मंगलवार, 15 नवंबर 2011

बिजेन्द्र सिंह एवं मनवीर सिंह नेगी की कविताएं-


           बाल दिवस ( 14 नवंबर 2011 ) पर दो बच्चों बिजेन्द्र सिंह एवं मनवीर सिंह नेगी की कुछ  कविताएं       पोस्ट कर रहा हूं। आप सुधीजनों के विचारों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।  -  संपादक

बिजेन्द्र सिंह

 2 अक्टूबर1995 को टिहरी गढ़वाल के खासपट्टी पौड़ीखाल के बाँसा की खुलेटी(गौमुख) नामक गांव में दलित परिवार में जन्में बिजेन्द्र सिंह ने राज्य स्तर पर खेल के अलावा विभिन्न क्षेत्रों में सराहनीय कार्य किया है।स्कूल में हमेशा पढ़ाई में प्रथम  आने पर सम्मानित भी हुए हैं। प्रवाह ,भाविसा और पुरवाई पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बाद कहीं भी बेब पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली उनकी पहिलौठी कविताएं। वर्तमान में श्री गुरूराम राय पब्लिक स्कूल देहरादून में अध्ययनरत।



बिजेन्द्र सिंह की कविताएं-

1-दो भाई


दो थे भाई सोनो-मोनो
बहुत शरारती थे वह दोनों

बात-बात पर झगड़ा होता
झगड़ा अक्सर तगड़ा होता

उनकी माँ हमेशा  डाँटती
फिर भी नहीं वह उन्हें मारती

बच्चों से वह करती थी प्यार
मारने पर बच्चे रुठ जायेंगे यार

उनके पिता जी उन्हें डाँटते
फिर भी नहीं वह दोनों मानते

टीचर ने उन्हें खूब समझाया
अच्छे -बुरे का फल बतलाया

अब नहीं वह शैतानी करते
मन लगाकर दोनों पढ़ते।




















2-मन में आया

मन में आया चिडिया बनकर
आसमान में उड़ता जा़ऊँ

मन में आया शेर बनकर
जगह-जगह पर गुर्रा़ऊँ

मन में आया बिल्ली बनकर
म्याऊँ - म्याऊँ करता जाऊँ

मन में आया कबूतर बनकर
सबको शुभ संदेश पहुंचाऊँ

मन में आया बंदर बनकर
इधर-उधर उछल कूद मचाऊँ

मन में आया हाथी बनकर
मैं भी अपनी सूँड़ हिलाऊँ

कहां गये मेरे सपने सब
जब से हुआ बड़ा मैं अब।


संपर्क-    
        बिजेन्द्र सिंह
                ग्राम पोस्ट-बाँसा की खुलेटी, गौमुख
                खासपट्टी पौड़ीखाल , टिहरी गढ़वाल
                 उत्तराखण्ड, 249121
         मोबा0-09012811312




मनवीर सिंह नेगी की एक कविता











  





मेरा मिट्ठू

एक वृक्ष पर था तोता
किन्तु अभी वह बहुत था छोटा

मम्मी- पापा के संग रहता था
होते भोर ही जगता था

एक दिन उसको पकड़कर लाया
दूध-भात मैंने खूब खिलाया

मिट्ठू-मिट्ठू कहता था
,बी, सी ,डी पढ़ता था

सके मम्मी पापा टें-टें करते
क्योंकि वह नहीं लिखे-पढ़े थे।







 

संपर्क-
                 मनवीर सिंह नेगी
                 राजकीय इंटर कालेज गौमुख
                 टिहरी गढ़वाल ,उत्तराखण्ड, 249121



शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

महेश चंद्र पुनेठा की कविताएं

संक्षिप्त परिचय

कवि मूलतः पहाड़ से आता है और पहाड़ अपने आप में प्राकृतिक सुषमा और अपने सौंदर्य के लिए जाना जाता है। किंतु उस प्रकृति को जीते हुए क्या कवि ने वह द्वंद्वात्मकता दृष्टि अर्जित की है या नहीं जिसमें जीवन के मर्म को समझा जा सके । इस हिमालयी कवि से मेरी पहली मुलाकात भीमताल में उत्तराखंड स्कूली शिक्षा हेतु पाठ्पुस्तकों के लेखन के दौरान हुई। हुआ यूं कि बात ही बात में मैंने कहा कि उत्तराखंड के युवा रचनाकारों में महेश पुनेठा का नाम अग्रणी है । क्या आप उन्हें जानते हैं मेरे सामने खड़े एक शक्स ने कहा। मैंने कहा हां उन्हें बहुत पढ़ता हूं लेकिन अभी देखा नहीं हूं । वह शक्स मुस्कराते हुए कहा मैं ही महेश हूं । फिर आप सुधीजन समझ सकते हैं हम लोगों का मिलाप । 

महेश जी मूलतः मनुष्य के जीवन और उसके द्वंद्व को परखने वाले कवि हैं । इनके यहॉ लोक परंपराओं का विकास एक नए ढंग से होता है। जीवन की विविधता अगर उसको गति नहीं देती तो यह मात्र एक स्थिर चित्र होकर रह जाएगी । महेश जी के संदर्भ में एक बात जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है वह यह है कि उनकी निजता का निर्माण सामूहिकता से ही होता है इसलिए कहीं भी बड़बोलापन, आत्मग्रस्तता नहीं मिलती जिससे आज की युवा कविता ज्यादा ही दो चार है। लगता है कवि को अपने को व्यक्त करने के हर उपकरण के बारे में पता है और वह उसे सीधे वहीं आसपास से उठा लेता है। जब मैं यह कह रहा हूं तो तमाम इधर लिखी जा रही कविताओं को सामने रखकर जैसे निर्माण करने को तो निकल पड़ा पर बॉस बल्ली की कोई खबर नहीं एक सधे रचनाकार को एक एक उपकरण का पता रहता है और वह उसका जरूरत पड़ने पर इस्तेमाल कर लेता है। यह सब इस कवि के पास है । अगर कोई कवि यह सब पा लेता है जो कि आसान बिल्कुल नहीं है तो वह एक लंबी यात्रा को निकल सकता है यह कवि यह सब संभावना जगाता है। 

10 मार्च 1971 को पिथौरागढ़ के लम्पाटा में जन्मे महेश चंद्र पुनेठा ने राजनीति शास्त्र से एम0ए0 कियाहै ।

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी सौ से अधिक कविताएं,एलघुकथा,आलोचनात्मक लेख व समीक्षाएं- वागर्थ,कथादेश,बया,समकालीन जनमत,वर्तमान साहित्य,कृति ओर,कथन, लेखन सूत्र,प्रगतिशील वसुधा,आजकल ,लोक गंगा,कथा, दि संडे पोस्ट,पाखी,आधारशिला ,पल प्रतिपल,उन्नयन,उत्तरा,पहाड़, तेवर,बहाव,प्रगतिशील आकल्प,प्रतिश्रुति,युगवाणी ,पूर्वापर में प्रकाशित हुई हैं ।
भय अतल में नाम से एक कविता संग्रह प्रकाशित । संकेत द्वारा कविता केंद्रित अंक।
हिमाल प्रसंग के साहित्यिक अंकों का संपादन ।
उत्तराखंड स्कूली शिक्षा हेतु पाठ्पुस्तकों का लेखन व संपादन ।
शिक्षा संबंधी अनेक राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय कार्यशालाओं में प्रतिभाग ।
शैक्षिक नवाचारों में विशेष रूचि ।
संप्रति- अध्यापन

प्रस्तुत है यहां उनकी दो कविताएं -












नहीं है कहीं कोई चर्चा

घर से भाग गयी दो बच्चों की मॉ
अपने प्रेमी के संग
कस्बे भर में फैल गयी है यह चर्चा
जंगल की आग की तरह
चर्चा में अपनी .अपनी तरह से
उपस्थित हो रहे हैं लोग
जहॉ भी मिलते हैं
दो-चार
किसी न किसी बहाने
शुरू हो जाते हैं
फिर ही ही ही खी खी खी

एक मत हैं सभी
महिला के ऐसी -वैसी होने पर

सभी की सहानुभूति है
उसके पति और परिवार के साथ
बच्चों के साथ सहानुभूति तो
स्वाभाविक है

महिला को कोई छिनाल
कोई कुलटा
कोई कुलच्छनी
कोई पत्थर कह रहा है
किसी को आपत्ति है कि
ऊंची जाति के होते हुए भी साली
भागी एक छोटी जाति के पुरूष के साथ

मिर्च.मसाले के साथ
दो नई सुनी-सुनायी बातें जोड़कर
अखबार वालों ने भी छाप दी है खबर
इस तरह चर्चा पहुंच गयी है
दूर-दूर तक

चर्चा में सब कुछ है
जो-जो हो सकता है एक स्त्री के बारे में
पर आश्चर्य
कहीं नहीं है कोई भी चर्चा
उन कारणों की
जिनके चलते
लेना पड़ा होगा
दो बच्चों की मॉ को
घर छोड़ने का यह कठिन फैसला ।












यह चित्र गूगल से साभार

भीमताल

देखा तुझे बहुत नजदीक से
महसूस किया
रूप एरसएगंध और स्पर्श तेरा
साथ रहा तेरा जितने भी दिन
नित नयी ताजगी का हुआ एहसास
कुहरे में लिपटा साथ तेरे
और बारिश में भीगा भी

रह-रहकर आता है याद
धूप में मुस्कराना तेरा
हवा के स्पर्श से रोमांचित हो उठना

मौन वार्तालाप चलता रहा तुझसे

एक कैनवास सी फैली तू
हर पल एक नया चित्र होता जिसमें
न जाने कौन था वो
पुराने को मिटा
नया बना जाता था जो
चुपचाप
सुबह जहॉ तैल रंगो से बना लैंडस्केप होता
शाम के आते-आते वहॉ
बिजलियों के पेड़ उग आते
और चॉदनी रात में
चॉद दिख जाता खुद को निहारते हुए
तुझ में

आस-पास बनी रहती थी जो हलचल
याद हो आती है वो पल-पल

वो भुट्टा भूनता हुआ अधेड़
छोटे-छोटे बच्चे
हाथ बॅटा रहे होते जिसका
कितने प्यार से
देता था भुना भुट्टा
नींबू और नमक लगाकर
एक पात में रख
पूछता आत्मीयता से.
कहॉ से आए हो बाबूजी
कैसा लगा तुम्हें यहॉ आ कर
फिर आग्रह करता
एक और भुट्टा खाने का
भुट्टे के स्वाद सा
व्यवहार उसका

वो नुक्कड़ में चाय वाला
जो गिलास में चीनी फेंटते-फेंटते
बताता अपनी और अपने इलाके की
बहुत सारी बातें
बाबू जी एयह झील नहीं होती तो
कैसे चलता अपना गुजारा
कहॉ से होता आप लोगों से मिलना
कहॉ ये बतकही
ऐसे बतियाता वो
जैसे हम हों उसके पौने

वो नाव वाला
चप्पू खींचते-खींचते जो
बताता था
बाबू साहब !कितना भरा रहता था इसमें पानी
कुछ बरस पहले तक
वो पल्ले किनारे तक डबाडब
खाली जगह नहीं दिखती थी ऐसी
पीढ़ी गुजर गई हमारी तो नाव चलाते -चलाते
उस समय से चला रहे हैं
जब इक्का-दुक्का होटल और मकान थे यहॉ
अब तो जहॉ देखो
होटल ही होटल और रिजॉर्ट ही रिजॉर्ट

वो कॉटा बिछाए मछुआरा
जो बैठा दिख जाता इंतजार में अक्सर
जो देखता रहता हर चहल-पहल को
इधर-उधर की
जो हॅसी.ठिठोली करता साथी मछुआरों से
किसी विदेशी मैम को देख
याद आता है जब
तेरा सिमटना सिकुड़ना
घूमने लगते हैं ऑखों के सामने
इन सबके मुरझाते हुए चेहरे
सूखते हुए सपने

और चारों ओर बन आए रिजार्ट
दानवी आशियानों की तरह
निकलती हैं जिनसे रह.रहकर
अजीब-अजीब सी आवाजें डरावनी
किसी दुस्वप्न की तरह

काठ हो चुकी नावें
खेतों में खड़े-खड़े ठस हो चुके भुट्टे
खूंटी में टॅग चुकी जालें
चाय के खुमचों में जम चुकी काई

तू आज भी शांत होगी हमेशा की तरह
पर मैं जानता हूं
ऊपर से शांत दिखाई देने का मतलब
भीतर से शांत होना नहीं होता
जैसे बाहर से दिखाई देने वाला सत्य ही
नहीं होता अंतिम सत्य
जानने के लिए उसे
उतरना पड़ता है भीतर और भीतर
तेरा जन ही तेरा मन है
मुझे विश्वास है तुझे बचाएंगे भी वही
नहीं बचा पाएगा कोई कवि
या कोई प्रेमी युगल
जिसने दिए होंगे अनेकानेक रूपक
इक-दूजे को
तेरे जल में बनती बिगड़ती
पल-प्रतिपल छवियों के
साथ-साथ देखे होंगे अक्स
वो तो सिर्फ याद भर ही करेंगे तुझे
तेरी मधुर स्मृतियॉ बची रहेंगी उनके पास
हमेशा-हमेशा के लिए
पर तुझे बचाएंगे तेरे जन ही
रिजॉर्ट या होटल मालिक नहीं ।

संपर्क- जोशी भवन ,निकट लीड बैंक चिमस्यानौला पिथौरागढ़ 262501 मो0-९४११७०७४७०

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

आरसी चौहान की कविताएं-







                                                   आरसी चौहान




1.दस्ताने

यहां बर्फीले रेगिस्तान में
किसी का गिरा है दस्ताना
हो सकता है इस दस्ताने में
कटा हाथ हो किसी का
सरहद पर अपने देश की खातिर
किसी जवान ने दी हो कुर्बानी
या यह भी हो सकता है
यह दस्ताना न हो
हाथ ही फूलकर दीखता हो
दस्ताने-सा
जो भी हो
यह लिख रहा है
अपनी धरती मां को
अंतिम सलाम
या पत्नी को खत
घर जल्दी आने के बारे में
या बहन से
राखी बंधवाने का आश्वासन
या मां-बाप को
कि इस बार करवानी है ठीक मां की
मोतियाबिंद वाली आंखें
और पिता की पुरानी खांसी का
इलाज जो भी हो
सरकारी दस्तावेजों में गुम
ऐसे न जाने कितने दस्ताने
बर्फीले रेगिस्तान में पडे.
खोज रहे हैं
आशा की नई धूप ।






















यह चित्र गूगल से साभार

2.फूल बेचती लड़की

फूल बेचती लड़की
पता नहीं कब फूल की तरह
खिल गयी
फूल खरीदने वाले
अब उसे दोहरी नजर से देखते हैं
और पूछते हैं
बहुत देर तक
हर फूल की विशेषता
महसूसते हैं
उसके भीतर तक
सभी फूलों की खूबसूरती
सभी फूलों की महक
सभी फूलों की कोमलता
सिर से पाँव तक
उसके एक. एक अंग की
एक-एक फूल से करते हैं मिलान
अब तो कुछ लोग
उससे कभी-कभी
पूरे फूल की कीमत पूछ लेते हैं
देह की भाषा में
जबकि उसके उदास चेहरे में
किसी फूल के मुरझाने की कल्पना कर
निकालते हैं कई.कई अर्थ
और उसे फूलों की रानी
बनाने की करते हैं घोषणाएं
काश! वो श्रम को श्रम ही रहने देते।

संपर्क- आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल
उत्तराखण्ड249121
मेाबा0-08858229760
ईमेल-chauhanarsi123@gmail.com