गुरुवार, 31 जनवरी 2019

मैं कैद हूँ : अशोक बाबू माहौर





  मध्य प्रदेश के मुरैना जिला में 10 जनवरी 1985 को जन्में अशोक बाबू माहौर का इधर रचनाकर्म लगातार जारी है। अब तक इनकी रचनाएं स्वर्गविभा, अनहदक्रति, साहित्यकुंज, हिंदीकुंज, साहित्यशिल्पी, पुरवाई, रचनाकार, पूर्वाभास, वेबदुनिया, अद्भुत इंडिया, वर्तमान अंकुर, जखीरा, काव्य रंगोली, साहित्य सुधा, करंट क्राइम, साहित्य धर्म आदि में प्रकाशित।
  
सम्मान : इ- पत्रिका अनहदक्रति की ओर से विशेष मान्यता सम्मान 2014-15  नवांकुर वार्षिकोत्सव साहित्य सम्मान  नवांकुर साहित्य सम्मान काव्य रंगोली साहित्य भूषण सम्मान मातृत्व ममता सम्मान आदि 
प्रकाशित पुस्तक :साझा पुस्तक
(1)नये पल्लव 3
(2)काव्यांकुर 6
(3)अनकहे एहसास



अशोक बाबू माहौर की कविता

मैं कैद हूँ
 
मैं कैद हूँ
घर अपने,
दबा हूँ
सलाखों में
बातें कैसे करूँ तुमसे?
मैं आजाद नहीं
आजादी तलाश रहा हूँ।
शब्दों की श्रृंखला बुनकर
बैठा हूँ
खामोश,
मैं नाजुक हताश
गुमराह होता
हिसाब हूँ।
हाँ मैं कैद हूँ
सजा काट रहा हूँ
घर अपने
उत्पन्न होती पीड़ा की
ग्रह क्लेश की
यूँ ही
वैसे ही
जैसे अपराधी हूँ।

संपर्क :ग्राम कदमन का पुरा, तहसील अम्बाह
जिला मुरैना (मप्र) 476111 
मो-08802706980

शनिवार, 19 जनवरी 2019

प्रतिभा श्री की कविताएं



    प्रतापगढ़  में जन्मी प्रतिभा श्री ने अपना कर्मक्षेत्र आजमगढ़ चुना।  रसायनशास्त्र में परास्नातक के बाद एक सरकारी विद्यालय में शिक्षिका एवं विगत तीन वर्षों से लेखन कार्य मे सक्रिय । अदहन , सुबह सवेरे , जन सन्देश टाइम्स , स्त्रीकाल , अभिव्यक्ति के स्वर एवं गाथान्तर में लघुकथा व कविताएँ प्रकाशित । लघुकथा संग्रह अभिव्यक्ति के स्वर में  लघुकथाएं प्रकाशित

  जीवन की किसी भी गतिविधी में सौंदर्य की रचना तभी हो पाती है जब उसमें संतुलन हो। किसी भी तरह की क्षति सौंदर्य को नष्ट करती है । कविता में भी वही बात है। जिसने संतुलन को साध लिया वे ही अपना ऊंचा स्थान बनाने में सफल होते हैं। संतुलन को साधने में महारत हासिल करने वाली ऐसी ही एक युवा कवयित्री हैं जिन्होंने हाल के दिनों में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई है । पुरुषों की निरंकुश पाश्विकता को इनकी कविताओं में बखूबी देखा जा सकता है। पुरवाई में स्वागत है युवा कवय़ित्री प्रतिभा श्री का उनकी कविताओं के साथ।

प्रतिभा श्री की कविताएं
 
1-और उस रात

अम्मा ने कहा
डरा कर गुड़िया
वह खिलखिला के हंस पड़ी !
बाबा ने कहा...
बबुनी डरा कर
उसने काल्पनिक मूँछो को ऐंठा
पिता की आंखों में देखा
किससे ?
पिता ने आँखे चुरा ली।
धप्प से....
पीठ पर धौल जमाई
बहुत देर तक हँसती रही।
पिता भी हँसे खूब ।
सब औरतों ने कहा ..
चुन्नी कस कर  बाँधा कर
उसने
उतार फेंकी

पड़ोसियों ने कहा
बहुत तेज है
इसकी हँसी
बहुत तेज है
इसकी चाल
खट् खट्
दौड़ती है
मोहल्के के
कैक्टस को
कांटे सा चुभती रहीं उसकी छातियाँ
फिर   ...,
एक पूरी रात...
उसके कलेजे की मछली
छटपटाती रही
और उस रात
लड़की ने
ना डरने की
एक बड़ी
कीमत चुकाई।


2-मैं कौन

अवनि पर आगमन के तत्क्षण
गर्भनाल  की गांठ पर
लिखा गया
शिलापट्ट
तुम्हारे नाम का
शिशुकाल से
मेरी यात्रा के अनगिनत पड़ावों पर
तत्पर किया गया
तुम्हारी सहधर्मिणी बनने को
उम्र की आधी कड़ियाँ टूटने तक
मैं ढालती रही स्वयं को
तुम्हारे निर्धारित साँचे में
मैं बनी
स्वयं के मन की नहीं
तुम्हारे मनमुताबिक

जो तुमको हो पसन्द वही बात करेंगे
तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे

तुम रंच मात्र ना बदले
मैं बदलती रही
मृगनयनी
चातकी
मोहिनी हुई
कुलटा
कलंकिनी
कलमुँही  कहाई
सौंदर्य ,
असौंदर्य के
सारे उपमान
समाहित हो मुझमें 
मेरी तलाश  में
भटकते घटाटोप अंधेरों में
थाम तुम्हारे यग्योपवीत का एक धागा
जहाँ हाथ को हाथ सुझाई न दे
करते चक्रण
तुम्हारी नाभि के चतुर्दिक
तुम्हारे
विशाल जगमगाते प्रासादों से
गुप्त अंधेरे कोटरों तक
मैं सहचरी से
अतिरंजित कामनाओं की पूर्ति हेतु वेश्या तक
स्वर्ग की अभीप्सा से नरक के द्वार तक
सोखती रही
तुम्हारी देह का कसैलापन
स्वयं को खोजा
मय में डूबी तुम्हारी आंखों में
हथेलियों के प्रकंपन में
दो देहों के मध्य
घटित विद्युत विध्वंश में
कि
किंचित नमक हो
और मुझे
अस्तित्व के स्वाद का भान हो
तुम्हारी तिक्तता से नष्ट होता गया  माधुर्य
तुम्हारी रिक्तता में समाहित हो
मैं शून्य हुई
मुझे ......!
मुझ तक पहुंचाने वाला पथ
कभी
मुझ तक ना आया ।
जल की खोज में भटकते
पथिक सी 
मेरी दौड़ रेत के मैदानों से
मृगमरीचिका तक
मेरे मालिक !
क्या मैं अभिशापित हूँ ?
तुम्हारी लिप्साओं की पूर्ति हेतु
मेरे उत्सर्ग को
कई युगों से
आज भी
खड़ी हूँ
तुम्हारी धर्मसभाओं में
वस्त्रहीन
और
तुम्हारा उत्तर है
मौन ।
संपर्क सूत्र-

E Mail-raseeditikat8179@gmail.com