सोमवार, 16 नवंबर 2015

संस्मरण -लौट के बुद्धू घर को आए (भाग-एक)-पद्मनाभ गौतम

 

    कवि मित्र पद्मनाभ गौतम के पहाड़ी अनुभवों को उनके संस्मरण - ‘ लौट के बुद्धू घर को आए ’  की  तीसरी किस्त-- । आपके विचारों की प्रतीक्षा में-
                                                                                     सम्पादक -पुरवाई 

     अगले दिन मार्ग खुल गया था। मैं कम्पनी की गाड़ी में कार्यालय पहुँचा। आज मेरे शरीर का पोर-पोर दुख रहा था। वह अफसर, जिसने मुझे सीढ़ीनुमा खेतों से होकर कार्यालय तक पहुंचाया था, अब मुझसे कुछ अजीब सा व्यवहार कर रहा था, जैसे उसका मेरे प्रति कोई पूर्वाग्रह हो। बहुत समय पश्चात् मुझे साफ हुआ कि वह मुझे डराकर रखना चाहता था। कारण था कार्य की जिम्मेदारियों में उस सहित कम्पनी के कुछ अफसरों की बेईमानियों का मार्ग मेरी कलम के नीचे से होकर गुजरना। इस कारण वह आरंभ से ही मुझे अपने काबू में रखना चाहता था।  

       अगले तीन-चार दिन मौसम साफ ही रहा। मैं आरंभिक व्यवस्थाओं में लगा था। इस बीच मैंने कम्पनी से मिले एक मकान में पलंग-आलमारी इत्यादि की व्यवस्था की, जिससे कि रामपुर में प्रतीक्षा कर रहे परिवार को भरमौर ला सकूँ। वैसे भी, अभी मेरी पत्नी मानसिक रूप से अकेले रहने के दृष्टिकोण से परिपक्व व अनुभवी नहीं थी। दूसरे, बिटिया केवल दो माह की थी। अतः अब शीघ्रातिशीघ्र रामपुर जाकर परिवार को साथ लेकर आना था।

      पर अभी यह मेरी चुनौतियों का आरम्भ ही था। कुछ दिनों तक आसमान साफ रहने के पश्चात् एक दिन बरसात हुई और उसके पीछे बर्फबारी होने लगी। पहले तो रुई के फाहों के समान हल्की-हल्की बर्फ गिरती रही। लोगों ने अनुमान लगाया कि एक-दो दिन में बर्फबारी रुक जाएगी। इसके विपरीत, आरंभिक एक-दो दिनों के पश्चात् बर्फबारी का जोर बढ़ गया। बर्फबारी से एक बार फिर मार्ग अवरुद्ध हो गया। मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि बर्फबारी रुके तो मार्ग खुलने पर मैं रामपुर-बुशैहर वापस जाऊँ। परंतु बर्फ का गिरना कम ही नहीं हो रहा था। फरवरी महीने की छठवीं तारीख तक भरमौर में चार-चार फुट बर्फ गिर चुकी थी। स्थानीय लोगों ने बताया कि पिछले एक दशक के पश्चात् ऐसी बर्फबारी देखी गई है। आगे कई दिनों तक मार्ग खुलता नहीं दिखाई पड़ रहा था।

           अब तक हमारे पास सब्जियाँ समाप्त हो गई थीं। मार्ग अवरुद्ध होने के कारण चम्बा से सब्जियों की खेप नहीं आ पाई। कम्पनी के मेस में केवल चावल तथा दाल ही बचा था राशन के नाम पर। सात फरवरी को प्रातः काल बिजली भी चली गई। अब मोबाईल में बैटरी का संकट था अर्थात् घर से संवाद का साधन भी हाथ से जाने वाला था। उधर रामपुर में परिवार पड़ोसियों के सहारे था। सात फरवरी की शाम को घर से फोन आया। पत्नी ने बताया कि घर में चोर घुसा था। यह सुनकर मेरे तो होश ही उड़ गए। कोढ़ में खाज इसे ही कहते हैं। अब परिवार की सुरक्षा का भी प्रश्न था। गनीमत थी कि पत्नी की पुकार सुन कर मुहल्ले वाले दौड़े तथा रात में ही चोर को पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया। किंतु अब मेरे मन में शांति नहीं थी। मेस में जाने पर देखा तो राशन का हाल खराब था। रसोइये ने सूचना दी कि गैस-सिलिंडर का स्टॉक भी समाप्त हो रहा है। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था। आगे जाने का मार्ग अवरुद्ध था। मेस में राशन नहीं था। बच्चे पराए शहर में पड़ोसियों के भरोसे। घर में चोरी की घटना। मेरा मन पूर्णतया विचलित था।

        पर यही तो पहाड़ों का असली जीवन है। हरे-भरे पहाड़, जो दूर से इतने सुंदर और दर्शनीय लगते हैं, उन पर जीवन उतना सहज नहीं। अत्यंत मनोरम व सुदर्शन दिखने वाले पर्वत कभी-कभी अत्यंत कठोर हो जाते है। जब आप पहाड़ पर घूमने आते हैं तो पहले-पहल सम्मोहित रह जाते हैं। अंग्रेजी वाले वाऽव का उच्चारण करते नहीं थकते, हिन्दी वाले अद्भुत का और उर्दू वाले   सुभानअल्लाह का। कुछ समय पश्चात् फिर मुँह से यह विस्मयादि बोधक व हर्ष सूचक शब्द निकलने बन्द हो जाते हैं। सानिध्य में कुछ और दिन बीतने पर पहाड़ वैसे ही लगने लगते हैं जैसे किसी मैदानी नगर का कोई सामान्य भौगोलिक दृश्य।  फिर आप पहाड़ों से लौट चलने का मन बना लेते हैं। यह अप्रतिम सौन्दर्य तब तक सौन्दर्य है, जब तक आप एक पर्यटक हैं। पर्यटक, जो सुखद वातावरण में पर्यटन कर प्राकृतिक सौंदर्य को मन में बसाए लौट जाता हैं। किंतु प्रतिकूल मौसम में पहाड़ों के असली जीवन के दर्शन मिलते हैं। जब बर्फबारी व भूस्खलन इत्यादि से मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, ऐसे में कोई यदि गम्भीर रूप से बीमार पड़ जाए तो उसे शीघ्रता से चिकित्सा सुविधा मिल पाना अत्यंत कठिन होता है। हृदयाघात या स्ट्रोक इत्यादि की स्थिति में तो मृत्यु अवश्यंभावी होती है। 

           सन् दो हजार आठ के फरवरी माह के उस दूसरे सप्ताह में पहाड़ मेरे सामने अपने असल भयावह रूप मे ंसामने खड़ा था। निराशा ने मुझे पूरी तरह से घेर लिया था। तभी आशा की एक किरण दिखी। कुछ स्थानीय कर्मचारी अगले दिन पैदल भरमौर से निकलने का विचार कर रहे थे। अब तक की सूचना के अनुसार भरमौर से केवल तेरह किलोमीटर आगे खड़ामुख तक मार्ग अवरुद्ध था। उसके आगे मार्ग खुला था। अतः प्रातः खड़ामुख तक पैदल चलने के पश्चात् चम्बा हेतु कोई न कोई टैक्सी मिल जाएगी, यह उनका विचार था। यह वे पहाड़ी लड़के थे, जो अपना एक अलग गुट बना कर चलते थे तथा मैदानी इलाकों से आए लोगों के साथ कम घुलते मिलते थें। उनका लीडर वह अधिकारी ही था, जिसने पहले दिन मुझे परियोजना कार्यालय पहुँचाया था। जाहिर है कि उन्होंने मुझे अपने साथ ले जाने में कोई रुचि नहीं दिखाई। परंतु मेरे लिए इतना ही पर्याप्त था। 

     रात के खाने के समय बातचीत करते हुए मेरे साथ एक दक्षिण भारतीय अधिकारी तथा ललितपुर का एक नौजवान इंजीनियर साथ चलने को तैयार हो गया। तय हुआ कि अगली सुबह हम तीनों पैदल चल पड़ेंगे। दिनांक आठ फरवरी को नाश्ता करके हम चलने को तैयार हुए। परियोजना निदेशक भटनागर साहब ने हमें बुजुर्गाना सलाह दी कि हम चुपचाप वहीं रहें और जो कुछ भी रूखा-सूखा है, वह खाकर अवरुद्ध मार्ग के खुलने की प्रतीक्षा करें। परंतु मैं घर पहुँचने को व्यग्र था तथा अब मुझमें इतना संयम नहीं बचा था कि रुक कर बर्फबारी के थमने की प्रतीक्षा करूँ। मेरी परिस्थिति अन्य थी। उधर मोबाईल की बैटरी भी अंतिम साँसे गिन रही थी। बिजली नदारद थी तथा उसके जल्द आने का कोई कारण नहीं दिख रहा था। अतः अब तो मुझे सारे खतरे उठाकर भी रामपुर पहुँचना था। कैसे भी, किसी भी कीमत पर।

                                              क्रमशः

पद्मनाभ गौतम

सहायक महाप्रबंधक

भूविज्ञान व यांत्रिकी

तीस्ता चरण-टप् जल विद्युत परियोजना

पूर्वी सिक्किम, सिक्किम

737134
संपर्क-
 द्वारा श्रीमती इन्द्रावती मिश्रा

स्कूल पारा बैकुण्ठपुर

जिला-कोरिया छ.ग.

497335


1 टिप्पणी: