बुधवार, 17 जनवरी 2018

समकालीन परिदृश्य की कहानियाँ : रामप्रसाद राजभर

   समीक्ष्य पुस्तक - काफिल का कुत्ता
 
            चर्चित युवा कहानी कार विक्रम सिंह का यह तीसरा कहानी संग्रह है।इससे पूर्व दो कहानी-संग्रह क्रमशः वारिस(2013)और और कितने टुकड़े’(2015) में आये और अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। विक्रम सिंह की कहानियाँ हमारे समाज व समय की सच्चाई को दर्शाती है। संग्रह की पहली कहानी है अपना खून’!पहाड़ व पहाड़ी-जीवन,परिवेश व वहाँ की समस्याओं को लेकर बुनी हुयी एक बेहतरीन कहानी को बड़े परिश्रम से लिखा है लेखक विक्रम  सिंह ने!कहानी शुरू होती है और कहानीकार उपस्थित रहता है पूरी कहानी में!कहानी पढ़ते जाते हैं ,आँखे शब्द-दर-शब्द पढ़ती जाती है और दीमाग में दृश्य बनते जाते हैं!कहानी में इतिहास का समावेश भी कहानी की आवश्यकता के साथ वर्णित है और हमें हमारे बीते वक़्त की याद को हरा कर जाते हैं!    
              
कहानी के शुरूआत में उत्तराखंड़ राज्य के संघर्ष व पहाड़ो में ब्रिटिश के आगमन-गमन के ब्यौरे हैं,जो लेखक की इतिहास की रूची का उदाहरण हैं और कहानी की नीव भी!!ग्रामीण-जीवन छोटी बातों में ही जीवन को उत्सवमय बना लेते हैं!पहाड़ी परिवेश की असुविधा में अध्यापक,डॉक्टर या अन्य सरकारी सेवक जो जनता के लिये नियुक्त होते है,पर अपनी असुविधा को देखकर पलायन कर जाते हैं और पीछे वो जनता रह जाती है जो अभाव में जीने की आदी है!पोस्टमैन हरेक जगह के भ्रष्ट हैं!डाक की पूरी सामग्री हाथतक पहुंचाना कर्म है उनका पर उसके लिये नज़राना चाहिये होता है,कहानी में यह भी अनायास समझ में आता है,जब एक चिट्ठी के लिये दो रूपये ले लेता है पोस्टमैन इंदर से! 

                            कहानी में जो एक और तथ्य है वह ये कि ,'प्राकृतिक खनिज व अन्य सम्पदा से परिपूर्ण जितने राज्य हैं वहां निर्धनता का स्थायी वास है,धन-सम्पदा का दोहन तो सरकारी नीतियों से लाभ लेनेवाले पूंजीपति उठा ले जाते है!इसलिये वहाँ की गरीब युवापीढ़ी अपने सपनों की होली जलाकर काम व धनोपार्जन के लिये दूर-दराज के क्षेत्रों में चले जाते हैं,जहाँ वे हाड़तोड़ परिश्रम करते हैं और मुआवजे के ऐवज में इतना ही पा पाते हैं कि,'मैं भी भूखा न रहूं,परिवार न भूखा सोय!'साधू के लिये कुछ नहीं बच पाता!आगे जो कहानी है वह शीर्षक के हिसाब से है!आज के समाज में भी लोगों को संतान और वह भी पुत्र की इच्छा प्रबलता से घेरे हुये है!और इसी चाह में नायिका फंसती है और कहानी भावपूर्ण होती जाती है!कहानी में दो जगह लेखक का विद्रोही स्वर मुखर होता है!!

"मेरे हुलिये पर हंस पड़ा था कोई,रो दिया मेरी शायरी सुनकर!''                   
संग्रह की दूसरी कहानी शीर्षक कहानी है काफिल का कुत्ता । फैज अहमद फैज साहब के बेहतरीन शेर के साथ कहानी की शुरुआत होती है।कहानी की शुरुआत एक कॉलोनी से होती है। जैसा कि अमूमन होता है, किसी भी नई बस्ती में कुत्तों की संख्या अधिक होती है; वह भी आवारा कुत्तों की।  कहानीकार कुत्तों और मनुष्य का तुलनात्मक अध्ययन कर पाता है कि,’ मनुष्य भी वास्तव में कुत्ता ही है जो धनिक नामक बड़े कुत्ते की गुलामी करने को विवश है।व्यंग्यात्मक संस्मरण की तरह कहानी आरंभ होती है।जिस अनुपात में पिल्ले खत्म हुए थे उस अनुपात में हम सब जिंदा थे कुत्ते की भूमिका बस सहवास  तक ही थी उसका पालने से कोई मतलब नहीं था।दो दशक पहले की बस्तियां कैसी थी? वहां क्या-क्या हलचलें हो रही थी? इन सब का बहुत सुंदर चित्रण कहानीकार ने किया है। वास्तव में किसी कहानी का सूत्रधार स्वयं कहानी कार होता है।ठीक वैसे ही इस कहानी में भी सूत्रधार के रूप में कहानीकार मौजूद है। जो समय-समय पर अपनी मौजूदगी को दर्शाते जाते हैं जिससे कहानी की विश्वसनीयता बढ़ती है। एक समय के पश्चात बचपन समाप्त हो जाता है। किशोरावस्था का अवसान हो जाता है।और रोजगार की समस्या हमारे सामने सुरसा के मुंह की तरह बाए खड़ी मिलती है।तब हमें पता चलता है वास्तविक दुनिया का।तब युवाओं को घर छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ता है रोजगार के लिए:- कुत्तों के पिल्लों की तरह कॉलोनी से लड़के खाली हो रहे थे।... हां वह मर नहीं रहे थे मर मर के जी रहे थे।कहानी में प्रेम प्रसंग भी यथा समय आता है पर वह गौण है। हमारी शिक्षा व्यवस्था रोजगार के अवसर प्रदान नहीं करती है।     
       आज के युवा बेहतर आजीविका की तलाश में खाड़ी देशों की ओर पलायन करते हैं। उन्हें वहां प्रकाश जवान दिखता है।यहां से  वहां जाकर वे वहां के घनीभूत अंधेरों में फँस जाते हैं। वहां जाकर वहां के शोषक मालिकों की गिरफ्त में फंसकर उनका पूरा जीवन नष्ट हो जाता है। अक्सर हम जीवन में जो देखते हैं वह दृश्य वैसे ही नहीं होते। मृगमरीचिका का भ्रम अक्सर रेत के विशाल मरुस्थल में ही होता है। एक मोटी रकम की व्यवस्था के पश्चात विदेश जाने की जुग तंत्र की है। कहानी खाड़ी देश में गए कामगरो के दुखद व कष्टमय जीवन का सटीक  बयान है।बड़ा कर्ज लेकर कमाने गये युवकों  की विवशता उस कर्जषको चुकाने की भी होती है। और वहाँ की कानून-व्यवस्था भी उन्हीं के विरोध में होती है सो चाहकर भी वे कुछ नहीं कर पाते। खाड़ी देश में काम करने गया युवा वास्तव में वहां के धनीको का कुत्ता बनकर रह जाता है।
 
दरे गैर पर भीख मांगों न फन की।
जब अपने ही घर में खजाने बहुत हैं। नौशाद
 
                      सच कितने धारदार है उनसे न पूछिये:-गोरख पाण्डेय संग्रह की अगली कहानी बद्दू है। कहानी का आगाज अदम  साहब के शानदार शेर से होती है कहानी वे किसानी और काम गरी के साथ-साथ अन्य विषयों व कथा वस्तु का समावेश हुआ   2 पीढ़ियों के अंतराल में समाई कहानी कई महत्वपूर्ण सवालों से जूझती है। और समाधान भी प्रस्तुत करती है ।पलटन व तारकेश्वर गांव से कोयला खदान की ओर काम की तलाश में जाते हैं तारकेश्वर वही जम जाता है और पलटन गांव वापस आ जाता है।कालांतर में  परिस्थितियां ऐसी हो जाती है कि नौकरी वालों की तनख्वाह में  आशातीत  बढ़ोतरी होती है अन्य सुख-सुविधाओं के साथ। जिससे वे मालामाल हो  जाते हैं और खेती करने वाले किसान निर्धनता की अतल गहराईयों की ओर सरकते जाते हैं।  परिस्थितियाँ  पलटती जाती हैं समय के साथ।पलटन अपनी भूमि तारकेश्वर को बेचता है। इस कहानी में भी शिक्षा व्यवस्था व उसका रोजगार उन्मुख न होने के कारण फैली बेरोजगारी की विशाल समस्या पर प्रकाश स्वतः पड़ता है ।जब नौकरी काम करने वालों को ही मिलती है तो क्यों सरकार फालतू का BA,B.Com पढा रही है। जमाना अब इतिहास भूगोल का नहीं रह गया है।पृष्ठ-84
                
    पलटन को अपनी जमीन बेचनी पड़ती है क्योंकि वह अपने बेटे धनंजय को खाड़ी देशों में काम के लिए भेजना चाहता है पर उसे जमाने की चालबाजियों  और हकीकत का पता नहीं होता पूरी तैयारी के साथ पलटन अपने बेटे धनंजय के साथ मुंबई इंटरव्यू के लिए पहुंचाता है इस विशालकाय  समुद्र में कई लोग विदेश जाने के लिए गोता लगा रहे हैं बड़ी बड़ी शार्क व व्हेल जैसी मछलियां निगलने के  लिए तैयार थी।पृष्ठ-85
                  
    आखिर यही सत्य है। विदेश में जाकर काम करने को उत्सुक वॉव को युवाओं को अपने ही देश में रोजगार की संभावनाओं को स्वयं ही पैदा करना होगा धनंजय वहां जाकर फँस तो जाता है पर देव कृपा से वह वापस आने में कामयाब हो जाता है।कई ऊहापोहो से गुजरती कहानी को समाधान मिल जाता है कि,’सही दिशा में परिश्रम कर रोजगार व धन दोनों को प्राप्त किया जा सकता है।                      
     संग्रह की चौथी कहानी आवारा अदाकारहै।कहानी कस्बे का और दो दशक पूर्व के कस्बाई जीवन का जीवन्त चित्रण है। प्रेम और वह भी निश्छल हो तो सार्थकता की सीमा के पार तक जाता है। पर परिणाम तक नहीं पहुँच पाता।गुरूवंश ऐसे ही अपने प्यार को पाने के लिये जीवन और समाज के महासागर में गोते लगाता है पर बहुत प्रयास के पश्चात भी सफल नहीं हो पाता और सिनेमा की चकाचौंध से भरी दुनियाँ में अटक जाता है सुखमय भविष्य की कल्पना लिये।कहानी में पढ़े-लिखे बेरोजगार युवाओं की मनःस्थिति को बाखूबी शब्द-रूप दिया है लेखक ने।इस कहानी में  पुरानी कहावत चरितार्थ होती है,’पढ़े फारसी बेचे तेल।देखो भाई करम के खेल।।गुरूवंश के रूप में  लेखक ने एक ऐसा चरित्र गढ़ा है जो तमाम योग्यताओं के बावजूद निम्न से निम्न कार्य करने में  संकोच नहीं करता।इससे यह संदेश भी प्राप्त होता है कि मात्र पढ़कर ही रोजगार के अवसर के भरोसे नहीं रहना चाहिए अपितु अवसरों का स्वयं निर्माण करना चाहिए।प्रयास सतत् करते रहना चाहिये,सफलता-असफलता के परिणाम को परे धकेलकर।कस्बे व महानगरीय दृश्यों का सटीक बयान भी है। अभिनय की रंगीन व चकाचौंध दुनियाँ में कई हीरे अपनी चमक पूरी बिखेर नहीं पाते,ऐसे ही अनाम और गुमनाम कलाकारों की श्रेष्ठ कहानी है। 
                   
   अंतिम कहानी रास्ता किधर है में कहानीकार उस दुविधा का हल खोजने की कोशिश मे है कि ग्रामीण जीवन और शहरी जीवन में  विवाह की कौन सी रीति सफल है?  
              
    हम जिन कामों में  खुश होते हैं उन्ही कामों पर अपने बच्चों पर पाबंदी लगा देते हैं।जैसा कि इस कहानी में  भी है।बाप एक ब्याहता पत्नी की मौजूदगी के बावजूद दूसरी स्त्री से तमाम सम्बन्ध कायम रखता है पर अपनी पुत्री पर प्यारन करने की पाबंदी। जिस घर में लड़की होती है उस घर के माँ-बाप की जिम्मेदारी में ओवरटाइम का समय मुफ्त में जुड़ जाता है।इसी चिन्ता के साथ कहानी आरम्भ होती है। पंजाब की पृष्ठभूमि पर आधारित है कहानी सो नशा अनिवार्य है,एक समस्या के रूप में।पर यदि माँ-बात व नजदीकी रिश्तेदार चौकन्ने हो तो इस समस्या को नेस्तनाबूत किया जा सकता है।
                 
     महिलाओं के आर्थिक रूप से समृद्ध होने की थीम को लेकर बुनी हुई एक बेहतरीन कहानी से रूबरू होते हैं हम,’अभी तुम्हारा वक़्त पढने-लिखने का है।तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा होना है। .....अगर तुम्हें डबलू से इतना ही प्यार है तो अभी उसे कहो कि वह अच्छी नौकरी की तैयारी करे ताकि शहर में अच्छा घर लेकर तुम्हें अच्छे से रख सके।...तुम भी पढ-लिखकर आत्मनिर्भर बनो क्योंकि पत्नी को हर मोड़ पर अपने पति का हाथ बटाने के लिये आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है। पृष्ठ-125

                 विक्रम सिंह की कहानियाँ हमारे समाज व समय की सच्चाई को दर्शाती हैऔर कहानीकार के पास जीवन का विस्तृत व गहरा अनुभव है जो इन कहानियों में आया है। साधुवाद विक्रम सिंह को इन कहानियों के लिए।
संपर्क सूत्र- रामप्रसाद राजभर,अल्फा स्टील,अर्नोस नगर,वेलूर साउथ,तृश्शूर-680601,केरल।
  काफिल का कुत्ता-विक्रम सिंह, अमन प्रकाशन,कानपुर। 
फोन नम्बर-9839218516,8090453647, मूल्य ₹150/=

गुरुवार, 4 जनवरी 2018

अदनान कफ़ील ‘दरवेश’ की कविताएं

 
जन्म : गड़वार, बलिया, उत्तर प्रदेश
शिक्षा: कंप्यूटर साइंस आनर्स (स्नातक), दिल्ली विश्वविद्यालय
सम्प्रति: जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अध्ययनरत

प्रकाशन: हिंदी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब ब्लॉग्स पर कविताएँ प्रकाशित
अदनान कफ़ील दरवेश से वैचारिक मुलाकाम वागार्थ पढ़ते हुए हुई थी।और फिर चल पड़ा हमारे उनके बिच बातों का सिलसिला। आप तो बस उनकी कविताओं को पढ़ते ही जाइये । कविताएं अपने आप ही आपसे संवाद करेंगी। इनकी कविताओं को पढ़ने के बाद संभावनाएं और बढ़ गई हैं इस युवा रचनाकार से भविष्य में। इस नये साल में स्वागत है  अदनान कफ़ील दरवेश का इनकी कविताओं के साथ।

1- सन् 1992
जब मैं पैदा हुआ
अयोध्या में ढहाई जा चुकी थी एक क़दीम मुग़लिया मस्जिद
जिसका नाम बाबरी मस्जिद था
ये एक महान सदी के अंत की सबसे भयानक घटना थी
कहते हैं पहले मस्जिद का एक गुम्बद
धम्म् की आवाज़ के साथ ज़मीन पर गिरा था
और फिर दूसरा और फिर तीसरा
और फिर गिरने का जैसे अनवरत् क्रम ही शुरू हो गया
पहले कीचड़ में सूरज गिरा
और मस्जिद की नींव से उठता ग़ुबार
और काले धुएँ में लिपटा अंधकार
पूरे मुल्क पर छाता चला गया
फिर नाली में हाजी हश्मतुल्लाह की टोपी गिरी
सकीना के गर्भ से अजन्मा बच्चा गिरा
हाथ से धागे गिरे, रामनामी गमछे गिरे, खड़ाऊँ गिरे
बच्चों की पतंगे और खिलौने गिरे
बच्चों के मुलायम स्वप्नों से परियाँ चींख़तीं हुईं निकलकर भागीं
और दंतकथाओं और लोककथाओं के नायक चुपचाप निर्वासित हुए
एक के बाद एक   
फिर गाँव के मचान गिरे
शहरों के आसमान गिरे
बम और बारूद गिरे
भाले और तलवारें गिरीं
गाँव का बूढ़ा बरगद गिरा
एक चिड़िया का कच्चा घोंसला गिरा
गाढ़ा गरम ख़ून गिरा
गंगा-जमुनी तहज़ीब गिरी
नेता-परेता गिरे, सियासत गिरी
और इस तरह एक के बाद एक नामालूम कितना कुछ
भरभरा कर गिरता ही चला गया
"जो गिरा था वो शायद एक इमारत से काफ़ी बड़ा था.."
कहते-कहते अब्बा की आवाज़ भर्राती है
और गला रुँधने लगता है
इस बार पासबाँ नहीं मिले काबे को सनमख़ाने से
और एक सदियों से मुसलसल खड़ी मस्जिद
देखते-देखते मलबे का ढेर बनती चली गयी
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर
हाँ, उसी हिन्द पर
जिसकी सरज़मीं से मीर-ए-अरब को ठंडी हवाएँ आती थीं
वे कहाँ हैं ?
मैं उनसे पूछना चाहता हूँ
कि और कितने सालों तक गिरती रहेगी
ये नामुराद मस्जिद
जिसका नाम बाबरी मस्जिद है
और जो मेरे गाँव में नहीं
बल्कि दूर अयोध्या में है
मेरे मुल्क़ के रहबरों और ज़िंदा बाशिंदों बतलाओ मुझे
कि वो क्या चीज़ है जो इस मुल्क़ के हर मुसलमान के भीतर
एक ख़फ़ीफ़ आवाज़ में न जाने कितने बरसों से
मुसलसल गिर रही है
जिसके ध्वंस की आवाज़ अब सिर्फ़ स्वप्न में ही सुनाई देती है !

(रचनाकाल: 2017)
2- घर

 
ये मेरा घर है
जहाँ रात के ढाई बजे मैं
खिड़की के क़रीब
लैंप की नीम रौशनी में बैठा
कविता लिख रहा हूँ
जहाँ पड़ोस में लछन बो
अपने बच्चों को पीट कर सो रही है
और रामचनर अब बँसखट पर ओठंग चुका है
अपनी मेहरारू-पतोहू को
दिन भर दुवार पर उकड़ूँ बैठकर
भद्दी गालियाँ देने के बाद...

जहाँ बाँस के सूखे पत्तों की खड़-खड़ आवाज़ें आ रही हैं
जहाँ एक कुतिया के फेंकरने की आवाज़
दूर से आती सुनाई पड़ रही है
जहाँ पड़ोस के
खँडहर मकान से
भकसावन-सी गंध उठ रही है
जहाँ अनार के झाड़ में फँसी पन्नी के फड़फड़ाने की आवाज़
रह-रह कर सुनाई दे रही है
जहाँ पुवाल के बोझों में कुछ-कुछ हिलने का आभास हो रहा है
जहाँ बैलों के गले में बँधी घंटियाँ
धीमे-धीमे स्वर में बज रही हैं
जहाँ बकरियों के पेशाब की खराइन गंध आ रही है
जहाँ अब्बा के तेज़ खर्राटे
रात की निविड़ता में ख़लल पैदा कर रहे हैं
जहाँ माँ
उबले आलू की तरह
खटिया पर सुस्ता रही है
जहाँ बहनें
सुन्दर शहज़ादों के स्वप्न देख रही हैं।
अचानक यह क्या ?
चुटकियों में पूरा दृश्य बदल गया !
मेरे पेट में तेज़ मरोड़ उठ रहा है
और मेरी आँखें तेज़ रौशनी से चुँधिया रही है
तोपों की गरजती आवाज़ों से मेरे घर की दीवारें थर्रा रही हैं
और मेरे कान से ख़ून बह रहा है
अब मेरा घर
किसी फिलिस्तीन और सीरिया और ईराक़
और अफ़ग़ानिस्तान का कोई चौराहा बन चुका है
जहाँ हर मिनट एक बम फूट रहा है
और सट्टेबाजों का गिरोह नफ़ीस शराब की चुस्कियाँ ले रहा है।
अब आसमान से राख झड़ रही है
दृश्य बदल चुका है
लोहबान की तेज़ गंध आ रही है
अब मेरा घर
उन उदास-उदास बहनों की डहकती आवाज़ों और सिसकियों से भर चुका है
जिनके बेरोज़गार भाई पिछले दंगों में मार दिए गए।
मैं अपनी कुर्सी में धँसा देख रहा हूँ दृश्य को फिर बदलते हुए
क्या आप यक़ीन करेंगे ?
जंगलों से घिरा गाँव
जहाँ स्वप्न और मीठी नींद को मज़बूत बूटों ने
हमेशा के लिए कुचल दिया है
जहाँ बलात्कृत स्त्रियों की चीख़ें भरी पड़ी हैं
जिन्हें भयानक जंगलों या बीहड़ वीरानों में नहीं
बल्कि पुलिस स्टेशनों में नंगा किया गया।
मेरा यक़ीन कीजिये
दृश्य फिर बदल चुका है
आइये मेरे बगल में खड़े होकर देखिये
उस पेड़ से एक किसान की लाश लटक रही है
जो क़र्ज़ में गले तक डूब चुका था
उसके पाँव में पिछली सदी की धूल अब तक चिपकी है
जिसे साफ़ देखा जा सकता है
बिना मोटे चश्मों के।
मेरा यक़ीन कीजिये
हर क्षण एक नया दृश्य उपस्थित हो रहा है
और मेरे आस-पास का भूगोल तेज़ी से बदल रहा है
जिसके बीच
मैं बस अपना घर ढूँढ रहा हूँ...

(रचनाकाल: 2017)

संपर्क-
 ग्राम/पोस्ट- गड़वार
 ज़िला- बलिया, उत्तर प्रदेश
 पिन: 277121  
मोबा 0-09990225150
ईमेल: thisadnan@gmail.com


शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

कहानी : इंडियन काफ़्का - सुशांत सुप्रिय




 

      श्री सुशांत सुप्रिय हिन्दीपंजाबी और अंग्रेज़ी में लिखते हैं. हत्यारे हे राम दलदल इनके कुछ कथा संग्रह हैंअयोध्या से गुजरात तक और इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं इनके काव्य संकलन. इनकी कई कहानियाँ और कविताएँ विभिन्न भाषाओं में अनूदित होचुकी हैं. अनेक कहानियाँ  कई राज्यों के स्कूलों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैंकविताएँ पूणे विश्व-विद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हैं और विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोधार्थी इनकी कहानियों पर शोध कर रहे हैं. भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा इनकी रचनाएँ पुरस्कृत की गई हैं. कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई )में लगातार दो वर्ष प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किये गए.             कहानी : इंडियन काफ़्का - सुशांत सुप्रिय   
          मैं हूँ , कमरा है , दीवारें हैं , छत है , सीलन है , घुटन है , सन्नाटा है और मेरा अंतहीन अकेलापन है । हाँ , अकेलापन , जो अकसर मुझे कटहे कुत्ते-सा काटने को दौड़ता है । पर जो मेरे अस्तित्व को स्वीकार तो करता है । जो अब मेरा एकमात्र शत्रु-मित्र है ।
          खुद में बंद मैं खुली खिड़की के पास जा खड़ा होता हूँ । अपनी अस्थिरता का अकेला साक्षी । बाहर एड्स के रोगी-सी मुरझाई शाम मरने-मरने को हो आई है । हवा चुप है । सामने पार्क में खड़े ऐंठे पेड़ चुप हैं । वहीं बेंच पर बैठे रोज़ बहस करने वाले दो सठियाए ख़बीस बूढे चुप हैं । बेंच के नीचे पड़ा प्रतिदिन अपनी ही दुम से झगड़ने वाला आवारा कुत्ता चुप है । एक मरघटी उदासी आसमान से चू-चू कर चुपचाप सड़क की छाती पर बिछती जा रही है । और सड़क चुप्पी की केंचुली उतार फेंकने के लिए कसमसा रही है ।
         साथ वाले आँगन से उड़ कर मिस लिली की छटपटाती हँसी स्तब्ध फ़िज़ा में फ़्रीज़ हो जाती है । तभी नशे में धुत्त एक अजनबी स्वर भेड़िए-सा गुर्राता है । मिस लिली की हँसी अब पिघलने लगती है ।
          मुझे अचानक लगता है जैसे मैं ऊब कर ढेर-सी उल्टी कर दूँगा । पर वैसा कुछ नहीं होता । खिड़की से नाता तोड़ कर मैं चारपाई से रिश्ता गाँठ लेता हूँ । चाहता हूँ , कुछ गुनगुनाऊँ । पर कोई ' नर्सरी-राइम ' भी याद नहीं आती । अनायास ही मेरी उँगलियाँ मेरी पुरानी कलाई-घड़ी में चाबी देना चाहती हैं , पर वह पहले से ही फ़ुल है । हाथ दो हफ़्ते लम्बी दाढ़ी खुजलाने लगते हैं । दाढ़ी कड़ी है । चुभती है । जेब से सिगरेट-पैकेट निकालता हूँ । लाइटर भी । सुलगाता हूँ । सुलगता हूँ । सिगरेट मुझे कश-कश पीने लगती है । मैं सिगरेट को पल-पल जीने लगता हूँ । भीतर कहीं कुछ जलने लगता है । राहत मिलती है । क्षणिक ही सही । कल गुप्ता को नई स्टोरी देनी है । नया फ़ीचर लिखना है अखबार के लिए , पर कुछ नहीं सूझता है । विचारों के उलझे धागे में अनगिनत गाँठें पड़ी हैं । झुटपुटे में पल सुलगते हैं और दम तोड़ते जाते हैं । और सिगरेट के राख-सी तुम्हारी याद झरने लगती है ...
ओ नेहा , तुम कहाँ हो ?
            " यार , क्या ऑर्ट-मूवी के पिटे हीरो-सी शक्ल बना रखी है ! शेव क्यों नहीं करते ? "
            मैं और नेहा ऐन. ऐम. पैलेस में लगी फ़िल्म ' क़यामत से क़यामत तक ' देख कर निकले थे । सर्द शाम थी । यूनिवर्सिटी गेट पर थ्री-वहीलर से उतर कर हम गर्ल्स-हॉस्टल की ओर बढ़ रहे थे । मूवी के बारे में बातें हो रही थीं । तभी नेहा ने कहा था , " कल मिस्टर मजनू यानी तुम अपनी दाढ़ी शेव करके आओगे , समझे ? "
            " जानती हो , दाढ़ी में आदमी इंटेलेक्चुअल लगता है । "
            " दाढ़ी में आदमी बंदर लगता है । डार्विन का बंदर ... "

            सिगरेट का बचा हुआ हिस्सा उँगलियों को जलाने लगता है । मेज पर पड़ी कई दिन पुरानी जूठी तश्तरी को को ऐश-ट्रे बना उसे बुझा देता हूँ । एक और सींझी  हुई रात मुझे आ दबोचेगी । इस अहसास से बचने की एक अधमरी कोशिश करता हूँ । ट्रांजिस्टर का स्विच ऑन कर देता हूँ ।
            " यह आकाशवाणी है । अब आप क्लेयर नाथ से समाचार सुनिए ... "
            खीझ कर बंद कर देता हूँ ट्रांजिस्टर । हुँह् ! समाचार ! रक्तचाप और बढ़ जाएगा समाचार सुनने से । वही वाहियात ख़बरें । सोचता हूँ -- हर सुबह अनाप-शनाप ख़बरों से भरे अख़बार कैसे धड़ाधड़ बिक जाते हैं । नेहा को भी अख़बार से चिढ़ थी ।
             " ... फिर ? क्या सोचा है ? आगे क्या करोगे ? " हम दोनों ' बॉटैनिकल गार्डन ' में टहल रहे थे । मैंने उसके बालों में एक सफ़ेद गुलाब लगा दिया था । और उस पर झुकते हुए उसे चूम लिया था । पर वह आशंकित लगी थी ।
            " क्या बात है , नेहा ? "
            और तब उसने पूछा था -- " फिर ? क्या सोचा है ? आगे क्या करोगे ? " मैं कुछ देर चुप रहा था । समय धड़धड़ा कर आगे बढ़ रहा था । फिर मैंने कहा था , " सोचता हूँ , कोई अख़बार ज्वाएन कर लूँ । "
             " अख़बार ? " उसका चेहरा अजनबी हो आया था । उसके चेहरे पर कई भाव आए-गए थे । हवा में उसके अनकहे शब्दों की गूँज थी । उसने ज़ोर देकर कहा था , " क्या आर्ट मूवी के पिटे हीरो जैसी बातें कर रहे हो । किसी प्रतियोगिता-परीक्षा में क्यों नहीं बैठते ? "
             हवा शांत-विरोध से बजने लगी थी ...

             विचारों का मकड़-जाल मुझे अॉक्टोपस-सा जकड़ने लगता है । झटक देता हूँ उन्हें । पर नहीं झटक पाता हूँ अपनी बेबसी और लाचारी को । और अपने अंतहीन अकेलेपन को ।
             ऊब कर एक और सिगरेट सुलगा लेता हूँ । बौराए समय से बचने के लिए कमरे में निगाह दौड़ाता हूँ । शाम के झुटपुटे में एक पूँछ-कटी छिपकली दीवार को नापने की तमन्ना लिए इधर से उधर भाग रही है । नादान । खुद ही थक-हार कर दुबक जाएगी किसी कोने में ।
             एक लम्बा कश लेता हूँ । और धुएँ को भीतर तक बंद रहने देता हूँ । मज़ा आता है , कहीं भीतर तक खुद को झुलसा लेने में । खाँसी का एक दौरा पड़ता है । तकलीफ़देह । पर सिगरेट मुझे पीती रहती है । और मैं उसे जीता रहता हूँ । अच्छा भाईचारा है मेरा और सिगरेट का कमबख़्त । सीने में सुइयाँ-सी चुभती हैं और दर्द यह अहसास दिला जाता है कि मैं अभी ज़िंदा हूँ । अभिशप्त हूँ जीने के लिए इसकी-उसकी शर्तों पर । अचानक मुझे याद आता है कि मैं पिछले कुछ वर्षों से खुल कर हँसा नहीं हूँ । पर खुद से क्षमा-याचना भी नहीं कर पाता हूँ मैं ।
             एक मुरझाई मुस्कान चेहरे पर आ कर सट जाती है । चेहरे की स्लेट से उसे पोंछ कर मैं खिड़की से बाहर झाँकता हूँ । एक और सिमसिमी शाम ढल चुकी है । रोशनी एक अंतिम कराह के साथ बुझ चुकी है । एक और पसीजी रात मटमैले आसमान की छत से उतर कर मेरे सलेटी कमरे में घुसपैठ कर चुकी है । उसी कमरे में जहाँ मैं हूँ , दीवारें हैं , छत है , सीलन है , घुटन है , सन्नाटा है और मेरा अंतहीन अकेलापन है । हाँ , अकेलापन । मेरा एकमात्र शत्रु-मित्र ।
              झुके हुए झंडे-से उदास पल मुझे घेर लेते हैं । दूसरी सिगरेट भी साथ छोड़ जाना चाहती है । कल गुप्ता को अखबार के लिए कौन-सा फ़ीचर दूँगा , पता नहीं । कुछ सूझ ही नहीं रहा । भीतर केवल एक मुर्दा हलचल भरी है । लगता है , यह नौकरी भी छूट जाएगी ।
              बाहर एक अभागी टिटहरी ज़ोर-ज़ोर-ज़ोर से चीख़ कर सन्नाटे का ट्यूमर फोड़ देती है । शोर का मवाद रिसने लगता है । दूर किसी मुँहझौंसे कारख़ाने का भोंपू उदास सिम्फ़नी-सा बज उठता है । पड़ोस में मिस लिली का दरवाज़ा फ़टाक से बंद होने की आवाज़ कुछ देर स्तब्ध फ़िज़ा में जमी रहती है । फिर एक शराबी स्वर रुखाई से सीढ़ियों को कुचल कर अँधेरे में गुम जाता है । पार्क में पड़ा आवारा कुत्ता ऊँचे स्वर में रो उठता है । मिस लिली के यहाँ से पियानो की मातमी धुन रह-रह कर गूँज जाती है ।
               भीतर-बाहर के माहौल की मनहूसियत के विरोध में मैं हवा को एक अशक्त ठोकर मारता हूँ । और खिड़की से बाहर सिगरेट का ठूँठ फेंक कर वापस चारपाई पर आ बैठता हूँ । किसी पर-कटी गोरैया-सा लुटा महसूस करता हूँ । पता नहीं क्यों , नेहा , आज तुम बहुत याद आ रही हो ...

               " आई. ए. एस. का फ़ॉर्म क्यों नहीं भरते ? " कैंटीन में काफ़ी सिप करते हुए तुमने तीसरी बार पूछा था ।
               " नेहा , आई.ए.एस. मेरे लिए नहीं है । " आख़िर मुझे कहना पड़ा था । और तब तुमने कहा था , " पिताजी मेरे लिए आई. ए. एस. लड़का ढूँढ़ रहे हैं ... "

               बाहर पाशविक अँधेरा तेज़ी से झरने लगता है । फ़्यूज़ बल्ब-सा मैं चारपाई पर बुझा पड़ा रहता हूँ । । आज ढाबे में जा कर खाने का मन नहीं है ।
                 अनमने भाव से एक और सिगरेट सुलगा लेता हूँ । सोचता हूँ , चारपाई से उठ कर बिजली का लट्टू जला लूँ । फिर मन में आता है , कमरे में उजाला हो जाने से भी क्या फ़र्क पड़ेगा । मेरे भीतर उगे नासूरों के जंगल में फैला काले फ़ौलाद-सा घुप्प अँधेरा तो फिर भी वैसे ही जमा रहेगा । न जाने कब तक ।
                 सिगरेट पीते-पीते गला सूखने लगता है । फिर भी लेता जाता हूँ । कश पर कश ... कश पर कश । गोया खुद से बदला लेने की क़सम खा रखी हो ।
                 ओ नेहा , मेरी आत्मा के चेहरे पर अपनी स्मृतियों की खरोंच के अमिट निशान छोड़ कर तुम कहाँ चली गई ?
                  ... बहुत पहले कभी एक आर्ट मूवी देखी थी । फ़िल्म की नायिका बचपन में लगे किसी सदमे की वजह से पागल हो जाती है । अमीर माँ-बाप बच्ची को गाँव में दादी के पास छोड़ जाते हैं । फिर बच्ची जवान हो जाती है । और ख़ूबसूरत भी । और नायक पहली मुलाक़ात में ही उससे प्यार करने लगता है । और एक दिन नायक अपने सच्चे प्रेम के बूते पर नायिका को ठीक कर देता है । और मानसिक रूप से स्वस्थ हो चुकी नायिका अपने पागलपन के दिनों को भूल जाती
है । और नायक अब उसके लिए एक अजनबी बन जाता है । फिर नायिका अपने माता-पिता के पास लौट जाती है । पर नायक इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता है । और इस सदमे से वह पागल हो जाता है ...
                गला कुछ ज़्यादा ही सूखने लगता है । सिगरेट बुझा देता हूँ । रोना चाहता हूँ । शायद सदियों से रोया नहीं हूँ । पर आँखों में आँसू का समुद्र बहुत पहले सूख चुका है । भीतर के खंडहर में रिक्तता की आँधी साँय-साँय करने लगती है । तनहा मैं तड़प उठता हूँ ।
                मन कड़ा करके उठ बैठता हूँ । फिर लाइट जलाता हूँ । आँखें कुछ चौंधिया-सी जाती हैं । एक भटका हुआ चमगादड़ कमरे में घुस आया है । और बाहर निकलने के विफल प्रयत्न में बार-बार दीवारों से टकरा कर सिर धुन रहा है । किसी तरह उसे खुली खिड़की के रास्ते बाहर निकाल कर खिड़की बंद कर देता हूँ ।
                 मेज पर एक लम्बे अंतराल के बाद घर से आया पत्र पड़ा है । उठा कर एक बार फिर पढ़ डालता हूँ । पिता की तबीयत ठीक नहीं है । माँ का गठिया वैसा ही है । सुमी के हाथ पीले करने की चिंता पिता को घुन-सी खाए जा रही है । पिछले तीन महीनों से पिता को पेंशन नहीं मिली है । लिखा है -- ऐसा लड़का किस काम का जो घर वालों को सहारा न दे सके ...
                 आँखें मूँद कर एक लम्बी साँस लेता हूँ और बंद कर देता हूँ घर से आई चिट्ठी । सारी दिशाएँ ग़लत लगने लगती हैं । बाहर कोई बौराया मुर्ग़ा असमय बाँग दे रहा है । कल गुप्ता को अख़बार के लिए क्या फ़ीचर दूँगा , कुछ नहीं सूझता । अब तो यह नौकरी भी छूट जाएगी । दिल में आता है , अँधेरे से खूब बातें करूँ । उसे अपना दुखड़ा सुनाऊँ । या फिर किसी ऊँचे पहाड़ की चोटी से खुद को धक्का दे दूँ । लगता है जैसे भरी दुपहरी में मेरे सूर्य को ग्रहण लग गया है । जैसे मेरे जीवन की पतीली में रखा दूध फट गया है । जैसे मेरी पूरी ज़िंदगी बेहद अधूरी-सी है । जैसे मैं एक मिसफ़िट बन कर रह गया हूँ । ठहरे हुए पानी पर जमी काई बन कर रह गया
हूँ । इंसान नहीं , कोई अदना-सा कीड़ा बन कर रह गया हूँ ...
                          ------------०------------

     सुशांत सुप्रिय
     A-5001, गौड़ ग्रीन सिटी ,वैभव खंड ,
     इंदिरापुरम ,ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ. प्र. )
    मो: 8512070086
    ई-मेल: sushant1968@gmail.com

शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

आग, पानी और प्यास : प्रेम नंदन

  

जन्म - 25 दिसम्बर 1980, फरीदपुर, हुसेनगंज, फतेहपुर (उ0प्र0) |
शिक्षा - एम0ए0(हिन्दी), बी0एड0। पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
परिचय - लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से। तीन-चार   वर्षों तक पत्रकारिता करने तथा लगभग इतने ही वर्षों तक इधर-उधर ‘भटकने’ के पश्चात सम्प्रति अध्यापन|
प्रकाशन- कवितायें, कहानियां एवं  लघुकथायें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं ब्लॉगों में प्रकाशित।

1-आग, पानी और प्यास

जब लगती है उन्हें प्यास
वे लिखते हैं
खुरदुरे कागज के चिकने चेहरे पर
कुछ बूंद पानी
और धधकने लगती है आग !

इसी आग की आंच से
बुझा लेते हैं वे
अपनी हर तरह की प्यास!

आग और पानी को
कागज में बांधकर
जेब में रखना
सीखे कोई उनसे !

2-वे ही आएं मेरे पास


जिन्हें चाहिए
मीठे चुम्बन
मांसल देह  के आलिंगन
तीखें और तेज परफ्यूम
मादक दृश्य
पाॅप संगीत....
वे न आएं मेरे पास ।

जिन्हें देखना हो संघर्ष
सुनना हो श्रमजीवी गीत
चखना हो स्वाद पसीने का
माटी की गंध  सूंघनी हो
महसूसना हो दर्द
फटी बिवाइयों के

वे ही आएं मेरे पास ।

संपर्क-
उत्तरी शकुननगर,
सिविल लाइन्स ,फतेहपुर,0प्र0
मो0 & 9336453835
bZesy&premnandan@yahoo.in