गुरुवार, 25 जुलाई 2019

'सेन्स ऑफ़ ह्यूमर' का ट्यूमर - पंकज त्रिवेदी

 

 समीक्षा-'सेन्स ऑफ़ ह्यूमर' का ट्यूमर  - पंकज त्रिवेदी  

'झूठ बोले कौउआ  काटे' किसी व्यंग्य संग्रह के शीर्षक के रूप में हमें मिले तो मान लीजिए कि लौटरी लग गयी। अन्य विधाओं में रचना के शीर्षक से बिलकुल अलग और चुनौतीपूर्ण है तो वो व्यंग्य रचनाओं के संग्रह का शीर्षक है। कोई भी व्यंग्यकार अपनी किताब के शीर्षक पर ही आधी बाज़ी मार लेता है और सजग व्यंग्य पाठक उस व्यंग्यकार का पूरा एक्स-रे देख लेता है। आदरणीया बीनू भटनागर में एक विशेष 'सेन्स ऑफ़ ह्यूमर' का ट्यूमर है। जो कभी भी किसी घटना या बात को लेकर इस तरह से उभर आता है कि चिंतित पाठक उस ट्यूमर के फटने से ठहाकेदार हँसी के बीच में भी अपने दिमाग का संतुलन रखते हुए उस व्यंग्य की अहमियत को बहुत गंभीरता से समझने के काबिल हो जाता है।

व्यंग्यकार जब भी किसी मुद्दे पर अपने व्यंग्य आलेखन के लिए कलम लिए बैठता-बैठती है, तब उस व्यंग्य की तीक्ष्णता, तीखापन और तीव्रता को ज्यादा ही प्रभावक बनाने के लिए वो कहावतों या मुहावरों का आश्रय लेता है। मेरी दादीमा कहती थी; "जितना देखो उतना खाओ नहीं, जितना आता है उतना कहो नहीं !" आप कहेंगे कि इसमें व्यंग्य है? व्यंग्य सिर्फ ठहाके लगाने का माध्यम नहीं है, उसके लिए चुटकुले हैं। जीवन की गंभीर समस्याओं को भी व्यंग्य के द्वारा कहने से न सिर्फ आनंद आता है बल्कि पाठक की परिपक्वता के आधार पर गहन सोच-विचार करने के लिए मजबूर भी कर देता है । ऐसा होना ही व्यंग्य की सफलता है।

समाज संरचना में विचार की समृद्धि के साथ पर्यावरण मानव जीवन के लिए अनिवार्य है। इस देश में आझादी से आज तक के पर्यावरण मंत्री आशंका के घेरे में है, क्यूंकि गौरैया, तोता, मैना या कउए को बचाने का ज़िम्मा उनके सर पे था! ग्लोबल वार्मिंग कुदरती नहीं, इंसान की गलतियों का परिणाम है। उस पर इस रचना के अंश को पढ़िए -  

महानगरों मे तो गौरैया, तोता मैना क्या,

कउए भी अब दिखते नहीं।

"झूठ बोले कउआ काटे, काले कउए से डरियो,

मैं मैके चली जाउँगी तुम देखते रहियो",

जैसी धमकी भी अब पत्नी दे तो कैसे,

जब कउए दिखते नहीं।

व्यंग्यकार बीनू जी पर्यावरण पर गंभीरता से अपनी बात कहती है मगर एक पत्नी अपने पति को 'मैके जाने की धमकी' को माध्यम बनाती है।

'आत्मव्यथा' रचनाकार और संपादकों के बीच रचाते सेतू का सत्य उजागर करता है। समसामयिक रचनाएं जब समय के बाद छपती है तब रचनाकार का दु:खी होना स्वाभाविक है। दिवाली की रचना का अंक होली पे आएं और ग्रीष्म का आलेख शीतलहर में कंपते हाथों से पढ़ा जाएं तो पाठकों की मनोदशा भी समझने के लिए संपादकों पर किया गया तंदुरस्त व्यंग्य मन को भा जाता है। बीनू जी की विशेषता है कि अनिवार्य शब्दों के बीच में 'वर्णनात्मक राग' आलापती नहीं हैं।

हमारे देश में विविध धर्मगुरुओं के लिए विविध उपाधियों से नवाज़िश होती हैं। आज के दौर में बिना इन्वेस्टमेंट कोई धंधा अगर है तो 'धर्म के नाम पाखण्ड' का है। 'बी.ए. आनर्स इन बाबागिरी/ मातागिरी' – व्यंग्य उसी धरातल से है, जिसमें अपने शिष्यों के नाम भोले से जनों का ब्रेन वॉश करके उन्हें अपने सम्प्रदाय में प्रलोभन से खींचना और पूरे प्रोजेक्ट में शिष्यों (छात्रों) को अपनी योग्यता को प्रस्थापित करने का मौका दिया जाता है। 

'दिल और दिमाग  की जंग' के साथ बीनू जी – 'दिल विल प्यार व्यार मैं क्या जानूं रे' – गीत को याद करती हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से दिल का कार्य पूरे शरीर में खून पहुँचाने है। मन विचार करता है। फिर भी हम जो भी कहते हैं वो 'दिल से !' निर्दोष दिल पर प्यार करने का ठीकरा फोड़ने की बात कहकर अलग विषय पर सफल व्यंग्य दिया गया है।

'कवि और कल्पना' में कल्पना जगत एवं यथार्थ के धरातल में झूलते कवि की मन:स्थिति पर बड़ी कोमलता से व्यंग्य को नजाकत से पेश किया गया है। सद्यःस्नाता महिला के जुल्फ़ को देखकर कल्पना में रहता कवि जब अपनी साली के आने से आलू, टमाटर, गोभी लेने जाता है तब यथार्थ से जूड़कर फिर कल्पना में डूब जाता है।  'अकल बड़ी या भैंस..' के द्वारा महिलाओं की पुरुष के समकक्ष होने की विचारधारा पर पैना व्यंग्य है। गाय से ज्यादा भैंस की ज्यादा दूध देने क्षमता के बावजूद उसे गाय जितना सम्मान नहीं मिलता और उसे पाने के लिए संगठन बनाया जाता है। समाज में बिना सोचे-समझे अधिकार जमाने के लिए संगठनों की रचना करके शोर मचाने वालों के लिए यह व्यंग्य एक तमाचा है!

'मैं और मेरा बेटा' संस्मरणात्मक व्यंग्य, 'रॉबोट' पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी और सोनिया गांधी का प्रतीकात्मक व्यंग्य है। 'टी.वी. का लड्डू' में ज़रूरतों के अनुसार सीरियलों में कलाकारों की छूटी करने के लिए कथानक का तोड़-जोड़ करके अपने निहित स्वार्थ के लिए दर्शकों की भावनाओं से खिलवाड़ होता है वो दर्शाया गया है। ऐसे कार्य की जननी (अविवाहित) एकता कपूर है। 'उभरते कलाकार' में नींद में देखे सपने का टूटना और यथार्थ से झूझने का प्रभावक व्यंग्य है।  'फुलझड़ियाँ' में राहुल गांधी, मोदी जी एवं केजरीवाल के राजकीय स्टंट एवं तुकबंदी से जनता को मूर्ख बनाने के उनके अंधे विश्वास को तोड़ता हुआ व्यंग्य है। क्यूंकि 'पबलिक है ये सब जानती है, पबलिक है..!'

'एक और पीपली लाइव' में पानी के बोरिंग व्यवस्था और बच्चों का गिरकर मर जाना, 'नाम में क्या रखा है' में नाम से जुड़े ज़ायकेदार मसले पर मसाले छिड़के हैं। 'मेरे नाम की कहानी', 'दिल्ली पुस्तक मेला' के दोहे, 'फेसबुकी इश्किया शायरी' मजेदार व्यंग्य है। 'कल आ जाइये' में सरकारी दफतरों में टाला मटोली के खेल पर व्यंग्यकार की तिरछी नज़रों के तीर चलें हैं। बीनू जी के शब्दों में कहें तो 'नोटबंदी-दोहे' में काले धन पर मोदी जी के द्वारा लगाई गयी फ़ेयर लवली है, जो काले को श्वेत करती है।(?) अंत में बीनू जी ने 'अगड़ों में पिछड़ें और पिछड़ों में अगड़े' के द्वारा अपनी ही जाति का ज़िक्र करते हुए कहा कि हम 'भटनागर' कायस्थ होते हैं, जिन्हें मनु (भगवान) महाशय ने चारों में से किसी वर्ण में नहीं रखा है। मतलब की व्यंग्यकार समाज और आसपास के किरदारों को लेकर व्यंग्य जरूर आलेखता है मगर जब खुद को भी कटघरे में खड़ा करके व्यंग्य के ज्यादा ही पुष्ट बनाने लगें तो उनकी पुख्ताता और परिपक्वता पर आशंका नहीं होनी चाहिए।

बीनू जी की कलम में व्यंग्य की धार है तो संवेदना का पूट भी है। अति भावात्मक होने के कारण उनके व्यंग्य में सिर्फ ठहाके नहीं है, प्रत्येक मुद्दे का गंभीरता से विश्लेषण है और कुछ में तो कमाल के दृष्टिकोण से पाठकों के मन में सुस्पष्ट विचारों का आरोपण भी कर पाने में सफल होती हैं। बीनू जी एक सफल व्यंग्यकार तो है, उम्दा व्यक्ति भी हैं। उनके इस व्यंग्य संचयन से व्यंग्य जगत में एक नया आयाम रचने के लिए वो आ गयी हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि अन्य व्यंग्यकारों-पाठकों के द्वारा उन्हें अपार प्यार-सम्मान मिलेगा। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।
संपर्क सूत्र-
पंकज त्रिवेदी
संपादक – विश्वगाथा
गोकुलपार्क सोसायटी, 80 फूट रोड, सुरेन्द्रनगर 363002  (गुजरात)
vishwagatha@gmail.com

             


बुधवार, 5 जून 2019

मिलाकर आये हो : अशोक बाबू माहौर


 
मध्य प्रदेश के मुरैना जिला में 10 जनवरी 1985 को जन्में अशोक बाबू माहौर का इधर रचनाकर्म लगातार जारी है। अब तक इनकी रचनाएं स्वर्गविभा, अनहदक्रति, साहित्यकुंज, हिंदीकुंज, साहित्यशिल्पी, पुरवाई, रचनाकार, पूर्वाभास, वेबदुनिया, अद्भुत इंडिया, वर्तमान अंकुर, जखीरा, काव्य रंगोली, साहित्य सुधा, करंट क्राइम, साहित्य धर्म आदि में प्रकाशित।
  
सम्मान : इ- पत्रिका अनहदक्रति की ओर से विशेष मान्यता सम्मान 2014-15  नवांकुर वार्षिकोत्सव साहित्य सम्मान  नवांकुर साहित्य सम्मान काव्य रंगोली साहित्य भूषण सम्मान मातृत्व ममता सम्मान आदि 
प्रकाशित पुस्तक :साझा पुस्तक
(1)नये पल्लव 3
(2)काव्यांकुर 6
(3)अनकहे एहसास



मिलाकर आये हो
 
उफ! गंदे नाखून
गंदगी से सने
मटमैले
क्यों तुम्हारे?
आँखें भी लाल
चेहरा झुर्रियों से भरा
कहाँ से आये हो तुम?
सच सच बताना
न कुछ छुपाना
इतना गंदगी का ढे़र
नाखूनों पर
सजाये क्यों घूम रहे हो?
आप कहो न कहो
मुझे पता है
आप संघर्ष कर
जोड़कर आये हो
राह से राह,
मिलाकर आये हो
भले मनुष्यों को
आपस में।


संपर्क :ग्राम कदमन का पुरा, तहसील अम्बाह,
जिला मुरैना (मप्र) 476111
मो-08802706980

मंगलवार, 21 मई 2019

अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’ की कविताएं




  दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान ,कादम्बनी,वागर्थ ,बया ,इरावती प्रतिलिपि डॉट कॉम , सिताबदियारा ,पुरवाई ,हमरंग आदि में  रचनाएँ प्रकाशित
2001  में  बालकन जी बारी संस्था  द्वारा राष्ट्रीय  युवा कवि पुरस्कार
2003   में बालकन जी बारी संस्था   द्वारा बाल -प्रतिभा सम्मान 
आकाशवाणी इलाहाबाद  से कविता , कहानी  प्रसारित
‘ परिनिर्णय ’  कविता शलभ  संस्था इलाहाबाद  द्वारा चयनित
अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’ की कविताएं

1-मेरी प्यारी साईकिल

मेरी प्यारी –प्यारी साईकिल
बिना तेल के ये चलती है
ना लेती भोजन ,पानी ये
जाने कैसे पलती है
सुबह शाम है सैर कराती
नयी –नयी ये डगर दिखाती
नहीं उगलती धुएं ये गंदे
ना करती आवाज़ ये भारी
इसके आगे पीछे बत्ती
ये जगमग –जगमग जलती है |

2-सूरज दादा
 
सूरज दादा चमक तुम्हारी
जग करती उजियारा
मगर अकेले क्यों रहते हो
संग ना कोई तारा
सुबह शाम के फेरे में
तुम भी हो जाते होगे बोर
दिनभर तुम्हे थकाता होगा
गाड़ी मोटर का भी शोर
इतनी चमक अकेले कैसे
तुम बिखराते रहते
पौधे, प्राणी, जीव -जंतु सब
राह तुम्हारी तकते
किरणों से चिट्ठी भिजवाना
लिखना राज़ चमक का
कैसे -कैसे क्या करना है
जिससे रहूँ दमकता
तेरे जैसा चमक सकूं मैं
जग को भी चमकाऊं
अम्बर में तुम, धरती पर मैं
तेरा साथ निभाऊं |


संपर्क सूत्र-
ग्राम- खेमीपुर, अशोकपुर , नवाबगंज जिला गोंडा , उत्तर - प्रदेश
मोबाईल न. 8826957462     mail-  singh.amarpal101@gmail.com

बुधवार, 17 अप्रैल 2019

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं

  


 हिमाचल प्रदेश के सुदूर पहाड़ी गांव से कविताओं की अलख जगाए राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं किसी पहाड़ी झरने की तरह मंत्र मुग्ध कर देने के साथ आपको यथार्थ के धरातल सा वास्तविक आभास भी कराती हैं। कवि के कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं है। बिल्कुल पहाड़ी नदियों की तरह निश्चल और पवित्र हैं इनकी कविताएं। गांव , नदी , पहाड़  ,जंगल , घाटियां नया आयाम देती हैं इनकी कविताओं को ।
   

     बकौल राजीव कुमार त्रिगर्ती - गांव से हूं ,आज भी समय के साथ करवट बदलते गांव से ही वास्ता है। जीवन का वह हिस्सा जब हाथ लेखनी पकड़ने के लिए बेताब थाए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के माहौल में बीता। वाराणसी की खरपतवार और रासायनिक उर्वरक. रहित साहित्य की भूमि में कब कवित्व का बीज अंकुरित हुआ कुछ पता ही नहीं चला। भीतर के उद्गारों को अपने ढंग से व्यक्त कर पाने की हसरत से ज्यादा आत्मसंतुष्टि शायद ही कहीं होती हो। असल में पहाड़  ,जंगल , घाटियों , कलकलाती नदियां हैं तभी तो पहाड़ में प्रेम है। इनके होने से ही जीवन जटिल है तभी तो पहाड़ में पीड़ा है। यहां प्रेम और पीड़ा का सामांजस्य अनंत काल से सतत प्रवाहित है। प्रकृति के सानिध्य में सुख दुख के विविध रूपों को उभारना अच्छा लगता है। मेरे लिए यह बहुत है कि प्रकृति के सानिध्य में भीतर के उद्गारों को व्यक्त करने का एक खूबसूरत तरीका मिल गया है। भीतर के उद्गार को अपने ही शब्दों में व्यक्त करने के आनंद की पराकाष्ठा नहीं और यह आनंद ही मेरे लिए सर्वोपरि है। 
 
 राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं -
1- अपने पंखों पर

अब जब यह तय है कि
मेरे पॅंखों के पास
नहीं है वह उड़ान
जो मुझे पहुॅंचा देगी
तुम्हारी प्रेमसुधा तक
उधार के पंखों से उड़ना
मूर्खता है किसी भी युग में
तो मैं एकदम विपरीत
बहुत ऊपर चढ़ जाता हूॅं
एक पहाड़ की चोटी पर
आर या पार के बीच
करता हूॅं आखिरी कोशिश
पंखों की पूरी ताकता आजमाता हूॅं
तुम्हारी प्रेमसुधा की दिशा में
तीव्र गति से जाते पवन के झोंके में
ऑंखें मींचकर छोड़ देता हूॅं
खुद को उन्मुक्त
दिग्दिगन्त के महासमुद्र में।

2-तुम्हें देख लेने के बाद


तुम्हारे बारे में सोच लेने से ही
तैर जाती है मुस्कुराहट
पोर-पोर हो जाता है सुगन्धित
जैसे फूलों की वाटिका से
चली आती है वासन्ती हवा,

तुम्हारे बारे में सोच लेने से ही
बढ़ जाती है धड़कनों की गति
गर्मियों के मौसम में
हिमखंड के चूने से
हरहरा उठती है जैसे नदी,

तुम्हारे बारे में सोच लेने से ही
सिहर उठता हूॅं भीतर तक
जैसे कि चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब
पहाड़ की शीतल हवा में
लहराता झील के भीतर,

तुम्हारे बारे में सोच लेने से ही
प्राण हो जाते हैं हरे
जैसे पहाड़ की ढलान पर
बरसात के मौसम में
भीगे-भीगे धान के खेत,

ऐसे में तुम ही सोचो
क्या होता होगा
तुम्हें देख लेने के बाद!

संपर्क-

राजीव कुमार ‘‘त्रिगर्ती’’
गॉंव-लंघू, डाकघर-गॉंधीग्राम
तह0-बैजनाथ, जिला-कॉंगड़ा
हि0प्र0 176125
94181-93024

रविवार, 31 मार्च 2019

चन्द्र की कविताएं






 फेसबुक से हुई जान पहचान के इस असम के कवि की कविताएं


1-ये गेहूं के कटने का मौसम है

ये गेहूं के कटने का मौसम है..
इस मौसम में
देशी -परदेशी चिड़ियाएँ
उदास होती हुई
लौटेगीं
कपिली नदी के उस पार घने वन जंगलों में दूर कहीं
इस मौसम में
गेहूं के खेतों में झड़े हुए गेहूं के दानों को
पंडूक खूब खाएंगे
और फुर्र फुर्र उड़ जाएंगे बड़ी ही अफसोस के साथ
जब हम गेहूं को काट कर घर आंगन में ढोने लगेंगे
दाँने के लिए
इस मौसम में
गेहूं काटने के लिए
गांव जवार के सभी खेत मजदूर किसान
लोहारों के यहां
हंसुवे को पिटवाएंगे
धार दिलवाएंगे
ये गेहूं के कटने का मौसम है
इस मौसम में
हंसी खुशी मजदूरी मिलेगी खेत मजदूरों को
इस मौसम में
गेहूं के खेतों में बनिहारिन स्त्रियां
कटनी की लहरदार गीतें गाएंगी
तब झुरू झुरू बहेंगी
शीतल बयरिया भी
तब चिलकती धूप भी रूप को मुरझा देंगी
ये गेहूं के कटने का मौसम है दोस्तों !
इस मौसम में
चौआई हवाएँ भी खूब बहेंगी
और यह बहुत डर भी है
कि धूप तो तेज होगी ही
धूप में हम श्रमिकों की समूची देह जलेगी ही
लेकिन हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं
कि इस बार जले न गेहूं किसी का
न फंसे खेत में ही बारिश के चलते
न जमे खेत में ही गेहूं बारिश के चलते !!

 


2-"मोर बाबा कहते थे कि बाबू!"

मोर बाबा कहते थे कि बाबू
कहते थे कि बाबू!
ई दुनिया
ई जगतिया में
हम जेतना देखले -सुनले बानी
कि नेक - नेक अनेक आदमी
जल्दी जल्दी
जी के चुपचाप -चुपचाप
ढ़ह -ढ़ह के मर- मर जाला गांछ - विरिछ के जईसन -
आ बहुत चिरई -चुरूँगन के खातिर
विचार आ सनेह -प्यार के धार बरसा के गुजर जाला ,
गुजर जाला , एक दिन अचके में
आ बाऊर आदमी सैंकड़न बरिशों जी के भी
कुछू ना कर पावेला ...
और सुन बाबू!
कि मर जाला केहु भयावह रोग से
जइसे स्वामी विवेकानंद
कि मर जाला केहु ई दुनिया जगतिया के लोगन के बुरी चाल से
जइसे इसा मसीह
कि केहु मर जाला रे जेल औरी फांसी से
जइसे भगत सिंह
औरी बाबू !
हमनियों के भले माहापुरुख ना हईंजा
बाकिर ,
हमनियों के गरव से कहें के चाहीं
कि हमनियों के किसान -मजुर हईंजा दुनिया जगतिया के पेट पालेवाला
आ हमनियों के त
चुप्पे -चाप ढ़ह- ढ़ह के , मर -मर जाइल जाई
गांछ -विरीछ नियर ,
एक दिन अचके अनहरिया में मर - मर जाइल जाई -
चाहें कारजा के पहाड़ - पर्वत के नीचे चँपा के
चाहें हमनी के मिहनत के उचित दाम नाही मिलत बा ओहीसे
चाहें रोग -शोक चाहें सुखा चाहें बाढ़ आ महाँगाई डाईन के खतरनाख मार से
चाहें घामा में हल जोतते -
येही रे धरतिया पर लड़खड़ा के --!
चाहें मजबुरन सल्फास के जहर पूड़ीया खाके ..
मर मर जाइल जाई
रे मर मर जाइल जाई ..
बाकिर ,
हमनी के शहीद में गिनती ना होखी
हमनी के क़तहूँ मजार ना बनी
फूल ना चढी हमनी के लाश आ मजार पर
हमनी के मरला के बाद
माहापुरुख जईसन नाम ना होई
हमनी के मरला के बाद
ई देश के हजारन जोड़ी अंखिया ना रोई
हमनी के मरला के बाद
ई धारती के महान भगवान मर ज़ईंहें ऐ बाबू !!!!!!!


संपर्क -
खेरनी कछारी गांव
जिला -कार्बीआंगलांग असोम
मोबा0-09365909065

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

प्रेम नंदन की कविताएं-

  

जन्म:-25 दिसम्बर 1980, फरीदपुर, हुसेनगंज, फतेहपुर, उ0प्र0
शिक्षा:- एम0ए0(हिन्दी), बी0एड0।   
लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से। तीन-चार वर्षों तक पत्रकारिता करने तथा लगभग इतने ही वर्षों तक इधर-उधर ’भटकने‘ के पश्चात सम्प्रति अध्यापन के साथ-साथ कवितायें, कहानियां, लघु कथायें एवं समसामायिक लेख आदि का लेखन
प्रकाशनः-कवितायें, कहानियां, लघु कथायें एवं समसामायिक लेख, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं ब्लाॅगों में प्रकाशन के अलावा अबतक दो कविता संग्रह प्रकाशित।

 प्रेम नंदन की कविताएं-


 1-आग, पानी और प्यास

जब लगती है उन्हें प्यास
वे लिखते हैं
खुरदुरे कागज के चिकने चेहरे पर
कुछ बूंद पानी
और धधकने लगती है आग !

इसी आग की आंच से
बुझा लेते हैं वे
अपनी हर तरह की प्यास!

आग और पानी को
कागज में बांधकर
जेब में रखना
सीखे कोई उनसे !


2-यही तो चाहते हैं वे

 
लड़ना था हमें
भय, भूख, और भ्रष्टाचार के खिलाफ
आम आदमी के पक्ष में !

तैयारी  इसी की
कर रहे थे हम एकजुट होकर
पर उन लोगों को
नहीं था मंजूर यह !

उन्होंने फेंके
कुछ ऐंठे हुए शब्द
हमारे आसपास
और लड़ने लगे हम
आपस में ही !

वे मुस्कुरा रहें हैं दूर खड़े होकर
और हम लड़ रहें हैं लगातार
एक दूसरे से
बिना यह समझे
कि यही तो चाहते हैं वे !


3-देश या वोट बैंक

 
दलित मतदाता
पिछड़ा मतदाता
अगड़ा मतदाता
अल्पसंख्यक मतदाता
बहुसंख्यक मतदाता,

क्या इस देश में
आदमी एक भी नहीं,
सभी मतदाता हैं
गोया यह देश नहीं,
एक वोट बैंक है!

सम्पर्क -उत्तरी शकुन नगर , सिविल लाइन्स , फतेहपुर,
उ0प्र0-212601। मोबा0-09336453835