मेरे गाँव का पोखरा' : आदमी के भीतर
आत्मविश्वास और संघर्ष की कविताएँ
डॉ. बदलेव पाण्डेय
नीलोत्पल रमेश की सद्य:प्रकाशित कविता-संकलन 'मेरे गाँव का पोखरा' ने पूरे ठसक के साथ
साहित्यिक मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज की
है । अमेजन पर उपलब्ध यह पुस्तक शीर्ष पचास पुस्तकों में शुमार रही जो किसी साहित्यकार की पहली पुस्तक के लिए एक बड़ी उपलब्धि है।इनकी
कविताओं में पर्यावरण के गहराते संकट को जहाँ
कोयलांचल की जमीनी सच्चाई के साथ चित्रित करने
का प्रयास किया है, वहीं सामाजिक विद्रुपताओं एवं राजनैतिक भ्रष्टाचार पर तीखा प्रहार किया गया है। प्रलेक प्रकाशन,मुंबई
से छपी इस कविता-संकलन की कुल - 67 लघु
कविताएं हमें आश्वस्त करती हैं कि विषम परिस्थितियों
के इस दौर में भी कवि-कर्म की प्रतिबद्धता सीमा के सिपाही से तनिक भी कमतर नहीं है -
"कविता वहाँ पहुँचती है
जहाँ हो रहा हो बलात्कार
हो रहा हो अन्याय
हो रहा हो अनैतिक काम
बेखटके पहुँचकर
संघर्ष के लिए
हो जाती है तैयार
प्रतिबद्ध सैनिक की तरह।"
नीलोत्पल रमेश की कविताएँ मजदूरों के शोषण, किसानों की बदहाली एवं महँगाई की मार झेलते निम्न मध्यवर्ग की लाचारी
को शिद्दत के साथ प्रस्तुत करती है। समाज के
निचले तबके के लोगों के शरीर और श्रम के शोषण
के खिलाफ बगावती तेवर रखने वाले नीलोत्पल रमेश की लेखनी ने समाज की शोषणकारी ताकतों के विरूद्ध एक अघोषित अंतहीन जंग छेड़ रखी है।
उनकी यह लड़ाई किसी राजनीतिक स्वार्थ से
प्रेरित नहीं है। उनकी कविताएँ गहन मानवीय संवेदना
की कोंख से उपजी है। उनकी लेखनी भीख माँगने वाली एक भिखारिन की लाचारी पर राजनैतिक मुहावरे वाली शैली में बात नहीं उठाती है।
कवि को भिखारिन और उसकी बेटी की भूख की चिंता
से बड़ी एक और चिंता खायी जा रही है -
"भिखारिन की बच्ची
जिसकी उम्र आठ-दस की रही होगी
किसी दिन किसी वहशी का शिकार हो सकती है
क्योंकि इसके जन्म की कथा भी
ऐसे ही किसी वहशी के द्वारा लिखी गयी होगी
जिसके बारे में, उसकी माँ भी
ठीक-ठीक नहीं बता सकती।"
नीलोत्पल रमेश लगभग तीन दशकों से हिंदी में सृजनशील रहे हैं।इनका अनुभव संसार अत्यंत विस्तृत रहा है। बिहार के एक
गाँव में जन्में और पले-बढ़े नीलोत्पल
रमेश विचार और संस्कार दोनों से खाँटी देशज हैं।
'घुरचिआह'
लोगों
से इनकी पटरी नहीं बैठती है और न ही हर दिन हर जगह 'मुखौटे'
बदलकर
खुद को पेश करने वालों के बीच इनका उठना-बैठना होता है। गँवई
संस्कार की सादगी इनकी लगभग हर कविता में मौजूद है, किंतु शोषण
के खिलाफ उभरी इनकी उग्रता जब भाषा की
मर्यादा को लांघती है तो कुर्सी पर बैठे व्यक्ति
के सारे शरीर में एक झुरझुरी पैदा कर देती है -
"ग्रेड दे हरामजादे!
और अपने चश्मे का नंबर
एक बार फिर जाँच करा ले
कितना बदल चुका है
और तुझे एहसास तक नहीं
कि इस चश्मे ने
कार्यकुशलता प्राप्त लोगों को
पहचानना ही छोड़ दिया है
अकुशल और चापलूस ही
अब इसकी पहचान बन गए हैं।"
नीलोत्पल रमेश की कविताओं में सत्ता की अव्वल दर्जे की संवेदनहीनता के बीच से उभरकर आने वाला जीवन-संघर्ष उनकी
बेवाक शैली में चित्रित हुआ
है। देश में युवाओं की बढ़ती बेरोजगारी और किसानों की सामूहिक आत्महत्याएँ अब राष्ट्रीय खबरें नहीं बनती हैं। झारखंड में
जंगल की लूट और जंगल के
कानून से गाँव के मजदूर किसान तबाह हैं। 'एक तरफ पुलिस,
दूसरी
तरफ पार्टी', 'एक तरफ कुआं
और दूसरी तरफ खाईं' वाली स्थिति में पिसते हुए गाँव के लड़के शहरों में खाक छानते फिर रहे हैं। एक ओर कोयला ढोने
वाली कंपनियों ने लूट मचा रखी है तो दूसरी ओर
विस्थापन का दंश झेलते साइकिल से कोयले की बोरी
ढोते तेरह-चौदह साल के बच्चों की रीढ़ की हड्डी कमान की तरह झुकी जा रही है।जिस दिन कोयला ढोने वाला वह लड़का गश्त लगाती पुलिस को
मनमाने पैसे नहीं दे पाता है,उस
दिन पीठ पर डंडों के दो-तीन निशान लेकर घर लौटता है -
"वह निकल पड़ता है तड़के ही
कोयले की बोरी से लदी
साइकिल को लेकर
ताकि दोपहर तक पहुंच सके राँची"
'मेरे गाँव का पोखरा' कविता-संकलन
ग्रामगंधी कविताओं से भरी पड़ी
है। इन कविताओं में आपको गाँव का जर्रा-जर्रा अपनी सोंधी महक के साथ मौजूद मिलेगा। आम के मंजर से महकती अमराइयाँ, कीचड़
में अंदर तक धँसी हुई धनरोपनी
करती औरतों की माँसल पिंडलियाँ ,उनकी खनकती हंसी-ठिठोली और रोपनी के गीतों के साथ संगीतमय हो उठा ग्रामांचल इन कविताओं
में आपको भरपूर जिंदगी के
साथ मिल जाएगा। लेकिन इस संदर्भ में खास बात ये है कि ये सारी कविताएं 'नास्टेल्जिक' अर्थात अतीत
राग में डूबी हुई हैं। गाँव अब गाँव नहीं
रह गया है। कवि को पीड़ा है कि कोस भर का पोखरा, अब पोखरी में
बदल चुका है। जिस मैदान में वह बचपन में
अपने साथियों के साथ चीका और कबड्डी खेला
करता था, वहां दबंग एवं स्वार्थी तत्वों ने अपना कब्जा जमा रखा है। जन-समुदाय की संकुचित होती जा रही मानसिकता के प्रतीक के रूप
में गाँव का पोखरा उभरकर सामने आया है –
"समय की मार
और लोगों की
संकुचित मानसिकता ने
इस पोखर को
पोखरी बना दिया है
जो दिनों-दिन
और सिकुड़ता जा रहा है।"
नीलोत्पल रमेश के लिए उनका गाँव, गाँव के लोग,
संयुक्त
परिवार के सदस्य, कोस भर साथ पैदल चलकर पढ़ने जाने वाले सहपाठी, सभी
समग्रता में एक इकाई हैं। यही गाँव जब अपना कलेवर बदलता है तो उसे काफी पीड़ा होती है। गाँव में बढ़ती कटुता और वैमनस्य, जाति
के नाम पर आरक्षण एवं वोट की
राजनीति से उपजे विद्वेष से आदमी और आदमी के बीच दूरी बढ़ती जा रही है। ऊपर से सारा गाँव उग्रवाद के आतंकी साये में जी रहा
है। 'गाँव से दोस्त का
पत्र' कविता में कवि कहता है -
"जहाँ हम तुम
खेलते थे कबड्डी और चीका
वहाँ पुलिस कैंप लगाए
गाँव की हर गतिविधियों पर
डाले रहती है नज़र
चैन की सांस लेना
मुहाल हो गया है अब
पूरे गाँव को।"
प्रेम और रूमानियत के साथ-साथ नीलोत्पल रमेश पारिवारिक संवेदना के कवि हैं। नौकरी के सिलसिले में एक लंबे
प्रवास की पीड़ा झेलते कवि के भीतर उसकी
माँ, भाई-बहन,पिता ही नहीं, सारे पुरजन
की यादें समायी हुई है। मां की सीख,
बहन
काह दुलार और भाइयों के साथ झिंगामस्ती
के वे सारे दिन इन कविताओं में कुछ इस प्रकार चित्रित हैं कि ये आपके बचपन की मीठी यादों को लेकर अतीतरागी बना देंगी। इसके
अलावे 'अजन्मी बेटियाँ'और
'बेटी
का पत्र माँ के नाम' जैसी मार्मिक कविताएँ भावुक कर देने वाली हैं।
नीलोत्पल रमेश उद्दाम जिजीविषा के कवि हैं क्योंकि इनके आदर्श दशरथ माँझी और दाना माँझी जैसे कर्मवीर महापुरुष
हैं। इनकी कविताएँ जिस परिवेश में साँसे
लेती हैं वहाँ जीवन की प्रतिकूलताओं के साथ निरंतर
चलने वाला संघर्ष जरूर है किंतु कहीं भी पराजय और हताशा नहीं है । इस परिवेश के पात्र कोयला के चट्टानों की तरह मजबूत शरीर और
मजबूत इरादों वाले हैं। संकलन की कविताएँ आदमी
के भीतर आत्मविश्वास और संघर्ष की चेतना जगाने
वाली सकारात्मक सोच वाली कविताएँ हैं।प्रलेक प्रकाशन ने इसका प्रकाशन बहुत ही सुंदर कलेवर में किया है जिसके लिए वो बधाई के पात्र
हैं । कुल मिलाकर यह संकलन पठनीय एवं
संग्रहणीय बन पाया है ।
'मेरे गाँव का पोखरा' - कविता-संग्रह
कवि - नीलोत्पल रमेश
प्रकाशक - प्रलेक प्रकाशन,मुंबई - 401303
मूल्य - 240/-रुपये, पृष्ठ - 152,वर्ष- 2020 ई.
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संपर्क :- डॉ. बलदेव पाण्डेय
मालती मिथिलेश रेसीडेंसी,फ्लैट संख्या
- 202
रामनगर, हजारीबाग - 825301(झारखंड)
मोबाइल नंबर - 9334662954