शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

सतीश कुमार सिंह की कविताएं




  
                      05 जून सन 1971

    इनकी कविताओं का प्रकाशन वागर्थ, अतएव , अक्षरा , अक्षर पर्व , समकालीन सूत्र , साम्य , शब्द कारखाना , आजकल , वर्तमान साहित्य सहित प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में ।
आकाशवाणी भोपाल , बालाघाटरायपुर , बिलासपुर केंद्रों से रचनाओं का प्रसारण ।
संप्रति - शासकीय बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय जांजगीर क्रमांक -2 में अध्यापन ।

    सतीश कुमार सिंह  की कविताएं जहां अनुभव की गहन आंच में रची पगी हैं वहीं अनगढ़ आत्मीयता की मौलिक मिठास लिए हुए हैं। सतीश कुमार सिंह  के कवि की सबसे मूलभूत ताकत अपनी माटी, अपने अनमोल जन, गांव-जवार और बाग -बगिचे हैं। जहां कवि पला बढ़ा है वहीं की चीजों से कविता का नया शिल्प गढ़ता है और भाषा को तेज धार देता है जिससे कविता जीवंत हो उठती है। सभी देशवासियों को विजय दशमी की ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ आज पढ़ते हैं सतीश कुमार सिंह  की कविताएं-

1- सिक्का

 इसके साथ जुड़े हैं
कुछ इंसानी करतब और
 तरकीबें
 इसलिए यह चलता भी है
 उछलता भी ।

 जाने कबसे कायम है
 कुछ खास खास जगह
 खास खास लोगों का सिक्का ।

 कहते हैं सिक्का जम जाने पर
 अपने आप फलने फूलने लगता है
 अंधेरे में कारोबार
 कई कई तरह के क्रिया व्यापार ।

 जनता इसे नहीं उछालती
 इसके साथ उछलती है ज्यादा
 तलाशी जाती हैं
 उसके इस तरह उछलने की वजहें ।

 किसी निर्णय पर पहुँचने
 जरूरी है सिक्के का उछलना ।

 शोले फिल्म के जय बीरू
 हेड और टेल पर
 जान की बाजी लगाते हैं
 सिक्के को
 बाजार में नहीं
 हवा में चलाते हैं ।

 चिल्हर नहीं है कहकर
 चॉकलेट या टॉफी थमाने वाले
 हमें बाजार का असली चेहरा दिखाकर संतुष्ट करने की
 कोशिश में लगे होते हैं ।

 इस बार जरूर चलेगा
 जनता का सिक्का
 इस उम्मीद में हम बार बार
 चुनाव चिन्ह में
 मुहर लगाते हैं
 वे फिर से अपना सिक्का
 बेखौफ होकर चलाते हैं ।



2- सोचते ही

 यह सोचते ही कि
 वह नहीं आएगा अब
 इंतजार की उत्कंठा खत्म हो गई ।

 यह सोचते ही कि
 आज बादल बरसेगे जरूर
 भीतर हरिया गया बहुत कुछ ।

 यह सोचते ही
 कि रोपूंगा गमले में
 मधुमालती के पौधे
 मेरे बगीचे में फूलों से लदी
 रातरानी बिहँस उठी ।

 यह सोचते ही कि
 सर्दी बढ़ गईं हैं इस बार
 दांत किटकिटाने लगे
 ठिठुरने लगी उंगलियां ।

 सोचते सोचते कितना कुछ
 होता है महसूस
 कितना कुछ घट जाता आसपास
 सोचते सोचते ।
संपर्क-
सतीश कुमार सिंह
पुराना कालेज के पीछे  ( बाजारपारा ) जांजगीर 
जिला - जांजगीर -चांपा ( छत्तीसगढ़ ) 495668 मोबाइल नं . 094252 31110


मंगलवार, 12 सितंबर 2017

आशीष बिहानी की कविताएँ



   

   आशीष बिहानी बीकानेर से आते हैं और वर्तमान में कोशिका एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्रए हैदराबाद में पीएचडी कर रहे हैं।
इनका पहला काव्यसंग्रह अंधकार के धागे, हिन्दण्युग्म द्वारा 2015 में प्रकाशित । समालोचन, पहलीबार, पूर्वाभास,स्पर्श आदि ई पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित ।
         इनकी पिता पर लिखीं कविताएँ आशा है आपको अच्छी लगेंगी। पुरवाई में आपका स्वागत है।


मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं
1-
 
मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं  
उनका हमेशा से सपना था 
 कि हम अच्छे पेड़ बनें  
पर कभी हमसे कहा नहीं

उन्होंने कहा 
कि तुम विद्रोह करो  
पर शांति से

उनके उघड़ेपन ने हमें भीगने नहीं दिया  
उनके कठोर हाथों ने हमारे जीवन में घर्षण नहीं पैदा किया  
उनके बाल हवा में सरसराकर भी बिखरते नहीं  
उनकी मूंछ कभी चाय से गीली नही होती.
2-
 
मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं  
घंटों भारी भरकम रजिस्टर लिए बैठे-बैठे  
उनके पैर लकड़ी के काउंटर में जड़ें जमा लेते हैं

सहज कर देते हैं वो  
लोगों का आना और बैठना  
और प्रलाप करना
 
वो सुबह जम्हाई लेते हैं तो  
शेष बची थकान  
पीठ से जड़ों की मिट्टी बांधे निकल आती है
3-
 
मेरे पापा बहुत अच्छे पेड़ हैं 
 वो टस से मस नहीं हुए 
 मृत्यु और ऊब की डूब में

उनकी जड़ों में गांठें हैं  
संस्थागत ऋण  
रीति-रिवाज़
भूमंडलीकरण और व्यक्तिवाद
नियम-कानून व्यापार और विचार
 
कहीं गहरे दबे हैं 
भयावह युद्ध की राख  
किसी के धुंधले कड़वे बोल  
कई समानांतर विश्व

जमाए हुए पकड़
पानी की खोज में  
बहुत गहरे

Email-ashishbihani1992@gmail.com

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

पहाड़ पर बचपन.....जगमोहन सिंह जयाड़ा ‘जिज्ञासू’,






उत्तराखण्ड के टिहरी जनपद, चन्द्रवदनी क्षेत्र के नौसा-बागी गांव में 21 जुलाई, 1963 को जन्में जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू ने अपनी साहित्यिक यात्रा गढ़वाली कविताओं के सृजन से की। इनका पहला गढ़वाली कविता संग्रह अठ्ठैस बसंत हिमवंत कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल जी को समर्पित है।  इनकी रूचियां -छायाकारी, उत्तराखण्ड भ्रमण, कविता सृजन, बांसुरी वादन में है। पहाड़ से दूर दर्द भरी दिल्ली प्रवास ने इनके मन में कवित्व पैदा किया और 1997 से गढ़वाली कविताओं का सृजन लगातार जारी है। अब तक लगभग एक हजार से भी ज्यादा गढ़वाली कविताओं का इन्होंने सृजन किया है।  इनकी गढ़वाली कविताएं हिलवाणी, हिमालय गौरव उत्तराखण्ड, जागो उत्तराखण्ड, स्टेट एजेंडा, रंत रैबार, यंग उत्तराखण्ड, कुमगढ़, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम और फेसबुक पर प्रकाशित हैं। पुरवाई में आपका स्वागत है।

पहाड़ पर बचपन.....

पहाड़ से ऊंचा उठने की,
प्रेरणा लेते हुए बीतता है,
तभी तो पर्वतजन,
जिंदगी की जंग जीतता है।

पहाड़ पर बहती नदी भी,
प्रेरणा प्रदान करती है,
किनारे कितने ही कठोर हों,
ऐसे ही जिंदगी में,
बाधाएं आएंगी और जाएंगी,
जिंदगी में जीतना है,
हारना मंजूर नहीं,
सीख लेता है बचपन।

पहाड़ की पीठ पर,
पगडंडी पर चढ़ते हुए,
दूर धारे से पानी,
भरकर लाते हुए,
बुरांस के फूल निहारते हुए,
काफल खाते हुए,
पहाड़ पर दूर दूर,
बिखरे हुए गांवों में,
रात्रि में टिमटिमाती,
रोशनी को निहारते हुए,
मधुर लोकगीत गाते,
ग्रामवासियों के संग,
बीतता है बचपन।

बांज बुरांस के सघन वन,
पक्षियों का कोलाहल,
मंद मंद बहती ठंडी हवा,
बहती जल धाराएं,
भागता हुआ कोहरा,
प्रकृति का सौन्दर्य,
देखता और अहसास करता है,
पहाड़ पर बचपन।
 
संपर्क सूत्र-
जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू,
सहायक अनुभाग अधिकारी,
उर्वरक उद्योग समन्वय समिति,
सेवा भवन, आर.के.पुरम,
नई दिल्ली-110066

मोबा0 - 09654972366

शनिवार, 26 अगस्त 2017

भारतीय महिलाएँ एवं आरण्य संस्कृति : गोवर्धन यादव



     
                                                                        
                पॆट की आग बुझाने के लिए अनाज चाहिए, अनाज को खाने योग्य बनाने के लिए उसे कूटना-छानना पडता है और फ़िर रोटियां बनाने के लिए आटा तैयार करना होता है. इतना सब होने के बाद, उसे पकाने के लिए ईंधन चाहिए और ईंधन जंगलॊं से प्राप्त करना होता है. इस तरह पेट में धधक रही आग को शांत किया जा सकता है.                                  
     बात यहाँ नहीं रुकती. जब पेट भर चुका होता है तो फ़िर आदमी के सामने तरह-तरह के जरुरतें उठ खडी होने लगती हैं. अब उसे रहने के लिए एक छत चाहिए ,जिसमें लकडियाँ लगती है. लकडियाँ जंगल से प्राप्त होती है. फ़िर उसे बैठेने-सोने अथवा अपना सामान रखने के लिए पलंग-कुर्सियाँ और अलमारियाँ चाहिए, इनके बनाने के लिए लकडियाँ चाहिए. लकडियाँ केवल जंगल से ही प्राप्त होती है. द्रुत गति से भागने के लिए वाहन चाहिए. गाडियां बनाने के किए कारखाने चाहिए और कारखाने को खडा करने के लिए सैकडॊं एकड जगह चाहिए. अब गाडियों कि पेट्रोल चाहिए. उसने धरती के गर्भ में कुएं खोद डाले  .कारखाने चलाने के लिए बिजली चाहिए. और बिजली के उत्पादन के लिए कोयला और पानी. अब वह धरती पर कुदाल चलाता है और धरती के गर्भ में छिपी संपदा का दोहन करने लगता है. कारखाना सैकडॊं की तादात में गाडियों का उत्पाद करता है. अब गाडियों को दौडने के जगह चाहिए. सडकों का जाल बिछाया जाने लगता है और देखते ही देखते कई पहाडियां जमीदोज हो जाती है., जंगल साफ़ हो जाते हैं  बस्तियां उजाड दी जाती है, आज स्थिति यह बन पडी है कि आम आदमी को सडक पर चलने को जगह नहीं बची.
                अब आसमान छूती इमारतें बनने लगी हैं  इनके निर्माण में एक बडा भूभाग लगता है. कल-कारखानों और अन्य बिजली के उपकरणॊं को चलाने के लिए बिजली चाहिए नयी बसाहट को.पीने को पानी चाहिए. इन सबकी आपूर्ति के लिए जगह-जगह बांध बनाए जाने लगे. सैकडॊ एकड जमीन बांध में चली गई. बांध के कारण आसपास की जगह दलदली हो जाती है, जिसमें कुछ भी उगाया नहीं जा सकता. आदमी की भूख यहां भी नहीं रुकती है. अब हिमालय जैसा संवेदनशील इलाका भी विकास के नाम पर बलि चढाने को तैयार किया जा रहा है. करीब दो सौ योजनाएं बन चुकी है और करीब छः सौ फ़ाईलों में दस्तखत के इन्तजार में पडी है. बडॆ-बडॆ बांध बनाए जा रहे हैं और नदियों का वास्तविक बहाव बदला जा रहा है. उत्तराखण्ड में आयी भीषण त्रासदी,और भी अन्य त्रासदियाँ, आदमी की विकासगाथा की कहानी कह रही है.
      आने वाले समय में सब कुछ विकास के नाम पर चढ चुका होगा. जब पेड नहीं होंगे तो कार्बनडाइआक्साईड  और अन्य जहरीले गैसों का जमावडा हो जाएगा? फ़ेफ़डॊं में घुसने वाली जहरीली हवा का दरवाजा कौन बंद करेगा? बादलों से बरसने के लिए किसके भरोसे मनुहार करोगे ?भारत के पुरुषॊं ने भले ही इस आवाज को अनसुना कर दिया हो, लेकिन भारतीय महिलाओं ने इसके मर्म को-सत्य को पहचाना है. 
     इतिहास को किसी कटघरे में खडा करने की आवश्यक्ता नहीं है. वर्तमान भी इसका साक्षी है. महिलाएँ आज भी वृक्षों की पूजा कर रही हैं. वटवृक्ष के सात चक्कर लगाती है और उसे भाई मानकर उसके तनों में मौली बांधती हैं और अपने परिवार के लिए और बच्चों के लिए मंगलकामनाओं और सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थनाएँ करती है. तुलसी के पौधे में रोज सुबह नहा-धोकर लोटा भर जल चढाती हैं. और रोज शाम को उसके पौधे के नीचे दीप बारना नहीं भूलती है. तुलसी के वृक्ष में वह वॄंदा और श्रीकृष्ण को पाती हैं. उनका विवाह रचाती है. पीपल के वृक्ष में जल चढाना –उसके चक्कर लगाना और दीपक रखना नहीं भूलतीं. अमुआ की डाल पर झुला बांधकर कजरी गाती और अपने भाई से सुरक्षा और नेह मांगती है. अनेकों कष्ट सहकर बच्चों का पालन-पोषण करना, कष्ट सहना, उसकी मर्यादा है. और संवेदनशीलता उसका मौलिक गुण. यदि धोके से कोई एक छोटा सा कीडा/मकोडा उसके पैरों तले आ जाए, तो वह असहज हो उठती है और यह कष्ट, उसे अन्दर तक हिलाकार रख देता है. जो ममता की साक्षात मूरत हो, जिसके हृदय में दया-ममता-वात्सल्य का सागर लहलहाता रहता हो, वह भला क्योंकर जीवित वृक्ष को काटने की सोचेगी ?.
      उद्योगपतियों को कागज के ,निर्माण के लिए मोटे,घने वृक्ष चाहिए, लम्बे सफ़ेद और विदेशी नस्ल के यूक्लिप्टिस चाहिए और अन्य उद्दोगों के लिए उम्दा किस्म के पेड चाहिए., तब वे लाचार-हैरान-परेशान,- गरीब तबके को स्त्री-पुरुषॊं को ज्यादा मजदूरी के एवज में घेरते हैं और वृक्ष काटने जैसा जघन्य अपराध करने के लिए मजबूर करते है. मजबूरी का जब मजदूरी के साथ संयोग होता है तो गाज पेडॊं पर गिरना लाजमी है. इनकी मिली-भगत का नतीजा है कि कितने ही वृक्ष रात के अन्धेरे में बलि चढ जाते हैं. इस प्रवृत्ति के चलते न जाने कितने ही गिरोह पैदा हो गए हैं,जिनका एक ही मकसद होता है –पॆड काटना और पैसा बनाना. अब तो ये गिरोह अपने साथ धारदार हथियार के साथ पिस्तौल जैसे हथियार भी रखने लगे हैं. वन विभाग के अधिकारी और गस्ती दल,सरकारी कानून में बंधे रहने के कारण, इनका कुछ भी बिगाड नहीं सकते. केवल खानापूर्ति होती रहती है. यदि कोई पकडा भी गया, तो उसको कडी सजा दिए जाने का प्रावधान नहीं है. उसकी गिरफ़तार होते ही जमानतदार तैयार खडा रहता है. इस तरह वनमाफ़िया अपना साम्राज्य फ़ैलाता रहता है. देखते ही देखते न जाने कितने पहाडॊं को अब तक नंगा किया जा चुका है. आश्चर्य तो तब होता है कि इस काम में महिलाएं भी बडॆ पैमाने में जुड चुकी हैं,जो वृक्ष पूजन को अपना धर्म मानती आयी हैं. यह उनकी अपनी मजबूरी है,क्योंकि पति शराबी है-जुआरी है-बेरोजगार है-कामचोर है, बच्चों की लाईन लगी है, उनके पॆट में भूख कोहराम मचा रही है, अब उस ममतामयी माँ की मजबूरी हो जाती है और माफ़ियों से जा जुडती हैं.

एक पहलू और भी है 

     तस्वीर का दूसरा एक पहलू और भी है और वह है त्याग, बलिदान और उत्सर्ग का. पुरुष का पौरुष जहाँ चुक जाता है, वहीं नारी रणचंडीबनकर खडी हो जाती है .इतिहास के पृष्ठ, ऎसे दृष्टान्तो से भरे पडे हैं. नारी के कुर्बानी के सामने प्रुरुष नतमस्तक होकर खडा रह जाता है. जहाँ नारी अपने शिशु को अपने जीवन का अर्क पिलाकर उसे पालती-पोसती है, अगर जरुरत पडॆ तो अपने बच्चे को दीवार में चुनवाने में भी पीछे नहीं हटतीं. पन्ना धाई के उस बलिदानी उत्सर्ग को कैसे भुलाया जा सकता है.? जब मर्द फ़िरंगियों की चमचागिरी में अल्मस्त हो,अथवा आततायियों के मांद में जा दुबका हो, तो एक नारी झांसी की रानी के रुप में उसकी सत्ता को चुनौतियाँ देती हुई ललकारती हैं.और इन आततायियों के विरुद्ध शस्त्र उठा लेती है.
      पर्यावरण की रक्षा को महिलाओं ने धार्मिक अनुष्ठान की तरह माना है और अनेकानेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं. चिपको आन्दोलन आखिर क्या है?. उसने पूंजींवादी व्यवस्था, शासनतंत्र और समाज के तथाकथित टेकेदारों के सामने जो आदर्श प्रस्तुत किया है ,वह अपने आपमें अनूठा है. जब कोई पेड काटने आता है, तो वे उनसे जा चिपकती है, और उन्हें ललकाराते हुए कहती हैं कि पेड के साथ हम भी कट जाएंगी,लेकिन इन्हें कटने नहीं देंगी. लाल खून की यह कुर्बानी देश के लाखों-करोडॊं पेडॊं की रक्षार्थ खडी हुई. यह एक अहिंसक विरोध था और इन अहिंसा के सामने उन दुर्दांतों को नतमस्तक होना पडा. ऎसी नारियों का नाम बडी श्रद्धा के साथ लिए जाते हैं. वे हैं करमा, गौरा, अमृतादेवी, दामी और चीमा आदि-आदि. पेडॊं के खातिर अपना बालिदान देकर ये अमर हो गई और समूची मानवता को संदेश दे गई कि जब पेड ही नहीं बचेगा, तो जीवन भी नहीं बचेगा. इस अमर संदेश की गूंज आज भी सुनाई पडती है.
      विश्नोई समाज ने पर्यावरण के रक्षा का एक इतिहास ही रच डाला है. पुरुष-स्त्री, बालक-बालिकाएं पेडॊं से जा चिपके और उनके साथ अपना जीवन भी होम करते रहे थे. विश्व में ऎसे उदाहरण बिरले ही मिलते हैं. जोधपुर का तिलसणी गाँव आज भी अपनी गवाही देने को तैयार है कि यहाँ प्रकृति की रक्षा में विश्नोई समाज ने अपने प्राणॊं की आहूतियाँ दी थी. श्रीमती खींवनी खोखर और नेतू नीणा का बलिदान अकारण नहीं जा सकता. शताब्दियां इन्हें और इनके बलिदान को सादर नमन करती रहेंगी.             
       बात संवत 1787 की है. जोधपुर के महाराजा के भव्य महल के निर्माण के लिए चूना पकाने के लिए लकडियाँ चाहिए थी. सब जानते थे कि केजडली का वनांचल वृक्षॊं से भरा-पूरा है. वहाँ के लोग पेडॊं को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते है. ये पेड उनके सुख-दुख में सगे-संबंधियों की तरह और अकाल पडने पर बहुत ही उपयोगी सिद्ध होते रहे हैं. लोग इस बात से भी भली-भांति परिचित थे कि वे पेडॊं कॊ किसी भी कीमत पर कटने नहीं देंगे. महाराजा ने कारिन्दों की एक बडी फ़ौज भेजी, जो कुल्हाडियों से लैस थी. उन्हें दलबल के साथ आता देख ग्रामीणॊं ने अनुनय-विनय आदि किए, हाथ जोडॆ और कहा की ये पेड हमारे राजस्थान के कल्पवृक्ष हैं. ये पेड धरती के वरदान स्वरुप हैं. आप चाहें हमारे प्राण लेलें लेकिन हम पेडॊं को काटने नहीं देंगे. इस अहिंसात्मक टॊली की अगुआयी अमृता देवी ने की थीं.
                             
अमृतादेवी पेड से चिपकी
वे सामने आयीं और एक पेड से जा चिपकी और गर्जना करते हुए कहा-चलाओ अपनी कुल्हाडी....मैं भले ही कट जाऊँ लेकिन इन्हें कटने नहीं दूंगी. उसकी आवाज सुनी-अनसुनी कर दी गई और एक कारिन्दे ने आगे बढकर उसके ऊपर कुल्हाडी का निर्मम प्रहार करना शुरु कर दिया. अपनी माँ को मृत पाकर इनकी तीन बेटियाँ वृक्ष से आकर लिपट गईं. कारिन्दे ने निर्मम प्रहार करने में देर नहीं लगाई. कुल्हाडी के वार उनके शरीर पर पडते जा रहे थे और उनके मुख से केवल एक ही बोल फ़ूट रहे थे:-सिर साठे सट्टे रुंख रहे तो भी सस्तो जाण. इनके बलिदान ने ग्रामीणॊं के मन में एक अभूतपूर्व जोश और उत्साह को बढा दिया था. इसके बाद बारी-बारी से ग्रामीण पेडॊं से जा चिपकता और कारिन्दे उन्हें अपनी कुल्हाडी का निशाना बनाते जाता. इस तरह 363 व्यक्तियों ने हँसते-हँसते अपने प्राणॊं का उत्सर्ग कर दिया.            

संपर्क-  
103 कावेरी नगर छिन्दवाड़ा म.प्र. 480-001
 Mob-  07162-246651 0.94243-56400
E mail address-   
goverdhanyadav44@gmail.com 
yadav.goverdhan@rediffmail.com

सोमवार, 14 अगस्त 2017

अरुण कुमार सिंह गौरव की गजलें



1- हिन्दी कहां है

हिन्दी सपना है हमारी हकीकत नहीं है।
राजभाषा के साथ विचित्र विडम्बना रही है।।

सार्वजनिक सम्मान देने से कुछ नहीं होगा।
आज भी ये चौखट के बाहर खड़ी है।।

कभी तो बुलाएंगे आप इसे घर में ।
राष्ट्रभाषा इस आस में कब से पड़ी है।।

हिन्दी के परखचे उड़ रहे हैं देखिए।
अंग्रेजी की ऐसी यहां आंधी चली है।।

देश आजाद हुआ पर हिन्दी आज भी।
अंग्रेजी के साथ में जी रही है।।

पुरखों ने इसे लहू से सींचा था।
आप नमाने मगर बात ये सही है।।

हिन्दी भी अंग्रेजी में लिखने वालों कहिए।
क्या ये हिन्दी की अर्थी सजी है।।

दुनिया के किसी आजाद देश में गौरव।
राष्ट्रभाषा का हरगिज ऐसा तिरस्कार नहीं है।।



2- हिन्दी क्या है

भारत की आन बान और शान हिन्दी है।
हम सबकी विदेश में पहचान हिन्दी है।।

हर भाषा प्यारी है इंकार नहीं लेकिन।
जनगण का केवल प्यार नहीं अभिमान हिन्दी है।।

स्वाधीनता संग्राम का इतिहास कहता है।
हमारी आजादी का एक बरदान हिन्दी है।।

कश्मीर से कन्याकुमारी तक जो भी मुद्दे हैं।
उन सारे विवादों का समाधान हिन्दी है।।

आजादी के दीवानों की चाहत इसको कहिए।
गांधी सुभाष के दिल का अरमान हिन्दी है।।

अगर सच कहने का अधिकार मिले तो।
हमारे अमर शहीदों का बलिदान हिन्दी है।।

कहने वाले तो यहां तक कहते हैं।
भारत में रहने वाला हर इंसान हिन्दी है।।

भारत को जब माता मान लिया है गौरव।
तो इसकी मर्यादा का परिधान हिन्दी है।।

संपर्क-
अरुण कुमार सिंह गौरव
चरौंवां बलिया उ0 प्र0 221718
मोबा0-8858604936

रविवार, 6 अगस्त 2017

राहुल देव की कहानी : रॉंग नंबर



         उ.प्र. के अवध क्षेत्र के महमूदाबाद कस्बे में 20 मार्च 1988 को का जन्म | शिक्षा लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ और बरेली कॉलेज, बरेली से |
साहित्य अध्ययन, लेखन, भ्रमण में रूचि | अभी तक एक कविता संग्रह तथा एक बाल उपन्यास प्रकाशित | पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतरजाल मंचों पर कवितायें/ लेख/ कहानियां/ समीक्षाएं आदि का प्रकाशन | इसके अतिरिक्त समकालीन साहित्यिक वार्षिकी ‘संवेदन’ में सहसंपादक | एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन |
          वर्ष 2003 में उ.प्र. के तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री द्वारा हिंदी के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत, वर्ष 2005 में हिंदी सभा, सीतापुर द्वारा युवा कहानी लेखन पुरस्कार से तथा अखिल भारतीय वैचारिक क्रांति मंच, लखनऊ द्वारा वर्ष 2008 में विशिष्ट रचनाधर्मिता हेतु सम्मानित |
सम्प्रति उ.प्र. सरकार के एक विभाग में नौकरी के साथ साथ स्वतंत्र लेखन में प्रवृत्त |

राहुल देव की कहानी
रॉंग नंबर

   आज फिर वही हुआ | जफ़र के मोबाइल की घंटी बजी | फ़ोन उठाया तो पता चला रॉंग नंबर | ये स्थिति कोई नयी नहीं थी | जफ़र ने जब से अपना नया मोबाइल लिया था तभी से यह सिलसिला शुरू हो गया था | हफ्ते में दो-चार रॉंग नम्बरों से कालें आ ही जातीं थीं | पहले-पहल जब दोस्तों ने जफ़र से उसका नंबर पूछा तो उसने बताया 9454.....


‘क्या बे सीएसएलएल का नंबर लियो है ?’, दोस्तों ने जोर का अट्टहास लगाते हुए कहा |
‘क्यूँ क्या हुआ ?’, जफ़र ने पूछा |
‘अबे सीएसएलएल सरकारी लोगों की पहचान है, थकी सेवा है | तुझे इसका फुलफॉर्म मालूम है कि नहीं सीएसएलएल मतलब काम्प्लीकेटेड सेवा लेके लुटे |’, जफ़र के दोस्तों ने उसका मज़ाक उड़ाते हुए कहा |

        जफ़र एक गरीब घर का अच्छा लड़का था | इन्टर गाँव से पास करने के बाद उसके अब्बू ने उसे शहर जाकर कोई हुनर सीखने को कह रहे थे | जफ़र होनहार व काम में तेज लड़का था | उसका मन आगे और पढ़ने को था | इस बारे में जब उसके अब्बू को पता चला तो वे बोले, ‘बेटा, घर के हालात का तो तुझे पता ही है | कोई हुनर सीखेगा तो कमाएगा | पढ़कर क्या करेगा और पढ़ाई में भी पैसा लगेगा | तुझे तो पता ही है फिर पढ़ने-लिखने के बाद भी आजकल नौकरी मिलती कहाँ है ?’


        जफ़र की अम्मी से जफ़र की उदासी देखी न गयी उन्होंने अपनी जमापूंजी अपने शरीर से उतारकर दे दी | इस प्रकार जफ़र ने किसी तरह शहर के एक कॉलेज में ग्रेजुएशन में दाखिला ले लिया | अब घर पर कुल चार प्राणी रह गए | उसकी अम्मी, अब्बू और जफ़र की दो बहनें |


       कुछ ही दिनों में शहर की चकाचौंध से जफ़र का दिमाग खुलने लगा | यार, दोस्त बढ़े और उसकी पढ़ाई का एक साल गुज़र गया | दूसरे साल जफ़र ग्रेजुएशन सेकंड इयर के एग्जाम देने के बाद घर आया हुआ था | उसने एक दिन अपने अब्बू से मोबाइल दिलवाने को कहा | उसके अब्बू ने रुखी आवाज़ में कहा, ‘मोबाइल क्या करेगा तू ? यहाँ खाने को पैसा नहीं और तुझे मोबाइल चाहिए | पीसीओ से महीने में एकाध बार फ़ोन कर लिया कर बस...|’
जफ़र उगता सूरज था | उसके सभी दोस्तों के पास एक से एक बढ़िया मोबाइल फ़ोन्स थे | जफ़र ने अम्मी से कहा, ‘अम्मी मेरे दोस्त सुहैल के पास बहुत बढ़िया मोबाइल है, उससे फोटू भी खिंच जाता है | उसके मामू ने उसे ख़ास सउदिया से लाकर दिया है | अम्मी मेरे मामू मुझे कभी कुछ नहीं देते...!’
अम्मी क्या कहतीं, चुप रहीं और इस साल भी जफ़र की मोबाइल लेने की ख्वाहिश पूरी न हो सकी |

          फाइनल इयर में पहुँचते- पहुँचते वह दो-चार जगह ट्युशंस पढ़ाने लगा | मोबाइल खरीद लेने की उसकी इच्छा ने उसके खर्चे कम करा दिए | पैसे जोड़-जोड़ कर धीरे-धीरे उसने मोबाइल खरीदने लायक पैसे जमा कर लिए और ग्रेजुएशन का रिजल्ट आते-आते उसने एक मोबाइल खरीद लिया | अपने नए मोबाइल के लिए उसने सीएसएलएल कंपनी का सिमकार्ड लिया था | उस दिन वह बहुत खुश था और तुरंत ही उसने अपने सभी दोस्तों को अपना नंबर बाँट दिया था | उसने सबसे पहली कॉल अपने घर पर की और बताया कि उसने अपनी कमाई से एक अच्छा सा मोबाइल फ़ोन ख़रीदा है | उसकी बहनें उसका मोबाइल देखने के लिए जिद करने लगीं | उसके अम्मी और अब्बू भी यह सोचकर खुश हुए की चलो लड़का लाइन पे लग गया | उसने कई बार अपने मोबाइल को उलट-पलट कर देखा, कभी बटन दबाकर रिंगटोन्स सुनने लगता तो कभी गेम्स खेलने लगता | अपनी कमाई से लिए गए इस आधुनिक खिलौने से खेल-खेलकर वह प्रफुल्लित हो रहा था |
ट्युशंस से उसका खर्च निकल आता था इसलिए अब उसने घर से मदद लेना भी कम कर दिया था | आज दोस्तों की बात सुनकर पहले तो उसने नंबर चेंज करने की ठानी लेकिन लगभग सभी जगह वह अपना नंबर दे चुका था | उस समय आज की तरह एमएनपी सेवा भी नहीं थी | खैर उसका वह नंबर बना रहा |


          ग्रेजुएशन पास करने के बाद उसने कई जगह नौकरी वगैरह के लिए हाथ-पाँव मरने शुरू कर दिए मगर बेरोजगारी के इस दौर में उसे आसानी से नौकरी कहाँ मिलनी थी | कुछ समय बाद जफ़र ने मार्किट में पुस्तकों की एक दूकान में एक छोटी-मोटी नौकरी कर ली जिससे उसके रूम का किराया एवं उसका अन्य खर्च निकल आता था | जफ़र के कमरे से पुस्तकों की दूकान लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर थी | पैसे बचाने के लिए वह अपने कमरे से दूकान तक पैदल ही जाता था | उसके पास इतने पैसे न थे की वह कोई गाड़ी खरीद सकता मगर उसके मन में तमाम बढ़िया गाड़ियों की तस्वीरें छाईं रहतीं | सड़क पर एक से एक अच्छी गाड़ियों को देखकर उसका मन मचल उठता | वह सोचता कि काश वह भी एक गाड़ी खरीद सकता जिस पर वह अपनी अम्मी को बैठाकर पूरे शहर भर की सैर कराता |


       जफ़र का तेज दिमाग धीरे-धीरे कुंद होता जा रहा था | घर से पहली बार शहर आते वक़्त उसकी अम्मी ने नसीहत दी थी कि कि बेटा कुछ भी हो हर वक़्त यह जरूर याद रखना कि अल्लाह हमें देखता है उसकी नज़रों से कहीं कुछ भी छिपा नहीं है | ये दुनिया और इस दुनिया के तमाम मसले उसी के बनाए हुए है | बुरे वक़्त में घबराना नहीं और अच्छे वक़्त में उसे भूलना नहीं | मगर अब वह पूरी तरह से मनीमाइंडेड बन चुका था | वह सोचता था कि शायद आज के दौर में जिसके पास पैसा है वही खुश है | उसने गरीबी के दंश को झेला था जिसका ज़िम्मेदार वह ऊपरवाले को मानता था और इसी वजह से वह नमाज़ भी नहीं पढ़ता था |


            पुस्तकों की दूकान का मालिक जफ़र के काम से खुश था | जफ़र भी मेहनत से अपना काम करता था | एक दिन दूकान का मालिक किसी काम से बाहर गया हुआ था और जफ़र दूकान पर अकेला था | अचानक उसकी नज़र काउंटर पर गल्ले की तरफ पड़ी जिसमें चाभी लगी हुई थी शायद जल्दी में दूकान मालिक चाभी लगी छोड़ गया था | जफ़र के अलावा उस समय दूकान पर और कोई नहीं था | उसने गल्ला खोलकर देखा तो उसमें रुपये भरे हुए थे | गल्ले में रक्खे रुपयों को देखकर जफ़र का मन डोल उठा | एकाएक पता नहीं क्यों उसके मन में रुपये चोरी करने का विचार आया | उसकी अंतरात्मा ने उसे एक बार रोका पर फिर भी वह अपने आप पर नियंत्रण न रख सका | उसने इधर-उधर देखकर तुरंत कुछ पैसे पार कर दिए, तत्पश्चात उसने गल्ला बंद किया और पूर्ववत अपने काम में लग गया | थोड़ी देर में जब दूकान मालिक वापस आया तो जफ़र अन्दर ही अन्दर बहुत डर रहा था लेकिन ऐसा वैसा कुछ भी नहीं हुआ | शाम को जफ़र अपने कमरे पर वापस आया तो उसने चोरी किये गए रुपयों को गिना, पूरे तीन हज़ार रुपये थे | वह बहुत खुश हुआ, उसे जल्दी से पैसे बनाने का यह आईडिया बहुत अच्छा लगा |


         धीरे-धीरे जफ़र की संगत भी बिगड़ती जा रही थी | शाम को दूकान से छूटने के बाद बिगडैल लड़कों के साथ घूमना, पिक्चरें देखना और सिगरेट पीना शुरू कर दिया था उसने | पारिवारिक संस्कारों, विचारों, पढ़ाई आदि को ताक पर रखकर जीवन जीने लगा था जफ़र |
एक दिन हमेशा की तरह जफ़र अपने दोस्तों के बीच बैठा हुआ तफरीह कर रहा था कि उसका मोबाइल घनघना उठा | उसने उठाया तो कोई रॉंग नंबर था | उधर से आवाज़ आई-


         ‘हेल्लो पापा ! आप जल्दी से घर आ जाओ, बड़ी दिक्कत है यहाँ पर | हम लोगों को दिन दिन भर खाना नहीं मिलता | उधार वाले रोज-रोज आकर आपके बारे में पूछते हैं | आप कब तक आओगे पापा...?’
जफ़र की कुछ समझ में नहीं आया तो उसने फ़ोन काट दिया | फ़ोन पर कोई बच्चा बड़ी ही दैन्य आवाज़ में बोल रहा था | इसके बाद जफ़र ज्यादा देर तक अपने दोस्तों के बीच बैठ न सका | वह अपने कमरे पर लौट आया |
रात में वह जब अपने बिस्तर पर लेटा तो उस रॉंग नंबर वाले बच्चे की आवाज़ उसके सामने गूंजने लगी | उसे ऐसा लगा कि जैसे उसका बचपन ही उससे बातें कर रहा हो | पूरी रात उसे नींद नहीं आई |


          इस बात को धीरे-धीरे चार-पांच दिन बीत गए | जफ़र के मोबाइल पर कोई रॉंग नंबर नहीं आया | जफ़र खुश था कि शायद नेटवर्क की गड़बड़ी ठीक हो गयी कि तभी उसका मोबाइल बज उठा | उसने गुस्से में फ़ोन उठाया तो उधर फिर किसी बच्चे की आवाज़ थी-
‘पापा...पापा आप हो ! आप आ जाओ न ! आप जबसे कमाने के लिए बाहर गए हो तबसे मम्मी की तबियत बहुत खराब है और आज सुबह से हमने कुछ भी नहीं खाया है...!’


             ‘बेटा तुम्हारे पापा कहीं गए हुए हैं | तुम अपने घर का पता मुझे बता दो तो मैं कुछ पैसे भिजवा देता हूँ |’, जफ़र ने धीरे से कहा |
इस पर बच्चे ने अपने घर का पता उसे बता दिया जिसे जफ़र ने अपनी एक कागज़ के टुकड़े पर नोट कर लिया | वह सोच रहा था कि एक ही जगह से इतनी बार रॉंग नंबर कैसे आ रहा है !
उसने यह बात शाम को अपने दोस्तों को बताई तो वे हंसी उड़ाने लगे | वे बोले,
‘अबे बेवकूफ तो तू मदद करेगा उस परिवार की जिनको तू जानता तक नहीं है |’


       जफ़र ने कहा, ‘मेरे पास उसका एड्रेस है कम से कम चलकर देखें तो सही अगर उनकी स्थिति वास्तव में खराब है तो हमें चलकर उनकी मदद करनी चाहिए |’
उसके दोस्तों को उसका आईडिया पसंद नहीं आया | उन्होंने एक स्वर में कहा-
‘तुझे समाज सेवा का शौक चर्राया है तो तू जाके देख | हम लोग तेरे साथ फ़ालतू में कहीं नहीं जाने वाले | अरे यार कोई हम लोग भी बहुत अमीर तो हैं नहीं | जब अपनी हालत ही पतली है तो हम मदद कैसे कर सकते हैं |’
जफ़र बुझे मन से अपने रूम पर वापस लौट आया |

        वह अपने कमरे में बैठा था कि उसकी नज़र अपनी संदूकची पर पड़ी जिसमे वह दूकान से चुराए हुए रुपये जमा करता था | उन्होंने संदूकची खोलकर गिने तो पूरे पंद्रह हज़ार रुपये थे | उसके सामने अब अपने सपने नहीं बल्कि उस बच्चे का भूख से पीड़ित चेहरा आ रहा था | जफ़र हमेशा अपनी तुलना अपने से बड़े लोगों से करता था उसे इल्म ही नहीं था कि उससे भी ज्यादा गरीब लोग इस दुनिया में पड़े हुए हैं | आखिरकार अपने आप से एक लम्बी जद्दोजहद के बाद जफ़र ने निश्चय किया कि कल वह दूकान से छुट्टी लेकर उस बच्चे के घर जायेगा तथा इकट्ठा किये हुए ये सारे पैसे उसके परिवार को दे देगा | शायद यह उसके संचित संस्कार ही थे जो कि धीरे-धीरे उसके हृदय को परिवर्तित कर रहे थे | उसने अल्लाह से अपने बुरे कर्मों की तौबा की तथा आगे से कभी चोरी न करने की कसम खायी |


        आज दूकान पर जाते हुए वह अपने आप को काफी हल्का महसूस कर रहा था | दूकान पर पहुंचकर उसने दूकान मालिक से कुछ जरूरी काम होने की बात कहकर आज न आ पाने की बात कही तथा वह वहीं से उस परिवार के घर के लिए निकल गया |


       रास्ते की दूरियां तय करते-करते तथा पूछते-पाछते वह दिए गए पते पर पहुँच गया | उस घर के बाहर पहुँचने पर उसने देखा कि घर की स्थिति अत्यंत खराब थी | उसने लकड़ी का टूटा हुआ दरवाज़ा खटखटाया तो उधर से कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला | आस-पड़ोस के लोग उसे खा जाने वाली नज़रों से घूर रहे थे मानो पूछना चाहते हों कि वह यहाँ क्यों आया है ? कौन है वह ??
जफ़र ने सोचा कि शायद यहाँ कोई नहीं आता | उसने हड़बड़ी में अपने कपड़ों को ठीक करने की कोशिश की, इतने में एक दस ग्यारह साल के बच्चे ने दरवाज़ा खोला और बोला-


        ‘आप कौन हो ? पापा अभी नहीं हैं | जब पापा वापस आ जायेंगे तब आप अपने पैसे ले जाना | अभी हमारे पास आपको देने के लिए कुछ नहीं है |’
शायद वह जफ़र को भी उधार वाला समझ रहा था |


जफ़र बोला- ‘बेटा ! मैं तुम्हारे पापा का दोस्त हूँ | याद है मेरी तुमसे फोन पर बात हुई थी |’
‘आप...हाँ..हाँ याद आया, लेकिन आप इतनी जल्दी आ गए, आप अन्दर आ जाओ |’, लड़का थोड़ा खुश होते हुए बोला |
बरसात की वजह से उस घर में भयंकर सीलन थी | जफ़र ने अपने आप को व्यवस्थित करते हुए एक कोने में पड़ी हुई कुर्सी पर बैठ गया | लड़का भागकर अन्दर के कमरे में चला गया | जफ़र ने अपनी नज़रें उठाकर इधर-उधर देखा तो उसे महसूस हुआ कि दुनिया में उससे भी ज्यादा गरीब लोग हैं जिनके पास शिक्षा तो दूर खाने तक को नहीं है | पता नहीं हमारी सरकार को यह सब क्यों नहीं दिखता...


        थोड़ी देर बाद एक बीमार सी लगने वाली महिला ने कमरे में प्रवेश किया | बच्चे ने शायद उसे जफ़र के बारे में बता दिया था | उसने एक आशा भरी दृष्टि से जफ़र की ओर देखा | जफ़र ने उसे पैसे देते हुए कहा कि यह पैसे उसके पति ने भेजे हैं | यूँ कहकर वह तेजी से जाने के लिए खड़ा हो गया | जफ़र को डर था कि कहीं वह ज्यादा पूछताछ न करने लगें | इससे पहले कि वह महिला उससे कुछ और पूछ पाती वह तेजी से बाहर की ओर निकल गया |


     लौटते वक़्त जफ़र के मन में झंझावात उमड़ रहा था | उसे अपने पिछले कुछ समय के कृत्यों पर बहुत पश्चाताप हो रहा था | उसने आसमान की ओर मुंह कर सही राह दिखाने के लिए अल्लाह का शुक्रिया अदा किया | घर आकर उसने अपने मोबाईल पर अपनी अम्मी और अब्बू से बात की | अब उसके दिल में एक शांतिमय सुकून था | इस एक रॉंग नंबर ने उसके जीवन की दिशा बदल दी थी |
--


संपर्क सूत्र- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर, उ.प्र. 261203
मो– 09454112975
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

हिंदी जगत की समृद्धि के लिए यह एक महत्‍वपूर्ण कदम : धर्मेश कठेरिया





 रचनाओं के श्रव्य (ऑडियो) अनुबंध के संबंध में
 महोदय/महोदया,
          सादर अवगत करना है कि AVIS Pvt. Ltd. (Agastya Voice And Infotainment Services Private Limited) भारत की तेजी से बढ़ती हुई हिंदी में आडियो बुक निर्माणकर्ता कंपनी है। हमें आशा है कि आप कंपनी से जुड़कर देश के उन करोड़ों हिंदी प्रेमियों एवं दिव्यांगजनों तक अपने महत्वपूर्ण लेखन को पहुंचाकर गौरवान्वित महसूस करेंगे। इस संबंध में आपके द्वारा किए गए महत्वपूर्ण लेखन कार्य को कंपनी श्रव्य (ऑडियो) रूप में करना चाहती है।

अत: आप से अनुरोध है कि आप अपनी कृति/पुस्तक के श्रव्य (ऑडियो) के अधिकार प्रदान करने की अनुमति दें।
       सादर अनुरोध के साथ।
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 Sd/-
   निदेशक
AVIS
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अनुबंध पत्र Agastya Voice And Infotainment Services Pvt. Ltd.
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भाग एक:
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AVIS (अगस्‍त्‍य वायस एंड इंफोटेनमेंट सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड, प्‍लाट न. 02, शास्त्री नगर, जबलपुर, मध्‍यप्रदेश, भारत ।

भाग दो:

1.       पृष्ठभूमि
AVIS प्राइवेट लिमिटेड भारत की एक विधिवत स्थापित व्यावसायिक संस्‍थान है। यह भारत के मध्‍यप्रदेश राज्य के जबलपुर शहर में स्थित है।  

सुश्री/श्रीमती/श्री/डॉ/..........................................................................................द्वारा लिखित पुस्तक/ लेख/ कविता/ उपन्‍यास/ कहानी/ संस्‍मरण/ जीवनी/ लेख एवं अन्‍य लेखन...

प्रीमियम : 1. ..............................................
             2. ..............................................
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नान प्रीमियम: 1. .........................................
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                  3...........................................
                  4. ........................................
                  5. ........................................
    (कृपया आवश्यकतानुसार बढ़ाए)

·         लेखकों से अनुरोध है कि कृपया दोनों श्रेणियों प्रीमियम और नान प्रीमियम हेतु अपनी कृति/पुस्तक उप्लब्ध कराएं।

.....................का अनुबंध करते हुए AVIS प्राइवेट लिमिटेड को मेरे द्वारा किये गये कार्य की श्रव्य रूप में (ऑडियो में) करने की अनुमति देता/देती हूं।

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·        किसी भी समय नान प्रीमियम श्रेणी के अंतर्गत कोई भी कृति/पुस्तक अधिक सुनी जा रही है तो उसे तत्काल प्रीमियम श्रेणी में स्थानांतरित कर दिया जाएगा।

14.   यह अनुबंध सूचना तकनीक अधिनियम 2000 (ITA -2000 या  IT ACT) और अन्‍य संशोधनों (ITA 2008) के सभी नियमों का पालन करता है।
15.  अनुबंध पत्र में किसी भी प्रकार का संशोधन मान्‍य नहीं होगा ।
          Sd/                          
लेखक  नाम  
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