शनिवार, 31 अगस्त 2019

कहानी : दादा जी का बंगला उर्फ फैमिली ट्री -विक्रम सिंह


                                                      
                    
         ’’बेवकूफ लोग घर बनाते हैं समझदार लोग उसमें रहते हैं ’’
                                       (एक पुरानी कहावत)
 दादा जी का बंगला उर्फ फैमिली ट्री -विक्रम सिंह

  इस दुनिया में हर एक मध्यवर्गीय परिवार अपने जीवन की आधी से ज्यादा कमाई एक सपनों का घर बनाने में लगा देता है या अपनी सारी उम्र एक घर का लोन चुकता करने में बीता देता है। खास कर हमारे मघ्यवर्गीय परिवार अपनी आधी जिंदगी घर बनाने के लिए पैसे जोड़ने में बीता देते है और आधी यह सोचने में कि हम अपने पैसों से सही जगह सही घर नहीं बना पाए। ना जाने कितने तो एक घर के लिए जीवन भर कोर्ट में केस लड़ते फिरते हैं। ऐसी ही एक कहानी हमारे भी परिवार की है।
 पर यह एक ऐसे मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है जहाँ एक घर नहीं कुल चार घर थे। नहीं-नहीं....नहीं, पाँच घर थे। नहीं, अभी भी गलत बोल रहा हूं। पाँचवा घर नहीं  आलीशान बंगला था। पाँचवा घर शिमला में था। जो 11 एकड़ में फैला था। उसके अंदर रखे कई सामान कई राजा महाराजाओं के समय के थे। उसके चारों तरफ खूबसूरत बगीचा था।  हाँ फिलहाल पाँचवे को घर ही मान कर चलते हैं, क्योंकि मेरा मानना है की एक गरीब की झोपड़ी,कुटिया, या मध्यवर्गीय व्यक्ति का फ्लैट,या फिर किसी अमीरजादे का बंगला,हवेली या फिर महल हो आखिर सबकी अपनी‘-अपनी नजर में घर ही होता है। हाँ तो मालिक मेरे दादा जी थे। जो 1962 में इस दुनिया को छोड़ कर चले गये थे। फिलहाल अब इस बंगले का कौन मालिक है या भविष्य में इसका मालिक अर्थात कौन वारिस होगा? यह एक रहस्य की तरह हो गया है। यहाँ से मेरी कहानी षुरू होती है।
   चलिए तो अब पाँच घरों की कहानी पर विस्तार से जाते हैं। मेरे दादा जी की मृत्यु के बारे में तो मुझे पता है जो मैं पहले ही बता चुका हूँ। मगर जन्म की तारीख का मुझे पता नहीं है। हाँ घर में फिलहाल जो तस्वीर टंगी हुई है, उस तस्वीर को देख कर मैं यह अनुमान लगा सकता हूँ कि दादा जी जब इस दुनिया को छोड़कर मेरा मतलब जब उनका स्वर्गवास हुआ होगा, 75 से 80 साल के रहे होंगे। कद काठी से लम्बे चौड़े दिखते होंगें। मैं दादा जी के जन्म के बारे में भी बता देता, अगर पापा जिंदा होते तो। अब वह भी इस दुनिया में नहीं रहे, मगर कहानी दादा जी के मरने के बाद से ही शुरू हुई थी। दादा जी के जाने के बाद अपने पीछे छोड़ गये थे 11  एकड़ में बना बंगला। अपने पीछे अपने सात सन्तान और पोते पोती। जिसमें दादा जी के पाँच बेटे और दो बेटियाँ हैं।
कहानी दादा जी की 
    बंगले की कहानी के विस्तार में जाने से पहले हम दादा जी के जीवन के बारे में कुछ जान लेते हैं, क्योंकि दादा जी ना होते तो यह बंगला भी ना होता। यूँ तो किसी के जीवन के बारे में किसी कहानी और उपन्यास में समेटना आसान नहीं, नामुमकिन है, क्योंकि इंसान अपने जीवन में अपने मन और अंतरात्मा में बहुत कुछ समेटे रहता है। क्या सब कुछ बाहर आ पाता है? क्या वाकई किसी के जीवन को कुछ कागजी पन्नो में उतारा जा सकता है? हाँ ऐसा सम्भव है। फिर मेरी भी इस कहानी को दादाजी का जीवन ही समझ लीजिए। दादा जी का जन्म लाहौर में हुआ था। दादा जी के पिता अर्थात मेरे परदादा एक मामूली से किसान थे। दादा जी का नाम जीत सिंह था, पर प्यार से उन्हे गाँव में जीतू भी बुलाते थे। दादाजी बचपन से ही पढने-लिखने में काफी होशियार थे। यूँ तो दादा जी की पढाई गाँव के एक छोटे से स्कूल से षुरू हुई थी।  फिर गाँव के स्कूल से होते हुए शहर के बड़े कॉलेज में खत्म हुई। अर्थात दादा जी जीत सिंह से ग्रेजुएट जीत सिंह हो गये। यह वह समय था, जब देश गुलाम था। 
   हर इंसान गुलाम था हिंन्दू,सिख,मुस्लिम,ईसाई।  तब हिन्दुस्तान पाकिस्तान नाम के दो देश नहीं थे। सिर्फ  एक देश था हिन्दुस्तान। हर एक का यही नारा था आजादी चाहिये।  हाँ,दादा जी ने पढाई खत्म करते ही अंग्रेज सरकार के अंडर लैंड रेवन्यू की नौकरी मिल गई थी। मैं दादा जी के बारे में यह झूठ नहीं कहूंगा कि वह देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी बन गये थे, मगर देश की आजादी वह भी चाहते थे, क्योंकि गुलाम तो वह भी अपने आपको समझते थे। दादा जी ने नौकरी के दौरान लाहौर मैं कई जगह घर हो गये थे। और देश आजाद होते‘-होते दादा जी ने लाहौर में करीब बारह घर खरीद लिए थे।  अंत समय जब देश की आजादी की माँग पूरे जोर-षोर से की थी, अंग्रेज यह समझ गए थे कि उन्हें भारत छोड़ना पड़ेगा। मगर दादा जी ने यह  पहले ही भांप लिया था कि देश का बंटवारा निष्चित है। सो वे पहले ही लाहौर छोड़ कर चले आये। वे हिमाचल के एक राजा के यहाँ लैंड रेवन्यू (भूमि प्रबंन्घक) के तौर पर लग गए, मगर उनके बीवीबच्चे और उनकी बीवी  लाहौर में ही रह गये। क्योंकि दादा जी के बच्चे पढ़ रहे थे।  राजा ने दादाजी को रहने के लिए एक आलीशान बंगला दे दिया था । राजा दादा जी के काम से बहुत खुश थे। फिर दादा जी को राजा ने बड़े कम दाम में वह बंगला बेच दिया था।
     दादा जी ने जो सोचा था वही हुआ। देश का बंटवारा पहले हुआ और आजादी बाद में मिली। बंटवारे के बाद भारत में रिफ्यूजी कैंम्प लगा कर वहाँ से आये हिन्दुओं को उसमें  रखा गया। अच्छे-खासे लोग बेघर हो गये थे। उसी समय सरकार ने फैसला किया कि बेघर हुए लोगों को घर दिया जाए। सरकार ने लोगों से पाकिस्तान के प्रॉपर्टी के कागजात मांगे। बंटवारे के बाद पाकिस्तान में दादा जी के बारह घर के बदले भारत में उन्हें चार ही घर मिले। दादा जी चाहते थे कि सात घर सात औलाद के नाम से अलग‘-अलग हो जाये, मगर सरकार का कहना था कि जिस बच्चे की उम्र 21 साल है उसी के नाम घर हो सकता है। तो बस दादा जी के तीन लड़कों को छोड़ कर सब छोटे थे जिसमें मेरे पापा भी शामिल थे। मेरे पापा भी उस वक्त 21 साल के नहीं हुए थे।  इस वजह से एक घर दादा जी को और उनके तीन बेटों को भारत में घर मिला। हाँ, एक सबसे बड़ी बात यह थी कि दादा जी की दो बेटियाँ थी अगर वह 21 की होतीं भी तो उन्हें कोई पॉ्रपर्टी नहीं मिलती, क्योंकि उस वक्त ऐसा कोई प्रावधान नहीं था कि स्त्रियों को जायदाद में हिस्सा दिया जाये। खैर बंटवारे के बाद उन घरों में ताला लग गया, क्योंकि अभी उस वक्त दादा जी के सभी बच्चे पढ़ रहे थे। पूरा परिवार शिमला चला गया।
दादा जी के जाने के बाद की कहानी
     दादा जी के सभी लड़के पढ लिखकर अच्छे पदों पर लग गये। मगर घर से दूर-दूर.....। मगर दादी सबसे कहती,चाहे तुम सब जहाँ भी काम काज करो मगर साल में सारे त्यौहारो में एक साथ घर में आया करो। इसी दौरान दादा जी का र्स्वगवास हो गया। मगर दादी के रहने तक शिमला के घर में सभी होली, दिवाली में आया करते थे।  एक दिन दादी भी चली गई और फिर सबका आना जाना बंद हो गया। उसके पष्चात शिमला वाले घर में बस घर का एक नौकर ही रह गया। अब वह हम सबकी नजर में नौकर था। पर शिमला के लोगों की नजर में वह मालिक था। अब बंगला उसके हवाले था। बाकी दिल्ली में मिले दादा जी के घर को किराये पर चढ़ा दिया गया था।  दादी के जाने के बाद किरायेदारो ने किराया देना बंद कर दिया। दरअसल दादा  और दादी के जाने के बाद उन घरो का मालिक कौन है यह अभी विचाराधीन था। चूंकि उन दिनों पापा से लेकर ताऊ तक सभी अच्छे पदो पर थे। उन्हें घर की जरूरत नहीं थी। क्योंकि सरकार की तरफ से उन्हें भी बंगले मिले थे, और हम सब भी पढ लिख रहे थे। अंततः हम सब भी पढ़ लिख कर नौकरियों पर लग गये थे।  खैर दादा जी के एक एक बेटा और दोनो बेटियों को छोड़ कर सब स्वर्ग सिधार गए, जिसमें मेरे पापा भी थे। हाँ मैं यह बता दूँ कि चाचा जी दादा जी के सबसे छोटे पुत्र थे। दो फूफी उनसे भी छोटी। चाचा के भी पाँच संताने थी। जिसमें उनके चार लड़के एक लड़की। वह सब भी अच्छे पदो पर विराजमान थे। हम सब भी दो भाई बहन थे। हम दोनो भाई बहन भी सरकार के अच्छे पदो पर थे। वैसे और सब भी नौकरी में थे।  परिवार के एक दो विदेश नौकरी  में निकल गये थे।
    खैर्! मैं और मेरी बहन भी सेटल थे। माँ दिल्ली के फ्लैट में रह रही थी, जो पापा ने खरीदा था। हम सब अपने‘-अपने जीवन में व्यस्थ्त थे।
    आपको यह जान कर आष्चर्य होगा हो सकता है विश्वास भी ना हो। हम सब जब अपने‘-अपने जीवन में व्यस्थ थे, उन्ही दिनो मेरे एक चाचा जी जिनकी उम्र 60 पार हो चुकी थी। वह रिटायरमेंट के बाद वकालत पढ़ने चले गये। दरअसल वह शौकिया वकालत पढने गये थे। उनको जवानी में वकील बनने का शौक नहीं चढ़ा। यह शौक उन्हें बैंक में नौकरी करते‘-करते अचानक चढ़ गया। खैर्! यह तो उनके खुद के परिवार को भी नहीं पता चला कि उन्हें वकील बनने का भूत कब चढा। बस मैं अनुमान लगा रहा हूँ। अब आप सब सोच रहे होगे इसका कहानी से क्या लेना देना। मगर है उसके लिए आप को धैर्य रखना होगा, क्योंकि किसी भी बात की तह तक पहुंचने के लिए धैर्य रखना जरूरी है। हाँ तो जब चाचा जी 60 के बाद वकालत पढने गये तो कुछ मित्र तो हंसे’’यार्! यह पोते‘-पोती खिलाने के समय तुम्हें पढ़ाई का शौक कैसे चढ़ गयाकुछ माँ‘-बाप तो चाचा जी को आदर्ष मान अपने बच्चे को चाचा जी का उदाहरण देती। ’’देखो इस उम्र में भी वह पढ़ रहा है।’’ खैर जब उन्होंने वकालत की पढ़ाई पूरी कर ली तो हर तरफ उनकी तारीफ ही हुई।
     वकालत करने के बाद एक दिन उन्होंने परिवार के लोगों को अपने घर बुलाया। हम सब तो बस यही सोचकर गये थे कि अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी करने की खुषी में कुछ पार्टी वार्टी देंगे। मगर जब हम सब घर पहूँचे तो ऐसा कुछ नहीं था। घर का माहौल साधराण था। बस उनके आस पास टेबल पर कानून की किताबे रखी हुई थी।
’’देखिए मेरे कुछ भाई तो गुजर गये और अब बचे मैं और मेरी दो छोटी बहनें। और आप सब हैं।’’ उन्होंने आगे की बात जारी रखते हुए कहा‘-’’देखिए पिता जी का शिमला वाला बंगला ऐसे ही पड़ा हुआ है। साथ ही दिल्ली वाला मकान भी। अब हम सबको मिल जुलकर बंटवारा कर लेना चाहिए’’। हम सब एक दूसरे का चेहरा देखने लग गए। खैर, फिर दोनों फूफी ने पूछा,’’फिर आप ही बतायें कैसे क्या करना है’’ फिर उन्होने कई साल पुरानी बंटवारे के बाद की कहानी सुनाई। जो मैं आप सब को पहले ही बता चुका हूँ। उन्होंने पूरी कहानी बताने के बाद कहा कि देखिए बटवारे के बाद पापा और मेरे तीन भाइयों को सरकार ने घर दे दिया था। बचा मैं और मेरे स्वर्गीय भाई (अर्थात मेरे पिता)। उन्होंने जैसे ही मेरे पिता का नाम लिया तो मैं खुश हो गया। और मेरी दोनों बहनें अब चूंकि संविधान में आए बदलाव के हिसाब से अब स्त्री भी जायदाद के हिस्से की दावेदार है, हम यही चाहते हैं कि अब दादा जी के घर को हम चारों के हिस्से बांट दिया जाये।’’ अपनी बात को उन्होंने वही विराम दे दिया। सब एक दूसरे का मुँह देखने लगे। न कोई हंसा न रोयां। न ही किसी ने कोई प्रतिक्रिया दी। कुछ देर में ही सब अपने‘-अपने घर चले गए।
   उस दिन बंटवारे की बात को चिंगारी मिली। सप्ताह भर होते‘-होते हर एक का फोन चाचा जी को आना शुरू हो गया। सबने यही कहा,’’यह दादा जी की सम्पत्ति है। इसका सबके साथ बराबर‘-बराबर  हिस्सा सबको मिलना चाहिए।’’
लेकिन हिस्सा भी कैसे हों? किसी ने कहा मैं ऊपर नहीं लूंगा,किसी ने कहा मैं नीचे नहीं लूंगा। किसी ने कहा मैं पीछे वाला हिस्सा नहीं लूंगा। किसी ने कहा,मैं आगे वाला हिस्सा नहीं लूंगा। वगैरा.....वगैरा। बटवारे की योजना धरी की धरी रह गई। बात हुई इसे बेच देते हैं। मगर उसमें बात नहीं बन पाई क्योंकि हमारे ही परिवार का एक पाँपर्टी डीलर भी था, जिसने इसका जिम्मा लिया। मगर कुछ को यह बात पची नहीं। उनका यह सोचना था कि उसमें यह खुद बहुत पैसे कमा लेगा। फिर कुछ ने तो बेचनेे में ही अपनी रजामंदी नहीं दी। बंगले को लेकर सबने अपने‘-अपने सपने सजा लिए थे। कोई चाहता था इसे फिल्म शूटिंग का बंगला बना दिया जाए। कुछ इसे अस्पताल बनाना चाहता था। जो जिस पेशे से था वह उसी तरह उसे इस्तेमाल करना चाहता था। फिर मामला इस तरह बिगड़ा कि  रिश्तेदारों ने एक एक कर अपना‘-अपना वकील रख लिया। हमने भी अपना एक वकील रख लिया। हमारे वकील ने सर्वथप्रथम हमारे पूरे खानदान का फैमिली ट्री बनाया। फैमिली ट्री  बनने के बाद मैं, मेरी बहन,माँ  और रिश्तेदारों को मिलाकर पूरे 29 लोग उस घर के दावेदार निकले। वकील ने कहा कि अगर दादा जी कोई वसीयत लिख कर गये होगे फिर तो झमेले की कोई बात ही नहीं है। जिसके नाम उन्होंने यह वसीयत लिखी होगी उस प्रॉपर्टी का मालिक वही होगा। मगर पूरी खोज बीन के बाद पता चला दादा जी ने कोई वसीयत ही नहीं लिखी थी। 
   खैर, हम सब केस लड़ते रह गये।  बंगले का नौकर मालिक बन कर रहता रहा।, हमने उस पुरानी कहावत को सही सिद्ध कर दिया‘-’’बेवकूफ लोग घर बनाते हैं समझदार लोग उसमें रहते हैं
लेकिन केस लड़ते हुए मैने यह जाना कि बेवकूफ वह होता है जो पॉपट्री/घर‘-मकान बनाने के बाद वसीयत लिख कर नहीं जाता है। और जिन्हें विरासत में मुफ्त की जायदाद मिलती है वो बिल्लियों की तरह आपस में लड़कर बाहरी बंदर को अपने‘-अपने हिस्से की रोटी सौंप देते हैं।

  
सम्पर्कः बी-11,टिहरी विस्थापित कॉलोनी,ज्वालापुर,हरिव्दार,उत्तराखंड,249407
मो-9012275039

गुरुवार, 25 जुलाई 2019

'सेन्स ऑफ़ ह्यूमर' का ट्यूमर - पंकज त्रिवेदी

 

 समीक्षा-'सेन्स ऑफ़ ह्यूमर' का ट्यूमर  - पंकज त्रिवेदी  

'झूठ बोले कौउआ  काटे' किसी व्यंग्य संग्रह के शीर्षक के रूप में हमें मिले तो मान लीजिए कि लौटरी लग गयी। अन्य विधाओं में रचना के शीर्षक से बिलकुल अलग और चुनौतीपूर्ण है तो वो व्यंग्य रचनाओं के संग्रह का शीर्षक है। कोई भी व्यंग्यकार अपनी किताब के शीर्षक पर ही आधी बाज़ी मार लेता है और सजग व्यंग्य पाठक उस व्यंग्यकार का पूरा एक्स-रे देख लेता है। आदरणीया बीनू भटनागर में एक विशेष 'सेन्स ऑफ़ ह्यूमर' का ट्यूमर है। जो कभी भी किसी घटना या बात को लेकर इस तरह से उभर आता है कि चिंतित पाठक उस ट्यूमर के फटने से ठहाकेदार हँसी के बीच में भी अपने दिमाग का संतुलन रखते हुए उस व्यंग्य की अहमियत को बहुत गंभीरता से समझने के काबिल हो जाता है।

व्यंग्यकार जब भी किसी मुद्दे पर अपने व्यंग्य आलेखन के लिए कलम लिए बैठता-बैठती है, तब उस व्यंग्य की तीक्ष्णता, तीखापन और तीव्रता को ज्यादा ही प्रभावक बनाने के लिए वो कहावतों या मुहावरों का आश्रय लेता है। मेरी दादीमा कहती थी; "जितना देखो उतना खाओ नहीं, जितना आता है उतना कहो नहीं !" आप कहेंगे कि इसमें व्यंग्य है? व्यंग्य सिर्फ ठहाके लगाने का माध्यम नहीं है, उसके लिए चुटकुले हैं। जीवन की गंभीर समस्याओं को भी व्यंग्य के द्वारा कहने से न सिर्फ आनंद आता है बल्कि पाठक की परिपक्वता के आधार पर गहन सोच-विचार करने के लिए मजबूर भी कर देता है । ऐसा होना ही व्यंग्य की सफलता है।

समाज संरचना में विचार की समृद्धि के साथ पर्यावरण मानव जीवन के लिए अनिवार्य है। इस देश में आझादी से आज तक के पर्यावरण मंत्री आशंका के घेरे में है, क्यूंकि गौरैया, तोता, मैना या कउए को बचाने का ज़िम्मा उनके सर पे था! ग्लोबल वार्मिंग कुदरती नहीं, इंसान की गलतियों का परिणाम है। उस पर इस रचना के अंश को पढ़िए -  

महानगरों मे तो गौरैया, तोता मैना क्या,

कउए भी अब दिखते नहीं।

"झूठ बोले कउआ काटे, काले कउए से डरियो,

मैं मैके चली जाउँगी तुम देखते रहियो",

जैसी धमकी भी अब पत्नी दे तो कैसे,

जब कउए दिखते नहीं।

व्यंग्यकार बीनू जी पर्यावरण पर गंभीरता से अपनी बात कहती है मगर एक पत्नी अपने पति को 'मैके जाने की धमकी' को माध्यम बनाती है।

'आत्मव्यथा' रचनाकार और संपादकों के बीच रचाते सेतू का सत्य उजागर करता है। समसामयिक रचनाएं जब समय के बाद छपती है तब रचनाकार का दु:खी होना स्वाभाविक है। दिवाली की रचना का अंक होली पे आएं और ग्रीष्म का आलेख शीतलहर में कंपते हाथों से पढ़ा जाएं तो पाठकों की मनोदशा भी समझने के लिए संपादकों पर किया गया तंदुरस्त व्यंग्य मन को भा जाता है। बीनू जी की विशेषता है कि अनिवार्य शब्दों के बीच में 'वर्णनात्मक राग' आलापती नहीं हैं।

हमारे देश में विविध धर्मगुरुओं के लिए विविध उपाधियों से नवाज़िश होती हैं। आज के दौर में बिना इन्वेस्टमेंट कोई धंधा अगर है तो 'धर्म के नाम पाखण्ड' का है। 'बी.ए. आनर्स इन बाबागिरी/ मातागिरी' – व्यंग्य उसी धरातल से है, जिसमें अपने शिष्यों के नाम भोले से जनों का ब्रेन वॉश करके उन्हें अपने सम्प्रदाय में प्रलोभन से खींचना और पूरे प्रोजेक्ट में शिष्यों (छात्रों) को अपनी योग्यता को प्रस्थापित करने का मौका दिया जाता है। 

'दिल और दिमाग  की जंग' के साथ बीनू जी – 'दिल विल प्यार व्यार मैं क्या जानूं रे' – गीत को याद करती हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से दिल का कार्य पूरे शरीर में खून पहुँचाने है। मन विचार करता है। फिर भी हम जो भी कहते हैं वो 'दिल से !' निर्दोष दिल पर प्यार करने का ठीकरा फोड़ने की बात कहकर अलग विषय पर सफल व्यंग्य दिया गया है।

'कवि और कल्पना' में कल्पना जगत एवं यथार्थ के धरातल में झूलते कवि की मन:स्थिति पर बड़ी कोमलता से व्यंग्य को नजाकत से पेश किया गया है। सद्यःस्नाता महिला के जुल्फ़ को देखकर कल्पना में रहता कवि जब अपनी साली के आने से आलू, टमाटर, गोभी लेने जाता है तब यथार्थ से जूड़कर फिर कल्पना में डूब जाता है।  'अकल बड़ी या भैंस..' के द्वारा महिलाओं की पुरुष के समकक्ष होने की विचारधारा पर पैना व्यंग्य है। गाय से ज्यादा भैंस की ज्यादा दूध देने क्षमता के बावजूद उसे गाय जितना सम्मान नहीं मिलता और उसे पाने के लिए संगठन बनाया जाता है। समाज में बिना सोचे-समझे अधिकार जमाने के लिए संगठनों की रचना करके शोर मचाने वालों के लिए यह व्यंग्य एक तमाचा है!

'मैं और मेरा बेटा' संस्मरणात्मक व्यंग्य, 'रॉबोट' पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी और सोनिया गांधी का प्रतीकात्मक व्यंग्य है। 'टी.वी. का लड्डू' में ज़रूरतों के अनुसार सीरियलों में कलाकारों की छूटी करने के लिए कथानक का तोड़-जोड़ करके अपने निहित स्वार्थ के लिए दर्शकों की भावनाओं से खिलवाड़ होता है वो दर्शाया गया है। ऐसे कार्य की जननी (अविवाहित) एकता कपूर है। 'उभरते कलाकार' में नींद में देखे सपने का टूटना और यथार्थ से झूझने का प्रभावक व्यंग्य है।  'फुलझड़ियाँ' में राहुल गांधी, मोदी जी एवं केजरीवाल के राजकीय स्टंट एवं तुकबंदी से जनता को मूर्ख बनाने के उनके अंधे विश्वास को तोड़ता हुआ व्यंग्य है। क्यूंकि 'पबलिक है ये सब जानती है, पबलिक है..!'

'एक और पीपली लाइव' में पानी के बोरिंग व्यवस्था और बच्चों का गिरकर मर जाना, 'नाम में क्या रखा है' में नाम से जुड़े ज़ायकेदार मसले पर मसाले छिड़के हैं। 'मेरे नाम की कहानी', 'दिल्ली पुस्तक मेला' के दोहे, 'फेसबुकी इश्किया शायरी' मजेदार व्यंग्य है। 'कल आ जाइये' में सरकारी दफतरों में टाला मटोली के खेल पर व्यंग्यकार की तिरछी नज़रों के तीर चलें हैं। बीनू जी के शब्दों में कहें तो 'नोटबंदी-दोहे' में काले धन पर मोदी जी के द्वारा लगाई गयी फ़ेयर लवली है, जो काले को श्वेत करती है।(?) अंत में बीनू जी ने 'अगड़ों में पिछड़ें और पिछड़ों में अगड़े' के द्वारा अपनी ही जाति का ज़िक्र करते हुए कहा कि हम 'भटनागर' कायस्थ होते हैं, जिन्हें मनु (भगवान) महाशय ने चारों में से किसी वर्ण में नहीं रखा है। मतलब की व्यंग्यकार समाज और आसपास के किरदारों को लेकर व्यंग्य जरूर आलेखता है मगर जब खुद को भी कटघरे में खड़ा करके व्यंग्य के ज्यादा ही पुष्ट बनाने लगें तो उनकी पुख्ताता और परिपक्वता पर आशंका नहीं होनी चाहिए।

बीनू जी की कलम में व्यंग्य की धार है तो संवेदना का पूट भी है। अति भावात्मक होने के कारण उनके व्यंग्य में सिर्फ ठहाके नहीं है, प्रत्येक मुद्दे का गंभीरता से विश्लेषण है और कुछ में तो कमाल के दृष्टिकोण से पाठकों के मन में सुस्पष्ट विचारों का आरोपण भी कर पाने में सफल होती हैं। बीनू जी एक सफल व्यंग्यकार तो है, उम्दा व्यक्ति भी हैं। उनके इस व्यंग्य संचयन से व्यंग्य जगत में एक नया आयाम रचने के लिए वो आ गयी हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि अन्य व्यंग्यकारों-पाठकों के द्वारा उन्हें अपार प्यार-सम्मान मिलेगा। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।
संपर्क सूत्र-
पंकज त्रिवेदी
संपादक – विश्वगाथा
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