बुधवार, 20 अगस्त 2014

कुमाऊनी कविताएं:उमेश चन्द्र पन्त

                    



                            उमेश चन्द्र पन्त
 
                      ये कविताएं मुझे अरसा पहले मिल गई थीं । भोजपुरी और गढ़वाली कविताओं के प्रकाशन के बाद आज कुमाऊनी कविताएं प्रकाशित कर रहा हूं। और इन्हें प्रकाशित  करते हुए मुझे गर्व का अनुभव हो रहा है। इन कविताओं पर आपके विचारों की प्रतीक्षा रहेगी।



कुमाऊनी कवितायेँ


भाभर की भाबरियोव में नि भबरीणो
घर आओ
वां को छु अपण?
जब के नि रोलकाँ जला
कि कौलाकै मुख दिखाला?
फिर अपण जस मुख ल्ही बेर आला
आई ले 'टैमछु
आओअपन जड़-जमीन पछियाणो
याद करो ऊ गाड़-भीड़
जो तुमार पितरनैल कमाईं
ऊ घर-बार
जो अफुं है बेर ले बाहिक समाईं

अरे भायो लाली
तुम कुंछा-पहाड़ में के नहातन आब
जब तुमे न्हेता
बाहिक के चें

तुम कुंछा-नेता लोग नैल पहाड़ चुसी हालो
मैं कूं-तुमुल त पहाड़ छोड़ी हालो

आओ यारो यस नि करो
हमर पहाड़ बर्बाद है गो
के करो यारो
जब जड़ सुखी जाल
बोट हरी नि रै सकन
अपण गौं-घर छोड़ी बेर
कैक भल नि है सकन
पहाड़ अंतिम समय मैं छु
फिर जन कया---
हमुल मुख ले नि देख सक

दिनचर्या

'रात्ती-बियाणीउठकर
करती है वो 'गोठ-पात'
फिर 'गोरको 'हतियातीहै,

उजाला नहीं हुआ रहता,
जब तक वो
दो 'डाल' 'पोशखेत पंहुचा आती है.

'सास-सौरज्युको 'चाहाबनाकर देती है फिर
दूध 'ततातीहै 'मुनुके लिए वो
'रोट-सागका कलेवा बनाती है.

'सौरज्युकी निगरानी में छोड़ जाती है 'मुनुको
जब 'बणको वो जाती है
जंगल बंद होने ही वाला है, कुछ दिन में 'ह्यूनका
जंगलात का ऑडर जो 'ठैरा'.

बटोर लेना चाहती है वह
अधिक से अधिक
'शिरकी घास और 'दाबे'..अधिक से अधिक 'पाल्यो'.

बटोर लेना चाहती है वो
जंगल बंद होने से पहले 'ह्यूनका
जंगलात का ऑडर जो 'ठैरा'.

'दोफरीको आकर
'भातपकाती है वो
'कापेके साथ.

'इजा', 'बाबूकब 'आल'?
'मुनुके सवाल का जवाब ढूंढ़ते हुए
थोडा सा याद कर लेती है वो उनको
पोस्टिंग हैं सियाचिन में.

फिर 'सुतर' 'गिन्यातीहै
'इजरको जाती है
शाम को घास लेने के लिए.

'गाज्योका 'दुणपोईहुआ है, आजकल बहुत
माघ का है 'कल्योड़'
अतिरिक्त मेहनत तो करनी ही पड़ेगी.

'लाई-पालंगबनाना है रात के खाने में
'ह्वाकभी सुलगाना है 'सौरज्युके लिए 
शाम को 'गोरहतियाकर.
          
हाथ खाली नहीं है उसका काम करने से
फिर भी हाथ खाली है उसका.

चूड़ियाँ पहनने बाजार जाना था
कैसे जाये? 'सोबुतही नहीं हो पाता है काम 'आकतिरी'
मनीऑर्डर भी तो नहीं पंहुचा है उनका अभी तक
'मुनुका 'बालबाड़ीमें भी डालना है.

ऐसा ही कुछ सोचा करती है वो
जाती है जब बिस्तर पर
'चुली-भानिकर चुकने के बाद
कुछ और कहाँ सोच पाती है वह 
सिवाय अगले दिन के कामों को सोचने को छोड़ कर


उमेश चन्द्र पन्त 'अज़ीब'….

रविवार, 10 अगस्त 2014

अमरपाल सिंह आयुष्कर की कविताएं





                                                      अमरपाल सिंह
           

           उत्तर प्रदेश के नवाबगंज गोंडा में 01 मार्च 1980 को जन्में अमरपाल सिंह आयुष्कर ने इलाहाबाद विश्व विद्यालय से हिन्दी में एम0 ए0 किया है । साथ ही नेट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद दिल्ली के एक केन्द्रीय विद्यालय में अध्यापन।
            आकाशवाणी इलाहाबाद में एक कार्यक्रम के दौरान हुई मुलाकात कब मित्रता में बदल गयी इसका पता ही न चला। लेकिन भागमदौड़ की जिंदगी और नौकरी की तलाश में एक दूसरे से बिछुड़ने के बाद 5-6 साल बाद फेसबुक ने मिलवाया तो पता  चला कि इनका लेखन कार्य कुछ ठहर सा गया है । विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं से गुजरने के बाद लम्बे अन्तराल पर इनकी दो कविताएं पढ़ने को मिल रही हैं । 


पुरस्कार एवं सम्मान


           वर्ष 2001 में बालकन जी बारी इंटरनेशनल नई दिल्ली द्वारा -राष्ट्रीय युवा कवि पुरस्कार  तथा वर्ष 2002 में  राष्ट्रीय कविता एवं प्रतिभा सम्मान ।
        शलभ साहित्य संस्था इलाहाबाद द्वारा 2001 में पुरस्कृत ।



                                                  चित्र  नेट से साभार


अमरपाल सिंह आयुष्कर की कविताएं-

1-  अजन्मा कर्ज़दार

जान  गयी हूँ माँ मरना नियति है मेरी

और मुझे मारना तुम्हारी मजबूरी

पर मैं नहीं चाहूंगी

मेरी हत्या तुम्हे अभिशप्त करे

ये भी नहीं चाहती
माँ 
 
तुम्हे होना पड़े लगातार चौथी बार

पदाक्रांत

बेटी हूँ जानती हूँ नहीं हूँ

तुम्हारे प्रत्यर्थ

पर हूँ आज इतनी समर्थ

तीन माह के जीवनदान के बदले

चुका सकती हूँ

ममत्व का क़र्ज़ 


अपने नन्हे कोमल हाथों से करके

 अपना आत्मोत्सर्ग।

2-मृदुल याचना 

 
मैं भी आना चाहती हूँ संसार में


पीना चाहती हूँ ममत्व की बूँद 


पाना चाहती हूँ पिता का दुलार , भैया का प्यार 


कुछ पल की साँसें , कुछ पल का आगार


क्या मुझे दोगी माँ ?


देखना चाहती हूँ अखिल ब्रम्हांड में 


पूजनीया नारी की गरिमा

कुछ पल के लिए आँखे , कुछ पल का आभार 


क्या मुझे दोगी माँ ?


खेलना चाहती हूँ , जीवन संघर्ष की  द्यूतक्रीड़ा


जीतना , हारना, बनना, बिखरना 


कुछ पल के लिए पाँव और कुछ पल का अधिकार 


क्या मुझे दोगी माँ
?

पढना चाहती हूँ मानव मन का रहस्य 


कुटिलता ,कलुषता ,द्वेष ,पाप 


प्रेम, दया ,ममता ,पुन्य का पाठ 


कुछ पल की जुबान
, कुछ पल का आराम 

क्या मुझे दोगी माँ ?


बनना चाहती हूँ सीता ,सती ,शक्ति और कल्पना


 छूना चाहती हूँ धरा और आकाश 

एक घर, एक प्यार ,एक संसार


कुछ पल का अवसर और सम्मान 

क्या मुझे दोगी माँ ?




संपर्क- अमरपाल सिंह आयुष्कर 
          नवाबगंज गोंडा ;उ0प्र0

रविवार, 27 जुलाई 2014

राहुल देव की कहानी : मायापुरी







                               राहुल देव

संक्षिप्त परिचय 

    उ.प्र. के अवध क्षेत्र के महमूदाबाद कस्बे में 20 मार्च 1988 को का जन्म | शिक्षा लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ और बरेली कॉलेज, बरेली से |साहित्य अध्ययन, लेखन, भ्रमण में रूचि | अभी तक एक कविता संग्रह तथा एक बाल उपन्यास प्रकाशित | पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतरजाल मंचों पर कवितायें/ लेख/ कहानियां/ समीक्षाएं आदि का प्रकाशन | इसके अतिरिक्त समकालीन साहित्यिक वार्षिकी ‘संवेदन’ में सहसंपादक |
 
     वर्ष 2003 में उ.प्र. के तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री द्वारा हिंदी के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत, वर्ष 2005 में हिंदी सभा, सीतापुर द्वारा युवा कहानी लेखन पुरस्कार से तथा अखिल भारतीय वैचारिक क्रांति मंच, लखनऊ द्वारा वर्ष 2008 में विशिष्ट रचनाधर्मिता हेतु सम्मानित |
सम्प्रति उ.प्र. सरकार के एक विभाग में नौकरी के साथ साथ स्वतंत्र लेखन में प्रवृत्त |


 



राहुल देव की कहानी : मायापुरी

           भीषण गर्मी पड़ रही थी मानो साक्षात सूर्यदेव धरती पर उतर आये हों, सर्वत्र कोलाहल, आते-जाते लोग, फेरी वाले, रिक्शे वाले, सर्वत्र चिल्लपों की आवाज़े मन को आहत करती अशांति का सन्देश दे रहीं थीं | पहली बार मैं मुंबई आया | देश का नंबर वन महानगर मुंबई | अंदेशा न था मेरी आँखें इतनी भीड़ इतनी व्यस्तता देखेंगी | उत्तर-प्रदेश के एक छोटे से शहर सीतापुर से आया हुआ मैं यही सोचता था | कल्पना से अधिक पा आश्चर्य में पडूँ या कि स्वयं को सुरक्षित करने हेतु ठिकाना तलाशूँ |

              वी.टी. स्टेशन से बाहर मैं अपनी स्वाभाविक उत्सुकता लिए चल पड़ा | ताकता हुआ गगनचुम्बी इमारतों को...! पहली बार इतनी ऊँची इमारतें देखी थी | हाँ लखनऊ जरूर गया था | अरे ! अपनी राजधानी, नवाबों की नगरी परन्तु वहां की इमारते यहाँ से आधी ही थीं | ऐसा अनुमान लगाता मैं चल पड़ा | बड़ी दिली इच्छा थी मुंबई घूमने की | लेकिन इतनी बड़ी मुंबई, कैसे संभव होता | निश्चय ही मैं पछताता या कि खुश होता | कई कारण ऐसे भी थे, देश की औद्योगिक राजधानी, भारत के प्रवेश द्वार मुंबई की बड़ी-बड़ी व्यस्त सड़कों पर चलता मैं विचार करता था | यहाँ की सड़कें भी मेरे यहाँ से ज्यादा नहीं तो चार-पांच गुनी चौड़ी तो थी हीं जिन पर छोटी-बड़ी गाड़ियाँ द्रुत गति से फिसल रहीं थी | बड़ी लूटमार होती है यहाँ पर और वो भी दिन दहाड़े, सबकुछ छीन लेते हैं आदि-आदि | कई बातें लोगों के मुख से सुन रक्खी थीं | शुरू से ही मुझमे उठल्लूपन की प्रवृत्ति थी, घुमक्कड़शास्त्र जो पढ़ा था | प्रथम न सही द्वितीय या तृतीय श्रेणी का घुमक्कड़ तो बन ही जाऊंगा | दृढ निश्चय मेरे चेहरे से झलक रहा था | आज वह दिन आ ही गया | यात्रा सफल रही तो क्या ही कहने | मसाला लगा-लगाकर सबको बताऊंगा, लौट करके |

                  मैं बहुत सावधान रहा अपने सफ़र में | थैंक गॉड ! अभी तक कुछ वैसा नहीं हुआ | यात्रा का साधन वही इंडियन होने की पहचान, यात्रियों की शान रेलवे की ढुलमुल व्यवस्था, पैसेंजर ट्रेन | यात्रा के दौरान दो बार तो इंजन फेल हुआ, बमुश्किल किसी तरह यात्रा पूरी कर अपनी गंतव्य तक पहुँच ही गया | भीड़ में सभी इधर-उधर जा रहे थे | मैं एक ओर किनारे पड़ी बेंच पर बैठ गया | थकान थी और फिर इतनी लम्बी यात्रा करने के बाद कौन नहीं थकता | कुल जमा पूँजी पांच हजार रुपये लेकर चला था | एक हज़ार तो कब खर्च हो गये पता ही न चला | अब शेष पैसों से ही सब-कुछ करना है | वापस भी लौटना है, मेरा शरीर विश्राम चाहता था मगर मन सजग था |


               लोग इधर-उधर टहल रहे थे | गर्मी से निजात पाने के लिए या फिर सेहत के लिए ! हमेशा ऐसा करते हों ये मुझे पता नहीं | अर्धनग्न लोगों को देखकर मुझे शर्म आती थी | शायद ये इनकी आदत हो, खैर मुझे क्या | हंसी आती, ठहर जाती | पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव यहाँ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता था |


                           मैं आराम से एक खाली पड़ी बेंच पर पसर गया | सोचा, थोड़ा विश्राम कर लूँ फिर देखा जायेगा | ज्यादा समय नही हुआ था मुझे ऐसा लगा कि जैसे कोई मेरे पैरों के पास बैठा है | मैंने अचकचाकर तुरंत अपनी आँखें खोलीं और उठ बैठा | वे निर्लिप्त भाव से मुझे देखने लगे और मैं उन्हें | मौनता भंग हुई | वे बोले-“क्या नए हो? कैसे कपड़े पहने हो, वो भी ऐसी गर्मी में, कहाँ से आये हो ?” आदि-आदि |


            मुझे हीनता सी लगी | अपनी लघुता को छिपाकर उनसे कहा-“ठीक समझा आपने, मैं बाहरी व्यक्ति हूँ बस यात्रा का खुमार उतार रहा था |”


                        वे मुझे सज्जन लगे इसलिए उन्हें पूरी कहानी बता दी | लगभग 40-45 साल के उन सज्जन की बातों में मुझे बहुत मानवीयता,भावनात्मकता दिखाई दी | उन्होंने कहा,”बेटा ! ये मुंबई है, बहुत संभलकर रहना क्योंकि यहाँ अच्छे कम बुरे लोग ज्यादा हैं |”
मैंने जोश में आकर कहा,”अरे ! आप चिंता न करें, मैं इतना मूर्ख भी नहीं हूँ | ये देखिये, पैसे मैंने अपने मोजों में छिपाकर रखे हैं और एक छोटा सा झोला जिसमे कुछ कपड़े-लत्ते व अन्य सामान है, अब कौन जानेगा कि इस समय मेरे पास चार हज़ार नकद होंगे |”


                      वे बोले, ”बेटा ! तुम बहुत भोले मालूम होते हो | अरे यहाँ के लोग तो शक्ल देखते ही पहचान लेते हैं कि कौन बाहरी है और कौन यहीं का | मेरी सलाह मानो तो किसी सुरक्षित स्थान कोई कमरा, होटल वगैरह में ठहर जाओ या कोई परिचित हो तो.....|”
उनकी निश्चल वाणी में जैसे जादू था |
“आप जैसा मित्र पाकर मैं अकेला कहाँ रहा ?”, भावावेश में मैं यह कह बैठा |
                   वे बोले,”कोई बात नहीं, यहीं पास में मेरे एक मित्र रहते हैं, मैं तुम्हे कुछ दिन के लिए वहीँ ठहरा दूंगा | कोई चिंता न करना ईश्वर तुम्हारी मदद करेगा |”
                 उन्होंने फिर कहा,”अच्छा, तुम बहुत भूखे भी होगे |”


“नहीं-नहीं मैंने तो भोजन ट्रेन में ही कर लिया था बस मैं थोड़ा विश्राम करने के बाद घूमना चाहता था | लेकिन कोई पथप्रदर्शक भी तो होना चाहिए नहीं तो क्या पता कि मैं कहाँ पहुँच जाऊं |” मैंने उनसे कहा |
कुछ ही मिनटों में मै उनसे गहराई से जुड़ गया था | आखिर ऐसी भीड़ में कौन होता जो मेरी मदद करता | वो मुझे बड़े सहृदय व्यक्ति लगे और मैं आश्चर्यजनक रूप से उनसे भावनात्मक दोस्ती गाँठ बैठा | उनकी बातचीत में पता नहीं ऐसा क्या था जिसका स्पर्शमात्र मुझको आनंदित कर गया और मैं उन्हें अपना सच्चा हितैषी समझ बैठा | वे मुझे टहलाने के लिए इधर-उधर ले गये | उन्होंने मुझे गेटवे ऑफ़ इंडिया दिखाया | मैं आह्लादित था भारत के इस गौरव पर ! कुछ शांति मिली ह्रदय को | यहाँ पर पर्यटकों का जमावड़ा था | मेरे पास कैमरा न था फिर भी स्थानीय फोटोग्राफर से एक फोटो खिंचवायी और आगे चल पड़ा |


                  रास्ते में हम दोनों बतियाते रहे | परिचय हो चुका था | उनका नाम था श्याम नारायण दूबे | वास्तव में मुझे हार्दिक खुशी थी | सोचा शायद अपना देश ऐसे ही कुछ व्यक्तियों से महान है | लगभग एक घंटे बाद हमने टैक्सी की और एक शानदार पार्क में पहुँच गये | दूबे जी के साथ मैं उतरा लेकिन जब टैक्सी का किराया उन्होंने चुकता किया तो मुझे उनकी सहृदयता तथा विशालता का परिचय पूर्णरूप से मिल गया | वरना इस युग में सभी अपनी-अपनी जेबों की चिंता करते हैं | मैंने बहुत आग्रह किया लेकिन वे न माने | मैंने सोचा कि कहीं वे मुझे एकदम टंच न समझ लें इसलिए खुद आगे बढ़कर पार्क का प्रवेश टोकन लिया | वे मुझे देखते रहे अपलक | मुझे उनमें एक अपनापन सा नज़र आया |


              उन्होंने मुझे यह भी बताया था कि वे देहरादून के मूल निवासी थे | बच्चे यहाँ शिफ्ट हो गये तो सोचा वे भी यहीं आ जाएँ | लेकिन यहाँ की भागमभाग उफ़..!! दूबे जी शायद अपने एकाकी जीवन से कुछ परेशान से थे, उनकी धर्मपत्नी का स्वर्गवास हो चुका था | मैंने उन्हें सांत्वना दी |
यूं चलते-चलते हम पार्क की मखमली हरी घास पर बैठ गये | दूबे जी ने माहौल बदलते हुए कहा-“अरे भई, यूँ ही बातें करते रहेंगे या कुछ खायेंगे,पियेंगे भी | बड़ी भूख लग आई है मुझे तो | क्या आपको नहीं लगी ?”
मैंने कहा,”हाँ लगी तो है मगर कुछ ख़ास नहीं |”


दूबे जी हँसते हुए उठ बैठे, तुम बस दो मिनट ठहरो | मैं अभी आया | वे ऊँगली दिखाकर एक तरफ चले गये | मैं मुस्कुराया और इधर-उधर के नज़ारे लेने लगा, अपने उद्देश्य के बारे मैं सोचने लगा |
लगभग दस मिनट बाद दूबे जी प्रगट हुए | उनके दोनों हाथ भरे हुए थे | मैं बोला,”आप मेरे लिए इतना कष्ट क्यों उठाते हैं, कहा होता तो मैं भी साथ चलता |”


                 दूबे जी मुस्कुराते हुए बोल उठे, ”खैर छोड़ो चलो उधर एकांत में चलकर आराम से खाते-पीते हैं | फिर मैं आपको यहाँ के समुद्री तट पर ले चलूँगा |”


              उनका सरल स्वभाव उनके चेहरे से परिलक्षित होता था | मैं सहज भाव से उनके साथ चल दिया, एकांत में | दोने खोले गये, बढ़िया खाना था | मैं संकोच कर रहा था तो बिगड़ पड़े वे-“अरे यार ! अब झिझक छोड़ो भी |” यह कहकर उन्होंने मेरे पात्र में बहुत सारा खाना उड़ेल दिया | भूख तो लगी ही थी सो जम के खाया | फिर मैं पास के नल से पानी पीने चला गया | लौट के आया तो देखा दो कप गर्मागर्म कॉफ़ी भी दूबे जी पता नहीं कहाँ से ले आये थे | हमने चाय तो बहुत पी थी मगर कॉफ़ी कभी-कभार शादी-वादी में ही पी पाते थे | कॉफ़ी पीने के मोह को मैं छोड़ न सका, उन्होंने एक कप मुझे थमाया और दूसरे से खुद पीने लगे | खान-पान से निवृत्त हो हम कुछ देर वहीँ बैठे रहे | सांझ ढल रही थी, मंद-मंद बयार चल रही थी |


            मुझे मेरे गाँव की याद आ रही थी | लोगों की संख्या भी धीरे-धीरे कम हो रही थी | मुझे हलकी सी मदहोशी सी महसूस हुई | मैंने उनसे चलने को कहा तो वे बोले, ”यहाँ दिन और रात में कोई फर्क नहीं है फिर घर पास में ही है | थोड़ी देर बाद चलते हैं |”


                       मैं ज्यादा जोर न दे सका | नींद मुझपर बहुत तेजी से हावी होती जा रही थी | ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं किसी बासित उपवन में विचरण कर रहा होऊं | मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा रहा था | विश्रांत मस्तिष्क किसी शांति भवन में टिकने के लिए व्यग्र था | हृदय बोझिल हो रहा था | मेरा सम्पूर्ण शरीर सुप्तावस्था के आगोश में न चाहते हुए भी चला गया | मुझे कुछ पता ही न चला, मैं अचेत हो गया |

                      अगले दिन मैंने खुद को एक अस्पताल में पाया | मैं ठगा रह गया | मैंने हड़बड़ाहट में अपनी जेबें टटोलीं | अरे ! यह क्या, मेरे पैसे ! उफ़ लूट लिया गया मैं | दूबे जी !! मेरा माथा ठनका | हाँ वे दूबे जी ही थे | यह कैसा प्रलम्भन ! मेरे पास तो वापस लौटने के लिए टिकट भर के पैसे भी न थे | पैसे तो पैसे मेरा झोला तक नहीं था | मैं परेशान हो गया, पछता रहा था अपनी मूढ़ता पर कि क्यों और कैसे मैंने उनसे दोस्ती की | हाय ! उनके जाल में फंस ही गया | लोग सच ही कहते थे कि यह मुंबई है |


               मैंने पूरी बात डॉक्टर्स को बताई तो उन्होंने किसी तरह मेरे किराये की व्यवस्था की और मैं चल पड़ा | वी.टी. स्टेशन के बाहर फिर से खड़ा, मैं सोचता था- वाह रे मुंबई ! तेरा जवाब नहीं | तुझे पहचान गया, यही अनुभव सही |


                    मैं दूबे जी के द्वारा भावनात्मक और आर्थिक दोनों रूप से ठगा गया था | कॉफ़ी मेरे लिए काफी सिद्ध हुई और शायद उसी बीच महाशय अपना काम कर गये | सरल चेहरे के भीतर बैठी चालाकी को मैं भांप न सका | ये मेरी अनुभवहीनता या कहें मूढ़ता ही थी | मैं पहले से ज्यादा थका महसूस कर रहा था | बार-बार दूबे जी का चेहरा भीड़ में तलाशता, अगर मिल जाते तो मैं उन्हें कच्चा चबा जाता | पुलिस में रिपोर्ट करने से भी कोई फायदा होने से रहा और तमाम तरह के पचड़े | मेरा मन खिन्न था | आखिरकार मैंने लौटने की ठानी |


       बड़े जतन से मुंबई आया था और कैसी विडंबना बड़े जतन से जाता हूँ | यह तिक्त अनुभव मुझे जीवनपर्यंत याद रहेगा | यहाँ के लोग भी कितने विचित्र हैं, जीवन आगे कैसे बढ़ता होगा | बड़ी जीवटता है यहाँ, मैंने सोचा, लेकिन जीवन चलता जा रहा था | समय का तूर्य बज चुका था | मेरी धारणा बदल चुकी थी, मैं संतुष्ट हो गया था | एक प्रतीक लेकर लौट रहा था अपने देश, अपने उत्सृष्ट कस्बे को | कोई शिकन नहीं, एक चोट सालती/ टालती, कोई चिन्ह भी नहीं !


           मानस पटल पर परिदृश्य घूम जाता, चित्त में अनवरत द्वंद चलता | आदमी का ऐसा छद्म रूप मैंने पहली बार देखा | साक्षात महसूस किया था | छोड़ यार ! मैंने बहाना बनाते हुए करवट ली, उठ बैठा | ट्रेन द्रुत गति से भागती चली ज़ा रही थी | मैंने खिड़की से बाहर झाँका, विस्तृत भूमि भारत के विस्तार का जयगान करती मुस्कुरा रही थी | अभी मैं महाराष्ट्र की सीमा में ही था | कोई हौंस शेष नहीं रही | मैंने देखा प्रतिदिन एक नयी प्रत्यूषा की वाहक मायानगरी मुंबई अपने उसी वेग से गतिशील थी | अनायास दिखी मुझे अपने आप में विलीन वही भीड़, वही कोलाहल, वही चिल्लपों...!!


-राहुल देव
9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर (उ.प्र.) 261203
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

मंगलवार, 15 जुलाई 2014

शिरोमणि महतो की कविताएं






हम झारखण्ड के युवा कवि शिरोमणि महतो की कविताएं प्रकाशि कर रहे हैं। झारखण्ड में जीवन&यापन करते हुए वहाँ की जनपदीय सोच को अभिव्यक्त करना जोखिम भरा काम है। हमने शिरोमणि महतो की उन कविताओं को तरजीह दी है। जिसमें उनका जनपद] उनका परिवेश  मुखर होता है। बेशक अपने परिवेश के शिरोमणि महतो अच्छे प्रवक्ता हैं। इस उत्तर आधुनिक समय में झारखण्ड और वहां की चिन्ताएं विश्व&पटल पर रखने का कौशल शिरोमणि महतो में है। वह बड़ी बारीकी से आस&पास विचरण करते समय की चुनौतियों को महसूस करते हैं और अपनी जिम्मेदारियां समझते हैं कि ऐसे कठिन समय में एक लोकधर्मी कवि की क्या भूमिका होनी चाहिएA



शिरोमणि महतो की कविताएं&







 1- भावजें

भावजें बहुत शीलवती होती हैं
उनके व्यवहार से छलकता
शीतलता का तरह प्रवाह
वे हमें देखते ही
काढ़ लेती हैं.
लम्बा-सा घूंघट
और वे लगती बिल्कुल छुईमुई की तरह
झुकी डालियों की तरह
लोग कहते-
भावजें शुभ होती हैं
भैसुरों के लिए
अगर राह चलते
उनका मुख दिख जाये
तो समझो-यात्रा सफल !
इनसे सटी हुई
किसी चीज को
स्पर्श कर जाने से
हम छुआ जाते हैं
फिर हमारे सर पर
छिड़का जाता है
सोनापानी या गंगाजल
शायद रिश्तों में
पवित्रता की शुरूआत
यहीं से हुई हो
माँ-और बहन के रिश्तों से
अधिक महान होता
यह संबंध !
भावजों का सिर
हमेशा झुका रहता.
इनके ही सर पर टिका होता है
हमारे परिवार के
अभिमान का आकाश!


2- अखरा


गाँव की छाती में
होता-अखरा
जहाँ करमा में
लगता है-गहदम झूमर
औरतों के लिए
सबसे सुरक्षित स्वतंत्र
स्थान है-अखरा
धरती की आंत
जहाँ पुरूषों का दम्भ
पच जाता है !
जहाँ चौखट से बाहर
औरतें खोल पाती हैं
अपने पाँव और
अपनी आत्मा के अतल को
औरतें अखरा में
खुलकर नाचती है
पांवों के थके जाने तक
आत्मा के भर जाने तक !
जब पहली बार
टूटी होगी पुरूषों की अकड़
दरकी होगी दम्भ की दीवारें
तब जाके बना होगा
धरती की छाती में
अखरा, आत्मा की तरह!
जिसमें स्त्रियों के पांव
थिरके होंगे धड़कन की तरह
और स्त्रियों ने लिया होगा
खुली हवा में सांस
और मुक्त आकाश के नीचे
मुक्त कंठ से गाया होगा
मुक्ति का गान!।


संपर्क.  नावाडीह बोकारो झारखण्ड
9931552982


बुधवार, 11 जून 2014

पूनम शुक्ला की कहानी - मेमोरेबल मोमेन्ट्स


                                                                                 पूनम शुक्ला
                                 मेमोरेबल मोमेन्ट्स


दूसरे पीरियड की घंटी बजते ही मैडम प्रीती कक्षा की ओर बढ़ रही थीं । आज उनके चेहरे पर कल जैसी हल्की मुस्कान नजर नहीं आ रही थी । चेहरे पर गंभीरता का संकेत कुछ भीतर समेटे हुए था । जरूर कुछ नया होने वाला था ।उनके हाथों में कुछ बच्चों की चैक की हुई कापियाँ थीं पर साथ में एक बंडल जैसा भी कुछ था । वैसे तो प्रीति मैडम का व्यक्तित्व शानदार है ,देखनें में गंभीर ,बादामी रंगत,सलीके से कटे हुए कंधों तक काले बाल,बोलती आँखें,लंबाई पाँच फुट सात इंच ,स्कूल वालों नें उन्हें बहुत सोच समझ कर अपने स्कूल की शिक्षिका के रूप में चुना है । वो बच्चों को किसी भी काम के लिए जल्दी ही राजी कर लेती हैं । प्राइवेट स्कूल की नौकरी में सबसे पहले ये गुण होना सबसे ज्यादा जरूरी है । जो भी कर्मचारी बच्चों को सबसे अधिक मोटिवेट करता है बेस्ट टीचर का एवार्ड भी उसी की झोली में गिरता है । प्रीती मैडम इन सब कार्यों में दक्ष हैं। उनके सामने अच्छे - अच्छे पढ़े लिखे धुरंधर गच्चा खा जाते हैं । जब उन्होंने ये स्कूल ज्वाइन किया था वो बस बी०ए० पास थीं । बी०एड० की डिग्री तो उन्होंने चार साल बाद पत्राचार द्वारा प्राप्त की थी । पर उनके सामने एम०ए० एम०एड० व पी०एच०डी० किए हुए कर्मचारी धूमिल पड़ जाते हैं । अच्छे शिक्षक स्कूल के पीछे की छुपी हुई राजनीति समझने में असफल हो जाते हैं और साल दो साल में ही कहीं और ठिकाना ढ़ूँढ़ने लगते हैं या फिर उन्हें ठिकाना ढ़ूँढ़ने पर मजबूर कर दिया जाता है ।पिछले ही हफ्ते की तो बात है । डा० सिंह पी० एच० डी० इन इकोनोमिक्स ,ये स्कूल छोड़ कर दूसरे स्कूल जा चुके हैं । यहाँ पुराने टीचर्स नयों को टिकने का मौका ही नहीं देते भले ही वो कितने ही एक्टिव व नौलेजेबल क्यों न हों। पिछला स्कूल छोड़कर अभी एक साल पहले ही तो आए थे । यहाँ सैलरी ठीक थी । पिछले स्कूल में तो स्कूल वाले सैलरी एकाउंट में डालते थे और आधी सैलरी कैश के रूप में वापस माँग लेते थे । पूछने पर कहते थे कि स्कूल घाटे में चल रहा है , एकाउंट्स मैंटेन करना पड़ता है । क्या करें मजबूरी है । इस स्कूल में कम से कम ये दिक्कत नहीं थी पर यहाँ की पौलिटिक्स कुछ और ही थी जो डा० सिंह समझ नहीं पाए । मजबूरन उन्हें ये स्कूल भी छोड़ना पड़ा । स्टाफ रूम में दस लोगों के सामने प्रीती मैडम ने हँसते हुए कहा था कि प्राइवेट स्कूल की नौकरी में ऊँची -ऊँची डिग्रियों व ऊँचे ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है । यहाँ तो बस दो ही स्किल्स चाहिए । पहला बच्चों पर कंट्रोल और दूसरा हाउ टू मोटिवेट देम ।
स्कूल के कोरिडोर में अपनी मनपसंद गति से चलती हुई प्रीती मैडम बहुत शानदार नजर आती हैं । उनका वार्डरोब एक से एक शानदार साड़ियों से भरा पड़ा है । वार्डरोब में हर प्रांत और हर वैराइटी की साड़ियाँ हैं जो समय - समय पर विभिन्न कर्मचारियों द्वारा लाई गई हैं । कक्षा छठीं...... सातवीं .......और ये रही आठवीं...... । कक्षा आठवीं में ही मैडम का दूसरा पीरियड है । प्रीती मैडम के कक्षा में घुसते ही सभी बच्चे एक साथ बोल पड़ते हैं -
गुड मौर्निंग मैम
गुड मार्निंग चिल्ड्रैन - मध्यम आवाज में प्रीती मैडम भी नई सुबह की खुशनुमा तरंगों को बटोरने का प्रयास करती हैं ।कापियों को एक तरफ रखते हुए सबसे पहले उनके हाथ बंडल ही खोल रहे हैं । एकाएक अनुराग सबकी चुप्पी तोड़ता है -

"वाट इस दिस मैम , इस इट अ न्यू सर्कुलर ?"

"यस माई चिल्ड्रन ! एनुअन फंक्शन इज़ कमिंग । कम अनुराग एंड डिस्ट्रिब्यूट दिस सर्कुलर एमांग स्टूडेन्ट्स
" ।

चुपचाप बैठे बच्चों के चेहरे एकाएक खिल उठते हैं । सभी के चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ पड़ती है । वाह एनुअल फंक्शन ! कितना मज़ा आएगा । इस फंक्शन का तो सभी बच्चों को इंतजार रहता है कोई डांस में भाग लेना चाहता है कोई कव्वाली में ,कोई नाटक में तो कोई गायन में । अनुराग नें फटाफट सर्कुलर बाँटने शुरू कर दिए हैं । वो कक्षा का बड़ा ही शालीन व मेधावी छात्र है इसलिए ऐसे छोटे - मोटे कार्यों में टीचर्स उसे ही याद करते हैं और वो भी बड़ी तल्लीनता के साथ अपना कार्य करता है । अनुराग के पिता की एक स्टेशनरी की दुकान है और माँ गृहणी । समय मिलने पर माँ भी कभी-कभी दुकान पर आकर हाथ बँटाती हैं । अनुराग अपने माता - पिता की आँखों का तारा है । माता - पिता अपने सारे सपने अनुराग की आँखों से ही देखते हैं इसलिए अनुराग का दाखिला शहर के एक अच्छे प्राइवेट स्कूल में कराया है ।पर ये क्या ? सर्कुलर पढ़ते ही बच्चों के खिले चेहरे  एकाएक उदास व मुरझाए फूलों में कैसे बदल लगे हैं ।खुशी की लहरें तो बस अभी उछली ही थीं कि सागर ने उसे फिर से अपने भीतर कैसे लील लिया । सर्कुलर में ग्यारह सौ रुपए लाने की बात लिखी गई है । जो भी बच्चा एनुअल फंक्शन में भाग लेगा चाहता है उसे ग्यारह सौ रुपए पहले जमा करने पड़ेंगे तभी वो भाग लेने के काबिल है वर्ना नहीं ऐसा कुछ संदेश अभिभावकों तक पहुँचाने के लिए खास सर्कुलर बनाया गया है ।सभी बच्चों के भाव बदल जाते हैं और वो एक दूसरे का मुँह देखने लगते हैं । धीरे- धीरे उनके बीच खुसुर - पुसुर शुरू हो जाती है । बच्चे तरह-तरह से हाथों और चेहरों के भाव से दूर बैठे बच्चों से बातें करने लगते हैं । आखिर टीना से रहा नही जाता और वो बोल ही पड़ती है -

-" मैम इलेवन हंड्रैड ! दिस इज टू मच मैम । ग्यारह सौ तो बहुत ही ज्यादा हैं , पिछली बार तो पाँच सौ ही लिए थे । इतना तो मेरे पेरेन्ट्स देने को तैयार भी नहीं होगे मैम । "

तभी सारे बच्चे एकसाथ टीना के साथ हो लेते हैं और सभी एकसाथ कहते हैं -
"हाँ मैम ! ये तो बहुत ज्यादा है ,इतना हमलोग नहीं दे पाएँगे मैम ।"

टीना आखिर कक्षा आठवीं की छात्रा है और साथ में इतनी सारी आवाज़ें भी कक्षा आठवीं की ही हैं । कक्षा आठवीं में बच्चों को इतनी समझ तो हो ही गई है कि ये एक बड़ी रकम है और घर में इसे नकारा जा सकता है। हाँ ये मामला छोटे बच्चों की समझ से अभी बाहर है जिन्हें रुपए प्लेइंग कार्ड की तरह लगते हैं। उन्हें तो बड़ी आराम से समझाया जा सकता है -

" इलेवन हंड्रैड , ओनली इलेवन हंड्रैड ,सिर्फ ग्यारह सौ ही तो हैं । "

पर ये कक्षा आठवीं है । बच्चे किशोरावस्था में प्रवेश कर रहे हैं । इनके मस्तिष्क और शरीर दोनों में बदलाव आ रहे हैं । इनका अधखिला शरीर धीरे -धीरे एक -एक कर पंखुड़ियाँ खोल रहा है । इनके मस्तिष्क में स्थित ज्ञान की कोशिकाएँ धीरे- धीरे प्रकाशमान हो रही हैं । ये बच्चे अब घर बाहर की परिस्थितियों को धीरे-धीरे निरख रहे हैं , परख रहे हैं । अनुराग तो कभी- कभी अपनी पिता की दुकान का जायजा भी ले आता है । कुछ बच्चे तो अब घर की खरीददारी में भी हाथ बँटाते हैं । इस जीविका के लिए धन की आवश्यकता है और ग्यारह सौ एक बड़ी रकम है इतना तो इन्हें समझ आ ही गया है ।

पर प्रीती मैडम इन कामों में दक्ष हैं । उन्हें पता है बच्चों को कैसे मोटिवेट करना है । कैसे बच्चों के दिमाग को पलटना है ताकि वो किसी भी तरह इतनी रकम अपने अभिभावकों से माँगकर सामने रख दें । पिछली बार भी बच्चों को लंबी टूर पर ले जाना था ,रकम ज्यादा थी । कक्षा में बस दो बच्चे ही जाने को तैयार हुए थे । प्रीती नें ऐस-एेसे दाँव खेले कि बीस बच्चे मोटीवेट हो गए । रकम अच्छी इकट्ठी हुई और हिल स्टेशन का जोरदार टूर रहा । हर मीटिंग में प्रिंसिपल साहिबा यही तो कहती हैं  -

 "यू आर टीचर्स ,यू नो हाउ टू मोटिवेट चिल्ड्रेन"।

मोटी रकम देखकर पेरेन्टस तो ना नुकूर करते ही हैं पर अगर बच्चों को मोटिवेट कर दिया जाए तो वो अपने माँ बाप से पैसे निकलवा ही लेते हैं । पर इस बार के एनुअल फंक्शन का उछाल कुछ ज्यादा ही है । सीधे पाँच सौ से ग्यारह सौ । बच्चों ने तो सुनते ही नकार दिया है । दिन भर बच्चों में ये सर्कुलर एक चर्चा का विषय बना हुआ है । जब भी उन्हें वक्त मिलता है बढ़ी रकम पर ही बातें होने लगती हैं । एनुअल फंक्शन में कौन भाग नहीं लेना चाहता पर फिर भी उनकी आँखों की चमक धूमिल पड़ गई है । खैर जैसे-तैसे दिन खत्म हो गया है और अब प्रीती मैडम को अगले दिन का इंतजार है ।
                        घर में सभी स्टूडेन्ट्स अपना-अपना सर्कुलर अपने माता-पिता को दिखाते हैं । अनुराग के पिता का तो सर्कुलर पढ़ते ही दिमाग गरम है -

"क्या ग्यारह सौ ! ये स्कूल वाले हैं या लुटेरे । एडमीशन के समय सत्तर हजार किसी तरह जुटा कर दिए थे । तीन महीने की फीस बारह हजार से ऊपर जाती है । इसके बावजूद भी ये लोग फंक्शन  के लिए अलग से पैसे माँगते हैं ? क्या इनको माँगने में शर्म भी नहीं आती है । "

अनुराग भी जानता है कि दुकान से आई एक अच्छी रकम तो स्कूल की फीस भरने में ही चली जाती है । किताबें ,कापियाँ व ड्रैस भी कितनी महँगी पड़ती हैं । ऊपर से स्कूल वाले छोटे- मोटे टेस्ट के लिए भी जब न तब फीस का सर्कुलर पकड़ा देते हैं और अब यह ग्यारह सौ ! इसे देना तो नामुमकिन है ।

मोना के पापा ने तो सर्कुलर पढ़ते ही उसे फाड़ कर फेंक दिया है-

"कोई जरूरत नहीं है ऐसे फंक्शन में भाग लेने की । पिछली बार तुमने क्या किया था ?बस दो मिनट का रोल था ।"

मोना का मुँह मुरझाया फूल सा लटक गया है । इस बार मोना नें डांस में पार्टिसिपेट करने का सोचा था । पिछली बार उसे एक योद्धा बना दिया गया था । युद्ध में लड़ना था और मर जाना था । पापा ने किसी तरह पाँच सौ रुपए दे दिए थे । पर इस बार तो ग्यारह सौ ...........

टीना के पापा और मम्मी दोनों काम करते हैं तब जाकर घर का खर्च  चल पाता है। एक की कमाई तो मकान का किराया और बच्चों की फीस भरने में ही चली जाती है । दूसरे की कमाई से घर खर्च चलता है ।

" आखिर कहाँ पढ़ाएँ बच्चों को ? सरकारी स्कूलों में तो पढ़ाई ही नहीं होती । बड़े-बड़े सरकारी कर्मचारी भी प्राइवेट स्कूलों की तरफ ही भागते दिखते हैं । यहाँ तक कि सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षकों के बच्चे भी महँगे प्राइवेट स्कूलों में ही पढ़ते हैं ।" टीना के पापा ने कहा

"हाँ सही कहा आपने । ये जो बगल में सुनीता मैडम रहती हैं न राजकीय इंटर कलेज में पढ़ाती हैं पर इनका बेटा भी प्राइवेट स्कूल में ही पढ़ता है । अभी कुछ दिनों पहले ही सोसाइटी के एक कार्यक्रम में मिली थीं । मैंने पूछा कि रोज का इंटर कालेज आना-जाना , काफी व्यस्तता बनी रहती होगी । तो पता है मैडम ने क्या कहा "टीना की मम्मी ने टीना के पापा से पूछा

 क्या ?

"उन्होंने कहा कि हाँ बस जो मेहनत है आने-जाने में ही है । वर्ना वहाँ दिन भर बहुत आराम है । कभी कभार एक दो क्लास ले लेती हूँ ,बस । घर से अच्छा तो स्कूल में ही है । जिस दिन घर में रहती हूँ , काम कर-कर के थक जाती हूँ । "

"वाह ! ये तो बड़ी बढ़िया नौकरी है । उनका कालेज कहाँ है ? "

"अरे पिछली बार हम वहीं तो वोट देने गए थे । देखा नहीं था आपने । कालेज की इमारत कैसी जर्जर हालत में थी । "

"हाँ याद आया , मैडम कह रही थीं कि ये सामने के चार - पाँच कमरे ही काम के हैं । पीछे के तो कभी भी गिर पड़ें , ऐसी हालत में हैं । फंड सैंक्शन हो गया है । कंस्ट्रक्शन जल्दी शुरू होना है । लेकिन कोई दिक्कत नहीं है । इतना बड़ा मैदान है । दसों बड़े- बड़े पेड़ हैं । इन्हीं के नीचे हमलोग क्लास ले लेते हैं । अधिक्तर बच्चे तो बस खेलने ही आते हैं । यहीं मैदान में क्रिकेट , फुटबाल खेलते हैं और घर चले जाते हैं ।"

"याद है टीना को वहीं प्यास लग गई थी । पानी के लिए परेशान कर रही थी तब आपने ही पानी के लिए पूछा था । मैडम ने बताया था कि पार्क के कोने में पानी की टंकी तो है पर पानी की सफाई की कोई गारंटी नहीं है । वो अपना पानी का बोतल घर से ही लाती हैं ।"

"ऐसी हालत है सरकारी स्कूलों की और प्राइवेट वाले हैं कि जीने ही नहीं देते । आखिर आम आदमी जाए तो कहाँ जाए  ?"

"सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को सरकारी स्कूल में ही पढ़ना अगर कंपल्सरी कर दिया जाए तब तमाशा देखने लायक होगा । डी० एम०,डी०एस०पी० के साथ जब सब बड़े-बड़े अफसरों की गाड़ियाँ सरकारी स्कूल और कालेजों के रास्ते नापेंगी तभी बदलाव संभव है ।"

अन्य बच्चो के घर में भी कुछ ऐसा ही माहौल है । कुछ सरकारी स्कूलों को कोस रहे हैं तो कुछ प्राइवेट स्कूलों को । कुछ अर्थव्यवस्था को कोस रहे हैं तो कुछ अर्थ पर कुंडली मारे अल्पसंख्यकों को ।
रवि और करण बड़े बाप के बेटे हैं । रवि के पिता की खुद की एक कंपनी है और करण के पापा रियल इस्टेट के मालिक हैं । जब से यहाँ बड़ी- बड़ी कंपनियों नें आकर अपने झंडे गाड़ने शुरू कर दिए हैं ,जमीन वालों की तो मौज हो गई है । उनकी एक- एक हाथ जमीन सोने के भाव बिक रही है और वो ऐश के साथ ठर्रे मुँह लगाए बैठे हैं । पूरी कक्षा में बस इन्हीं दोनो के माता-पिता ने सर्कुलर देखकर कुछ नहीं कहा है और रुपए अपने बच्चों के हाथ में थमा दिए हैं । करण देखने में काला और मोटा है । चलता है तो हाथी का बच्चा लगता है । रवि को पढ़ने-लिखने से कोई मतलब नहीं है । अक्सर कैन्टीन में चार बच्चों को ट्रीट देना उसका शौक है । कक्षा में कभी सवालों का जवाब भी नहीं देता और रीडिंग भी बड़ी गंदी करता है ।
                 आज फिर सभी बच्चे विद्यालय पहुँच चुके हैं । दूसरे पीरियड की घंटी बजती है और फिर प्रीती मैडम कक्षा आठवीं की ओर अपनी मनपसंद गति से बढ़ती हैं । कक्षा में पहुँचते ही सबसे पहले कल बँटे सर्कुलर पर ही चर्चा होती है पर पूरी कक्षा में ग्यारह सौ लाने वाले बस दो ही छात्र हैं - रवि और करण ।

रवि और करण का नाम एनुअन फंक्शन में भाग लेने वाले बच्चों की लिस्ट में सबसे पहले लिख दिया जाता है । मैडम बड़े प्यार से पूछती हैं "बेटा करण तुम किस एक्टिविटी में भाग लोगे "। करण मोटा हाथी के बच्चे जैसा है पर वो डांस में भाग लेने की इच्छा जाहिर करता है । मैडम मुस्कुराते हुए उसका नाम डांस में लिख देती हैं । रवि जिसे ठीक से बोलना भी नहीं आता नाटक में भाग लेना चाहता है पर मैडम उसकी भी इच्छा पूरी करती हैं । अब मैडम की मोटीवेशनल क्लास शुरू होती है -

" सी हाऊ दीज़ टू चिल्ड्रैन वांन्ट्स टू पार्टिसिपेट इन फंक्शन । बच्चों देखो यहाँ तुम्हें कितना सीखने को मिलेगा । ग्यारह सौ क्या है ? इट इज नथिंग । ये एनुअल फंक्शन है । साल में बस एक ही बार तो आता है । कम एन्ड इन्जाय द फंक्शन । अपने पेरेन्ट्स को समझाओ । आपकी खुशी के आगे ग्यारह सौ कुछ नहीं है । ओनली इन इलेवन हंड्रैड यू आर गेटिंग मेमोरेबल मोमेंन्ट्स .................."

आधा पीरियड मोटीवेशनल क्लास ही ले लेती है ।आज सबकी नजर रवि और करण पर ही है जिन्होंने एनुअल फंक्शन की फीस का भुगतान कर दिया है । आज फिर बच्चों में फीस ही चर्चा का विषय बनी हुई है । कुछ बच्चे मोटिवेट हो गए हैं कुछ अभी भी खिलाफ हैं । बच्चे अपने घरों में फिर चर्चा करते हैं । जो बच्चे मोटिवेट हो चुके हैं अपने पेरेन्ट्स को मोटिवेट करने का भरपूर प्रयास करते हैं पर तीन ही सफल हो पाते हैं ।

अगले दिन फिर प्रीती मैडम की कक्षा में एनुअल फंक्शन में भाग लेने वालें बच्चों की लिस्ट में ये तीन नाम जुड़ जाते हैं । अनुराग के चेहरे पर उदासी है । वो फंक्शन में भाग लेना चाहता है पर इन दिनों उसके घर में फाइनेन्शियल कंडीशन ठीक नहीं है ऐसा उसके पापा ने बताया है । प्रीती मैम की मोटिवेशनल क्लास फिर शुरू होती है ।

"देखो ! इन पाँच बच्चों को देखो । इनको फंक्शन में भाग लेने की कितनी ललक है । सी दे आर सो एक्टिव । दे आर गोइंग टू लर्न समथिंग न्यू ,दे आर गोइंग टू इन्जाय द फंक्शन .................."

आज की कक्षा में फीस देने वाले पाँच बच्चों को हीरो बना दिया गया है । एक्टिव और स्मार्ट बना दिया गया है । बाकी बच्चे उन्हें कनखियों से निहार रहे है । ओह ! ये खिलते फूल , जिनकी पंखुड़ियों नें अभी - अभी खिलना ही सीखा था क्या यूँ उदासीनता के काँटों के बीच होंगे ये किसने सोचा था । जिनके मस्तिष्क के भीतर ज्ञान की कोशिकाएँ जगने लगी थीं अब वही अपने पेरेन्ट्स को मोटिवेट करने का तरीका खोज रहे थे,घर में कम पैसों को कोस रहे थे क्या कभी इनके माता- पिता ये जान भी पाएँगे । आज फिर दो चार बच्चे अपने पेरेन्ट्स को मोटिवेट करने में सफलता प्राप्त कर ही लेंगे और कल उनका नाम भी लिस्ट में चढ़ जाएगा । यूँ ही दो चार दिनों में माता-पिता अपना पेट काट कर अपने बच्चों के लिए मैमोरेबल मोमेन्ट्स खरीदने के लिए राजी हो जाएँगे और लिस्ट बढ़ती चली जाएगी । पर फिर भी कक्षा में कुछ ऐसे बच्चे हैं जिनके माता-पिता पेट काट कर भी फीस भरने में सक्षम नहीं हैं । उनमें से एक अनुराग भी है । पढ़ने में अव्वल , स्मार्ट ,एक्टिव, डिसिप्लिंड जो आज चाह कर भी एनुअल फंक्शन की लिस्ट में अपना नाम जोड़ने में अक्षम है । आज आठवीं कक्षा में ही बच्चों को  पैसों की ताकत समझ में आ गई है । पिछले महीने ही तो कैरियर काउंसलिग की एक कंपनी स्कूल में आई थी । कक्षा दसवीं ग्यारहवीं के छात्रों से पूछा गया कि वो आगे चलकर क्या बनना चाहते हैं । पंचानबे परसेन्ट बच्चों नें कहा कि वो जीवन में खूब पैसा कमाना चाहते हैं । वो ऐसा कोई भी काम करने को तैयार हैं जिस फील्ड में खूब पैसा हो । अब न तो कोई देश की सेवा करना चाहता है न समाज की न साहित्य की । यहाँ तक कि कोई टीचर भी बनना नहीं चाहता । कुछ वर्षों पहले तो अधिक्तर लड़कियों की पहली पसंद टीचर बनना ही होती थी पर अब ? अब वो फैशन डिजाइनर बनना चाहती हैं ,मौडल बनना चाहती हैं ,मिस इंडिया बनना चाहती हैं । इस फील्ड में ग्लैमर है और ढ़ेर सारा पैसा । सिर्फ पैसा पैसा पैसा ............... । आखिर ये दृष्टिकोंण इनमें आया कहाँ से । हाँ मोटा करण पैसों के बल पर ही तो डांस करेगा । रवि जो ठीक से बोल नहीं पाता नाटक में भाग भी लेगा । मोना के माता - पिता भी किसी तरह तैयार हो गए हैं । उनकी बच्ची इस बार डांस में भाग लेना चाहती थी । पिछली बार बहुत छोटा रोल मिला था । मोना को तो नृत्य करना आता है । वो अच्छा परफार्म कर सकती है पर मोटा करण ?
                           दस दिनों से एनुअल फंक्शन की प्रैक्टिस चल रही थी और आज फंक्शन का दिन भी आ गया है । चारों तरफ की सजावट कमाल की है । खूबसूरत रंगोली और रंग - बिरंगे फूलों के गमलों से एन्ट्री गेट सजा दिया गया है । स्टेज पर जबर्जस्त लाइटनिंग सिस्टम लगाई गई है । बिल्कुल टी० वी० में होने वाले शो की तरह । बड़े - बड़े पाँच टी० वी० स्क्रीन्स पूरे मैदान में लगे हुए हैं । एक दो संबोधनों के बाद एनुअल रिपोर्ट और फिर डांस की भी शुरुआत हो गई है । डाँस क्या बस बच्चों की भीड़ जुटा दी गई है । जितनी ज्यादा भीड़ उतने ग्यारह सौ । रंगबिरंगे चटकीले चमकीले कपड़ों में बच्चों को सजा दिया गया है । सबके हाथों में चमकीले प्राप्स हैं । उन्हें बस प्राप्स हिलाने हैं और थोड़ा बहुत इधर- उधर घूमना है । बगल से फाग मशीन फाग छोड़ रही है। रह रह कर सफेद बादल स्टेज पर उठते हैं बच्चों के आधे स्टेप्स तो ऐसे ही ढ़क जाते हैं । रही सही कसर उनके आगे बजते पार्टी क्रैकर्स कर देते हैं । रंग बिरंगी चमकीली पन्नियाँ पूरे स्टेज पर उड़ रही हैं और आकर्षण का केन्द्र बनी हुई हैं । उपर से तेज म्यूज़िक और जबरजस्त लाइट्स । इस भीड़ में तो पहचानना भी मुश्किल है कौन मोटा करण है और कौन टीना । कौन डांस कर पा रहा है कौन नहीं । डांस में कोई स्टेप है भी या नहीं । थोड़ी देर में डांस खत्म हो जाता है । अब एक नाटक होना है । तभी एक महिला अपने पति से बोलती है -
"जानते हैं , मैं स्कूल में बहुत अच्छी एक्टिंग करती थी। एक महीने पहले से ही तैयारियाँ शुरू हो जाती थीं । सारे डायलाग्स याद करने पड़ते थे । फिर हमारे शिक्षक डायलाग डिलिवरी सिखाते थे । चेहरे पर ऐसे भाव होने चाहिए , तो आवाज यहाँ ऊँची तो यहाँ मध्यम होनी चाहिए । हमलोग बहुत मेहनत करते थे । मुझे कक्षा ग्यारहवीं में तो बेस्ट एक्टिंग का एवार्ड भी मिला था । इन बच्चों को देखकर मुझे अपना बचपन याद आ रहा है । "
"अच्छा तो नाटक शुरू होने ही वाला है ,अपना बचपन भी देख लो " पति ने कहा

कुछ ही समय में मंचन भी शुरू हो जाता है पर यह क्या ? अब तो न बच्चों को डायलाग याद करने की जरूरत है न ही बोलने का तरीका सीखने की । पूरा नाटक पहले से ही रिकार्डेड है । बस बच्चे सजे - धजे स्टेज पर आते हैं और रिकार्डेड डायलाग पर थोड़ा बहुत हाथ हिलाते हैं , मुँह चलाते हैं और चले जाते हैं । रवि जिसे बोलना भी नहीं आता वो भी बड़ी अच्छी एक्टिंग कर रहा है । तभी एक महिला कहती है -

"बच्चे यहाँ कुछ सीखते थोड़े ही हैं । अब ऐसे क्या बच्चे एक्टिंग सीखेंगे । ये तो बस ऐसे ही है । सिखाना है तो फिर कहीं बाहर नाम लिखवाना पड़ता है। यहाँ सिर्फ ताम- झाम ज्यादा है ।"

"क्या करें बच्चों की जिद्द के आगे झुकना पड़ता है । बच्चे मानते ही नहीं । बताओ इसी के ग्यारह सौ लिए हैं । इस बार तो मैंने मना कर दिया था ..... पर अब क्या कहूँ ... " दूसरी महिला कहती है ।

हाँ इन्होंने ये मोमेन्ट्स खरीदे हैं । आज ये मैमोरेबल मोमेन्ट्स इन्होंने अपने बच्चों के लिए ग्यारह सौ रुपयों में खरीदे हैं पर यहाँ अनुराग जैसे भी कुछ बच्चे हैं जो इन मोमेन्ट्स में शामिल नहीं हैं । ये तो बस मायूस चेहरे लिए सूनी निगाहों से अपने मेमोरेबल मोमेन्ट्स को खुद से दूर जाते हुए देखेंगे .....बस देखेंगे .............।