी है तो शहरों से लेखकों को निकलना ही पड़ेगा . उन्हें भागना होगा उस तरफ जिधर उजाड़, धूसर-नंगी बस्तियां हैं.मायूस बूझे-बिखरे गांव हैं और धरती के अथाह विस्तार में खोए हुए विरान जंगल हैं.”(पेंज-16) जंगलों में रहने वाली बहुतायत की संख्या में आदिवासियों और फिर उनकी हत्या,मारपीट और अकाल मृत्यु ही आदिवासी समाज का कठोर सच है. जिसको विभिन्न कविताओं, कहानियों और लेखों  में इसकी चीत्कार सुनाई देती है. संवेदनशून्य होते मनुष्य की कलई खोलती हुई कविताएं हैं तो धारदार हथियार की तरह वार करते लेख, लेखों की जांच-पड़ताल करती लेखक की पैनी नजरें. इस भूमण्डलीकरण और बाजारीकरण की दौर में आदमी रक्त संबंधों का चिर हरण कर नीलामी के चौराहे पर खड़ा है.इतना विभत्स रूप रचा जा रहा है हमारे समाज में जिसकी कल्पना मात्र से मन सिहर उठता है.
           हमारे सामने नित नई चुनौतियों का अंबार लग रहा है और उसमें ढूढ़ा जा रहा है धारदार विचार. युवा पीढ़ी सधे हाथों से चुनौती स्वीकार कर सीना ताने खड़ी है समाज के सामने. युवा रचनाकारों की रचनाओं में मां -बहन जैसे रिश्तों को बचाने की कसमसाहट पूरी शिद्दत से महसूस की जा सकती है.इसके अलावा “अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए बेटी की इज्जत खैराती गुण्डों के हवाले कर देता है,तो वहीं कोई पहाड़ी औरतों की  महाबोझिल जीवन को शत-शत नमन कर लेता है.” जैसे लावा उगलती घटनाओं पर चुप्पी साध लेना युवा सर्जकों को कत्तई बर्दाश्त नहीं है.
           युवा लेखन विभिन्न संचार माध्यमों से लैस, आंकड़ों का पुलिंदा, रोज आपाधापी की  जिंदगी  से रूबरू होते हुए, अखबारी घटनाओं की रिपोर्टिंग जैसी रचनाएं तुरंत प्रभावित तो करती हैं लेकिन लम्बे समय तक पाठक के जेहन में नहीं रह पाती.इसके अलावा सच्चाई एक और कि लेखक वर्ग के अलावा गांव - देहात का आम आदमी तो यह जानता ही नहीं कि आज भी साहित्य कुछ रचा जा रहा है. ये तो केवल  सूर ,कबीर, तुलसी,पंत, प्रसाद और निराला तक ही सीमित है. आम पाठक तो अखबारों के साहित्यिक पेंज को पढ़ना क्या देखना तक नहीं चाहता.वो तो नजरों के सामने आ भर जाता है. यहां भरत प्रसाद की चिंता भी स्वाभाविक है. आम लोग तो कविता, कहानी और उपन्यास से गायब होते जा रहे हैं. फिर उनकी रूचि कहां रह जाती है , इसे पढ़ने में?
           बावजूद भरत प्रसाद की पैनी नजर इससे इतर भी जाती है. समाज में फैले धुंध को बखूबी रेखांकित भी करते चलते हैं. जहां गरीब-गुरबा एक छोटी सी गलती या बेवजह  साजिश का शिकार बनकर कैदी की तरह जीवन यापन करने को अभिशप्त हैं. इसके साथ ही उग्रवाद और नक्सलवाद जैसी समस्याएं भी कम चिंता का विषय नहीं है. कहीं - कहीं अविश्वसनीय मुद्दों पर हुए लेखन को भी रेखांकित किया है. जैसे-पत्नी द्वारा पति की चिता को आग लगा देने की दुर्लभ घटना. जबकि तमाम लेखक ऐसे भी हैं जो रहते तो हैं शहरों में और गांव की बदहाली,बाढ़ के खूंखार चेहरे पर आंकड़ों का जामा पहनाकर उसे भुनाने में लगे हुए हैं. यह केवल दिखावा भर है. ऐसा नहीं है कि साहित्य में गरीब-गुरबा,किसान, बैंक और निर्भय सेठों के चंगुल में निरीह प्राणी की तरह छटपटा रहे लोगों पर नहीं लिखा जा रहा है. इसे जाल में इतना फंसा दिया जा रहा है कि  आम पाठक को  चक्कर आ जाए.
           आज का लेखक किसी बात को बहुत घुमा -फिरा कर कहने में विश्वास  नहीं करता. वह सीधे व घातक प्रहार करना ही सीखा है रिपोर्ताज की तरह देखे,सुने व भोगे हुए यथार्थ को  हुबहू लक्ष्य पर संधान करना ही एक मात्र उद्देश्य है.  इनकी भाषा की टंकार वेदना दर वेदना लहरदार तरंगें पैदा कर देने का माद्दा रखती हैं.
            वर्तमान समय मुद्दों से विचलन का नहीं अपितु मुद्दों से प्रत्यक्ष टकराने का समय है. मनुवादी/ब्राह्मणवादी व्यवस्था के शिकार लोग दहाड़ते हुए राष्ट्र निर्माण एवं उसके संरक्षक की भूमिका में कदम ताल मिलाते हुए अग्रणी पंक्ति में खड़े हैं. भरत प्रसाद  वर्तमान समस्याओं से टकराते लेखों, कहानियों व कविताओं से संवाद करते हुए बड़े करीने से संजोते हैं एवं उसकी  चीड़-फाड़ भी करते हैं. जिसका सुखद  अहसास स्टेप वाई स्टेप होता है.
           आज साहित्य के पाठक कितने हैं? साहित्य पढ़ कौन रहा है ? साहित्येतर लोगों की भूमिका क्या है? ऐसे कई सवाल हैं जो हमारे मानस पटल पर अपना पंजा धंसाए हुए  हैं. किसी भी रचना की  पठनीयता उसकी ताकत होती है. लेकिन कुछ नामचीन जुगाड़वादी लेखक,कवि साल में दो चार कविताएं,कहानियां लिखकर साल भर विभिन्न चर्चाओं ,परिचर्चाओं,गोष्ठियों, सेमिनारों में ‘हिट’ करवाते रहते हैं . यह भी साहित्य में एक कला की तरह विकसित हो गयी है.
            कुछ सम्पादकों की अपनी लेखक मण्डली भी है. जहां वे बार-बार छपते -छपाते हैं. एक दूसरे के सम्मान और यशगान में लगे रहने वाले लेखक और  सम्पादक किस दिशा में जा रहे हैं,यह तो समय ही बताएगा. अधिकांश नये कवि लेखक  भाषा में पालिस लगाकर चमकाने में लगे हैं और अपने वाग्जाल में फांसे हुए हैं जैसे-उनके जैसा कोई दूसरा कवि-लेखक है ही नहीं . और ‘अष्टछाप ’ भक्त कवि बनने की दौड़ में अगली पंक्ति में खड़े हैं.
             भरत प्रसाद ऐसे रचनाकारों की बखूबी पहचान रखते हैं. सबसे अफसोस की बात यह है कि-‘साहित्य एकेडमी’ जैसी संस्था जुगाड़बाजों द्वारा तराशे गये दोयम दर्जे के सृजन पुरस्कार वितरित करने वाली संस्था बनकर रह गयी है तो अच्छी रचना सामने आएगी कैसे ?
ऐसे जुगाड़बाजों से अलग हटकर कुछ रचनाकार ऐसे भी  हैं, जो देशकाल की सीमाओं के पार की  सोच रखते हैं. ऐसी कहानी ,कविताओं की ओर भरत प्रसाद अपनी  पैनी नजर को हटने नहीं देते और उनकी पूरी खोज खबर भी लेते हैं. चाहे अफगानिस्तान में भय, हिंसा और आतंक के चक्रवाती साम्राज्य की बात हो चाहे अमेरिका की दोहरी  नीतियां, जिसको पूरी दुनिया समझ चुकी है. उसकी पुरानी आर्थिक उपनिवेशवादी नीति को .
          ‘हिन्दी साहित्य का बाजार काल' में साहित्य अब किसके लिए लिखा जा रहा है ?ऐसे ही और प्रश्नों से भरत प्रसाद दो - चार होते ही रहते हैं. आज हिन्दी साहित्य में जिस तरह बाजार ने अपनी पकड़ बनाई है पूंजीवादी बहुरूपिया का मुखौटा लगाकर जिसमें हर वर्ग ,हर जाति और हर धर्म के लोग कबूतरी जाल में दाने के लालच में फंसते चले जा रहे हैं. यही वजह है कि लेखकगण अब अपनी बात नहीं बोलते हैं. बल्कि बाजार के इशारे पर कठपुतली की तरह नाचते हैं. इन्हीं कठपुतलियों को दरकिनार करते हुए कुछ जीवट लेखक समाज में  फैले शोषण के विरूद्ध बगावत करने पर तूले हुए हैं.दुनिया के सारे सुखों से बंचित नौकरानियों,जिनपर पहाड़ों -सा दुख लदा हो. छेड़छाड़ की  आए दिन होने वाली घटनाएं हों या आवारा नौजवानों द्वारा हिंसा, हत्या और लूटपाट के अलावा दुनिया को शर्म के समन्दर में डुबा देने वाली घृणित जघन्य बलात्कार जैसी घटनाएं हों. भरत प्रसाद को झकझोर कर रख देती हैं. ऐसे लेखक और कवि बधाई के पात्र हैं जो ऐसे माहौल में रहकर उन पर उंगली उठाने से नहीं हिचकते.सामाजिक प्रतिष्ठानों में भेड़ियों के रूप में अहिंसा का संदेश सुनाने वाले कितने मिल जाएंगे दुराचारी,केवल इसकी कल्पना ही की जा सकती है.
           साहित्य दुनिया के किस हिस्से में नहीं लिखा जा रहा है. बस उसकी सही शिनाख्त नहीं हो पा रही है. भरत प्रसाद ‘स्वीडिस एकेडमी ’ की खामियों की ओर भी उंगली उठाने से नहीं हिचकते. जहां ‘ स्वीडिस एकेडमी ’ पर फ्रैच,जर्मन , स्पेनिश,अंग्रेजी , जापानी , चीनी इत्यादि भाषाओं का जबरदस्त दबदबा है  तो दुनिया की तमाम भाषाएं  उसके चौखठ पर नाक रगड़ रही हैं. फिर तो नोबेल पुरस्कार का आकाश फल चखने का मौका नहीं मिलता. भरत प्रसाद की नजर में नामधारी लेखक,आलोचकों का दरबार लगाने वाले युवा रचनाकारों को चेतावनी भी देते हैं. मंचों से चमकदार,लच्छेदार भाषणों से युवा रचनाकारों को आगाह भी करते हैं जो जोड़ -तोड़ से पुरस्कार बटोर लेते हैं और अपनी साहित्य की दुकान चमका लेते हैं. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि साहित्य का हाथ बहुत लम्बा होता है जो समय के साथ उनका जबाब-तलब जरूर करेगा और हकीकत तो यही है कि, मंचों से भाषणबाजी करने वाले यह भूल जाते हैं कि कहीं न कहीं इनकी दुकान चमकाने में इनका भी हाथ  है.खुदा बचाए ऐसे साहित्यकारों से. फिर भी भरत प्रसाद ऐसे रचनाकारों को खोज कर ही दम लेते हैं जो यथार्थ के धरातल पर लिखी गयी होती हैं. आज थोड़ा -सा पढ़ लिख कर फार्सिसी झाड़ने वाला बाबू ,अफसर अपने मां -बाप के साथ कैसा घिनौना सौतेला व्यवहार करता है कि सारे रिश्ते ताक पर चले जाते हैं. लेखक की दृष्टि न जाने ऐसे कितने प्रसंगों से मुठभेड़ करती है.                                         
           भरत प्रसाद ने बड़े बेबाक तरीके से नवसर्जकों को आगाह किया है कि जो लीक से हटकर सर्जना करेगा वही मुकाम तक जा पाएगा . जिसमें -भाषा, शिल्प,गठन ,संवेदना और कल्पनाशीलता का पुट हो. उत्तराखण्ड के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी विधवा विवाह एक अभिशाप की तरह है. इस पर भी कलम उठाना खतरे से खाली नहीं है. फिर तो ऐसे ज्वलंत मुद्दों को उठाने वाले रचनाकार भी लेखक की नजर में बने हुए हैं. इसके इतर विवाहेतर यौन संबंधों का मुद्दा उठाने वाली कहानियां भी कम नहीं हैं युवा रचनाकारों की नजर में . जिनसे हम दो-चार तो होते ही रहते हैं.
जहां एक ओर यौन उन्मुकता की ओर बढ़ता हुआ हमारा समाज है तो उसी में दाढ़ में खाज की तरह दुर्गापूजा,गणेशपूजा या ,लक्ष्मीपूजा के नाम पर प्रदर्शनबाजी बढ़ चढ़कर दिखाई देती है. भरत प्रसाद बार -बार साहित्य में आ रही गिरावट पर उंगली  उठा रहे हैं . साहित्य आज किस तरह  केन्द्र में आने के लिए बेचैन है कि युवा सर्जक जो ईमानदारी और सच्चाई की भट्ठी में पकी -पकाई कड़वी सच्चाई  को केन्द्र में लाना  चाहते हैं. जिनमें मुद्दों से सीधे टकराने ,जूझने ,संवाद करने का खुद्दार जज्बा है. लेकिन तथाकथित संपादक ऐसी रचनाओं के सपाट, भावुक,गैर व्यवहारिक  करार देकर रद्दी के टोकरी में डालने से गुरेज नहीं करते . यह बड़ा संकट है नवसर्जकों के सामने. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सम्पादकों ने अपनी- अपनी  मण्डलियां बना रखी हैं. फिर भी भेद-भाव की कठोर परतों को तोड़कर कुछ रचनाएं-जो जाति,धर्म, सम्प्रदाय की रोटियां सेकने वाले  राजनीति के शतरंजी खिलाड़ियों को बेनकाब करने में कामयाब भी रही हैं.  लेखक के चेहरे पर बार-बार चिंता की लकिरें खींच आ रही हैं कि निन्यानवे प्रतिशत सुनिश्चित रूप से नये लेखकों के बारे में सकारात्मक ,स्वस्थ और लोकत्रांत्रिक धारणा नहीं रखते हमारे वरिष्ठ लेखक.
            सच तो ये है कि अब आंखों से साहित्य का मधुर रस पीने की कला युवा सर्जक जान चुका है. इनकी सारी  ज्ञानेन्द्रियां चौकन्नी हैं,सभी दिशाओं में दोनों कान खुले हुए हैं. यही वजह है कि “आज कविता नये-नये प्रयोगों के अप्रत्याशित दौर से गुजर रही है. पैराग्राफ शैली,फुटनोट शैली,बतकही शैली ऐसे ही कुछ नये  प्रयोग हैं.”(पृष्ठ-104)
             समकालीन कविता से काव्य कला के अधिकांश गुण विस्थापित हो रहे हैं. इसलिए लेखक को कहना पड़ता है कि साहित्य में चल चुके स्थापित युवा शब्द सर्जक एक वाक्य पेंज की बायीं ओर,दूसरा वाक्य दायीं ओर और बन गयी कविता. फिर भी कविताओं के इन्हीं मलवापात में चुनिन्दा बेसकिमती काव्य पत्थर अपनी चमक के साथ मिल ही जाते हैं.भरत प्रसाद ऐसे चरित्रों को भी कविताओं में खोज निकालते हैं जो वर्तमान सर्वहारा तो है जिसके पैने दांत घिस चुके हैं. और शोषित प्रतिशोध की भावना को खुंटी पर टांग कर पूंजीवादी संस्कृति में आंख-मुंह बंद कर घुल-मिल गया है. साहित्य के मुर्धन्य मनीषियों द्वारा बार-बार कविता-कहानी से गांव के गायब होते जाने का विलाप सुनने को यदा -कदा मिलता ही रहता है. लेकिन दूर -दराज में रहने वाले शब्द सर्जकों की कविताओं में खेती -किसानी,चौपाल,गांव-जवार यानी जिनके लिए भूले बिसरे पुराने गाने हो चुके हैं. नये रचनाकारों की धड़कनों में बार-बार महसूसा जा सकता है.
           भरत प्रसाद की चिंता जहां अनोखे ग्रह पृथ्वी को बचाने को लेकर है वहीं तिलक - चंदन लगाकर प्रायोजित प्रचार का ज्वार उत्पन्न कर पाण्डित्यपूर्ण प्रदर्शन करने वाले रचनाकारों से सचेत रहने की भी चेतावनी देते हैं. ये नामचीन प्रकाशकों से उपन्यास, कहानी-संग्रह छपवाकर राष्ट्रीय स्तर के रचनाकारों की नामावली लिस्ट में जगह बनाकर मुर्धन्य हो जाना चाहते हैं. लेकिन भरत प्रसाद इससे सचेत व चौकन्ने हैं  कि बहुत देर तक किसी की आंखों में धूल नहीं झोंक सकते. तभी तो दबे ,सताए और अपमानित हुए जीवन की अविस्मरणीय पीड़ाओं से उपजी जिसमें हकीकत का स्वाद इतना तीखा है जैसी कविताओं की खोज पड़ताल कर ही लेते हैं. और कई -कई सौ पेंज रंगने वाले रचनाकार मुंह ताकते रह जाते हैं. कुल मिलाकर बात यहां तक पहुंच गयी है कि एक संपादिका को कहना पड़ता है कि-“कविताओं का इतना बुरा हाल कि गद्य और पद्य में कोई भी कुछ भी डाल देता है और उसे कविता का नाम दे देता है.”( पेंज -118 )
          लंबी कहानियां क्या भविष्य का विकास कर रही हैं ? जैसे सवालों से बार-बार रूखसत होते हैं भरत प्रसाद . लाज़मी भी है. जिस कदर कहानियों में कुछ भी परोस देना और उस पर चर्चा-परिचर्चा आयोजित करवाकर,कुछ नामचीन रचनाकार दोस्तों -मित्रों से समीक्षा लिखवाकर साहित्य की मुख्य धारा में बने रहने का फार्मूला ढूढ निकाला है,काबिलेगौर है. कहीं किसी के कसिदे में लघुकहानियों को केवल अखबारी कतरन या रिपोर्ट कहकर खारिज करना कुछ चर्चित रचनाकारों का शगल बन गया है. क्यों नहीं, चर्चा के केन्द्र में भी तो रहना है.
भरत प्रसाद ऐसी विषम परिस्थितियों व उहापोह के दौर में ऐसी कहानियों को ढूंढ़ लाते हैं जो नारी अस्मिता को खिलौने की तरह इस्तेमाल करता है. पुलिस महकमा-आतंकवाद,लूट -खसोट,गुण्डागर्दी करने वालों का बड़ा संरक्षक  भी बन जाता है. यह समाज के पतन की शुरूआत है. आगे स्थिति तो और  भयावह दिखती है कि ससुर ही अपनी पुत्री समान पतोहू के साथ अनैतिक संबंध बनाने का घिनौना प्रयास करता है,तो कहीं जेठ ही अपने छाटे भाई की मृत्यु पर उसकी पत्नी की अस्मत लूटने की ताक मे है.
            कुछ धुरंधर युवा शब्द सर्जक अपने दांव -पेंच के कारीगरी से वजनदार पुरस्कार और दूसरे कुछ नामचीन -प्रतिष्ठित प्रकाशक को अपने तांत्रिक साधना से वशीभूत कर लिया तो समझो साहित्य में उसकी सीट पक्की. इस तांत्रिक साधना को यहां व्याख्यायित करने की बहुत जरूरत नहीं है. बस एक- दो साल की मेहनत और वाहवाही की फसल तैयार. ऐसे साहित्य को भला भगवान क्या बचाएंगे ? जहां जुगाड़,मक्खन -पालिस,भेंट -उपहार और भी न जाने कितने लुभाऊ लटके -झटके जिससे कौन अचेत न हो जाए.
            इस समीक्षा आलोचना पुस्तक के अंत में भरत प्रसाद ने साहित्य की दुनिया में हावी होते अधिकारी लेखकों के जलवा की भी चर्चा की है. जिसका खमियाजा बहुत सारे युवा लेखकों को भुगतना पड़ रहा है. “आज उस अधिकारी के बैग में बड़े से बड़े प्रकाशक है.,खुद्दार सुप्रसिद्ध आलोचक ,रेडीमेड समर्थक और पुस्तक समीक्षक हैं,जो साहित्येतर सुविधाएं मुहैया करा सकता है.”( पेंज-134)
स्वाभविक है,उनकी चकाचौंध साहित्यिक रोशनी में अपनी अंतिम सांस तक लड़ने वाले युवा लेखक जब कुछ कर गुजरने की ठान लेते हैं तो साहित्याकाश में हलचल मच जाती है. फिर अंधेर गर्दी के खिलाफ हजारों हाथ खड़े हो जाते हैं. युद्ध कहां नहीं है? बाहर- भीतर कहीं भी हम सुरक्षित नहीं हैं.
भरत प्रसाद की दृष्टि साहित्य में हावी होते सामन्ती प्रवृत पर भी है जो युवा रचनाकारों की बहुत सारी खामियों पर भी चुप्पी साधे हुए हैं. यह चुप्पी कहीं भविष्य में भीषण तूफान की आने वाली सूचक तो नहीं? आज के युवा कवियों में कुछ ऐसी खामियां -जिसमें उन्हें न भारत का इतिहास ,वर्तमान ,गरिमा,गहराई,समाज ,संस्कृति  का ज्ञान है न समझ है. जिससे कविता का आम पाठक भी ऐसे युवा कवियों की कविताओं से दूरी बनाने में ही अपनी भलाई समझता है.
           भरत प्रसाद ने अपनी प्रतिभा,परिश्रम और क्षमता का भरपूर परिचय दिया है.नये रचनाकारों की,पहाड़ी झरनों से फूटती हुई नयी  धाराओं -सी रचनाएं जो भविष्य में बलखाती हुई वेगवती नदी का रूप लेने वाली हैं ,का गहन विवेचन व विश्लेषण किया है. पूर्ण संतोष व्यक्त करते हुए उनसे अपेक्षा है कि विभिन्न पीढियों के रचनात्मक अवदानों को साहित्य जगत से परिचय कराएंगे. इस पुस्तक में युवा रचनाकारों की साहित्यिक बारीकियों को बताकर भविष्य में सचेत रहने की चेतावनी भी दी है. लेकिन-राम जी तिवारी, नित्यानंद गायेन, संतोष कुमार तिवारी, आरसी चौहान,शिरोमणि महतो, मिथिलेश राय, रेखा चमोली, पूनम तूषामड़, विनिता जोशी इत्यादि की महत्वपूर्ण उपस्थिति भी आलोचक की नजरों से ओझल हो गई है. हैरान करने वाली है. वहीं भरत प्रसाद वरिष्ठ लेखकों के व्यामोह से बच नहीं पाएं हैं. उन्हें नींव के पत्थर की तरह इस्तेमाल कर ही लिए हैं. तब ‘ नयी कलम: इतिहास रचने की चुनौती ’ शीर्षक थोड़ा खटकता है.
            इस प्रकार यह पुस्तक उनके परिश्रम ,लगन और ईमानदार कोशिश का परिणाम है.इस रूप में यह कृति भरत प्रसाद को आलोचक दृष्टि की परिपक्वता की परिचायक और उनके आलोचना के अगले पड़ाव का पुष्ट प्रमाण भी है. जिसमें उनके परिश्रम, लगन,निष्ठा और ईमानदारी की स्पष्ट झलक परिलक्षित होती है और आगे भी होती रहेगी,ऐसा मुझे विश्वास है.




समीक्ष्य पुस्तक -’नयी कलम इतिहास रचने की चुनौती ‘

लेखक एवं आलोचक -भरत प्रसाद

प्रकाशक - अनामिका प्रकाशन,52तुलारामबाग,इलाहाबाद,211006

मूल्य-350

संपर्क- आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल
 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121   मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com



                                                               समालोचन से साभार







रविवार, 7 सितंबर 2014

इस रक्तरंजित सुबह का मौसम बदलना

















इस रक्त रंजित 
सुब्ह का 
मौसम बदलना |
या गगन में 
सूर्य कल 
फिर मत निकलना |

द्रौपदी 
हर शाख पर 
लटकी हुई है ,
दृष्टि फिर 
धृतराष्ट्र की 
भटकी हुई है ,
भीष्म का भी 
रुक गया 
लोहू उबलना |

यह रुदन की 
ऋतु  नहीं ,
यह गुनगुनाने की ,
तुम्हें 
आदत है 
खुशी का घर जलाने की ,
शाम को 
शाम -ए -अवध 
अब मत निकलना |

बुधवार, 27 अगस्त 2014

उमा शंकर मिश्र की कहानी : खुला आसमान




     

 खुला आसमान

     यद्यपि खुले आसमान में परिन्दें का आशियाना नहीं हुआ करता लेकिन ये परिन्दे उसी खुले आसमान में उड़ान भरते हैं । उड़ान भरना उनकी मंजिले नहीं, नियति होती है ।आज सुक्खु अपनी खेत के मेंड़ पर बैठकर यही सोच रहा था । कर्त्तव्यों से विमुख होकर केवल इसी देश में प्रत्येक व्यक्ति अधिकारों की मांग कर रहा है।हम राष्ट्र के लिए क्या करते हैं यह चिन्ता नहीं है लेकिन राष्ट्र हमारे लिए क्या करता है इसे प्रत्येक व्यक्ति राजनीतिक मंच से,अपने भाषणों से,वक्तव्यों से उठा रहा है।

      कैसे यह देश चलेगा इसकी चिन्ता उसे है ही नहीं ?
ग्राम पंचायतों का चुनाव बहुत बड़ा चुनाव नहीं होता है।गाँव के विकास के लिए ही ग्राम पंचायते गठित की जाती हैं ।लेकिन राष्ट्र के राजस्व की एक बहुत बड़ी राशि इन गाँव के उत्थान,विकास,प्रगति के लिए दी जाती है।पंचायती राज विधेयक के जरिये गांव की उन्नति का जो सपना देखा गया था वह अब धूमिल होती जा रही हैं। स्पष्ट है कि ये राशि भी इन छोटे ग्राम पंचायत के सदस्यों द्वारा दुरूपयोग किया जा रहा है। कहीं भी उतना विकास का कार्य नहीं हुआ है जितना दावा किया जा रहा है।

        विधायकी का चुनाव भी नजदीक गया था गांवो में पोस्टर,बैनर,तरह-तरह के लगाए जा रहे थे।सुक्खु और उसकी पत्नि सुखदेई इस उल्लास भरे माहौल में भरपूर मदद कर रहे थे। उन्हें आशा थी इस चुनाव के लिए कार्य करने पर बाद में एक हैड पाइप हमारे झोपड़ी के आगे भी लग जायेगा।और इस प्रकार पानी के लिए 3 किमी0 दूर नहीं जाना पड़ेगा।दिन भर चुनाव का प्रचार करने के बाद गांव का मुखिया केवल 50 रू0 ही प्रचारकों को इसलिए देता है  कि इस बार भी सत्ता और शासन हमारे हाथ में जाए।शासन तो कुछ बड़े बाहु& बलियों के हाथों मे खेलती है और उन्ही के आसपास शासन भी भ्रमण करता है। कभी & कभी दिखाने के लिए यदि एक नेता पर आरोप है तो उसके बेटे या पत्नि को टिकट देकर पार्टियां वाह वाही लूटती है।देखिए मैंने उस दागी का टिकट काट दिया है लेकिन खेलती है राजनीति उसी के आंगन में।यह उस पार्टी को भी मालूम है तथा सारी जनता को भी।


        ग्राम पंचायत के चुनाव में भावनाएं,जज्बातों,भावों,सम्वेगों को उभारा जा रहा था।आदर्शों,उसूलों,नैतिकता,संस्कार,संस्कृति,सभ्यता, तथा अपनी प्राचीन मूल्यों को बचाने की भी भाषण के माध्यम से दुहाई दी जा रही थी।चुनाव मैदानी जंग बन चुका था।और आचानक जब बोट पुराने मुखिया के पाले में पड़ने की बात सुनायी पड़ी एक भयानक विस्फोट हुआ सुक्खु और सुखदेई गिरकर तडपने लगे।दोनों को नजदीक के अस्पताल में भेजा गया।डा0 वहां नहीं था।प्राथमिक स्वास्थ्या केन्द्र पर प्रायः डा0 नदारद ही रहते हैं कोई कार्यवाही इसलिए नहीं होती है क्योंकि डा0 नेताओं से अपना सम्बन्ध बना लेता है इसे ही लोकतन्त्र कहते हैं।

     दोनों मर गए। पोस्टमार्टम के बाद दोनों की लाशें घर के लोगों को सौंप दी गई।घर के बर्तन बेचकर कफन ,लकड़ी की व्यवस्था की गई और अन्त्येष्टि खत्म हो गई।गांवो वालों के आंसू सूख चुके थे।अब तक गरीबों के आंसुओं को मापने का कोई पैमाना नहीं बन सका है।
5 साल बाद उसी गाँव में चुनाव आरम्भ हो गया था चुनावी बिगुल जोर जोर से बज रहा था।सुक्खु के इकलौते लड़के के कान में भी बिगुल अच्छी तरह सुनाई पड़ रहा था। कुछ नेता उसके घर पर आते दिखाई पड़ें।जो सुक्खु और सुखदेई के मरने पर बड़ी बड़ी सहायता का सपना दिखाया था। नेताओं के हसीन बातों का कोई भी प्रभाव सुक्खु के पुत्र शंकर पर नहीं पड़ा वह चुपचाप अपना फावड़ा लेकर कन्धे पर रक्खा और खेत की ओर चल दिया।यह धरती अपनी माँ है।और माँ के आँचल रूपी खेत में कुछ जोत-बो कर पेट भरना अपराध नहीं है।शंकर की पत्नि रंजना अपनी झोपड़ी के दरवाजे को बन्द कर अन्दर चली गई।वह तो नेता ,नेतृत्व,भाषण,मिथ्या,आश्वासन,कोरे वायदों को सुनना ही नहीं चाहती थी।