शनिवार, 8 अक्तूबर 2016

पा गया बंदूक अब कंधे की है दरकार उसको : ठाकुर दास 'सिद्ध'




                                                 14 सितम्बर 1958
शिक्षा- जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक । लेखन विधाएँ- गीत,ग़ज़ल,दोहे,सवैया,कविता,कहानी,व्यंग्य । प्रकाशित कृति- वर्ष 1995 में श्री प्रकाशन दुर्ग से ग़ज़ल संकलन 'पूछिए तो आईने से'  
संप्रति- छत्तीसगढ़ जल संसाधन विभाग में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत।
ग़ज़ल

पा गया बंदूक अब कंधे की है दरकार उसको।
है फ़रेबी, कर परे रे, छोड़ गोली मार उसको।।


जो हमें दिन-रात गहरे ज़ख़्म ही देता रहा है।
गर कहें तो किस ज़ुबाँ से यार कह दें यार उसको।।

जो बचेगा बाद में, वो आप ही के नाम होगा।
पर अभी सब ही से पहले, चाहिए है सार उसको।।

सिर्फ़ पत्थर थे भरे, सीने में होना था जहाँ दिल।
हो गई नादानियाँ, समझा किए दिलदार उसको।।

कर चुका बातें बहुत वो बीच अपने नफ़रतों की।
चुप कराने के लिए अब, दो लगा दो-चार उसको।।

पास अपने आ गया शैतान ये जिस पार से है।
'सिद्ध' मिलकर अब चलो हम भेज दें उस पार उसको।।
 

  
संपर्क –
  ठाकुर दास 'सिद्ध'
  सिद्धालय, 672/41,सुभाष नगर,
  दुर्ग-491001,(छत्तीसगढ़)
  मो-919406375695
 

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं -

    

     हिमाचल प्रदेश के सुदूर पहाड़ी गांव से कविताओं की अलख जगाए राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं किसी पहाड़ी झरने की तरह मंत्र मुग्ध कर देने के साथ आपको यथार्थ के धरातल सा वास्तविक आभास भी कराती हैं। कवि के कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं है। बिल्कुल पहाड़ी नदियों की तरह निश्चल और पवित्र हैं इनकी कविताएं। गांव , नदी , पहाड़  ,जंगल , घाटियां नया आयाम देती हैं इनकी कविताओं को ।
   
     बकौल राजीव कुमार त्रिगर्ती - गांव से हूं ,आज भी समय के साथ करवट बदलते गांव से ही वास्ता है। जीवन का वह हिस्सा जब हाथ लेखनी पकड़ने के लिए बेताब थाए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के माहौल में बीता। वाराणसी की खरपतवार और रासायनिक उर्वरक. रहित साहित्य की भूमि में कब कवित्व का बीज अंकुरित हुआ कुछ पता ही नहीं चला। भीतर के उद्गारों को अपने ढंग से व्यक्त कर पाने की हसरत से ज्यादा आत्मसंतुष्टि शायद ही कहीं होती हो। असल में पहाड़  ,जंगल , घाटियों , कलकलाती नदियां हैं तभी तो पहाड़ में प्रेम है। इनके होने से ही जीवन जटिल है तभी तो पहाड़ में पीड़ा है। यहां प्रेम और पीड़ा का सामांजस्य अनंत काल से सतत प्रवाहित है। प्रकृति के सानिध्य में सुख दुख के विविध रूपों को उभारना अच्छा लगता है। मेरे लिए यह बहुत है कि प्रकृति के सानिध्य में भीतर के उद्गारों को व्यक्त करने का एक खूबसूरत तरीका मिल गया है। भीतर के उद्गार को अपने ही शब्दों में व्यक्त करने के आनंद की पराकाष्ठा नहीं और यह आनंद ही मेरे लिए सर्वोपरि है।

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं -
1-एकमात्र गुनाह      

असल में हमने तमाम सुविधाएं दी हैं
चोरों को, घूसखोरों को देष में आम लुटेरों को
बड़ी से बड़ी सीमेंट सरिए की बिल्डिंग डकार जाने पर
अनाज मंडियों से अनाज को निगलने
बोरी से इलेक्ट्रानिक्स तक
आखिरी सामान तक के तमाम घोटाले
खेलों के अन्तर्राष्ट्रीय आयोजनों  के नाम पर
सरकारी धन का मुंह मनचाहे ढंग से खोलने
अपने ही लोगों या भाई भतीजावाद के नाम पर 
कहीं भी कुछ भी हड़प लेने
बड़े से बड़े नाम पर
बड़े से बड़ा धब्बा लगाने पर
किसी भी बड़ी से बड़ी चोर कंपनी से घूस लेकर
देकर अनर्थक व्यापार की अनुमति
घूसखोरों से भी घूस लेने वाले सम्माननीय लोगों
कुछ भी मार लेने की चाह में जीने वालों
कि हर सुविधा का रखा जाता है ख्याल
दी जाती है विशिष्ट सुविधाएं हर जगह
यहॉं सब कुछ खेल सा ही है
खेल ही समझा जाता है
कोई भी गुनाह रोटी को छोड़कर
अब जो एकमात्र गुनाह है, वह है
रोटी लूटना
और उससे भी ज्यादा
कड़ी मशक्कत के बाद
भूख के कीड़ों के कुलबुलाने पर भी
वक्त पर एक जून की भी रोटी
न खा पाना।

2-अभाव और कविता   


जब अभाव खत्म होंगे
तो लेखनी की नोक पर आएगी
और इत्मीनान के साथ
लिखी जाएगी कविता,
अभाव जब खत्म हुए
कलम की स्याही
सूख चुकी थी
और कविता रूठ चुकी थी।

संपर्क-
राजीव कुमार त्रिगर्ती
गांव-लंघु डाकघर-गांधीग्राम
तहसिल-बैजनाथ
जिला - कांगड़ा  हिमाचल प्रदेश 176125

मोबा0-09418193024

बुधवार, 14 सितंबर 2016

हिंदी दिवस पर विशेष : अमरपाल सिंह आयुष्कर



 जन्म :१ मार्च १९८० ग्राम खेमीपुर,नवाबगंज जिला गोंडा ,उत्तर - प्रदेश          
दैनिक जागरण, हिदुस्तान ,कादम्बनी,आदि में  रचनाएँ प्रकाशित
बालिका -जन्म गीत पुस्तक प्रकाशित
२००१  मैं बालकन जी बारी संस्था  द्वारा राष्ट्रीय  युवा कवि पुरस्कार
२००३ बालकन जी बारी -युवा प्रतिभा सम्मान आकाशवाणी इलाहाबाद  से कार्यक्रम प्रसारित
परिनिर्णय-  कविता शलभ  संस्था इलाहाबाद  द्वारा 
पुरस्कृत

 हिंदी हिंदुस्तान की


जाति - धर्म मजहब से ऊँची अधरों के मुस्कान –सी
स्वर्णिम किरीट चन्दन मस्तक का हिंदी है
सदियों से सस्वर गुंजित है ये अलियों के गुंजार –सी
लहराती माँ के आँचल - सी हिंदी हिन्दुस्तान की ,

कहीं कृष्ण का बचपन बनती, कहीं राम की माया
कहीं पे राधा पाँव महावर ,कहीं नुपुर सीता माता
गंगा की निर्मल धार कभी ,कभी भारत माँ का ताज बनी
युग –युग से हंसकर सींचा है ,ये स्वर्ग सरीखा बाग़ भी
लहराती माँ के आँचल - सी हिंदी हिन्दुस्तान की

शिशु की तुतली बोली में कभी खनकती है
बन प्रेम दीवानी मीरा , कभी झलकती है
हो राम , कौसल्या गोद सजी पुष्पित होकर
दसरथ के ह्रदय का बनती कभी विलाप भी
लहराती माँ के आँचल सी हिंदी हिन्दुस्तान की

खेतों का पानी बनी कभी ,कभी गर्जन करती ज्वार दिखी
हरियाली हँसते किसान के गालों के गुलज़ार- सी
भेदभाव को मिटा सभी को गले लगाती रहती है
होली ,ईद ,दिवाली ,क्रिश्मस ,बैसाखी त्यौहार – सी
लहराती माँ के आँचल सी हिंदी हिन्दुस्तान की

राणा की शमशीर कभी , कभी वीर शिवा की बन कटार
आजादी के मतवालों संग ,किया शत्रु पर बज्र प्रहार
रण बीच गरजती रही ,कलिका रूप बनी
फांसी पर झूली कभी शान से, वीरों के बलिदान -सी
लहराती माँ के आँचल -सी हिंदी हिन्दुस्तान की

कहीं जीर्ण वसन की लाज बचाती रहती है
कहीं आंचल सजनी का लहराती रहती है
गोरी के अलकों - पलकों के मादक –मादक मुस्कान –सी
बनती दीपक राग कभी ,कभी बनती मेघ मल्हार भी
लहराती माँ के आँचल- सी हिंदी हिन्दुस्तान की
गैरों की भाषा जब लोगों की बनती शान
अपनों के ही बीच फिरे बनकर अनजान
दुखिया होती जब कुब्जा और अहिल्या- सी
बनकर देव सामान सूर ,तुलसी ने डाली जान भी
लहराती माँ के आँचल सी हिंदी हिन्दुस्तान की |



संपर्क सूत्र-

अमरपाल  सिंह ‘आयुष्कर’

G-64  SITAPURI

PART-2

NEW DELHI

1100045

मोबा0-8826957462

रविवार, 4 सितंबर 2016

अनगढ़ शिलाओं पर समय का हस्ताक्षर है शिक्षा : आरसी चौहान



शिक्षक दिवस की पूर्व संध्या पर एक आलेख

संक्षिप्त परिचय
आरसी चौहान
Aarsi chauhan

शिक्षा- परास्नातक-भूगोल एवं हिन्दी साहित्य,पी0 जी0 डिप्लोमा-पत्रकारिता, बी0एड0, नेट-भूगोल
सृजन विधा-गीत,  कविताएं, लेख एवं समीक्षा आदि
प्रसारण-आकाशवाणी इलाहाबाद, गोरखपुर एवं नजीबाबाद से
प्रकाशन-नया ज्ञानोदय, वागर्थ, कादम्बिनी, अभिनव कदम,इतिहास बोध, कृतिओर ,जनपथ, कौशिकी , हिमतरू, गुफ्तगू ,  तख्तोताज, अन्वेषी , गाथान्तर , र्वनाम  ,  हिन्दुस्तान , आज , दैनिक जागरण ,अमृत प्रभात, यूनाईटेड भारत, गांडीव, डेली न्यूज एक्टिविस्ट, प्रभात खबर एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाएं तथा बेब पत्रिकाओं में
संकेत 15 के कविता केन्द्रित अंक में कविताएं प्रकाशित
अन्य- 1-उत्तराखण्ड के विद्यालयी पाठ्य पुस्तकों की कक्षा-सातवीं एवं आठवीं के सामाजिक विज्ञान में लेखन कार्य 
2- ड्राप आउट बच्चों के लिए , राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की पाठ्य पुस्तकों की कक्षा- छठी , सातवीं एवं आठवीं के सामाजिक विज्ञान का लेखन व संपादन
3- हिंदी साहित्य कोश, भारतीय भाषा परिषद  -    
 पहला खंड : उत्तराखण्ड: लोक परम्पराएं सुधारवादी आंदोलन 
 दूसरा खंड : सिद्धांत,अवधारणाएं और प्रवृत्तियां - प्रकृति और पर्यावरण 
 4- “पुरवाई  पत्रिका का संपादन         
Blog - www.puravai.blogspot.com

अनगढ़ शिलाओं पर समय का हस्ताक्षर है शिक्षा
आरसी चौहान
Aarsi chauhan

        किसी भी देश के विकास का मूलमंत्र शिक्षा है। शिक्षा से ही हम साकारात्मक दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति शिक्षा के प्रति जिम्मेदाराना रवैया अपनाते हुए ज्ञान के प्रकाश से अज्ञानता के अंधकार को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है़ । यह हर व्यक्ति की नैतिक जिम्मेवारी बनती है कि अच्छे संस्कार और आचरण हर नागरिक में पुष्पित और पल्वित करे जिससे देश स्वंमेव बुलंदियों पर पहुंच सके। यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम आतंकवाद, भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद व साम्प्रदायिक जैसी ताकतों को जड़ से समाप्त करने हेतु दृढ़ संकल्प रत हों।

          आज हम भागम दौड़ के जिस वैश्विक चौराहे पर खड़े हैं उसकी सड़कों के आदि और अंत का कोई मुकम्मल ठौर-ठिकाना नहीं है। हम अपने ज्ञान को विश्व का सबसे बड़ा संसाधन मानकर सिर आसमान में टांग दिये हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था में खतरनाक शतरंजी चालों का जो दौर जारी है वह आने वाले समय के लिए शुभ संकेत तो कत्तई नहीं कहा जा सकता। तथा कथित अपने को बौद्धिक कहलाने वाले शतरंज की विशात में प्यादों की भूमिका से ज्यादा कुछ नहीं हैं। इनकी शहादत पर ही किसी राजा की हार और जीत सुनिश्चित होती है। इस शतरंजी विशात में राजा को कभी मरते हुए नहीं देखा है मैंने।

          हर घर तक शिक्षा की जोत जलाने की बात करने वाली केन्द्र सरकार व राज्य सरकारें भी क ख ग से ज्यादा कुछ नहीं कर पातीं। शिक्षकों की कमी से जूझ रहे प्राथमिक व जूनियर विद्यालयों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। अधिकांश गांवों तक विद्यालयों को पहुंचाना सरकार के एजेण्डे में तो शामिल है लेकिन शिक्षा का कोई भी मानक पुरा होता हो कुछ अपवादों को छोड़कर ऐसा कहीं दिखता नहीं। ऐसी शिक्षा देना कहां तक समीचिन है जहां एक ही शिक्षक पांच पांच कक्षाओं को एक साथ देख रहा है। इसके अलावा भोजन की व्यवस्था भी तो इन्हें ही देखनी पड़ती है। आखिरकार हमारी सरकार का आम आदमी के बच्चों के साथ किस तरह की मंशा है। वह इनको किस तरह की शिक्षा देना चाहती है। आगे चलकर इन्हें वह क्या बनाना चाहती है। ऐसे कई सवाल हैं जो दिमाग को मथते रहते हैं। या क्या वह शिक्षा को बाजार की बिकाऊ माल बनाकर  बोली लगाने में ही अपना विकास समझती है।

                बेसिक व जूनियर स्कूलों में शिक्षा में आयी गिरावट एकल अध्यापक का होना है। जबकि कहीं कहीं तो अध्यापकपूर्ण विद्यालय भी अपवाद बने हुए हैं। अधिकारियों की निस्क्रियता भी कम जिम्मेवार नहीं है। अध्यापकों एवं अन्य कर्मचारियों का स्थानिय होना भी एक महत्वपूर्ण कारण है। इनके द्वारा लेट लतिफी व आए दिन स्कूल से गायब रहना एक कड़वी सच्चाई है जबकि स्कूल समय से पूर्व या बीच में स्कूल से भाग जाना भी एक समस्या है। कभी कभी बिना स्वीकृत अवकाश के घर रहना और स्कूल वापस आने पर उपस्थिति पंजिका में अपनी उपस्थिति बना देना भी कम गैर जिम्मदरानापूर्ण रवैया नहीं है। कई सारे अध्यापकों को मैं जानता हूं जो उपस्थिति पंजिका को अपने साथ लेकर चलते हैं। ऐसे अध्यापकों का आप क्या कर लेंगे। जहां इसे रखने के लिए स्कूल में आलमारी या बाक्स तक नहीं हैं। हैं भी तो जर्जर अवस्था या टूटी फुटी अवस्था में । अगर ठीक भी हैं तो जानबूझकर तोड़ दिया गया है। अपने को बचने बचाने लिए ऐसे हथियारों की लम्बी फेहरिश्त है।

            आए दिन उच्च अधिकारियों द्वारा स्कूलों का औचक निरिक्षण तो किया जाता है परन्तु वहां शिक्षा की गुणवत्ता पर कभी कोई बात नहीं होती। आपने रजिस्टरों के पेट भरे कि नहीं , डायरी बनायी कि नहीं , स्कूल में आयी विभिन्न धनराशि का सही प्रयोग हुआ कि नहीं आदि सवालों की अंधाधुंध गोलियां अध्यापकों के सीने में दाग दी जाती हैं। ऐसे में अधिकांश अध्यापक भी सरकारी आदेशों के पालन को ही अपना कर्तव्य समझते हैं और शिक्षा जाए चूल्हाभाड़ में जैसी कहावत को चरितार्थ करते हैं।

          सबको समान शिक्षा का अधिकार केवल चौदह साल तक के बच्चों के लिए ही क्यों ? बी0 टेक , एम0 टेक, एम0बी0बी0एस0,एम0डी0, पी0एच0डी0 करने वालों तक को क्यों नहीं ? जिसमें कंपीटिशन परीक्षा पास करने वालों को उपर्युक्त शिक्षा एवं अन्य शिक्षाएं जो भी हों निशुल्क उपलब्ध करायी जाएं और रोजगार की गारंटी भी दी जाए इस शर्त के साथ कि पढ़ाई में हुए खर्च के बराबर सेवाएं देश या राज्य के लिए देनी पड़ेगी। बाकि को उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार उपलब्ध कराएं जाएं। अन्यथा कि स्थिति में वे अपनी इच्छानुसार काम कर सकते हैं।

               खैर चाहे जो भी हो, शिक्षा के स्तर को बनाने में शिक्षक,अभिभावक व छात्र तीनों के त्रिभुजीकरण की भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता। सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों के अभिभावक या तो अनपढ़ होते हैं या काम की तलाश में घर से दूर होते हैं या दिहाड़ी मजदूर। ऐसे में इनके बच्चों में अभावों की अंतहिन श्रृंखला कुमार्ग की ओर ले जाने की ओर प्रेरित करती है। इनमें कई तरह की बुरी आदतें पड़़ती चली जाती हैं। फिर इनको इससे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। अधिकांश विद्यालयों में एकल शिक्षक का होना भी हमारी शिक्षा के साथ दुराचार ही है। वहीं दो चार बच्चों के सहारे विद्यालयों को चलाना भी कम अनैतिक नहीं है।

              आखिर शिक्षा के स्तर में हो रही निरंतर गिरावट के लिए जिम्मेवार कौन है। एक ओर हमारी सरकार घर घर तक शिक्षा पहुंचाने की बात करती है। गांव गांव स्कूल बनवाती है। लेकिन वही ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ होती है। अगर हमारी सरकार नवोदय विद्यालय, केंद्रिय विद्यालय, कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय, माडल स्कूल बनवा सकती है तो संकुल विद्यालय बनवाने में क्या परेशानी है। आठ से दस किलो मीटर के दायरे में एक संकुल विद्यालय हो जहां कक्षा एक से बारहवीं तक की पढ़ाई की व्यवस्था एक ही कैम्पस में हो। जिनका बाडी गवर्नेंस एक हो । हास्टेल की व्यवस्था के साथ स्कूल बसें भी हों ताकि दूर दराज के गांवों के बच्चों को आसानी से लाया जा सके। अगर बड़ी गाड़ियों के संचालन की पहुंच न हो तो छोटी गाड़ियों की व्यवस्था की जा सकती है। अगर यह भी असंभव हो तो हास्टेल की सुविधा का लाभ लिया जा सकता है। अगर छोटे बच्चों के लिए यह भी असंभव सा लगे तो साथ में उनके एक अभिभावक को बच्चे की देख रेख के लिए कुछ दिनों के लिए रखा जा सकता है। जिसमें इनके लिए अलग से हास्टेल हो।

            तमाम संसाधनों के अभाव के बावजूद भी शिक्षा पाने की ललक व जागरूकता वालों को कुछ बाधाओं का जरूर सामना करना पड़ता है लेकिन लक्ष्य देर सबेर मिल ही जाता है। लेकिन ऐसे कारनामें कितने कर पाते हैं । कहीं न कहीं हमारी शिक्षा व्यवस्था में खतरनाक सूराख है जिसके निर्माता हमारे ही नौकरशाह हैं की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।

        शिक्षा के विकास में आधारभूत संरचना जैसे साफ सुथरे कमरे, बैठने की उचित व्यवस्था, पढाई लिखाई में आने वाने वाले विभिन्न संसाधनों, स्वच्छ पेयजल , संतुलित आहार ,शौचालयों की व्यवस्था व खेलने के मैदान इत्यादि का भी महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन जब इनके व्यवस्थापक ही ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार के समुद्र में आकंठ डूबे हों तो क्या कहा जा सकता है ?

           शिक्षा से सर्वांगिड़ विकास तभी हो सकता है जब हम अपनी इच्छाएं अपने बच्चों पर न थोपकर बल्कि बच्चों को अपना मार्ग स्वयं ही स्वतंत्र रूप से चुनने दें । हम उनकी मदद कर सकते हैं। उन्हें अध्यापक ,डाक्टर या इंजिनियर बनना है का विकल्प सुझा सकते हैं परन्तु जबरदस्ती उनपर थोप नहीं सकते। हमारी भूमिका टैªफिक पुलिस की तरह होनी चाहिए जिसमें किसी को लाल सिग्नल द्वारा हरा सिग्नल होने तक रोका जा सकता है लेकिन उसकी दिशा को नहीं बदला जा सकता ।

शिक्षा को सही पटरी पर लाने के लिए कुछ सुझावों पर विचार किया जा सकता है-

1.स्कूलों में विभिन्न कार्यों का सतत मूल्यांकन हो जिसमें लापरवाही न बरती जाए
2.गुणवत्ताहिन सरकारी विद्यालयों की जिम्मेदारी निजी क्षेत्र को सौंप दी जाए
3.सभी वर्ग के लोगों को एक समान शिक्षा दी जाए
4.रटने की प्रवृति से मुक्त रखा जाए
5.शैक्षिक पाठ्यक्रम की पुस्तकों में बच्चों के विचारों व रूचियों का भी ध्यान रखा जाए
6.शिक्षा का मुख्य उद्देश्य रोजगारोन्मुखी हो
7.बच्चे को किसी भी तरह के दबाव से मुक्त रक्खा जाए जिसमें शारीरिक व मानसिक दोनों हो सकते हैं
8.शिक्षा को आनंददायक बनाया जाए
सब पढ़ें सब बढ़ें जैसे नारों को आसमान की बुलंदियों तक तभी पहुंचाया जा सकता है जब हम सबके इरादे नेक हों और एक दूसरे के प्रति ईमानदार कोशिश  के साथ सहयोग की भावना बनाये रखें।

संपर्क   - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760 ईमेल- puravaipatrika@gmail.com

बुधवार, 24 अगस्त 2016

सुशांत सुप्रिय की कहानी : बँटवारा




    मेरा शरीर सड़क पर पड़ा था . माथे पर चोट का निशान था . क़मीज़ पर ख़ून के छींटे थे . मेरे चारो ओर भीड़ जमा थी . भीड़ उत्तेजित थी . देखते-ही-देखते भीड़ दो हिस्सों में बँट गई . एक हिस्सा मुझे हिंदू बता रहा था . केसरिया झंडे लहरा रहा था . दूसरा हिस्सा मुझे मुसलमान बता रहा था . हरे झंडे लहरा रहा था .
एक हिस्सा गरजा -- इसे *टुओं ने मारा है . यह हिंदू है . इसे जलाया जाएगा . इस पर हमारा हक़ है

दूसरा हिस्सा चिल्लाया -- इसे काफ़िरों ने मारा है . यह हमारा मुसलमान भाई है . इसे दफ़नाया जाएगा . इस पर हमारा हक़ है .
फिर ' जय श्री राम ' और ' अल्लाहो अकबर ' के नारे लगने लगे . मैं पास ही खड़ा यह तमाशा देख रहा था . क्या मैं मर चुका था ? भीड़ की प्रतिक्रिया से तो यही लगता था . मैंने कहा -- भाइयो , मैं मर गया हूँ तो भी पहले मुझे अस्पताल तो ले चलो . कम-से-कम मेरा ' पोस्ट-मार्टम ' ही हो जाए . पता तो चले कि मैं कैसे मरा .

भीड़ बोली -- ना बाबा ना . हम तुम्हें अस्पताल नहीं ले जा सकते . यह 'पुलिस-केस' है . बेकार में कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने पड़ेंगे . एक बार फिर ' जय श्री राम ' और ' अल्लाहो अकबर ' के नारे गूँजने लगे . भीड़ एक-दूसरे के ख़ून की प्यासी होती जा रही थी . डर के मारे मैं पास के एक पेड़ पर जा चढ़ा . इन जुनूनियों का क्या भरोसा . मरे हुए को कहीं दोबारा न मार दें .
  मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ . सड़क पर जो पड़ा था वह मेरा ही शरीर था . फिर मेरे शरीर को जलाया जाए या दफ़नाया जाए , इस बारे में इन्हें मुझ से तो सलाह-मशविरा करना चाहिए था . पर भीड़ थी कि मुझे सुनने को तैयार ही नहीं थी .
  मैंने अनुरोध के स्वर में फिर कहा -- भाइयो , मुझ जैसे अदना इंसान के लिए आप लोग साम्प्रदायिक सद्भाव क्यों तोड़ रहे हो ? कृपा करके भाईचारा बनाए रखो . मिल-बैठ कर तय कर लो कि मुझे जलाया जाना चाहिए या दफ़नाया जाना चाहिए . अगर बातचीत से मामला नहीं सुलझे तो मामला अदालत में ले जाओ . भीड़ बोली -- अदालत न्याय देने में बहुत देर लगाती है . पचास-पचास साल तक मुक़दमा चलता रहता है . निचली अदालत का फ़ैसला आने पर फिर हाइ-कोर्ट , सुप्रीम कोर्ट में अपील हो जाती है . तब तक तुम्हारे शरीर का क्या होगा ?
  मैंने कहा -- भाइयो , ख़ून-ख़राबे से बचने के लिए मैं अदालत का फ़ैसला आने तक ' ममी ' बने रहने के लिए भी तैयार हूँ . पर भीड़ के सिर पर तो ख़ून सवार था . कोई इतना समय रुकने के लिए तैयार नहीं था . इस पर मैंने कहा -- भाइयो , तो फिर आप लोग सिक्का उछाल कर फ़ैसला कर लो . टॉस में जो पक्ष जीत जाए वह अपने मुताबिक़ मेरे शरीर को जला या दफ़ना दे . भीड़ ने कहा -- हमने ' शोले ' देखी है . हम इस चाल में नहीं आएँगे . अजीब मुसीबत थी . नीचे सड़क पर मेरा शरीर पड़ा हुआ था . चारो ओर उन्मादियों की भीड़ जमा थी . पास ही के पेड़ पर मैं चढ़ा हुआ था. अपने शरीर को इस तरह देखने का मेरा पहला अवसर था . मुझे अपने शरीर पर दया आई . उससे भी ज़्यादा दया मुझे भीड़ पर आई . मेरी लाश पर क़ब्ज़े को ले कर ये लोग मरने-मारने पर उतारू थे . तभी एक पढ़ा-लिखा-सा दंगाई मेरे पेड़ की ओर इशारा करता हुआ अंग्रेज़ी में चिल्लाया -- गिटपिट-गिटपिट ... ब्लडी-फ़ूल ... गिटपिट-गिटपिट ... किल हिम ... !
 
बहुत से दंगाई लाश को छोड़ कर उस पेड़ के नीचे जमा हो गए जिस पर मैं चढ़ा बैठा था . डर के मारे मैं एक डाल और ऊपर चढ़ गया . नीचे से दंगाई चिल्लाए -- जल्दी से तू खुद ही बता तू कौन है , वर्ना हम तुझे फिर से मार डालेंगे . अजीब लोग थे . मरे हुए को फिर से मारना चाहते थे . मैंने दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डाला . पर मुझे कुछ भी याद नहीं आया कि मैं हिंदू था या मुसलमान . जिन्हें अपने बारे में कुछ भी याद नहीं होता, वे किस धर्म के होते हैं? उनका क्या नाम होता है? राम रहीम सिंह डेविड?

भीड़ अब बेक़ाबू होती जा रही थी . दोनो ओर से त्रिशूल और तलवारें लहराई जा रही थीं . ' जय श्री राम ' और ' अल्लाहो अकबर ' के नारों से आकाश गूँज रहा था .
  कहीं दंगा-फ़साद न शुरू हो जाए , यह सोच कर मैंने एक बार फिर कोशिश की -- भाइयो , शांत रहो . अगर कोई हल नहीं निकलता तो मेरा आधा शरीर हिंदू ले लो . तुम उसे जला दो . बाक़ी का आधा शरीर मुसलमान ले लो . तुम उसे दफ़ना दो . मुझे न्यायप्रिय सम्राट् विक्रमादित्य का फ़ैसला याद आया . मैंने सोचा , अब कोई एक पक्ष पीछे हट जाएगा ताकि मेरी लाश की दुर्गति न हो. पर भीड़ गँड़ासे , तलवार और छुरे ले कर मेरे शरीर के दो टुकड़े करने के लिए वाकई आगे बढ़ी . मैं पेड़ की ऊँची डाल पर बैठा होते हुए भी थर-थर काँपने लगा . जो शरीर दो हिस्सों में काटा जाना था वह आख़िर था तो मेरा ही .
  ये कैसे लोग थे जो लाश का भी बँटवारा करने पर तुले हुए थे? मैंने उन्हें ध्यान से देखा . भीड़ में दोनो ओर वैसे ही चेहरे थे . जैसे चेहरे केसरिया झंडे पकड़े थे , वैसे ही चेहरे हरा झंडा पकड़े भी नज़र आए . ठीक वही वहशी आँखें , ठीक वही विकृत मुस्कान भीड़ में दोनो ओर मौजूद थीं . नरसंहारों मे ये ही लोग लिप्त थे .
  भीड़ गँडासों , तलवारों , और छुरों की धार परख रही थी . काश हमारे ' स्टैच्यू ' कहने पर सभी हत्यारे , सभी दंगाई बुत बन जाते . और फिर हम उन्हें गहरे समुद्र में डुबा आते.
  भीड़ ने हथियार उठा कर मेरी लाश पर चलाने की तैयारी कर ली थी . तभी उन में से कोई चिल्लाया -- अबे , इसकी पतलून उतार कर देख. अभी पता चल जाएगा कि स्साला हिंदू है या मुसलमान. अभी यह बेइज़्ज़ती भी बाक़ी थी. कई जोड़ी हाथ मेरी लाश पर से पतलून उतारने लगे. अब मुझ से रहा नहीं गया. मैं पेड़ पर से कूदा और 'बचाओ, बचाओ' चिल्लाया .
  पर मेरी वहाँ कौन सुनता . देखते-ही-देखते दंगाइयों ने मेरी लाश को नंगा कर डाला . शर्म से मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं . छि:छि: ! शिव-शिव ! लाहौलविलाकूवत ! एक मिला-जुला-सा शोर उठा . आँखें खोलते ही मैं सारा माजरा समझ गया. और मुझे याद आ गया कि मैं कौन था. कुछ दंगाई अश्लील मज़ाक पर उतर आए थे. कुछ दोनो हाथों से ताली बजा-बजा कर ' हाय-हाय ' करने लगे थे . अरे ये तो ' वो ' निकला -- दंगाई एक-दूसरे से कह रहे थे और हँस रहे थे .
  माहौल में तनाव एकाएक कम हो गया . मैंने राहत की साँस ली . धीरे-धीरे दंगाइयों की भीड़ छँटने लगी . केसरिया झंडे वाले एक ओर चल दिए . हरे झंडे वाले दूसरी ओर चल दिए . आज त्रिशूलों और तलवारों का दिन नहीं था . अब मैं अपनी नंगी लाश के पास अकेला रह गया था .
अगर इस तरह से दंगे-फ़साद रुक सकें तो काश , ऊपर वाला सबको ' वो ' बना दे -- मैंने सोचा .

  
सुशांत सुप्रिय   
ए-5001 ,गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,इंदिरापुरम ,
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मंगलवार, 9 अगस्त 2016

अमरपाल सिंह आयुष्कर की कविताएं




जन्म :१ मार्च १९८० ग्राम खेमीपुर,नवाबगंज जिला गोंडा ,उत्तर - प्रदेश            
दैनिक जागरण, हिदुस्तान ,कादम्बनी,आदि में  रचनाएँ प्रकाशित
बालिका -जन्म गीत पुस्तक प्रकाशित
२००१  मैं बालकन जी बारी संस्था  द्वारा राष्ट्रीय  युवा कवि पुरस्कार
२००३ बालकन जी बारी -युवा प्रतिभा सम्मान आकाशवाणी इलाहाबाद  से कार्यक्रम प्रसारित
परिनिर्णय-  कविता शलभ  संस्था इलाहाबाद  द्वारा प्रकाशित

अमरपाल सिंह आयुष्कर की कविताएं

1 -  तुम आ जाओ तो


तुम आ जाओ तो सुधियों की गांठें खोलूं
सजी हथेली , चूड़ी पायल
मन की सारी बातें बोलूं
तुम आ जाओ तो सुधियों की गांठें खोलूं
सावन के घन , तपन जेठ की
सरदी की औकातें तोलूँ
तुम आ जाओ तो सुधियों की गांठें खोलूं

देहरी का दीवा , चौबारे की तुलसी
बेरंग तन-मन
फिर फगुआ की , गागर घोलूं
तुम आ जाओ तो सुधियों की गांठें खोलूं |

2- आँसू ने जन्म लिया होगा



तप-तप के मन के आँगन  ने
चटकी दरार का रूप लिया
सावन का बादल फेरे मुंह
चुपके से निकल दिया होगा
गहरी दरार फिर भरने को
आँसू ने जन्म लिया होगा

दो बोल तिक्त –मीठे पाकर
सहमा होगा ,उछला होगा
तपते होंठों पर बूंदों ने
हिमकन - सा काम किया होगा
गहरी दरार फिर भरने को
आँसू ने जन्म लिया होगा



कोई अपना , टूटा सपना
तो कभी पराये दर्द लिए
मन का आंगन पूरा-पूरा
मिट्टी  से लीप दिया होगा
गहरी दरार फिर भरने को
आँसू ने जन्म लिया होगा


उलझी –सुलझी रेखाओं के
भ्रम से सहमा जब मन होगा
स्नेह भरा दीपक बनकर
रातों का साथ दिया होगा
गहरी दरार फिर भरने को
आँसू ने जन्म लिया होगा |



3- अम्मा की आँखों में .....
अम्मा की आँखों में हमने , जीवन एक हिसाब पढ़ा
गम का दरिया, नाव ख़ुशी की ,
हँसती – गाती लहरों पर ,
है जीवन एक बहाव पढ़ा
अम्मा की आँखों में हमने ,जीवन एक हिसाब पढ़ा

जलते चूल्हे पकती रोटी ,
फगुआ ,चैती ,कजरी होती
और कभी तो गल जाती है दाल सरीखी
ताप सभी सहती रहती
है जीवन एक अलाव पढ़ा
अम्मा की आँखों में हमने , जीवन एक हिसाब पढ़ा

आँचल का कोना सिलती या
बना रही होती कथरी ,
सबको मन की पीर सुनाना न बदरी
ढँक  देना कुछ
 है जीवन एक लिबास पढ़ा
अम्मा की आँखों में हमने , जीवन एक हिसाब पढ़ा

सपनीली - सतरंगी आँखे कायम हों
उठे  भले ना सपनों की दीवार कोई
आज नही तो कल पूरी हो जायेंगी
तिनका –तिनका हाथ चलाते ही जाना
 है जीवन   इक  विश्वास पढ़ा
अम्मा की आँखों में हमने , जीवन एक हिसाब पढ़ा |


संपर्क सूत्र-

अमरपाल  सिंह ‘आयुष्कर’

G-64  SITAPURI

PART-2

NEW DELHI

1100045

मोबा0-8826957462

रविवार, 31 जुलाई 2016

साथ जिनके थी सरलता : ठाकुर दास 'सिद्ध'







                                              14 सितम्बर 1958


शिक्षा- जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक । लेखन विधाएँ- गीत,ग़ज़ल,दोहे,सवैया,कविता,कहानी,व्यंग्य । प्रकाशित कृति- वर्ष 1995 में श्री प्रकाशन दुर्ग से ग़ज़ल संकलन 'पूछिए तो आईने से' संप्रति- छत्तीसगढ़ जल संसाधन विभाग में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत।

ग़ज़ल

साथ जिनके थी सरलता
                          

साथ जिनके थी सरलता,लुट गए बेजान से फिरते।  
वो बजाते गाल हर दम,और ये नादान से फिरते।।

भाल पर चंदन मले हैं,पाप में आकंठ डूबे जो।
लोग ऐसे सैकड़ों हैं,तान सीना शान से फिरते।।

बात थी ईमान सी नाचीज़ को ही,बेच देने की।
घर भरा होता तुम्हारा,और तुम धनवान से फिरते।।

भीड़ होती साथ जो,जयकार करती नाम का तेरे।  
गर उसूलों को जलाते,तुम अगर ईमान से फिरते।।

गर हुनर तुम सीख लेते दूसरों को लूट लेने का।
 ना घिसटती ज़िन्दगी यूँ ,तुम स्वयं के यान से फिरते।।

यार कोई गर मदद की,चाह लेकर पास में आता।  
ना उसे पहचानते तुम,बेझिझक पहचान से फिरते।।

और इक इन्सान का,हैवान होना देख कर यारो।
फ़र्क़ ना पड़ता किसी को, 'सिद्ध' ही हैरान से फिरते।।

 संपर्क –
  ठाकुर दास 'सिद्ध'
  सिद्धालय, 672/41,सुभाष नगर,
  दुर्ग-491001,(छत्तीसगढ़)
  मो-919406375695


शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

सुरेश सिंह की गढ़वाली कविता : गों की याद






सोचणूं छो मांजी बैठी मैं अपड़ा डेरा मा
ओंड़ लगीं छ याद मांजी अपड़ा गों गुठ्यार की
तुम्हारु मिथैं खांणू खलैक स्कूल भेजणुं
फिर बाठ मा लेंण क एै जांणू
आज ओंणीं छ याद मांजी गों विड्वाल सेरा की

तुम्हारु मिथैं अपड़ा हाथ न खलाणूं
दिन भर दोर-ढकी भीतर मा सिलाणूं
धांड -धंधा करीक मांजी ओंदा थैं तुम घोर
सरासर चुल्हू जगैक तुम्हारु खांणु बनाणुं
झोली झंगोरा मा थै रसांण, अर भ्वीम बैठिक खांणू
आज ओंणीं छ याद मांजी अपणीं स्यूं सार्यों की

कन  खंलोंदी थैं मांजी लोंण मा काखड़ी
आग मा भड़ेक कोदा की बालड़ी
सोंण -भादों मा पकीं मंगुरी बाठा की सग्वाड़ी
अफू विघेक ल्योंदी थैं मां सरासर तोड़ी
आज ओंणीं छ याद मांजी गाथ भरीं रोठ्यो की

भाई -बैणों की हंसी मजाक चोक विड़वाल उखर्याली मा
साट्यों की कुटै ह्वेंदी थै चाची-बढ़ी की गिंजाल्योन
कन रसाण थै मांजी तिल ,चीनी और भंगजीर मा
आज ओंणीं छ याद मांजी चुल्हा खांदी अर मंगशीर की

कन रसांण थै मांजी बढ़ी जी की कोदा रोठ्यों मां
तिल-म्वर्या की चटणी अर लैंदी गोड़ी का दूध मा
गाथ की गथ्वाणीं अर छोल्यों का पांणी मा
आज ओंणीं छ याद मांजी लैंदी भैंसी -गोड़ी की

रोट-अरसा बंणदा थैं मां,गों की ब्यो -बरात्यों मा
खांणू खांणा की रीति रिवाज,मालू का पत्तों मा
काली दास की पकोड़ी अर घर्या चोंलू का भात मा
आज ओंणीं छ याद मांजी , बार -त्योहार अर शरादू की


ढोल-दमाऊ अर मुसख्याबाजू, ब्यो -बरात्यों की शान छा
देवतों कू नाचणूं अर पूजा-पिइे कू मान छा
ब्योली-बर की डोली -पांलकी ,स्वरा-भारों की भेट छा
आज ओंणीं छ याद मांजी , ढोल-दमाऊ अर ओज्यों की

चैत का महीना की फुल-फुलेर ,देहली देहल्यो कू खयाल छा
फ्योंली अर घुघती का फूल , महीना भर कू त्योहार छा
द्यो-ध्याण्यों कू मैत आंणू थोला-मेलों कू बुलावा छा
आज ओंणीं छ याद मांजी , थोला-मेलों का नोंऊ की

कातिक महीना की भैला-बग्वाली,दीया-बत्ती कू त्योहार छा
दंशू-विदेशू मा गंया नोंना,घर ओंणा की तैयारी मा
बुढ्या बै-बाबू की आंखी लगीं , दूर-दराज बाठ्यों मा
आज ओंणीं छ याद मांजी ,अपणीं चोक-डिडाल्यों की

घर ओंणू छो मांजी मैं भी, छोड़ी यूं शैहरु
भीड़-भिड़ाका अर गाड़ी का हल्ला न पटगै ह्वेग्यों बैरु
यूं शहरु सी बडिया हमारी ,मथल्या छान बडिया छ
आज ओंणीं छ याद मांजी , अपड़ी डांडी काठ्यों की।

सुरेश सिंह
एम एस सी द्वितीय वर्ष 
मोबा0-9568995137