दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान ,कादम्बनी,वागर्थ ,बया ,इरावती प्रतिलिपि डॉट कॉम , सिताबदियारा ,पुरवाई ,हमरंग आदि में रचनाएँ प्रकाशित
2001 में बालकन जी बारी संस्था द्वारा राष्ट्रीय युवा कवि पुरस्कार
2003 में बालकन जी बारी संस्था द्वारा बाल -प्रतिभा सम्मान
आकाशवाणी इलाहाबाद से कविता , कहानी प्रसारित
‘ परिनिर्णय ’ कविता शलभ संस्था इलाहाबाद द्वारा चयनित
2001 में बालकन जी बारी संस्था द्वारा राष्ट्रीय युवा कवि पुरस्कार
2003 में बालकन जी बारी संस्था द्वारा बाल -प्रतिभा सम्मान
आकाशवाणी इलाहाबाद से कविता , कहानी प्रसारित
‘ परिनिर्णय ’ कविता शलभ संस्था इलाहाबाद द्वारा चयनित
अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’ की कविताएं
1- माँ माँ तो आखिर माँ होती है
नित निदाघ - सा जलता जीवन
खोज रहा होता जब जलकन
अपने शीतल स्पर्शों से
ताप सभी पल में हर लेती
ममता का अंकुर बोती है
माँ तो आखिर माँ होती है
दे हाँथों का संबल अपने
जीवन का पथ दिखलाती है
अपने आशाओं की बलि कर
सपने मेरे खिलवाती है
सारे सुख मेरे हिस्से कर
अपने हिस्से दुःख ढोती है
माँ तो आखिर माँ होती है
बन कुम्हार आकार सँजोती
खट्टी - मीठी थपकी देकर
रोने पर रो देती मेरे
हँसने पर मेरे हँसती है
पल को मेरे मोती करने
अपने कितने कल खोती है
माँ तो आखिर माँ होती है
खुद खा लेती रूखा -सूखा
देख सके ना हमको भूखा
मेरे मन का ख्याल हमेशा
कभी ना अपने मन का बूझा
पूरे घर की पीड़ा हरती
रात -रात भर कब सोती है ?
माँ तो आखिर माँ होती है
कितने अरमानों से पाला
इक दिन साहेब लाल बनेगा
घोड़ी चढ़ दुल्हन लायेगा
पग -पग उसके साथ चलेगा
पर, घर का कोना बनकर माँ
आँसू से सपने धोती है
माँ तो आखिर माँ होती है
तेरे सुख में ही, मेरा सुख
सूनी आँखें कहती हैं
आँचल के कोने में गुजरा
बचपन ढूँढा करती है
इंतज़ार में थककर अकसर
वह चुपके, छुपके रोती है
माँ तो आखिर माँ होती है
सम्पूर्ण सृष्टि का कण पावन
माँ की महिमा का भास है
जीवन -रण में ,माँ विमल-विजय
हर हारे मन की आस है
समता ,ममता अखिल विश्व की
छाँव कहाँ माँ आंचल – जैसी ?
धधक रहे चूल्हे से निकली
माँ सोंधी रोटी होती है
माँ तो आखिर माँ होती है |
2-जब जी भरकर रो लेता हूँ !
जब जी भरकर रो लेता हूँ ,
थोड़े आँसू खो देता हूँ
और रुमालों से होती, आँखों की अनबन ,
तब थोड़ा हल्का होता मन
रेखाओं -सी आड़ी- तिरछी
सम्बन्धों की परिभाषा
कतराता हूँ, सबसे हाथ मिलाने में
जाने कौन लकीर उतारे ,
रिश्तों की सारी पहरन
आने दो सूरज को, भीगी गलियों में
सीली-सीली हवा जरा सा कम होगी
छंट जायेगा पड़ा कुहासा देहरी का
होगी ख़त्म चिरागों के लौ की कम्पन
भीगे पल ने कह डाली सब मनबीती
पल विस्तृत जीवन का, बौना कर डाला
बोल कहाँ,नवजात सरीखा पाता है
दर्द समोए सदियों का यूँ मन - बचपन |
3 - जब भी अम्मा मुझे सुलाती है.....
कितने छांवों की गठरियाँ लेकर ,
धूप आँगन में मेरे आती है ,
जेठ की तप रही दुपहरी भी
गीत मधुमास लिए गाती है
फूल होंठों पे उंगलियाँ रखते
जब भी अम्मा मुझे सुलाती है
सम्भाले आज भी डगमग ,
वो मेरे पांवों को
भांप लेती पलों में ,
मन के छुपे भावों को
ठहाकों में उड़ा देती
वो धुंधली आँख के बादल
भरी गागर दुखों की माँ
सदा मुझसे छुपाती है
निदरबन से बुला निदिया
पकड़ चंदा, दिखा तारे
सभी को जोड़कर बहती
वो रिश्तों की नदी प्यारे
बने सागर, सकल जीवन
सदा हमको सिखाती है
कटोरी दूध ,जी भरकर
बतासे की मिठासों से
दिखाकर डर कभी म्याऊं
कभी कौवा की दे झिड़की
भकाऊं को बुलाकर के
घुटुक मुझको कराती है
उठा पुचकारती है
धूल करती साफ़ आंचल से
हँसाती जोर खड़काकर
किंवाड़ों और सांकल से
कभी तितली उड़ा देती
ये कह नाजुक हैं पर उसके
कहानी खुद बना, झट से
तो लोरी को, कभी रटके
सुकूँ की नींद हो मेरी
मलय-सा गुनगुनाती है
हमारे स्वप्न गुल्लक को
भरा रखने की खातिर ही
समय की धूप में तपतीं
वो आँखें रीत जाती हैं
कभी माँ याद आती है
कभी माँ भूल जाती है
इसी लुक्का -छिपी में
जिन्दगी का सच बताती है |
संपर्क सूत्र-
ग्राम- खेमीपुर, अशोकपुर , नवाबगंज जिला गोंडा , उत्तर - प्रदेश
मोबाईल न. 8826957462 mail-
singh.amarpal101@gmail.com
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