श्री सुशांत सुप्रिय हिन्दी, पंजाबी और अंग्रेज़ी में लिखते हैं. हत्यारे , हे राम , दलदल इनके कुछ कथा संग्रह हैं, अयोध्या से गुजरात तक और इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं इनके काव्य संकलन. इनकी कई कहानियाँ और कविताएँ विभिन्न भाषाओं में अनूदित होचुकी हैं. अनेक कहानियाँ कई राज्यों के स्कूलों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं, कविताएँ पूणे विश्व-विद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हैं और विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोधार्थी इनकी कहानियों पर शोध कर रहे हैं. भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा इनकी रचनाएँ पुरस्कृत की गई हैं. कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई )में लगातार दो वर्ष प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किये गए.
कहानी : इंडियन काफ़्का - सुशांत सुप्रिय
मैं हूँ , कमरा है ,
दीवारें
हैं , छत है , सीलन है , घुटन है ,
सन्नाटा
है और मेरा अंतहीन अकेलापन है । हाँ , अकेलापन , जो
अकसर मुझे कटहे कुत्ते-सा
काटने को दौड़ता है । पर जो मेरे अस्तित्व को स्वीकार तो करता है । जो अब मेरा एकमात्र शत्रु-मित्र है ।
खुद में बंद मैं खुली खिड़की के पास जा
खड़ा होता हूँ । अपनी अस्थिरता का
अकेला साक्षी । बाहर एड्स के रोगी-सी मुरझाई शाम मरने-मरने को हो आई है । हवा चुप है । सामने पार्क में खड़े ऐंठे पेड़ चुप
हैं । वहीं बेंच पर बैठे रोज़ बहस करने वाले
दो सठियाए ख़बीस बूढे चुप हैं । बेंच के नीचे
पड़ा प्रतिदिन अपनी ही दुम से झगड़ने वाला आवारा कुत्ता चुप है । एक मरघटी उदासी आसमान से चू-चू कर चुपचाप सड़क की छाती पर बिछती
जा रही है । और सड़क चुप्पी की केंचुली उतार
फेंकने के लिए कसमसा रही है ।
साथ वाले आँगन से उड़ कर मिस लिली की
छटपटाती हँसी स्तब्ध फ़िज़ा में फ़्रीज़
हो जाती है । तभी नशे में धुत्त एक अजनबी स्वर भेड़िए-सा गुर्राता
है । मिस लिली की हँसी अब पिघलने लगती है ।
मुझे अचानक लगता है जैसे मैं ऊब कर
ढेर-सी उल्टी कर दूँगा । पर वैसा कुछ
नहीं होता । खिड़की से नाता तोड़ कर मैं चारपाई से रिश्ता गाँठ लेता हूँ । चाहता हूँ , कुछ
गुनगुनाऊँ । पर कोई ' नर्सरी-राइम ' भी याद नहीं आती । अनायास ही मेरी उँगलियाँ मेरी पुरानी कलाई-घड़ी में
चाबी देना चाहती हैं , पर
वह पहले से ही फ़ुल है । हाथ दो हफ़्ते लम्बी दाढ़ी खुजलाने लगते हैं । दाढ़ी कड़ी है । चुभती है । जेब से सिगरेट-पैकेट
निकालता हूँ । लाइटर भी । सुलगाता हूँ । सुलगता
हूँ । सिगरेट मुझे कश-कश पीने लगती है । मैं
सिगरेट को पल-पल जीने लगता हूँ । भीतर कहीं कुछ जलने लगता है । राहत मिलती है । क्षणिक ही सही । कल गुप्ता को नई स्टोरी देनी है ।
नया फ़ीचर लिखना है अखबार के लिए , पर
कुछ नहीं सूझता है । विचारों के उलझे धागे में अनगिनत
गाँठें पड़ी हैं । झुटपुटे में पल सुलगते हैं और दम तोड़ते जाते हैं । और सिगरेट के राख-सी तुम्हारी याद झरने लगती है ...
ओ
नेहा , तुम कहाँ हो ?
" यार ,
क्या
ऑर्ट-मूवी के पिटे हीरो-सी शक्ल बना रखी है ! शेव क्यों नहीं करते ? "
मैं और नेहा ऐन. ऐम. पैलेस में
लगी फ़िल्म ' क़यामत से क़यामत तक
' देख
कर निकले थे । सर्द शाम थी । यूनिवर्सिटी गेट पर थ्री-वहीलर से उतर कर हम गर्ल्स-हॉस्टल की ओर बढ़ रहे थे । मूवी के बारे में
बातें हो रही थीं । तभी नेहा ने कहा था ,
" कल
मिस्टर मजनू यानी तुम अपनी दाढ़ी शेव करके
आओगे , समझे ? "
" जानती हो ,
दाढ़ी
में आदमी इंटेलेक्चुअल लगता है । "
" दाढ़ी में
आदमी बंदर लगता है । डार्विन का बंदर ... "
सिगरेट का बचा हुआ हिस्सा
उँगलियों को जलाने लगता है । मेज पर पड़ी
कई दिन पुरानी जूठी तश्तरी को को ऐश-ट्रे बना उसे बुझा देता हूँ । एक और सींझी हुई रात मुझे आ दबोचेगी । इस
अहसास से बचने की एक अधमरी कोशिश करता
हूँ । ट्रांजिस्टर का स्विच ऑन कर देता हूँ ।
" यह आकाशवाणी
है । अब आप क्लेयर नाथ से समाचार सुनिए ... "
खीझ कर बंद कर देता हूँ
ट्रांजिस्टर । हुँह् ! समाचार ! रक्तचाप और
बढ़ जाएगा समाचार सुनने से । वही वाहियात ख़बरें । सोचता हूँ -- हर सुबह अनाप-शनाप ख़बरों से भरे अख़बार कैसे धड़ाधड़ बिक जाते
हैं । नेहा को भी अख़बार से चिढ़ थी ।
" ... फिर ?
क्या
सोचा है ? आगे क्या करोगे ? " हम दोनों '
बॉटैनिकल
गार्डन ' में टहल रहे थे । मैंने उसके बालों में एक सफ़ेद गुलाब लगा दिया था । और उस पर झुकते हुए उसे चूम लिया था । पर वह
आशंकित लगी थी ।
" क्या बात है ,
नेहा
? "
और तब उसने पूछा था -- "
फिर ? क्या सोचा है ? आगे क्या करोगे ? " मैं
कुछ देर चुप रहा था । समय धड़धड़ा कर आगे बढ़ रहा था । फिर मैंने कहा था , " सोचता हूँ , कोई
अख़बार ज्वाएन कर लूँ । "
" अख़बार ?
" उसका
चेहरा अजनबी हो आया था । उसके चेहरे पर कई भाव
आए-गए थे । हवा में उसके अनकहे शब्दों की गूँज थी । उसने ज़ोर देकर कहा था , " क्या आर्ट मूवी के पिटे हीरो जैसी बातें
कर रहे हो । किसी प्रतियोगिता-परीक्षा
में क्यों नहीं बैठते ? "
हवा
शांत-विरोध से बजने लगी थी ...
विचारों का
मकड़-जाल मुझे अॉक्टोपस-सा जकड़ने लगता है । झटक देता
हूँ उन्हें । पर नहीं झटक पाता हूँ अपनी बेबसी और लाचारी को । और अपने अंतहीन अकेलेपन को ।
ऊब कर एक और
सिगरेट सुलगा लेता हूँ । बौराए समय से बचने के लिए
कमरे में निगाह दौड़ाता हूँ । शाम के झुटपुटे में एक पूँछ-कटी छिपकली दीवार को नापने की तमन्ना लिए इधर से उधर भाग रही है । नादान ।
खुद ही थक-हार कर दुबक जाएगी किसी कोने में ।
एक लम्बा कश
लेता हूँ । और धुएँ को भीतर तक बंद रहने देता हूँ ।
मज़ा आता है , कहीं भीतर तक खुद को झुलसा लेने में । खाँसी का एक दौरा पड़ता है । तकलीफ़देह । पर सिगरेट मुझे पीती रहती है । और मैं
उसे जीता रहता हूँ । अच्छा भाईचारा है
मेरा और सिगरेट का कमबख़्त । सीने में सुइयाँ-सी
चुभती हैं और दर्द यह अहसास दिला जाता है कि मैं अभी ज़िंदा हूँ । अभिशप्त हूँ जीने के लिए इसकी-उसकी शर्तों पर । अचानक मुझे याद
आता है कि मैं पिछले कुछ वर्षों से खुल कर
हँसा नहीं हूँ । पर खुद से क्षमा-याचना भी नहीं
कर पाता हूँ मैं ।
एक मुरझाई
मुस्कान चेहरे पर आ कर सट जाती है । चेहरे की स्लेट से
उसे पोंछ कर मैं खिड़की से बाहर झाँकता हूँ । एक और सिमसिमी शाम ढल चुकी है । रोशनी एक अंतिम कराह के साथ बुझ चुकी है । एक और
पसीजी रात मटमैले आसमान की छत से उतर कर
मेरे सलेटी कमरे में घुसपैठ कर चुकी है । उसी कमरे
में जहाँ मैं हूँ , दीवारें हैं , छत है ,
सीलन
है , घुटन है , सन्नाटा है और मेरा अंतहीन अकेलापन है ।
हाँ , अकेलापन । मेरा एकमात्र शत्रु-मित्र
।
झुके हुए
झंडे-से उदास पल मुझे घेर लेते हैं । दूसरी सिगरेट भी
साथ छोड़ जाना चाहती है । कल गुप्ता को अखबार के लिए कौन-सा फ़ीचर दूँगा , पता
नहीं । कुछ सूझ ही नहीं रहा । भीतर केवल एक मुर्दा हलचल भरी है । लगता है , यह नौकरी भी छूट जाएगी ।
बाहर एक
अभागी टिटहरी ज़ोर-ज़ोर-ज़ोर से चीख़ कर सन्नाटे का ट्यूमर
फोड़ देती है । शोर का मवाद रिसने लगता है । दूर किसी मुँहझौंसे कारख़ाने का भोंपू उदास सिम्फ़नी-सा बज उठता है । पड़ोस में
मिस लिली का दरवाज़ा फ़टाक से बंद होने की
आवाज़ कुछ देर स्तब्ध फ़िज़ा में जमी रहती है ।
फिर एक शराबी स्वर रुखाई से सीढ़ियों को कुचल कर अँधेरे में गुम जाता है । पार्क में पड़ा आवारा कुत्ता ऊँचे स्वर में रो उठता है । मिस
लिली के यहाँ से पियानो की मातमी धुन
रह-रह कर गूँज जाती है ।
भीतर-बाहर के
माहौल की मनहूसियत के विरोध में मैं हवा को एक अशक्त
ठोकर मारता हूँ । और खिड़की से बाहर सिगरेट का ठूँठ फेंक कर वापस चारपाई पर आ बैठता हूँ । किसी पर-कटी गोरैया-सा लुटा महसूस
करता हूँ । पता नहीं क्यों ,
नेहा
, आज
तुम बहुत याद आ रही हो ...
" आई. ए. एस.
का फ़ॉर्म क्यों नहीं भरते ? " कैंटीन में काफ़ी सिप करते हुए
तुमने तीसरी बार पूछा था ।
" नेहा ,
आई.ए.एस.
मेरे लिए नहीं है । " आख़िर मुझे कहना पड़ा
था । और तब तुमने कहा था , " पिताजी मेरे लिए आई. ए. एस.
लड़का ढूँढ़ रहे हैं ... "
बाहर पाशविक
अँधेरा तेज़ी से झरने लगता है । फ़्यूज़ बल्ब-सा
मैं चारपाई पर बुझा पड़ा रहता हूँ । । आज ढाबे में जा कर खाने का मन नहीं है ।
अनमने भाव से
एक और सिगरेट सुलगा लेता हूँ । सोचता हूँ , चारपाई से उठ
कर बिजली का लट्टू जला लूँ । फिर मन में आता है , कमरे में उजाला हो जाने से भी क्या फ़र्क पड़ेगा । मेरे भीतर उगे
नासूरों के जंगल में फैला
काले फ़ौलाद-सा घुप्प अँधेरा तो फिर भी वैसे ही जमा रहेगा । न जाने कब तक ।
सिगरेट
पीते-पीते गला सूखने लगता है । फिर भी लेता जाता हूँ
। कश पर कश ... कश पर कश । गोया खुद से बदला लेने की क़सम खा रखी हो ।
ओ नेहा ,
मेरी
आत्मा के चेहरे पर अपनी स्मृतियों की खरोंच के अमिट निशान छोड़ कर तुम कहाँ चली गई
?
... बहुत
पहले कभी एक आर्ट मूवी देखी थी । फ़िल्म की नायिका
बचपन में लगे किसी सदमे की वजह से पागल हो जाती है । अमीर माँ-बाप बच्ची को गाँव में दादी के पास छोड़ जाते हैं । फिर बच्ची जवान
हो जाती है । और ख़ूबसूरत भी । और नायक पहली
मुलाक़ात में ही उससे प्यार करने लगता है । और
एक दिन नायक अपने सच्चे प्रेम के बूते पर नायिका को ठीक कर देता है । और मानसिक रूप से स्वस्थ हो चुकी नायिका अपने पागलपन के दिनों
को भूल जाती
है
। और नायक अब उसके लिए एक अजनबी बन जाता है । फिर नायिका अपने माता-पिता के पास लौट जाती है । पर नायक इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता
है । और इस सदमे से वह पागल हो जाता है ...
गला कुछ
ज़्यादा ही सूखने लगता है । सिगरेट बुझा देता हूँ । रोना
चाहता हूँ । शायद सदियों से रोया नहीं हूँ । पर आँखों में आँसू का समुद्र बहुत पहले सूख चुका है । भीतर के खंडहर में रिक्तता की
आँधी साँय-साँय करने लगती है । तनहा मैं तड़प
उठता हूँ ।
मन कड़ा करके
उठ बैठता हूँ । फिर लाइट जलाता हूँ । आँखें कुछ
चौंधिया-सी जाती हैं । एक भटका हुआ चमगादड़ कमरे में घुस आया है । और बाहर निकलने के विफल प्रयत्न में बार-बार दीवारों से टकरा कर
सिर धुन रहा है । किसी तरह उसे खुली खिड़की
के रास्ते बाहर निकाल कर खिड़की बंद कर देता हूँ
।
मेज पर एक
लम्बे अंतराल के बाद घर से आया पत्र पड़ा है । उठा
कर एक बार फिर पढ़ डालता हूँ । पिता की तबीयत ठीक नहीं है । माँ का गठिया वैसा ही है । सुमी के हाथ पीले करने की चिंता पिता को
घुन-सी खाए जा रही है । पिछले तीन महीनों से
पिता को पेंशन नहीं मिली है । लिखा है -- ऐसा लड़का
किस काम का जो घर वालों को सहारा न दे सके ...
आँखें मूँद
कर एक लम्बी साँस लेता हूँ और बंद कर देता हूँ घर
से आई चिट्ठी । सारी दिशाएँ ग़लत लगने लगती हैं । बाहर कोई बौराया मुर्ग़ा असमय बाँग दे रहा है । कल गुप्ता को अख़बार के लिए
क्या फ़ीचर दूँगा , कुछ
नहीं सूझता । अब तो यह नौकरी भी छूट जाएगी । दिल में आता है , अँधेरे
से खूब बातें करूँ । उसे अपना दुखड़ा सुनाऊँ । या फिर किसी ऊँचे पहाड़ की चोटी से खुद को धक्का दे दूँ । लगता है जैसे भरी
दुपहरी में मेरे सूर्य को
ग्रहण लग गया है । जैसे मेरे जीवन की पतीली में रखा दूध फट गया है । जैसे मेरी पूरी ज़िंदगी बेहद अधूरी-सी है । जैसे मैं एक
मिसफ़िट बन कर रह गया हूँ । ठहरे हुए पानी पर
जमी काई बन कर रह गया
हूँ
। इंसान नहीं , कोई अदना-सा कीड़ा बन कर रह गया हूँ ...
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सुशांत सुप्रिय
A-5001, गौड़ ग्रीन सिटी ,वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ. प्र. )
मो: 8512070086
ई-मेल: sushant1968@gmail.com