सोमवार, 19 जनवरी 2015

आधी आबादी का सच : प्रेम नंदन





        
                                                       प्रेम नंदन

          25 दिसम्बर 1980 को उत्तर प्रदेश में फतेहपुर जनपद के फरीदपुर नामक गांव में जन्में प्रेमचंद्र नंदन ने लेखन और आजीविका की शुरुआत पत्रकारिता से की । लगभग दो वर्षों तक पत्रकारिता करने और कुछ वर्षों तक इधर-उधर भटकने के उपरांत अध्यापन के साथ-साथ कविताएँ, कहानियाँ, लघुकथाएँ एवं समसामयिक लेखों आदि का लेखन एवं विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन। एक कविता संकलन - सपने जिंदा हैं अभी , 2005 में प्रकाशित ।

      मेरे कवि मित्रों में से एक प्रेमचंद्र नंदन ने ये कविताएं अरसा पहले भेंज दिया था। फिलहाल प्रस्तुत है यहां उनकी ये कविताएं-

आधी आबादी का सच

























मंजिलें तो सदियों से
उनके आधीन हैं
बहुत पहले से
रास्तों पर उनका ही कब्जा है
इधर कई वर्षों से
उनकी गिद्ध नजरें
हमारे सपनों पर टिकी हैं।

वे चाहते हैं
कि हमारे कदम
उनकी बनाई परिधि से
बाहर न निकलें
और यदि निकलें
तो फिर उनके निशान तक ढूढ़े न मिले।
उन्हें पता नहीं क्यों
हमारी ऑंखों की चमक में
कड़कती हुई बिजली
या तलवार की धार दिखाई देती है
इसलिए वे हमको
डुबोये रखना चाहते हैं ऑसुओं में ।

हमारी खिलखिलाहटों में
न जाने क्यों
सुनाई पड़ता है उन्हें
अपनी पराजय का शंखनाद
इसलिए वे
सिल देना चाहते हैं
हमारे होंठ।
हम अपनी जरूरत जाहिर करते हैं
तो उन्हें लगता है
कि हम उनके साम्राज्य की
कुंजी मॉंग रहें हैं उनसे
इसीलिए वे कदम दर कदम देते रहते हैं चेतावनी
हमें अपनी सीमा में रहने की ।

हमारे कदमों की सधी हुई चाल से
उन्हें अपना पुरूषवादी वर्चश्व
ढहता नजर आता है
इसलिए वे
नई-नई तरकीबों से
हमारे रास्तों और कदमों को
अवरोधित करते रहते हैं हमेशा।

हमारी आधी आबादी होने के बावजूद
वे कुंडली मारे बैठे हैं हमारे अस्तित्व पर
गोया वे दुर्योधन हैं
जो हमारे सपनों और इच्छाओं को
फलने-फूलने के लिए
कहीं भी
सुई की नोंक के बराबर भी
जगह देने को तैयार नहीं हैं।

 जो खुश दिखता है

जो खुश दिखता है
जरूरी नहीं,
कि वह खुश हो ही ;
खुशी ओढ़ी भी तो जा सकती है
ठीक वैसे ही
जैसे अपने देश के
करोड़ों भूखे , नंगे लोग
पेट की आग बुझाने की असफल कोशिश में
जिंदगी की चक्की में
पिसे जा रहें हैं
फिर भी  खुशी से
जिए जा रहे हैं !

अभाव और दुःखों के
गहन अंधकार में
सुख और साधनों की
एक  क्षीण-सी लौ का भी सहारा नहीं है
उनके जीवन में
फिर भी
करोड़ों पथराई ऑंखों में
ऑंसुओं को बेदखल करते हुए
न जाने कौन से
सुनहरे भविष्य के सपने तैर रहे हैं
जिन्हें पाने की मृग-मरीचिका में
वे घिसटते हुए दौड़ रहे हैं
सिसकते हुए हॅंस रहे हैं
और मरते हुए जी रहे हैं ।

जवानी में ही झुर्रियों भरे
असंख्य दयनीय चेहरों पर
चिपकी हुई बेजान मुस्कुराहटें देखकर
मेरा यह विश्वास लगातार गहराता जा रहा है
कि जो खुश दिखता है
जरूरी नहीं ,
कि वह खुश हो ही ;
खुशी ओढ़ी भी तो जा सकती है !

 संपर्क-
उत्तरी शकुननगर,
सिविल लाइन्स ,फतेहपुर,0प्र0
मो0 & 9336453835
bZesy&premnandan@yahoo.in

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