गुरुवार, 25 जुलाई 2019

'सेन्स ऑफ़ ह्यूमर' का ट्यूमर - पंकज त्रिवेदी

 

 समीक्षा-'सेन्स ऑफ़ ह्यूमर' का ट्यूमर  - पंकज त्रिवेदी  

'झूठ बोले कौउआ  काटे' किसी व्यंग्य संग्रह के शीर्षक के रूप में हमें मिले तो मान लीजिए कि लौटरी लग गयी। अन्य विधाओं में रचना के शीर्षक से बिलकुल अलग और चुनौतीपूर्ण है तो वो व्यंग्य रचनाओं के संग्रह का शीर्षक है। कोई भी व्यंग्यकार अपनी किताब के शीर्षक पर ही आधी बाज़ी मार लेता है और सजग व्यंग्य पाठक उस व्यंग्यकार का पूरा एक्स-रे देख लेता है। आदरणीया बीनू भटनागर में एक विशेष 'सेन्स ऑफ़ ह्यूमर' का ट्यूमर है। जो कभी भी किसी घटना या बात को लेकर इस तरह से उभर आता है कि चिंतित पाठक उस ट्यूमर के फटने से ठहाकेदार हँसी के बीच में भी अपने दिमाग का संतुलन रखते हुए उस व्यंग्य की अहमियत को बहुत गंभीरता से समझने के काबिल हो जाता है।

व्यंग्यकार जब भी किसी मुद्दे पर अपने व्यंग्य आलेखन के लिए कलम लिए बैठता-बैठती है, तब उस व्यंग्य की तीक्ष्णता, तीखापन और तीव्रता को ज्यादा ही प्रभावक बनाने के लिए वो कहावतों या मुहावरों का आश्रय लेता है। मेरी दादीमा कहती थी; "जितना देखो उतना खाओ नहीं, जितना आता है उतना कहो नहीं !" आप कहेंगे कि इसमें व्यंग्य है? व्यंग्य सिर्फ ठहाके लगाने का माध्यम नहीं है, उसके लिए चुटकुले हैं। जीवन की गंभीर समस्याओं को भी व्यंग्य के द्वारा कहने से न सिर्फ आनंद आता है बल्कि पाठक की परिपक्वता के आधार पर गहन सोच-विचार करने के लिए मजबूर भी कर देता है । ऐसा होना ही व्यंग्य की सफलता है।

समाज संरचना में विचार की समृद्धि के साथ पर्यावरण मानव जीवन के लिए अनिवार्य है। इस देश में आझादी से आज तक के पर्यावरण मंत्री आशंका के घेरे में है, क्यूंकि गौरैया, तोता, मैना या कउए को बचाने का ज़िम्मा उनके सर पे था! ग्लोबल वार्मिंग कुदरती नहीं, इंसान की गलतियों का परिणाम है। उस पर इस रचना के अंश को पढ़िए -  

महानगरों मे तो गौरैया, तोता मैना क्या,

कउए भी अब दिखते नहीं।

"झूठ बोले कउआ काटे, काले कउए से डरियो,

मैं मैके चली जाउँगी तुम देखते रहियो",

जैसी धमकी भी अब पत्नी दे तो कैसे,

जब कउए दिखते नहीं।

व्यंग्यकार बीनू जी पर्यावरण पर गंभीरता से अपनी बात कहती है मगर एक पत्नी अपने पति को 'मैके जाने की धमकी' को माध्यम बनाती है।

'आत्मव्यथा' रचनाकार और संपादकों के बीच रचाते सेतू का सत्य उजागर करता है। समसामयिक रचनाएं जब समय के बाद छपती है तब रचनाकार का दु:खी होना स्वाभाविक है। दिवाली की रचना का अंक होली पे आएं और ग्रीष्म का आलेख शीतलहर में कंपते हाथों से पढ़ा जाएं तो पाठकों की मनोदशा भी समझने के लिए संपादकों पर किया गया तंदुरस्त व्यंग्य मन को भा जाता है। बीनू जी की विशेषता है कि अनिवार्य शब्दों के बीच में 'वर्णनात्मक राग' आलापती नहीं हैं।

हमारे देश में विविध धर्मगुरुओं के लिए विविध उपाधियों से नवाज़िश होती हैं। आज के दौर में बिना इन्वेस्टमेंट कोई धंधा अगर है तो 'धर्म के नाम पाखण्ड' का है। 'बी.ए. आनर्स इन बाबागिरी/ मातागिरी' – व्यंग्य उसी धरातल से है, जिसमें अपने शिष्यों के नाम भोले से जनों का ब्रेन वॉश करके उन्हें अपने सम्प्रदाय में प्रलोभन से खींचना और पूरे प्रोजेक्ट में शिष्यों (छात्रों) को अपनी योग्यता को प्रस्थापित करने का मौका दिया जाता है। 

'दिल और दिमाग  की जंग' के साथ बीनू जी – 'दिल विल प्यार व्यार मैं क्या जानूं रे' – गीत को याद करती हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से दिल का कार्य पूरे शरीर में खून पहुँचाने है। मन विचार करता है। फिर भी हम जो भी कहते हैं वो 'दिल से !' निर्दोष दिल पर प्यार करने का ठीकरा फोड़ने की बात कहकर अलग विषय पर सफल व्यंग्य दिया गया है।

'कवि और कल्पना' में कल्पना जगत एवं यथार्थ के धरातल में झूलते कवि की मन:स्थिति पर बड़ी कोमलता से व्यंग्य को नजाकत से पेश किया गया है। सद्यःस्नाता महिला के जुल्फ़ को देखकर कल्पना में रहता कवि जब अपनी साली के आने से आलू, टमाटर, गोभी लेने जाता है तब यथार्थ से जूड़कर फिर कल्पना में डूब जाता है।  'अकल बड़ी या भैंस..' के द्वारा महिलाओं की पुरुष के समकक्ष होने की विचारधारा पर पैना व्यंग्य है। गाय से ज्यादा भैंस की ज्यादा दूध देने क्षमता के बावजूद उसे गाय जितना सम्मान नहीं मिलता और उसे पाने के लिए संगठन बनाया जाता है। समाज में बिना सोचे-समझे अधिकार जमाने के लिए संगठनों की रचना करके शोर मचाने वालों के लिए यह व्यंग्य एक तमाचा है!

'मैं और मेरा बेटा' संस्मरणात्मक व्यंग्य, 'रॉबोट' पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी और सोनिया गांधी का प्रतीकात्मक व्यंग्य है। 'टी.वी. का लड्डू' में ज़रूरतों के अनुसार सीरियलों में कलाकारों की छूटी करने के लिए कथानक का तोड़-जोड़ करके अपने निहित स्वार्थ के लिए दर्शकों की भावनाओं से खिलवाड़ होता है वो दर्शाया गया है। ऐसे कार्य की जननी (अविवाहित) एकता कपूर है। 'उभरते कलाकार' में नींद में देखे सपने का टूटना और यथार्थ से झूझने का प्रभावक व्यंग्य है।  'फुलझड़ियाँ' में राहुल गांधी, मोदी जी एवं केजरीवाल के राजकीय स्टंट एवं तुकबंदी से जनता को मूर्ख बनाने के उनके अंधे विश्वास को तोड़ता हुआ व्यंग्य है। क्यूंकि 'पबलिक है ये सब जानती है, पबलिक है..!'

'एक और पीपली लाइव' में पानी के बोरिंग व्यवस्था और बच्चों का गिरकर मर जाना, 'नाम में क्या रखा है' में नाम से जुड़े ज़ायकेदार मसले पर मसाले छिड़के हैं। 'मेरे नाम की कहानी', 'दिल्ली पुस्तक मेला' के दोहे, 'फेसबुकी इश्किया शायरी' मजेदार व्यंग्य है। 'कल आ जाइये' में सरकारी दफतरों में टाला मटोली के खेल पर व्यंग्यकार की तिरछी नज़रों के तीर चलें हैं। बीनू जी के शब्दों में कहें तो 'नोटबंदी-दोहे' में काले धन पर मोदी जी के द्वारा लगाई गयी फ़ेयर लवली है, जो काले को श्वेत करती है।(?) अंत में बीनू जी ने 'अगड़ों में पिछड़ें और पिछड़ों में अगड़े' के द्वारा अपनी ही जाति का ज़िक्र करते हुए कहा कि हम 'भटनागर' कायस्थ होते हैं, जिन्हें मनु (भगवान) महाशय ने चारों में से किसी वर्ण में नहीं रखा है। मतलब की व्यंग्यकार समाज और आसपास के किरदारों को लेकर व्यंग्य जरूर आलेखता है मगर जब खुद को भी कटघरे में खड़ा करके व्यंग्य के ज्यादा ही पुष्ट बनाने लगें तो उनकी पुख्ताता और परिपक्वता पर आशंका नहीं होनी चाहिए।

बीनू जी की कलम में व्यंग्य की धार है तो संवेदना का पूट भी है। अति भावात्मक होने के कारण उनके व्यंग्य में सिर्फ ठहाके नहीं है, प्रत्येक मुद्दे का गंभीरता से विश्लेषण है और कुछ में तो कमाल के दृष्टिकोण से पाठकों के मन में सुस्पष्ट विचारों का आरोपण भी कर पाने में सफल होती हैं। बीनू जी एक सफल व्यंग्यकार तो है, उम्दा व्यक्ति भी हैं। उनके इस व्यंग्य संचयन से व्यंग्य जगत में एक नया आयाम रचने के लिए वो आ गयी हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि अन्य व्यंग्यकारों-पाठकों के द्वारा उन्हें अपार प्यार-सम्मान मिलेगा। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।
संपर्क सूत्र-
पंकज त्रिवेदी
संपादक – विश्वगाथा
गोकुलपार्क सोसायटी, 80 फूट रोड, सुरेन्द्रनगर 363002  (गुजरात)
vishwagatha@gmail.com