बुधवार, 2 जनवरी 2013

मुझे लिखने दो


















मुझे लिखने दो , कि
सूर्य चुरा लेता है
अपनी किरणें
और नहीं भेजता उन्हें
अवनितल पर
हवाएं नहीं लेती अब
ठंडी गर्म सांसे
इसलिए नहीं मिलती ताजगी
प्रभात में
अब नहीं मिलती
शीतलता पेड़ों तले
क्योंकि वे चुरा लिए हैं
अपनी गहन हरियाली
और लीन हो गये हैं
ठूंठ होने की साधना में
मेघ नहीं बरसते समय से
पी गये हैं
अपना  स्वच्छ जल
कभी -कभार बरस पड़ते हैं
मुंह चियारे धरती के सीने पर
सायनाइड -सा जल
कुम्हार रखता है
गीली मिट्टी,अपने चाक पर
चाक खा जाता है,सारी मिट्टी
नहीं मिल पाते बर्तन
दीपावली छठ पूजन के दिन
बच्चे नहीं बजा पाते भोंपा
लड़कियां नहीं खेल पाती हैं
चाकी - जांता का खेल
नदी सोख लेती है
अपना जल और
सुखा डालती है
लहलहाती फसल
मरियल फसल की मड़ायी में
लील लेते हैं,थ्रेसर
भूसा रखा जाताहै
सहेज कर
नाद चबा डालती है
पशुओं का सारा भूसा
गिन सकते हैं
अंकगणित के नियम से
बैलों की सारी हड्डियां
थाली हजम कर जाती है
परोसा हुआ भोजन
किसान तड़प जाता है
एक दाने के लिए
गृहिणी ठिठुर जाती है
अपने स्तन से चिपकाये
छुधमुंहे बच्चे के साथ , तब
जाड़े की कातिल गहन रात्री में
बच्चे के धंसे हुए गाल
पीठ से बातें करती हई अंतड़ियां
सूखे रेतों से भरी हुई आंखें
प्रतीक्षा करती हैं प्रभात में
क्षितिज के ऊपर चढ़ते
सूर्य की एकटक।

संपर्क - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
        राजकीय इण्टर कालेज गौमुख,
                  टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121    
              मोबा0-08858229760 ईमेल-chauhanarsi123@gmail.com

सोमवार, 31 दिसंबर 2012

गज़ल: अनवर सुहैल



























1
हदों  का सवाल है
बवाल ही बवाल है
दिल्ली या लाहौर क्या
सबका एक हाल है
कलजुगी किताब में

हराम सब हलाल है
कैसे बचेगी मछली
पानी खुद इक जाल है
भेड़िए का जेहन है
आदमी की खाल है
अंधेरे बहुत मगर
हाथ में मशाल है

2


शिकवा करोगे कब तक
बेजॉं रहोगे   कब तक
माथे  पे हाथ रख कर
रोते  रहोगे  कब तक
निकलो भी अब कुंए से
सोचा करोगे कब तक
ये  खेल आग का है
डरते रहोगे कब तक
उटठो कि निकला सूरज
सोते रहोगे कब तक
शेरो-सुख़न में ‘अनवर’
सपने बुनोगे कब तक


 अनवर सुहैल

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

प्रेम नंदन की कविता


बूढ़ी साईकिल

  















     






प्रेम नंदन





मेरे मोहल्ले की
एक बूढ़ी, जर्जर साईकिल
अपनी पीठ पर
पूरे परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी लादे
रोज भोर होते ही
मेरे नींद के कच्चे पुल से
खड़खड़ाते हुए गुजरती है

मेरी नींद का पुल
उसकी खड़खड़ाहट का बोझ सह नहीं पाता
भरभराकर गिर पड़ता है
और मैं जम्हाई लेते हुए कहता हूं -
’’लगता है सुबह हो गई!’’


यह रोज का नियम है
मौसम के सारे वार
प्रायः बौने साबित हुए हैं
साईकिल की खड़खड़ाहट के आगे।


कभी-कभी शाम को
दरवाजे पर बैठकर
लौटते हुए देखता हूं साईकिल को
तो पूंछ बैठता हूं-
’’कैसी हो?’’
वह अपनी धॅंसी ऑंखें बाहर निकालकर
बस इतना कहती है-
’’ठीक हॅूं बाबूजी!’’
और अपनी खड़खड़ाहट मेरे कानो में ठूंसते हुए
अपने घर की ओर बढ़ जाती है
मैं उसके कैरियर पर बॅंधे
आटा ,चावल, सब्जी, तेल वगैरह को
देखता रहता हूं अपलक
अगले मोड़ पर 
उसके मुड़ जाने तक।
                                    
        अंतर्नाद
     उत्तरी शकुननगर,
     फतेहपुर,उ0प्र0
     मो 09336453835