गुरुवार, 28 नवंबर 2019

युवा कवि शिरोमणि महतो की कविताएं


  समकालीन रचनाकारों में प्रमुख स्थान रखने वाले शिरोमणि महतो  की कविताएं सरल शब्दों में बड़ा वितान रचती हैं कवि अपने लोक से कितना जुड़ा है । यह तो इन कविताओं को पढने के बाद ही जान पाएंगे।
युवा कवि  शिरोमणि महतो की कविताएं-
1-दुःख

हरे-भरे पेड़ पर ही अक्सर होता है-बज्रपात
पूर्णिमा के पूरे चांद को ही लगता है-ग्रहण
ठीक बांध जब भर जाता है छपाछप
अगाध पानी में मछलियाँ तैरती है-निर्बात
तभी टूट जाती है-मेढ़
खेतों में लहलहा रही होती है फसलें
तभी आ जाती है-बाढ़
और दहा जाती है फसलों को

और,
जब होना था राज्याभिशेक
तभी मिला-बनवास !

जीवन हुलस रहा होता है सुख से
तभी आ टूटता है-दुःखों का पहाड़
सुख की पीठ पर सवार होकर चलता है-दुःख !

2-बचपन के दिन


पेड़ों के पत्तों से
चुअता पानी ठोप-ठोप
और उसके नीचे बैठे
हम खेलते रहते गोंटी
भींग जाता हमारा माथा
डर लगता-कहीं सर्दी न हो जाय
फिर भी हम टस-से मस नहीं होते

आम के फलों से
फूटती सिन्दूर की लाली
और कड़ी धूप में
हम फेंक रहे होते टाल्हा
आम झाड़ने के लिए
पसीने से तर-बतर होता हमारा षरीर

जब झाड़ लेते कोई पका हुआ आम
और चाव से चखते तो ऐसा लगता
मानो हमने चख लिया हो
धरती के भीतर का स्वाद और मिठास

आज बाजार से तौलकर नहीं ला सकते
वह स्वाद और मिठास !

जब कभी हम लौटते
बचपन के दिनों की ओर
छोटे होने लगते हमारे पांव
और हमारा कद
हम जाके उलझ जाते
पुटुस की झड़ियों से
जहाँ हमने लुक-छिपकर किया था
पहली बार अनगढ़ प्यार....!



पता  : नावाडीह, बोकारो, झारखण्ड-829144   
मोबाईल  : 9931552982

शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

चन्द्र की कविता-घाठी


  

  आसोम के युवा कवि चंद्र की कविताएं बिल्कुल खेत खलिहान से होते हुए राजमार्गों तक अपनी यात्रा पूरी करती हैं इनकी अधिकांश कविताओं में लोक जीवन के रंग बखूबी देखे जा सकते हैं। इनकी एक लंबी कविता घाठी के माध्यम से परदेश जाने पर मां के अंदर हो रहे उथल-पुथल एवं संगी-साथियों के छूटने की कसक मन में समुद्री लहरों - सा तरंगित होती रहती है जिसमें गांव-वार के सारे पशु-पक्षी, पेड़-पौधे उमड़ते-घूमड़ते मन के कैनवास पर अलौकिक दृश्य उपस्थित करते हैं । यह कविता की ताकत ही है कि शुरू से अंत तक कविता लंबी होने के बावजूद भी पाठक को पढ़ने के लिए बाध्य करती है । आज पढ़ते हैं युवा कवि चंद्र की लंबी कविता घाठी -

घाठी
यहाँ के लोग जब जाते हैं दूर परदेश, कमाने-धमाने 
तब बनती है घाठी !

घाठी, गेहूँ के पिसान की 
जिसमें भरी जाती हैं
खाँटी चने की जाँत में पिसी हुई सतुआ

जिसमें भरे जाते हैं
नमक, मिर्च और आम के अचार के मसाले

उसके बाद सरसों के तेल में
छानी जाती हैं नन्ही -नन्ही घाठी !

घाठी ,जिसे छानने- बघारने के लिए 
रात भर जगतीं हैं माँ और घर रात से भिनसार तक 
गुलज़ार रहता है

घाठी, जिसे माँ ,सुबह-सुबह मेरे जाने से पहले 
छानती हैं करीअई कराही में कराही - की - कराही 
और नरम-गरम छानकर थरिया भर देती हैं मुझे 
स्नेह से यह कहते हुए कि बेटा !
रेलगाड़ी में जाते हुए बटोही को भूख ख़ूब लगती है
और ख़रीद कर इधर-उधर खाने में पैसा भी तो लगता है, बाबू !
इसलिए, प्राण-मन-भर ये ही खा लो, बाबू !

मैंने बनाई है, बेटा ! अपने हाथों से
लो, और दो ले लो
क्या पता कब खाओगे मेरे हाथ की 
बनी-बनाई घाठी !

माँ लाख सिफ़ारिश करती हैं 
कि ले , और ले ,
खा ले बेटा !

पर मुझसे खाया नहीं जाता!

तब माँ चुप्पे-चुप्पे 
मेरे परदेसी बैग में
भर देती हैं घाठी 
कई जन्म के खाने के बराबर जैसे 
कई जने के खाने के बराबर जैसे ...

तब मैं ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ 
इससे पहले कि
मेरी माँ मेरी बहन मेरे भाई मेरे पिताजी मेरी लुगाई
सब के सब कुछ दूरी पर पहुँचाने जाते हैं 
कपली नदी के सँग-सँग 
और गाय बैलों की 
चिरई-चुरूँगों की घोर उदासी मेरी आँखों में
किसी नुकीली खूँटी की तरह धँस जाती हैं !

मैं तब जल्दी में होता हूँ 
मैं तब ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ 
इससे पहले कि 
हाथ जोड़ अपने बाबा का गोड़ लाग लूँ

इससे पहले कि
आजी माई बाबूजी की अमर चरनिया को छू लूँ

और छोटे भाइयों को कोमल अभिलाषा दिला कर 
उनके हाथों में दस-बीस थम्हा दूँ 
कि मैं जरूर आऊँगा मेरे भाई
तुम्हारी पसन्दीदा कोई चीज़ लेकर...

मैं तब जल्दी में होता हूँ 
मैं तब ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ 
लंका स्टेशन की तरफ जाने वाली ऑटो !

इससे पहले कि
अपनी दुलारी बहन को
यह आशा दिला दूँ 
कि मैं जल्द ही लौट आऊँगा
अगले रक्षाबन्धन तक ज़रूर आ जाऊँगा, मेरी बहन !

तू सोन चिरई है री !
चिन्ता मत कर ।

मैं तब जल्दी में होता हूँ 
मैं तब ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ 
इससे पहले कि 
अपनी प्यारी दुल्हनिया से 
एक मीठी बतिया, बतिया तो लूँ 
और धीरज दिला तो दूँ 
कि मैं जल्द ही लौट आऊँगा
आऊँगा तो तुम्हारे लिए ज़रूर 
एक सुन्दर चुनरी लेकर आऊँगा
यहाँ की तरह वहाँ टिकुली-सेनुर ,
छाएगल , और शौक-सिंगार का सामान
मिलेगा कि नहीं
पर भरोसा दिलाता हूँ तुम्हें प्रिय !
मैं जल्द ही लौट आऊँगा अगले करवाचौथ तक !

आऊँगा तो ज़रूर तुम्हारे लिए कुछ लाऊँगा
ख़ाली हाथ थोड़े ही आऊँगा
और हाँ , कलकतवा जाऊँगा 
तो ज़रूर अपनी एक दो कविताएँ 
उन मज़दूरों को भी सुना कर ही आऊँगा !

मैं तब जल्दी में होता हूँ 
ऑटो पकड़ ही लेता हूँ

कुछ देर बाद लंका स्टेशन पहुँच ही जाता हूँ 
तुरन्त टिकट भी कटा लेता हूँ

कुछ देर स्टेशन पर 
दूर परदेश जाने वाले यात्रियों का चेहरा
एक बच्चे की तरह पढ़ता हूँ ...
कुछ सोचता हूँ ...

तब तक देखता हूँ कि पूरब की तरफ से 
सीटी बजाती हुई ट्रेन, धुआँ उड़ाती हुई ट्रेन
आ रही है झक झक झक झक ....

तुरन्त कन्धे पर टाँगता हूँ बैग
बैठ जाता हूँ रेल में खिड़कियों के पास
देखता हूँ दूर, दूर पेड़-पौधे,

पशु-पक्षी ,नदी-नाले, जल-जँगल-ज़मीन 
धानों की हरी-भरी पथार
पथारों में खटते हुए किसान-बनिहार..

इसी तरह उदास-उदास बीत जाता है दिन 
इसी तरह उदास-उदास बीत जाती है रात......

अचानक भूख लगने लगती है कस के
तब याद आती है घाठी की, बस, घाठी की !!

घाठी , चलती हुई रेल में चुपचाप 
अचार के सँग खाने से खाया नहीं जाता !

तब माई की याद आती है
बहन की याद आती है
वह खाट पर लेटे हुए बीमार बाबा याद आने लगते हैं
मस्तक पर पगड़ी बाँधे हुए
खेती-बारी में घूमते हुए पिताजी की 
दिव्य-दृश्य चलचित्र की तरह 
याद आने लगते हैं
आँगन-दुआर में रोज़ सँध्या को हुक्का पीते हुए 
आजी की याद आने लगती है 
उन मासूम-मासूम भाइयों की याद आने लगती है 
शिवफल-वृक्ष के शीतल छईंयाँ बँधाए हुये खूँटियों में 
गईया बछिया बरधा याद आने लगते हैं
याद आने लगते हैं गाँव-गिराँव के मज़दूर-किसान बन्धु !

तमाम खेत याद आने लगते हैं 
खेत की मेड़ें याद आने लगती हैं

और जब लुगाई की याद आने लगती हैं
तब आँखों से कल-कल-निनाद करती हुई 
धारदार नदी बहने लगती है !
...आत्मा और काया में प्रेम ,
 बिरह और माया इतने कचोटने लगते हैं..कि 
अपने गाँव-जवार ,नदी-नाले ,वन-जँगल ,पर्वत-अँचल
इतने रच बस जाते हैं तन-मन में
कि मन करता है कि अगले स्टेशन पर 
तुरन्त उतरकर लंका की तरफ़फ जाने वाली ट्रेन पकड़ लें !

पकड़ ही लें !

संपर्क - खेरनी कछारी गांव
जिला -कार्बीआंगलांग असोम
मोबा0-09365909065


गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

बाल कविताएँ - अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’



      दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान ,कादम्बनी,वागर्थ ,बया ,इरावती प्रतिलिपि डॉट कॉम , सिताबदियारा ,पुरवाई ,हमरंग आदि में  रचनाएँ प्रकाशित
2001  में  बालकन जी बारी संस्था  द्वारा राष्ट्रीय  युवा कवि पुरस्कार
2003   में बालकन जी बारी संस्था   द्वारा बाल -प्रतिभा सम्मान
आकाशवाणी इलाहाबाद  से कविता , कहानी  प्रसारित
‘ परिनिर्णय ’  कविता शलभ  संस्था इलाहाबाद  द्वारा चयनित

1- दादी



चौराहे पर रखे दीपक की बाती है दादी

गुजरने वालों के दुःख दर्द

खुशियों से छलके आंसुओं को समेट

टिमटिमाती

घायल गौरैया , दादी के सर्द हाथों में

प्यार की गर्माहट पा फिर से उड़ान भर जाती

हर जख्म का मरहम दादी

सूखते बिरवे को झुकी कमर से

रोज नहलाती

प्यार दे दुलराती

हरा-भरा करती उसकी सूखती काया

झूमती पत्तियां लहराती

फूलों संग मुस्काती दादी

सबके जीवन में रंग भर जाती |

2- आओ मिलकर पेड़ लगायें


आओ मिलकर पेड़ लगायें

हरा भरा परिवेश बनायें

चारों ओर स्वच्छता होगी

महकेंगी फिर सभी दिशाएं

आओ राधा ,आओ जॉन

ये लो नीबू ,ये लो आम

इन्हें रोप दो ,पानी दे दो

मुरझाये ना रखना ध्यान

खट्टे –मीठे फल देता है

और हवा मतवाली

सब मिलकर करते रहना

इन बागों की रखवाली

सबको हम ये आज बताएं

इनसे हैं कितनी सुविधाएं

आओ मिलकर पेड़ लगायें |
   

3 - मुन्नी



बजते ही छुट्टी का घंटा ,मुन्नी सरपट भागी

ना दायें ना बाएं देखा, ना आगे ना पीछे

सोचा जल्दी घर जा पहुंचे ,दूध मलाई खींचे

इसी सोच में भाग रही थी ,वह गीले मैदान से

गया फिसल जब पैर

गिरी फिर मुन्नी वहीँ धड़ाम से |



संपर्क सूत्र-
ग्राम- खेमीपुर, अशोकपुर , नवाबगंज जिला गोंडा , उत्तर - प्रदेश
मोबाईल न. 8826957462     mail-  singh.amarpal101@gmail.com

रविवार, 29 सितंबर 2019

प्रतिभा श्री की कविता :भेड़िये


  



      प्रतापगढ़  में जन्मी प्रतिभा श्री ने अपना कर्मक्षेत्र आजमगढ़ चुना।  रसायनशास्त्र में परास्नातक के बाद एक सरकारी विद्यालय में शिक्षिका एवं विगत तीन वर्षों से लेखन कार्य मे सक्रिय । अदहन , सुबह सवेरे , जन सन्देश टाइम्स , स्त्रीकाल , अभिव्यक्ति के स्वर एवं गाथान्तर में लघुकथा व कविताएँ प्रकाशित । लघुकथा संग्रह अभिव्यक्ति के स्वर में  लघुकथाएं प्रकाशित
  जीवन की किसी भी गतिविधी में सौंदर्य की रचना तभी हो पाती है जब उसमें संतुलन हो। किसी भी तरह की क्षति सौंदर्य को नष्ट करती है । कविता में भी वही बात है। जिसने संतुलन को साध लिया वे ही अपना ऊंचा स्थान बनाने में सफल होते हैं। संतुलन को साधने में महारत हासिल करने वाली ऐसी ही एक युवा कवयित्री हैं जिन्होंने हाल के दिनों में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई है । पुरुषों की निरंकुश पाश्विकता को इनकी कविताओं में बखूबी देखा जा सकता है।

प्रतिभा श्री की कविता
भेड़िये
1
ठीक ठाक याद नहीं उम्र का हिसाब
ना याद है  पढ़ाई की कक्षा
बेस्ट फ्रेंड का चेहरा भी याद नहीं
ना याद है सबसे तेज लड़के का नाम
लेकिन
याद है
तुम्हारा छूना
घर के भीतर ही,
देह पर रेंगती लिजलिजी छिपकलियाँ
तेज नुकीले नाखूनों से बोया गया जहर
बेबसी
,छटपटाहट,
आँसू
ठोंक दी गई सभ्यता की कीलों से  बन्द चीखें
मेरा ईश्वर मरा उस दिन
थोड़ी मैं भी मरी
चुप थी
कई दिनों तक
मेरी चुप्पी में ध्वनित रहे अकथनीय प्रश्न
महीनों खुरचती रही देह
कि उतार सकूँ चमड़ी से लाल काई
जिससे
बची रह सकूँ मैं
मेरे भीतर
थोड़ी सी
जीवित
2
बाद के दिनों में
एक आदत सी हो गई
जैसा बच्चा सीखता है
बोलना
लड़खड़ाते हुए
चलना
मैं सीखती गई
बस में,
ऑटो में,
पैदल रास्ते पर ,
सीने पर लगे तेज धक्के से
गिरते गिरते सम्हलना
कंधे से नीचे सरकते हाथों को झटकना
पैरों के बीच जगह बनाते पैरों को कुचलना
मेरे साथी
सेफ्टीपिन
नन्हा चाकू
और लंबे नाखून थे।
उम्र घटती गई
बढ़ती गई समझ
और
नफरत भी
पुरुष भेड़िया है
उसे  पसंद है
लड़कियों का कच्चा मांस
लड़कियों को झुण्ड में रहना चाहिए
ताकि ,
भेड़िये नोंच कर खा न सकें
3
तुमने छुआ जब प्रेम में थी
जैसे छूती है मां,
नवजात को
सहेजा ,
जैसा सहेजता हो वंचित अपना धन
निर्द्वन्द रही तुम्हारे संग
जैसेे हरे पत्तों पर थिरकती हो
ओस की बूंदे
तुम मुझमें
मैं तुममें समाहित
जैसे गोधूलि में 
सूर्य और धरती का आलिंगन
तब जाना
पुरुष
आदमी  होता है।
बेहद कमजोर
उसे जीतने की भूख है
हारी हुई औरत उसकी पहली पसंद है।
4
अब छत्तीस की होने तक
सीख चुकी हूँ
भेड़िये की पहचान
लड़कियों को बताती हूँ
लक्षण के आधार पर
पहचान के तरीके
परन्तु
जानती हूँ
आदमी के बीच
भेड़िये की पहचान
मुश्किल है ।
क्योंकि,
आदमी और भेड़िये के चेहरे
अक्सर
गड्डमगड्ड होते हैं।।
4
वे बात करते हैं
मंदिर ,
मस्जिद की
अल्लाह ,
राम की
गीता ,
कुरान की
आरती,
अजान की
मरी हुई गाय की
हमारे ,तुम्हारे सम्प्रदाय की ।
वे बात नहीं करते....
सीमा पर हर रोज कटते सिरों की
अस्पताल में मरते बच्चो की
भूखे अन्नदाता की
शिक्षा ,
दवाई,
रोजगार की
वे बाँटते हैं अन्न,
कपड़े,सस्ती दवाइयाँ
उन्हें विश्वास है
उनकी तर्जनी  से रची जाएंगी
तुम्हारे हाथ की रेखाएं
वे भाग्य विधाता हैं
वे घर
शौचालय
मुफ्त बिजली
गैस चूल्हा देते हैं
भूख देते हैं ....
तुम चाहते हो रोटी
रोजगार
वे लालच देते हैं
वे जानते हैं
उनके ईश्वर बने रहने के लिए
जरूरी है
तुम्हारा भूख से बिलखना ।।
5
तुम हँसती क्यों नहीं ?
भले ही तुम्हारी आँखों में हो
रात की बारिश
तुम्हारी पीठ पर हो
नीले काले निशान
टीस मारता हो
पेट की दाईं तरफ
रात धँसा
पाँव का बिछुवा
माथे पर हो
समय की विद्रूपता के कई निशान
तुम्हारी उंगलियाँ
जब तब कुचली जाती हों
एडिडास के जूते के नीचे
तुम हँसों
भले ही
पेट में एक ग्रास निवाला न हो
शरीर में कम हो
विटामिन
आयरन
कैल्शियम
तुम्हारा पहला बच्चा मरा हो असुरक्षित प्रसव से
पुत्र प्राप्ति के लिए कई बार
कराया गया हो गर्भपात
हंसो
तुम हँसती क्यों नहीं
यदि हँसी न आये
तो होंठो को थोड़ा चौड़ा रखो
जिससे लगता रहे
कि तुम हँसती हो।
जब तक
कि ,
तुम्हारा लहू पानी न बन जाये
जब तक
कि
तुम ठीक से
हँसना न सीख जाओ
रोज , रोज
हँसने का अभ्यास करो
हँसों ।
तुम हँसती क्यों नहीं ।

संपर्क सूत्र-
E Mail-raseeditikat8179@gmail.com 

शनिवार, 31 अगस्त 2019

कहानी : दादा जी का बंगला उर्फ फैमिली ट्री -विक्रम सिंह


                                                      
                    
         ’’बेवकूफ लोग घर बनाते हैं समझदार लोग उसमें रहते हैं ’’
                                       (एक पुरानी कहावत)
 दादा जी का बंगला उर्फ फैमिली ट्री -विक्रम सिंह

  इस दुनिया में हर एक मध्यवर्गीय परिवार अपने जीवन की आधी से ज्यादा कमाई एक सपनों का घर बनाने में लगा देता है या अपनी सारी उम्र एक घर का लोन चुकता करने में बीता देता है। खास कर हमारे मघ्यवर्गीय परिवार अपनी आधी जिंदगी घर बनाने के लिए पैसे जोड़ने में बीता देते है और आधी यह सोचने में कि हम अपने पैसों से सही जगह सही घर नहीं बना पाए। ना जाने कितने तो एक घर के लिए जीवन भर कोर्ट में केस लड़ते फिरते हैं। ऐसी ही एक कहानी हमारे भी परिवार की है।
 पर यह एक ऐसे मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है जहाँ एक घर नहीं कुल चार घर थे। नहीं-नहीं....नहीं, पाँच घर थे। नहीं, अभी भी गलत बोल रहा हूं। पाँचवा घर नहीं  आलीशान बंगला था। पाँचवा घर शिमला में था। जो 11 एकड़ में फैला था। उसके अंदर रखे कई सामान कई राजा महाराजाओं के समय के थे। उसके चारों तरफ खूबसूरत बगीचा था।  हाँ फिलहाल पाँचवे को घर ही मान कर चलते हैं, क्योंकि मेरा मानना है की एक गरीब की झोपड़ी,कुटिया, या मध्यवर्गीय व्यक्ति का फ्लैट,या फिर किसी अमीरजादे का बंगला,हवेली या फिर महल हो आखिर सबकी अपनी‘-अपनी नजर में घर ही होता है। हाँ तो मालिक मेरे दादा जी थे। जो 1962 में इस दुनिया को छोड़ कर चले गये थे। फिलहाल अब इस बंगले का कौन मालिक है या भविष्य में इसका मालिक अर्थात कौन वारिस होगा? यह एक रहस्य की तरह हो गया है। यहाँ से मेरी कहानी षुरू होती है।
   चलिए तो अब पाँच घरों की कहानी पर विस्तार से जाते हैं। मेरे दादा जी की मृत्यु के बारे में तो मुझे पता है जो मैं पहले ही बता चुका हूँ। मगर जन्म की तारीख का मुझे पता नहीं है। हाँ घर में फिलहाल जो तस्वीर टंगी हुई है, उस तस्वीर को देख कर मैं यह अनुमान लगा सकता हूँ कि दादा जी जब इस दुनिया को छोड़कर मेरा मतलब जब उनका स्वर्गवास हुआ होगा, 75 से 80 साल के रहे होंगे। कद काठी से लम्बे चौड़े दिखते होंगें। मैं दादा जी के जन्म के बारे में भी बता देता, अगर पापा जिंदा होते तो। अब वह भी इस दुनिया में नहीं रहे, मगर कहानी दादा जी के मरने के बाद से ही शुरू हुई थी। दादा जी के जाने के बाद अपने पीछे छोड़ गये थे 11  एकड़ में बना बंगला। अपने पीछे अपने सात सन्तान और पोते पोती। जिसमें दादा जी के पाँच बेटे और दो बेटियाँ हैं।
कहानी दादा जी की 
    बंगले की कहानी के विस्तार में जाने से पहले हम दादा जी के जीवन के बारे में कुछ जान लेते हैं, क्योंकि दादा जी ना होते तो यह बंगला भी ना होता। यूँ तो किसी के जीवन के बारे में किसी कहानी और उपन्यास में समेटना आसान नहीं, नामुमकिन है, क्योंकि इंसान अपने जीवन में अपने मन और अंतरात्मा में बहुत कुछ समेटे रहता है। क्या सब कुछ बाहर आ पाता है? क्या वाकई किसी के जीवन को कुछ कागजी पन्नो में उतारा जा सकता है? हाँ ऐसा सम्भव है। फिर मेरी भी इस कहानी को दादाजी का जीवन ही समझ लीजिए। दादा जी का जन्म लाहौर में हुआ था। दादा जी के पिता अर्थात मेरे परदादा एक मामूली से किसान थे। दादा जी का नाम जीत सिंह था, पर प्यार से उन्हे गाँव में जीतू भी बुलाते थे। दादाजी बचपन से ही पढने-लिखने में काफी होशियार थे। यूँ तो दादा जी की पढाई गाँव के एक छोटे से स्कूल से षुरू हुई थी।  फिर गाँव के स्कूल से होते हुए शहर के बड़े कॉलेज में खत्म हुई। अर्थात दादा जी जीत सिंह से ग्रेजुएट जीत सिंह हो गये। यह वह समय था, जब देश गुलाम था। 
   हर इंसान गुलाम था हिंन्दू,सिख,मुस्लिम,ईसाई।  तब हिन्दुस्तान पाकिस्तान नाम के दो देश नहीं थे। सिर्फ  एक देश था हिन्दुस्तान। हर एक का यही नारा था आजादी चाहिये।  हाँ,दादा जी ने पढाई खत्म करते ही अंग्रेज सरकार के अंडर लैंड रेवन्यू की नौकरी मिल गई थी। मैं दादा जी के बारे में यह झूठ नहीं कहूंगा कि वह देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी बन गये थे, मगर देश की आजादी वह भी चाहते थे, क्योंकि गुलाम तो वह भी अपने आपको समझते थे। दादा जी ने नौकरी के दौरान लाहौर मैं कई जगह घर हो गये थे। और देश आजाद होते‘-होते दादा जी ने लाहौर में करीब बारह घर खरीद लिए थे।  अंत समय जब देश की आजादी की माँग पूरे जोर-षोर से की थी, अंग्रेज यह समझ गए थे कि उन्हें भारत छोड़ना पड़ेगा। मगर दादा जी ने यह  पहले ही भांप लिया था कि देश का बंटवारा निष्चित है। सो वे पहले ही लाहौर छोड़ कर चले आये। वे हिमाचल के एक राजा के यहाँ लैंड रेवन्यू (भूमि प्रबंन्घक) के तौर पर लग गए, मगर उनके बीवीबच्चे और उनकी बीवी  लाहौर में ही रह गये। क्योंकि दादा जी के बच्चे पढ़ रहे थे।  राजा ने दादाजी को रहने के लिए एक आलीशान बंगला दे दिया था । राजा दादा जी के काम से बहुत खुश थे। फिर दादा जी को राजा ने बड़े कम दाम में वह बंगला बेच दिया था।
     दादा जी ने जो सोचा था वही हुआ। देश का बंटवारा पहले हुआ और आजादी बाद में मिली। बंटवारे के बाद भारत में रिफ्यूजी कैंम्प लगा कर वहाँ से आये हिन्दुओं को उसमें  रखा गया। अच्छे-खासे लोग बेघर हो गये थे। उसी समय सरकार ने फैसला किया कि बेघर हुए लोगों को घर दिया जाए। सरकार ने लोगों से पाकिस्तान के प्रॉपर्टी के कागजात मांगे। बंटवारे के बाद पाकिस्तान में दादा जी के बारह घर के बदले भारत में उन्हें चार ही घर मिले। दादा जी चाहते थे कि सात घर सात औलाद के नाम से अलग‘-अलग हो जाये, मगर सरकार का कहना था कि जिस बच्चे की उम्र 21 साल है उसी के नाम घर हो सकता है। तो बस दादा जी के तीन लड़कों को छोड़ कर सब छोटे थे जिसमें मेरे पापा भी शामिल थे। मेरे पापा भी उस वक्त 21 साल के नहीं हुए थे।  इस वजह से एक घर दादा जी को और उनके तीन बेटों को भारत में घर मिला। हाँ, एक सबसे बड़ी बात यह थी कि दादा जी की दो बेटियाँ थी अगर वह 21 की होतीं भी तो उन्हें कोई पॉ्रपर्टी नहीं मिलती, क्योंकि उस वक्त ऐसा कोई प्रावधान नहीं था कि स्त्रियों को जायदाद में हिस्सा दिया जाये। खैर बंटवारे के बाद उन घरों में ताला लग गया, क्योंकि अभी उस वक्त दादा जी के सभी बच्चे पढ़ रहे थे। पूरा परिवार शिमला चला गया।
दादा जी के जाने के बाद की कहानी
     दादा जी के सभी लड़के पढ लिखकर अच्छे पदों पर लग गये। मगर घर से दूर-दूर.....। मगर दादी सबसे कहती,चाहे तुम सब जहाँ भी काम काज करो मगर साल में सारे त्यौहारो में एक साथ घर में आया करो। इसी दौरान दादा जी का र्स्वगवास हो गया। मगर दादी के रहने तक शिमला के घर में सभी होली, दिवाली में आया करते थे।  एक दिन दादी भी चली गई और फिर सबका आना जाना बंद हो गया। उसके पष्चात शिमला वाले घर में बस घर का एक नौकर ही रह गया। अब वह हम सबकी नजर में नौकर था। पर शिमला के लोगों की नजर में वह मालिक था। अब बंगला उसके हवाले था। बाकी दिल्ली में मिले दादा जी के घर को किराये पर चढ़ा दिया गया था।  दादी के जाने के बाद किरायेदारो ने किराया देना बंद कर दिया। दरअसल दादा  और दादी के जाने के बाद उन घरो का मालिक कौन है यह अभी विचाराधीन था। चूंकि उन दिनों पापा से लेकर ताऊ तक सभी अच्छे पदो पर थे। उन्हें घर की जरूरत नहीं थी। क्योंकि सरकार की तरफ से उन्हें भी बंगले मिले थे, और हम सब भी पढ लिख रहे थे। अंततः हम सब भी पढ़ लिख कर नौकरियों पर लग गये थे।  खैर दादा जी के एक एक बेटा और दोनो बेटियों को छोड़ कर सब स्वर्ग सिधार गए, जिसमें मेरे पापा भी थे। हाँ मैं यह बता दूँ कि चाचा जी दादा जी के सबसे छोटे पुत्र थे। दो फूफी उनसे भी छोटी। चाचा के भी पाँच संताने थी। जिसमें उनके चार लड़के एक लड़की। वह सब भी अच्छे पदो पर विराजमान थे। हम सब भी दो भाई बहन थे। हम दोनो भाई बहन भी सरकार के अच्छे पदो पर थे। वैसे और सब भी नौकरी में थे।  परिवार के एक दो विदेश नौकरी  में निकल गये थे।
    खैर्! मैं और मेरी बहन भी सेटल थे। माँ दिल्ली के फ्लैट में रह रही थी, जो पापा ने खरीदा था। हम सब अपने‘-अपने जीवन में व्यस्थ्त थे।
    आपको यह जान कर आष्चर्य होगा हो सकता है विश्वास भी ना हो। हम सब जब अपने‘-अपने जीवन में व्यस्थ थे, उन्ही दिनो मेरे एक चाचा जी जिनकी उम्र 60 पार हो चुकी थी। वह रिटायरमेंट के बाद वकालत पढ़ने चले गये। दरअसल वह शौकिया वकालत पढने गये थे। उनको जवानी में वकील बनने का शौक नहीं चढ़ा। यह शौक उन्हें बैंक में नौकरी करते‘-करते अचानक चढ़ गया। खैर्! यह तो उनके खुद के परिवार को भी नहीं पता चला कि उन्हें वकील बनने का भूत कब चढा। बस मैं अनुमान लगा रहा हूँ। अब आप सब सोच रहे होगे इसका कहानी से क्या लेना देना। मगर है उसके लिए आप को धैर्य रखना होगा, क्योंकि किसी भी बात की तह तक पहुंचने के लिए धैर्य रखना जरूरी है। हाँ तो जब चाचा जी 60 के बाद वकालत पढने गये तो कुछ मित्र तो हंसे’’यार्! यह पोते‘-पोती खिलाने के समय तुम्हें पढ़ाई का शौक कैसे चढ़ गयाकुछ माँ‘-बाप तो चाचा जी को आदर्ष मान अपने बच्चे को चाचा जी का उदाहरण देती। ’’देखो इस उम्र में भी वह पढ़ रहा है।’’ खैर जब उन्होंने वकालत की पढ़ाई पूरी कर ली तो हर तरफ उनकी तारीफ ही हुई।
     वकालत करने के बाद एक दिन उन्होंने परिवार के लोगों को अपने घर बुलाया। हम सब तो बस यही सोचकर गये थे कि अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी करने की खुषी में कुछ पार्टी वार्टी देंगे। मगर जब हम सब घर पहूँचे तो ऐसा कुछ नहीं था। घर का माहौल साधराण था। बस उनके आस पास टेबल पर कानून की किताबे रखी हुई थी।
’’देखिए मेरे कुछ भाई तो गुजर गये और अब बचे मैं और मेरी दो छोटी बहनें। और आप सब हैं।’’ उन्होंने आगे की बात जारी रखते हुए कहा‘-’’देखिए पिता जी का शिमला वाला बंगला ऐसे ही पड़ा हुआ है। साथ ही दिल्ली वाला मकान भी। अब हम सबको मिल जुलकर बंटवारा कर लेना चाहिए’’। हम सब एक दूसरे का चेहरा देखने लग गए। खैर, फिर दोनों फूफी ने पूछा,’’फिर आप ही बतायें कैसे क्या करना है’’ फिर उन्होने कई साल पुरानी बंटवारे के बाद की कहानी सुनाई। जो मैं आप सब को पहले ही बता चुका हूँ। उन्होंने पूरी कहानी बताने के बाद कहा कि देखिए बटवारे के बाद पापा और मेरे तीन भाइयों को सरकार ने घर दे दिया था। बचा मैं और मेरे स्वर्गीय भाई (अर्थात मेरे पिता)। उन्होंने जैसे ही मेरे पिता का नाम लिया तो मैं खुश हो गया। और मेरी दोनों बहनें अब चूंकि संविधान में आए बदलाव के हिसाब से अब स्त्री भी जायदाद के हिस्से की दावेदार है, हम यही चाहते हैं कि अब दादा जी के घर को हम चारों के हिस्से बांट दिया जाये।’’ अपनी बात को उन्होंने वही विराम दे दिया। सब एक दूसरे का मुँह देखने लगे। न कोई हंसा न रोयां। न ही किसी ने कोई प्रतिक्रिया दी। कुछ देर में ही सब अपने‘-अपने घर चले गए।
   उस दिन बंटवारे की बात को चिंगारी मिली। सप्ताह भर होते‘-होते हर एक का फोन चाचा जी को आना शुरू हो गया। सबने यही कहा,’’यह दादा जी की सम्पत्ति है। इसका सबके साथ बराबर‘-बराबर  हिस्सा सबको मिलना चाहिए।’’
लेकिन हिस्सा भी कैसे हों? किसी ने कहा मैं ऊपर नहीं लूंगा,किसी ने कहा मैं नीचे नहीं लूंगा। किसी ने कहा मैं पीछे वाला हिस्सा नहीं लूंगा। किसी ने कहा,मैं आगे वाला हिस्सा नहीं लूंगा। वगैरा.....वगैरा। बटवारे की योजना धरी की धरी रह गई। बात हुई इसे बेच देते हैं। मगर उसमें बात नहीं बन पाई क्योंकि हमारे ही परिवार का एक पाँपर्टी डीलर भी था, जिसने इसका जिम्मा लिया। मगर कुछ को यह बात पची नहीं। उनका यह सोचना था कि उसमें यह खुद बहुत पैसे कमा लेगा। फिर कुछ ने तो बेचनेे में ही अपनी रजामंदी नहीं दी। बंगले को लेकर सबने अपने‘-अपने सपने सजा लिए थे। कोई चाहता था इसे फिल्म शूटिंग का बंगला बना दिया जाए। कुछ इसे अस्पताल बनाना चाहता था। जो जिस पेशे से था वह उसी तरह उसे इस्तेमाल करना चाहता था। फिर मामला इस तरह बिगड़ा कि  रिश्तेदारों ने एक एक कर अपना‘-अपना वकील रख लिया। हमने भी अपना एक वकील रख लिया। हमारे वकील ने सर्वथप्रथम हमारे पूरे खानदान का फैमिली ट्री बनाया। फैमिली ट्री  बनने के बाद मैं, मेरी बहन,माँ  और रिश्तेदारों को मिलाकर पूरे 29 लोग उस घर के दावेदार निकले। वकील ने कहा कि अगर दादा जी कोई वसीयत लिख कर गये होगे फिर तो झमेले की कोई बात ही नहीं है। जिसके नाम उन्होंने यह वसीयत लिखी होगी उस प्रॉपर्टी का मालिक वही होगा। मगर पूरी खोज बीन के बाद पता चला दादा जी ने कोई वसीयत ही नहीं लिखी थी। 
   खैर, हम सब केस लड़ते रह गये।  बंगले का नौकर मालिक बन कर रहता रहा।, हमने उस पुरानी कहावत को सही सिद्ध कर दिया‘-’’बेवकूफ लोग घर बनाते हैं समझदार लोग उसमें रहते हैं
लेकिन केस लड़ते हुए मैने यह जाना कि बेवकूफ वह होता है जो पॉपट्री/घर‘-मकान बनाने के बाद वसीयत लिख कर नहीं जाता है। और जिन्हें विरासत में मुफ्त की जायदाद मिलती है वो बिल्लियों की तरह आपस में लड़कर बाहरी बंदर को अपने‘-अपने हिस्से की रोटी सौंप देते हैं।

  
सम्पर्कः बी-11,टिहरी विस्थापित कॉलोनी,ज्वालापुर,हरिव्दार,उत्तराखंड,249407
मो-9012275039