रविवार, 1 जनवरी 2012

संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं

जन्म: 2 नवम्बर 1971 को उ0 प्र0 के बलिया जिले के हुसेनाबाद गॉव में एक किसान परिवार में।
प्रारंभिक पढाई गाँव में ही। समस्त उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। ‘प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व’ तथा ‘आधुनिक इतिहास’ में परास्नातक। ‘प्राचीन भारतीय साहित्यिक एवं कलात्मक परम्परा’ में पेड़ पौधे एवं वनस्पतियॉ शीर्षक से डी. फिल.। पत्रकारिता एवं जनसंचार में परास्नातक डिप्लोमा। प्रारंभ में 15 सालों तक ‘कथा’ पत्रिका में सहायक सम्पादक के रूप में कार्य किया। इस समय ‘अनहद’ नामक पत्रिका का संपादन। 2009 में भारतीय ज्ञानपीठ से काव्य संग्रह ‘पहली बार’ का प्रकाशन। अभी हाल ही में लोकभारती प्रकाशन से ‘भारतीय संस्कृति’ नामक पुस्तक का प्रकाशन। देश भर की पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। आकाशवाणी इलाहाबाद से निरन्तर कविताओं का प्रसारण।
संप्रति: उ.प्र. के चित्रकूट जिले के मउ में एम. पी. पी. जी. कॉलेज में इतिहास के विभागाध्यक्ष।

































  युवा कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं  अपने शिल्प के गठन और पूर्वीपन  मिठास एवं सोंधेपन के कारण पहली बार में ही ध्यानाकर्षित करती  हैं। पूर्वांचल  के बलिया जैसे-उजड्ड इलाके से आये इस कवि ने जिस यथार्थ पीड़ा को झेला है उसे बड़ी सिद्दत से अपनी कविताओं में उकेरा है। भाषा नदी की धारा सी प्रवाह मान । किसी अनावश्यक शब्दों की घूसपैठ नहीं । ऐसा माना जाता है कि भाषा की सरलता एवं सहजता कविता को कमजोर बनाती है पर यहां तो बिलकुल उल्टा है।
संतोष कुमार चतुर्वेदी की बहुत सारी कविताओं से गुजरने के बाद इनकी कविता
अभिनय ” इस रचनाकार से परिचय कराने का मेरा माध्यम रही है। जब इण्डिया टुडे ” के साहित्य वार्षिकी 2002 में अभिनय कविता को   पढ़ा तो लगा कि इसका रचनाकार पूर्वांचल के ही किसी हिस्से से आता होगा। ऐसा मैंने अनुमान लगाया। फिर यह बात आयी गयी हो गयी । अपनी बैचेनी को शेयर करने के लिए अपने कई दोस्तों मित्रों को यह कविता पढ़ने को दी । आखिर पांच-छः सालों के अन्दर इस रचनाकार को ढूंढ ही निकाला। और आज बहुत कम प्रचार- प्रसार के बावजूद जिसकी अनदेखी हिन्दी साहित्य में बहुत दिनों तक नहीं की जा सकती।
इनकी कविताएं पढ़ने के बाद लगता है कि कवि की नजर में कोई बच नहीं पाया है।जैसे - मजदूर, किसान, नेता, ठेकेदार, कूड़ा वाला बच्चा, मदारी, नट, चित्रकार, फिल्मकार, कलाकार, कवि, लेखक और विश्व रंगमंच पर आने वाले विभिन्न पात्र । ऐसा लगता है कि शायद ही कोई हो जो कवि के सामने से गुजरा हो और उसकी कविता में ढल न गया हो । विभिन्न मुददों से लड़ता हुआ कवि सत्य की तरह हांफता जरूर है। परन्तु पराजित नहीं होता।यह एक सकारात्मक पक्ष है। और आगे आने वाली कविताएं भी आश्वस्त करती दिख रही हैं। जो भविष्य में एक सुखद अनुभूति कराएंगी।

 इनकी कोई भी कविता हिन्दी साहित्य के सागर में हलचल मचाने के लिए पर्याप्त है।कुछ कविताएं जैसे - “
चित्र में दुःख,  ”“रोटी की धरती,  ”“माचिस,  ”“बरगद, ”“धूप में पथरा जाने की परवाह किये बगैर, ”अभिनय,“मां  ” के अलावा अघिकांश कविताएं बार-बार पढ़ने के लिए बेचैन करती हैं।

अंत में हम यही कहेंगे कि इनकी कविताएं  एक से बढ़कर एक हैं। जो बहुत दिनों तक तरोताजा बनाए रखेंगी। बावजूद बकौल केदारनाथ सिंह-
मुझे विश्वास है,नये मानचित्र के अकांक्षी इस कवि की आवाज दूर तक और देर तक सुनी जाएगी।
यहां उनकी दो कविताएं-

हाशियाँ
जब से आबाद हुई यह दुनिया
और लिखाई की शक्‍ल में
जब से होने लगी अक्षरों की बूँदाबादी
हाशिये की जमीन तैयार हुई
तभी से हमारे बीच
अब यह जानबूझ कर हुआ
या बस यूँ ही
छूट गयी जगह हाशिये वाली
कहा नहीं जा सकता इस बारे में
कुछ भी भरोसे से
लेकिन जिस तरह छूट जाता है हमसे
हमेशा कुछ-न-कुछ जाने अंजाने
जिस तरह भूल जाते हैं हम अमूमन
कुछ-न-कुछ किसी बहाने
पहले-पहल छूटा होगा हाशिया भी
दुनिया के पहले लेखक से
कुछ इसी तरह की
भूल गलती वाले प्रयोग से
अब ऐसा सायास हुआ हो या अनायास
हाशिये की वर्तनी के साथ ही
अक्षर पन्‍ना तभी लगा होगा इतना दीप्‍त
सुघड़ दिखा होगा अपनी पहलौठी में भी
उतना ही वह
जितना आज भी खिला-खिला दिखता है
अक्षरों वाली पंक्‍तियों के साथ
भरेपूरेपन में हाशियाँ
हाशिये में भरापूरापन
कुछ इसी तरह तो
बनता आया है छन्‍द जीवन का
कुछ इसी तरह तो
लयबद्व चलती आ रही है प्रकृति
न जाने कब से
कभी कभी होते हुए भी
हम नहीं होते उस जगह पर
कभी-कभी न होते हुए भी
हमारे होने की खुशबू से
तरबतर होती हैं जगहें

और अक्‍सर अपने ही समानान्‍तर

बनाते चलते हैं हम हाशिया
जिसे देख नहीं पाते
अपनी नजरों के झरोखे से
एक सभ्‍यता द्वारा छोड़े गये हाशिये को
किसी जमाने में सजा-संवार देती है
कोई दूसरी सभ्‍यता
लेकिन कहीं-कहीं तो
प्रतीक्षारत बैठे बदस्‍तूर आज भी
दिख जाते हैं हाशिये
किसी कूँची किसी रंग या फिर
किसी हाथ की उम्‍मीद में
कई परीक्षाओं में मैंने खुद पढा यह दिशा निर्देश
कृपया पर्याप्‍त हाशियाँ छोड़ कर ही लिखें
बहुत बाद में जान पाया था यह राज
कि हाशिये ही सुरक्षित रखते थे
हमारे प्राप्‍तांकों को
परीक्षकों के हाथों से छीनकर
कॉपियाँ जाँचे जाने के वक्‍त
और इस तरह हमारे कामयाब होने में
अहम भूमिका रहती आयी है हाशिये की
जैसे कि आज भी किसी न किसी रूप में
हुआ करती है
हमसे भूल गयी बातों
चूक गये विचारों
और छूट गये शब्‍दों को
सही समय पर सही जगह दिलाने में
अक्‍सर काम आता है
यह हाशियाँ आज भी
हाशिये को दरकिनार कर
दरअसल जब भी लिखे गये शब्‍द
भरी गयीं पंक्‍तियाँ
किसी हड़बड़ी में जब भी
बाइण्‍डिंग के बाद
लड़खड़ा गयी पन्‍ने की शक्‍ल
अपठनीय हो गयी
वाक्‍यों की सूरत। 


भभकना
रोज की तरह ही उस दिन भी
सधे हाथों ने जलायी थी लालटेन
लेकिन पता नहीं कहाँ
रह गयी थोड़ी सी चूक
कि भभक उठी लालटेन

हो सकता है कि
किरासिन तेल से
लबालब भर गयी हो लालटेन की टंकी
हो सकता है कि
बत्ती जलाने के बाद
शीशा चढ़ाने में थोड़ी देर हो गयी हो
हो सकता है कि
एक अरसे से लापरवाही बरतने के कारण
खजाने में जम गयी हो
ढेर सारी मैल

यह भी संभव है कि
टंगना उठाते समय
हाथों को सूझी हो थोड़ी-सी चुहल
और आपे से बाहर होकर
भभक उठी हो लालटेन

हो सकता है कि
जब सही-सलामत जल गयी हो लालटेन
तो अन्धेरे को रोशनी से सींचने की
हमारी अकुताहट को ही
बरदाश्त न कर पायी हो
नाजुक-सी लालटेन
और घटित हो गया
भभकने का उपक्रम

दरअसल लालटेन का भभकना
जलने और बुझने के बीच की वह प्रक्रिया है
जिसके लिए कुछ भाषाओं ने तो
शब्द तक नहीं गढ़े
फिर भी घटित हो गयी वह प्रक्रिया
जो शब्दों की मोहताज नहीं होती कभी
जो गढ़ लेती है खुद ही अपनी भाषा
जो ईजाद कर लेती है
खुद ही अपनी परिभाषा

यह वह छटपटाहट थी
जो अनुष्ठान की तरह नहीं
बल्कि एक वाकये की तरह घटित हुई
अन्धेरे के खिलाफ बिगुल बजाती हुई
रोशनी को सही रास्ते पर
चलने के लिए सचेत करती हुई
और जब लोगों ने यह मान लिया
कि भभक कर आखिरकार
बुझ ही जायेगी लालटेन
अनुमानों को गलत साबित करती हुई
फैल गयी आग
समूचे लालटेन में
चनक गया शीशा
कई हिस्सों में

वैसे विशेषज्ञ यह उपाय बताते हैं
कि भभकती लालटेन को बुझा देना ही
श्रेयस्कर होता है
और भी तमाम उपाय
किये जाते हैं इस दुनिया में
भभकना रोकने खातिर

लेकिन तमाम सावधानियों के बाद भी
किसी उपेक्षा
या किसी असावधानी से
भभक उठती है लालटेन
अपनी बोली में
अपना रोष दर्ज कराने के लिए।

सम्पर्क: 3/1 बी, बी. के. बनर्जी मार्ग, नया कटरा, इलाहाबाद, उ0 प्र0 211002
मोबाइल: 09450614857, ई मेल- santoshpoet@gmail.com 

5 टिप्‍पणियां:

  1. संतोष जी हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कवियों में गिने जाते हैं..आपने उनका परिचय बेहतरीन तरीके से करा दिया है , सो उस पर टिप्पणी देना उचित नहीं | सीधे कविताओ की ही बात करते है ...| "हाशिया" कविता हमें इस तथ्य से अवगत कराती है , कि वे जिनको इतिहास ने हमेशा मुख्यधारा से बाहर धकेल कर रखा , उन्होंने हमारे समाज को बनाने में कितनी बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका निभायी ..| "भभकना " कविता हमें आगाह कराती है कि व्यवस्था का यह दायित्व है कि वह सबका ख्याल रखे और किसी को भी नजरंदाज न करे ,| पुरवाई को बहुत बधाई , इन शानदार कविताओ को प्रस्तुत करने के लिए |

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  2. शुक्रिया। बहुत अच्छी कविताएं पढ़वाने के लिए। आनन्द आया पढ़कर।

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  3. अच्छी कविताएं। बहुत बहुत बधाई।

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  4. हाशिया - सही कहा - नम्बरों के लिए- जो भविष्य बनाता और बिगाडता- खुशियों और तनाव का कारण शिक्षा क्षेत्रमें।

    भभकना- अच्छा है हम भी लालटेन की तरह भभक ही ले और अपने हक लेने को तैयार ही रहे।

    अच्छी कविताएँ है।

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