रविवार, 12 मई 2013

पूनम शुक्ला की कविताएं


            
                                                             पूनम शुक्ला

                        26 जून 1972 को  बलिया , उत्तर प्रदेश में जन्मीं पूनम शुक्ला को बलिया में रहने का मौका बहुत कम ही मिला है ।पिता के स्थानान्तरण के कारण देश के विभिन्न हिस्सों में रहने का मौका मिला
मैं बोऊँगी उजास  और टार्च  कविता में अतीत के पृष्टभूमि से सामग्री लेकर जो कविता का वितान रचा है उसकी टीस कवयित्री के अंतर्मन में गहरे तक बैठी हुई है जिसकी कसमसाहट और छटपटाहट यहां शिद्दत से महसूस की जा सकती है। सच को सच लिख देना और समाज से खतरा मोल लेना पूनम शुक्ला की कविता -मैं बोउंगी उजास  में बखूबी देखा जा सकता है।अन्य कविताएं भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।इनकी कविताओं को पढ़ना एक सुखद अनुभूति से गुजरना है।

शिक्षा - बी एस सी० आनर्स ; जीव विज्ञान - एम एस सी ,कम्प्यूटर साइन्स -एम० सी चार वर्षों तक विभिन्न विद्यालयों में कम्प्यूटर शिक्षा प्रदान की ,अब स्वतंत्र लेखन मे संलग्न

कविता संग्रह- सूरज के बीज  अनुभव प्रकाशन,गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित ,विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में समय- समय पर कविताओं का प्रकाशन ।सनद ,पाखी ,नव्या में प्रतीक्षित

मदर डे पर कवयित्री पूनम शुक्ला की कविताएं-

1- मैं बोऊँगी उजास

बहुत पीया था
तरह - तरह के मिश्रण से
बनाया गया ठंडा
स्वादिष्ट पेय
जिसमे समानता का
थोड़ा मसाला था
एकता की मिठास
सभी जातियों को एक करती
सूखे मेवों की तश्तरी
और फिर कुछ बर्फ के टुकड़े
विभिन्न तर्कों के
उसे और स्वादिष्ट बनाते

पर क्यों पिलाया गया था
मुझे वो पेय स्कूल में
हर कक्षा में
हर मास्टर द्वारा
जब आज सत्य का
साक्षात्कार हुआ तो
जमीन ही धसक गई
सारी पढ़ाई तो
कहीं भीतर
धरातल में खिसक गई

जिस दिन पढ़ाई गई
कहानीठाकुर का कुआँ
कितनी चर्चा हुई थी
करुण था कक्षा का माहौल
सभी ने महसूस किया था
हृदय परिवर्तन
मैंने भी सँजो लिए थे
वो पल
जो टिमटिमाते हैं आज भी
दिल के किसी कोने में 
पर कितनी लाचार हूँ
अभी तक वो टिमटिमाता कोना
रोशन नहीं कर पाया
पूरे घर को
अलग रख दिए गए हैं
कुछ काँच के गिलास
जब आता है कोई ईसाई
मुसलमान या निम्न वर्ग का
मुझे दे दिया जाता है आदेश
पानी लाने का उस गिलास में
सुनकर मैं पत्थर बन जाती हूँ
वो गिलास मुझ पत्थर से टकराकर
चकनाचूर क्यों नहीं हो जाते

चाहते हुए भी
आदेश का पालन करती हूँ
सभी बड़े हैं
आज्ञा का पालन करती हूँ
वरना बेशरम,बत्तमीज़ की
उपाधि का सेहरा
रख दिया जाएगा सिर पर

आज सोचती हूँ कि
इतनी शिक्षा और उम्दा सोच
पाकर भी मैं
कितनी लाचार हूँ
पर फिर भी लगी हूँ
अनवरत यात्रा में
कि किसी दिन ये वक्त
होगा मेरी मुट्ठी में
और मैं बोऊँगी उजास
वह टिमटिमाता कोना
कर देगा एक दिन रोशन
मेरे घर को



2- टार्च

जब छोटी थी मैं
और बिजली  चली जाती
घर में एक लालटेन जला
हम सभी बाहर  बैठ जाते
और फिर होती तरह-तरह की बातें
घर की समाज की देश की शिक्षा की
हमारे मस्तिष्क में खुद ही
टिमटिमाने लगते थे जुगनू
और फिर सचमुच
एक जुगनू की टोली
उड़ती हुई हमारे इर्द गिर्द
अँधेरे को रोशन थी कर देती

याद है एक बार
उन जुगनुओं को
बोतल में भरकर
हमने एक टार्च भी था बनाया
इस भीड़ भरे शहर में
वो जुगनू तो अब नहीं दिखते
पर मस्तिष्क के जुगनू
बड़े काम हैं आते
इस जीवन में जब भी
है अँधेरा छाता
उन्हीं जुगनुओं का
टार्च बना लेती हूँ
और पार कर जाती हूँ अँधेरा


3- माँ       

सबसे पहले उठ
लग जाती है काम पर
सुबह से शाम तक की
एक लंबी लिस्ट है
उसके पास
सबको रीमांइडर देती हुई
सबको माइन्ड करती हुई
वो एक संचालक
एक अनुशासक
एक निरीक्षक
तो कभी
पालक का काम करती है
पिता के कोप को पोट
आँसुओं को घोंट
चलती जीवन की गाड़ी के
चालक का काम करती है

4- चलें फिर

चलें फिर
नव ज्योति के संसार में
चलें फिर
नव किरणों के प्रकाश में
फिर से दिखती है ,दूर
एक नई आभा
चलें उस पुंज के अभिसार में
चलें फिर

थक हम गए थे
रुक हम गए थे
चिन्तन चिता में
हम गुम गए थे
फिर से आई है
एक मधुर पुकार
चलें फिर

क्यों नम हैं आँखें
क्यों गुम हैं बातें
क्यों थम गई हैं
अँधेरी ये रातें
बजा फिर से वही
वीणा की टंकार
चलें फिर


पता - 50 डी , अपना इन्कलेव , रेलवे रोड , गुड़गाँव - 122001
मोबाइल -09818423425

बुधवार, 8 मई 2013

कहानी:मिट्टी के ढेले और आम के बौर उर्फ़ जादू : शिवेंद्र



                                                                 शिवेंद्र

काशी की सरजमीं पर 06 अप्रैल 1987 को जन्में  युवा प्रतिभाशाली लेखक शिवेंद्र की कहानी अभी तद्भव के नये अंक में छपी है ।कुछ कहानियां हंस एवं अन्य पत्रिकाओं में प्रतिक्षित। फिलहाल  रोजगार की तलाश में मुम्बई रहनवारी।
कहानी और कहानी के बारे में लेखक की ही जुबानी-
आरसी जी
आपको यह कहानी भेजते हुए बेहद प्रसन्नता हो रही है। यह कहानी मुझे बेहद प्रिय है। कभी-कभी लगता है कि न केवल समाज बल्कि हमारा संविधान भी प्रेम के खिलाफ है! क्यों इस कहानी का लड़का अपनी प्रेमिका को जीते जी आम के बौर नहीं दे पाया और क्यों जब उसे पता चला कि वह गर्भवती है तो सबसे पहले उसे अस्पताल की याद आई क्या सिर्फ इसलिए कि उसकी उम्र अभी 2 1  की नहीं थी  । काश कि समाज में प्रेम और प्रेम के फल को लेकर ऐसा भय नहीं होता तो शायद अपनी प्रेमिका को और  अपने होने वाले बच्चे की माँ को  पोखर किनारे की सोंधी मिट्टी और आम के खट्टे बौर देने के लिए उसे मरना नहीं होता। तो शायद दुनिया का सबसे बड़ा जादू  एक गर्भस्थ शिशु । आप एक जीवन से बड़ा जादू क्या रच सकते हैं ! बच पाता !
  

कहानी:मिट्टी के ढेले और आम के बौर उर्फ़ जादू 

 
 शिवेंद्र 

 
यह बारिश वाले दिन थे और साईकिल वाले भी
चुक्कड़ की खारी चाय (आंसुओं की वज़ह से )पीते हुए और उस जादू के बारे में सोचते हुए जो मेरे
, तुम्हारे और बारिश के दरम्यान घट सकता था मैं उस गली में खड़ा था जहाँ से हर रोज़ भोर के अँधेरे में एक शायर गुजरता था।
यह सोनारपुरा मुहल्ले की आखिरी गली थी और इस गली के बाद किसी सम्मोहन की तरह गंगा की सीढियाँ शुरू हो जाती थीं।
बोर्ड के एक्जाम के साथ ही १८ की उम्र ख़त्म हो चुकी थी। अब हमने  भगवान से डरना बंद कर दिया था और माँ के लिए पत्थरों से दुवाएं मांगना भी।अब सोने के सिक्कों से भरे हुए घड़े आधी रात को तालाब में नहीं उतराते थे और ना ही सुनसान दोपहरी में वह औरत कुएं पर आती जिसकी पायलों की आवाज भर लोगों को सुनाई देती थी।

ये बारिश वाले दिन नहीं थे और ना ही साईकिल वाले। ये वो दिन थे जब दुनिया से जादू ख़त्म हो रहे थे।
जादू जो बचपन से हमारे साथ रहते आये थे। तितली के पंखों से नाजुक
, जुगनू से और अँधेरे बाथरूम में बिल्ली की आँखों से चमकते हुए।

 तू सारी रात रोता रहा हुटुक-हुटुक कर
मेरे घुटने माँ के पेट पर लगे थे,  जोर से। बस इतना ही मुझे याद है, फिर मै तीन-चार महीने का बच्चा बन गया था।
रात उनकी आँखों में अब भी थीए सुबह का इंतज़ार उसे अब भी था।‘ सुबह तो हो गई!’मैंने कहा।
‘अभी कहाँ’
‘पर बारह बज रहे है !’
‘ हाँ तो दोपहर हो गई होगी पर सुबह नहीं हुई’
‘ माँ !!!’ मैं जोर से चिल्लाया।

माँ पर आप चिल्ला सकते होए यह घरेलू हिंसा के अंतर्गत नहीं आता।
दूर कहीं स्कूल की घंटियाँ बज रही थीं, छुट्टियों सी। मैं स्कूल लौटना चाहता था, पर अब मेरे पास हाफ पैंट नहीं बचे थे ना ही वह करधन जिसके धागे से बटन टूट जाने के बाद पैंट को संभाला जाता है।
‘ तुझे ऐसा क्या दुःख है। इतना तो तू कभी नहीं रोया, बचपन में भी नहीं !’
एक माँ है जिसके पास हर चीज का हिसाब होता है बचपन का भी।

ये वो दिन नहीं थे जब दुनिया से जादू ख़त्म हो रहे थे
, ये वो दिन थे जब जादू को बचाए जाने की जरूरत थी।

उस दिन जो तुम्हारी खिड़की बंद थी तो बंद ही रही । ना खुली
, ना झिझकी, ना हंसी ,ना शरमाई।  मैं भागता रहा था घाट-घाट,गली-गली और मुहल्ला-मुहल्ला पर ऐसा लग रहा था की पूरे बनारस का जादू ख़त्म हो चुका था।  एक दिन पहले हमने सब तय कर लिया था जब तुमने  गंगा की लहरों को एक दिया अर्पित किया था। पर अब मैं दुनिया के सारे अस्पतालों को मिटा देना चाहता था। हरे पत्ते के दोने में रक्खा हुआ दिया लहरों के साथ बहता चला जा रहा था। हम मुरझाये फूल की तरह लौटे थे। मुझे बाद में पता चला था की जब हम लौटते है तो अकेले होते हैं, ना जाने कब तुमने वैतरणी पार कर ली थी। कुछ देर बाद एक तैराक कूदा था। अरे ! दौड़ा हो...... कोई लड़की डूबी......   

उस रोज बारिश इतनी हुई थी की समुन्दर बनारस में किराये का मकान खोज रहा था।
मैं उस गली में खड़ा था जो थी ही नहीं।
साँसे अटक रही थीं।
चाय ख़त्म होते ही कुल्हड़ निर्जीव हो गया था।

यह एक हल्का सा स्ट्रोक था।माँ रो नहीं रही थी वह सदमे में थी। उसका चेहरा बिल्ली के पंजे से घायल हुई चिड़िया सा लग रहा था। कोमलए सर्द, भयभीतए भीगा हुआ। मेरे मुहं में गंगा जल डाला गया।पर भय अब तक मेरे भीतर काँप रहा था। पेट और पसलियों के बीच कहीं बिछुड़ने का भय।


  आज से ठीक तीसरे दिन मरे हुए लोग जिंदा हो जायेंगे।ईशु ने कहा।


परमपिता उन्हें ज़िन्दगी सौपेंगे ताकि वे अपनी आखिरी इच्छा पूरी कर सकें,

बेसब्र तीन दिन।  मंदिर के अहाते में साँसे गिनता और साईकिल की पीठ पर खानाबदोश की तरह भटकता हुआ।
पहली
,आखिरी और एकमात्र इच्छा तुम।
तुम्हारा मिलना एक प्राकृतिक षडयंत्र था।
मंदिर का दरवाजा। सामने किशन कन्हैया धोती पहन रहे थे।एक पंडित उनकी बासुरी धो रहा था। सुबह समय से पहले अंगड़ाई  ले रही थी। दरवाजे का हल्का सा झरोखा। अंत में  फुसफुसाती हवा। वह आ गई।  मै आगे बढ़ा। अलसाई पलकें, सपनों से भरी आँखें और जागती साँसेए बंद मुट्ठी की तरह ताला लगे होंठए गालों पर ठहरा हुआ हैरान गुलाबी रंग,गंभीरता के तल में नींद सी उचटी हुई अल्हड़ता। क्या लाये हो पोखर किनारे की सोंधी मिट्टी और आम के बौर  बचपन सी सुकुंवार हंसी। किशोर कल्पनाओं से सजा हुआ बचपन और जवानी को अलगाता और उन्हें जोड़ता मोड़।
  अगले जन्म में इसे याद रखना।इस मंदिर को और इस मोड़ को भी जहाँ ज़िन्दगी और कहानी ने आज मुहब्बत का फूल काढ़ा है।इस समय को भी मत भूलना जो इस मोड़ पर एक पल के लिए ठहर गया है । सिर्फ और सिर्फ मेरे और तुम्हारे लिए 

 रात के चुम्बन से संवलाए तुम्हारे होंठ उस दिन काँपे थे और बारिश के बावजूद इन्द्रधनुष एक उम्मीद की तरह ठीक हमारे ऊपर निकल आया था। कि यह वो  दिन था जब दुनिया में जादू लौट रहे थे।


 संपर्क-
फ्लैट.202बी विंग द्वितिय तल अपना घर बी सीएचएस लिमि,पिम्प्रिपदा, मलाड ईस्ट मुम्बई.400097,मो0.09930960657