शनिवार, 15 जून 2013

सौरभ राय की कविताएं



मेरा नाम सौरभ राय  है और मैं हिंदी में कवितायेँ लिखता हूँ मेरी उम्र 24 वर्ष वर्ष है एवं मेरी कविताओं के तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमे से यायावर दिसम्बर 2012 को बैंगलोर में रिलीज़ हुआ मेरी कवितायेँ हिंदी की कई किताबों में प्रकाशित हो चुकी हैं इसके अलावा हंस ने मेरी कविताओं को अपने जनवरी 2013 के अंक में प्रकाशित किया था वागर्थ एवं कृति ऒर समेत कुछ और पत्रिकाएँ अपने आगामी अंकों में मुझे प्रकाशित कर रहे हैं कई अंग्रेजी के पत्र पत्रिकाओं में भी मेरे लेखन के बारे में छप चुका है

अर्नेस्टो चे ग्वेरा

हॉस्टल की दीवार फांदकर
लड़की जब
लड़कों के कमरे में लेट
बाप के पैसों का
सिगरेट पीती है
उस भटकते हुए धुंए में
थोड़ी धुंधली
थोड़ी और शर्मसार
दीवार पर चिपकी हुई
चे की हैरान आँखें
क्या तुम्हे विचलित नहीं करतीं

वियतनाम के आख़िरी
फटेहाल दर्ज़ी से सिलवाकर
अमरीकी साम्राज्यवाद का ठप्पा लगवाकर
दाढ़ी बढ़ाकर
जब लड़के चे की टी.शर्ट पहन
कोका.कोला पीते हुए डकारते हैं .
क्रांति
तो क्या
उस चुल्लू भर कोक के चक्रवात में
तुम्हे डूबता हुआ चे
डूबती हुई क्रांति
दिखलाई नहीं देती

अंग्रेज़ी में गलियाते बच्चे जब
कोलंबिया के किसानों का
सारा ख़ून
चे छपी कॉफ़ी मग में समेटकर
बात करते हैं
दुनिया बदलने की
उनकी बातों में दुनिया कम
गाली ज़्यादा होती है
ऐसे में क्या तुम्हे
उस मग पर छपी तस्वीर के
चकनाचूर होने की प्रतिध्वनि
सुनाई नहीं पड़ती

चे के नाम पर छपी
बिकाऊ युवा ही
पूँजीवाद की क्रांति है

सिनेमा

सूरज की आँखें
टकराती हैं
कुरोसावा की आँखों से
सिगार के धुंए से
धीरे धीरे
भर जाते हैं
गोडार्ड के
चौबीस फ्रेम

हड्डी से स्पेसशिप में
बदल जाती है
क्यूब्रिक की दुनिया
बस एक जम्प कट की बदौलत
और चाँद की आँखों में
धंसी मलती है
मेलिएस की रॉकेट

इटली के ऑरचिर्ड में
कॉपोला के पिस्टल से
चलती है गोली
वाइल्ड वेस्ट के काउबॉय
लियॉन का घोड़ा
फांद जाता है
चलती हुई ट्रेन

बनारस की गलियों में
दौड़ता हुआ
नन्हा सत्यजीत राय
पहुँचता है
गंगा तट तक
माँ बुलाती है
चेहरा धोता हुआ
पाता है
चेहरा खाली
चेहरा जुड़ा हुआ
इन्ग्मार बर्गमन के
कटे फ्रेम से

फेलीनी उड़ता हुआ
अचानक
बंधा पता है
आसमान से
गिरता है जूता
चुपचाप हँसता है
चैपलिन
फीते निकाल
नूडल्स बनता
जूते संग खाता है

बूढ़ा वेलेस
तलाशता है
स्कॉर्सीज़ की टैक्सी में
रोज़बड का रहस्य

आइनस्टाइन का बच्चा
तेज़ी से
सीढ़ियों पर
लुढ़कता है
सीढ़ियाँ अचानक
घूमने लगती हैं
अपनी धुरी पर
नीचे मिलती है
हिचकॉक की
लाश !

एक समुराई
धुंधले से सूरज की तरफ
चलता जाता है
हलकी सी धूल उड़ती है
स्क्रीन पर
लिखा हुआ सा
उभरने लगता है .
ला फ़िन
दास इंड
दी एन्ड

रील
घूमती रहती है

माओवाद

क्रान्ति.
कॉमरेड
चिल्लाता
गुज़रता है
जुलूस
दुहाई देता
माओ
लेनिन
गुअवारा की !
आगे वाला
दहाड़ता है.
मैंने मारा !
भीड़ में
बच्चा रोता है.
हत्यारा !

डॉक्टर

डॉक्टर रविंद्रनाथ सोरेन
एम बी बी एसए रांची
एम एसए पटना
चौड़ी छाती
कद लम्बा
चेहरे पर मुस्कान !
जिस समाज में
सर उठाना
दूभर होता था
उस आदिवासी समाज के
अन्धकार ग्राम से निकल पढ़ाई की
बीवी घर छोड़ चली गयी
फिर भी पेशे से डिगे
जहाँ के बाकी डॉक्टर
कमपाउंडर से दवाई का नाम पूछते थे
वैसे कस्बे में
दवाखाना खोला
और आस पास के ग्रामों के
कितने लोगों को बचा लिया
कालाजारए मलेरियाए जोंडिस से
मरने से
मरीज़ कहता.
आपकी फीस नहीं दे सकता
तो जेब से निकाल
दवाई का पैसा पकड़ा देते
बड़ों से श्रद्धा
बच्चों से बड़ा स्नेह रखते
और आए दिन चले जाते
हैजा पीड़ित ग्रामों में
स्कूटर पर स्वर होकर
एक दिन
ऐसे ही किसी ग्राम से
लौटते वक़्त
रोक लिया स्कूटर
चले गए गाँव के एक होटल में
जलेबी खाने
और जलेबी खाते खाते ही
रुक गयी धड़कन
पड़ गया दिल का दौरा
चल बसे पचास से कम उम्र में
उन्होंने अपनी उम्र
गरीबों में बाँट दी
 
एक और दिन

प्रदुषण से लड़ते लड़ते
एक और पत्ती
सूख गयी है
पक्ष विपक्ष ने
एक दुसरे को गालियाँ देने का
मुद्दा ढूंढ लिया है
डस्टबिन कूड़े से
थोड़ा और भर गया है
किसान का बैल
भूखे पेट
हल जोतने से अकड़ गया है
पत्रकारों ने जनता को
डरना शुरू कर दिया है
मज़दूर कारखानों में पिस रहें हैं
उनकी सांसें निकल रही चिमनियों से
किसानों के घुटनों के घाव
फिर से रिस रहें हैं
हीरो हिरोइन का रोमांस पढ़
युवा रोमांचित है
लड़की का जन्म अनवांछित है
धर्मगत जातिगत नरसंहार
डेंगू मलेरिया कालाज़ार
हत्या ख़ुदख़ुशी बलात्कार
हाजत में पुलिस की मार
ज़हरीले शराब की डकार से
थोड़े और लोग मर रहें हैं
कुछ मुष्टंडे
लो वेस्ट निक्कर पहन
रक्तदान करने से दर रहे हैं
एक और सूरज डूब रहा है
अपने घोटालों की फेहरिस्त देख
मंत्री स्वयं ही ऊब रहा है
अमीर क्रिकटरों के नखरे
और नंग धडंग लड़कियों का नाच देख
पब्लिक ताली पीट रहा है
मुबारक हो ! मुबारक हो !
भारतवर्ष में एक और दिन
सकुशल बीत रहा है

चिता

मुख से फेनिल गाढ़ा खून उगलते
अन्दर से झुलसाती आग
नाक के संकरे सुरंगों में कैद
घिनौनी बूए जली चर्बी की झाग
महसूस करो
तुम्हारे चेहरे की खाल गल रही है
अन्दर मुड़कर धुंधलाती तुम्हारी दृष्टि
लाल दरारों के जाल सी तुम्हारी एक आँख
और दूसरी अपने खोप में सड़ी गली सी
चीख भरी आग की लहरों में लथपथ
आहूत तुम आते हो मुझतक
जले बाल की बदबू से वातावरण लाल
और खून तो जैसे नसों से फूटकर
सूख गया बुलबुले छोड़ताए उबलकर
महसूस करो
अपने पिघले हुए दिमाग को
जो तुम्हारे कान से रिस रहा है
और ये खालीपन
तुम्हारे खोपड़े को अन्दर खींच रहा है
विकृत कंकाल तुम्हारा हिलने को
राख पर खून में लथपथ उलीच रहा है
धीरे धीरे मर रहे हो
जल्दी आये मौत.
एकालाप कर रहे हो
कहते थे आग लगी है
तुम्हारे अन्दर
नंगे पड़े हो पिघलकर
सच पूछो तो क्या फर्क पड़ता है
तुम आदमी होघ् तरल के धुआं
पर इतना साधारण अंत किसी आग का
कभी नहीं हुआ

दाढ़ी बना डाला
घर में बैठे
जब मुझे घर की याद आई
खुन्नस में मैंने ब्लेड निकाला
नस काटने की हिम्मत नहीं थी
दाढ़ी बना डाला
मेरी सूरत देखती है कि बदला नहीं.
जब उगने.उगाने को कुछ नहीं बचता
दाढ़ी उग.उग आती है
नयी ब्लेड को चमकाकर
बेवकूफ की तरह मैंने कहा.
श्अँधेरा छोटे.छोटे बालों की तरह उगा है
काटोगे तो फिर से उग जायेगा
पर खुन्नस में मैंने ब्लेड निकाला
नस काटने की हिम्मत नहीं थी
दाढ़ी बना डाला
अँधेरा मेरे कमरे के आकार का अँधेरा था
मेरा साया दीवार पर डोलता सा
तिनकों में बना वो पिंजड़ा खोलता सा
नहीं खुला !
पिंजड़ा सहित पेड़ पर उड़ जा बैठाय
मैं स्वतंत्र हूँ
मेरा चेहरा एक समतल सीढ़ी था
जिस पर मैं चढ़ता.उतरता
नहींए चलता था
सामने लेनिन की तस्वीर
और उसकी दाढ़ी
अलबत्ताए टेबुल पर मेरी
मेरा कटघरा मेरी दाढ़ी में सिमट गया है
दाढ़ी में समय खपाकर
दाढ़ी में कलम खपाकर
ज़िन्दगी का अजीब जोकर लगता हूँ
इसी खुन्नस में मैंने ब्लेड निकाला
नस काटने की हिम्मत नहीं थी
दाढ़ी बना डाला
मैं अपनी ही दाढ़ी पर
उगा हुआ था




पता-
SOURAV ROY
T3, SIGNET APARTMENT, BEHIND HSBC, 139/1, 3RD CROSS, 1ST MAIN,
SARVABHOUMA NAGAR, BANNERGHATTA ROAD,
BANGALORE - 560076




गुरुवार, 16 मई 2013

स्वप्न और यथार्थ के मध्य झूलती कहानियां



         





  स्वप्न और यथार्थ के मध्य झूलती कहानियां  



आज हमारे सामने युवा रचनाकारों की एक ऐसी पीढ़ी दिखाई दे रही है , जो कविता  और कहानी दोनों विधाओं में अपनी असरदार उपस्थिति के साथ हिंदी साहित्य  के परिदृश्य पर मौजूद है | इन प्रतिभाशाली युवा रचनाकारों ने उस परम्परा को भी जीवित रखा है , जो नागार्जुन , निराला , अज्ञेय , मुक्तिबोध , विनोद कुमार शुक्ल , उदय प्रकाश और कुमार अम्बुज से होते हुए आज भी चली आ रही है |  विमलेश त्रिपाठी इसी युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं | अपने कविता संग्रह ‘हम बचे रहेंगे’ के जरिये इन्होंने गत वर्ष साहित्य जगत में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई थी | उस पुस्तक को न सिर्फ सराहा गया था , वरन उसे पुरस्कृत भी किया गया था | इस वर्ष अपने पहले कहानी संग्रह ‘अधूरे अंत की शुरुआत’ के जरिये विमलेश का कथा क्षेत्र में यह प्रवेश लगभग स्वप्निल ही माना जायेगा , जिसे भारतीय ज्ञानपीठ ने युवा कहानी के लिए नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित किया है | जाहिर है , कि जब इस पुस्तक को ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार दिया गया है , तब इसमें जरुर ही कोई खास बात रही होगी , क्योकि इसे परखने का काम वरिष्ठ साहित्यकारों के एक सम्मानित पैनल द्वारा किया जाता है |
इस संग्रह में कुल सात  कहानियां हैं | एक छोटी , पांच सामान्य कद-काठी की और एक लम्बी कहानी | ये सभी कहानियां समय के एक अंतराल में देश  की विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं  में छपने के साथ-साथ पर्याप्त रूप से चर्चित भी हुयी हैं | इन्हें पढने के बाद कुछ चीजें आपके दिमाग में सामान्यतया उभरती हैं | मसलन , इन कहानियों का लेखक एक कवि है और इनसे गुजरते हुए कविता का आनंद भी लिया जा सकता है | इनमें चमकदार बिम्बों की एक लम्बी श्रृंखला है , और जो शायद ही कहीं टूटती या छूटती है | स्वप्न और यथार्थ के बीच झूलती इन कहानियों का नायक यथार्थ से तालमेल बिठा पाने में अपने को असफल पाता है और तदनुसार वह स्वप्न में आवाजाही करने लिए अभिशप्त हो जाता है | इनमें नायक का चयन लेखक के इर्द-गिर्द बुना गया लगता है , जो इस समाज में अपने आपको मिसफिट पाता है , और प्रकारांतर से विक्षिप्तता की ओर बढ़ता चला जाता है | वह नायक गाँव से चलकर किसी शहर-महानगर ( अधिकतर कोलकाता ) में पहुंचा तो होता है , लेकिन अभी भी उसके मन में अपने गाँव की तस्वीर बसी हुयी है | अपने समय के सारे महत्वपूर्ण सवालों – मसलन साम्प्रदायिकता , जातीय दंश , स्त्री पराधीनता और व्यवस्था की विद्रूपता – से टकराती इन कहानियों में पठनीयता का स्तर बहुत ऊँचा है , जिसे जीवंत बनाने के लिये देशज शब्दों के साथ-साथ किस्सागोई का भी जबरदस्त इस्तेमाल किया गया है | और अंत में यह भी कि , ये कहानियां अपने शानदार अंत के लिए भी पढी जा सकती हैं , जिसमें पाठक को ‘कुछ न कुछ’ बेहतर जरुर मिलता है | 
इस संग्रह की पहली कहानी  ‘अधूरे अंत की शुरुआत’  है और यह संयोग ही कहा जाएगा , कि इसी कहानी से विमलेश अपने कथा-लेखन की शुरुआत भी करते हैं | यह कहानी उपरोक्त  सारे आधारों के सहारे ही आगे  बढ़ती है , जिसमें इसका नायक ‘प्रभुनाथ’  समाज से तादात्म्य बैठाने में असफल रहने और सामाजिक  उपेक्षा भाव के कारण टूटता  दिखाई देता है , और यही टूटन उसे अपनी प्रेमिका के साथ  ज्यादती के स्तर तक गिरा देती है | लगभग विक्षिप्तता की स्थिति में वह अपनी प्रेमिका को संबोधित पत्र में कहता है “ मेरे जैसे लोग जिस  समाज में जीते हैं , और उनके एक विशेष मानसिक गठन वाले मन पर वह समाज जिस तरह की ग्रंथियां बनाता है , उनके वशीभूत हो वे क्या कुछ कर गुजरते हैं , उन्हें खुद भी पता नहीं होता ...फिर भी तुम्हारा स्नेह मुझे आदमी बना सकता था ... जो मैं कभी था ही नहीं |” ( पृष्ठ – २८ , अधूरे अंत की शुरुआत ) | यह कहानी व्यक्ति और समाज के जटिल रिश्ते की पड़ताल के साथ-साथ अपने शिल्प और यादगार अंत के लिए भी उल्लेखनीय मानी जा सकती है |
इस संग्रह की अन्य कहानियों के नायक भी , मसलन ‘परदे के इधर  उधर’ के ‘दुर्लभ भट्टाचार्य’  हों , या ‘खँडहर और इमारत’ के ‘प्रबुद्ध’ हों , अंततः  उसी टूटन , विक्षिप्तता  और पलायन को पहुँचते है , जिसके लिए वे इस व्यवस्था में अभिशप्त हैं | कहानियां उन्हीं विद्रूपताओं के मध्य से उपजती हैं , जिसमे यह व्यवस्था ऐसे प्रत्येक आदमी के सामने सिर्फ और सिर्फ टूटन का विकल्प ही छोडती है , जो सोचने समझने वाला है और जो नैतिकता के मूल्य को जीवन में उतारना चाहता है | इसलिए यह अनायास नहीं है , कि ये नायक सपनों में आवाजाही करते रहते हैं | यदि इन नायकों के जीवन में सपने नहीं होते , जहाँ वे अपने मन की दुनिया को जी सकते हैं , तो यह समझना कठिन न होता , कि उनकी यह टूटन और विक्षिप्तता समाज पर किस तरह से टूटती |
हमारे समय की दो सबसे बड़ी  त्रासदियों को केंद्र में रखकर विमलेश ने दो कहानियां लिखी है | साम्प्रदायिकता और जातीय जकड़न | संग्रह की चौथी कहानी ‘चिंदी चिंदी कथा’ मूल रूप से साम्प्रदायिकता को केंद्र में रखकर लिखी गयी है , जिसके बीच एक प्रेम कथा भी चलती है | हमारा समाज आज भी गैर-बराबरी वाले प्रेम सम्बन्ध को किस तरह से ठुकराता है , इस कहानी में देखा जा सकता है , और फिर यदि प्रेम करने वाले अलग-अलग धर्मों से आते हैं , फिर तो इस समाज के लिए प्रेम करने वालों से अधिक गुनाहगार कोई और हो ही नहीं सकता है | अच्छी बात यह है , कि एक सजग कथाकार की जिम्मेदारी निभाते हुए विमलेश इनका अंत उस मुकाम पर करते हैं , जहाँ से समाज को कुछ हासिल हो सकता है | 
पांचवी कहानी ‘एक चिड़िया एक पिंजरा और कहानी’ हमारे  दौर के तीन ज्वलंत विषयों को लेकर चलती है , जिसमें विमलेश के भीतर का सधा कथाकार उभरकर सामने आता है | हालाकि इस कहानी में थोड़ा फ़िल्मी पुट दिया गया है , और जिसे स्वयं कथाकार भी मानता है , लेकिन तब भी यह कहानी ‘जातीय घृणा , सगे-सम्बन्धियों द्वारा यौन शोषण और उसके बीच बचे रहे गए प्रेम’ की अद्भुत दास्तान बन जाती है | कहानी का अंत बहुत रक्तपूर्ण होता है , लेकिन इसकी जिम्मेदारी उस सामाजिक व्यवस्था पर ही आयत होती है , जिसमें ऐसा रक्तपात अमानवीय और प्रतिगामी माना जाता है | छठी कहानी ‘पिता’ वर्तमान दौर के उस संवेदनहीन समाज का आख्यान रचती है , जिसमें एक बेटा अपने बाप को यह कहते हुए पतंग सरीखा उड़ा देता है , कि ‘आपका मेरे ऊपर कौन सा एहसान है ? मैं तो इस दुनिया में तब आया , जब आप मजे ले रहे थे |’ इस छोटी कहानी में विमलेश ने, बदहवास दौड़ती हुयी इस युवा पीढ़ी की उन मनोदशाओं को व्याख्यायित किया है , जिनमें सामाजिक मूल्य और नैतिकताएं सिरे से तिरोहित हो गयी हैं |
संग्रह की अंतिम कहानी ‘अथ श्री संकल्प-कथा’ है , जो एक ‘लम्बी कहानी’ भी है | विमलेश इस कहानी में पूरी फार्म के साथ नजर आते हैं | वे राजनीतिक रूप से अपना पक्ष चुनते हैं , और व्यवस्था की जकड़नो में पिसते हुए इस समाज के बृहत्तर हिस्से पर केन्द्रित करते हुए , इस कहानी को बड़े कैनवस पर लेकर जाते हैं | इसमें आये मुक्तिबोध जैसे कई पात्र हमारे जीवन से उठाये गए हैं , जिनके सहारे यह ‘संकल्प-कथा’ आगे बढ़ती है | इसको पढ़ते हुए उदय प्रकाश की दो चर्चित कहानियां – ‘मोहन दास’ और ‘पाल गोमरा का स्कूटर’ – जेहन में कौंधती हैं | मुक्तिबोध जैसे चरित्र को चुनने का तरीका ‘मोहन दास’ की याद दिलाता है , तो कहानी के नायक ‘संकल्प प्रसाद’ की टूटन और विक्षिप्तता ‘पाल गोमरा के स्कूटर’ की | जाहिर है , कि यह लम्बी कहानी विमलेश के इस संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी भी मानी जा सकती है |
तिरोहित नैतिकताओं के इस दौर में नैतिक विधानों  पर चलने वाले इन कहानियों के पात्रों का विक्षिप्तता  की तरफ बढ़ना कोई अस्वाभाविक नहीं है , लेकिन इनकी एक आलोचना यह कहकर तो की ही जा सकती है , कि बेहतर तो यह होता कि विमलेश इन पात्रों के सहारे इस व्यवस्था को बदलने के लिए और अधिक संघर्ष करते | जाहिर है कि आज उन संघर्षों की सफलता भले ही ‘कालाहांडी से दिल्ली’ जितनी दूर दिखाई देती है , लेकिन एक कथाकार से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है , वह इस दूरी में अपने पात्रों को कुछ कदम ही सही , लेकिन चलने के लिए प्रेरित अवश्य करे | बजाय इसके कि वे थक-हारकर सामाजिक पलायन कर जाएँ | जिन कहानियों में यह संघर्ष दिखाई देता है , वही कहानियां इस संग्रह को ऊँचाई भी प्रदान करती हैं | इन कहानियों में दो और चीजें अखरती हैं | एक तो लेखक का लगभग प्रत्येक कहानी में यह कहना , कि ‘यह एक कहानी नहीं है’ , और दूसरा यह कि लेखक के भीतर के कवि का अपने पात्रों पर हावी हो जाना | मसलन - ‘एक चिड़िया , एक पिंजरा एक कहानी’ की नायिका ‘रश्मि मांझी’ का वह पत्र |
लेकिन इन आलोचनाओं के होते हुए भी इस संग्रह को अपने समय के दस्तावेज के रूप  में पढ़ा जाना चाहिए | विमलेश के भीतर जो कथाकार है , वह बहुत संभावनाशील है | वह इस बदलती दुनिया को तो देख-सुन ही रहा है , साथ-ही-साथ उसे अपनी जमीन की भी पहचान है | उसके पास भाषा और शिल्प तो है ही , कथ्य और पक्ष चुनने की समझ भी है | जाहिर है , कि इस संग्रह से विमलेश के प्रति हमारी आशाएं और बढ़ गयी हैं , और उसी अनुपात में आने वाले समय में उनकी जिम्मेदारी भी |


पुस्तक
अधूरे अंत की शुरुआत
 ( कहानी संग्रह )
लेखक – विमलेश त्रिपाठी
प्रकाशक – भारतीय ज्ञानपीठ , नयी दिल्ली
मूल्य – 130 रुपये
                                                      



संक्षिप्त परिचय


     

                                 रामजी तिवारी 

बलिया , उ.प्र.
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख , कहानियां ,कवितायें और समीक्षाएं प्रकाशित
सिनेमा पर एक किताब प्रकाशित – ‘आस्कर अवार्ड्स – यह कठपुतली कौन नचावे’
‘सिताब-दियारा’ नामक ब्लाग का सञ्चालन
मो.न. – 09450546312