सोमवार, 18 जनवरी 2016

संस्मरण - लौट के बुद्धू घर को आए (भाग-तीन)-पद्मनाभ गौतम





      कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’ की  आज  पांचवीं और आखिरी किस्त।आपके विचारों की प्रतीक्षा में सम्पादक -पुरवाई



     इस अनिश्चितता व उहापोह में जब हम धरवाला से हम जब आगे बढ़े तो हमारे साथ दो और राहगीर आ गए। वो दोनों पिता-पुत्र थे जो होली गाँव से आ रहे थे। होली एक कस्बा है जो खड़ामुख से बीस किलोमीटर दूर है। वे पिता-पुत्र भी प्रातः काल होली से निकले थे। चूंकि रात हो रही थी, अतः महसूस हुआ कि दो से भले चार। उन्होंने हमसे पूछा कि क्या वे हमारे साथ चल सकते हैं। हमने उन्हें सहर्ष इसकी सहमति दे दी। वे बड़े प्रसन्न हुए। दोनों जम्मू-कश्मीर के भद्रवाह के पास के रहने वाले थे तथा होली में मजदूरी का काम करते थे। हिमपात बढ़ता देख कर वे भी पदयात्रा पर निकल पड़े थे। उन्होंने उस दिन कोई चालीस किलोमीटर की पदयात्रा की थी। परंतु वे हमारी तरह थके नहीं थे। वह  दोनों शारीरिक श्रम करने के अभ्यस्त थे तथा हमारी तरह थक कर चूर नहीं थे। 

 

    जब हम राख पहुँचे तो सांझ हो आई थी। राख में बर्फ और वर्षा रुक चुकी थी। अब आगे अंधेरे में और पैदल चलना संभव नहीं था। हमें उम्मीद थी कि राख से तो चम्बा तक चलने वाली कोई टैक्सी अवश्य हमें मिल जाएगी। पर उस दिन की आखिरी टैक्सी भी जा चुकी थी। हमारे पास राख में रुकने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं था। मजदूर पिता-पुत्र से पूछा तो उन्होंने कहा कि वे किसी दुकान के ओसारे में सो जाएँगे। उनके पास एक मोटा गद्दी कम्बल था। हमारे पास तो कम्बल भी नहीं था। हम कहाँ रुकेंगे। किसी दुकान की भट्टी पर! अपने आप से कोफ्त हुई, हमारे पास कोई योजना जो नहीं थी। बस हम सनक में निकल पड़े थे। मृत्यु-दर्शनमें राहुल सांकृत्यायन कहते हैं कि घुमक्कड़ों को मृत्यु का भय कैसा। पर ठण्ड का तो होना चाहिए! कम्बल तो साथ रखना चाहिए!! इसे ही अनुभव कहते हैं महाराज। देयर इज़ नो शार्टकट टू एक्सपीरियंसअर्थात् अनुभव लेने का कोई छोटा मार्ग नहीं होता, वायुयान से आप पथरीली सड़क का अनुभव नहीं प्राप्त कर सकते।  

 

    एकाएक मुझे अब राख गाँव के लोक निर्माण विभाग के विश्राम-गृह की याद आई, जहाँ मैं पिछली बार रुका था। परंतु खराब मौसम में उसके खाली मिलने की संभावना कम ही थी। जब हम गेस्ट हाउस पहुँचे तो वहाँ का चौकीदार ही नदारद था। बड़ी मुश्किल से खोजने पर हमें वह स्टाफ क्वार्टरों की ओर बैठा मिला। पहले तो उसने हवाला दिया कि मौसम खराब है और कोई  वी.आई.पी. कभी भी आ सकता है। पर बहुत देर तक हमारे अनुनय करने पर तथा कुछ अतिरिक्त रुपयों के लालच में उसने हमारे लिए एक कमरा खोल दिया। कमरे में बस एक डबल बेड था। फर्श पर मोटा जूट का कालीन बिछा था जो गर्म था। मजदूरों से कहा कि भाई एक ही कमरा है। तुम चाहो तो इसमें रुक जाओं। उन्होंने वहीं जूट के शीतरोधी कालीन पर अपना बिस्तरा लगा लिया। 

 

     रुकने का आसरा करने के बाद अब हमें खाने की सुध आई। हम बाहर की ओर भागे। दोनों मजूरों ने कुछ भी खाने से इंकार कर दिया था। बाजार राख के लोक निर्माण विश्रामगृह से लगा हुआ ही है। परंतु उस बर्फबारी के मौसम में कैसा बाजार। सब बन्द था। बस एक होटल खुला मिला जिसमें मिट्टी तेल की ढिबरी जल रही थी। हम लपक कर पहुँचे तो होटल मालिक ने हाथ हिला कर इशारा कर दिया। उसकी एक पतीली में बस थोड़ा सा काबुली चने का झोल ही बचा था। हमें दुकान पर डबलरोटी मिल गई। मैंने और फहीम दोंनो ने ब्रेड और चने का डिनर किया। उस वक्त वह हमारे लिए पाँच सितारा होटल के खाने से कम नहीं था। यह वह डिनर था जो जरा सी और देर होने पर हमें नसीब होने वाला नहीं था, जिसके बिना फिर हमें रात भर भूखा सोना पड़ता। खा-पीकर हम कमरे में आकर लेट गए। हमने सोचा भी नहीं था कि हमारा इतना बुरा दिन बीतेगा। हमें उम्मीद ही नहीं थी कि हम उस दिन चम्बा नहीं पहुँचेंगे। कहाँ तो केवल तेरह किलोमीटर खड़ा मुख तक पैदल चलने की बात थी और अब हम लगभग चालीस किलोमीटर पैदल चल चुके थे! वह भी बर्फ और बारिश में भीगते हुए। वह तो खैरियत थी कि राख के उस गेस्ट हाउस में एक कमरा मिल गया, अन्यथा हमें वह रात किसी दुकान की भट्टी पर ठण्ड से ठिठुरते हुए ही काटनी थी। थकान से तो हम निढाल थे ही, बातचीत करते-करते हमें नींद आ गई। 

 

    रात अचानक कराहने की आवाज़ सुनकर मेरी नींद टूटी। फहीम इकबाल अपना पेट पकड़े चीख रहा था। सम्भवतः ठण्ड से उसे अपच हो गया था या फिर डबलरोटी या चनों में ही कोई दोष था। मैंने देखा तो वह बाथरूम की ओर पेट पकड़ कर भाग रहा था। उसे उल्टियाँ हो रहीं थीं। पर उसकी पीठ सहलाने तथा पानी पिलाने के अतिरिक्त अन्य कोई मदद नहीं थी देने को। बहरहाल राम-राम करके रात कटी। सौभाग्य से उस रात फहीम को सिर्फ एक बार ही उल्टियाँ हुईं। कहीं अधिक बीमारी होती तब फिर हमें लेने के देने पड़ सकते थे, क्यों कि उस बर्फीले मौसम में राहत की कोई उम्मीद नहीं थी। 

 

    दूसरे दिन सुबह उठकर हमें आगे निकलना था। फहीम की तबियत अब कुछ ठीक थी। मैंने जब उससे पूछा कि क्या वह आगे चल सकता है, तो उसने सहमति दे दी। चूँकि राख के आगे बर्फबारी नहीं थी तथा मौसम रात तक साफ था, अतः उम्मीद थी कि हमें कोई न कोई साधन मिल ही जाएगा। किंतु दुर्भाग्य अब भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा था। जब हम राख के बस अड्डे पर पहुँचे तो हमें अपने कपड़ों पर रुई के नर्म-नर्म फाहे गिरते दिखाई दिए। अब राख के आगे भी मौसम खराब हो चुका था तथा आगे भी बर्फ गिरने लगी थी। निराशा ने हमें फिर से जकड़ लिया। मन हुआ कि चीख-चीख कर रोऊँ।

 

    मेरे पैरों में अब तक जबरदस्त सूजन आ चुकी थी। एड़ी के उपर की मोटी नस ठण्ड और श्रम के कारण बुरी तरह से दुख रही थी। एक-एक कदम मेरे लिए एक मन से कम नहीं था। लेकिन किसी भी प्रकार से घिसटते हुए ही सही, चलना आवश्यक था। पिछले दिन के पैंतीस किलोमीटरों की पदयात्रा तन व मन दोनों को तोड़ने वाली थी। जिसे पैदल चलने का अभ्यास ही न हो, उसके लिए सामान्य मार्ग पर ही इतना रास्ता पैदल तय करना कठिन होता है। चूँकि हमारे ग्रामीण सहयात्री दैहिक श्रम के आदी थे, अतः उन्हें चलने में कोई परेशानी नहीं थी। कुछ दूर तक तो वे हमारे साथ चले। फिर अचानक हमारे और उनके बीच की दूरी बढ़ने लगी। एक डेढ़-घण्टे के बाद वे पूरी तरह से हमारी आँखों से ओझल हो गए, बिना किसी अंतिम संवाद के। कोई लफ्ज़-ए-अलविदा नहीं। अब तो मुझे उनकी सूरत भी भूल चुकी है। बस उनके पहनावे की कुछ याद है। 

 

    अब हमारी चाल बहुत ही धीमी थी। पिछले दिन तक तेज चाल चलने वाला फहीम इकबाल रात को तबियत खराब होने के कारण कमजोर हो चुका था। उधर मेरे पैरों की सूजन ने मुझे लाचार कर दिया था। लगभग एक बजे हम घिसटते हुए चम्बा से पहले एक गाँव रजेरा पहुँचे जो कोई सात किलोमीटर पहले था। वहाँ तक हम बर्फ और पानी में भीगते तिरपन किलोमीटर की यात्रा कर चुके थे, जिसमें अड़तालीस किलोमीटर की पदयात्रा थी। उस गाँव में हम एक होटल में चाय पीने को रुके। अब मुझे खट्टी डकारें आ रही थीं तथा चाय को देख कर वितृष्णा हो रही थी। बर्फ यहाँ भी पसरी हुई थी। राख से यहाँ तक के तेरह किलोमीटर तक के सफर में रुक-रुक कर बर्फ बारी होती ही रही। पर अब हम चम्बा के बहुत करीब थे। हमें केवल अंतिम छह-सात किलोमीटरों का रास्ता तय करना बाकी था। 

 

     जब हम चाय पी ही रहे थे कि एक कार चम्बा की ओर से वहाँ आकर रुकी। उसमें से दो दादा टाइप के लोग उतरे जो तफ़रीहन सिगरेट पीने आए थे। जब वे सिगरेट फूँक रहे थे तो मैंने उनसे अनुरोध किया कि चम्बा जाते समय वे हमें भी अपने साथ लेते चलें। बड़े दादा ने साफ मना कर दिया। हम दोनों अब मानसिक रूप से टूट रहे थे। जब वे दोनों सिगरेट पीकर वापस जाने लगे तब मैंने फहीम से कहा कि एक बार और विनती करते हैं। फहीम स्वाभिमानी नौजवान था। उसे पहली बार ही उनका इंकार करना पसंद नहीं आया था। अतः उसने मुझे मना कर दिया तथा पैदल ही चलने को कहा। परंतु मैंने हार नहीं मानी, यह सोच कर कि पूछने में क्या जाता है। मैंने दादा को दोबारा अपनी परिस्थिति बतलाई। उससे बताया कि हम लोग दो दिनों से पैदल चल रहे हैं तथा हमारी हालत बहुत खराब है। उसने कुछ देर तक मुझे ध्यान से देखा। उसे मुझ पर दया आ गई तथा उसने हमें पिछली सीट पर बिठा लिया। उसकी गाड़ी में बैठ कर दो बजे हम चम्बा पहुँचे। रास्ते भर वह दादा हमें अपनी तारीफें सुनाता रहा तथा जाते-जाते किसी समस्या पर उसका नाम लेने की बात कह गया। 

 

    इस बार की सर्दियों में चम्बा में भी बर्फबारी हुई थी, कई दशकों के बाद। उधर आज कई दिनों के पश्चात् कहीं जाकर हमें सूर्य देवता के दर्शन हुए थे। चम्बा में हमारी कम्पनी के मानव संसाधन विभाग का एक कर्मचारी नासिर खान पहले से उपस्थित था, जो बर्फबारी की खबर सुनकर चम्बा में ही रुक गया था। उसने खान चाचा के सस्ते होटल की डॉर्मेटरी में शरण ले रखी थी। हमें भी वहीं रुकने का स्थान मिल गया। लगभग तीन बजे हम बिस्तर में घुसे। गर्म रजाई में घुसते ही आँख लग गई। रात के आठ बजे नासिर खान ने हमें उठाया। हमने रात का खाना खाया। अब तक मोबाईल चार्ज हो गया था। रामपुर-बुशैहर में परिवार से बात की तो पता चला कि सब ठीक-ठाक है। पड़ोस की एक लड़की परिवार को सहारा देने के लिए पत्नी के साथ रात को हमारे घर में ही सो रही थी। उलझन का एक सिरा तो सुलझा था।  

 

     अगले दिन दिनांक दस फरवरी दो हजार आठ को हमने सुबह बनीखेत के लिए टैक्सी पकड़ी। मुझे अम्बाला होते हुए शिमला के रास्ते रामपुर जाना था। फहीम इक़बाल को ललितपुर अपने घर निकलना था। आगे घटनाक्रम एक अपवाद को छोड़ कर सामान्य ही रहा। वह यह कि बनी खेत में मेरे साथ बड़ी दुर्घटना होते होते रह गई। हुआ यूँ कि जैसे ही हिमाचल ट्रांसपोर्ट की बस बनीखेत के बस-अड्डे में आकर खड़ी होने लगी, मैं सीट हथियाने के लिए बस की ओर लपका। चूँकि कदमों तले की बर्फ गाड़ियों के आवागमन से दबकर ठोस हो चुकी थी, अतः मेरा पैर फिसल गया। मैं बसे के अगले और पिछले पहियों के बीच जा घुसा। कंडक्टर के चिल्लाने पर ड्राईवर ने ब्रेक लगा दिया और बस के पहिए चीख के साथ रुक गए। कण्डक्टर मुझे गुस्से में कोस रहा था, परंतु मैं तो दो दिनों के भीतर मौत से इस दूसरे साक्षात्कार पर सन्न खड़ा था।

 

    अम्बाला से दोनों साथी आगे बढ़ गए। फहीम ललितपुर निकल गया और नासिर खान आगरे को। ग्यारह तारीख की रात कोे अम्बाला से कालका पहुँच कर छोटी ट्रेन से शिमला होते हुए मैं रामपुर पहुँचा, जहाँ परिवार व्यग्रता के साथ मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। रात के साढ़े दस बजे मैंने दरवाजे पर दस्तक दी। और हम सब एक साथ थे। 

 

    पर अभी मेरी परेशानियों का अंत नहीं था। इतने दिनों की थकान लिए जैसे ही रजाई में घुसा, बेटा मानस पापा-पापा चिल्लाता हुआ बिस्तर पर चढ़ गया। मैंने जो जयपुर रजाई ओढ़ी थी, वह बहुत मुलायम और फिसलन भरी थी। बच्चा मुझ तक पहुँचने की कोशिश में रजाई से फिसला और सीधी खिड़की के सिल से जा टकराया। उसका मस्तक फट गया तथा रक्त धार बहने लगी। उधर मैं इतना थक गया था कि मुझे जैसे होश नहीं थे। मेरे पैरों के टेण्डन बुरी तरह से दुख रहे थे। पत्नी श्वेता चीख-चीख कर रोने लगी। इतनी रात को इस हालत में मैं बच्चे को लेकर कैसे जाऊँ। आसमान से निकल कर खजूर में जा अटका था मैं। निकटतम खनेरी अस्पताल वहाँ से पाँच किलोमीटर दूर था। रात के ग्यारह बज रहे थे। किसी क्लिनिक के खुले होने का प्रश्न ही नहीं था। तब मुझे अपनी नानी स्व. सुखवन्ती देवी का एक पुराना अचूक नुस्खा याद आया। मैंने पत्नी से कहा कि वह रसोई से लाकर घाव में हल्दी भर दे। हल्दी ने अपना काम किया और कुछ समय पश्चात् रक्त प्रवाह रुक गया। 

 

    प्रातःकाल बच्चे को देख कर मेरा पड़ोसी जो पिछली कम्पनी का मेरा साथी था, वह मुझ पर बहुत नाराज हुआ कि हम बच्चे को लेकर रात में ही हस्पताल क्यों नहीं गए। उसे मेरे अभिभावक होने के अधिकार पर ही एतराज था। मैंने उसे बताया कि पिछले दिनों में मैं किन कठिन परिस्थितयों से होकर गुजरा हूँ, पर वह सुन कर राजी ही नहीं था। हार कर मैंने हथियार डाल दिए तथा स्वीकार कर लिया कि मैं एक योग्य पिता नहीं हूँ। कुछ देर तक उपदेश देकर वह काम पर चला गया।  

 

    खैर, सुबह चाय इत्यादि पीकर किसी तरह लंगड़ाते हुए मैं बेटे को लेकर हस्पताल गया। उसके माथे पर दो टाँके लगे। सप्ताह भर में पूरी तरह से घाव सूख गया। हाँ, बेटे के मस्तक पर टाँकों का वह निशान आज भी बाकी है, जो मेरी तीन दिनों की आपदा का स्मारक है। उधर कम्पनी के दिल्ली कार्यालय को खबर मिल चुकी थी। विभागाध्यक्ष ने मुझसे फोन पर बात की। परियोजना प्रमुख भटनागर साहब से लेकर दिल्ली के विभागाध्यक्ष तक को यह भरोसा हो गया था कि इस विकट अनुभव के पश्चात् अब मैं लौटकर वापस नहीं जाऊँगा। 

 

    परंतु सबकी आशा के विपरीत, सन् 2008 के फरवरी महीने की बाईस तारीख को मैं सपरिवार गृहस्थी के सामान के साथ भरमौर वापस पहुँच चुका था। फहीम इकबाल और नासिर खान भी वापस पहुँच चुके थे। हमारे वापस लौटने पर सबसे अधिक वह दुष्ट अधिकारी हैरान था। वह बर्फ में अपने साथियों के साथ पैदल चम्बा जाकर हम पर मानसिक बढ़त लेना चाहता था। परंतु हमारी अड़तालीस किलोमीटरों की पदयात्रा ने उसे मुँह तोड़ जवाब दिया था। लेकिन परियोजना में आने वाले दिन संघर्ष के ही थे, इस का अहसास मुझे हो चुका था। बहरहाल, संघर्ष मेरे लिए कभी भी दुख या विषाद का विषय नहीं रहा। संघर्ष व प्रतिरोध न हो तो मेरे लिए जीवन वैसा ही है, जैसे बिना नमक का भोजन। संघर्ष के अभाव में मुझे समस्त आनंद फीके लगते हैं। 

यहाँ आगे की नौकरी में पर्याप्त नमक था। 

 

संप्रति- सहायक महाप्रबंधक , भूविज्ञान व यांत्रिकी , तीस्ता जल विद्युत परियोजना , पूर्वी सिक्किम, सिक्किम

 

संपर्क -

द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा


स्कूल पारा बैकुण्ठपुर , कोरिया , छ.ग. 497335

मो. 9425580020



शनिवार, 2 जनवरी 2016

कहानी - बद्दू : विक्रम सिंह



हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कहानीकार विक्रम सिंह की कई कहानियों को इस ब्लाग में पढ़ चुके हैं। इनकी चर्चित लम्बी कहानी बद्दू की आज  पांचवीं और आखिरी किस्त। यह कहानी मंतव्य में प्रकाशित हो चुकी है।






जिन्हें कब्र में चैन नहीं आया


    इस सच को जानने के बाद शायद यकीन ना हो। भले ही पूरी दुनिया गीता  ,कुरान और बाइबल पर हाथ रख सच कहने को कह रही हो पर जब कोई सच कह रहा हो तो उस पर कोई विश्वास ना करे फिर उस सच को झूठ समझ कर ही मान लेना सही होता है। भले ही दुनिया भर में अंधविश्वास ,आडम्बर ,स्वप्न जैसी बातों पर विश्वास ना करें। क्योंकि यह कभी किसी के लिये इतना लाभकारी भी होगा यह किसी ने भी स्वप्न में भी नहीं सोचा था। कोई अभी तक अंधविश्वास पर विश्वास करने वालो को ठोकर ही मिली है। उस दिन मुधिर आया था सबको उनके बकाया पैसे और पासपोर्ट देने की बात करने लगा। यह भी कहा कि आने वाले हर महीने तनख्वाह सही समय और पूरी मिला करेगी। जो अभी छुट्टी में जाना चाहता है वह जा सकता है। कुछ पल के लिए ऐसी बातें सुन सबको लगा आज मदारी का दिमाग सनक गया है। कहीं किसी बंदर ने जोर का चाटा तो नहीं जड़ दिया जिसे इसका दिमाग सनक गया है। मुधिर ने सबको ऑफिस आने को कहा। मगर ऐसा सुन सबको लगा कि यह कोई चाल तो नहीं , मुधिर की। मगर सच स्वप्न की तरह होना शुरू हो गया। सही में सबको बैरक में पैसे से भरा पैकट आ गये। बोनस में उसी शाम सबके बेरक में पासपोर्ट मिले थे। सबकी हालत उस भारतीय डायमेंड बिजनेसमैन के कर्मचारियो की तरह हो गई थी जिन्हें डायमेंड बिजनेसमैन ने एकाएक फ्लैट और गाड़ी देकर खुशी से पागल कर दिया था। अब कितने तो छुट्टी ले घर नहीं जाना चाहते थे। उन्हें लगा कि अब सब सही होगा। मगर धनंजय दोबारा कोई गलती नहीं करना चाहता था। वह वापस आने की तैयारी करने लगा। दरअसल हुआ यूँ कि कम्पनी के मालिक की मृत्यु हो गई थी। कुछ दिनों से मालिक के बेटे के स्वप्न में उनके पिता कब्र में दिखाई दे रहे थे। बेटे  को कह रहे थे कि कब्र में वह चैन से नहीं रह पा रहे हैं। इसकी वजह वह यह बता रहे थे कि कम्पनी में काफी लोगों की सैलरी बकाया है। सबकी आत्मा मुझे कोस रही है।  इस स्वप्न ने बेटे की भी नीद खराब कर रखी थी। सो बेटे ने सबका बकाया पैसा देने का फैसला कर लिया था। अब अगर आप सब इस सच को ना पचा पा रहे हो तो इस सच को झूठ किस्सा समझ कर ही मान लीजियेगा।
   
जिन्होंने अपने को कभी नहीं कोसा

  धनंजय के वापस आने पर पूरे गाँव के लड़के उसके साथ मक्खी की तरह उसके आस-पास मंडराने लगे थे। कुछ तो यह जानने के लिए उत्सुक थे कि कितने पैसे कमा कर लाया है। कुछ उसके साथ सऊदी अरब जाने के लिए उसकी चिरौरी कर रहे थे। पर धनंजय तो छुट्टी बिताने नहीं परमानेन्ट आया था। जब पिता को यह बात पता चली तो वह बेटे को यही कह समझा रहे थे , ‘गाँव में क्या करोगे कम से कम वहाँ नौकरी से पैसे तो मिल रहे हैं। उसने अपने पिता को बस इतना ही कहा था ,‘‘आप सच से दूर हैं सच क्या है आप को पता नहीं है।‘‘ उसके बावजूद भी गाँव के लड़के उसे इतना तक कह रहे थे ‘‘अगर तुम नहीं भी जाओगे। तो हम सब को तो वहाँ भेजवा दो। हम भी कुछ कमा ले। बेटे के वापस आने से माँ बहुत खुश थी। बेटे के दुबले और काले पड़ गये शरीर को देख दुखी हो रही थी। माँ एक नजर में ही समझ गई थी कि बेटा विदेश में कभी खुश नहीं रहा। उस दिन जब वह हल ले अपने खेतों को जा रहा था कुछ अरब देश से वापस आये मित्र उसे देख मुस्कुराये थे। उसने भी इस मुस्कुराहट में पूरा साथ दिया था। व्यंग और तानों की मुस्कान नहीं थी यह आजादी की मुस्कान थी विकास की मुस्कान थी। जो अब शायद उनसे कोई नहीं छीन पायेगा। धनंजय ने जल्द ही छोटा सा भैसों का तबेला खोल लिया था।
   वह इस बात को समझ गये थे कि देश का विकास किसानों से ही हो सकता है। दुनिया को जिन्दा रहने के लिये अन्न की जरूरत है।
  उस दिन जब पलटन और धनंजय अपने खेतों को जोत रहे थे। उसी दिन पास वाले जमीन की नपाई चल रही थी। यह जमीन किसी और की नहीं तारकेश्वर  की थी। बेटा कनाडा जा रहा था बीजा के लिये पंद्रह लाख रूपयों की जरूरत थी। तारकेश्वर  जो हमेशा जमीन को अचल सम्पत्ति कहते थे। आज वही कह रहे थे जमीन खेत अचल सम्पत्ति नहीं होती।

   आज फिर पलटन को ईश्वर का गणित समझ नहीं आ रहा था कि गलती उसके बेटे ने की है। जो तमाम तकलीफ झेलने के बाद वापस आ गया है। या फिर तारकेश्वर  कर रहा है जो जमीन बेच बेटे को इतने बड़े़ देश भेज रहा है।


सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,
न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039 


 

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

कहानी - बद्दू : विक्रम सिंह





 हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कहानीकार विक्रम सिंह की कई कहानियों को इस ब्लाग में पढ़ चुके हैं। इनकी चर्चित लम्बी कहानी बद्दू की आज चौथी किस्त। यह कहानी मंतव्य में प्रकाशित हो चुकी है।

शहर से गाँव की तरफ पलायन करना

       एक बार फिर पलटन को भगवान का गणित नहीं समझ आया था। ठीक जब पलटन का बेटा विदेश की तरफ निकला था। उस के उपरान्त ही तारकेश्वर  के बेटे ने गाँव की जमीन में कदम रख दिया था। वह समझ नहीं पाया था कि इस बार गलती कौन कर रहा है। दरअसल खेत खरीदने के बाद तारकेश्वर  ने सोच लिया कि अब बहुत खेत लिखवा लिया हूँ। बेटे को गाँव में भेजने की योजना को पूरा करने में लग गये। सूट बूट में बाइक में घूमने वाला शहरी बेटा जब अपने मित्रो ;जिसमें से कुछ मित्र सरदार भी थे। दुखी हो गाँव जाने की बात बताता तो वह हंस पड़ते खास कर सरदार मित्र हंसते हुए कहते,’’उए कनाडा जा आस्ट्रेलिया जा, आ कि पेंड चल चलया।’’
’’अरे यार तुम लोग बुलाओगे तो चला आऊँगा।’’
’’अरे यार यह भी कोई बात हुई पला, तेरे ली कुछ करेंगे।’’

       यह वह सरदार मित्र थे जिनके मामा,चाचा कनाडा-इटली में कई सालों से रह रहे थे। कइयों को तो वहाँ की नागरिकता भी मिल गई थी।
सही मायने में मृत्युजय जब भी अपने मित्रो के साथ घूम फिर कर कई बार देर रात घर आता तारकेश्वर  गुस्से में कहते,’’उन सब के तो दादा परददा विदेश में कमा रहे हैं। यह सब भी वही चले जायेगे। तुम क्या करोगे। कुछ नहीं तो गाँव में खेती देख। आवारा घूमने से तो अच्छा है।’’

     मृत्युंजय भी अपने पिता की इस तरह की बात सुन सुन कर आजीज आ गया था। वह भी सोचता कम से कम गाँव जाने से इनसे तो पीछा छूटेगा।
मित्र गण उसे कहते,’’चल कोई नहीं गाँव ही चला जा वहाँ तुझे शहर की गोरी नहीं तो कम से कम गाँव की छोरी तो मिलेगी। उसी से मन बहला लेना।’’
बात भी वही हुई। गाँव में  मृत्युंजय और उसकी माँ ने रहना शुरू कर दिया।

     गाँव में  मृत्युंजय का बहुत मन लगा। खेतों में काम करती मजदूर लड़कियाँ उसे अच्छी लगीं। वह जब भी खेत में काम कर रही होती वह उनके दो गोलों के बीच के लकीर को देखता रहता। नजर इस तरह से अंदर तक गड़ा देता कि पूरे उभार का साइज पता चल जाये। यह सब देख वह मदहोश हो जाता।  वह मजदूर लड़कियों पर बेशर्मी से डोरे डालता रहता था। इस वजह से उसका खेत में खूब मन लगा रहता था। मगर माँ का एक पल भी मन नहीं लग रहा था। क्योंकि कई सवाल थे जिसका एक भी जबाब नहीं था। जो जबाब थे उसको कहना नहीं चाहती थी। आखिर क्या कहती बेटा को नौकरी नहीं मिली या फिर बेटा नालायक था। इधर माँ को लोगों के हर वाक्य के  भीतर जैसे छोटे-छोटे,कहे-अनकहे ताने छिपे लगते थे। सिर्फ गाँव तक सीमित ना रहीं बात अगर गाँव वालो को लगता कि यह शहर छोड़ गाँव खेती करने क्यों आ गया। वही बात शहर में भी होती थी। शहर में कुछ ना कर गाँव क्यों चला गया। उस वक्त तारकेश्वर को अपने गणित पर अफसोस होता था। वह बस इस ताक में रहते कि कही से भी कोई मंत्री संत्री का सोर्स मिल जाये तो पैसे देकर बेटे को नौकरी करवा दूंगा। माँ भी बेटे को कई बार टोकती बेटा काहे ना तू अपन सरदार दोस्त संग बात कर अमेरीका, कनाडा चल जात हवा।
’’माई जब वक्त आई तो हमउ चल जाइब।’’

मिल्क मैंन बनने की तैयारी
        जहाँ मृत्युजय के गाँव आते ही मजे लग गये थे। वही धनंजय की सऊदी अरब में पहुँचते ही मन उदास हो गया। वह रात के करीब 12 बजे एअरपोर्ट पहुंच गया था। उस वक्त उसे भूख लग रही थी। मगर अफसोस की उसके पास रियाल की जगह रूपया था जिसकी कोई वैल्यू नहीं थी। उसी वक्त एक मुस्लिम लड़का जो उसके साथ प्लेन में आया था। जो केरला से आया था। उसे बता दिया कि पैसे एक्चैंज करने के बाद ही चलंेगे। उसने उसे चाय और बिस्कुट खरीद कर दे दिया था। उसने उसे समझा दिया कि तुम फोन कर टेक्सी लेकर चले जाओ। मगर फोन करने पर यह बताया कि आप अभी ना आये हम सुबह में लेने आयेंगे। उस रात उसने वहीं काट ली।

          उस दिन जब वह अपने अड्डे पर पहुंचा तो उसे पूरी दुनिया बेरोजगार दिखी थी। उसे कई देश के लोग मिले थे। पाकिस्तान, यमन, बंगलादेश, श्रीलंका ,सिरिया, सुडान, नेपाल, फिलिपीन, इंडोनेशिया,सुमाली। उसे उस दिन यह बात समझ नहीं आई थी कि सभी देश एक दूसरे की थोड़ी सी जमीन हथियाने के लिये बॉर्डर पर गोला बारूद करते रहते हैं। क्यों नहीं बेरोजगारी जैसे विषय पर एकजुट होकर इसका समाधान निकालते हैं। सचमुच यह एक छोटी सी दुनिया ही थी। हर एक देश के अपने बेरक थे। पाकिस्तानी,भारतीय,सिरियाई इत्यादि सभी लोग बाग अपने अपने बेरक में रहते थे। मगर बेरक में भी अलग अलग धर्म के लोग अपने अपने  बेरक में रह रहे थे। धनन्जय भी अपने यूपी,बिहार के हिन्दू भाइयों के साथ रहने लगा। मगर हर एक का बेरक एक जैसा था और सबकी समस्या भी एक जैसी थी। सबकी मजबूरियां एक जैसी थी। और सब एक साथ उसका समाधान ढूंढ रहे थे। पहले रह रहे कुछ लड़कों ने धनंजय से बस यही कहा,’’क्यों आ गये यहाँ।’’

          पहले पहल धनंजय को इस सवाल से कोफ्त हुई। आखिर इन्सान इतनी दूर क्यों आता है? यह तो हर एक कोई जानता है। कुछ बातों के सवाल नहीं बनते। ऐसे सवाल करने वाला मूर्ख होता है। मगर वह इस सवाल के पीछे के रहस्य को समझ नहीं पाया था कि मूर्खो के बीच एक मूर्ख और आ गया है। धनंजय ने इतना ही जबाब दिया,नौकरी करने के लिए। लोगों  ने उस दिन उसे मजाक मजाक में बद्दू कह दिया था। वह उस दिन बद्दू का मतलब बस यही समझ पाया था कि शायद यहाँ के लोगबाग प्यार से लोगों को बद्दू कहते हैं। बद्दू बनने की प्रक्रिया शुरू हुई थी। पहले दिन उसे मुधिर सुपरवाइजर ने उससे पहले उसका पासपोर्ट ले लिया था। और उसे सिर्फ खुराकी के लिए दो सौ रियाल दे दिये थे। अब तक सभी कार्य करने वालों को बस तन्ख्वाह के नाम पर खुराकी के लिए चंद रियाल ही मिल रहे थे। खैर दौ सो रियाल मिलने पर वह जितना खुश हुआ था। उसे कहीं ज्यादा वह पहले दिन नौकरी कर दुखी भी हुआ था। उसे चिलचिलाती धूप में मशीन में तेल पानी के लिए खड़ा कर दिया गया था। जहाँ उसकी देह तपने लगी थी। ऊपर से मशीन की गर्मी उसे अलग ही सिजा रही थी। इतने भर से वह बचने के लिए वह पागल हो रहा था कि दूसरी तरफ कान फाड़ू मशीन की आवाज अलग से आ रही थी। एक तरफ जिस्म पक रहा था तो दूसरी तरफ कान फट रहे थे। जीभ सुख कर जुबान बंद सी हो जा रही थी। ऊपर से धूल की बारिश अलग से भींगो रही थी। उस दिन धनंजय यह सोच रहा था कि वह खेतों में सूरज उगने के पहले तथा सूरज डूबने के पहले दो घंटे काम कर वापस आ जाता था। सुबह जब सूरज उगने के बाद धीरे धीरे उग्र रूप ले लेता पूरा गाँव  वापस आ जाता और फिर जब सूरज सारा दिन खुद तपता हुआ ठंडा होने लगता तो सभी खेतो में दोबारा काम करने चले जाते थे। मगर यहाँ तो सूरज निकलने के पहले और डूबने तक तपना था। ऐसा लग रहा था सूरज यहाँ और उग्र गुस्से में प्रकट हो रहा था। तिस पर यहाँ पानी भी खरीद कर लेना पड़ रहा था। वह भी इतना महंगा था। लोग यहाँ  पानी के महंगे होने से रोते थे। यहाँ पेट्रोल सस्ता था। एक रियाल में एक लीटर पानी और चार लीटर पेट्रोल मिल जाता था।  ठीक भारत देश के उल्टा पानी सस्ता और पेट्रोल महंगा था। लोग बाग तेल महंगा होने से रोते रहते थे। पूरे भारत में तेल के दाम बढ़ने से  सभी चीजों के दाम बढ़ जाता था। मगर अफसोस  जिस भारत देश में गंगा से लेकर तमाम नदियाँ बह रही हो, हिन्दुस्तान में लोग जहाँ प्याऊ चलवाते थे.......कुंए,तालाब खुदवाते थे...। यहाँ प्रकृति व्दारा प्रदत्त जीवन के लिए अत्यावश्यक जल का बाजारीकरण कर विदेशी कम्पनियाँ लूट रही हैं। 
  
         जिस पैसो के हाथ में आने पर पल भर की खुशी हुई। उसी शाम रूम पार्टनरो को उसी हाथ से खुशी खुशी पैसे खुराकी के लिए दे दिये थे। क्योंकि उसी रात रूम पार्टनरो ने उसे खुराकी के लिए पैसे मांग लिए थे। और साथ ही किलो भर प्याज और चाकू दे, प्याज काटने के लिए कह दिया था। दिन भर धूप ने रूलाया और अब प्याज उसे अलग रूला रहा था। पूरे रूम में खाना बनाने की तैयारी के लिए कोई आटा गूंद रहा था कोई चावल बना रहा था कोई सब्जी काट रहा था। वह सोच में पड़ गया था क्या यही दिनचर्या  सऊदी अरब में बन कर रह जायेगी। इसी को नौकरी कहते हैं। क्या ऐसी ही नौकरी करने के लिये लोग बाग जीवन भर सघर्ष करते हैं। हम गरीब किसान के छह इंच का पेट भरने के लिए तो खेती ही ठीक है। जब बाबू जी ने भी नौकरी को इसी तरह झेला था तो गाँव आ गये। फिर अगर बाबू जी को खेती से इतना बैर था तो वह नौकरी क्यों नहीं कर पाये। आज उसे ऐसा लग रहा था अगर इतनी मेहनत खेतों में करते तो खेत भी सोना उगल देता। उसकी आँखे आंसू से भर गयी थी। पता नहीं चल पा रहा था कि प्याज ने रूलाया था या नौकरी ने। प्याज की प्लेट साइड कर वह बाहर आ एक बडे़ से टायर ;सम्भवत जो पे लोडर का टायर था। उस पर जा कर लेट गया। और आसमान के तारों को देखने लगा। कई तारों पर नजर जाती और हट जाती। हर एक तारा टिमटिमा रहा था। जैसे उसे कह रहे थे बेटा माँ रात जाग हम तारो को देख पूछ रही है। कि मेरा बेटा विदेश में खाना खाया या नहीं। उसे नीद तो आ जाएगी ना।

           करीब इसी तरह महीना भर बीता था। महीने भर बाद उसने एक सस्ता सा मोबाईल भी ले लिया था। वह भी खुराकी के पैसे को बचा बचा कर। अब तो हालात यह थे कि खुराकी के पैसे से घर पर फोन पर बात चीत में ही उड़ने लगे। कुछ कुछ हालत तो ऐसे थे उतने ही पैसे बाबू जी के भी बर्बाद हो रहे थे। हर बार माँ बस उसे यही पूछती,’’बेटा खाना खा लेले हवा’’। उसका जबाब हाँ में होता था। माँ यह सुन खुश हो जाती। फिर एक बार कहती, बेटा कब वापस आइबा। जैसे माँ कह रही हो बेटा कब इस गुलामी से आजाद हो वापस आओगे। जब धनंजय गाँव के लोगो के हालचाल लेता तो माँ इतना कहती, ’’बेटा, सब बस एक ही बात पूछेला । बेटा कितना डालर कमातवा ।’’दरअसल गाँव के लोग विदेश के पैसे का मतलब बस डॉलर ही समझते थे। वह यह नहीं सोच पाते थे कि हर देश की अपनी अलग करनसी होती है। यहाँ तक की कई अगुवा भी लड़की का रिश्ता लेकर आते और लड़की वालों से यही कहते लड़का डालर में पैसा कमा रहा है। कई बार तो गाँव के कई लड़के आपस में एक दूसरे को बाहर देश जाने की सलाह देते और उदाहरण कि तौर में धनंजय का भी नाम ले लेने लगे थे। देखा फलनवा भी चल गेल बाहर। सही मायने में हर एक कि जिंदगी मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसे थी। या यूँ समझीये सबको दूर के ढोल सुहावने लग रहे थे। सबको बस पैसे कमाने की ही धुन थी जल्द से जल्द अमिर बनने की क्योंकि बाप बड़ा ना भइया सबसे बड़ा रूपया। दो चार महीने बीतने के बाद भी तनख्वाह के नाम पर उसे बस खुराकी ही मिली थी। 1200 रियाल की नौकरी की तनख्वाह में उसे बस हर महीने चार पाँच सौ रियाल से ज्यादा नहीं मिले थे। उतने वक्त तक राशन दुकान से लेकर खुद के निजी खर्च ही इतने हो जाते थे कि कुछ भी नहीं बचता था। अब धनंजय भी उन लोगों की श्रेणी में आ गया जो पहले से अपनी मोटी तनख्वाह लेने के लिए बैठे थे। इसी चक्कर में उन्हें काम करते कई साल हो गये थे। हर महीने पलटन पैसे आने का इंतजार करते रहते पर हर महीने एकाउंट खाली ही जाता था। उसके मन में कई सवाल उठते थे बेटा शायद कमाई का पैसा देना नहीं चाहता। या वह कभी खूब मोटी रकम एक बार में ही एकाउन्ट में डालेगा। ऐसे वक्त प्रधानमंत्री ने पूरे भारत में हर लोगों के एकाउन्ट खुलवा दिये थे। सभी काले धन का आने का इंतजार कर रहे थे। जलन,दर्द, और अवसाद से भरी हुई दिनचर्या से पैसों वाली डायबटीज हो गई थी ऊपर से चिंता के घाव  शरीर के कई हिस्से में हो गया था। जो पैसे वाले इन्शुलिन ना मिलने के कारण सूख नहीं रहा था। धनन्जय अपने पिता को सच नहीं बताना चाहता था क्योंकि सच इतना कडवा था कि शरीर में आये पैसे की डायबटीस को इकदम से जीरो कर देगा। पिता मौत के मुँह में चले जायेंगे। कही इस कड़वाहट से बच भी गये तो सरकारी एम.बी.सी के चक्कर काटते काटते किडनी ,हार्ट भी खत्म हो जायेगा। अब तो हालात ऐसे थे कि जब भी मुधिर आता सभी मुल्कों के काम करने वाले लड़के एक साथ मिल काम छोड़ बैठ जाते और अपने पैसे की मागं करते। यह वही देश थे जो एक दूसरे से बार्डर में गोला बारूद दाग रहते थे। आज सभी मिलकर एक ही लड़ाई लड़ रहे थे,रूपया। मुधिर उन्हें धमकी देता अगर आप सब ऐसा करेंगे मैं आप सब को आप के मुल्क वापस भेज दूंगा। कई तो कहत,’’हाँ भेज दो’’ । मगर कई वापस काम पर चले जाते थे। वह यही सोचते कि कहीं ऐसा करने से उनके पैसे ना फस जाये। उस वक्त धनंजय का मन करता की इसके बकरे की तरह निकली दाड़ी को नोच डाले। धनंजय को लगा वह बेगुनाह होकर भी वह किसी जेल में आकर सजा काट रहा है। उसे ऐसा लगा कि उसे इस जेल से निकल कर वापस जाना है। वह सोच रहा था क्या है अगर वह गाँव में जाकर दूध बेचेगा। वह इस व्यवसाय को और बढाऐगा। आखिर अमूल जैसी कई कम्पनीयां दूध का व्यवसाय कर मिल्क मैंन बन सकती हैं। तो मैं कई भैेसे पाल कर दूध डेरी में सप्लाई करूं तो क्या बुरा है? आखिर दोनों तो दूध ही बेचेंगे। जरूरी नहीं कि नौकरी ही हर कोई करे। बाकी काम भी तो इंसान ही करते हैं। उसने एक संकल्प कर लिया था। कुछ तो ऐसे थे अपने मुल्क बिना पैसे के किसी भी कीमत पर वापस नहीं जाना चाहते थे क्योंकि इससे समाज में भारी बेइज्जती हो जायेगी। उसके भीतर भारत वापस जा व्यवसाय ;मिल्क मैंन बनने का सपना इस तरह लबालब भर गया कि वह फट पड़ने को आमादा हो गया।

           अगले दिन का सूरज उगा था और एक नई उम्मीद के साथ नई विकास की सोच के साथ, वह उस दिन काम पर नहीं गया ठीक कुछ लड़के भी नहीं गये। दुनिया में हर चीज गांधी वाद से नहीं मिलती,हक के लिए लड़ाई करनी पडती है। मुधिर की किसी भी धमकी का कोई असर नहीं हुआ । काम रूकता देख तत्काल ही बकाया सेलरी से कुछ सेलरी हाथों में थमा दी गई। क्योंकि इतने लडकों का दुबारा बीजा दे तो इसे ज्यादा खर्च हो जायेगा। मगर काम फिर भी बंद रहा वह सब अपनी आजादी चाहते थे। पिंजरे में बंद जानवर को कितना भी बढ़िया खाना हो पर दम फिर भी घुटता है। वह सब यह भी जानते थे कि उनके जाने के बाद इसी जगह फिर कोई आयेगा और बद्दू बनकर रह जायेगा। जब देश के नौजवानो को नौकरी की डोर दलालों के हाथ हो तो फिर देश कहाँ विकास कर सकता है। एक तरफ भारत को सबसे विकसित और शक्तिशाली देश बनाने की बात हो रही थी। भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे अब्दुल कलाम 2020 तक मानते थे कि भारत सबसे शक्तिशाली देश होगा। पर जब पूँजीवादी और नौकरशाह जैसी बातें आज भी विद्यमान हो और जब देश के नौजवानो की नौकरी की डोर दलालो के हाथो हो तो फिर देश कहा विकास कर सकता हैं। उल्टा एक दिन सब कुछ बिक जायेगा। मगर मुधिर ने पासपोर्ट देने से इन्कार कर दिया। उसने साफ कहा,’’ पैसे दे दिये हैं। अब चुप चाप काम पर निकल जाओ।’’

      उस दिन कुछ मित्रो ने सलाह बनाई कि लेबर कोर्ट चलना चाहिये। अगर दुनिया की सारी समस्या कोर्ट कचहरी जाने से खत्म हो जाती तो शायद ही इस दुनिया में कोई समस्या होती। समस्या तो और बढ़ जाएगी कितने सालों में इन्साफ मिलेगा कोई ठीक नहीं। बेहतर है कि हम काम करें और बीच-बीच में इसी तरह पैसे लेते रहें। वक्त देखकर वापस निकल जायेंगे।

        सब दोबारा काम पर लग गये। धनंजय को जो थोड़े बहुत पैसे मिले उसे उसने अपने पिता जी को भेज दिये थे। उस दिन पलटन खुश हो मोर की तरह नाचने लगा था मानों पैसों के बादल में मदहोश हो गया हो। पूरा गाँव उसे फटी नजरों से देख रहा था। शायद धनंजय को भी पिता का मोर की तरह नाचना अच्छा लगा हो। वह साल भर कुछ ना कुछ पैसे पिता जी को भेजता रहा। पलटन ने पुरानी खाल उतार फेंकी अपने को कोसने की वजाय मस्त रहने लगा। पलटन ने साइकल की जगह हीरो की एक स्कूटी खरीद ली। अब पलटन का नाम उन लोगों में आने लगा जिनके लड़के बाहर देश कमाने गये थे। गाँव भर के लोग कहते,’’ लडका विदेश में कमातबा,कौन कमी बा।’’गाँव के अधिकतर लोग अपने बेटे को बाहर जाने की सलाह देने लगे। घर में पिता को इतना सुखी देख घंनजय ने अपने को दुखी रखना ही मुनासिब समझा। अरबी मदारियों का वह बंदर बन गया। बंदर नाचता रहा पैसो के लिये। जब भी दो चार महीने की सैलरी हो जाती वह सभी मिलकर दाँत खिख्याने लगते अरबी मदारी कुछ पैसों के टुकड़े उनके पास फेंक देते। वह सब खुश हो जाया करते। क्योंकि अब वह इंसान कम और पिंजरे के जानवर ज्यादा हो गये थे।

क्रमश: ...............
सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,

न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039 
 


सोमवार, 21 दिसंबर 2015

कहानी - बद्दू : विक्रम सिंह



    हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कहानीकार विक्रम सिंह की कई कहानियों को इस ब्लाग में पढ़ चुके हैं। इनकी चर्चित लम्बी कहानी बद्दू की आज तीसरी किस्त। यह कहानी मंतव्य में प्रकाशित हो चुकी है।



सऊदी अरब जाने की तैयारी


   अब चूंकि पलटन का लड़का धनंजय पढ लिख कर बेरोजगार खेत में हल चला रहा था। मगर खेत से पैसे नहीं उगने थे। खेत में सिर्फ अन्न उगता था। उसी अन्न को खरीद कर अपना पेट भरने के लिए दुनिया पैसे कमाने के लिए पृथ्वी के हर कौने मे जाने के लिए तैयार थी जहाँ पैसा मिल सके जहाँ पैसो की भरपूर खेती कर सके। सो पैसो के लिए शहर में दूध बेचने जाया करता था। दूध दूह वर्तन में डाल होटल मे देता फिर रहा था। वह जब भी खेत में हल चला रहा होता पलटन को ऐसा लगता जैसे उसके दिल में कोई खंजर चला रहा हो। वर्तन में दूध ले जाते वक्त तो ऐसा लगता कि जैसे खंजर लगे पर कोई नमक छिड़क रहा हो। गॉव में ज्यादा तर जिनके पास नौकरी चाकरी नहीं थी। वह दूध ही बेचते थे। कु्छ ने पान,सिगरेट,खैनी की गुमटी या चाय की दुकान खोल ली थी। इक्के-दुक्के कुछ लड़के ऐसे भी थे। जो बाहर कमाने दुबई, सिंगापुर,सऊदी अरब चले गये थे। कुछ वापस आ गये थे। दुबारा खेती में लग गये थे। ऐसे लड़को के बारे मे गाँव के मड़ई,खेत से लेकर चाय की दुकान तक बस यही चर्चा थी। 

  अरे अब कमा लेले हवे अब काहे ला जाई। लगत बा विदेश में इन सब के मन ना लगत बा। अरे मन काही ना लगी हई जुक गवा में का बा,उहाँ बड़ बड़ सिनेमा हाल बा। एक से बड़-बड बजार बा,बस इन सब के मेहरारू के कोली ओर चोली में मन लगेला। साफ साफ यूं कहू जिती मुँह उतनी बातें थीं। खैर पलटन अक्सर उन लोगों से अपने बेटे के बारे में कहते जिनके लड़के सिंगापुर,दुबई,सऊदी अरब कमाने गये थे। अपने घरो में बड़े आराम की जिंदगी काट रहे थे। पलटन डर गये थे जो मुझसे गलती हो गई थी। उस गलती को दोबारा दोहरा कर बेटे की जिंदगी नष्ट नहीं कर सकते थे। ऐसे ही वक्त जब बेटे को नौकरी के हर जगह पलटन मदद माग रहा था। उसी वक्त किसी ने मदद के नाम पर बस इतना भर कहा था,लखनऊ,मुम्बई,दिल्ली में एजेंट कुल रहेले उहे कुल लड़कवन के विदेश भेजले। एजेंट से मिले से कही ना कही नौकरी मिल जाई।

   उसके बाद पलटन ने किसी से एक एजेंट का नम्बर भी ले लिया था। एजेंट का नम्बर मिलते ही पलटन ने बिना देर किये। उसे फोन लगा दिया। पलटन ने एजेंट से इधर उधर की बात कर अपने बेटे के बारे में यह बताया की बेटा,बी.ए पास है। मगर एजेंट को बी.ए पास से कुछ लेना देना नहीं था। उसने पूरी बात सुनी और कहा,  हाँ तो लड़का काम क्या जानता है

    इस सवाल ने जैसे पलटन को आसमान से धरती पर फिर धरती के नीचे समा दिया हो। जब नौकरी काम जानने वालों को ही मिलती है तो क्यों सरकार फालतू का बी.ए,बी.कॉम पढ़ा रही  है। जमाना अब इतिहास, भूगोल का नहीं रह गया है। जी काम तो कुछ नहीं जानता है। बस बी.ए पास है।

तब तो लड़के को हेल्पर,रिगर पोस्ट में भेज सकते है।
सुपरवाइजर में काम नहीं है
कोई टेक्निकल पढाई है। तब कुछ हो सकता है।
जी नहीं ऐसा तो कुछ पढ़ा नहीं है।
 तब तो नहीं हो सकता है। देखिए अभी मेरे पास सउदी अरब मे हेल्पर की रिक्यारमेंन्ट है। देर करने से यह भी खत्म हो जायेगा। अगर आप लड़के को भेजना चाहते है तो फिर कुछ दिन में दिल्ली आ जाये। भेजने के लिये कम से कम 70 हजार लगेगा। 1500 रियाल सेलरी होगी।
ठीक है हम आप को बताते हैं।

   पलटन ने यही सोचा कि एक वक्त उनको भी कोलियरी में लोडर की नौकरी मिली थी। बाद में सब वहाँ बाबू हो गये। इंसान को पैसे कमाने से मतलब हैं। मगर इस समय तो पलटन के पास जहर खाने के भी पैसे नहीं थे। अगर था तो बस पाँच बीघा जमीन थी। बार बार नजर बस उधर ही जा रही थी। क्योंकि उधार तो वह पहले ही कईयों से ले चुका था। अभी तक धीरे धीरे वापस कर रहा था। अब अभी पहला ही कर्ज उतरा नहीं था तो नये तरीके से कर्ज के बारे में सोचना भी गुनाह था। आखिर किस मुँह से वह लोगो से कर्ज मागते। बस घड़ी घड़ी उसे अपनी जमीन ही नजर आती थी। मगर पलटन ने भी सोचा आखिर इंसान की पहचान भी दुख के समय होती है। कुछ ऐसे मित्र जो हर शाम पलटन के साथ ताड़ी पिया करते और उस वक्त बड़ी बड़ी छोड़ते अब उन्हें लगने लगा कि क्यों ना उन सब को आजमा लिया जाये। मगर ऐसा भी नहीं था कि सभी ताड़ी पीने वाले दोस्त उसके पैसे वाले ही थे। कुछ तो इनमें से ऐसे भी थे जो खुद हमेशा मदद के लियेे हाथ बढ़ाये रखते थे। उस दिन जब वह ताड़ी पी रहा था। उसने अपने मित्र से कुछ पैसे की मदद मांगी। वह यह सुनते ही मित्र बोला, तुहार के पैसन की का जरूरत पड गइल रे।

दूसरे ने - जो हमेशा दूसरो से पैसे मांगते हैं ,‘ हई ला जब इ कुल के ई हाल बा त हमन लोग के का होई।
पलटन ने मित्र से कहा,‘ दरसल हम सोचत हई बेटा के बाहर भेज दी कमाये खतिर।
कहा हो,कहा भेजवा बच्चवा के
सऊदी अरब
भक से ताड़ी दूबारा गिलास में उझलते,‘हाय तनी मरदवा। मुम्बई में बिहारी कुल के तो छोड़त नेखे। मुस्लीम के बिच में कहा बेटवा के भेजत बाड़े। साला वहाँ तो आदमी के बकरा जैसन काट डालल जाला।

    पलटन उन सब की बात अब सुनना नहीं चाहता था। वह समझ गया कि पैसे ना देने के यह सब बहाने हैं। उस दिन और ज्यादा ताड़ी पी वहाँ से उठ कर चल दिया था। पलटन के दिमाग में मित्र की बात ने हलचल तो जरूर  पैदा हो गई। पर पलटन ने मन ही मन कहा नो रिस्क नो गेम।
बार बार जहाँ नजर जा रही थी निशाना भी वहीं लगा। आखिर कार दुखी होकर एक बीघा खेत तारकेश्वर  को बेच दिया। तारकेश्वर  ने खुश हो एक बीघा खेत खरीद लिया।

    जब घर में सऊदी अरब जाने की बात होने लगी। धनंजय के लिए सऊदी अरब की नौकरी  किसी लड़के लड़की की जैसे पहले प्यार का पहला एहसास,पहला स्पर्श, पहला चुम्बन,जहाँ डर, शर्म और बेचैनी कुछ ऐसा ही था। या फिर उस नौजवान लड़की की तरह जिसकी शादी की बात पक्की होने पर वह शर्माती है। अक्सर ससुराल जाने के नाम से सोचती है। कैसे होंगे वहाँ के लोग। घर जैसा ही प्यार मिल पायेगा। कभी सऊदी अरब जाने की बात से डरता कभी वहाँ की कल्पना कर खुश हो जाता था।

   पैसे आते ही पलटन ने बेटे को बाहर भेजने के लिए पासपोर्ट बनने दे दिया। वह भी तत्काल में। जो काम दो पैसे में होता अब वह काम जल्दी की वजह से चार पैसे ज्यादा लग रहे थे।
पूरी तैयारी के साथ पलटन अपने बेटे धनंजय के साथ मुंबई इन्टरव्यू के लिए पहुँच गया था। इस विशालकाय समुन्दर में कई लोग विदेश जाने के लिए गोता लगा रहे थे। बड़ी-बड़ी वेल,सार्क जैसी मछलियाँ इन्हें निगलने के लिए तैयार थी। यह वह दिन थे जब देश के प्रधानमंत्री विदेश जापान,कोरिया,जर्मनी,अमेरिका आदि देश का भ्रमण कर रहे थे। सभी देश भारत में अरबों रूपये इनवेस्ट करने को बेचैन थे। ऐसा लग रहा था जैसे पूरे देश में रोजगार का जाल बिछ जायेगा। सभी बेरोजगार एक दिन इस जाल में ऐसे फसेंगें कि कभी निकल नहीं पायेंगे।

   पहले राउन्ड इन्टरव्यू होने के बाद एजेन्ट ने दूसरी जगह इन्टरव्यू के लिए भेज दिया। वहाँ दो चार सवाल के बाद उसकी सेलरी 1500 रियाल की जगह 1200 रियाल लगा दी गई। 800 पल्स 200 पल्स 200 हो गई। आगे इंक्रीमेंन्ट होने की बात कह दी गई। सही मायने में पलटन को रियाल शब्द ही रूपयों से सुनने में कही ज्यादा लग रहा था। ऐसा लगता था। जो दुख रूपये,पैसे दूर नहीं कर पाये वह रियाल कर देगा।

   मॉ को बेटे की भेजने की तैयारी देख अपनी बेटी की विदाई याद आने लगी थी। आज वह यह सोच नहीं पा रही थी कि आखिर बेटी हो या बेटा कोई तो नहीं रह पाता माता पिता के पास फिर क्यों दुनिया हर समय बेटा ही चाहती है। जैसे जवान बेटी को घर नहीं रख सकते वैसे ही तो जवान बेटा अगर माता पिता के साथ रहने लगे तो लोग उसे नालायक से कम नहीं आंकते हैं। कष्ट तो दोंनो का समान है। उस दिन जाते वक्त उसने अपने बेटे के हाथ में उन हजार रूपयों को  पकडाये  थे जिसे माँ अक्सर कंजूसी कर जमा करती थी।              क्रमश: ...............
सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,

न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
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गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

संस्मरण - लौट के बुद्धू घर को आए (भाग-दो)-पद्मनाभ गौतम

 

कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए की  चौथी किस्त-- । आपके विचारों की प्रतीक्षा में-
                                                                                     सम्पादक -पुरवाई


  जब तक हम फैसला कर पाते, दक्षिण भारतीय अफसर उन स्थानीय लड़कों के साथ ही चम्बा के लिए निकल गए। अब साथ देने के लिए बच गया था नौजवान मैकेनिकल इंजीनियर फहीम इकबाल। हमने एक-दूसरे को देखा, मन में चम्बा चलने का संकल्प किया और निकल पड़े। प्रातः के आठ बजे थे। भरमौर के उस मार्ग में उस दिन चार-चार फुट ऊँची बर्फ गिरी हुई थी। थोड़ी देर के लिए बर्फ बारी बन्द थी। मैंने जो जूते पहने थे वे चमड़े के जूते थे, दफ्तर जाने वाले। दो-तीन किलोमीटर पैदल चलने पर ही मेरे जूतों में बर्फ घुस गई तथा मोजे भीग गए। हमें विश्वास था कि भरमौर से खड़ामुख तक पैदल चल कर हमें कोई टैक्सी मिल जाएगी। खड़ामुख की समुद्र तल से ऊँचाई तकरीबन 1200 मीटर है अर्थात् भरमौर की अपेक्षा आधी। इस ऊँचाई पर भारी बर्फबारी की संभावना नहीं थी। लगभग अढ़ाई घण्टे पैदल चल कर सावधानी पूर्वक चलैड़ धारपार करते हुए हम खड़ामुख पहँुचे। अब तक मेरे जूते पूरी तरह से भीग चुके थे।

  खड़ामुख में बर्फ की परत उतनी मोटी नहीं थी। वहाँ लगभग आधा फुट बर्फ रही होगी। पर खड़ामुख में हमें वह अपेक्षित नहीं मिला जिसका हमें भरोसा था। वहाँ कोई भी टैक्सी नहीं थी जो कि हमें चम्बा पहुँचाती। बर्फ जो हमारे कंधो से होते हुए रुई के फाहों की तरह हमारे ऊपर गिरी थी, उसने देह की गर्मी से पिघल कर अब तक हमें भिगोना आरंभ कर दिया था। यद्यपि हमने जैकेट पहन रखी थीं, परंतु धीरे-धीरे जैकेट की बाहरी तह पानी से भीग रही थी। पिछले तेरह किलोमीटर तक चार फुट से लेकर कम-से-कम घुटनों तक ऊँची बर्फ में चलने के कारण हमें थकान महसूस होने लगी थी। परंतु अभी हमें आगे आने वाली कठिनाइयों का आभास नहीं था। आने वाले चौबीस घण्टों में हमारे साथ जो होने वाला था, उसका हमें अभास होता, तो इस समय हम अपने आपको पूर्ण स्वस्थ्य महसूस कर रहे होते।

   टैक्सी न मिलने के कारण हम दुविधा में थे। खड़ामुख से उत्तर की ओर होली-बिजौली ग्राम जाने वाले रास्ते पर कोई तीन किलो मीटर आगे हमारी कम्पनी का एक होस्टल था। चाहते तो हम वहाँ रुक सकते थे। पर मेरा साथी फहीम हिम्मती था। वह आगे चलने को तैयार था। मेरे उपर तो विपदा ही थी। अतः हमने धीरे-धीरे आगे चलने का निश्चय किया। भरोसा एक ही था, आगे कहीं-न-कहीं हमें टैक्सी मिल जाएगी। 

   अब हम भरमौर के ऊँचे पहाड़ों से लगभग 1200 मीटर नीचे उतर कर रावी के किनारे पर थे। भरमौर की ओर से बहकर आने वाला बुधिल नाला रावी नदी के साथ खड़ामुख में मिलता है। खड़ामुख पर रावी नदी के उपर बने पुल से दाहिने हाथ को एक रास्ता चम्बे को निकलता है तथा एक रास्ता बाँए हाथ को होली-बिजौली को चला जाता है। इस संगम से अब हमें चम्बा की ओर पैदल चलना था। रावी के बाँए तट के साथ-साथ। यहाँ सड़क रावी नदी से कुछ ही ऊपर स्थित है, जबकि कृशकाय बुधिल नाला तो भरमौर-खड़ामुख मार्ग से एक पतली चाँदी की रेखा जैसा ही दिखाई देता है। चम्बा से भरमौर की कुल दूरी साठ किलोमीटर से कुछ अधिक है जिसमें से तेरह किलोमीटर की दूरी हम अब तक तय कर चुके थे। अभी लगभग सैंतालीस किलोमीटर की दूरी और तय की जानी थी और मन में यह संकल्प था कि शाम तक हमें हर हाल में चम्बा पहुचना है।

   इस समय सुबह के साढ़े दस बज रहे थे, परंतु सूर्य बादलों की या कह लीजिए धुंध की ओट में था। हमने धीरे-धीरे चलना आरम्भ कर दिया। भरमौर से चम्बा के मध्य औसतन हर पाँच किलोमीटर पर एक गाँव पड़ता है। हमने तय किया कि एक-एक गाँव को हम अपना लक्ष्य बनाकर धीरे-धीरे पैदल चलेंगे। पहाड़ों पर लम्बी यात्रा करना हो तो धीरे-धीरे बिना रूके चलते जाना सबसे अच्छा तरीका है। यदि आप जल्दी से रास्ता तय करने के फेर में पड़ गए तो कुछ समय के पश्चात् थकान घेर लेगी जिससे उबर पाना मुश्किल है। हमें उम्मीद थी कि इस बीच कोई न कोई सवारी गाड़ी हमें मिल ही जाएगी जो हमें चम्बा पहुँचा देगी। इस भरोसे पर पैदल चलते हुए हम अपने पहले पड़ाव दुर्गेठी गाँव पहुँचे। दिन के बारह बज रहे थे। भूख लगने लगी थी। वैसे सुबह हमने थोड़ा नाश्ता किया था, किंतु अब तक ठण्ड और थकान से वह पूरी तरह पच गया था। गाँव की समस्त दुकानें बन्द थीं। बर्फ दोबारा गिरने लगी थी। चम्बा से सारा आवागमन अवरुद्ध हो गया था। कुछ आगे चलने पर हमें एक चाय की गुमटी खुली मिली। गुमटी वाले के पास चाय थी और साथ में कचौरी। वैसी कचौरी नहीं जैसी राजस्थान में या बनारस में मिलती है, अपितु बेकरी में पकी एक उत्तर प्रदेशीय खस्ते के जैसी चीज। मैदे की बनी यह कचौरी चाय में डालते ही घुल जाती है तथा मुँह में पहुँचते तक लुगदी बन जाती है। ठण्ड और भूख से हम निढाल हो रहे थे। हम कई कप चाय पी गए तथा ढेर सारी कचौरियाँ खा लीं। यह लगभग दोपहर के खाने जैसा ही था। कुछ देर तक हम दुकान की भट्टी के सामने पसरे रहे, लकड़ी की गर्मी ने हमें सुस्त कर दिया था। जी चाहता था कि वहीं आराम से पड़े रहें। हम अभी ताजा-ताजा याद किया सिद्धांत भूल गए थे कि लम्बी पहाड़ी यात्रा में रुकने से थकान हावी हो जाती है। अभी तक तो हमने केवल अठारह किलोमीटर का मार्ग ही तय किया था। हमें और आगे जाना था। मरता क्या न करता, हम न चाहते हुए भी उठे तथा पैदल चलने लगे।

   दुर्गेठी का पहला पड़ाव पार कर अब हमारा लक्ष्य था लूणा गाँव। हमने सोचा था कि 1200 मीटर की ऊँचाई पर बर्फबारी होने का प्रश्न नहीं उठता, पर आश्चर्यजनक रूप से हल्की-हल्की बर्फ गिरती रही। तथापि यहाँ पर बर्फ की परत उतनी मोटी नहीं थी। लगभग एक बजे हम लूणा पहुँचे। अपेक्षित रूप से गाँव की एक भी दुकान नहीं खुली थी। समय तेजी से गुजर रहा था। चूँकि सूर्य निकला नहीं था, अतः प्रतीत हो रहा था कि दिन अभी बाकी है। अभी हमने आधा मार्ग भी पार नहीं किया था और दिन आधे से अधिक निकल गया था। परिस्थितियाँ पूरी तरह से विपरीत थीं। हमने सोचा था कि हमें मार्ग खुला मिलेगा, परंतु मार्ग अब तक खुला नहीं था। अब ठण्ड भी बढ़ रही थी। तभी हमें पीछे से आशा की एक जोत दिखाई दी।

   वह आशा की जोत थी एक मारुति जिप्सी गाड़ी। हमारे चेहरे खिल उठे। हमने बेसब्री के साथ उस गाड़ी को रुकने का इशारा किया। अगली सीट पर बैठे रोबदार टीकाधारी सज्जन के इशारे पर चालक ने गाड़ी रोक ली। हमने उन्हें बताया कि हम प्रातःकाल भरमौर से पैदल चले हैं तथा हमें चम्बा जाना है। गाड़ी की पिछली सीट खाली थी, किंतु उन सज्जन ने असमर्थता दिखाते हुए कहा कि आगे उनके और आदमी है, जिन्हें उनके साथ गाड़ी में जाना है। हमारे अनुनय करने पर भी उन्होंने असमर्थता दिखाते हुए गाड़ी आगे बढ़वा दी। इस तरह वह आशा की पहली किरण धूमिल होते होती क्षितिज में विलीन हो गई। हम असहाय उसे जाता देखते रहे। आखिरकार हम दोबारा आगे चल पड़े तथा अगले गाँव दुनाली पहुँचे। अपरान्ह के अढ़ाई बज रहे थे। हम लगभग 23 किलोमीटर पैदल चल चुके थे। दुनाली में भी सारी दुकानें बन्द थीं। अब मेरी देह थकान से टूट रही थे। पर अपने आप को थका हुआ मान लेना पराजय थी। दुनाली में कुछ लोग सड़क के साथ लगी एक दुकान के सामने बैठे आग ताप रहे थे। हमने कुछ देर तक हाथ-पैर सेंके तथा जूते और कपड़े सुखाने प्रयास किया। कुछ आराम करके हम फिर से आगे चलने के लिए तैयार हो गए। आज हम चम्बा पहुँच पाएँगे या नहीं, पहली बार मन में यह शंका हुई। हमें अब तक कोई गाड़ी नहीं मिली थी।

   दुनाली में किस्मत ने हमारा साथ दिया तथा हमें पहाड़ी रास्ते से आता एक कैम्पर दिख गया। हमारी बाँछे खिल गईं। हमने उस कैम्पर वाले से अनुनय की तो वह हमें अपने कैम्पर के डाले में बिठाने को तैयार हो गया। उसे चम्बा जाना था। चम्बा का नाम सुनकर हम झूम उठे- अब से दो घण्टे में हम किसी होटल में आराम कर रहे होंगे यह सोचकर। वह एक सिंगल केबिन कैम्पर था, जिसका केबिन भरा हुआ था। हमें उसके डाले पर बैठना था। पर वह डाला हमें पुष्पक-विमान से कम नहीं लग रहा था। अब तक केवल हमारे कपड़े ही नहीं भीगे थे, अपितु अब ठण्ड से हमारी चमड़ी भी सिकुड़ना आरम्भ हो गई थी। अब बर्फ नहीं गिर रही। अब यह वर्षा थी। बूंदा-बांदी ने हमें तर कर दिया था। पर हमें तो किसी तरह से एक बार चम्बा पहुँचना था, बस। फिर तो सब ठीक हो जाना था।

   पर अभी सब कुछ ठीक नहीं था। जब हम दुनाली से आगे गैहरा गाँव पहुँचे, तो उस कैम्पर वाले को किसी ने खबर दी कि आगे रास्ता बन्द है। उसने आगे जाने से मना कर दिया। कोई दूसरा चारा नहीं, अब हमें फिर से पैदल चलना था। हम कुल पाँच किलो मीटर ही उस कैम्पर में जा पाए। चम्बा तक लगभग तीस किलो मीटर का मार्ग अब भी बाकी था। हमारे पैर ठिठुर कर सुन्न हो रहे थे। पर अब आगे बढ़ने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं था। गाँव में रुकने की सुविधा नहीं थी। यदि होती भी, तो दिन रहते रुकना हमारी पराजय थी।
 
   जब हम गैहरा से धरवाला के लिए पैदल चले तो निढाल थे। पर घिसटते ही सही, चलना हमारी मजबूरी थी। तीन किलोमीटर आगे पहुँचने पर देखा कि सड़क भूस्खलन के कारण पूरी तौर पर कट चुकी थी। लगभग तीस मीटर का मार्ग कोई पैंतालीस अंश के कोण से कट कर नीचे बीस मीटर तक फैला हुआ था। उस पर कोई फुटपाथ भी नहीं था। ग्रेफ की रोड मेंन्टेनेन्स टीम के आने का तो प्रश्न ही नहीं था। ढलान के पूर्व ही वह जिप्सी खड़ी थी, जिसमें वह टीका धारी सज्जन बैठ कर गए थे। जिप्सी में केवल ड्राईवर था। पूछने पर पता चला कि वह जनाब भरमौर के ए.डी.एम. लठ्ठ साहब थे जो रास्ता बन्द होने के कारण निकल आए थे तथा उन्हें लेने के लिए भूस्खलन के पार दूसरी गाड़ी आई थी। तो वो उस जहाज के कप्तान थे, जिसे हम भी अभी छोड़ कर आ रहे थे। यात्रियों से पूर्व कप्तान ने जहाज छोड़ दिया था।
 
   अब हमें मजबूरन उस भूस्खलन से बने ढलान को पार कर आगे जाना था। फिसलने पर सीधे रावी में जाकर गिरते। ढलान पूरी तरह से फिसलन भरी थी। भय से हमारी जान निकल रही थी। किसी प्रकार से उकड़ूँ बैठ कर हमने वह रास्ता पार किया। भय से मैंने ईश्वर को याद करना आरंभ कर दिया, वहीं फहीम इकबाल कुरान की आयतें पढ़ने लगा। लगभग 30 मीटर का वह स्खलन हमने मौत से खेलते हुए पार किया।

    जब मैं भूस्खलन से कटी जमीन को किसी तरह पार कर के दूसरी ओर पहुँचा तब मुझे बड़ी जोर से गड़गड़ाहट की आवाज सुनाई दी। मैंने पीछे मुड़ करे देखा तो तेज गति से एक बड़ा सा पत्थर ऊपर से धड़धड़ाता हुआ नीचे रावी नदी में जा कर गिरा। चंद सेकण्डों पहले मैं उस स्थान पर था, जहाँ से वह पत्थर लुढ़का था; उसका आयतन दो-तीन घनमीटर से कम न रहा होगा। यदि मैंने थोड़ी भी देर की होती, तो वह पत्थर मुझे सीधी रावी नदी में ले जाकर पटकता, और तब ऐसी कोई संभावना नहीं थी कि मैं जीवित बच पाता।

    बहरहाल महामृत्युंजय मंत्र व आयत-उल-कुर्सी पढ़ते हम धरवाला गाँव पहुँचे। दुर्भाग्य कि धरवाला में भी एक भी दुकान नहीं खुली थी, जहाँ हम चाय इत्यादि पी सकते। शाम के साढ़े चार बज रहे थे। इसके पश्चात् हमारे पास बस एक-डेढ़ घण्टों का ही दिन बचा था तथा हम अभी राख गाँव भी नहीं पहुंचे थे। चम्बा राख से बीस किलोमीटर दूर है। मतलब साफ था कि आज हम चम्बा नहीं पहुँच पाएंगे। वह एक सूरत में ही सम्भव था, जब कि हमे राख से कोई साधन मिल पाता। पर अब हमारा यह विश्वास टूटने लगा था कि कोई गाड़ी हमें चम्बा पहुँचाएगी।

   समय कम था अतः हमने धरवाला में रुक कर समय बिताना ठीक नहीं समझा। अब हम फिर से चलने लगे थे। इस बार बर्फ ने वास्तव में कीर्तिमान बनाया था। धरवाला तक बर्फ पसरी हुई थी। अर्थात् भरमौर से लगभग पैंतीस किलोमीटर दूर तक। और उस बर्फ में हम भीगते हुए काँपते बदन वे पैंतीस किलोमीटर चल चुके थे। राख पहँुचकर यदि कोई साधन नहीं मिला तब। प्रश्न बड़ा था। उससे बड़ा सवाल यह था कि हम रुकेंगे कहाँ पर। यदि इन भीगे कपड़ों व जूतों को सुखाने का मौका नहीं मिला तो उस बर्फानी रात में हमारा जाने क्या होने वाला था।

                                        क्रमशः.......
पद्मनाभ गौतम
सहायक महाप्रबंधक
भूविज्ञान व यांत्रिकी
तीस्ता चरण-टप् जल विद्युत परियोजना
पूर्वी सिक्किम, सिक्किम
737134

संपर्क -
द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा
स्कूल पारा, बैकुण्ठपुर
जिला-कोरिया (छ.ग.)
पिन - 497335.
मो. 9425580020

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

कहानी - बद्दू : विक्रम सिंह



  हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कहानीकार विक्रम सिंह की कई कहानियों को इस ब्लाग में पढ़ चुके हैं। इनकी चर्चित लम्बी कहानी बद्दू की आज दूसरी किस्त। यह कहानी मंतव्य में प्रकाशित हो चुकी है।

तारकेश्वर  का गणित

  दरअसल सिर्फ पलटन की ही नहीं गाँव में और भी कई लोगो से तारकेश्वर  ने खेत खरीदा था। ऊपर वाले का गणित नहीं था यह तो तारकेश्वर  का गणित था कि जमीन अचल सम्पत्ति होती है। जब भी जायेगी ज्यादा पैसे देकर जायेगी। यह जितनी पुरानी होगी इसका दाम बढ़ता जायेगा। जब जीवन में नौकरी चाकरी नहीं रहेगी खेती कर खाया जायेगा। सही मायने में  अपने बेटे मृत्युंजय की उन्हे बहुत चिंता थी। क्योंकि बेटा पढ़ने लिखने में कमजोर तो था ही साथ में एक नम्बर का खुरापाती भी था। वह किसी की जल्दी बात सुनता नहीं था। जलते तवे की तरह वह हमेशा गुस्से में रहता था। ग्रेजुऐसन पूरी करने के बाद कहीं नौकरी मिल नहीं रही थी। तारकेश्वर  हमेशा यही सोचते जब अनुकम्पा पर नौकरी हो रही थी तब बेटे की उम्र ही  छोटी थी अब जब बेटे की नौकरी करने का वक्त आया तो सरकार ने अनुकम्पा पर नौकरी देना बंद कर दिया था। जिस दिन भी दोबारा अनुकम्पा पर नौकरी मिलना शुरू होगी उस दिन ही बेटे को नौकरी दे देंगे। मगर वह यह जानते थे कि यह बस एक स्वप्न है जो कभी पूरा नहीं होगा। क्योंकि वह जानते थे आखिर उसके जोडीदार सब भी तो इस दिन का ही इंतजार कर रहे हैं। फिर सरकार किस किस को नौकरी देगी। कुल मिला जुलाकर नौकरी अब भेड़ और गधो को नहीं मिलती थी। नौकरी अब होनहार अर्थात लोमड़ी की तरह चालाक लोगों को ही मिलती है। हाँ अगर कोलियरी में किसी की नौकरी हो रही थी। वह भी उन किसान भाई की जिसकी जमीन के नीचे सरवर से  कोयला मिल जा रहा था। 
    कुल बात की एक बात थी अब तो हर कोई यही सोच रहा था। खेत ऊपर से चाहे उपजाऊ हो या ना हो ,सोना उगले या ना उगले मगर अंदर में काला हीरा होना चाहिये। पैसे भी मिलेगे और नौकरी भी। कुछ तो ऐसी खण्डहर जमीन थी जहाँ कभी अंग्रेजो ने कोयला निकाला था। उस जमीन सें भी गरीब ,माजी ,डोम ने अपने कोदाल ,फावड़ा और सबलो से उस जमीन को खुद कर कोयला निकालना शुरू कर दिया था। देखते ही देखते यही काम गाँव के कई किसान भाईयो ने भी अपनी जमीन को खोदना शुरू कर दिया। क्योंकि उन्हें भी पता चला कि जमीन के अंदर ही अंदर सुरंग तैयार होने लगे है। हर तरफ बस साबल ,कोदाल ,कोयले की झुडी टोकरी दिखने लगा था। लोग बाग बैलो की जगह ट्रैक्टर ट्राली खरीदने लगे थे। जिनके पास बैल रहे उन लोगो ने इसे कोयले की बैल गाड़ी बना डाला था। इंट भट्टो से लेकर फैक्ट्ररियों तक फिर कई तरफ साइकिल के डंडो के बीच कोयले के बोरो को भर कर ले जाते हुए देखा जाने लगा। हर बेरोजगार गरीब के लिये यह एक रोजगार की तरह हो गया। सरकार इस तरह अपनी सम्पत्ति का गबन होता देख पुलिस प्रसाशन के व्दारा रोकने की कोशिश करने लगी। जब पुलिस आई तो देखते ही देखते कोल माफियायों की फौज तैयार हो गई। आधे से ज्यादा किसान मजदूर कोल माफिया बन गये। अंत में सरकार भी बोट बैंक की खातिर चुप हो गई। पुलिस को बैग भर-भर नोटो की गड्डी मिलने लगी। यहाँ के लोग कोयले से सने काले जैसे खुद कोयला हो गये हो। अलग ही प्रजाति के दिखने लगे। तारकेश्वर  का लड़का कुछ काम ना कर इधर-उधर भटक रहा था तो उसने एक दिन यह सोचा की क्यों ना गाँव भेज दिया जाये। अब आखिर इतनी जमीन का करेगे क्या कम से कम खेती तो करवायेगा। कहते हैं जब तारकेश्वर  गाँव से रानीगंज कोयला अंचल आया था उस वक्त उसके पास बँटवारे के बाद सिर्फ पाँच बीघा जमीन आई थी। अब खेत लिखवाते लिखवाते जमीन करीब पच्चीस बीघा हो गई थी। वैसे भी अब तारकेश्वर  की नौकरी भी थोड़ी ही रह गई थी। इस वजह से वह चाहते थे कि बेटा खेती में मन लगा ले। मगर जब यह बात पत्नी से साझा किया तो पत्नी ने साफ कहा , दुनिया गाँव छोड़ शहर को भाग रही हैं। कुछ तो बाहर देश को जा रहे हैं। आप हम सबको गाँव भेजना चाहते हैं। वैसे भी बेटे को खेती के बारे में पता ही क्या है
    तारकेश्वर  अपनी पत्नी की बात से पूरा चिढ़ जाते। चिढ़ने का मुख्य कारण यह भी था कि वह सोचते , जितनी जमीन गाँव में है उतनी अगर इस कोयला अंचल में होती तो जिंदगी कुछ और होती। अब तो पूरे गाँव के लोग भी बस यही सोचते कि उनकी जमीन कब कोयले खद्यान के अंदर आ जाये। उन दिनों जब कोयला अंचल में जमीन कौडी के भाव में मिल रही थी। तब तारकेश्वर  को यही लगता था इस धूल धक्कड़ वाली जगह में जमीन ले कर क्या करेंगे। तब उन्हे बस अपने गाँव की जमीन सबसे उपजाऊ और उपयोगी लगी थी। क्या गाँव में लोग नहीं रहते हैं। अगर अब खेती नहीं करेगा तो फिर क्या करेगा। मैंने उसे कौन सा रोका है कुछ करने के लिये कुछ करे तो सही सारा दिन बस दोस्तो के साथ आवारा गर्दी करता फिरता है। वैसे भी नौकरी कितने दिन बची है।
जब तक उसे खेत खलिहान के बारे में पता नहीं होगा वह खेती कैसे कर लेगा।
   अरे भाग्यवान खेत में हल चलाने को उसे कौन कह रहा है। यह पुँजीवादी युग है कुछ करने के लिए सीखना जरूरी नहीं होता बस पैसे की जरूरत होती है। अब अम्बानी को देखो किस चीज का व्यवसाय नहीं करता , सबके बारे उसे आता है क्या। बेटे को बस सुपरवाइजरी करने कह रहा हूँ। बटाई का जो भी मिलता है वह भी इसके चाचा ताऊ बेच लेते हैं। कम से कम बटाई का जो मिलता है वह तो मिल जाया करेगा।
   एक तरह से तारकेश्वर  ने गाँव भेजने की पूरी तैयारी कर ली थी। वैसे भी अपने जीवन में कोलियरी की धूल धुवां से वह आजीज आ गये थे। अपने रिटायरमेंट के बाद आखिरी समय गाँव में ही काट कर चैन की मौत मरना चाहते थे। मगर अब तो मौत भी कम्बखत चैन से कहा आती है।
जारी.......
 सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,
न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039 

रविवार, 6 दिसंबर 2015

कहानी - बद्दू : विक्रम सिंह

        
             हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कहानीकार विक्रम सिंह की कई कहानियों को इस ब्लाग में पढ़ चुके हैं। इनकी चर्चित लम्बी कहानी बद्दू को आज से किस्तों में पढ़ेंगे। इस कहानी की पहली किस्त यह कहानी मंतव्य में प्रकाशित हो चुकी है।


जो डल्हौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे ,
कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे। अदम गोंडवी

 कोसना जब उसके दिन चर्या में तबदील हुआ।

    कोसना उसकी नित्य क्रियाक्रम में था। जो अब दिन चर्या में तबदील हो गया था। जलन ,दर्द , और अवसाद से भरी हुई दिनचर्या थी। उसने अपने भविष्य की खुशी अपनी पत्नी और अपने बच्चो की खुशी छीनी थी। वह उस दिन के फैसले को कोसता रहता था। जब नौकरी किलो के भाव से मिलती थी। जो अब हीरे के भाव हो गई थी। वह दिन थे जब कोलियरी में लोडर की बहाली भेड़ बकरियों की तरह हुई थी। उसी भीड़ का एक भेड़ पलटन भी था। मगर जब उसे सिर पर कोयले से भरी झूड़ी लेकर ढोना पड़ा तो उसने अपने आप को किसी गधे से कम नहीं आका था। उसे लगा था कि इसे तो कही अच्छा अपने खेत में हल चला बैल बनना ठीक है। गधे से तो बैल ही बनना अच्छा है। आखिर इंसान को जीने के लिए दो वक्त की रोटी तो खेती से भी मिल सकती है। मगर जमाना इस कदर बदला था कि अब तो खेती से दो वक्त की रोटी भी मुनासिव नहीं था। वह अक्सर बचपन से ही एक जुमला सुनता आ रहा था काम ना करबा तो खइबा का। और वह अब यह सोचता अन्न उगाने वाले को ही भोजन क्यों नहीं मिल रहा। आखिर काम तो यह भी कर रहा है।

     दरअसल लगातार दो तीन दिन बारिश होने के बाद पूरी गेहूँ की फसल उजड़ गई थी। किसी एक गांव , शहर  ,जिला होते हुए। यह मूसलाधार बारिश जैसे पूरी पृथ्वी का भ्रमण लगा रही थी। जैसे कोई दैत्य सारे खेत खलिहान को निगलने आया हो। कोई ऐसा ब्रह्मस्त्र नहीं था कि इस प्रकृति की मार से लड़ा जा सके। हर तरफ यही सुनने को मिल रहा था। इस बार बारिश की वजह से फसल खराब हो गई है। हर एक कोई अपने फेसबुक अकाउन्ट में बारिश से गिर गये बालियों के बीच किसान को सिर पर हाथ रख रोते हुए की फोटो लगा रहे थे। दो सौ से भी ज्यादा लाईक और करीब सौ से भी ज्यादा कमेन्ट आ रहे थे। जैसे हर एक कोई लाईक और कमेन्ट कर अपना फर्ज अदा कर रहा था। न्यूज चैनलवाले गाँव का दृष्य दिखा अलग अलग पार्टी के नेताओ को बहस के लिये बुला लिया गया था। क्योंकि अभी हुई भूमि अधिग्रहण बिल से किसान दुखी थे। वह अभी इसके लिये दिल्ली चलो का नारा लगा रहे थे। पूरे भारत से किसानो की बड़ी संख्या दिल्ली में सरकार का घेराव करने आने वाली थी। बहस में विपक्षी पार्टीयाँ पूरी तरह किसानो के साथ थी। हर एक पार्टी इस मामले को अधिक से अधिक उछालना चाहती थी। किसानो के मामलो को ही उछाल कर ममता बैनर्जी ने सी.पी.एम पार्टी के पच्चीस साल के सम्राज्य को धवस्थ कर दिया था। हर एक कोई अपनी-अपनी राजनीति रोटी सेकने में लगा था। देश के प्रधानमंत्री अपने भाषण में यह कह रहे थे यह कोई पहली बार ऐसा नहीं हुआ है इससे भी बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ आई है।

    आज पलटन सोच रहा था क्यों वह गाँव वापस आ गया था। उस समय जब पलटन गाँव वापस आने की सोच रहा था अपने परम मित्र तारकेश्वर  से कहा था ,हमार हई नौकरी में मन ना लगत बा हम गाँव में अपन खेती करब। हइजा तो कोयला ढोह ढोह और खाये खाये अपन जिन्दगी खत्म हो जाई। हम तो कहत हई तू हूँ वापस चल चला हमार संग।यह शब्द उसे आज भी कचोट रहा था। कोयले खाने वाले ही आज मुर्ग मसलम खा रहे हैं। और जो दो वक्त की ही रोटी खा कर गुजारा करने वाला था उसके पास जैसे आज जहर खाने के भी पैसे नहीं है।

   मगर तारकेश्वर  ने जाने से इंकार कर दिया था। क्योंकि वह यह अच्छी तरह जानता था कि जैसे शादी व्याह ,मकान ,शिक्षा के लिये पैसे की जरूरत पड़ती है वैसे खेती के लिये भी पैसों की जरूरत पड़ती है। ना की खेती से पैसे आते हैं। काश कि पलटन यह सोच पाता की खाई खातिर अन्न नहीं पैसे होने चाहिये। काश की पलटन ने उस दिन इस लोडर वाली नौकरी का महत्व समझा होता। कहते हैं कि जब पलटन को यह नौकरी मिली थी तब उनकी मात्र प्रतिदिन दो रूपये हाजरी मिलती थी। कुल महीने के साठ रूपये। मगर आज उसी नौकरी को करने वाले बाबू बन गये हैं। बेतन बोर्ड से तनख्वाह बढ़ बढ़ कर लाखों तक पहुंच गई है। फिर जो रिटायर भी हुए उन्हें भी लाखों की रकम मिली बुढापे में पेंशन भी अलग से मिलना शुरू हो गया। पलटन को खेती कर क्या मिला कभी चैन की रोटी नसीब नहीं हुई। ऊपर से साल दर साल खेती की और माली हालत हो गई। बेटे को पढ़ाने और बेटी के व्याह के लिये एक बीघा खेत उल्टा बेचना पड़ गया था। तिस पर अब भी बेटा बेरोजगार ही है।

    सही मायने में पलटन जब गाँव वापस आ गया थां। फिर उसे अपनी नौकरी बहुत याद आने लगी थी। कम से कम नौकरी में महीने भर काम करने के बाद तनख्वाह मिलने की पूरी गारन्टी थी। यहाँ खेत में सारा दिन काम करने के बाद भी कोई गारंटी नहीं थी कि फसल सही होगी या नहीं।अगर हो भी गई  तो अंत समय में ऊपर वाले के भरोसे था। जिस दिन पलटन ने अपनी जमीन बेची थी उसी दिन तारकेशवर ने खेत लिखवाया था। अर्थात पलटन ने अपनी जमीन तारकेशवर को बेची थी। उस दिन पलटन ऊपर वाले का गणित नहीं समझ पाया था कि जो एक वक्त खेती के लिये अपनी नौकरी छोड़ आया था उसके पास खेत नहीं रह पा रहे हैं। जिसने नौकरी करने की सोची वह खेत उसके होते जा रहे हैं।क्रमश:   
                                                                                                                                                        
 सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,

न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039