सोमवार, 31 अगस्त 2015

लव-जिहाद जैसा कुछ नहीं... अनवर सुहैल







       अनवर सुहैल का समकालीन रचनाकारों में महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी लेखनी को कविता, कहानी ,उपन्यास आदि विधाओं में एकाधिकार प्राप्त है। इस वर्ष इन्हें मध्य प्रदेश सरकार का प्रतिष्ठित वागीश्वरी पुरस्कार भी प्रदान किया गया है। इनकी कहानी को पढ़ने के बाद कई मिथक टूटते से नजर आ रहे हैं। तो प्रस्तुत है इनकी कहानी -लव-जिहाद जैसा कुछ नहीं...








      रूखसाना से इस तरह मुलाकात होगी, मुझे मालूम न था.चाय लेकर जो युवती आई वह रूखसाना थी. जैसे ही हमारी नज़रें मिलीं...हम बुत से बन गए. बिलकुल अवाक् सा मैं उसे देखता रहा. एकबारगी लगा कि खाला क्या सोचेंगी कि उनके घर की स्त्री को मैं इस तरह चित्रलिखित सा क्यों देख रहा हूँ?खाला सामने बैठी हुई थीं.खाला ने मुझे इस तरह देखा तो बताने लगीं--अच्छा तो तुम इसे जानते हो...ये रुखसाना है, गुलजार की बीवी.  अल्लाह का फ़ज़ल है कि बड़ी खिदमतगार है. दिन-रात सभी की खिदमत करती है. तुम्हारे गाँव की तो है ये. अपने इनायत मास्साब की लड़की.’’


      मैंने उन्हें बताया—“इनके अब्बू ने हमें पढ़ाया है खाला...मैं तो इनकी घर ट्यूशन पढने जाया करता था..!और इनायत मास्साब का वजूद मेरे ज़ेहन में हाज़िर हो गया.हमारे प्रायमरी स्कूल के शिक्षक इनायत मास्साब.नाम से बड़ा रवायती तसव्वुर उभरता है, लेकिन इनायत मास्साब बड़े माडर्न दीखते थे. क्लीन-शेव्ड रहते और अमूमन ग्रे पेंट और सफ़ेद शर्ट पहना करते. ठण्ड के दिनों में वे इस ड्रेस पर एक ग्रे कोट डाल लिया करते. बड़े स्मार्ट-लूकिंग थे मास्साब.उनकी तीन लड़कियां थीं.बड़ी का नाम उसे याद नही क्योंकि वो ससुराल जा चुकी थी, दूसरी का नाम शबाना था और सबसे छोटी रुखसाना...शबाना स्थानीय गर्ल्स कालेज में पढ़ती थी.रुखसाना और मैं एक ही कक्षा के विद्यार्थी थे लेकिन स्कूल अलग-अलग था हमारा.

      मैं गणित में काफी कमज़ोर था, सो अब्बा मुझे गणित पढ़ने के लिए इनायत मास्साब के घर भेजा करते थे.मुझे गणित विषय अच्छा नही लगता था लेकिन मेरी रूचि गणित के बहाने रुखसाना में ज्यादा थी.जब मैं उनके घर पहुंचता तब दरवाज़ा रूखसाना ही खोलती और फुर्र से अंदर भाग जाती इस आवाज़ के साथ--अब्बू, पढने वाले आ गए!


     उसने कभी ये नहीं कहा कि शरीफ आया है...ट्यूशन पढ़ने. पता नही क्यों वो मेरा नाम न लेती थी...बहुत खतरनाक टीचर थे इनायत मास्साब, जो भी चेप्टर समझाते इस ताईद के साथ कि न समझ आया हो तो पढाते समय पूछ लो. एक बार नहीं दस बार पूछो...हर बार समझायेंगे वे..लेकिन इसके बाद यदि सवाल नहीं बना तो फिर बेंत की मार खानी होगी. वे बेंत इस तरह चलाते की हथेली लाल हो जाती और चेहरा रुआंसा.एक और खासियत थी उनकी. सवाल का जवाब नहीं लिखाते थे. बच्चों को जवाब लिखने को प्रेरित करते. वे कहते कि दिखाओ कैसे कोशिश की सवाल का जवाब पाने की.बड़े ध्यान से बच्चों के जवाब देखते और बताते कि सवाल हल करने का तरीका कितनी दूर तक ठीक था और कहां से रास्ता भटक गया है. यह भी कहा करते कि गणित में सबसे महत्वपूर्ण बात होती है सवाल को समझना. यदि सवाल सही न समझा गया तो कितना बड़ा फन्नेखां हो सवाल हल नहीं कर पाएगा. इसलिए अव्वल बात ये कि सवाल भले से याद हो फिर भी जवाब लिखने से पूर्व सवाल को अच्छी तरह पढ़ा और समझा जाए. हम बच्चे उनकी इस शिक्षा को जीवन के हर स्तर पर खरा उतरता पाते.

      मेरे हिसाब से बच्चे उस शिक्षक की ज्यादा कद्र करते हैं और उससे डरते भी हैं जिसके बारे में उनके बाल-मन में यकीन हो जाए कि ये शिक्षक विलक्षण ज्ञानी है. कहीं से भी पूछो और कितना कठिन प्रश्न पूछो चुटकी बजाते हल कर दिया करते थे. मुझे उनमे एक रोल-मॉडल दीखता...मैं भी बड़ा होकर उन्ही की तरह का ज्ञानी-शिक्षक बनने के ख़्वाब देखने लगा था.ठीक इसके उलट बच्चे उन शिक्षकों का मज़ाक उड़ाते, जिनके बारे में जान जाते कि इस ढोल में बड़ी पोल है.उनमे हिंदी के अध्यापक का नाम सबसे ऊपर था.वैसे भी विज्ञान के बच्चे हिंदी के शिक्षकों का मज़ाक उड़ाया करते हैं.हिंदी के अध्यापक उर्फ़ जेपी सरन उर्फ़ उजड़े-चमन….


          मुझे नही मालूम लेकिन ये बात कितनी सही है कि हिंदी का अध्यापक कवि ज़रूर होता है.कवि भीऐरागैरा नही. तुलसीदास से कुछ कम और निराला से कुछ ज्यादा.उनकी बात माने तो कविता वही है जैसी जेपी सरन उर्फ़ उजड़ेचमन लिखते हैं.बच्चे उनकी इतनी हूटिंग करते लेकिन वाह रे सर की मासूमियत, वे समझते की उन्हें दाद मिल रही है.इनायत मास्साब को हम सर भी कह सकते थे, लेकिन नगर के उम्रदराज़ शिक्षक थे इनायत मास्साब.जब शिक्षकों को गुरूजी कहा जाता था उस वक्त भी उन्हें मास्साब का लकब मिला हुआ था.जाने कितने लेखको की गणित की किताबों का अध्ययन उन्होंने किया हुआ था.

        हम तो सोचा करते कि इनायत मास्साब खुद ही  सवाल  बना लिया करते हैं.काहे कि अपनी देखी भाली किसी किताब में वैसे सवाल नही मिलते थे.इनायतमास्साब मुझे पसंद करते थे क्योंकि मैं सवाल हल करने का वास्तव में प्रयास करता था. मेरी कापी के पन्ने इस बात के गवाह हुआ करते.इनायत मास्साब के ट्यूशन ने गणित को मेरे लिए खेल बना दिया था...

        वे कहा करते...मैथेमेटिक्स एक ट्रिक होती है. जिसे महारत मिल जाए उसकी बाधाएं दूर...जब मास्साब ट्यूशन पढ़ाते उस दरमियान एक बार रूखसाना पानी का गिलास लेकर आती थी.वैसे भी किशोरावस्था में किसी को कोई भी लड़की अच्छी लग सकती थी. लेकिन रूखसाना इसलिए भी अच्छी लगती थी कि उसे मैं काफी करीब से देख सकता था. वह दरवाज़ा खोलती थी. अपने पिता के लिए पानी का गिलास लाती थी.

       ईद के मौके पर मुझे भी सेवईयां मिल जातीं. उनके घर की शबे-बरात के  समय सूजी और चने की कतलियां तो बाकमाल हुआ करतीं थीं, क्यूंकि उन कतलियों में  रूखसाना का स्पर्श भी छुपा होता था.वह ज़माना ऐसे ही इकतरफा इश्क या इश्क की कोशिशों का हुआ करता था.तब मोबाईल, फेसबुक या व्हाटसएप नहीं था. मिस-काल या साइलेंस मोड की सवारी कर प्यार परवान नहीं चढ़ा करता था.चिट्ठियां लिखी जाएं तो पकड़े जाने का डर था.और यदि लड़की चिट्ठी अपने पिता या भाई को दिखला दे या कि चिट्ठियां ओपन हो जाएं तो फिर शायद कयामत हो जाए...ऐसे दुःस्वप्न की कल्पना से रोम-रोम सिहर उठे.

     कुछ बद्तमीज़ लड़के थे जो जाने कैसे पिटने की हद तक जलील होकर इश्क करते थे और राज़ खुलने पर खूब ठुंकते भी थे.इस तरह मैं यह फ़ख्र से कह सकता हूं कि रूखसाना मेरा पहला इकतरफा प्यार थी.बड़ा अजीब जमाना था. बात न चीत, सिर्फ देखा-दाखी से ही सपनों में दखल मिल जाता.इस रुखसाना ने मेरे ख़्वाबों में बरसों डेरा डाला था.कभी देखता कि पानी बरस रहा है,मैं छतरी लेकर घर लौट रहा हूँ.रुखसाना किसी मकान के शेड पर बारिश रुकने का इंतज़ार कर रही है और फिर मुझे देख  मेरी ओर बढती है. मैं उसे इस तरह छतरी ओढाता हूँ  कि  वह  न  भीगे... भले  से  मैं  भीग  जाऊं. कभी  ख़्वाब  में  वह  मेरे  घर  आकर  मेरी  बहनों के साथ लुकाछिपी खेलती होती और मुझे घर में देख अचानक अदृश्य हो जाती.आह,वो ख्वाबों के दिन...किताबों के दिन...सवालों की रातें...जवाबों के दिनवही मेरे सपनो वाली रुखसाना इस रूप में मेरे सामने थी और मैं चित्र-लिखित



    कुछ साल बाद मैं बाहर पढ़ने चला गया.अपने कस्बे में अब कम ही आ पाता था.मेरे ख्याल से जब मेरा तीसरा सेमेस्टर चल रहा था तभी दोस्तों से पता चला था कि इनायत मास्साब की बेटी रूखसाना की कहीं शादी हो गई है. शादी हो गई तो हो गई. मुझे क्या फर्क पड़ सकता था. मुझे तो शिक्षा पूर्ण कर अच्छे प्लेसमेंट का प्रयास करना था. उसके बाद ही शादी के बारे में सोचता. घर से कोई दबाव नहीं था. अब्बू चाहते हैं कि मैं अभी प्लेसमेंट के बारे में न सोचूं और पीजी करूं. पीएचडी करूं. फिर किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर लग जाऊं.


     अब्बू का मानना है कि दुनिया में प्रोफेसर या शिक्षक से बढ़कर कोई नौकरी या काम नहीं है. कितनी इज़्ज़त मिलती है प्रोफेसरों को. जिन बच्चों को पढ़ाओ, एक तरीके से वे मुरीद बन जाते हैं....पीरों-फकीरों वाला पेशा है प्रोफेसरी. मुझे भी यही लगता कि मेहनत इस तरह की जाए कि मां-बाप  के ख़्वाब भी पूरे हों और भविष्य भी सुनिश्चित रहे.शिक्षक, वकील  या डॉक्टर कभी रिटायर नही होता...ताउम्र उनकी सेवायें ली जा सकती हैं.बुजुर्गों की दुआओं से वही हुआ और मैंने पीएचडी की, अन्य  अर्हताएं  प्राप्त  कीं  और  एक  मानद  विश्वविद्यालय में  सहायक प्राध्यापक बन गया.बाल-बच्चेदार  हो  गया... दुनियादार  हो  गया...समझदार हो गया...लेकिन दिल के कोने में एक बच्चा,एक किशोर,एक युवक हमेशा उत्सुकता से छिपा बैठा रहा. यही मेरी प्रेरणा है और यही मेरी ताकत.


      मैं अपनी खाला से मिलने काफी अरसे बाद आया था.अनूपपुर में बस-स्टेंड से लगा है खाला का घर. अम्मी के इंतेकाल के वक्त खाला मिलने आई थीं. लगभग दस साल बाद उन्हें देखा था. आसमानी रंग का सलवार-सूट पहने थीं वो जिस पर सफेद चादर से बदन ढांप रखा था उन्होंने. हमारे खानदान में बुरके का चलन नहीं है. मेरी अम्मी भी बुरका नहीं पहनती थीं. जिसे बुरा लगे या भला, मुझे बुर्के का काला रंग एकदम पसंद नही. जाने  कब  और  कहाँ  बुर्के  के  इस  प्रारूप का चलन शुरू हुआ...आजकल शहरों में लडकियां कितनी खूबसूरती से चेहरा ढाँपती हैं. एक  से  बढ़कर  एक  सुन्दर  से  स्कार्फ  मिलते  हैं. डिज़ाइनर-स्कार्फ. जिनसे चेहरा छुपता  तो  बखूबी  छुपता  है  लेकिन  लडकियाँ बुर्केवालियों  की  तरह  अजूबा  नही  दीखतींमेरा  उद्देश्य बुर्के  की  बुराई  करना  नही  है, लेकिन  खाला  के  घर  में  रुखसाना  को देख विचार यूँ ही भटकने लगे थे.


     मुझे अच्छी तरह मालुम था कि खाला के बेटे गुलज़ार भाई की शादी तो बहुत पहले खाला की रिश्तेदारी में ही कहीं हुई थी. फिर गुलज़ार  भाई  के पहले  बच्चे को जन्म  देने की बाद लम्बी   बीमारी के  बाद वह चल बसी थी. गुलज़ार   भाई  उसके  बाद दुकानदारी  और तबलीग  जमात के  काम किया  करते थे. एक   बार  हमारे  शहर  में  गुलज़ार  भाई आये थे एक तबलीगी जमात के साथ. शायद  चिल्ला  (चालीस दिन) का  इबादती   सफ़र  था. मैं  जुमा  की  नमाज़  के  लिए  वक्त   निकाल  ही  लेता  हूँ. जुमा के  जुमा  मुसलमानी का नवीनीकरण  करता रहता हूँ.मोहल्ले की मस्जिद में मासिक  चन्दा  भी  देता  हूँ. मस्जिद के इमाम,सदर-सेक्रेटरी  और  अन्य  नमाज़ी  मुझे  काफी  अदब से देखते हैं. मेरा  आदर  करते  हैं. विश्वविद्यालय  में  प्रोफेसर  होने के अलग फायदे हैं.समाज के हर तबके से  आदर मिलता है.


            तो गुलज़ार भाई ने फोन किया था कि तुम्हारे शहर में तबलीग के सिलसिले में आ रहा हूँ.इसमें जमात  छोड़ कहीं घूमने-फिरने की आज़ादी नही होती. इसलिए  संभव  हो  तो  मस्जिद  में  आकर  मिलो. जुमा  की  नमाज़  से  फारिग  होकर  हम  मिले. अजीबो गरीब  दीख  रहे  थे  गुलज़ार  भाई. पहले  कितने  हैंडसम  हुआ  करते थे वो...जींस और टी-शर्ट के  शौक़ीन... लेकिन  उस  दिन  मैं  उन्हें पहचान नही पाया...मेहँदी रची दाढ़ी, माथे पर काला निशान, गोल टोपी, लम्बा  सा  कुरता  और  उठंगा पैजामा….


          मैं हतप्रभ रह गया.वैसे मुसलमानों की ये परम्परागत पोशाक है.लेकिन अपने गुलज़ार भाई इस मुद्रा में मिलेंगे ऎसी उम्मीद नही थी. मुझे हंसी आई. गुलज़ार  भाई  गंभीर  दिखे  और  मुझसे  हाल-चाल  पूछने की जगह दुनियादारी त्याग कर समय रहते दीन के राह में  चलने  की  दावत देने लगे. तबलीग  जमात  में  लोगों  को  यात्रा  में  निकलने  की  गुजारिश करने को दावत देना' कहते  हैं. ये  प्रत्येक  तबलीगी  का  काम है कि वो मुसलमानों को दीन और  धर्म  का  पालन  करने  की दावत दें.उनसे घर छोड़ कर दीन की  राह  में  निकल  पड़ने  का  आग्रह  करें  और  गुमराही  में  भटकने  से बचा लें.तब  लीग  जमात  का  काम  सारी  दुनिया  में  ज़ारी  है. गुलज़ार  भाई  जैसे  धर्मप्रेमी  लोग  अपने जीवन में रसूल की सुन्नतें लाने के लिए...अपना आखिरत (परलोक)संवारने के लिए  तबलीग में दस या चालीस दिन के लिए घर छोड़ कर विभिन्न कस्बों-शहरों  की  मस्जिदों  में  कयाम  करते  हैं. सादा  जीवन,सादा भोजन और इबादतें करते रहते हैं. एक  चिल्ला  काटने  के  बाद  उनकी  दुनियावी  आदतों  में  दीन  ऐसा  पेवस्त  हो  जाता  है  कि  एक  तरह  से  उनका कायाकल्प  हो जाता है.   न  जाने  मुझे  क्यों  इन  तबलीगी  लोगों से चिढ होती है.घर-बार  छोड़  कर  इस्लामी जीवन पद्धति  सीखना  मुझे  पसंद  नही. दुनिया  की  रोज़मर्रा  की  उलझनों  के  बीच  रहकर  दीन पर  कायम  रहना  ज्यादाकठिन है.



       खैर...पत्नी के निधन के बाद इंसान में ऐसी तब्दीली आती होगी ऐसा मैंने  सोचा  था.मैंने  गुलज़ार  भाई  की  बातें  ध्यान  से  सुनी  थीं  और  हस्बे- मामूल  उन्हें यही जवाब दिया--इंशा-अल्लाहपहली फुर्सत  में एक  चिल्ला  मैं भी काटूँगा...अभी नौकरी नई है भाई साहेबथोड़ी मुहलत दें!


     बात आई-गई हुई. गुलज़ार भाई  से फिर  मेरी मुलाकात नही  हुई. आज  जब  खाला के घर में हूँ. रुखसाना  मेरे  सामने  है  तो  जाने  कितने  खयाल आ-जा  रहे  हैं. खाला  ने  मुझे  उस  दिन  जाने  न  दिया.मैं रुक गया.शाम की चाय खाला के साथ पी.फिर खाला पड़ोस में एक जनाना मीलाद में चली गईं.रुखसाना और मैं अकेले रह गये.इधर-उधर की बातें हुईं फिर मेरी जिज्ञासा ने जोर मारा और हम मुद्दे पर आ गए. रुखसाना  ने  झिझकते  हुए  जो  किस्सा  बताया  उसे  सुन  मेरे  होश  उड़  गए.ये रुखसाना की दूसरी शादी है.


     रुखसाना की पहली  शादी जिस युवक से हुईवो  अपने  पडोस  की  एक  हिन्दू  लडकी  से  प्यार  करता  था. युवक  ने घर  वालों  के  दबाव  में  आकर  रुखसाना  से  निकाह  तो  पढवा  लिया  था, लेकिन  उस  हिन्दू  लडकी से  अपना  संपर्क  नही  तोड़ा  था. और  एक  दिन  नगर  में  खबर  फ़ैल  गई  की  रुखसाना  का  शौहर  उस  हिन्दू  लडकी  को  लेकर  कहीं भाग गया है.नगर में हिन्दू मुस्लिम  फसाद  के  आसार  हो  गए. लडकी का परिवार नगर के संपन्न लोगों का था. बड़े  रसूख  वाले  लोग  थे वे लोग.

      रुखसाना के शौहर के खिलाफ लड़की भगा ले जाने का अपराध पंजीबद्ध हुआ.नगर के कई संगठन इस घटना से तिलमिलाए हुए थे. शुक्र है तब लव-जिहाद' शब्द उस कस्बे में नही पहुंचा था. हाँ, कुछ सिरफिरे ज़रूर इस केस को हवा देना चाह रहे थे. उनका मानना था कि मुसलमान लडकों में गर्मी ज्यादा होती है, तभी तो वे उंच-नीच नहीं देखते और ऐसी हरकतें कर बैठते हैं कि उन लोगों की ठुकाई का मन करता है.

     रुखसाना ने बताया कि ऐसे हालात बन गये थे कि यदि कोई भी पक्ष थोडा सा भी तनता तो फिर उस आग में सब कुछ जल कर भस्म हो जाता.खुदा का शुक्र था कि दोनों तरफ समझदार लोगों की संख्या अधिक थी. फिर  भी  कई  दिनों  तक  दोनों  पक्षों  में  तनातनी  बनी रही. दोनों  समुदाय  के  रसूखदार  लोगों  के  बीच  नगर  में  पंचायत  हुई. अब सुनते हैं की वे लोग घर से भागकर सूरत चले गये थे. युवक वहां किसी फैकट्री में काम करने लगा और दोनों सुकून से  दाम्पत्य  जीवन गुज़ार रहे हैं.और जो भी हुआ हो उसके आगे...लेकिन रुखसाना अपने मायके वापस आ गई.इनायत मास्साब ने रुखसाना के लिए आनन्-फानन रिश्ते खोजने लगे.



             उसी समय गुलज़ार भाई की बीवी का इन्तेकाल हुआ था. गुलज़ार  भाई  की  पहली बीवी  से  पैदा  संतान  अब  स्कूल  जाने  लगी  है. लेकिन  उस  समय  तो खाला को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा  था. ऐसे  में  मेरी  अम्मी  ने  खाला  से  रुखसाना  प्रसंग  पर  बात  की. रुखसाना  को  देखने  खाला आई थीं और उन्होंने रुखसाना को गुलज़ार भाई के बारे में, अपनी मृतक बहु के बारे  में और गुलज़ार भाई  की  नन्ही  सी  औलाद  के  बारे  में साफ़-साफ़ बता दिया था.


       रुखसाना शादी-ब्याह के मसले से उकता चुकी थी.इस नए रिश्ते के लिए मानसिक रूप से वह तैयार नही हो पा रही थी.वह घबरा रही थी, लेकिन फिर इनायत मास्साब की बुजुर्गियत, मोहल्ले  की  बतकहियाँ  आदि  ने उसे एक नया फैसला लेने दिया.और घुमा-फिरा कर रुखसाना का निकाह एक सादे समारोह में गुलज़ार भाई से हो गया.


        हम बहुत देर तक खामोश बैठे रहे और बेदर्द समय की हकीकत को महसूस करते रहे......


सम्पर्क:  टाईप 4/3, ऑफीसर्स कॉलोनी, बिजुरी
          जिला अनूपपुर .प्र.484440 

        फोन 09907978108

7 टिप्‍पणियां:

  1. सच, लव जिहाद जैसा कुछ भी नहीं । रुखसाना की व्यथा पढ़कर तो ऐसा ही महसूस हुआ। बहुत मानीखेज कहानी।

    जवाब देंहटाएं
  2. कहानी बेहद ही रोचक लगी लेकिन अचानक ही खत्म हो गयी। आशा थी कि अंत में कुछ सनसनीखेज होगा लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। कहानी साधारण है लेकिन कहानी के शब्द बहुत प्रभावी हैं। साथ, मुस्लिम जीवन पर भी प्रकाश डालते हैं। एक एक वाक्य से मुस्लिम संस्कृति की खुशबू आती है। अनवर जी की उर्दू - हिंदी भाषा पर अच्छी पकड़ मालूम होती है। सचमुच कहीं भी बोरियत महसूस नहीं हुई जैसा की आजकल की कहानी में छुटपुट कहीं न कहीं मिल जाती है। ऐसे में मन करता है की बस आज के लिए इतना ही, बाकी कल। लेकिन यहाँ उत्सुकता थी। अनवर जी की कहानी पढ़ने में स्वाद आया। शुक्रिया अनवर जी शेयर करने के लिए।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. भाई, शुक्रिया कहानी पर आपकी राय का स्वागत है...देखता हूँ अंत को कैसे मानीखेज बनाऊँ...कोशिश ज़रूर करूँगा ...सादर

      हटाएं
  3. बहुत बढिया, सहमत हूं कि कहानी का अंत थोडा प्रभावी होना था।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. ललित जी, धन्यवाद, मैं कोशिश करूँगा कि अंत को कुछ और आकार दूँ...सादर

      हटाएं
  4. Apne bhut hi badhiya trike se love jihad ko explain kiya hai, i agree with your point,
    publish ebook with onlinegatha, get 85% Huge royalty, send abstract free :Publish free ebooks

    जवाब देंहटाएं
  5. धन्यवाद सुहैल जी और ललित जी।

    जवाब देंहटाएं