बुधवार, 27 अगस्त 2014

उमा शंकर मिश्र की कहानी : खुला आसमान




     

 खुला आसमान

     यद्यपि खुले आसमान में परिन्दें का आशियाना नहीं हुआ करता लेकिन ये परिन्दे उसी खुले आसमान में उड़ान भरते हैं । उड़ान भरना उनकी मंजिले नहीं, नियति होती है ।आज सुक्खु अपनी खेत के मेंड़ पर बैठकर यही सोच रहा था । कर्त्तव्यों से विमुख होकर केवल इसी देश में प्रत्येक व्यक्ति अधिकारों की मांग कर रहा है।हम राष्ट्र के लिए क्या करते हैं यह चिन्ता नहीं है लेकिन राष्ट्र हमारे लिए क्या करता है इसे प्रत्येक व्यक्ति राजनीतिक मंच से,अपने भाषणों से,वक्तव्यों से उठा रहा है।

      कैसे यह देश चलेगा इसकी चिन्ता उसे है ही नहीं ?
ग्राम पंचायतों का चुनाव बहुत बड़ा चुनाव नहीं होता है।गाँव के विकास के लिए ही ग्राम पंचायते गठित की जाती हैं ।लेकिन राष्ट्र के राजस्व की एक बहुत बड़ी राशि इन गाँव के उत्थान,विकास,प्रगति के लिए दी जाती है।पंचायती राज विधेयक के जरिये गांव की उन्नति का जो सपना देखा गया था वह अब धूमिल होती जा रही हैं। स्पष्ट है कि ये राशि भी इन छोटे ग्राम पंचायत के सदस्यों द्वारा दुरूपयोग किया जा रहा है। कहीं भी उतना विकास का कार्य नहीं हुआ है जितना दावा किया जा रहा है।

        विधायकी का चुनाव भी नजदीक गया था गांवो में पोस्टर,बैनर,तरह-तरह के लगाए जा रहे थे।सुक्खु और उसकी पत्नि सुखदेई इस उल्लास भरे माहौल में भरपूर मदद कर रहे थे। उन्हें आशा थी इस चुनाव के लिए कार्य करने पर बाद में एक हैड पाइप हमारे झोपड़ी के आगे भी लग जायेगा।और इस प्रकार पानी के लिए 3 किमी0 दूर नहीं जाना पड़ेगा।दिन भर चुनाव का प्रचार करने के बाद गांव का मुखिया केवल 50 रू0 ही प्रचारकों को इसलिए देता है  कि इस बार भी सत्ता और शासन हमारे हाथ में जाए।शासन तो कुछ बड़े बाहु& बलियों के हाथों मे खेलती है और उन्ही के आसपास शासन भी भ्रमण करता है। कभी & कभी दिखाने के लिए यदि एक नेता पर आरोप है तो उसके बेटे या पत्नि को टिकट देकर पार्टियां वाह वाही लूटती है।देखिए मैंने उस दागी का टिकट काट दिया है लेकिन खेलती है राजनीति उसी के आंगन में।यह उस पार्टी को भी मालूम है तथा सारी जनता को भी।


        ग्राम पंचायत के चुनाव में भावनाएं,जज्बातों,भावों,सम्वेगों को उभारा जा रहा था।आदर्शों,उसूलों,नैतिकता,संस्कार,संस्कृति,सभ्यता, तथा अपनी प्राचीन मूल्यों को बचाने की भी भाषण के माध्यम से दुहाई दी जा रही थी।चुनाव मैदानी जंग बन चुका था।और आचानक जब बोट पुराने मुखिया के पाले में पड़ने की बात सुनायी पड़ी एक भयानक विस्फोट हुआ सुक्खु और सुखदेई गिरकर तडपने लगे।दोनों को नजदीक के अस्पताल में भेजा गया।डा0 वहां नहीं था।प्राथमिक स्वास्थ्या केन्द्र पर प्रायः डा0 नदारद ही रहते हैं कोई कार्यवाही इसलिए नहीं होती है क्योंकि डा0 नेताओं से अपना सम्बन्ध बना लेता है इसे ही लोकतन्त्र कहते हैं।

     दोनों मर गए। पोस्टमार्टम के बाद दोनों की लाशें घर के लोगों को सौंप दी गई।घर के बर्तन बेचकर कफन ,लकड़ी की व्यवस्था की गई और अन्त्येष्टि खत्म हो गई।गांवो वालों के आंसू सूख चुके थे।अब तक गरीबों के आंसुओं को मापने का कोई पैमाना नहीं बन सका है।
5 साल बाद उसी गाँव में चुनाव आरम्भ हो गया था चुनावी बिगुल जोर जोर से बज रहा था।सुक्खु के इकलौते लड़के के कान में भी बिगुल अच्छी तरह सुनाई पड़ रहा था। कुछ नेता उसके घर पर आते दिखाई पड़ें।जो सुक्खु और सुखदेई के मरने पर बड़ी बड़ी सहायता का सपना दिखाया था। नेताओं के हसीन बातों का कोई भी प्रभाव सुक्खु के पुत्र शंकर पर नहीं पड़ा वह चुपचाप अपना फावड़ा लेकर कन्धे पर रक्खा और खेत की ओर चल दिया।यह धरती अपनी माँ है।और माँ के आँचल रूपी खेत में कुछ जोत-बो कर पेट भरना अपराध नहीं है।शंकर की पत्नि रंजना अपनी झोपड़ी के दरवाजे को बन्द कर अन्दर चली गई।वह तो नेता ,नेतृत्व,भाषण,मिथ्या,आश्वासन,कोरे वायदों को सुनना ही नहीं चाहती थी।


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