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से श्री रामदेव धुरंधर जी दाएं गोवर्धन यादव
मारीशस के प्रख्यात साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी
को श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफ़को साहित्य सम्मान जिसमें उन्हें ग्यारह लाख रुपये एवं
प्रश्स्ति पत्र देकर 31 जनवरी 2018 को दिल्ली में सम्मानित किया गया।
उनका साक्षात्कार इंटरनेट के माध्यम से लिया है
गोवर्धन यादव ने । प्रस्तुत है साक्षात्कार की कड़ियां ……क्रमश:
गोवर्धन
यादव - उन दिनों वहां की सरकार जनता पर निर्ममता
से अत्याचार करती रहती थी. निश्चित ही आपका परिवार इस भीषण यंत्रणा का शिकार हुआ
होगा? इस अत्याचार को परिवार ने कैसे झेला और आप पर इसका कितना असर हुआ? आपकी पढ़ाई-लिखाई पर कितना असर पड़ा?
धुरंधर
जी - ज़मीन फ्रांसीसी गोरो की होती थी जो लोगों को
पट्टे पर ईख बोने के लिए दी जाती थी। मेरे पिता के भी खेत हुए। गोरों ने जब देखा
था भारतीय मन के लोग उन के बंधन से मुक्त होने के लिए प्रयास कर रहे हैं तो
उन्होंने देश व्यापी अपना अभियान चला कर एक साल के भीतर लोगों के सारे खेत छीन लिये
थे। मेरे पिता खेत छीने जाने के दुख के कारण मानो
निष्प्राण हो गए थे। दोनों बैलगाड़ियाँ बिक गईं। गौशाला में दो गाएँ थीं तो माँ ने
किसी तरह दिल पर पत्थर रख कर एक गाय बेची और एक गाय को अपने बच्चों के दूध के लिए
बचा लिया। पथरीला सोना उपन्यास में मैंने लालबिहारी और इनायत नाम के दो पात्रों के
माध्यम से इस घटना का मर्मभेदी वर्णन किया है। मेरे पिता के सिर पर कर्ज़ था। घर
के सभी को मिल कर किसी तरह कर्ज़ से उबरना था। परिवार की शाखें बढ़ते जाने से
आवश्यक था मकान बड़ा हो। ऐसा नहीं कि यह सब हौआ हो जो हम को लील जाए। हिम्मत से इन
सारी कठिनाइयों पर जय की जा सकती थी और हम जय कर भी रहे थे। बस हमारी गरीबी की
चादर बहुत दूर तक फैल गई थी। योजना से काम लेना पड़ता था ताकि अपने लक्ष्य पर
पहुँच कर तसल्ली कर पाएँ कि हम ने कुछ तो किया। मुझ से बड़े मेरे दो भाई थे। मुझ
से छोटी एक बहन और एक भाई। दोनों बड़े भाई खेत के कामों में पिता का हाथ बँटाते
थे। गरीबी और अस्त व्यस्तता की उस दयनीय रौ में मेरी पढ़ाई छूट सकती थी। पता नहीं
मेरे परिवार में वातावरण कैसे इस तरह बन आया था कि केवल मैं पढ़ाई में आगे निकलता
जाऊँ और मेरे भाई बहन मानो कुछ - कुछ पढ़ाई से अपनी उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते जाएँ।
पर आने वाले दिनों में मेरी पढ़ाई गंभीर रूप से बाधित हुई। मेरी पढ़ाई व्यवस्थित
रूप से न हो सकी तो इस का कारण घर का बँटवारा था। दोनों बड़े भाइयों की शादी
होने पर वे अपने कुनबे की चिंता करने लगे थे। उन के अलग होने पर हम माता - पिता और
तीन बच्चे साथ जीने के लिए छूट गए। यहाँ भी वही हुआ हमें जीना था तो हम जी लिये। यहीं मुझे
मज़दूरी करने के लिए कुदाल थामनी पड़ी जो वर्षों छूटी नहीं। इस बीच पिता बीमार हुए
तो स्वस्थ हो पाना उन के लिए स्वप्न बन गया.
गोवर्धन
यादव - मेरा अपना मानना है कि किसी भी भाषा को यदि बचपन से सीखा जाए तो वह
जल्दी ही आत्मसात हो जाती है. जब आपने हिन्दी सीखना शुरु किया तब तक तो आपकी उम्र लगभग 20-21 वर्ष की हो चुकी होगी. इस बढ़ी उम्र में आपको निश्चित ही दिक्कतें
भी खूब आयी होंगी?
धुरंधर
जी - बचपन में मुझे अपने पिता की ओर से हिन्दी का संस्कार मिला था। जिसे वास्तविक
हिन्दी का ज्ञान कहेंगे वह बाद में मेरे हिस्से आया। मैं आत्म गौरव से कहता रहा
हूँ हमारे देश में हिन्दी के उत्थान के लिए काम करने वाली हिन्दी प्रचारिणी सभा के
सौजन्य से मैं व्याकरण सम्मत हिन्दी सीख पाया था। हम तीस तक विद्यार्थी एक कक्षा
में पढ़ते थे जिन में से दो तिहाई विवाहित थे। स्वयं मेरे दो बच्चे थे। एक महिला
की तो दो बेटियों की शादी हो गई थी। मेरी निजी बात यह है मेरी गरीबी के बादल मेरे
सिर पर तने हुए थे परिणाम स्वरूप बस का भाड़ा चुका कर जाने में मुझे तंगहाली से
गुजरना पड़ता था। पढ़ाई का लक्ष्य यही था हिन्दी सीख लूँ ताकि हिन्दी अध्यापक बनने
का मेरा रास्ता सहज हो सके। वैसे, मैंने इस बीच पुलिस बनने के लिए हाथ - पाँव मारने की कोशिश की थी।
यदि पुलिस की नौकरी मुझे पहले मिल जाती तो मैं इधर का आदमी न हो कर उधर का होता।
मैंने चोरों की गिरेबान पर हाथ खूब रखा होता और उसी अनुपात से अपना ईमान रिश्वत को
प्रतिदान में दे कर सोचता कि मैं तो उसी धारा में बह रहा हूँ जिस धारा का सभी
भक्ति वंदन कर रहे हैं। मेरे बिना हिन्दी अनाथ तो न होती, लेकिन मैं स्वयं के साक्ष्य में कह रहा हूँ मेरे नाम से हिन्दी की
इतनी कृतियाँ नहीं होतीं। मैं हिन्दी का पर्याय न होता और हिन्दी की दुनिया मुझे
जानती तक नहीं। आज हिन्दी से अपनी पहचान का मुझे बहुत फक्र है। हिन्दी मेरे प्रति
हुई भी ऐसी उस ने मुझे अनाथ नहीं छोड़ा। हिन्दी ने मुझे रोटी दी और मैंने इसी भाषा
के बूते अपने बच्चों को पढ़ाया।
गोवर्धन
यादव- मारीशस में आम बोलचाल की भाषा कृओल है जबकि सरकारी भाषा अंग्रेजी है. इन दो भाषाओं के बीच हिन्दी अपना स्थान कैसे बना पायी? क्या कोई ऎसी संस्था उस वक्त काम कर रहीं थी, जो हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए कटिबद्ध थी?
धुरंधर
जी - भारतीयों के आरंभिक दिनों में तो निश्चित ही
बहुत अंधेर था। कालांतर में हिन्दी का गवाक्ष खुला और
वह अपनी मंजिल की तलाश के लिए व्याकुल हो उठी। जैसे तैसे हिन्दी परवान चढ़ती गई और
उस ने देश व्यापी बन कर जन जन के मन में जैसे लिखा मैं इस देश में समर्थ भाषा के
रूप में अपनी पहचान बनाना चाहती हूँ। हिन्दी ने नाम तो पाया, लेकिन दुख तो मानेंगे उसे आज भी वह शिखर न मिल पा रहा है जिस की अपेक्षा
में उस ने हिन्दी के दावेदारों का दरवाज़ा खटखटाया था। अब इतना ही कहा जा सकता है
हिन्दी को कुछ तो सुलभ हो सका और इस हिन्दी में लिखने वाले उसे अपनी रचनाओं का
अर्घ्य समर्पित कर सके। फिलहाल इसी पर हमें संतोष करना पड़ता है। दो संस्थाओं का
जिक्र करना यहाँ मैं आवश्यक मान रहा हूँ। वे दोनों संस्थाएँ हैं मॉरिशस आर्य सभा और हिन्दी प्रचारिणी सभा। आर्य सभा ने ‘धर्म को बचाओ’ और ‘हिन्दी को विस्तार दो’ जैसी भावनाओं से एक शती का सफ़र
अब तक इस देश में पूरा कर लिया है। हिन्दी प्रचारिणी सभा ने विशेष रूप से व्याकरण
सम्मत हिन्दी पर ज़ोर दिया और इसी पर टिक कर उस ने मॉरिशस को सिखाया कैसे शुद्ध
हिन्दी को थामा जा सकता है। यहीं से हम सब को प्रेमचंद, प्रसाद, निराला महादेवी वर्मा आदि हिन्दी के मूर्द्धन्य साहित्यकारों को
जानने और पढ़ने का अवसर मिला।
गोवर्धन
यादव- लघुकथाओं से लेकर कहानी, लेख-आलेख तथा उपन्यास तक आपका सारा लेखन हिन्दी में हुआ है. हिन्दी
लेखन से आपका जुड़ाव कब और कैसे हुआ ?
धुरंधर
जी --यह तो तय
है जिस ने भी इस देश में हिन्दी के लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाने की कोशिश की
है उस के लिए भारत के हिन्दी के रचनाकार अपने
आदर्श रहे हैं। ज़रूरी नहीं सब एक ही लेखक का नाम लें। अभिमन्यु अनत और मैंने
महात्मा गांधी संस्थान में पचीस साल एक साथ काम किया। हमारा एक और मित्र था जिस का
नाम पूजानन्द नेमा था। वह गजब का कवि और चिंतक था। रोज़ हम तीनों घंटों साहित्यिक
चर्चा करते थे। अभिमन्यु एक ही भारतीय लेखक से अपने को प्रभावित बताते थे वे थे
शरतचंद चटोपाध्याय। मैंने प्रेमचंद को अधिकाधिक पसंद किया। पूजानन्द नेमा के लिए
निराला आदर्श कवि थे। मॉरिशस के प्राथमिक कवियों में ब्रजेन्द्र कुमार भगत हुए
जिन्हें हमारे देश के स्थापित कवि के रूप स्वीकारा जाता है। वे मैथिलीशरण गुप्त से
प्रभावित थे। वे मैथिलीशरण गुप्त की ही तरह कविता रचने का प्रयास करते थे। इस तरह
मॉरिशस में शुरुआती कवियों और कहानीकारों के अपने - अपने आदर्श होने से वे प्राय:
उन्हीं की तरह लिखने की कोशिश करते रहे, लेकिन कालांतर में सोच और
अभिव्यक्ति में सब को स्वयं की ज़मीन तो तलाशनी ही थी। अभिमन्यु अनत ने मॉरिशस की
मिट्टी का बेटा बन कर वही लिखा जिस में उस की अपनी मिट्टी की सुगंध हो। इसी तरह
पूजानन्द नेमा, सूर्यदेव सिबरत,
सोमदत्त बखोरी, दीपचंद बिहारी, भानुमती नागदान और स्वयं मैं हम सभी अपनी - अपनी रचनाओं में अपने -
अपने नज़रिये से अपने देश को आँकते रहे।
गोवर्धन
यादव - अच्छी हिन्दी सीख लेने के बाद आपने
भी अपनी ओर से हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयास किया होगा? इस पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें?
धुरंधर
जी - मैंने प्रयास अवश्य बहुत किया
है। मैं स्थानीय रेडियो
में दस साल हर सप्ताह तीन साहित्यिक कार्यक्रम प्रस्तुत करता था। इस में एक रेडियो
नाटक होता था। मैं एकांकी लिख कर कलाकारों के साथ रेडियो से प्रसारित करता था। मैं
समझता हूँ हिन्दी को निखार देने में मेरा यह
श्रम समुचित था। मैं 1972 - 1980 के वर्षों में हर
शनिवार और रविवार की सुबह से दो बजे तक एक कालेज में एक कमरा ले कर वयस्कों को
हिन्दी पढ़ाता था। मेरे विद्यार्थियों में पचास की उम्र तक के लोग होते थे और मैं
पढ़ाने वाला चालीस के आस पास की उम्र में जीवन की साँसें लेता था। ये लोग हिन्दी
सरकारी स्कूलों में शिक्षक थे। मेरा विज्ञापन इस रूप में हो गया था कि मैं व्याकरण
पढ़ाने में मास्टर हुआ करता हूँ। यह सही था मैं शुद्ध हिन्दी पर बल देता था और
मेरे साथ पढ़ने वालों को लगता था मेरे साथ पढ़ें तो हिन्दी ठीक से जान लेंगे। मैं
व्याकरण के लिए काली श्यामपट को उजली खड़ी से रंग कर मिटाया करता था। लगे हाथ मेरा
ध्यान इस बात पर रहता था इन लोगों को परीक्षा में सफल करवाना है। जयशंकर की कविता
पढ़ाना चाहे मेरे लिए दुरुह होता था, लेकिन तैयारी करने पर निश्चित
ही वह मेरे लिए सहज हो जाता था। एक बात मेरे लिए बहुत ही अच्छी होती थी मैं स्वयं
सीखता भी था। छंद पढ़ाएँ तो मात्रा की समझ से संपृक्त कैसे न होंगे। मैं एक
उद्देश्य से अपने उस अतीत की चर्चा कर रहा हूँ। मेरा विशेष तात्पर्य यह है मैं
अपने वयस्क विद्यार्थियों में लिखने का भाव अंकुरित करने का प्रयास करता था। हर
महीने के अंतिम सप्ताह को मैं आधा दिन लेखन को समर्पित करता था। मेरे विद्यार्थियों में से बहुतों ने बाद में कुछ न कुछ लिखा। मैं महात्मा गांधी संस्थान में
प्रकाशन विभाग से जब से जुड़ा लेखक - कवि तैयार करने में मेरा ध्यान बराबर लगा
रहता था। किसी किसी की तो आधी कहानी को मैंने लिख कर पूरा किया और बिना अपना जिक्र
किये उन्हीं के नाम से छापा। लोग कविता ले कर मेरे घर आते थे। मैं संशोधन करने के
साथ यह कहते उन का मनोबल बढ़ाता था अच्छी कविता की तुम में पूरी संभावना है। मैंने
भारत में प्रकाशकों से बात कर के दो चार लोगों की पुस्तकें भी छपवायी हैं। अब
साहित्यकार के रूप में मेरी पहचान बनते जाने से लोग मेरे साथ जुड़ने के लिए और भी
तत्पर रहते हैं। बल्कि मैं भी उन की और दृष्टि उठाये रखता हूँ। हम सब की कामना एक
ही होती है हमारे देश में हिन्दी का अपना एक दमदार साहित्य हो।
……क्रमश: