हदों का सवाल है
बवाल ही बवाल है
दिल्ली या लाहौर क्या
सबका एक हाल है
कलजुगी किताब में
हराम सब हलाल है
कैसे बचेगी मछली
पानी खुद इक जाल है
भेड़िए का जेहन है
आदमी की खाल है
अंधेरे बहुत मगर
हाथ में मशाल है
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शिकवा करोगे कब तक
बेजॉं रहोगे कब तक
माथे पे हाथ रख कर
रोते रहोगे कब तक
निकलो भी अब कुंए से
सोचा करोगे कब तक
ये खेल आग का है
डरते रहोगे कब तक
उटठो कि निकला सूरज
सोते रहोगे कब तक
शेरो-सुख़न में ‘अनवर’
सपने बुनोगे कब तक
अनवर सुहैल