शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं-



    

                             हरीश चन्द्र पाण्डे


         लौह पुरूष सरदार बल्लभ भाई पटेल की जयन्ती 31 अक्टूबर को आज पूरा देश राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मना रहा है। और यह ब्लाग अपना तीसरा वर्ष पूरा करते हुए आज तीन अंकों में अपनी पोस्ट अर्थात 100वीं पोस्ट के साथ शतक लगा रहा है धीरे ही सही पहाड़ी पगडंडियों की तरह आगे बढ़ते हुए पुरवाई की इस पोस्ट में अपने सबसे प्रिय कवि हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताओं को प्रकाशित करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।

                                                        सम्पादक-पुरवाई
                                                   टिहरी गढ़वाल,   उत्तराखण्ड

हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं-


1-उत्खनन

केवल सभ्यताएँ नहीं मिलतीं
उत्खनन में सभ्यताओं के कटे हाथ भी मिलते हैं

आप इतिहास में दर्ज एक कलात्मक मूठ को ढूँढऩे निकलते हैं
उसकी जगह क़लम किया हुआ सिर मिलता है

चाहे से, चाहा गया अधिक मिलता है कभी-कभी

यह बिल्कुल सम्भव है कि कभी
गाँधी को अपने तरीके से खोजने निकले लोगों के हाथ
चश्मे के एक जोड़े के पहले
कटी छातियों के जोड़ियों से मिलें

शायद ही कोई बता पाए
ये इधर से उधर भागतीं स्त्रियों के हैं
या उधर से इधर भागतीं

और शायद ही मिले चीख़ पुकारों का कोई संग्रहालय

मिलेगा तो कोई यह कहते हुए मिलेगा पीछे मुड़ते हुए
कि बर्बरों को फाँसी पर लटका दिया गया है
और वह भी इस वज़न से कहेगा
जैसे -- मंशाओं को फाँसी पर लटका दिया गया है

उत्खनन में मंशाओं की बड़ी भूमिका होती है



2-सहेलियाँ

आज बेटी सुबह से ही व्यस्त है
सहेलियाँ घर पर आएँगी
 खाना होगा
 गपशप होगी ख़ूब

चीज़ें तरतीब पा रही हैं
ओने-कोने साफ़ हो रहे हैं
ख़ुद की भी सँवार हो रही है
पिता तक पहुँचती आवाज़ में माँ से कह रही है
-- यही पहनकर जाना बाहर

नोयडा से रुचि आई है
बंगलुरु से आयशा
विश्वविद्यालय के कल्पना चावला हॉस्टल से आएगी तरु
सरोजनी से दिव्या

शिल्पी बीमार है, वह छटपटाएगी बिस्तर पर
... ग्यारह बजे जाना था उन्हें
बारह बज गए हैं
बेटी टहल रही है मोबाइल पर कान लगाए

वे शायद रही हैं
मोड़ की उस ओर जहाँ आँखें नहीं पहुँच रहीं
आवाज़ों का एक बवण्डर रहा है

हाँ, वे गई हैं
कॉल बैल दबाने से पूरा नहीं पड़ रहा उनका
गेट का दरवाज़ा पीट रही हैं थप-थप-थप्प
जैसे यह बहरों का मुहल्ला है

अधैर्य का एक पुलिन्दा मेरे गेट पर खड़ा है

वे गेट के भीतर क्या गई हैं
कहीं एक बाँध टूट गया है जैसे
कहीं आवाजों के विषम शिखरों का एक ऑर्केस्ट्रा बज रहा है

कहीं चिपको नेत्रियों द्वारा एक घना जंगल बचाया जा रहा है कटने से

वे अब कमरे के भीतर गई हैं
धम्म-धम्म-धम्म सोफ़ों पर ऐसे गिर रही हैं
जैसे पहाड़ खोद कर आई हैं

थोड़ा ठण्डा-वण्डा
थोड़ा चाय-बिस्कुट
थोड़े गिले - शिकवे...

और अब सबकी सब अतीत में चली गई हैं
एक ग्रुप फोटो के साथ...
वे कॉलेज के अन्तिम वर्ष के विदाई समारोह में खड़ी हैं अभी
पहली-पहल बार साड़ी पहने हुए
सब एक बार फिर लजाती निकल रही हैं अपने-अपने घरों से
साड़ी कुछ माँ ठीक कर रही है, कुछ बहन, कुछ भाभी
ऊपर कन्धे पर ठीक हो रही है, कुछ पैरों के पास झटक-झटक कर

एक स्कूटर पर पीछे बैठी असहज-असहज है
दूसरी स्कूल वैन में बैठने के पहले
कई बार गिरते-गिरते बची है
तीसरी ख़ुद को कम
देखने वालों को अधिक देख रही है
मरी-मरी जा रही है
भरी-भरी जा रही है

कॉलेज के प्रवेश द्वार पर असहजता का एक कुम्भ लगा है
वे अपने ही भीतर डुबकी लगा रही हैं
उनके भीतर ही भँवर हैं भीतर ही चप्पू
भीतर ही मँझधार हैं भीतर ही किनारा

वे उचक-उचक कर चहक रही हैं
चहक-चहक कर मन्द्र हो रही हैं

...अब उनकी बातों की ज़द में सहपाठिनें हैं
ये चौथे लाइन में तीसरे नम्बर पर खड़ी बड़ी चुड़ैल थी जी
और ये दूसरे लाइन वाली कितने बहाने बनाती थी क्लास में
भई मिस नागर का तो कोई जवाब नहीं

अभी यह कमरा कमरा नहीं
एक ही पेड़ पर कुहुक रही कोकिलाओं का जंगल पल है

...धीरे-धीरे कमरे का सामुदायिक राग कम हो रहा है
अब एक बार में एक स्वर मुखर है
अपने-अपने अनुभव हैं अपनी-अपनी बातें
फिर जैसे अचानक एक रेलगाड़ी लम्बी सुरंग में प्रवेश कर गई है
...चुप्प...
और फिर जैसे अचानक सभी दिशाओं में सूर्य उग आए हैं
पखेरू चहकने लगे हैं
किसी ने मोती की लडिय़ाँ तोड़कर बिखेर दी हैं
खिल-खिल का ऐसा ज्वार कि जैसे
संसार के सारे कलुष धुल गए हों

भीतर हम भी देश-काल से परे हो गए हैं
ये सब सजो लेंगी इन पलों को
हम समो लेंगे

...समय बीत गया है पर इनकी बातें नहीं

अब ये सब टा-टा, बाई-बाई कर रही हैं
इस छोर पर एक माँ कई बेटियों को विदा कर रही है
उस छोर पर कई माँएँ आँखें बिछाए खड़ी हैं

यहीं कहीं एक लड़का कैमिस्ट की दुकान पर खड़ा
एसिड की बोतल खरीद रहा है...


3- कछार-कथा

कछारों ने कहा
हमें भी बस्तियाँ बना लो
- जैसे खेतों को बनाया, जैसे जंगलों को बनाया

लोग थे
जो कब से आँखों में दो-एक कमरे लिए घूम रहे थे
कितने-कितने घर बदल चुके थे फ़ौरी नोटिसों पर
कितनी-कितनी बार लौट आए थे ज़मीनों के टुकड़े देख-देख कर

पर ये दलाल ही थे जिन्होंने सबसे पहले कछारों की आवाज़ सुनी
और लोगों के हसरतों की भी थाह ली, उनकी आँखों में डूबकर

उन्होंने कछारों से कहा ये लो आदमी
और आदमियों से कहा ये लो ज़मीन

डरे थे लोग पहले-पहल
पर उन्हें निर्भय करने कई लोग आगे गए
बिजली वालों ने एकान्त में ले जाकर कहा, यह लो बिजली का कनैक्शन
जल-कल ने पानी की लाइनें दौड़ा दीं
नगरपालिका ने मकान नम्बर देते हुए पहले ही कह दिया था
- जाओ मौज़ करो

कछार एक बस्ती है अब

ढेर सारे घर बने कछार में
तो सिविल लाइन्स में भी कुछ घर बन गए
लम्बे-चौड़े-भव्य


यह कछार बस्ती अब गुलो-गुलज़ार है

बच्चे गलियों में खेल रहे हैं
दूकानदारों ने दुकानें खोल ली हैं
डाक-विभाग डाक बांट रहा है
राशन-कार्डों पर राशन मिल रहा है
मतदाता-सूचियों में नाम बढ़ रहे हैं

कछार एक सर्वमान्य बस्ती है अब

पर सावन-भादों के पानी ने यह सब नहीं माना
उसने बिजली वालों से पूछा जल-कल से नगरपालिका से दलालों से

-- हरहराकर चला आया घरों के भीतर


यह भी पूछा लोगों से
तुमने तिनके-तिनके जोड़ा था
या मिल गया था कहीं एक साथ पड़ा हुआ
तुम सपने दिन में देखा करते थे या रात में
लोगों ने चीख़-चीख़ कर कहा, बार-बार कहा
बाढ़ का पानी हमारे घरों में घुस गया है
पानी ने कहा मैं अपनी जगह में घुस रहा हूँ
अख़बारों ने कहा
जल ने हथिया लिया है थल
अनींद ने नींद हथिया ली है
लोग टीलों की ओर भाग रहे हैं

अब टीलों पर बैठे लोग देख रहे हैं जल-प्रलय

औरतें जिन खिड़कियों को अवांछित नज़रों से बचाने
फटाक् से बन्द कर देती थीं
लोफ़र पानी उन्हें धक्का देकर भीतर घुस गया है
उनके एकान्त में भरपूर खुलते शावरों के भी ऊपर चला गया है
जाने उन बिन्दियों का क्या होगा
जो दरवाज़ों दीवारों शीशों पर चिपकी हुई थीं जहाँ-तहाँ

पानी छत की ओर सीढिय़ों से नहीं बढ़ा बच्चों की तरह फलाँगते
ही उनकी उछलती गेंदों की तरह टप्पा खाकर
-- अजगर की तरह बढ़ा
रेंगते-रेंगते, मकान को चारों ओर से बाहुपाश में कसते
उसकी रीढ़ चरमराते

वह नाक, कान, मुँह, रन्ध्र-रन्ध्र से घुसा
इड़ा-पिंगला-सुष्मन्ना को सुन्न करते

फ़िलहाल तो यह टीला ही एक बस्ती है
यह चिन्ताओं का टीला है एक
खाली हो चुकी पासबुकों का विशाल जमावड़ा है
उऋणता के लिए छटपटाती आत्माओं का जमघट है

यहाँ से लोग घटते जलस्तर की कामना लिए
बढ़ता हुआ जलस्तर देख रहे हैं

वे बार-बार अपनी ज़मीन के एग्रीमेण्ट पेपर टटोल रहे हैं
जिन्हें भागते-भागते अपने प्राणों के साथ बचाकर ले आए थे...

संक्षिप्त परिचय-

उत्तराखण्ड के सुरम्य अल्मोड़ा घाटी में (सदी गांव द्वारा हाट)28.12.1952 को जन्मे हरीश चन्द्र पाण्डे जी की स्कूली शिक्षा अल्मोड़ा और पिथौरागढ में हुई और कामर्स में स्नातकोत्तर की शिक्षा कानपुर विश्वविद्यालय उत्तर प्रदेश से पूर्ण हुई। हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं देश की खयातिलब्ध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।

काव्य कृतियां

पाण्डे जी की महत्वपूर्ण काव्य कृतियां हैं - कुछ भी मिथ्या नहीं है, एक बुरुंश कहीं खिलता है, भूमिकाएं खत्म नहीं होतीं ',असहमति , कलेण्डर पर औरत तथा अन्य प्रतिनिधि कविताएं ,संकट का साथी और दस चक्र राजा।

अनुवाद

पाण्डे जी की कविताओं में कन्टेन्ट की ताजगी और कहन की शैली दोनों स्तरीय होते हैं। हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है यथा- अंग्रेजी, बांग्ला, उड़िया, पंजाबी तथा उर्दू।

पुरस्कार / सम्मान

अब तक हरीश चन्द्र पाण्डे को सोमदत्त पुरस्कार (1999), केदार सम्मान (2001), ऋतुराज सम्मान (2004), हरिनारायण व्यास सम्मान (2004) आदि कई महत्वपूर्ण सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।



आवास- -114, गोविन्दपुर कालोनी, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश,
      मोबाइल- 09455623176

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

स्वर्णलता ठन्ना की कविताएं-





                              स्वर्णलता ठन्ना
       रतलाम म0प्र0 में जन्मीं स्वर्णलता ठन्ना ने परास्नातक की शिक्षा हिन्दी एवं संस्कृत में  प्राप्त की है एवं  हिन्दी से यूजीसी नेट उत्तीर्ण किया है। साथ ही  सितार वादन , मध्यमा : इंदिरा संगीत वि0 वि0 खैरागढ़ , छ 0 ग 0 से एवं पोस्ट ग्रेजुएशन डिप्लोमा इन कंप्यूटर एप्लीकेशन - माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता वि0 वि0 भोपाल से प्राप्त की है ।
पुरस्कार - आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समूह द्वारा "  युवा प्रतिभा सम्मान 2014 " से सम्मानित 
संप्रति- ‘ समकालीन प्रवासी साहित्य और स्नेह ठाकुर ’  विषय पर शोध अध्येता,
हिंदी अध्ययनशाला , विक्रम विश्व विद्यालय उज्जैन।
प्रकाशन - प्रथम काव्य संकलन - स्वर्ण-सीपियाँ  प्रकाशित , वेब पत्रिका -अनुभूति , स्वर्गविभा, साहित्य कुंज ,साहित्य रागिनी , अपनी माटी, अक्षरवार्ता  सहित अनेक पत्र -पत्रिकाओं में रचनाएँ  एवं लेख प्रकाशित।

       स्वर्णलता ठन्ना की कविताओं से गुजरते हुए यथार्थ की कठोर धरातल से गुजरने जैसा  है। एक कवि मित्र ने ठीक ही लिखा है कि जहां किसी टहनी में गांठें व खुरदरापन होता है वहीं से नये कल्ले निकलते हैं।और जीवन की वास्तविकता भी तो यही है कि बहुत संघर्षों के बाद ही नयी राह निकलती है।कवयित्री का भविष्य के सपने देखना भी कम आश्चर्यचकित नहीं करता जब अकेलेपन में भी खुशी के दो-चार क्षण ढ़ूंढ़ निकाल ही लेती हैं। जीवन की कड़वी सच्चाई से रूबरू कराती ‘ सुरमई लम्हा ’ कविता देखने में सीधी- सरल जरूर है लेकिन जब जीवन की कठोर परतों को तोड़ती है तो यथार्थ के धरातल पर खुशबू की भीनी-भीनी महक तैर आती है।
        ‘ अर्धत्व  ’  कविता भी बिम्बों के बारीक रेशों से बुनी हुई है जिसपर गोटे टांगने का काम बहुत खूबसुरती से किया गया है। इनकी कविताओं में जहां भाषा एवं शिल्प का टटकापन है वहीं नये बिंबों की गझिनता भी है को नया आयाम देती है।आने वाले दिनों में इन कविताओं की धमक बहुत दूर तक और देर तक सुनी जाएगी । ऐसा मुझे विश्वास है।आपकी बेबाक राय की प्रतीक्षा में प्रस्तुत है युवा कवयित्री स्वर्णलता ठन्ना की कविताएं-


1. जिंदगी की कला
 
कला की कूंची
जिंदगी की
कड़वी सच्चाइयों से पगी
रचती है हर समय
कोरे कागज पर
कुछ रंगीन रेखाएँ
भरा होता है
उसका कैनवास खचाखच
जिसमें होते है कुछ
सूखे ठूँठ बन चुके पेड़,
नन्हें मुरझाए फूल,
लालटेन के उजाले में
टिमटिमाती एक जोड़ी
नीली आँखें
धूप का पीलापन
और कोयले की
खदान से निकले
काले रंग से सने
कृशकाय कुछ मजदूर
तपती दुपहरी में
उदास गलियाँ
लू के थपेड़ों से
जूझते अकेले खड़े वृक्ष
और सूरज की ओर
सिर उठाए ताकते
तपते सूरजमुखी
कितना सच होता है उनमें
होते हैं वे
सच्चाई से लबरेज
क्योंकि उकेरते है वे
जिंदगी की वास्तविकता को
दुख, तकलीफ, अवसाद को
लेकिन फिर भी
उन्हें कहा जाता है
खूबसूरत हमेशा ही
कला का अद्वितीय नमूना
प्रशंसा के कसीदे
गढ़े जाते हैं उनके लिए
और भयावहता को
खूबसूरती कहने वाले
कला सर्जक
देते है उसे
जीवन से भरा शीर्षक
शायद
इसी को कहते हैं
जिंदगी की कला...।

2. सुरमई लम्हा

जाने कितने बरसों से
बसे हुए है
गीतों के बोल
मेरी जुँबा पर
जब कभी
होती हूँ तन्हा
उतर आते हैं
ये शब्द
मेरे अधरों पर
रचने कोई रागिनी
तब
बज उठते हैं
दिगंत के मृदंग
वेणु की मधुर गूंज
और
सितार के सप्तक की
झंकार
जिसे सुनकर
लहरा आता है
कोई राग
अपने झीने
पंखों के साथ
और तब
सुरमई हो उठता है
हर लम्हा...।


 3. अर्धत्व
 
अधूरेपन में छिपी है
एक चाह,
एक ललक
अपूर्णता की गहनता में
समाई है एक आशा
कुछ प्राप्त करने की
क्योंकि
अर्धत्व में छिपा है
सौंदर्य
तभी तो
अर्धचन्द्र पर लिखी जाती है
कविताएं
अधूरे प्रेम की कहानियाँ
होती है
जग में मशहूर
अर्धसत्य के
खोजे जाते हैं साक्ष्य
और
अर्धतत्व की पूर्णता
पूजित होती है
नारी-नटेश्वर में ।


संपर्क - 

84, गुलमोहर कालोनी, गीता मंदिर के पीछे, रतलाम . प्र. 457001
मो. - 09039476881
-मेल - swrnlata@yahoo.in

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

आओ एक दीप जलायें : उमेश चन्द्र पंत



     


                          
                            उमेश चन्द्र पंत


      दोस्तो दीपावली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आज प्रस्तुत है युवा कवि उमेश चन्द्र पंत की दो कविताएं

एक दीप जलायें

आओ एक दीप  जलायें
नयी आशा का
एक दीप जलायें
जिसकी किरण
भेदभाव का दाग मिटाए 
आओ हम एक दीप जलायें
जिसकी ज्योत
प्रकाश फैलाये 
ज्ञान का 
सत्य का
उम्मीद का
प्रेम का
आओ हम एक दीप जलायें

देश पुकारता है
उठ जागो , के अब देश पुकारता है
दिशाएं ये गीत गाती तो हैं 
उठ तेरे लहू की है अब जरुरत
अंतर्मन से ये आवाज आती तो है

लाऊँगी मैं , सुख का सवेरा
सांझ ये गीत गुगुनाती तो है
तमाम अंधेरों के बीच , उम्मीद की एक किरण 
और कुछ सही , शाबाशी पाती तो है

संपर्क-
ग्राम- चोढीयार
पोस्ट-गंगोलीहाट
जिला-पिथौरागढ़ ;उत्तराखंड
वार्ता सूत्र-09897931538
ईमेल-umeshpant.c@gmail.com,UmeshC.pant@yahoo.co.in

रविवार, 19 अक्तूबर 2014

तुम्हारे पक्ष में-नित्यानंद गायेन



                                                     नित्यानंद गायेन 

         पश्चिम बंगाल के भ्रमण के पश्चात 20-25 दिनों तक नेेेेट से लगभग दूर ही रहा। परन्तु घूमने का आनंद ही कुछ और था। और एक बंगाली कवि मित्र मेरी यादों में बार-बार घूम रहे थे जिनकी कविताएं पोस्ट करते हुए हमें बहुत खुशी महसूस हो रही है।
तो प्रस्तुत है नित्यानंद गायेन की दो कविताएं-

जल आन्दोलन
जल आन्दोलन में
वे सबसे आगे रहे
पानी पर लिखी उन्होंने ढेरों कविताएँ
किसान की कथा लिखी कागजों पर
कुछ ने उन्हें जनकवि कह दिया
अपनी विचारधारा के पक्ष में
उन्होंने भी की लंबी - लंबी बातें
आजकल उनकी सभाओं में
बड़ी कम्पनी का बोतलबंद पानी आता है

तुम्हारे पक्ष में


हाँ यही गुनाह है
कि मैं खड़ा हूँ तुम्हारे पक्ष में
यह गुनाह राजद्रोह से कम तो नही
यह उचित नही
कि कोई खड़ा हो
उन हाथों के साथ जिनकी पकड़ में
कुदाल, संभल,हथौड़ी , छेनी हो
खुली आँखों से गिन सकते जिनकी हड्डियां हम
जो तर है पसीने से
पर नही तैयार झुकने को
वे जो करते हैं
क्रांति और विद्रोह की बात
उनके पक्ष में खड़ा होना
सबसे बड़ा जुर्म है

और मैंने पूरी चेतना में
किया है यह जुर्म बार-बार

संपर्क-1093,टाइप-दो,आरके पुरम,सेक्
र-5
नई दिल्ली-110022
मोबा0-09642249030

रविवार, 28 सितंबर 2014

प्रभात की आयी है बहार : डॉ.सुनील जाधव



                                                                                 डॉ.सुनील जाधव
1.प्रात: बेला...

एक साथ उड़ते एक साथ मुड़ते
पुन: एक साथ वृक्ष पर बिराजते
बगुलों की पंक्ति नभ तीर चलाते
कबूतर गुटर गूं का राग अलापते

पीपल के पत्ते यों तालियाँ बजाते
अशोक-निम-निलगिरी उल्हासते
श्वेत-लाल-पीले पुष्प मगन डोलते
प्रात: की बेला मधुरगीत गुनगुनाते

घास के शीश पर ओस बूंद हँसते
पंच्छी जोड़ियों में खेल नया खेलते
ओसमोती आपस में शरारतें करते
सिद्धी हेतु निकले पक्षी दाने चुगते

बबूल के फूल कैसे आकर्षित करते
कतार बद्ध तरु एक ताल में नाचते
सुरभी को फैलाकर शुद्धता को लाते
प्रभा मंदिर  यों कौन घंटियाँ बजाते ?



2.प्रभात की आयी है बहार


प्रभा के पंख पर पवन सवार
शीतल उत्साह का कर संचार
नई उमंग नई तरंग की बौछार
प्रात:पुष्प की हैं महक अपार

यह उत्सव कौनसा बार-बार ?
वृक्ष मुस्कुरा रहे जिस प्रकार
पक्षियों का मधुर गान साकार
जागो प्रकृति कर रही सत्कार

बटोर लो खुशियों का उपहार
आँखे खोलो देखो निज द्वार
नींद पर करो पुन: - पुन: प्रहार
निकल पड़ो हर्ष खड़ा बाहर

हाथों में लिए रथ कुसुम हार
पहन सका वही व्यक्ति स्वीकार
विजय होगी प्रति पल साभार
देखों प्रभात की आयी है बहार।


डॉ.सुनील जाधव, नांदेड
09405384672




रविवार, 14 सितंबर 2014

चुनौतियों से टकराने का समय






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चुनौतियों से टकराने का समय    

आरसी चौहान
          हमारे समकालीन रचनाकारों में अपनी लगातार उपस्थिति बनाने वाले युवा कवि,लेखक एवं आलोचक-भरत प्रसाद की सद्य प्रकाशित पुस्तक- ‘  नयी कलम इतिहास रचने की  चुनौती ’ एक दस्तावेज की तरह सम्भालने लायक है. सुदूर-दुर्गम पहाड़ियों व विषम परिस्थितियों में रहने वाले भरत प्रसाद की, भारत के बीहड़-उजड्ड व गांव-देहात में रहने वाले हिन्दी साहित्य की अलख जगाये,तमाम युवा रचनाकारों की रचनाओं पर तो नजरें पड़ती ही हैं, चकाचौंध नगरों के ऊपर छाये प्रदूषित गुम्बदों के बीच से भी टटकी रचनाओं को ढूढ़ निकालने में भी महारत हासिल की है.
         हिन्दी साहित्य के किसी गुटबाजी सांचे में  न फिट होने वाले भरत प्रसाद बडे़ करीने से एक-एक रचनाकारों की रचनाओं का बिना भेद-भाव किये चीड़-फाड़ करते हैं. यह पुस्तक- ‘परिकथा’ में मई 2008 से प्रकाशित स्तम्भ ’ताना -बाना ’ की कुल 17 कड़ियों का संकलन है, जो चार खण्डों में समाहित है. यह पुस्तक-बकौल लेखक- “अपनी दीदी रमावती देवी को जो कि मेरे जीवन में मां का विकल्प थी” को समर्पित है. मां   की याद लेखक  को नयी ऊर्जा देती है जिसकी परिणति हमारे सामने है. इस पुस्तक में भरत प्रसाद ने वर्तमान हिन्दी साहित्य में व्याप्त विकृति मानसिकता, आरोप-प्रत्यारोप, खींचतान एवं दूषित इरादे वालों से सावधान रहने की नसीहत भी दी है.
             बाजार किस तरह हमारे घरों में प्रवेश कर रहा है और हमारे शांत - सकून जीवन में उथल -पुथल मचा रहा है, जिसमें आदमी भावहीन और संज्ञाशून्य बनता जा रहा है. यहां तक कि आदमी एक मशीन में बदलता जा रहा है. भरत प्रसाद की दृष्टि इससे भी आगे तक जाती है कि बाजार अपने मायावी जाल में बौद्धिक लोगों को किस तरह कबूतरी जाल की जद में लेता जा रहा है. इससे हमें चेत जाना चाहिए. इसीलिए तो हमें आगाह भी कर रहे हैं कि- “स्त्री - विमर्श में यदि क्रांति लानी है तो शहरों से लेखकों को निकलना ही पड़ेगा . उन्हें भागना होगा उस तरफ जिधर उजाड़, धूसर-नंगी बस्तियां हैं.मायूस बूझे-बिखरे गांव हैं और धरती के अथाह विस्तार में खोए हुए विरान जंगल हैं.”(पेंज-16) जंगलों में रहने वाली बहुतायत की संख्या में आदिवासियों और फिर उनकी हत्या,मारपीट और अकाल मृत्यु ही आदिवासी समाज का कठोर सच है. जिसको विभिन्न कविताओं, कहानियों और लेखों  में इसकी चीत्कार सुनाई देती है. संवेदनशून्य होते मनुष्य की कलई खोलती हुई कविताएं हैं तो धारदार हथियार की तरह वार करते लेख, लेखों की जांच-पड़ताल करती लेखक की पैनी नजरें. इस भूमण्डलीकरण और बाजारीकरण की दौर में आदमी रक्त संबंधों का चिर हरण कर नीलामी के चौराहे पर खड़ा है.इतना विभत्स रूप रचा जा रहा है हमारे समाज में जिसकी कल्पना मात्र से मन सिहर उठता है.
           हमारे सामने नित नई चुनौतियों का अंबार लग रहा है और उसमें ढूढ़ा जा रहा है धारदार विचार. युवा पीढ़ी सधे हाथों से चुनौती स्वीकार कर सीना ताने खड़ी है समाज के सामने. युवा रचनाकारों की रचनाओं में मां -बहन जैसे रिश्तों को बचाने की कसमसाहट पूरी शिद्दत से महसूस की जा सकती है.इसके अलावा “अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए बेटी की इज्जत खैराती गुण्डों के हवाले कर देता है,तो वहीं कोई पहाड़ी औरतों की  महाबोझिल जीवन को शत-शत नमन कर लेता है.” जैसे लावा उगलती घटनाओं पर चुप्पी साध लेना युवा सर्जकों को कत्तई बर्दाश्त नहीं है.
           युवा लेखन विभिन्न संचार माध्यमों से लैस, आंकड़ों का पुलिंदा, रोज आपाधापी की  जिंदगी  से रूबरू होते हुए, अखबारी घटनाओं की रिपोर्टिंग जैसी रचनाएं तुरंत प्रभावित तो करती हैं लेकिन लम्बे समय तक पाठक के जेहन में नहीं रह पाती.इसके अलावा सच्चाई एक और कि लेखक वर्ग के अलावा गांव - देहात का आम आदमी तो यह जानता ही नहीं कि आज भी साहित्य कुछ रचा जा रहा है. ये तो केवल  सूर ,कबीर, तुलसी,पंत, प्रसाद और निराला तक ही सीमित है. आम पाठक तो अखबारों के साहित्यिक पेंज को पढ़ना क्या देखना तक नहीं चाहता.वो तो नजरों के सामने आ भर जाता है. यहां भरत प्रसाद की चिंता भी स्वाभाविक है. आम लोग तो कविता, कहानी और उपन्यास से गायब होते जा रहे हैं. फिर उनकी रूचि कहां रह जाती है , इसे पढ़ने में?
           बावजूद भरत प्रसाद की पैनी नजर इससे इतर भी जाती है. समाज में फैले धुंध को बखूबी रेखांकित भी करते चलते हैं. जहां गरीब-गुरबा एक छोटी सी गलती या बेवजह  साजिश का शिकार बनकर कैदी की तरह जीवन यापन करने को अभिशप्त हैं. इसके साथ ही उग्रवाद और नक्सलवाद जैसी समस्याएं भी कम चिंता का विषय नहीं है. कहीं - कहीं अविश्वसनीय मुद्दों पर हुए लेखन को भी रेखांकित किया है. जैसे-पत्नी द्वारा पति की चिता को आग लगा देने की दुर्लभ घटना. जबकि तमाम लेखक ऐसे भी हैं जो रहते तो हैं शहरों में और गांव की बदहाली,बाढ़ के खूंखार चेहरे पर आंकड़ों का जामा पहनाकर उसे भुनाने में लगे हुए हैं. यह केवल दिखावा भर है. ऐसा नहीं है कि साहित्य में गरीब-गुरबा,किसान, बैंक और निर्भय सेठों के चंगुल में निरीह प्राणी की तरह छटपटा रहे लोगों पर नहीं लिखा जा रहा है. इसे जाल में इतना फंसा दिया जा रहा है कि  आम पाठक को  चक्कर आ जाए.
           आज का लेखक किसी बात को बहुत घुमा -फिरा कर कहने में विश्वास  नहीं करता. वह सीधे व घातक प्रहार करना ही सीखा है रिपोर्ताज की तरह देखे,सुने व भोगे हुए यथार्थ को  हुबहू लक्ष्य पर संधान करना ही एक मात्र उद्देश्य है.  इनकी भाषा की टंकार वेदना दर वेदना लहरदार तरंगें पैदा कर देने का माद्दा रखती हैं.
            वर्तमान समय मुद्दों से विचलन का नहीं अपितु मुद्दों से प्रत्यक्ष टकराने का समय है. मनुवादी/ब्राह्मणवादी व्यवस्था के शिकार लोग दहाड़ते हुए राष्ट्र निर्माण एवं उसके संरक्षक की भूमिका में कदम ताल मिलाते हुए अग्रणी पंक्ति में खड़े हैं. भरत प्रसाद  वर्तमान समस्याओं से टकराते लेखों, कहानियों व कविताओं से संवाद करते हुए बड़े करीने से संजोते हैं एवं उसकी  चीड़-फाड़ भी करते हैं. जिसका सुखद  अहसास स्टेप वाई स्टेप होता है.
           आज साहित्य के पाठक कितने हैं? साहित्य पढ़ कौन रहा है ? साहित्येतर लोगों की भूमिका क्या है? ऐसे कई सवाल हैं जो हमारे मानस पटल पर अपना पंजा धंसाए हुए  हैं. किसी भी रचना की  पठनीयता उसकी ताकत होती है. लेकिन कुछ नामचीन जुगाड़वादी लेखक,कवि साल में दो चार कविताएं,कहानियां लिखकर साल भर विभिन्न चर्चाओं ,परिचर्चाओं,गोष्ठियों, सेमिनारों में ‘हिट’ करवाते रहते हैं . यह भी साहित्य में एक कला की तरह विकसित हो गयी है.
            कुछ सम्पादकों की अपनी लेखक मण्डली भी है. जहां वे बार-बार छपते -छपाते हैं. एक दूसरे के सम्मान और यशगान में लगे रहने वाले लेखक और  सम्पादक किस दिशा में जा रहे हैं,यह तो समय ही बताएगा. अधिकांश नये कवि लेखक  भाषा में पालिस लगाकर चमकाने में लगे हैं और अपने वाग्जाल में फांसे हुए हैं जैसे-उनके जैसा कोई दूसरा कवि-लेखक है ही नहीं . और ‘अष्टछाप ’ भक्त कवि बनने की दौड़ में अगली पंक्ति में खड़े हैं.
             भरत प्रसाद ऐसे रचनाकारों की बखूबी पहचान रखते हैं. सबसे अफसोस की बात यह है कि-‘साहित्य एकेडमी’ जैसी संस्था जुगाड़बाजों द्वारा तराशे गये दोयम दर्जे के सृजन पुरस्कार वितरित करने वाली संस्था बनकर रह गयी है तो अच्छी रचना सामने आएगी कैसे ?
ऐसे जुगाड़बाजों से अलग हटकर कुछ रचनाकार ऐसे भी  हैं, जो देशकाल की सीमाओं के पार की  सोच रखते हैं. ऐसी कहानी ,कविताओं की ओर भरत प्रसाद अपनी  पैनी नजर को हटने नहीं देते और उनकी पूरी खोज खबर भी लेते हैं. चाहे अफगानिस्तान में भय, हिंसा और आतंक के चक्रवाती साम्राज्य की बात हो चाहे अमेरिका की दोहरी  नीतियां, जिसको पूरी दुनिया समझ चुकी है. उसकी पुरानी आर्थिक उपनिवेशवादी नीति को .
          ‘हिन्दी साहित्य का बाजार काल' में साहित्य अब किसके लिए लिखा जा रहा है ?ऐसे ही और प्रश्नों से भरत प्रसाद दो - चार होते ही रहते हैं. आज हिन्दी साहित्य में जिस तरह बाजार ने अपनी पकड़ बनाई है पूंजीवादी बहुरूपिया का मुखौटा लगाकर जिसमें हर वर्ग ,हर जाति और हर धर्म के लोग कबूतरी जाल में दाने के लालच में फंसते चले जा रहे हैं. यही वजह है कि लेखकगण अब अपनी बात नहीं बोलते हैं. बल्कि बाजार के इशारे पर कठपुतली की तरह नाचते हैं. इन्हीं कठपुतलियों को दरकिनार करते हुए कुछ जीवट लेखक समाज में  फैले शोषण के विरूद्ध बगावत करने पर तूले हुए हैं.दुनिया के सारे सुखों से बंचित नौकरानियों,जिनपर पहाड़ों -सा दुख लदा हो. छेड़छाड़ की  आए दिन होने वाली घटनाएं हों या आवारा नौजवानों द्वारा हिंसा, हत्या और लूटपाट के अलावा दुनिया को शर्म के समन्दर में डुबा देने वाली घृणित जघन्य बलात्कार जैसी घटनाएं हों. भरत प्रसाद को झकझोर कर रख देती हैं. ऐसे लेखक और कवि बधाई के पात्र हैं जो ऐसे माहौल में रहकर उन पर उंगली उठाने से नहीं हिचकते.सामाजिक प्रतिष्ठानों में भेड़ियों के रूप में अहिंसा का संदेश सुनाने वाले कितने मिल जाएंगे दुराचारी,केवल इसकी कल्पना ही की जा सकती है.
           साहित्य दुनिया के किस हिस्से में नहीं लिखा जा रहा है. बस उसकी सही शिनाख्त नहीं हो पा रही है. भरत प्रसाद ‘स्वीडिस एकेडमी ’ की खामियों की ओर भी उंगली उठाने से नहीं हिचकते. जहां ‘ स्वीडिस एकेडमी ’ पर फ्रैच,जर्मन , स्पेनिश,अंग्रेजी , जापानी , चीनी इत्यादि भाषाओं का जबरदस्त दबदबा है  तो दुनिया की तमाम भाषाएं  उसके चौखठ पर नाक रगड़ रही हैं. फिर तो नोबेल पुरस्कार का आकाश फल चखने का मौका नहीं मिलता. भरत प्रसाद की नजर में नामधारी लेखक,आलोचकों का दरबार लगाने वाले युवा रचनाकारों को चेतावनी भी देते हैं. मंचों से चमकदार,लच्छेदार भाषणों से युवा रचनाकारों को आगाह भी करते हैं जो जोड़ -तोड़ से पुरस्कार बटोर लेते हैं और अपनी साहित्य की दुकान चमका लेते हैं. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि साहित्य का हाथ बहुत लम्बा होता है जो समय के साथ उनका जबाब-तलब जरूर करेगा और हकीकत तो यही है कि, मंचों से भाषणबाजी करने वाले यह भूल जाते हैं कि कहीं न कहीं इनकी दुकान चमकाने में इनका भी हाथ  है.खुदा बचाए ऐसे साहित्यकारों से. फिर भी भरत प्रसाद ऐसे रचनाकारों को खोज कर ही दम लेते हैं जो यथार्थ के धरातल पर लिखी गयी होती हैं. आज थोड़ा -सा पढ़ लिख कर फार्सिसी झाड़ने वाला बाबू ,अफसर अपने मां -बाप के साथ कैसा घिनौना सौतेला व्यवहार करता है कि सारे रिश्ते ताक पर चले जाते हैं. लेखक की दृष्टि न जाने ऐसे कितने प्रसंगों से मुठभेड़ करती है.                                         
           भरत प्रसाद ने बड़े बेबाक तरीके से नवसर्जकों को आगाह किया है कि जो लीक से हटकर सर्जना करेगा वही मुकाम तक जा पाएगा . जिसमें -भाषा, शिल्प,गठन ,संवेदना और कल्पनाशीलता का पुट हो. उत्तराखण्ड के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी विधवा विवाह एक अभिशाप की तरह है. इस पर भी कलम उठाना खतरे से खाली नहीं है. फिर तो ऐसे ज्वलंत मुद्दों को उठाने वाले रचनाकार भी लेखक की नजर में बने हुए हैं. इसके इतर विवाहेतर यौन संबंधों का मुद्दा उठाने वाली कहानियां भी कम नहीं हैं युवा रचनाकारों की नजर में . जिनसे हम दो-चार तो होते ही रहते हैं.
जहां एक ओर यौन उन्मुकता की ओर बढ़ता हुआ हमारा समाज है तो उसी में दाढ़ में खाज की तरह दुर्गापूजा,गणेशपूजा या ,लक्ष्मीपूजा के नाम पर प्रदर्शनबाजी बढ़ चढ़कर दिखाई देती है. भरत प्रसाद बार -बार साहित्य में आ रही गिरावट पर उंगली  उठा रहे हैं . साहित्य आज किस तरह  केन्द्र में आने के लिए बेचैन है कि युवा सर्जक जो ईमानदारी और सच्चाई की भट्ठी में पकी -पकाई कड़वी सच्चाई  को केन्द्र में लाना  चाहते हैं. जिनमें मुद्दों से सीधे टकराने ,जूझने ,संवाद करने का खुद्दार जज्बा है. लेकिन तथाकथित संपादक ऐसी रचनाओं के सपाट, भावुक,गैर व्यवहारिक  करार देकर रद्दी के टोकरी में डालने से गुरेज नहीं करते . यह बड़ा संकट है नवसर्जकों के सामने. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सम्पादकों ने अपनी- अपनी  मण्डलियां बना रखी हैं. फिर भी भेद-भाव की कठोर परतों को तोड़कर कुछ रचनाएं-जो जाति,धर्म, सम्प्रदाय की रोटियां सेकने वाले  राजनीति के शतरंजी खिलाड़ियों को बेनकाब करने में कामयाब भी रही हैं.  लेखक के चेहरे पर बार-बार चिंता की लकिरें खींच आ रही हैं कि निन्यानवे प्रतिशत सुनिश्चित रूप से नये लेखकों के बारे में सकारात्मक ,स्वस्थ और लोकत्रांत्रिक धारणा नहीं रखते हमारे वरिष्ठ लेखक.
            सच तो ये है कि अब आंखों से साहित्य का मधुर रस पीने की कला युवा सर्जक जान चुका है. इनकी सारी  ज्ञानेन्द्रियां चौकन्नी हैं,सभी दिशाओं में दोनों कान खुले हुए हैं. यही वजह है कि “आज कविता नये-नये प्रयोगों के अप्रत्याशित दौर से गुजर रही है. पैराग्राफ शैली,फुटनोट शैली,बतकही शैली ऐसे ही कुछ नये  प्रयोग हैं.”(पृष्ठ-104)
             समकालीन कविता से काव्य कला के अधिकांश गुण विस्थापित हो रहे हैं. इसलिए लेखक को कहना पड़ता है कि साहित्य में चल चुके स्थापित युवा शब्द सर्जक एक वाक्य पेंज की बायीं ओर,दूसरा वाक्य दायीं ओर और बन गयी कविता. फिर भी कविताओं के इन्हीं मलवापात में चुनिन्दा बेसकिमती काव्य पत्थर अपनी चमक के साथ मिल ही जाते हैं.भरत प्रसाद ऐसे चरित्रों को भी कविताओं में खोज निकालते हैं जो वर्तमान सर्वहारा तो है जिसके पैने दांत घिस चुके हैं. और शोषित प्रतिशोध की भावना को खुंटी पर टांग कर पूंजीवादी संस्कृति में आंख-मुंह बंद कर घुल-मिल गया है. साहित्य के मुर्धन्य मनीषियों द्वारा बार-बार कविता-कहानी से गांव के गायब होते जाने का विलाप सुनने को यदा -कदा मिलता ही रहता है. लेकिन दूर -दराज में रहने वाले शब्द सर्जकों की कविताओं में खेती -किसानी,चौपाल,गांव-जवार यानी जिनके लिए भूले बिसरे पुराने गाने हो चुके हैं. नये रचनाकारों की धड़कनों में बार-बार महसूसा जा सकता है.
           भरत प्रसाद की चिंता जहां अनोखे ग्रह पृथ्वी को बचाने को लेकर है वहीं तिलक - चंदन लगाकर प्रायोजित प्रचार का ज्वार उत्पन्न कर पाण्डित्यपूर्ण प्रदर्शन करने वाले रचनाकारों से सचेत रहने की भी चेतावनी देते हैं. ये नामचीन प्रकाशकों से उपन्यास, कहानी-संग्रह छपवाकर राष्ट्रीय स्तर के रचनाकारों की नामावली लिस्ट में जगह बनाकर मुर्धन्य हो जाना चाहते हैं. लेकिन भरत प्रसाद इससे सचेत व चौकन्ने हैं  कि बहुत देर तक किसी की आंखों में धूल नहीं झोंक सकते. तभी तो दबे ,सताए और अपमानित हुए जीवन की अविस्मरणीय पीड़ाओं से उपजी जिसमें हकीकत का स्वाद इतना तीखा है जैसी कविताओं की खोज पड़ताल कर ही लेते हैं. और कई -कई सौ पेंज रंगने वाले रचनाकार मुंह ताकते रह जाते हैं. कुल मिलाकर बात यहां तक पहुंच गयी है कि एक संपादिका को कहना पड़ता है कि-“कविताओं का इतना बुरा हाल कि गद्य और पद्य में कोई भी कुछ भी डाल देता है और उसे कविता का नाम दे देता है.”( पेंज -118 )
          लंबी कहानियां क्या भविष्य का विकास कर रही हैं ? जैसे सवालों से बार-बार रूखसत होते हैं भरत प्रसाद . लाज़मी भी है. जिस कदर कहानियों में कुछ भी परोस देना और उस पर चर्चा-परिचर्चा आयोजित करवाकर,कुछ नामचीन रचनाकार दोस्तों -मित्रों से समीक्षा लिखवाकर साहित्य की मुख्य धारा में बने रहने का फार्मूला ढूढ निकाला है,काबिलेगौर है. कहीं किसी के कसिदे में लघुकहानियों को केवल अखबारी कतरन या रिपोर्ट कहकर खारिज करना कुछ चर्चित रचनाकारों का शगल बन गया है. क्यों नहीं, चर्चा के केन्द्र में भी तो रहना है.
भरत प्रसाद ऐसी विषम परिस्थितियों व उहापोह के दौर में ऐसी कहानियों को ढूंढ़ लाते हैं जो नारी अस्मिता को खिलौने की तरह इस्तेमाल करता है. पुलिस महकमा-आतंकवाद,लूट -खसोट,गुण्डागर्दी करने वालों का बड़ा संरक्षक  भी बन जाता है. यह समाज के पतन की शुरूआत है. आगे स्थिति तो और  भयावह दिखती है कि ससुर ही अपनी पुत्री समान पतोहू के साथ अनैतिक संबंध बनाने का घिनौना प्रयास करता है,तो कहीं जेठ ही अपने छाटे भाई की मृत्यु पर उसकी पत्नी की अस्मत लूटने की ताक मे है.
            कुछ धुरंधर युवा शब्द सर्जक अपने दांव -पेंच के कारीगरी से वजनदार पुरस्कार और दूसरे कुछ नामचीन -प्रतिष्ठित प्रकाशक को अपने तांत्रिक साधना से वशीभूत कर लिया तो समझो साहित्य में उसकी सीट पक्की. इस तांत्रिक साधना को यहां व्याख्यायित करने की बहुत जरूरत नहीं है. बस एक- दो साल की मेहनत और वाहवाही की फसल तैयार. ऐसे साहित्य को भला भगवान क्या बचाएंगे ? जहां जुगाड़,मक्खन -पालिस,भेंट -उपहार और भी न जाने कितने लुभाऊ लटके -झटके जिससे कौन अचेत न हो जाए.
            इस समीक्षा आलोचना पुस्तक के अंत में भरत प्रसाद ने साहित्य की दुनिया में हावी होते अधिकारी लेखकों के जलवा की भी चर्चा की है. जिसका खमियाजा बहुत सारे युवा लेखकों को भुगतना पड़ रहा है. “आज उस अधिकारी के बैग में बड़े से बड़े प्रकाशक है.,खुद्दार सुप्रसिद्ध आलोचक ,रेडीमेड समर्थक और पुस्तक समीक्षक हैं,जो साहित्येतर सुविधाएं मुहैया करा सकता है.”( पेंज-134)
स्वाभविक है,उनकी चकाचौंध साहित्यिक रोशनी में अपनी अंतिम सांस तक लड़ने वाले युवा लेखक जब कुछ कर गुजरने की ठान लेते हैं तो साहित्याकाश में हलचल मच जाती है. फिर अंधेर गर्दी के खिलाफ हजारों हाथ खड़े हो जाते हैं. युद्ध कहां नहीं है? बाहर- भीतर कहीं भी हम सुरक्षित नहीं हैं.
भरत प्रसाद की दृष्टि साहित्य में हावी होते सामन्ती प्रवृत पर भी है जो युवा रचनाकारों की बहुत सारी खामियों पर भी चुप्पी साधे हुए हैं. यह चुप्पी कहीं भविष्य में भीषण तूफान की आने वाली सूचक तो नहीं? आज के युवा कवियों में कुछ ऐसी खामियां -जिसमें उन्हें न भारत का इतिहास ,वर्तमान ,गरिमा,गहराई,समाज ,संस्कृति  का ज्ञान है न समझ है. जिससे कविता का आम पाठक भी ऐसे युवा कवियों की कविताओं से दूरी बनाने में ही अपनी भलाई समझता है.
           भरत प्रसाद ने अपनी प्रतिभा,परिश्रम और क्षमता का भरपूर परिचय दिया है.नये रचनाकारों की,पहाड़ी झरनों से फूटती हुई नयी  धाराओं -सी रचनाएं जो भविष्य में बलखाती हुई वेगवती नदी का रूप लेने वाली हैं ,का गहन विवेचन व विश्लेषण किया है. पूर्ण संतोष व्यक्त करते हुए उनसे अपेक्षा है कि विभिन्न पीढियों के रचनात्मक अवदानों को साहित्य जगत से परिचय कराएंगे. इस पुस्तक में युवा रचनाकारों की साहित्यिक बारीकियों को बताकर भविष्य में सचेत रहने की चेतावनी भी दी है. लेकिन-राम जी तिवारी, नित्यानंद गायेन, संतोष कुमार तिवारी, आरसी चौहान,शिरोमणि महतो, मिथिलेश राय, रेखा चमोली, पूनम तूषामड़, विनिता जोशी इत्यादि की महत्वपूर्ण उपस्थिति भी आलोचक की नजरों से ओझल हो गई है. हैरान करने वाली है. वहीं भरत प्रसाद वरिष्ठ लेखकों के व्यामोह से बच नहीं पाएं हैं. उन्हें नींव के पत्थर की तरह इस्तेमाल कर ही लिए हैं. तब ‘ नयी कलम: इतिहास रचने की चुनौती ’ शीर्षक थोड़ा खटकता है.
            इस प्रकार यह पुस्तक उनके परिश्रम ,लगन और ईमानदार कोशिश का परिणाम है.इस रूप में यह कृति भरत प्रसाद को आलोचक दृष्टि की परिपक्वता की परिचायक और उनके आलोचना के अगले पड़ाव का पुष्ट प्रमाण भी है. जिसमें उनके परिश्रम, लगन,निष्ठा और ईमानदारी की स्पष्ट झलक परिलक्षित होती है और आगे भी होती रहेगी,ऐसा मुझे विश्वास है.




समीक्ष्य पुस्तक -’नयी कलम इतिहास रचने की चुनौती ‘

लेखक एवं आलोचक -भरत प्रसाद

प्रकाशक - अनामिका प्रकाशन,52तुलारामबाग,इलाहाबाद,211006

मूल्य-350

संपर्क- आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल
 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121   मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com



                                                               समालोचन से साभार







रविवार, 7 सितंबर 2014

इस रक्तरंजित सुबह का मौसम बदलना

















इस रक्त रंजित 
सुब्ह का 
मौसम बदलना |
या गगन में 
सूर्य कल 
फिर मत निकलना |

द्रौपदी 
हर शाख पर 
लटकी हुई है ,
दृष्टि फिर 
धृतराष्ट्र की 
भटकी हुई है ,
भीष्म का भी 
रुक गया 
लोहू उबलना |

यह रुदन की 
ऋतु  नहीं ,
यह गुनगुनाने की ,
तुम्हें 
आदत है 
खुशी का घर जलाने की ,
शाम को 
शाम -ए -अवध 
अब मत निकलना |