समीक्ष्य पुस्तक - काफिल
का कुत्ता
चर्चित
युवा कहानी कार विक्रम सिंह का यह तीसरा कहानी संग्रह है।इससे पूर्व दो कहानी-संग्रह क्रमशः वारिस(2013)और ‘और
कितने टुकड़े’(2015) में आये और अपनी
उपस्थिति दर्ज कराई।
विक्रम
सिंह की कहानियाँ हमारे समाज व समय की
सच्चाई को दर्शाती है। संग्रह की पहली कहानी है ‘अपना खून’!पहाड़
व पहाड़ी-जीवन,परिवेश व
वहाँ की समस्याओं को लेकर बुनी हुयी एक बेहतरीन कहानी
को बड़े परिश्रम से लिखा है लेखक विक्रम सिंह
ने!कहानी शुरू होती है और कहानीकार
उपस्थित रहता है पूरी कहानी में!कहानी पढ़ते जाते हैं ,आँखे शब्द-दर-शब्द पढ़ती जाती है और दीमाग में दृश्य बनते जाते
हैं!कहानी में इतिहास का समावेश भी कहानी की
आवश्यकता के साथ वर्णित है और हमें हमारे बीते
वक़्त की याद को हरा कर जाते हैं!
कहानी के शुरूआत में उत्तराखंड़ राज्य के संघर्ष व पहाड़ो में ब्रिटिश के आगमन-गमन के ब्यौरे हैं,जो लेखक की इतिहास की रूची का उदाहरण हैं और कहानी की नीव भी!!ग्रामीण-जीवन छोटी बातों में ही जीवन को उत्सवमय बना लेते हैं!पहाड़ी परिवेश की असुविधा में अध्यापक,डॉक्टर या अन्य सरकारी सेवक जो जनता के लिये नियुक्त होते है,पर अपनी असुविधा को देखकर पलायन कर जाते हैं और पीछे वो जनता रह जाती है जो अभाव में जीने की आदी है!पोस्टमैन हरेक जगह के भ्रष्ट हैं!डाक की पूरी सामग्री हाथतक पहुंचाना कर्म है उनका पर उसके लिये नज़राना चाहिये होता है,कहानी में यह भी अनायास समझ में आता है,जब एक चिट्ठी के लिये दो रूपये ले लेता है पोस्टमैन इंदर से!
कहानी में जो एक और तथ्य है वह ये कि ,'प्राकृतिक खनिज व अन्य सम्पदा से परिपूर्ण जितने राज्य हैं वहां निर्धनता का स्थायी वास है,धन-सम्पदा का दोहन तो सरकारी नीतियों से लाभ लेनेवाले पूंजीपति उठा ले जाते है!इसलिये वहाँ की गरीब युवापीढ़ी अपने सपनों की होली जलाकर काम व धनोपार्जन के लिये दूर-दराज के क्षेत्रों में चले जाते हैं,जहाँ वे हाड़तोड़ परिश्रम करते हैं और मुआवजे के ऐवज में इतना ही पा पाते हैं कि,'मैं भी भूखा न रहूं,परिवार न भूखा सोय!'साधू के लिये कुछ नहीं बच पाता!आगे जो कहानी है वह शीर्षक के हिसाब से है!आज के समाज में भी लोगों को संतान और वह भी पुत्र की इच्छा प्रबलता से घेरे हुये है!और इसी चाह में नायिका फंसती है और कहानी भावपूर्ण होती जाती है!कहानी में दो जगह लेखक का विद्रोही स्वर मुखर होता है!!
"मेरे हुलिये पर हंस पड़ा था कोई,रो दिया मेरी शायरी सुनकर!''
संग्रह की दूसरी कहानी शीर्षक कहानी है ‘काफिल का कुत्ता ‘। फैज अहमद फैज साहब के बेहतरीन शेर के साथ कहानी की शुरुआत होती है।कहानी की शुरुआत एक कॉलोनी से होती है। जैसा कि अमूमन होता है, किसी भी नई बस्ती में कुत्तों की संख्या अधिक होती है; वह भी आवारा कुत्तों की। कहानीकार कुत्तों और मनुष्य का तुलनात्मक अध्ययन कर पाता है कि,’ मनुष्य भी वास्तव में कुत्ता ही है जो धनिक नामक बड़े कुत्ते की गुलामी करने को विवश है।‘ व्यंग्यात्मक संस्मरण की तरह कहानी आरंभ होती है।“जिस अनुपात में पिल्ले खत्म हुए थे उस अनुपात में हम सब जिंदा थे कुत्ते की भूमिका बस सहवास तक ही थी उसका पालने से कोई मतलब नहीं था।“ दो दशक पहले की बस्तियां कैसी थी? वहां क्या-क्या हलचलें हो रही थी? इन सब का बहुत सुंदर चित्रण कहानीकार ने किया है। वास्तव में किसी कहानी का सूत्रधार स्वयं कहानी कार होता है।ठीक वैसे ही इस कहानी में भी सूत्रधार के रूप में कहानीकार मौजूद है। जो समय-समय पर अपनी मौजूदगी को दर्शाते जाते हैं जिससे कहानी की विश्वसनीयता बढ़ती है। एक समय के पश्चात बचपन समाप्त हो जाता है। किशोरावस्था का अवसान हो जाता है।और रोजगार की समस्या हमारे सामने सुरसा के मुंह की तरह बाए खड़ी मिलती है।तब हमें पता चलता है वास्तविक दुनिया का।तब युवाओं को घर छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ता है रोजगार के लिए:- “कुत्तों के पिल्लों की तरह कॉलोनी से लड़के खाली हो रहे थे।... हां वह मर नहीं रहे थे मर मर के जी रहे थे।“ कहानी में प्रेम प्रसंग भी यथा समय आता है पर वह गौण है। हमारी शिक्षा व्यवस्था रोजगार के अवसर प्रदान नहीं करती है।
कहानी के शुरूआत में उत्तराखंड़ राज्य के संघर्ष व पहाड़ो में ब्रिटिश के आगमन-गमन के ब्यौरे हैं,जो लेखक की इतिहास की रूची का उदाहरण हैं और कहानी की नीव भी!!ग्रामीण-जीवन छोटी बातों में ही जीवन को उत्सवमय बना लेते हैं!पहाड़ी परिवेश की असुविधा में अध्यापक,डॉक्टर या अन्य सरकारी सेवक जो जनता के लिये नियुक्त होते है,पर अपनी असुविधा को देखकर पलायन कर जाते हैं और पीछे वो जनता रह जाती है जो अभाव में जीने की आदी है!पोस्टमैन हरेक जगह के भ्रष्ट हैं!डाक की पूरी सामग्री हाथतक पहुंचाना कर्म है उनका पर उसके लिये नज़राना चाहिये होता है,कहानी में यह भी अनायास समझ में आता है,जब एक चिट्ठी के लिये दो रूपये ले लेता है पोस्टमैन इंदर से!
कहानी में जो एक और तथ्य है वह ये कि ,'प्राकृतिक खनिज व अन्य सम्पदा से परिपूर्ण जितने राज्य हैं वहां निर्धनता का स्थायी वास है,धन-सम्पदा का दोहन तो सरकारी नीतियों से लाभ लेनेवाले पूंजीपति उठा ले जाते है!इसलिये वहाँ की गरीब युवापीढ़ी अपने सपनों की होली जलाकर काम व धनोपार्जन के लिये दूर-दराज के क्षेत्रों में चले जाते हैं,जहाँ वे हाड़तोड़ परिश्रम करते हैं और मुआवजे के ऐवज में इतना ही पा पाते हैं कि,'मैं भी भूखा न रहूं,परिवार न भूखा सोय!'साधू के लिये कुछ नहीं बच पाता!आगे जो कहानी है वह शीर्षक के हिसाब से है!आज के समाज में भी लोगों को संतान और वह भी पुत्र की इच्छा प्रबलता से घेरे हुये है!और इसी चाह में नायिका फंसती है और कहानी भावपूर्ण होती जाती है!कहानी में दो जगह लेखक का विद्रोही स्वर मुखर होता है!!
"मेरे हुलिये पर हंस पड़ा था कोई,रो दिया मेरी शायरी सुनकर!''
संग्रह की दूसरी कहानी शीर्षक कहानी है ‘काफिल का कुत्ता ‘। फैज अहमद फैज साहब के बेहतरीन शेर के साथ कहानी की शुरुआत होती है।कहानी की शुरुआत एक कॉलोनी से होती है। जैसा कि अमूमन होता है, किसी भी नई बस्ती में कुत्तों की संख्या अधिक होती है; वह भी आवारा कुत्तों की। कहानीकार कुत्तों और मनुष्य का तुलनात्मक अध्ययन कर पाता है कि,’ मनुष्य भी वास्तव में कुत्ता ही है जो धनिक नामक बड़े कुत्ते की गुलामी करने को विवश है।‘ व्यंग्यात्मक संस्मरण की तरह कहानी आरंभ होती है।“जिस अनुपात में पिल्ले खत्म हुए थे उस अनुपात में हम सब जिंदा थे कुत्ते की भूमिका बस सहवास तक ही थी उसका पालने से कोई मतलब नहीं था।“ दो दशक पहले की बस्तियां कैसी थी? वहां क्या-क्या हलचलें हो रही थी? इन सब का बहुत सुंदर चित्रण कहानीकार ने किया है। वास्तव में किसी कहानी का सूत्रधार स्वयं कहानी कार होता है।ठीक वैसे ही इस कहानी में भी सूत्रधार के रूप में कहानीकार मौजूद है। जो समय-समय पर अपनी मौजूदगी को दर्शाते जाते हैं जिससे कहानी की विश्वसनीयता बढ़ती है। एक समय के पश्चात बचपन समाप्त हो जाता है। किशोरावस्था का अवसान हो जाता है।और रोजगार की समस्या हमारे सामने सुरसा के मुंह की तरह बाए खड़ी मिलती है।तब हमें पता चलता है वास्तविक दुनिया का।तब युवाओं को घर छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ता है रोजगार के लिए:- “कुत्तों के पिल्लों की तरह कॉलोनी से लड़के खाली हो रहे थे।... हां वह मर नहीं रहे थे मर मर के जी रहे थे।“ कहानी में प्रेम प्रसंग भी यथा समय आता है पर वह गौण है। हमारी शिक्षा व्यवस्था रोजगार के अवसर प्रदान नहीं करती है।
आज के युवा
बेहतर आजीविका की तलाश में खाड़ी देशों की ओर
पलायन करते हैं। उन्हें वहां प्रकाश जवान दिखता
है।यहां से वहां जाकर वे वहां के घनीभूत अंधेरों में फँस जाते हैं। वहां जाकर वहां के शोषक मालिकों की गिरफ्त में फंसकर उनका पूरा
जीवन नष्ट हो जाता है। अक्सर हम जीवन में जो देखते
हैं वह दृश्य वैसे ही नहीं होते। मृगमरीचिका
का भ्रम अक्सर रेत के विशाल मरुस्थल में ही होता है। एक मोटी
रकम
की व्यवस्था के पश्चात विदेश जाने की जुग तंत्र की है। कहानी खाड़ी देश में गए कामगरो के दुखद व कष्टमय जीवन का सटीक बयान
है।बड़ा कर्ज लेकर कमाने गये युवकों की
विवशता उस कर्जषको चुकाने की भी होती है। और वहाँ की कानून-व्यवस्था
भी उन्हीं के विरोध में होती है सो चाहकर भी वे कुछ नहीं कर पाते।
खाड़ी देश में काम करने गया युवा वास्तव में वहां के धनीको का कुत्ता बनकर रह जाता है।
“दरे गैर पर भीख मांगों न फन की। जब अपने ही घर में खजाने बहुत हैं। “नौशाद
सच कितने धारदार है उनसे न पूछिये:-गोरख पाण्डेय संग्रह की अगली कहानी बद्दू है। कहानी का आगाज अदम साहब के शानदार शेर से होती है कहानी वे किसानी और काम गरी के साथ-साथ अन्य विषयों व कथा वस्तु का समावेश हुआ । 2 पीढ़ियों के अंतराल में समाई कहानी कई महत्वपूर्ण सवालों से जूझती है। और समाधान भी प्रस्तुत करती है ।पलटन व तारकेश्वर गांव से कोयला खदान की ओर काम की तलाश में जाते हैं तारकेश्वर वही जम जाता है और पलटन गांव वापस आ जाता है।कालांतर में परिस्थितियां ऐसी हो जाती है कि नौकरी वालों की तनख्वाह में आशातीत बढ़ोतरी होती है अन्य सुख-सुविधाओं के साथ। जिससे वे मालामाल हो जाते हैं और खेती करने वाले किसान निर्धनता की अतल गहराईयों की ओर सरकते जाते हैं। परिस्थितियाँ पलटती जाती हैं समय के साथ।पलटन अपनी भूमि तारकेश्वर को बेचता है। इस कहानी में भी शिक्षा व्यवस्था व उसका रोजगार उन्मुख न होने के कारण फैली बेरोजगारी की विशाल समस्या पर प्रकाश स्वतः पड़ता है ।“ जब नौकरी काम करने वालों को ही मिलती है तो क्यों सरकार फालतू का BA,B.Com पढा रही है। जमाना अब इतिहास भूगोल का नहीं रह गया है।“पृष्ठ-84
पलटन को अपनी जमीन बेचनी पड़ती है क्योंकि वह अपने बेटे धनंजय को खाड़ी देशों में काम के लिए भेजना चाहता है पर उसे जमाने की चालबाजियों और हकीकत का पता नहीं होता पूरी तैयारी के साथ पलटन अपने बेटे धनंजय के साथ मुंबई इंटरव्यू के लिए पहुंचाता है इस विशालकाय समुद्र में कई लोग विदेश जाने के लिए गोता लगा रहे हैं बड़ी बड़ी शार्क व व्हेल जैसी मछलियां निगलने के लिए तैयार थी”।पृष्ठ-85
आखिर यही सत्य है। विदेश में जाकर काम करने को उत्सुक वॉव को युवाओं को अपने ही देश में रोजगार की संभावनाओं को स्वयं ही पैदा करना होगा धनंजय वहां जाकर फँस तो जाता है पर देव कृपा से वह वापस आने में कामयाब हो जाता है।कई ऊहापोहो से गुजरती कहानी को समाधान मिल जाता है कि,’सही दिशा में परिश्रम कर रोजगार व धन दोनों को प्राप्त किया जा सकता है।‘
संग्रह की चौथी कहानी ‘आवारा अदाकार’ है।कहानी कस्बे का और दो दशक पूर्व के कस्बाई जीवन का जीवन्त चित्रण है। प्रेम और वह भी निश्छल हो तो सार्थकता की सीमा के पार तक जाता है। पर परिणाम तक नहीं पहुँच पाता।गुरूवंश ऐसे ही अपने प्यार को पाने के लिये जीवन और समाज के महासागर में गोते लगाता है पर बहुत प्रयास के पश्चात भी सफल नहीं हो पाता और सिनेमा की चकाचौंध से भरी दुनियाँ में अटक जाता है सुखमय भविष्य की कल्पना लिये।कहानी में पढ़े-लिखे बेरोजगार युवाओं की मनःस्थिति को बाखूबी शब्द-रूप दिया है लेखक ने।इस कहानी में पुरानी कहावत चरितार्थ होती है,’पढ़े फारसी बेचे तेल।देखो भाई करम के खेल।।‘गुरूवंश के रूप में लेखक ने एक ऐसा चरित्र गढ़ा है जो तमाम योग्यताओं के बावजूद निम्न से निम्न कार्य करने में संकोच नहीं करता।इससे यह संदेश भी प्राप्त होता है कि मात्र पढ़कर ही रोजगार के अवसर के भरोसे नहीं रहना चाहिए अपितु अवसरों का स्वयं निर्माण करना चाहिए।प्रयास सतत् करते रहना चाहिये,सफलता-असफलता के परिणाम को परे धकेलकर।कस्बे व महानगरीय दृश्यों का सटीक बयान भी है। अभिनय की रंगीन व चकाचौंध दुनियाँ में कई हीरे अपनी चमक पूरी बिखेर नहीं पाते,ऐसे ही अनाम और गुमनाम कलाकारों की श्रेष्ठ कहानी है।
अंतिम कहानी ‘रास्ता किधर है ‘में कहानीकार उस दुविधा का हल खोजने की कोशिश मे है कि ग्रामीण जीवन और शहरी जीवन में विवाह की कौन सी रीति सफल है?
हम जिन कामों में खुश होते हैं उन्ही कामों पर अपने बच्चों पर पाबंदी लगा देते हैं।जैसा कि इस कहानी में भी है।बाप एक ब्याहता पत्नी की मौजूदगी के बावजूद दूसरी स्त्री से तमाम सम्बन्ध कायम रखता है पर अपनी पुत्री पर प्यारन करने की पाबंदी। जिस घर में लड़की होती है उस घर के माँ-बाप की जिम्मेदारी में ओवरटाइम का समय मुफ्त में जुड़ जाता है।इसी चिन्ता के साथ कहानी आरम्भ होती है। पंजाब की पृष्ठभूमि पर आधारित है कहानी सो नशा अनिवार्य है,एक समस्या के रूप में।पर यदि माँ-बात व नजदीकी रिश्तेदार चौकन्ने हो तो इस समस्या को नेस्तनाबूत किया जा सकता है।
महिलाओं के आर्थिक रूप से समृद्ध होने की थीम को लेकर बुनी हुई एक बेहतरीन कहानी से रूबरू होते हैं हम,’अभी तुम्हारा वक़्त पढने-लिखने का है।तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा होना है। .....अगर तुम्हें डबलू से इतना ही प्यार है तो अभी उसे कहो कि वह अच्छी नौकरी की तैयारी करे ताकि शहर में अच्छा घर लेकर तुम्हें अच्छे से रख सके।...तुम भी पढ-लिखकर आत्मनिर्भर बनो क्योंकि पत्नी को हर मोड़ पर अपने पति का हाथ बटाने के लिये आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है। ‘पृष्ठ-125
विक्रम सिंह की कहानियाँ हमारे समाज व समय की सच्चाई को दर्शाती हैऔर कहानीकार के पास जीवन का विस्तृत व गहरा अनुभव है जो इन कहानियों में आया है। साधुवाद विक्रम सिंह को इन कहानियों के लिए।
संपर्क सूत्र-
रामप्रसाद
राजभर,अल्फा स्टील,अर्नोस नगर,वेलूर साउथ,तृश्शूर-680601,केरल।
काफिल
का कुत्ता-विक्रम सिंह,
अमन
प्रकाशन,कानपुर।
फोन नम्बर-9839218516,8090453647,
मूल्य
₹150/=
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