-तुम इतनी टूट चुकी हो ...?
तुम्हे सोचता हूँ
खोजता हूँ
हवा में , पानी में
पहाड़ों में, जंगलों में
मिट्टी में
तुम्हे पाता हूँ
हर बार टुकड़ों में
हे प्रकृति
तुम इतनी टूट चुकी हो ...
सिमटकर रह गई हो
सिर्फ किताबों में ..?
सिमटकर रह गई हो
सिर्फ किताबों में ..?
दूषित हो चुका है
जल ,वायु
मिट्टी खो चुकी है खुशबू
हार गए जंगल, लड़ते –लड़ते
तुम्हारे बनाये हुए इंसानों
से
क्या फिर कभी मिलोगी
अपने असली रूप में
हम इंसानों की
मौजूदगी में ?
मौजूदगी में ?
बहुत धन्यवाद चौहान जी
जवाब देंहटाएंमानव की उत्पत्ति के कारक की दयनीयता पर कवि की सघन संवेदना की अनुपम अभिव्यक्ति ....बधाई
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