हदों का सवाल है
बवाल ही बवाल है
दिल्ली या लाहौर क्या
सबका एक हाल है
कलजुगी किताब में
हराम सब हलाल है
कैसे बचेगी मछली
पानी खुद इक जाल है
भेड़िए का जेहन है
आदमी की खाल है
अंधेरे बहुत मगर
हाथ में मशाल है
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शिकवा करोगे कब तक
बेजॉं रहोगे कब तक
माथे पे हाथ रख कर
रोते रहोगे कब तक
निकलो भी अब कुंए से
सोचा करोगे कब तक
ये खेल आग का है
डरते रहोगे कब तक
उटठो कि निकला सूरज
सोते रहोगे कब तक
शेरो-सुख़न में ‘अनवर’
सपने बुनोगे कब तक
अनवर सुहैल
बूढ़ी साईकिल
प्रेम नंदन
मेरे मोहल्ले की
एक बूढ़ी, जर्जर साईकिल
अपनी पीठ पर
पूरे परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी लादे
रोज भोर होते ही
मेरे नींद के कच्चे पुल से
खड़खड़ाते हुए गुजरती है
मेरी नींद का पुल
उसकी खड़खड़ाहट का बोझ सह नहीं पाता
भरभराकर गिर पड़ता है
और मैं जम्हाई लेते हुए कहता हूं -
’’लगता है सुबह हो गई!’’
यह रोज का नियम है
मौसम के सारे वार
प्रायः बौने साबित हुए हैं
साईकिल की खड़खड़ाहट के आगे।
कभी-कभी शाम को
दरवाजे पर बैठकर
लौटते हुए देखता हूं साईकिल को
तो पूंछ बैठता हूं-
’’कैसी हो?’’
वह अपनी धॅंसी ऑंखें बाहर निकालकर
बस इतना कहती है-
’’ठीक हॅूं बाबूजी!’’
और अपनी खड़खड़ाहट मेरे कानो में ठूंसते हुए
अपने घर की ओर बढ़ जाती है
मैं उसके कैरियर पर बॅंधे
आटा ,चावल, सब्जी, तेल वगैरह को
देखता रहता हूं अपलक
अगले मोड़ पर
उसके मुड़ जाने तक।
अंतर्नाद
उत्तरी शकुननगर,
फतेहपुर,उ0प्र0
मो 09336453835